Surah At-Taubah

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بَرَاۤءَةٌ مِّنَ اللّٰهِ وَرَسُوْلِهٖٓ اِلَى الَّذِيْنَ عَاهَدْتُّمْ مِّنَ الْمُشْرِكِيْنَۗ١
Barā'atum minallāhi wa rasūlihī ilal-lażīna ‘āhattum minal-musyrikīn(a).
[1] अल्लाह तथा उसके रसूल की ओर से, उन बहुदेववादियों से ज़िम्मेदारी से बरी होने की घोषणा है, जिनसे तुमने संधि की थी।1
1. यह सूरत सन 9 हिजरी में उतरी। जब नबी सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम मदीना पहुँचे तो आप ने अनेक जातियों से समझौता किया था। परंतु सभी ने समय-समय से समझौते का उल्लंघन किया। लेकिन आप (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) बराबर उसका पालन करते रहे। और अब यह घोषणा कर दी गई कि बहुदेववादियों से कोई समझौता नहीं रहेगा।

فَسِيْحُوْا فِى الْاَرْضِ اَرْبَعَةَ اَشْهُرٍ وَّاعْلَمُوْٓا اَنَّكُمْ غَيْرُ مُعْجِزِى اللّٰهِ ۙوَاَنَّ اللّٰهَ مُخْزِى الْكٰفِرِيْنَ٢
Fasīḥū fil-arḍi arba‘ata asyhuriw wa‘lamū annakum gairu mu‘jizillāh(i), wa anallāha mukhzil-kāfirīn(a).
[2] तो (ऐ बहुदेववादियो!) ! तुम धरती में चार महीने चलो-फिरो, तथा जान लो कि निःसंदेह तुम अल्लाह को विवश करने वाले नहीं, और यह कि निश्चय अल्लाह काफ़िरों को अपमानित करने वाला है।

وَاَذَانٌ مِّنَ اللّٰهِ وَرَسُوْلِهٖٓ اِلَى النَّاسِ يَوْمَ الْحَجِّ الْاَكْبَرِ اَنَّ اللّٰهَ بَرِيْۤءٌ مِّنَ الْمُشْرِكِيْنَ ەۙ وَرَسُوْلُهٗ ۗفَاِنْ تُبْتُمْ فَهُوَ خَيْرٌ لَّكُمْۚ وَاِنْ تَوَلَّيْتُمْ فَاعْلَمُوْٓا اَنَّكُمْ غَيْرُ مُعْجِزِى اللّٰهِ ۗوَبَشِّرِ الَّذِيْنَ كَفَرُوْا بِعَذَابٍ اَلِيْمٍۙ٣
Wa ażānum minallāhi wa rasūlihī ilan-nāsi yaumal-ḥajjil akbari annallāha barī'um minal-musyrikīn(a), wa rasūluh(ū), fa in tubtum fa huwa khairul lakum, wa in tawallaitum fa‘lamū annakum gairu mu‘jizillāh(i), wa basysyiril-lażīna kafarū bi‘ażābin alīm(in).
[3] तथा अल्लाह और उसके रसूल की ओर से, महा हज्ज2 के दिन, स्पष्ट घोषणा है कि अल्लाह बहुदेववादियों (मुश्रिकों) से अलग है तथा उसका रसूल भी। फिर यदि तुम तौबा कर लो, तो वह तुम्हारे लिए उत्तम है, और यदि तुम मुँह मोड़ो, तो जान लो कि निश्चय तुम अल्लाह को विवश करने वाले नहीं, और जिन लोगों ने कुफ़्र किया, उन्हें दुखदायी यातना की शुभ सूचना दे दो।
2. यह एलान ज़ुल-ह़िज्जा सन् (10) हिजरी को मिना में किया गया कि अब काफ़िरों से कोई संधि नहीं रहेगी। इस वर्ष के बाद कोई मुश्रिक ह़ज्ज नहीं करेगा और न कोई काबा का नंगा तवाफ़ करेगा। (बुख़ारी : 4655)

اِلَّا الَّذِيْنَ عَاهَدْتُّمْ مِّنَ الْمُشْرِكِيْنَ ثُمَّ لَمْ يَنْقُصُوْكُمْ شَيْـًٔا وَّلَمْ يُظَاهِرُوْا عَلَيْكُمْ اَحَدًا فَاَتِمُّوْٓا اِلَيْهِمْ عَهْدَهُمْ اِلٰى مُدَّتِهِمْۗ اِنَّ اللّٰهَ يُحِبُّ الْمُتَّقِيْنَ٤
Illal-lażīna ‘āhattum minal-musyrikīna ṡumma lam yanquṣūkum syai'aw wa lam yuẓāhirū ‘alaikum aḥadan fa atimmū ilaihim ‘ahdahum ilā muddatihim, innallāha yuḥibbul-muttaqīn(a).
[4] सिवाय उन मुश्रिकों के, जिनसे तुमने संधि की, फिर उन्होंने तुम्हारे साथ (संधि के पालन में) कोई कमी नहीं की और न तुम्हारे विरुद्ध किसी की सहायता की, तो उनके साथ उनकी संधि को उनकी अवधि तक पूरी करो। निश्चय अल्लाह डर रखने वालों से प्रेम करता है।

فَاِذَا انْسَلَخَ الْاَشْهُرُ الْحُرُمُ فَاقْتُلُوا الْمُشْرِكِيْنَ حَيْثُ وَجَدْتُّمُوْهُمْ وَخُذُوْهُمْ وَاحْصُرُوْهُمْ وَاقْعُدُوْا لَهُمْ كُلَّ مَرْصَدٍۚ فَاِنْ تَابُوْا وَاَقَامُوا الصَّلٰوةَ وَاٰتَوُا الزَّكٰوةَ فَخَلُّوْا سَبِيْلَهُمْۗ اِنَّ اللّٰهَ غَفُوْرٌ رَّحِيْمٌ٥
Fa iżansalakhal-asyhurul-ḥurumu faqtulul-musyrikīna ḥaiṡu wajattumūhum wa khużūhum waḥṣurūhum waq‘udū lahum kulla marṣad(in), fa in tābū wa aqāmuṣ-ṣalāta wa ātawuz-zakāta fa khallū sabīlahum, innallāha gafūrur raḥīm(un).
[5] अतः जब सम्मानित महीने बीत जाएँ, तो बहुदेववादियों (मुश्रिकों) को जहाँ पाओ, क़त्ल करो और उन्हें पकड़ो और उन्हें घेरो3 और उनके लिए हर घात की जगह बैठो। फिर यदि वे तौबा कर लें और नमाज़ क़ायम करें तथा ज़कात दें, तो उनका रास्ता छोड़ दो। निःसंदेह अल्लाह अति क्षमाशील, अत्यंत दयावान् है।
3. यह आदेश मक्का के मुश्रिकों के बारे में दिया गया है, जो इस्लाम के विरोधी थे और मुसलमानों पर आक्रमण कर रहे थे।

وَاِنْ اَحَدٌ مِّنَ الْمُشْرِكِيْنَ اسْتَجَارَكَ فَاَجِرْهُ حَتّٰى يَسْمَعَ كَلٰمَ اللّٰهِ ثُمَّ اَبْلِغْهُ مَأْمَنَهٗ ۗذٰلِكَ بِاَنَّهُمْ قَوْمٌ لَّا يَعْلَمُوْنَ ࣖ٦
Wa in aḥadum minal-musyrikīnastajāraka fa ajirhu ḥattā yasma‘a kalāmallāhi ṡumma ablighu ma'manah(ū), żālika bi'annahum qaumul lā ya‘lamūn(a).
[6] और यदि मुश्रिकों में से कोई तुमसे शरण माँगे, तो उसे शरण दे दो, यहाँ तक कि वह अल्लाह की वाणी सुने। फिर उसे उसके सुरक्षित स्थान तक पहुँचा दो। यह इसलिए कि निःसंदेह वे ऐसे लोग हैं, जो ज्ञान नहीं रखते।

كَيْفَ يَكُوْنُ لِلْمُشْرِكِيْنَ عَهْدٌ عِنْدَ اللّٰهِ وَعِنْدَ رَسُوْلِهٖٓ اِلَّا الَّذِيْنَ عَاهَدْتُّمْ عِنْدَ الْمَسْجِدِ الْحَرَامِۚ فَمَا اسْتَقَامُوْا لَكُمْ فَاسْتَقِيْمُوْا لَهُمْ ۗاِنَّ اللّٰهَ يُحِبُّ الْمُتَّقِيْنَ٧
Kaifa yakūnu lil-musyrikīna ‘ahdun ‘indallāhi wa ‘inda rasūlihī illal-lażīna ‘āhattum ‘indal-masjidil-ḥarām(i), famastaqāmū lakum fastaqīmū lahum, innallāha yuḥibbul-muttaqīn(a).
[7] इन मुश्रिकों (बहुदेववादियों) की अल्लाह और उसके रसूल के पास कोई संधि कैसे हो सकती है, सिवाय उनके जिनसे तुमने सम्मानित मस्जिद (काबा) के पास संधि की4 थी? तो जब तक वे तुम्हारे लिए (वचन पर) क़ायम रहें, तो तुम भी उनके लिए क़ायम रहो। निःसंदेह अल्लाह परहेज़गारों से प्रेम करता है।
4. इससे अभिप्रेत ह़ुदैबिया की संधि है, जो सन् (6) हिजरी में हुई थी। जिसे काफ़िरों ने तोड़ दिया। और यही सन् (8) हिजरी में मक्का के विजय का कारण बना।

كَيْفَ وَاِنْ يَّظْهَرُوْا عَلَيْكُمْ لَا يَرْقُبُوْا فِيْكُمْ اِلًّا وَّلَا ذِمَّةً ۗيُرْضُوْنَكُمْ بِاَفْوَاهِهِمْ وَتَأْبٰى قُلُوْبُهُمْۚ وَاَكْثَرُهُمْ فٰسِقُوْنَۚ٨
Kaifa wa iy yaẓharū ‘alaikum lā yarqubū fīkum illaw wa lā żimmah(tan), yurḍūnakum bi'afwāhihim wa ta'bā qulūbuhum, wa akṡaruhum fāsiqūn(a).
[8] (उन लोगों की संधि) कैसे संभव है, जबकि वे यदि तुमपर अधिकार पा जाएँ, तो तुम्हारे विषय में न किसी रिश्तेदारी का सम्‍मान करेंगे और न किसी वचन का। वे तुम्हें अपने मुखों से प्रसन्न करते हैं, जबकि उनके दिल इनकार करते हैं और उनमें से अधिकांश अवज्ञाकारी हैं।

اِشْتَرَوْا بِاٰيٰتِ اللّٰهِ ثَمَنًا قَلِيْلًا فَصَدُّوْا عَنْ سَبِيْلِهٖۗ اِنَّهُمْ سَاۤءَ مَاكَانُوْا يَعْمَلُوْنَ٩
Isytarau bi'āyātillāhi ṡaman qalīlan fa ṣaddū ‘an sabīlih(ī), innahum sā'a mā kānū ya‘malūn(a).
[9] उन्होंने अल्लाह की आयतों के बदले थोड़ा-सा मूल्य ले लिया5, फिर उन्होंने अल्लाह की राह (इस्लाम) से रोका। निःसंदेह बुरा है, जो वे करते रहे हैं।
5. अर्थात सांसारिक स्वार्थ के लिए सत्धर्म इस्लाम को नहीं माना।

لَا يَرْقُبُوْنَ فِيْ مُؤْمِنٍ اِلًّا وَّلَا ذِمَّةً ۗوَاُولٰۤىِٕكَ هُمُ الْمُعْتَدُوْنَ١٠
Lā yarqubūna fī mu'minin illaw wa lā żimmah(tan),ulā'ika humul-mu‘tadūn(a)
[10] वे किसी ईमान वाले के बारे में न किसी रिश्तेदारी का सम्मान करते हैं और न किसी वचन का, और यही लोग सीमाओं का उल्लंघन करने वाले हैं।

فَاِنْ تَابُوْا وَاَقَامُوا الصَّلٰوةَ وَاٰتَوُا الزَّكٰوةَ فَاِخْوَانُكُمْ فِى الدِّيْنِ ۗوَنُفَصِّلُ الْاٰيٰتِ لِقَوْمٍ يَّعْلَمُوْنَ١١
Fa in tābū wa aqāmuṣ-ṣalāta wa ātawuz-zakāta fa ikhwānukum fid-dīn(i), wa nufaṣṣīlul-āyāti liqaumiy ya‘lamūn(a).
[11] अतः यदि वे तौबा कर लें और नमाज़ क़ायम करें और ज़कात दें, तो धर्म में तुम्हारे भाई हैं। और हम उन लोगों के लिए आयतें खोलकर बयान करते हैं, जो जानते हैं।

وَاِنْ نَّكَثُوْٓا اَيْمَانَهُمْ مِّنْۢ بَعْدِ عَهْدِهِمْ وَطَعَنُوْا فِيْ دِيْنِكُمْ فَقَاتِلُوْٓا اَىِٕمَّةَ الْكُفْرِۙ اِنَّهُمْ لَآ اَيْمَانَ لَهُمْ لَعَلَّهُمْ يَنْتَهُوْنَ١٢
Wa in nakaṡū aimānahum mim ba‘di ‘ahdihim wa ṭa‘anū fī dīnikum fa qātilū a'immatal-kufr(i), innahum lā aimāna lahum la‘allahum yantahūn(a).
[12] और यदि वे अपने वचन के बाद अपनी क़समें तोड़ दें और तुम्हारे धर्म की निंदा करें, तो कुफ़्र के प्रमुखों से युद्ध करो। क्योंकि उनकी क़समों का कोई विश्वास नहीं। ताकि वे (अत्याचार से) रुक जाएँ।

اَلَا تُقَاتِلُوْنَ قَوْمًا نَّكَثُوْٓا اَيْمَانَهُمْ وَهَمُّوْا بِاِخْرَاجِ الرَّسُوْلِ وَهُمْ بَدَءُوْكُمْ اَوَّلَ مَرَّةٍۗ اَتَخْشَوْنَهُمْ ۚفَاللّٰهُ اَحَقُّ اَنْ تَخْشَوْهُ اِنْ كُنْتُمْ مُّؤْمِنِيْنَ١٣
Alā tuqātilūna qauman nakaṡū aimānahum wa hammū bi'ikhrājir-rasūli wa hum bada'ūkum awwala marrah(tin), atakhsyaunahum, fallāhu aḥaqqu an takhsyauhu in kuntum mu'minīn(a).
[13] क्या तुम उन लोगों से नहीं लड़ोगे, जिन्होंने अपनी क़समें तोड़ दीं और रसूल को निकालने का इरादा किया, और उन्होंने ही तुमसे युद्ध का आरंभ किया है? क्या तुम उनसे डरते हो? तो अल्लाह अधिक हक़दार है कि तुम उससे डरो, यदि तुम ईमानवाले6 हो।
6. आयत संख्या 7 से लेकर 13 तक यह बताया गया है कि शत्रु ने निरंतर संधि को तोड़ा है। और तुम्हें युद्ध के लिए बाध्य कर दिया है। अब उनके अत्याचार और आक्रमण को रोकने का यही उपाय रह गया है कि उनसे युद्ध किया जाए।

قَاتِلُوْهُمْ يُعَذِّبْهُمُ اللّٰهُ بِاَيْدِيْكُمْ وَيُخْزِهِمْ وَيَنْصُرْكُمْ عَلَيْهِمْ وَيَشْفِ صُدُوْرَ قَوْمٍ مُّؤْمِنِيْنَۙ١٤
Qātilūhum yu‘ażżibhumullāhu bi'aidīkum wa yukhzihim wa yanṣurkum ‘alaihim wa yasyfi ṣudūra qaumim mu'minīn(a).
[14] उनसे युद्ध करो, अल्लाह उन्हें तुम्हारे हाथों से सज़ा देगा और उन्हें अपमानित करेगा और उनके विरुद्ध तुम्हारी सहायता करेगा और ईमान वालों के दिलों को ठंडा करेगा।

وَيُذْهِبْ غَيْظَ قُلُوْبِهِمْۗ وَيَتُوْبُ اللّٰهُ عَلٰى مَنْ يَّشَاۤءُۗ وَاللّٰهُ عَلِيْمٌ حَكِيْمٌ١٥
Wa yużhib gaiẓa qulūbihim, wa yatūbullāhu ‘alā may yasyā'(u), wallāhu ‘alīmun ḥakīm(un).
[15] और उनके दिलों के क्रोध को दूर कर देगा और जिसकी चाहेगा, तौबा क़बूल करेगा और अल्लाह सब कुछ जानने वाला, पूर्ण हिकमत वाला है।

اَمْ حَسِبْتُمْ اَنْ تُتْرَكُوْا وَلَمَّا يَعْلَمِ اللّٰهُ الَّذِيْنَ جَاهَدُوْا مِنْكُمْ وَلَمْ يَتَّخِذُوْا مِنْ دُوْنِ اللّٰهِ وَلَا رَسُوْلِهٖ وَلَا الْمُؤْمِنِيْنَ وَلِيْجَةً ۗوَاللّٰهُ خَبِيْرٌۢ بِمَا تَعْمَلُوْنَ ࣖ١٦
Am ḥasibtum an tutrakū wa lammā ya‘lamillāhul-lażīna jāhadū minkum wa lam yattakhiżū min dūnillāhi wa lā rasūlihī wa lal-mu'minīna walījah(tan), wallāhu khabīrum bimā ta‘malūn(a).
[16] क्या तुमने समझ रखा है कि तुम यूँ ही छोड़ दिए जाओगे, हालाँकि अभी तक अल्लाह ने उन लोगों को नहीं जाना ही, जिन्होंने तुममें से जिहाद किया तथा अल्लाह और उसके रसूल और ईमान वालों के सिवाय किसी को भेदी मित्र नहीं बनाया? और अल्लाह उससे अच्छी तरह सूचित है, जो तुम कर रहे हो।

مَا كَانَ لِلْمُشْرِكِيْنَ اَنْ يَّعْمُرُوْا مَسٰجِدَ اللّٰهِ شٰهِدِيْنَ عَلٰٓى اَنْفُسِهِمْ بِالْكُفْرِۗ اُولٰۤىِٕكَ حَبِطَتْ اَعْمَالُهُمْۚ وَ فِى النَّارِ هُمْ خٰلِدُوْنَ١٧
Mā kāna lil-musyrikīna ay ya‘murū masājidallāhi syāhidīna ‘alā anfusihim bil-kufr(i), ulā'ika ḥabiṭat a‘māluhum, wa fin-nāri hum khālidūn(a).
[17] मुश्रिकों (बहुदेववादियों) के लिए योग्य नहीं कि वे अल्लाह की मस्जिदों को आबाद करें, जबकि वे स्वयं अपने विरुद्ध कुफ़्र की गवाही देने वाले हैं। ये वही हैं जिनके कर्म व्यर्थ हो गए और वे आग ही में सदा के लिए रहने वाले हैं।

اِنَّمَا يَعْمُرُ مَسٰجِدَ اللّٰهِ مَنْ اٰمَنَ بِاللّٰهِ وَالْيَوْمِ الْاٰخِرِ وَاَقَامَ الصَّلٰوةَ وَاٰتَى الزَّكٰوةَ وَلَمْ يَخْشَ اِلَّا اللّٰهَ ۗفَعَسٰٓى اُولٰۤىِٕكَ اَنْ يَّكُوْنُوْا مِنَ الْمُهْتَدِيْنَ١٨
Innamā ya‘muru masājidallāhi man āmana billāhi wal-yaumil-ākhiri wa aqāmaṣ-ṣalāta wa ātaz-zakāta wa lam yakhsya illallāh(a), fa ‘asā ulā'ika ay yakūnū minal-muhtadīn(a).
[18] अल्लाह की मस्जिदें तो वही आबाद करता है, जो अल्लाह पर और अंतिम दिन (क़ियामत) पर ईमान लाया, तथा उसने नमाज़ क़ायम की और ज़कात दी और अल्लाह के सिवा किसी से नहीं डरा। तो ये लोग आशा है कि मार्ग दर्शन पाने वालों में से होंगे।

۞ اَجَعَلْتُمْ سِقَايَةَ الْحَاۤجِّ وَعِمَارَةَ الْمَسْجِدِ الْحَرَامِ كَمَنْ اٰمَنَ بِاللّٰهِ وَالْيَوْمِ الْاٰخِرِ وَجَاهَدَ فِيْ سَبِيْلِ اللّٰهِ ۗ لَا يَسْتَوٗنَ عِنْدَ اللّٰهِ ۗوَاللّٰهُ لَا يَهْدِى الْقَوْمَ الظّٰلِمِيْنَۘ١٩
Aja‘altum siqāyatal-ḥājji wa ‘imāratal-masjidil-ḥarāmi kaman āmana billāhi wal-yaumil-ākhiri wa jāhada fī sabīlillāh(i), lā yastawūna ‘indallāh(i), wallāhu lā yahdil-qaumaẓ-ẓālimīn(a).
[19] क्या तुमने हाजियों को पानी पिलाना और मस्जिद-ए-हराम को आबाद करना, उसके जैसा बना दिया जो अल्लाह और अंतिम दिन पर ईमान लाया और उसने अल्लाह की राह में जिहाद किया? ये अल्लाह के यहाँ बराबर नहीं हैं तथा अल्लाह अत्याचारी लोगों को मार्ग नहीं दिखाता।

اَلَّذِيْنَ اٰمَنُوْا وَهَاجَرُوْا وَجَاهَدُوْا فِيْ سَبِيْلِ اللّٰهِ بِاَمْوَالِهِمْ وَاَنْفُسِهِمْۙ اَعْظَمُ دَرَجَةً عِنْدَ اللّٰهِ ۗوَاُولٰۤىِٕكَ هُمُ الْفَاۤىِٕزُوْنَ٢٠
Allażīna āmanū wa hājarū wa jāhadū fī sabīlillāhi bi'amwālihim wa anfusihim, a‘ẓamu darajatan ‘indallāh(i), wa ulā'ika humul-fā'izūn(a).
[20] जो लोग ईमान लाए तथा हिजरत की और अल्लाह की राह में अपने धनों और अपने प्राणों के साथ जिहाद किया, अल्लाह के यहाँ पद में अधिक बड़े हैं और वही लोग सफल हैं।

يُبَشِّرُهُمْ رَبُّهُمْ بِرَحْمَةٍ مِّنْهُ وَرِضْوَانٍ وَّجَنّٰتٍ لَّهُمْ فِيْهَا نَعِيْمٌ مُّقِيْمٌۙ٢١
Yubasysyiruhum rabbuhum biraḥmatim minhu wa riḍwāniw wa jannātil lahum fīhā na‘īmum muqīm(un).
[21] उनका पालनहार उन्हें अपनी ओर से दया और प्रसन्नता तथा ऐसे बाग़ों की शुभ सूचना देता है, जिनमें उनके लिए शाश्वत आनंद है।

خٰلِدِيْنَ فِيْهَآ اَبَدًا ۗاِنَّ اللّٰهَ عِنْدَهٗٓ اَجْرٌ عَظِيْمٌ٢٢
Khālidīna fīhā abadā(n), innallāha ‘indahū ajrun ‘aẓīm(un).
[22] जिनमें वे हमेशा रहने वाले हैं। निःसंदेह अल्लाह ही के पास बड़ा बदला है।

يٰٓاَيُّهَا الَّذِيْنَ اٰمَنُوْا لَا تَتَّخِذُوْٓا اٰبَاۤءَكُمْ وَاِخْوَانَكُمْ اَوْلِيَاۤءَ اِنِ اسْتَحَبُّوا الْكُفْرَ عَلَى الْاِيْمَانِۗ وَمَنْ يَّتَوَلَّهُمْ مِّنْكُمْ فَاُولٰۤىِٕكَ هُمُ الظّٰلِمُوْنَ٢٣
Yā ayyuhal-lażīna āmanū lā tattakhiżū ābā'akum wa ikhwānakum auliyā'a inistaḥabbul-kufra ‘alal-īmān(i), wa may yatawallahum minkum fa ulā'ika humuẓ-ẓālimūn(a).
[23] ऐ ईमान वालो! अपने बापों और अपने भाइयों को दोस्त न बनाओ, यदि वे ईमान की अपेक्षा कुफ़्र से प्रेम करें, और तुममें से जो व्यक्ति उनसे दोस्ती रखेगा, तो वही लोग अत्याचारी हैं।

قُلْ اِنْ كَانَ اٰبَاۤؤُكُمْ وَاَبْنَاۤؤُكُمْ وَاِخْوَانُكُمْ وَاَزْوَاجُكُمْ وَعَشِيْرَتُكُمْ وَاَمْوَالُ ِۨاقْتَرَفْتُمُوْهَا وَتِجَارَةٌ تَخْشَوْنَ كَسَادَهَا وَمَسٰكِنُ تَرْضَوْنَهَآ اَحَبَّ اِلَيْكُمْ مِّنَ اللّٰهِ وَرَسُوْلِهٖ وَجِهَادٍ فِيْ سَبِيْلِهٖ فَتَرَبَّصُوْا حَتّٰى يَأْتِيَ اللّٰهُ بِاَمْرِهٖۗ وَاللّٰهُ لَا يَهْدِى الْقَوْمَ الْفٰسِقِيْنَ ࣖ٢٤
Qul in kāna ābā'ukum wa abnā'ukum wa ikhwānukum wa azwājukum wa ‘asyīratukum wa amwāluniqtaraftumūhā wa tijāratun takhsyauna kasādahā wa masākinu tarḍaunahā aḥabba ilaikum minallāhi wa rasūlihī wa jihādin fī sabīlihī fa tarabbaṣū ḥattā ya'tiyallāhu bi'amrih(ī), wallāhu lā yahdil-qaumal-fāsiqīn(a).
[24] (ऐ नबी!) कह दो कि यदि तुम्हारे बाप और तुम्हारे बेटे और तुम्हारे भाई और तुम्हारी पत्नियाँ और तुम्हारे परिवार और (वे) धन जो तुमने कमाए हैं और (वह) व्यापार जिसके मंदा होने से तुम डरते हो तथा रहने के घर जिन्हें तुम पसंद करते हो, तुम्हें अल्लाह तथा उसके रसूल और अल्लाह की राह में जिहाद करने से अधिक प्रिय हैं, तो प्रतीक्षा करो, यहाँ तक कि अल्लाह अपना हुक्म ले आए और अल्लाह अवज्ञाकारियों को मार्ग नहीं दिखाता।

لَقَدْ نَصَرَكُمُ اللّٰهُ فِيْ مَوَاطِنَ كَثِيْرَةٍۙ وَّيَوْمَ حُنَيْنٍۙ اِذْ اَعْجَبَتْكُمْ كَثْرَتُكُمْ فَلَمْ تُغْنِ عَنْكُمْ شَيْـًٔا وَّضَاقَتْ عَلَيْكُمُ الْاَرْضُ بِمَا رَحُبَتْ ثُمَّ وَلَّيْتُمْ مُّدْبِرِيْنَۚ٢٥
Laqad naṣarakumullāhu fī mawāṭina kaṡīrah(tin), wa yauma ḥunain(in), iż a‘jabatkum kaṡratukum falam tugni ‘ankum syai'aw wa ḍāqat ‘alaikumul-arḍu bimā raḥubat ṡumma wallaitum mudbirīn(a).
[25] निःसंदेह अल्लाह ने बहुत-से स्थानों पर तुम्हारी सहायता की तथा हुनैन7 के दिन भी, जब तुम्हारी बहुतायत ने तुम्हें आत्ममुग्ध बना दिया, फिर वह तुम्हारे कुछ काम न आई तथा तुमपर धरती अपने विस्तार के उपरांत तंग हो गई, फिर तुम पीठ फेरते हुए लौट गए।
7. "ह़ुनैन" मक्का तथा ताइफ़ के बीच एक वादी है। वहीं पर यह युद्ध सन् 8 हिजरी में मक्का की विजय के पश्चात् हुआ। आपको मक्का में यह सूचना मिली के हवाज़िन और सक़ीफ़ के क़बीले मक्का पर आक्रमण करने की तैयारियाँ कर रहे हैं। जिसपर आप बारह हज़ार की सेना लेकर निकले। जबकि शत्रु की संख्या केवल चार हज़ार थी। फिर भी उन्होंने अपनी तीरों से मुसलमानों का मुँह फेर दिया। नबी सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम और आपके कुछ साथी रणक्षेत्र में डटे रहे। अंततः फिर इस्लामी सेना ने व्यवस्थित होकर विजय प्राप्त की। (इब्ने कसीर)

ثُمَّ اَنْزَلَ اللّٰهُ سَكِيْنَتَهٗ عَلٰى رَسُوْلِهٖ وَعَلَى الْمُؤْمِنِيْنَ وَاَنْزَلَ جُنُوْدًا لَّمْ تَرَوْهَا وَعَذَّبَ الَّذِيْنَ كَفَرُوْاۗ وَذٰلِكَ جَزَاۤءُ الْكٰفِرِيْنَ٢٦
Ṡumma anzalallāhu sakīnatahū ‘alā rasūlihī wa ‘alal-mu'minīna wa anzala junūdal lam tarauhā wa ‘ażżabal-lażīna kafarū, wa żālika jazā'ul-kāfirīn(a).
[26] फिर अल्लाह ने अपने रसूल पर और ईमानवालों पर अपनी शांति उतारी, और ऐसी सेनाएँ उतारीं जिन्हें तुमने नहीं देखा8, और उन लोगों को दंड दिया जिन्होंने कुफ़्र किया, और यही काफ़िरों का बदला है।
8. अर्थात फ़रिश्ते भी उतारे गए जो मुसलमानों के साथ मिलकर काफ़िरों से जिहाद कर रहे थे। जिनके कारण मुसलमान विजयी हुए और काफ़िरों को बंदी बना लिया गया, जिनको बाद में मुक्त कर दिया गया।

ثُمَّ يَتُوْبُ اللّٰهُ مِنْۢ بَعْدِ ذٰلِكَ عَلٰى مَنْ يَّشَاۤءُۗ وَاللّٰهُ غَفُوْرٌ رَّحِيْمٌ٢٧
Ṡumma yatūbullāhu mim ba‘di żālika ‘alā may yasyā'(u), wallāhu gafūrur raḥīm(un).
[27] फिर इसके बाद अल्लाह जिसकी चाहेगा, तौबा क़बूल9 करेगा। और अल्लाह अति क्षमाशील, अत्यंत दयावान है।
9. अर्थात उसके सत्धर्म इस्लाम को स्वीकार कर लेने के कारण।

يٰٓاَيُّهَا الَّذِيْنَ اٰمَنُوْٓا اِنَّمَا الْمُشْرِكُوْنَ نَجَسٌ فَلَا يَقْرَبُوا الْمَسْجِدَ الْحَرَامَ بَعْدَ عَامِهِمْ هٰذَا ۚوَاِنْ خِفْتُمْ عَيْلَةً فَسَوْفَ يُغْنِيْكُمُ اللّٰهُ مِنْ فَضْلِهٖٓ اِنْ شَاۤءَۗ اِنَّ اللّٰهَ عَلِيْمٌ حَكِيْمٌ٢٨
Yā ayyuhal-lażīna āmanū innamal-musyrikūna najasun falā yaqrabul-masjidal-ḥarāma ba‘da ‘āmihim hāżā, wa in khiftum ‘ailatan fa saufa yugnīkumullāhu min faḍlihī in syā'(a), innallāha ‘alīmun ḥakīm(un).
[28] ऐ ईमान लाने वालो! निःसंदेह बहुदेववादी अशुद्ध हैं। अतः वे इस वर्ष10 के बाद मस्जिद-ए-हराम के पास न आएँ। और यदि तुम किसी प्रकार की गरीबी से डरते11 हो, तो अल्लाह जल्द ही तुम्हें अपनी कृपा से समृद्ध करेगा, यदि उसने चाहा। निःसंदेह अल्लाह सब कुछ जानने वाला, पूर्ण हिकमत वाला है।
10. अर्थात सन् 9 हिजरी के पश्चात्। 11. अर्थात उनसे व्यापार न करने के कारण। अशुद्ध होने का अर्थ शिर्क के कारण मन की अशुद्धता है। (इब्ने कसीर)

قَاتِلُوا الَّذِيْنَ لَا يُؤْمِنُوْنَ بِاللّٰهِ وَلَا بِالْيَوْمِ الْاٰخِرِ وَلَا يُحَرِّمُوْنَ مَا حَرَّمَ اللّٰهُ وَرَسُوْلُهٗ وَلَا يَدِيْنُوْنَ دِيْنَ الْحَقِّ مِنَ الَّذِيْنَ اُوْتُوا الْكِتٰبَ حَتّٰى يُعْطُوا الْجِزْيَةَ عَنْ يَّدٍ وَّهُمْ صٰغِرُوْنَ ࣖ٢٩
Qātilul-lażīna lā yu'minūna billāhi wa lā bil-yaumil-ākhiri wa lā yuḥarrimūna mā ḥarramallāhu wa rasūluhū wa lā yadīnūna dīnal-ḥaqqi minal-lażīna ūtul-kitāba ḥattā yu‘ṭul-jizyata ‘ay yadiw wa hum ṣāgirūn(a).
[29] (ऐ ईमान वालो!) उन किताब वालों से युद्ध करो, जो न अल्लाह पर ईमान रखते हैं और न अंतिम दिन (क़ियामत) पर, और न उसे हराम समझते हैं, जिसे अल्लाह और उसके रसूल ने हराम (वर्जित) किया है और न सत्धर्म को अपनाते हैं, यहाँ तक कि वे अपमानित होकर अपने हाथ से जिज़या दें।

وَقَالَتِ الْيَهُوْدُ عُزَيْرُ ِۨابْنُ اللّٰهِ وَقَالَتِ النَّصٰرَى الْمَسِيْحُ ابْنُ اللّٰهِ ۗذٰلِكَ قَوْلُهُمْ بِاَفْوَاهِهِمْۚ يُضَاهِـُٔوْنَ قَوْلَ الَّذِيْنَ كَفَرُوْا مِنْ قَبْلُ ۗقَاتَلَهُمُ اللّٰهُ ۚ اَنّٰى يُؤْفَكُوْنَ٣٠
Wa qālatil-yahūdu ‘uzairunibnullāhi wa qālatin-naṣāral-masīḥubnullāh(i), żālika qauluhum bi'afwāhihim, yuḍāhi'ūna qaulal-lażīna kafarū min qabl(u), qātalahumullāh(u), annā yu'fakūn(a).
[30] तथा यहूदियों ने कहा कि उज़ैर अल्लाह का पुत्र है और ईसाइयों ने कहा कि मसीह अल्लाह का पुत्र है। ये उनके अपने मुँह की बातें हैं। वे उन लोगों जैसी बातें कर रहे हैं, जिन्होंने इनसे पहले कुफ़्र किया। उनपर अल्लाह की मार हो! वे कहाँ बहकाए जा रहे हैं?

اِتَّخَذُوْٓا اَحْبَارَهُمْ وَرُهْبَانَهُمْ اَرْبَابًا مِّنْ دُوْنِ اللّٰهِ وَالْمَسِيْحَ ابْنَ مَرْيَمَۚ وَمَآ اُمِرُوْٓا اِلَّا لِيَعْبُدُوْٓا اِلٰهًا وَّاحِدًاۚ لَآ اِلٰهَ اِلَّا هُوَۗ سُبْحٰنَهٗ عَمَّا يُشْرِكُوْنَ٣١
Ittakhażū aḥbārahum wa ruhbānahum arbābam min dūnillāhi wal-masīḥabna maryam(a), wa mā umirū illā liya‘budū ilāhaw wāḥidā(n), lā ilāha illā huw(a), subḥānahū ‘ammā yusyrikūn(a).
[31] उन्होंने अपने विद्वानों और अपने दरवेशों को अल्लाह के सिवा रब बना12 लिया तथा मरयम के पुत्र मसीह को (भी)। हालाँकि, उन्हें इसके सिवा आदेश नहीं दिया गया था कि वे एक पूज्य की इबादत करें, उसके सिवा कोई सच्चा पूज्य नहीं। वह उससे पवित्र है, जो वे साझी बनाते हैं।
12. ह़दीस में है कि उनके किसी चीज़ को हलाल ठहराने को हलाल समझना और किसी चीज़ को हराम ठहराने को हराम समझना ही उनको पूज्य बनाना था। (तिरमिज़ी : 3095, यह ह़दीस हसन है।)

يُرِيْدُوْنَ اَنْ يُّطْفِـُٔوْا نُوْرَ اللّٰهِ بِاَفْوَاهِهِمْ وَيَأْبَى اللّٰهُ اِلَّآ اَنْ يُّتِمَّ نُوْرَهٗ وَلَوْ كَرِهَ الْكٰفِرُوْنَ٣٢
Yurīdūna ay yuṭfi'ū nūrallāhi bi'afwāhihim wa ya'ballāhu illā ay yutimma nūrahū wa lau karihal-kāfirūn(a).
[32] वे चाहते हैं कि अल्लाह के प्रकाश को अपने मुँह से से बुझा13 दें, हालाँकि अल्लाह अपने प्रकाश को पूरा किए बिना नहीं रहेगा, भले ही काफिरों को बुरा लगे।
13. आयत का अर्थ यह है कि यहूदी, ईसाई तथा काफ़िर स्वयं तो कुपथ पर हैं ही, वे सत्धर्म इस्लाम से रोकने के लिए भी धोखा-धड़ी से काम लेते हैं, जिसमें वह कदापि सफल नहीं होंगे।

هُوَ الَّذِيْٓ اَرْسَلَ رَسُوْلَهٗ بِالْهُدٰى وَدِيْنِ الْحَقِّ لِيُظْهِرَهٗ عَلَى الدِّيْنِ كُلِّهٖۙ وَلَوْ كَرِهَ الْمُشْرِكُوْنَ٣٣
Huwal-lażī arsala rasūlahū bil-hudā wa dīnil-ḥaqqi liyuẓhirahū ‘alad-dīni kullih(ī), wa lau karihal-musyrikūn(a).
[33] वही है जिसने अपने रसूल14 को मार्गदर्शन तथा सत्धर्म (इस्लाम) के साथ भेजा, ताकि उसे प्रत्येक धर्म पर प्रभुत्व प्रदान कर दे15, भले ही बहुदेववादियों को बुरा लगे।
14. रसूल से अभिप्रेत मुह़म्मद सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम हैं। 15. इसका सब से बड़ा प्रमाण यह है कि इस समय पूरे संसार में मुसलमानों की संख्या लग-भग दो अरब है। और अब भी इस्लाम पूरी दुनिया में तेज़ी से फैलता जा रहा है।

۞ يٰٓاَيُّهَا الَّذِيْنَ اٰمَنُوْٓا اِنَّ كَثِيْرًا مِّنَ الْاَحْبَارِ وَالرُّهْبَانِ لَيَأْكُلُوْنَ اَمْوَالَ النَّاسِ بِالْبَاطِلِ وَيَصُدُّوْنَ عَنْ سَبِيْلِ اللّٰهِ ۗوَالَّذِيْنَ يَكْنِزُوْنَ الذَّهَبَ وَالْفِضَّةَ وَلَا يُنْفِقُوْنَهَا فِيْ سَبِيْلِ اللّٰهِ ۙفَبَشِّرْهُمْ بِعَذَابٍ اَلِيْمٍۙ٣٤
Yā ayyuhal-lażīna āmanū inna kaṡīram minal-aḥbāri war-ruhbāni laya'kulūna amwālan-nāsi bil-bāṭili wa yaṣuddūna ‘an sabīlillāh(i), wal-lażīna yaknizūnaż-żahaba wal-fiḍḍata wa lā yunfiqūnahā fī sabīlillāh(i), fa basysyirhum bi‘ażābin alīm(in).
[34] ऐ ईमान वालो! निःसंदेह बहुत-से विद्वान तथा दरवेश निश्चित रूप से लोगों का धन अवैध तरीके से खाते हैं और अल्लाह की राह से रोकते हैं। तथा जो लोग सोना-चाँदी एकत्र करके रखते हैं और उसे अल्लाह की राह में खर्च नहीं करते, तो उन्हें दर्दनाक अज़ाब की ख़ुशख़बरी दे दो।

يَّوْمَ يُحْمٰى عَلَيْهَا فِيْ نَارِ جَهَنَّمَ فَتُكْوٰى بِهَا جِبَاهُهُمْ وَجُنُوْبُهُمْ وَظُهُوْرُهُمْۗ هٰذَا مَا كَنَزْتُمْ لِاَنْفُسِكُمْ فَذُوْقُوْا مَا كُنْتُمْ تَكْنِزُوْنَ٣٥
Yauma yuḥmā ‘alaihā fī nāri jahannama fa tukwā bihā jibāhuhum wa junūbuhum wa ẓuhūruhum, hāżā mā kanaztum li'anfusikum fa żūqū mā kuntum taknizūn(a).
[35] जिस दिन उसे जहन्नम की आग में तपाया जाएगा, फिर उससे उनके माथों और उनके पहलुओं और उनकी पीठों को दागा जाएगा। (कहा जाएगा :) यही है, जो तुमने अपने लिए कोश बनाया था। तो (अब) उसका स्वाद चखो जो तुम कोश बनाया करते थे।

اِنَّ عِدَّةَ الشُّهُوْرِ عِنْدَ اللّٰهِ اثْنَا عَشَرَ شَهْرًا فِيْ كِتٰبِ اللّٰهِ يَوْمَ خَلَقَ السَّمٰوٰتِ وَالْاَرْضَ مِنْهَآ اَرْبَعَةٌ حُرُمٌ ۗذٰلِكَ الدِّيْنُ الْقَيِّمُ ەۙ فَلَا تَظْلِمُوْا فِيْهِنَّ اَنْفُسَكُمْ وَقَاتِلُوا الْمُشْرِكِيْنَ كَاۤفَّةً كَمَا يُقَاتِلُوْنَكُمْ كَاۤفَّةً ۗوَاعْلَمُوْٓا اَنَّ اللّٰهَ مَعَ الْمُتَّقِيْنَ٣٦
Inna ‘iddatasy-syuhūri ‘indallāhiṡnā ‘asyara syahran fī kitābillāhi yauma khalaqas-samāwāti wal-arḍa minhā arba‘atun ḥurum(un), żālikad-dīnul-qayyim(u), falā taẓlimū fīhinna anfusakum wa qātilul-musyrikīna kāffatan kamā yuqātilūnakum kāffah(tan), wa‘lamū annallāha ma‘al-muttaqīn(a).
[36] निःसंदेह अल्लाह के निकट महीनों की संख्या, अल्लाह की किताब में बारह महीने है, जिस दिन उसने आकाशों तथा धरती की रचना की। उनमें से चार महीने हुरमत16 वाले हैं। यही सीधा धर्म है। अतः इनमें अपने प्राणों पर अत्याचार17 न करो। तथा बहुदेववादियों से सब मिलकर युद्ध करो, जैसे वे तुमसे मिलकर युद्ध करते हैं, और जान लो कि निःसंदेह अल्लाह मुत्तक़ी लोगों के साथ है।
16. जिनमें युद्ध निषेध है। और वे ज़ुलक़ादा, ज़ुल ह़िज्जा, मुह़र्रम तथा रजब के महीने हैं। (बुख़ारी : 4662) 17. अर्थात इनमें युद्ध तथा रक्तपात न करो, इनका आदर करो।

اِنَّمَا النَّسِيْۤءُ زِيَادَةٌ فِى الْكُفْرِ يُضَلُّ بِهِ الَّذِيْنَ كَفَرُوْا يُحِلُّوْنَهٗ عَامًا وَّيُحَرِّمُوْنَهٗ عَامًا لِّيُوَاطِـُٔوْا عِدَّةَ مَا حَرَّمَ اللّٰهُ فَيُحِلُّوْا مَا حَرَّمَ اللّٰهُ ۗزُيِّنَ لَهُمْ سُوْۤءُ اَعْمَالِهِمْۗ وَاللّٰهُ لَا يَهْدِى الْقَوْمَ الْكٰفِرِيْنَ ࣖ٣٧
Innaman-nasī'u ziyādatun fil-kufri yuḍallu bihil-lażīna kafarū yuḥillūnahū ‘āmaw wa yuḥarrimūnahū ‘āmal liyuwāṭi'ū ‘iddata mā ḥarramallāhu fa yuḥillū mā ḥarramallāh(u), zuyyina lahum sū'u a‘mālihim, wallāhu lā yahdil-qaumal-kāfirīn(a).
[37] तथ्य यह है कि महीनों को पीछे करना18 कुफ़्र में वृद्धि है, जिसके साथ वे लोग गुमराह किए जाते हैं जिन्होंने कुफ़्र किया। वे एक वर्ष उसे हलाल (वैध) कर लेते हैं और एक वर्ष उसे हराम (अवैध) कर लेते हैं। ताकि उन (महीनों) की गिनती पूरी कर लें, जो अल्लाह ने हराम किए हैं। फिर जो अल्लाह ने हराम (अवैध) किया है, उसे हलाल (वैध) कर लें। उनके बुरे काम उनके लिए सुंदर बना दिए गए हैं और अल्लाह काफ़िरों को सीधा रास्ता नहीं दिखाता।
18. इस्लाम से पहले मक्का के मिश्रणवादी अपने स्वार्थ के लिए सम्मानित महीनों साधारणतः मुह़र्रम के महीने को सफ़र के महीने से बदलकर युद्ध कर लेते थे। इसी प्रकार प्रत्येक तीन वर्ष पर एक महीना अधिक कर लिया जाता था ताकि चाँद का वर्ष सूर्य के वर्ष के अनुसार रहे। क़ुरआन ने इस कुरीति का खंडन किया है, और इसे अधर्म कहा है। (इब्ने कसीर)

يٰٓاَيُّهَا الَّذِيْنَ اٰمَنُوْا مَا لَكُمْ اِذَا قِيْلَ لَكُمُ انْفِرُوْا فِيْ سَبِيْلِ اللّٰهِ اثَّاقَلْتُمْ اِلَى الْاَرْضِۗ اَرَضِيْتُمْ بِالْحَيٰوةِ الدُّنْيَا مِنَ الْاٰخِرَةِۚ فَمَا مَتَاعُ الْحَيٰوةِ الدُّنْيَا فِى الْاٰخِرَةِ اِلَّا قَلِيْلٌ٣٨
Yā ayyuhal-lażīna āmanū mā lakum iżā qīla lakumunfirū fī sabīlillāhiṡ-ṡāqaltum ilal-arḍ(i), araḍītum bil-ḥayātid-dun-yā minal-ākhirah(ti), famā matā‘ul-ḥayātid-dun-yā fil-ākhirati illā qalīl(un).
[38] ऐ ईमान वालो! तुम्हें क्या हो गया है कि जब तुमसे कहा जाता है कि अल्लाह की राह में निकलो, तो तुम धरती की ओर बहुत बोझल हो जाते हो? क्या तुम आख़िरत (परलोक) की तुलना में दुनिया के जीवन से खुश हो गए हो? तो दुनिया के जीवन का सामान आख़िरत के मुकाबले में बहुत थोड़ा है।19
19. ये आयतें तबूक के युद्ध से संबंधित हैं। तबूक मदीना और शाम के बीच एक स्थान का नाम है। जो मदीना से 610 किलोमीटर दूर है। सन् 9 हिजरी में नबी सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम को यह सूचना मिली कि रोम के राजा क़ैसर ने मदीने पर आक्रमण करने का आदेश दिया है। यह मुसलमानों के लिए अरब से बाहर एक बड़ी शक्ति से युद्ध करने का प्रथम अवसर था। अतः आपने तैयारी और कूच का एलान कर दिया। यह बड़ा भीषण समय था, इसलिए मुसलमानों को प्रेरणा दी जा रही है कि इस युद्ध के लिए निकलें। तबूक का युद्ध : मक्का की विजय के पश्चात् ऐसे समाचार मिलने लगे कि रोम का राजा क़ैसर मुसलमानों पर आक्रमण करने की तैयारी कर रहा है। नबी सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ने जब यह सुना, तो आपने भी मुसलमानों को तैयारी का आदेश दे दिया। उस समय स्थिति बड़ी गंभीर थी। कड़ी धूप तथा खजूरों के पकने का समय था। सवारी तथा यात्रा के संसाधन की कमी थी। मदीना के मुनाफ़िक़ अबु आमिर राहिब के द्वारा ग़स्सान के ईसाई राजा और क़ैसर से मिले हुए थे। उन्होंने मदीना के पास अपने षड्यंत्र के लिए एक मस्जिद भी बना ली थी। और चाहते थे कि मुसलमान पराजित हो जाएँ। वे नबी सल्लल्लाहु अलैहि व सल्ल्म और मुसलमानों का उपहास करते थे। और तबूक की यात्रा के बीच आपपर प्राण-घातक आक्रमण भी किया। और बहुत से मुनाफ़िक़ों ने आपका साथ भी नहीं दिया और झूठे बहाने बना लिए। रजब सन् 9 हिजरी में नबी सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम तीस हज़ार मुसलमानों के साथ निकले। इनमें दस हज़ार सवार थे। तबूक पहुँचकर पता चला कि क़ैसर और उसके सहयोगियों ने साहस खो दिया है। क्योंकि इससे पहले मूता के रणक्षेत्र में तीन हज़ार मुसलमानों ने एक लाख ईसाइयों का मुक़ाबला किया था। इसलिए क़ैसर तीस हज़ार की सेना से भिड़ने का साहस न कर सका। आप सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ने तबूक में बीस दिन रहकर रूमियों के अधीन इस क्षेत्र के राज्यों को अपने अधीन बनाया। जिससे इस्लामी राज्य की सीमाएँ रूमी राज्य की सीमा तक पहुँच गईं। जब आप मदीना पहुँचे तो मुनाफ़िक़ों ने झूठे बहाने बनाकर क्षमा माँग ली। तीन मुसलमान जो आपके साथ आलस्य के कारण नहीं जा सके थे और अपना दोष स्वीकार कर लिया था आपने उनका सामाजिक बहिष्कार कर दिया। किंतु अल्लाह ने उन तीनों को भी उनके सत्य के कारण क्षमा कर दिया। आपने उस मस्जिद को भी गिराने का आदेश दिया, जिसे मुनाफ़िक़ों ने अपने षड्यंत्र का केंद्र बनाया था।

اِلَّا تَنْفِرُوْا يُعَذِّبْكُمْ عَذَابًا اَلِيْمًاۙ وَّيَسْتَبْدِلْ قَوْمًا غَيْرَكُمْ وَلَا تَضُرُّوْهُ شَيْـًٔاۗ وَاللّٰهُ عَلٰى كُلِّ شَيْءٍ قَدِيْرٌ٣٩
Illā tanfirū yu‘ażżibkum ‘ażāban alīmā(n), wa yastabdil qauman gairakum wa lā taḍurrūhu syai'ā(n), wallāhu ‘alā kulli syai'in qadīr(un).
[39] यदि तुम नहीं निकलोगे, तो वह तुम्हें दर्दनाक यातना देगा और तुम्हारे स्थान पर दूसरे लोगों को ले आएगा और तुम उसे कोई हानि नहीं पहुँचा सकोगे। और अल्लाह हर चीज़ पर सर्वशक्तिमान है।

اِلَّا تَنْصُرُوْهُ فَقَدْ نَصَرَهُ اللّٰهُ اِذْ اَخْرَجَهُ الَّذِيْنَ كَفَرُوْا ثَانِيَ اثْنَيْنِ اِذْ هُمَا فِى الْغَارِ اِذْ يَقُوْلُ لِصَاحِبِهٖ لَا تَحْزَنْ اِنَّ اللّٰهَ مَعَنَاۚ فَاَنْزَلَ اللّٰهُ سَكِيْنَتَهٗ عَلَيْهِ وَاَيَّدَهٗ بِجُنُوْدٍ لَّمْ تَرَوْهَا وَجَعَلَ كَلِمَةَ الَّذِيْنَ كَفَرُوا السُّفْلٰىۗ وَكَلِمَةُ اللّٰهِ هِيَ الْعُلْيَاۗ وَاللّٰهُ عَزِيْزٌ حَكِيْمٌ٤٠
Illā tanṣurūhu faqad naṣarahullāhu iż akhrajahul-lażīna kafarū ṡāniyaṡnaini iż humā fil-gāri iż yaqūlu liṣāḥibihī lā taḥzan innallāha ma‘anā, fa anzalallāhu sakīnatahū ‘alaihi wa ayyadahū bijunūdil lam tarauhā wa ja‘ala kalimatal-lażīna kafarus-suflā, wa kalimatullāhi hiyal-‘ulyā, wallāhu ‘azīzun ḥakīm(un).
[40] यदि तुम उनकी सहायता न करो, तो निःसंदेह अल्लाह ने उनकी सहायता की, जब उन्हें उन लोगों ने निकाल दिया20 जिन्होंने कुफ़्र किया, जब वह दो में दूसरा थे, जब वे दोनों गुफा में थे, जब वह अपने साथी से कह रहे थे : शोकाकुल न हो। निःसंदेह अल्लाह हमारे साथ है।21 तो अल्लाह ने उनपर अपनी ओर से शांति उतार दी और उन्हें ऐसी सेनाओँ के साथ शक्ति प्रदान की, जिन्हें तुमने नहीं देखे और उन लोगों की बात नीची कर दी जिन्होंने कुफ़्र किया, और अल्लाह की बात ही सबसे ऊँची है और अल्लाह सबपर प्रभुत्वशाली, पूर्ण हिकमत वाला है।
20. यह उस अवसर की चर्चा है जब मक्का के मिश्रणवादियों ने नबी सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम का वध कर देने का निर्णय किया। उसी रात आप मक्का से निकलकर 'सौर' पर्वत की चोटी के पास स्थित गुफा में तीन दिन तक छिपे रहे। फिर मदीना पहुँचे। उस समय गुफा में केवल आदरणीय अबू बक्र सिद्दीक़ रज़ियल्लाहु अन्हु आपके साथ थे। 21. ह़दीस में है कि अबू बक्र (रज़ियल्लाहु अन्हु) ने कहा कि मैं गुफा में नबी (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) के साथ था। और मैंने मुश्रिकों के पैर देख लिए। और आपसे कहा : यदि इनमें से कोई अपना पैर उठा दे, तो हमें देख लेगा। आपने कहा : उन दो के बारे में तुम्हारा क्या विचार है जिनका तीसरा अल्लाह है। (सह़ीह़ बुख़ारी : 4663)

اِنْفِرُوْا خِفَافًا وَّثِقَالًا وَّجَاهِدُوْا بِاَمْوَالِكُمْ وَاَنْفُسِكُمْ فِيْ سَبِيْلِ اللّٰهِ ۗذٰلِكُمْ خَيْرٌ لَّكُمْ اِنْ كُنْتُمْ تَعْلَمُوْنَ٤١
Infirū khifāfaw wa ṡiqālaw wa jāhidū bi'amwālikum wa anfusikum fī sabīlillāh(i), żālikum khairul lakum in kuntum ta‘lamūn(a).
[41] हलके22 और बोझिल (हर स्थिति में) निकल पड़ो और अपने मालों और अपनी जानों के साथ अल्लाह के मार्ग में जिहाद करो। यह तुम्हारे लिए उत्तम है, यदि तुम जानते हो।
22. संसाधन हो या न हो।

لَوْ كَانَ عَرَضًا قَرِيْبًا وَّسَفَرًا قَاصِدًا لَّاتَّبَعُوْكَ وَلٰكِنْۢ بَعُدَتْ عَلَيْهِمُ الشُّقَّةُۗ وَسَيَحْلِفُوْنَ بِاللّٰهِ لَوِ اسْتَطَعْنَا لَخَرَجْنَا مَعَكُمْۚ يُهْلِكُوْنَ اَنْفُسَهُمْۚ وَاللّٰهُ يَعْلَمُ اِنَّهُمْ لَكٰذِبُوْنَ ࣖ٤٢
Lau kāna ‘araḍan qarībaw wa safaran qāṣidal lattaba‘ūka wa lākim ba‘udat ‘alaihimusy-syuqqah(tu), wa sayaḥlifūna billāhi lawistaṭa‘nā lakharajnā ma‘akum, yuhlikūna anfusahum, wallāhu ya‘lamu innahum lakāżibūn(a).
[42] यदि शीघ्र मिलने वाल सामान और मध्यम यात्रा होती, तो वे अवश्य आपके पीछे चल पड़ते, लेकिन फ़ासला उनपर दूर पड़ गया। और जल्द ही वे अल्लाह की क़समें खाएँगे कि अगर हमारे पास ताकत होती, तो हम तुम्हारे साथ अवश्य निकलते। वे अपने आपको नष्ट कर रहे हैं और अल्लाह जानता है कि वे निश्चित रूप से झूठे हैं।

عَفَا اللّٰهُ عَنْكَۚ لِمَ اَذِنْتَ لَهُمْ حَتّٰى يَتَبَيَّنَ لَكَ الَّذِيْنَ صَدَقُوْا وَتَعْلَمَ الْكٰذِبِيْنَ٤٣
‘Afallāhu ‘ank(a), lima ażinta lahum ḥattā yatabayyana lakal-lażīna ṣadaqū wa ta‘lamal-kāżibīn(a).
[43] अल्लाह ने (ऐ नबी!) आपको क्षमा कर दिया, आपने उन्हें क्यों अनुमति दी, यहाँ तक कि आपके लिए वे लोग स्पष्ट हो जाते जिन्होंने सच कहा और आप झूठे लोगों को जान लेते।

لَا يَسْتَأْذِنُكَ الَّذِيْنَ يُؤْمِنُوْنَ بِاللّٰهِ وَالْيَوْمِ الْاٰخِرِ اَنْ يُّجَاهِدُوْا بِاَمْوَالِهِمْ وَاَنْفُسِهِمْۗ وَاللّٰهُ عَلِيْمٌۢ بِالْمُتَّقِيْنَ٤٤
Lā yasta'żinukal-lażīna yu'minūna billāhi wal-yaumil-ākhiri ay yujāhidū bi'amwālihim wa anfusihim, wallāhu ‘alīmum bil-muttaqīn(a).
[44] जो लोग अल्लाह और आख़िरत के दिन पर ईमान रखते हैं, वे आपसे अपने धनों और अपनी जानों के साथ जिहाद करने से अनुमति नहीं माँगते, और अल्लाह मुत्तक़ी लोगों को भली-भाँति जानने वाला है।

اِنَّمَا يَسْتَأْذِنُكَ الَّذِيْنَ لَا يُؤْمِنُوْنَ بِاللّٰهِ وَالْيَوْمِ الْاٰخِرِ وَارْتَابَتْ قُلُوْبُهُمْ فَهُمْ فِيْ رَيْبِهِمْ يَتَرَدَّدُوْنَ٤٥
Innamā yasta'żinukal-lażīna lā yu'minūna billāhi wal-yaumil-ākhiri wartābat qulūbuhum fahum fī raibihim yataraddadūn(a).
[45] आपसे अनुमति केवल वही लोग माँगते हैं, जो अल्लाह तथा अंतिम दिन (आख़िरत) पर ईमान नहीं रखते और उनके दिल संदेह में पड़े हुए हैं। सो वे अपने संदेह में भ्रमित भटक रहे हैं।

۞ وَلَوْ اَرَادُوا الْخُرُوْجَ لَاَعَدُّوْا لَهٗ عُدَّةً وَّلٰكِنْ كَرِهَ اللّٰهُ انْۢبِعَاثَهُمْ فَثَبَّطَهُمْ وَقِيْلَ اقْعُدُوْا مَعَ الْقٰعِدِيْنَ٤٦
Wa lau arādul-khurūja la'a‘addū lahū ‘uddataw wa lākin karihallāhumbi‘āṡahum fa ṡabbaṭahum wa qīlaq‘udū ma‘al-qā‘idīn(a).
[46] यदि वे निकलने का इरादा रखते, तो उसके लिए कुछ सामान अवश्य तैयार करते। लेकिन अल्लाह ने उनके उठने को नापसंद किया, तो उसने उन्हें रोक दिया। तथा कह दिया गया कि बैठने वालों के साथ बैठे रहो।

لَوْ خَرَجُوْا فِيْكُمْ مَّا زَادُوْكُمْ اِلَّا خَبَالًا وَّلَاَوْضَعُوْا خِلٰلَكُمْ يَبْغُوْنَكُمُ الْفِتْنَةَۚ وَفِيْكُمْ سَمّٰعُوْنَ لَهُمْۗ وَاللّٰهُ عَلِيْمٌۢ بِالظّٰلِمِيْنَ٤٧
Wa lau kharajū fīkum mā zādūkum illā khabālaw wa la'auḍa‘ū khilālakum yabgūnakumul-fitnah(ta), wa fīkum sammā‘ūna lahum, wallāhu ‘alīmum biẓ-ẓālimīn(a).
[47] यदि वे तुम्हारे साथ निकलते, तो तुम्हारे अंदर बिगाड़ के सिवा किसी और चीज़ की वृद्धि नहीं करते। और तुम्हारे बीच उपद्रव पैदा करने के लिए दौड़-धूप करते। और तुम्हारे अंदर कुछ लोग उनकी बातें कान लगाकर सुनने वाले हैं। और अल्लाह इन अत्याचारियों को भली-भाँति जानने वाला है।

لَقَدِ ابْتَغَوُا الْفِتْنَةَ مِنْ قَبْلُ وَقَلَّبُوْا لَكَ الْاُمُوْرَ حَتّٰى جَاۤءَ الْحَقُّ وَظَهَرَ اَمْرُ اللّٰهِ وَهُمْ كٰرِهُوْنَ٤٨
Laqadibtagawul-fitnata min qablu wa qallabū lakal-umūra ḥattā jā'al-ḥaqqu wa ẓahara amrullāhi wa hum kārihūn(a).
[48] निःसंदेह उन्होंने इससे पहले भी उपद्रव मचाना चाहा तथा आपके लिए कई मामले उलट-पलट किए। यहाँ तक कि सत्य आ गया और अल्लाह का आदेश प्रबल हो गया। हालाँकि वे नापसंद करने वाले थे।

وَمِنْهُمْ مَّنْ يَّقُوْلُ ائْذَنْ لِّيْ وَلَا تَفْتِنِّيْۗ اَلَا فِى الْفِتْنَةِ سَقَطُوْاۗ وَاِنَّ جَهَنَّمَ لَمُحِيْطَةٌ ۢ بِالْكٰفِرِيْنَ٤٩
Wa minhum may yaqūlu'żal lī wa lā taftinnī, alā fil-fitnati saqaṭū, wa inna jahannama lamuḥīṭatum bil-kāfirīn(a).
[49] उनके अंदर ऐसा व्यक्ति भी है, जो कहता है कि आप मुझे अनुमति दे दें और मुझे फ़ितने में न डालें। सुन लो! वे फ़ितने ही में तो पड़े हुए हैं और निःसंदेह जहन्नम काफ़िरों को अवश्य घेरने वाली है।

اِنْ تُصِبْكَ حَسَنَةٌ تَسُؤْهُمْۚ وَاِنْ تُصِبْكَ مُصِيْبَةٌ يَّقُوْلُوْا قَدْ اَخَذْنَآ اَمْرَنَا مِنْ قَبْلُ وَيَتَوَلَّوْا وَّهُمْ فَرِحُوْنَ٥٠
In tuṣibka ḥasanatun tasu'hum, wa in tuṣibka muṣībatuy yaqūlū qad akhażnā min qablu wa yatawallau wa hum fariḥūn(a).
[50] यदि आपको कोई भलाई पहुँचती है, तो उन्हें बुरी लगती है और यदि आपपर कोई आपदा आती है, तो कहते हैं : हमने तो पहले ही अपना बचाव कर लिया था और ऐसी अवस्था में पलटते हैं कि वे बहुत प्रसन्न होते हैं।

قُلْ لَّنْ يُّصِيْبَنَآ اِلَّا مَا كَتَبَ اللّٰهُ لَنَاۚ هُوَ مَوْلٰىنَا وَعَلَى اللّٰهِ فَلْيَتَوَكَّلِ الْمُؤْمِنُوْنَ٥١
Qul lay yuṣībanā illā mā kataballāhu lanā, huwa maulānā wa ‘alallāhi falyatawakkalil-mu'minūn(a).
[51] आप कह दें : हमें कुछ भी नहीं पहुँचेगा सिवाय उसके जो अल्लाह ने हमारे लिए लिख दिया है। वही हमारा मालिक है और अल्लाह ही पर ईमान वालों को भरोसा करना चाहिए।

قُلْ هَلْ تَرَبَّصُوْنَ بِنَآ اِلَّآ اِحْدَى الْحُسْنَيَيْنِۗ وَنَحْنُ نَتَرَبَّصُ بِكُمْ اَنْ يُّصِيْبَكُمُ اللّٰهُ بِعَذَابٍ مِّنْ عِنْدِهٖٓ اَوْ بِاَيْدِيْنَاۖ فَتَرَبَّصُوْٓا اِنَّا مَعَكُمْ مُّتَرَبِّصُوْنَ٥٢
Qul hal tarabbaṣūna binā illā iḥdal-ḥusnayain(i), wa naḥnu natarabbaṣu bikum ay yuṣībakumullāhu bi‘ażābim min ‘indihī au bi'aidīnā, fa tarabbaṣū innā ma‘akum mutarabbiṣūn(a).
[52] आप कह दें : तुम हमारे बारे में दो भलाइयों23 में से किसी एक के सिवा किसकी प्रतीक्षा कर रहे हो और हम तुम्हारे बारे में यह प्रतीक्षा कर रहे हैं कि अल्लाह तुम्हें अपने पास से यातना दे, या हमारे हाथों से। तो तुम प्रतीक्षा करो, निःसंदेह हम (भी) तुम्हारे साथ प्रतीक्षा करने वाले हैं।
23. दो भलाइयों से अभिप्राय विजय या अल्लाह की राह में शहीद होना है। (इब्ने कसीर)

قُلْ اَنْفِقُوْا طَوْعًا اَوْ كَرْهًا لَّنْ يُّتَقَبَّلَ مِنْكُمْ ۗاِنَّكُمْ كُنْتُمْ قَوْمًا فٰسِقِيْنَ٥٣
Qul anfiqū ṭau‘an au karhal lay yutaqabbala minkum, innakum kuntum qauman fāsiqīn(a).
[53] आप कह दें : तुम स्वेच्छापूर्वक दान करो अथवा अनिच्छापूर्वक, तुम्हारी ओर से हरगिज़ स्वीकार नहीं किया जाएगा। निःसंदेह तुम हमेशा से अवज्ञाकारी लोग हो।

وَمَا مَنَعَهُمْ اَنْ تُقْبَلَ مِنْهُمْ نَفَقٰتُهُمْ اِلَّآ اَنَّهُمْ كَفَرُوْا بِاللّٰهِ وَبِرَسُوْلِهٖ وَلَا يَأْتُوْنَ الصَّلٰوةَ اِلَّا وَهُمْ كُسَالٰى وَلَا يُنْفِقُوْنَ اِلَّا وَهُمْ كٰرِهُوْنَ٥٤
Wa mā mana‘ahum an tuqbala minhum nafaqātuhum illā annahum kafarū billāhi wa birasūlihī wa lā ya'tūnaṣ-ṣalāta illā wa hum kusālā wa lā yunfiqūna illā wa hum kārihūn(a).
[54] और उनकी ख़र्च की हुई चीज़ों को स्वीकार करने से उन्हें इसके सिवा किसी चीज़ ने नहीं रोका कि उन्होंने अल्लाह और उसके रसूल के साथ कुफ़्र किया और वे नमाज़ के लिए आलसी होकर आते हैं तथा वे खर्च नहीं करते परंतु इस अवस्था में कि वे नाख़ुश होते हैं।

فَلَا تُعْجِبْكَ اَمْوَالُهُمْ وَلَآ اَوْلَادُهُمْ ۗاِنَّمَا يُرِيْدُ اللّٰهُ لِيُعَذِّبَهُمْ بِهَا فِى الْحَيٰوةِ الدُّنْيَا وَتَزْهَقَ اَنْفُسُهُمْ وَهُمْ كٰفِرُوْنَ٥٥
Falā tu‘jibka amwāluhum wa lā aulāduhum, innamā yurīdullāhu liyu‘ażżibahum bihā fil-ḥayātid-dun-yā wa tazhaqa anfusuhum wa hum kāfirūn(a).
[55] अतः आपको न उनके धन भले लगें और न उनकी संतान। अल्लाह तो यही चाहता है कि उन्हें इनके द्वारा सांसारिक जीवन में यातना दे और उनके प्राण इस दशा में निकलें कि वे काफ़िर हों।

وَيَحْلِفُوْنَ بِاللّٰهِ اِنَّهُمْ لَمِنْكُمْۗ وَمَا هُمْ مِّنْكُمْ وَلٰكِنَّهُمْ قَوْمٌ يَّفْرَقُوْنَ٥٦
Wa yaḥlifūna billāhi innahum laminkum, wa mā hum minkum wa lākinnahum qaumuy yafraqūn(a).
[56] और वे (मुनाफ़िक़) अल्लाह की क़सम खाते हैं कि निःसंदेह वे अवश्य तुममें से हैं, हालाँकि वे तुममें से नहीं हैं, परंतु वे ऐसे लोग हैं जो डरते हैं।

لَوْ يَجِدُوْنَ مَلْجَاً اَوْ مَغٰرٰتٍ اَوْ مُدَّخَلًا لَّوَلَّوْا اِلَيْهِ وَهُمْ يَجْمَحُوْنَ٥٧
Lau yajidūna malja'an au magārātin au muddakhalal lawallau ilaihi wa hum yajmaḥūn(a).
[57] यदि वे कोई शरण स्थल, या कोई गुफाएँ या घुसने की कोई जगह पा जाएँ, तो अवश्य ही वे बगटुट उसकी ओर लौट जाएँ।

وَمِنْهُمْ مَّنْ يَّلْمِزُكَ فِى الصَّدَقٰتِۚ فَاِنْ اُعْطُوْا مِنْهَا رَضُوْا وَاِنْ لَّمْ يُعْطَوْا مِنْهَآ اِذَا هُمْ يَسْخَطُوْنَ٥٨
Wa minhum may yalmizuka fiṣ-ṣadaqāt(i), fa in u‘ṭū minhā raḍū wa illam yu‘ṭau minhā iżā hum yaskhaṭūn(a).
[58] और उनमें से कुछ लोग ऐसे हैं, जो सदक़ों के (वितरण के) बारे में आपपर दोष लगाता हैं। फिर यदि उन्हें उनमें से दे दिया जाए, तो प्रसन्न हो जाते हैं और यदि उन्हें उनमें से न दिया जाए, तो तुरंत वे क्रोधित हो जाते हैं।

وَلَوْ اَنَّهُمْ رَضُوْا مَآ اٰتٰىهُمُ اللّٰهُ وَرَسُوْلُهٗۙ وَقَالُوْا حَسْبُنَا اللّٰهُ سَيُؤْتِيْنَا اللّٰهُ مِنْ فَضْلِهٖ وَرَسُوْلُهٗٓ اِنَّآ اِلَى اللّٰهِ رٰغِبُوْنَ ࣖ٥٩
Wa lau annahum raḍū mā ātāhumullāhu wa rasūluh(ū), wa qālū ḥasbunallāhu sayu'tīnallāhu min faḍlihī wa rasūluhū innā ilallāhi rāgibūn(a).
[59] और (कितना अच्छा होता) यदि वे उससे संतुष्ट हो जाते, जो अल्लाह और उसके रसूल ने उन्हें दिया और कहते कि हमारे लिए अल्लाह काफ़ी है। जल्द ही अल्लाह हमें अपनी कृपा से प्रदान करेगा तथा उसका रसूल भी। निःसंदेह हम अल्लाह ही की ओर रूचि रखने वाले हैं।

۞ اِنَّمَا الصَّدَقٰتُ لِلْفُقَرَاۤءِ وَالْمَسٰكِيْنِ وَالْعٰمِلِيْنَ عَلَيْهَا وَالْمُؤَلَّفَةِ قُلُوْبُهُمْ وَفِى الرِّقَابِ وَالْغٰرِمِيْنَ وَفِيْ سَبِيْلِ اللّٰهِ وَابْنِ السَّبِيْلِۗ فَرِيْضَةً مِّنَ اللّٰهِ ۗوَاللّٰهُ عَلِيْمٌ حَكِيْمٌ٦٠
Innamaṣ-ṣadaqātu lil-fuqarā'i wal-masākīni wal-‘āmilīna ‘alaihā wal-mu'allafati qulūbuhum wa fir-riqābi wal-gārimīna wa fī sabīlillāhi wabnis-sabīl(i), farīḍatam minallāh(i), wallāhu ‘alīmun ḥakīm(un).
[60] ज़कात तो केवल फ़क़ीरों24 और मिस्कीनों के लिए और उसपर नियुक्त कार्यकर्ताओं25 के लिए तथा उनके लिए है जिनके दिलों को परचाना26 अभीष्ट हो, और दास मुक्त करने में और क़र्ज़दारों एवं तावान भरने वालों में और अल्लाह के मार्ग में तथा यात्रियों के लिए है। यह अल्लाह की ओर से एक दायित्व है27 और अल्लाह सब कुछ जानने वाला, पूर्ण हिकमत वाला है।
24. क़ुरआन ने यहाँ फ़क़ीर और मिस्कीन के शब्दों का प्रयोग किया है। फ़क़ीर का अर्थ है जिसके पास कुछ न हो। परंतु मिस्कीन वह है जिसके पास कुछ धन हो, मगर उसकी आवश्यकता की पूर्ति न होती हो। 25. जो ज़कात के काम में लगे हों। 26. इससे अभिप्राय वे हैं जो नए-नए इस्लाम लाए हों। तो उनके लिए भी ज़कात है। या जो इस्लाम में रूचि रखते हों, और इस्लाम के सहायक हों। 27.संसार में कोई धर्म ऐसा नहीं है जिसने दीन-दुखियों की सहायता और सेवा की प्रेरणा न दी हो। और उसे इबादत (वंदना) का अनिवार्य अंश न कहा हो। परंतु इस्लाम की यह विशेषता है कि उसने प्रत्येक धनी मुसलमान पर एक विशेष कर निरिधारित कर दिया है जो उसपर अपनी पूरी आय का ह़िसाब करके प्रत्येक वर्ष देना अनिवार्य है। फिर उसे इतना महत्व दिया है कि कर्मों में नमाज़ के पश्चात् उसी का स्थान है। और क़ुरआन में दोनों कर्मों की चर्चा एक साथ करके यह स्पष्ट कर दिया गया है कि किसी समुदाय में इस्लामी जीवन के सबसे पहले यही दो लक्षण हैं, नमाज़ तथा ज़कात। यदि इस्लाम में ज़कात के नियम का पालन किया जाए तो समाज में कोई ग़रीब नहीं रह जाएगा। और धनवानों तथा निर्धनों के बीच प्रेम की ऐसी भावना पैदा हो जाएगी कि पूरा समाज सुखी और शांतिमय बन जाएगा। ब्याज का भी निवारण हो जाएगा। तथा धन कुछ हाथों में सीमित न रहकर उसका लाभ पूरे समाज को मिलेगा। फिर इस्लाम ने इसका नियम निर्धारित किया है। जिसका पूरा विवरण ह़दीसों में मिलेगा और यह भी निश्चित कर दिया है कि ज़कात का धन किनको दिया जाएगा और इस आयत में उन्हीं की चर्चा की गई है, जो ये हैं : 1. फ़क़ीर 2. मिस्कीन, 3. ज़कात के कार्यकर्ता, 4. नए मुसलमान, 5. दास-दासी, 6. ऋणी, 7. अल्लाह के मार्ग में, 8. और यात्री। अल्लाह के मार्ग से अभिप्राय अल्लाह की राह में जिहाद करने वाले लोग हैं।

وَمِنْهُمُ الَّذِيْنَ يُؤْذُوْنَ النَّبِيَّ وَيَقُوْلُوْنَ هُوَ اُذُنٌ ۗقُلْ اُذُنُ خَيْرٍ لَّكُمْ يُؤْمِنُ بِاللّٰهِ وَيُؤْمِنُ لِلْمُؤْمِنِيْنَ وَرَحْمَةٌ لِّلَّذِيْنَ اٰمَنُوْا مِنْكُمْۗ وَالَّذِيْنَ يُؤْذُوْنَ رَسُوْلَ اللّٰهِ لَهُمْ عَذَابٌ اَلِيْمٌ٦١
Wa minhumul-lażīna yu'żūnan nabiyya wa yaqūlūna huwa użun(un), qul użunu khairil lakum yu'minu billāhi wa yu'minu lil-mu'minīna wa raḥmatul lil-lażīna āmanū minkum, wal-lażīna yu'żūna rasūlallāhi lahum ‘ażābun alīm(un).
[61] तथा उन (मुनाफ़िक़ों) में से कुछ लोग ऐसे हैं जो नबी को दुःख देते हैं और कहते हैं कि वह तो निरा कान28 हैं! आप कह दें कि वह तुम्हारे लिए भलाई का कान हैं। वह अल्लाह पर विश्वास रखते हैं और ईमान वालों की बात का विश्वास करते हैं और तुममें से उन लोगों के लिए दया हैं, जो ईमान लाए हैं और जो लोग अल्लाह के रसूल को दुःख देते हैं, उनके लिए दर्दनाक यातना है।
28. मुनाफ़िक़ों का मतलब यह था कि आप कान के कच्चे हैं, हर एक की बात सुनकर उसपर विश्वास कर लेते हैं।

يَحْلِفُوْنَ بِاللّٰهِ لَكُمْ لِيُرْضُوْكُمْ وَاللّٰهُ وَرَسُوْلُهٗٓ اَحَقُّ اَنْ يُّرْضُوْهُ اِنْ كَانُوْا مُؤْمِنِيْنَ٦٢
Yaḥlifūna billāhi lakum liyurḍūkum wallāhu wa rasūluhū aḥaqqu ay yurḍūhu in kānū mu'minīn(a).
[62] वे तुम्हारे समक्ष अल्लाह की क़सम खाते हैं, ताकि तुम्हें प्रसन्न करें। हालाँकि अल्लाह और उसके रसूल अधिक योग्य हैं कि वे उन्हें प्रसन्न करें, अगर वे ईमान वाले हैं।

اَلَمْ يَعْلَمُوْٓا اَنَّهٗ مَنْ يُّحَادِدِ اللّٰهَ وَرَسُوْلَهٗ فَاَنَّ لَهٗ نَارَ جَهَنَّمَ خَالِدًا فِيْهَاۗ ذٰلِكَ الْخِزْيُ الْعَظِيْمُ٦٣
Alam ya‘lamū annahū may yuḥādidillāha wa rasūlahū fa anna lahū nāru jahannama khālidan fīhā, żālikal khizyul-‘aẓīm(u).
[63] क्या उन्होंने नहीं जाना कि जो अल्लाह और उसके रसूल का विरोध करता है, तो निःसंदेह उसके लिए जहन्नम की आग है, जिसमें वह सदैव रहने वाला है। यह बहुत बड़ा अपमान है।

يَحْذَرُ الْمُنٰفِقُوْنَ اَنْ تُنَزَّلَ عَلَيْهِمْ سُوْرَةٌ تُنَبِّئُهُمْ بِمَا فِيْ قُلُوْبِهِمْۗ قُلِ اسْتَهْزِءُوْاۚ اِنَّ اللّٰهَ مُخْرِجٌ مَّا تَحْذَرُوْنَ٦٤
Yaḥżarul-munāfiqūna an tunazzala ‘alaihim sūratun tunabbi'uhum bimā fī qulūbihim, qulistahzi'ū, innallāha mukhrijum mā taḥżarūn(a).
[64] मुनाफ़िक़ों को इस बात का डर है कि उनपर29 कोई ऐसी सूरत न उतार दी जाए, जो उन्हें वे बातें बता दे जो इनके दिलों में हैं। आप कह दें : तुम मज़ाक़ उड़ाते रहो। निःसंदेह अल्लाह उन बातों को निकालने वाला है, जिनसे तुम डरते हो।
29. अर्थात् ईमान वालों पर।

وَلَىِٕنْ سَاَلْتَهُمْ لَيَقُوْلُنَّ اِنَّمَا كُنَّا نَخُوْضُ وَنَلْعَبُۗ قُلْ اَبِاللّٰهِ وَاٰيٰتِهٖ وَرَسُوْلِهٖ كُنْتُمْ تَسْتَهْزِءُوْنَ٦٥
Wa la'in sa'altahum layaqūlunna innamā kunnā nakhūḍū wa nal‘ab(u), qul abillāhi wa āyātihī wa rasūlihī kuntum tastahzi'ūn(a).
[65] निःसंदेह यदि आप30 उनसे पूछें, तो वे अवश्य ही कहेंगे : हम तो यूँ ही बातचीत और हँसी-मज़ाक़ कर रहे थे। आप कह दें : क्या तुम अल्लाह और उसकी आयतों और उसके रसूल के साथ मज़ाक कर रहे थे?
30. तबूक की यात्रा के दौरान मुनाफ़िक़ लोग, नबी तथा इस्लाम के विरुद्ध बहुत-सी दुःखदायी बातें कर रहे थे।

لَا تَعْتَذِرُوْا قَدْ كَفَرْتُمْ بَعْدَ اِيْمَانِكُمْ ۗ اِنْ نَّعْفُ عَنْ طَاۤىِٕفَةٍ مِّنْكُمْ نُعَذِّبْ طَاۤىِٕفَةً ۢ بِاَنَّهُمْ كَانُوْا مُجْرِمِيْنَ ࣖ٦٦
Lā ta‘tażirū qad kafartum ba‘da īmānikum, in na‘fu ‘an ṭā'ifatim minkum nu‘ażżib ṭā'ifatam bi'annahum kānū mujrimīn(a).
[66] तुम बहाने मत बनाओ, निःसंदेह तुमने अपने ईमान के बाद कुफ़्र किया। यदि हम तुममें से एक समूह को क्षमा कर दें, तो एक समूह को दंड देंगे, क्योंकि निश्चय ही वे अपराधी थे।

اَلْمُنٰفِقُوْنَ وَالْمُنٰفِقٰتُ بَعْضُهُمْ مِّنْۢ بَعْضٍۘ يَأْمُرُوْنَ بِالْمُنْكَرِ وَيَنْهَوْنَ عَنِ الْمَعْرُوْفِ وَيَقْبِضُوْنَ اَيْدِيَهُمْۗ نَسُوا اللّٰهَ فَنَسِيَهُمْ ۗ اِنَّ الْمُنٰفِقِيْنَ هُمُ الْفٰسِقُوْنَ٦٧
Al-munāfiqūna wal-munāfiqātu ba‘ḍuhum mim ba‘ḍ(in), ya'murūna bil-munkari wa yanhauna ‘anil-ma‘rūfi wa yaqbiḍūna aidiyahum, nasullāha fa nasiyahum, innal-munāfiqīna humul-fāsiqūn(a).
[67] मुनाफ़िक़ पुरुष और मुनाफिक़ स्त्रियाँ, वे सब एक-जैसे हैं। वे बुराई का आदेश देते हैं तथा भलाई से रोकते हैं और अपने हाथ बंद रखते31 हैं। वे अल्लाह को भूल गए, तो उसने उन्हें भुला32 दिया। निश्चय मुनाफ़िक़ लोग ही अवज्ञाकारी हैं।
31. अर्थात दान नहीं करते। 32. अल्लाह के भुला देने का अर्थ है उनपर दया न करना।

وَعَدَ اللّٰهُ الْمُنٰفِقِيْنَ وَالْمُنٰفِقٰتِ وَالْكُفَّارَ نَارَ جَهَنَّمَ خٰلِدِيْنَ فِيْهَاۗ هِيَ حَسْبُهُمْ ۚوَلَعَنَهُمُ اللّٰهُ ۚوَلَهُمْ عَذَابٌ مُّقِيْمٌۙ٦٨
Wa‘adallāhul-munāfiqīna wal-munāfiqāti wal-kuffāra nāra jahannama khālidīna fīhā, hiya ḥasbuhum, wa la‘anahumullāh(u), wa lahum ‘ażābum muqīm(un).
[68] अल्लाह ने मुनाफ़िक़ पुरुषों तथा मुनाफ़िक़ स्त्रियों और काफ़िरों से जहन्नम की आग का वादा किया है, जिसमें वे हमेशा रहने वाले हैं। वही उनके लिए प्रयाप्त है। और अल्लाह ने उनपर ला'नत की और उनके लिए सदैव रहने वाली यातना है।

كَالَّذِيْنَ مِنْ قَبْلِكُمْ كَانُوْٓا اَشَدَّ مِنْكُمْ قُوَّةً وَّاَكْثَرَ اَمْوَالًا وَّاَوْلَادًاۗ فَاسْتَمْتَعُوْا بِخَلَاقِهِمْ فَاسْتَمْتَعْتُمْ بِخَلَاقِكُمْ كَمَا اسْتَمْتَعَ الَّذِيْنَ مِنْ قَبْلِكُمْ بِخَلَاقِهِمْ وَخُضْتُمْ كَالَّذِيْ خَاضُوْاۗ اُولٰۤىِٕكَ حَبِطَتْ اَعْمَالُهُمْ فِى الدُّنْيَا وَالْاٰخِرَةِ ۚوَاُولٰۤىِٕكَ هُمُ الْخٰسِرُوْنَ٦٩
Kal-lażīna min qablikum kānū asyadda minkum quwwataw wa akṡara amwālaw wa aulādā(n), fastamta‘ū bikhalāqihim fastamta‘tum bikhalāqikum kamastamta‘al-lażīna min qablikum bikhalāqihim wa khuḍtum kal-lażī khāḍū, ulā'ika ḥabiṭat a‘māluhum fid-dun-yā wal-ākhirah(ti), ulā'ika humul-khāsirūn(a).
[69] उन लोगों की तरह जो तुमसे पहले थे। वे शक्ति में तुमसे ज़्यादा मज़बूत तथा धन और संतान में तुमसे अधिक थे। तो उन्होंने अपने भाग का आनंद लिया। फिर तुमने अपने भाग का आनंद लिया, जैसे तुमसे पूर्व के लोगों ने आनंद लिया था और तुम (झूठ और असत्य के अंदर) घुसे, जैसे वे घुसे थे। यही लोग हैं, जिनके कर्म दुनिया एवं आखिरत में अकारथ हो गए और यही घाटा उठाने वाले लोग हैं।

اَلَمْ يَأْتِهِمْ نَبَاُ الَّذِيْنَ مِنْ قَبْلِهِمْ قَوْمِ نُوْحٍ وَّعَادٍ وَّثَمُوْدَ ەۙ وَقَوْمِ اِبْرٰهِيْمَ وَاَصْحٰبِ مَدْيَنَ وَالْمُؤْتَفِكٰتِۗ اَتَتْهُمْ رُسُلُهُمْ بِالْبَيِّنٰتِۚ فَمَا كَانَ اللّٰهُ لِيَظْلِمَهُمْ وَلٰكِنْ كَانُوْٓا اَنْفُسَهُمْ يَظْلِمُوْنَ٧٠
Alam ya'tihim naba'ul-lażīna min qablihim qaumi nūḥiw wa ‘ādiw wa ṡamūd(a), wa qaumi ibrāhīma wa aṣḥābi madyana wal-mu'tafikāt(i), atathum rusuluhum bil-bayyināt(i), famā kānallāhu liyaẓlimahum wa lākin kānū anfusahum yaẓlimūn(a).
[70] क्या इनके पास उन लोगों की ख़बर नहीं आई, जो इनसे पहले थे? नूह़ की जाति और आद और समूद तथा इबराहीम की जाति और मदयन33 वाले और उलटी34 हुई बस्तियों के लोग? उनके पास उनके रसूल स्पष्ट प्रमाण लेकर आए, तो अल्लाह ऐसा नहीं था कि उनपर अत्याचार करता, परंतु वे स्वयं अपने आप पर अत्याचार35 करते थे।
33. मदयन वाले शुऐब अलैहिस्सलाम की जाति थे। 34. इससे अभिप्राय लूत अलैहिस्सलाम की जाति है। (इब्ने कसीर) 35. अपने रसूलों को अस्वीकार करके।

وَالْمُؤْمِنُوْنَ وَالْمُؤْمِنٰتُ بَعْضُهُمْ اَوْلِيَاۤءُ بَعْضٍۘ يَأْمُرُوْنَ بِالْمَعْرُوْفِ وَيَنْهَوْنَ عَنِ الْمُنْكَرِ وَيُقِيْمُوْنَ الصَّلٰوةَ وَيُؤْتُوْنَ الزَّكٰوةَ وَيُطِيْعُوْنَ اللّٰهَ وَرَسُوْلَهٗ ۗاُولٰۤىِٕكَ سَيَرْحَمُهُمُ اللّٰهُ ۗاِنَّ اللّٰهَ عَزِيْزٌ حَكِيْمٌ٧١
Wal-mu'minūna wal-mu'minātu ba‘ḍuhum auliyā'u ba‘ḍ(in), ya'murūna bil-ma‘rūfi wa yanhauna ‘anil-munkari wa yuqīmūnaṣ-ṣalāta wa yu'tūnaz-zakāta wa yuṭī‘ūnallāha wa rasūlah(ū), ulā'ika sayarḥamuhumullāh(u), innallāha ‘azīzun ḥakīm(un).
[71] और ईमान वाले मर्द और ईमान वाली औरतें एक-दूसरे के दोस्त हैं, वे भलाई का हुक्म देते हैं और बुराई से मना करते हैं और नमाज़ क़ायम करते हैं और ज़कात देते हैं तथा अल्लाह और उसके रसूल की आज्ञा का पालन करते हैं। यही लोग हैं जिनपर अल्लाह दया करेगा। निःसंदेह अल्लाह सब पर प्रभुत्वशाली, पूर्ण हिकमत वाला है।

وَعَدَ اللّٰهُ الْمُؤْمِنِيْنَ وَالْمُؤْمِنٰتِ جَنّٰتٍ تَجْرِيْ مِنْ تَحْتِهَا الْاَنْهٰرُ خٰلِدِيْنَ فِيْهَا وَمَسٰكِنَ طَيِّبَةً فِيْ جَنّٰتِ عَدْنٍ ۗوَرِضْوَانٌ مِّنَ اللّٰهِ اَكْبَرُ ۗذٰلِكَ هُوَ الْفَوْزُ الْعَظِيْمُ ࣖ٧٢
Wa‘adallāhul-mu'minīna wal-mu'mināti jannātin tajrī min taḥtihal-anhāru khālidīna fīhā wa masākina ṭayyibatan fī jannāti ‘adn(in), wa riḍwānum minallāhi akbar(u), żālika huwal-fauzul-‘aẓīm(u).
[72] अल्लाह ने ईमान वाले पुरुषों तथा ईमान वाली स्त्रियों से ऐसे बाग़ों का वादा किया है जिनके नीचे से नहरें बहती हैं, जिनमें वे सदैव रहने वाले होंगे, और स्थायी बाग़ों में अच्छे आवासों का (वादा किया है)। और अल्लाह की ओर से थोड़ी-सी प्रसन्नता सबसे बड़ी है, यही तो बहुत बड़ी सफलता है।

يٰٓاَيُّهَا النَّبِيُّ جَاهِدِ الْكُفَّارَ وَالْمُنٰفِقِيْنَ وَاغْلُظْ عَلَيْهِمْ ۗوَمَأْوٰىهُمْ جَهَنَّمُ وَبِئْسَ الْمَصِيْرُ٧٣
Yā ayyuhan-nabiyyu jāhidil-kuffāra wal-munāfiqīna wagluẓ ‘alaihim, wa ma'wāhum jahannamu wa bi'sal-maṣīr(u).
[73] ऐ नबी! काफ़िरों और मुनाफ़िक़ों से जिहाद करें और उनपर सख़्ती करें। और उनका ठिकाना जहन्नम है और वह बहुत बुरा लौटकर जाने का स्थान है।

يَحْلِفُوْنَ بِاللّٰهِ مَا قَالُوْا ۗوَلَقَدْ قَالُوْا كَلِمَةَ الْكُفْرِ وَكَفَرُوْا بَعْدَ اِسْلَامِهِمْ وَهَمُّوْا بِمَا لَمْ يَنَالُوْاۚ وَمَا نَقَمُوْٓا اِلَّآ اَنْ اَغْنٰىهُمُ اللّٰهُ وَرَسُوْلُهٗ مِنْ فَضْلِهٖ ۚفَاِنْ يَّتُوْبُوْا يَكُ خَيْرًا لَّهُمْ ۚوَاِنْ يَّتَوَلَّوْا يُعَذِّبْهُمُ اللّٰهُ عَذَابًا اَلِيْمًا فِى الدُّنْيَا وَالْاٰخِرَةِ ۚوَمَا لَهُمْ فِى الْاَرْضِ مِنْ وَّلِيٍّ وَّلَا نَصِيْرٍ٧٤
Yaḥlifūna billāhi mā qālū, wa laqad qālū kalimatal-kufri wa kafarū ba‘da islāmihim wa hammū bimā lam yanālū, wa mā naqamū illā an agnāhumullāhu wa rasūluhū min faḍlih(ī), fa iy yatūbū yaku khairal lahum, wa iy yatawallau yu‘ażżibhumullāhu ‘ażāban alīman fid-dun-yā wal-ākhirah(ti), wa mā lahum fil-arḍi miw waliyyiw wa lā naṣīr(in).
[74] वे अल्लाह की क़सम खाते हैं कि उन्होंने (यह) बात36 नहीं कही। हालाँकि निःसंदेह उन्होंने कुफ़्र की बात37 कही और अपने इस्लाम लाने के पश्चात् काफ़िर हो गए और उन्होंने उस चीज़ का इरादा किया, जो उन्हें नहीं मिली। और उन्होंने केवल इसका बदला लिया कि अल्लाह और उसके रसूल ने उन्हें अपने अनुग्रह से समृद्ध38 कर दिया। अब यदि वे तौबा कर लें, तो उनके लिए बेहतर होगा और अगर वे मुँह फेर लें, तो अल्लाह उन्हें दुनिया और आख़िरत में दर्दनाक अज़ाब देगा और उनका धरती पर न कोई दोस्त होगा और न कोई मददगार।
36. अर्थात ऐसी बात जो रसूल और मुसलमानों को बुरी लगे। 37. यह उन बातों की ओर संकेत हैं जो मुनाफ़िक़ों ने तबूक की मुहिम के समय की थीं। (उनकी ऐसी बातों के विवरण के लिए देखिए : सूरतुल मुनाफ़िक़ून, आयत : 7-8) 38. नबी सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम के मदीना आने से पहले मदीने का कोई महत्व न था। आर्थिक दशा भी अच्छी नहीं थी। जो कुछ था यहूदियों के अधिकार में था। वे ब्याज भक्षी थे, शराब का व्यापार करते थे, और अस्त्र-शस्त्र बनाते थे। आपके आगमन के पश्चात आर्थिक दशा सुधर गई, और व्यवसायिक उन्नति हुई।

۞ وَمِنْهُمْ مَّنْ عٰهَدَ اللّٰهَ لَىِٕنْ اٰتٰىنَا مِنْ فَضْلِهٖ لَنَصَّدَّقَنَّ وَلَنَكُوْنَنَّ مِنَ الصّٰلِحِيْنَ٧٥
Wa minhum man ‘āhadallāha la'in ātānā min faḍlihī lanaṣṣaddaqanna wa lanakūnanna minaṣ-ṣāliḥīn(a).
[75] और उनमें से कुछ लोग ऐसे हैं जिन्होंने अल्लाह को वचन दिया कि निश्चय यदि उसने हमें अपने अनुग्रह से कुछ प्रदान किया, तो हम अवश्य दान करेंगे और निश्चित रूप से नेक लोगों में से हो जाएँगे।

فَلَمَّآ اٰتٰىهُمْ مِّنْ فَضْلِهٖ بَخِلُوْا بِهٖ وَتَوَلَّوْا وَّهُمْ مُّعْرِضُوْنَ٧٦
Falammā ātāhum min faḍlihī bakhilū bihī wa tawallau wa hum mu‘riḍūn(a).
[76] फिर जब उसने उन्हें अपने अनुग्रह से कुछ प्रदान किया, तो उन्होंने उसमें कंजूसी की और विमुख होकर फिर गए।

فَاَعْقَبَهُمْ نِفَاقًا فِيْ قُلُوْبِهِمْ اِلٰى يَوْمِ يَلْقَوْنَهٗ بِمَآ اَخْلَفُوا اللّٰهَ مَا وَعَدُوْهُ وَبِمَا كَانُوْا يَكْذِبُوْنَ٧٧
Fa a‘qabahum nifāqan fī qulūbihim ilā yaumi yalqaunahū bimā akhlafullāha mā wa‘adūhu wa bimā kānū yakżibūn(a).
[77] तो परिणाम यह हुआ कि उस (अल्लाह) ने उनके दिलों में उस दिन तक के लिए निफ़ाक़ डाल दिया, जब वे उससे मिलेंगे। क्योंकि उन्होंने अल्लाह से जो वादा किया था, उसका उल्लंघन किया और इसलिए कि वे झूठ बोलते थे।

اَلَمْ يَعْلَمُوْٓا اَنَّ اللّٰهَ يَعْلَمُ سِرَّهُمْ وَنَجْوٰىهُمْ وَاَنَّ اللّٰهَ عَلَّامُ الْغُيُوْبِ٧٨
Alam ya‘lamū annallāha ya‘lamu sirrahum wa najwāhum wa annallāha ‘allāmul-guyūb(i).
[78] क्या उन्हें नहीं मालूम कि निःसंदेह अल्लाह उनके भेद और उनकी कानाफूसी को अच्छी तरह जानता है और यह कि निःसंदेह अल्लाह परोक्ष की सभी बातों को भली-भाँति जानने वाला है?

اَلَّذِيْنَ يَلْمِزُوْنَ الْمُطَّوِّعِيْنَ مِنَ الْمُؤْمِنِيْنَ فِى الصَّدَقٰتِ وَالَّذِيْنَ لَا يَجِدُوْنَ اِلَّا جُهْدَهُمْ فَيَسْخَرُوْنَ مِنْهُمْ ۗسَخِرَ اللّٰهُ مِنْهُمْ ۖ وَلَهُمْ عَذَابٌ اَلِيْمٌ٧٩
Allażīna yalmizūnal-muṭṭawwi‘īna minal-mu'minīna fiṣ-ṣadaqāti wal-lażīna lā yajidūna illā juhdahum fa yaskharūna minhum, sakhirallāhu minhum, wa lahum ‘ażābun alīm(un).
[79] वे लोग जो स्वेच्छापूर्वक दान देने वाले मोमिनों को, उनके दान के विषय में, ताना देते हैं तथा उन लोगों को (भी) जो अपनी मेहनत के सिवा कुछ नहीं पाते। तो वे (मुनाफ़िक़) उनका उपहास करते हैं। अल्लाह ने उनका उपहास किया39 और उनके लिए दर्दनाक यातना है।
39. अर्थात उनके उपहास का कुफल दे रहा है। अबू मस्ऊद रज़ियल्लाहु अन्हु कहते हैं कि जब हमें दान देने का आदेश दिया गया, तो हम कमाने के लिए बोझ लादने लगे, ताकि हम दान कर सकें। और अबू अक़ील (रज़ियल्लाहु अन्हु) आधा सा' (सवा किलो) लाए। और एक व्यक्ति उनसे अधिक लेकर आया। तो मुनाफ़िक़ों ने कहा : अल्लाह को उसके थोड़े-से दान की ज़रूरत नहीं। और यह दिखाने के लिए (अधिक) लाया है। इसी पर यह आयत उतरी। (सह़ीह़ बुख़ारी : 4668)

اِسْتَغْفِرْ لَهُمْ اَوْ لَا تَسْتَغْفِرْ لَهُمْۗ اِنْ تَسْتَغْفِرْ لَهُمْ سَبْعِيْنَ مَرَّةً فَلَنْ يَّغْفِرَ اللّٰهُ لَهُمْ ۗذٰلِكَ بِاَنَّهُمْ كَفَرُوْا بِاللّٰهِ وَرَسُوْلِهٖۗ وَاللّٰهُ لَا يَهْدِى الْقَوْمَ الْفٰسِقِيْنَ ࣖ٨٠
Istagfir lahum au lā tastagfir lahum, in tastagfir lahum sab‘īna marratan falay yagfirallāhu lahum, żālika bi'annahum kafarū billāhi wa rasūlih(ī), wallāhu lā yahdil-qaumal-fāsiqīn(a).
[80] (ऐ नबी!) आप उनके लिए क्षमा याचना करें, या उनके लिए क्षमा याचना न करें, यदि आप उनके लिए सत्तर बार क्षमा याचना करें, तो भी अल्लाह उन्हें कभी क्षमा नहीं करेगा। यह इस कारण कि उन्होंने अल्लाह और उसके रसूल के साथ कुफ़्र किया और अल्लाह अवज्ञाकारी लोगों का मार्गदर्शन नहीं करता।

فَرِحَ الْمُخَلَّفُوْنَ بِمَقْعَدِهِمْ خِلٰفَ رَسُوْلِ اللّٰهِ وَكَرِهُوْٓا اَنْ يُّجَاهِدُوْا بِاَمْوَالِهِمْ وَاَنْفُسِهِمْ فِيْ سَبِيْلِ اللّٰهِ وَقَالُوْا لَا تَنْفِرُوْا فِى الْحَرِّۗ قُلْ نَارُ جَهَنَّمَ اَشَدُّ حَرًّاۗ لَوْ كَانُوْا يَفْقَهُوْنَ٨١
Fariḥal-mukhallafūna bimaq‘adihim khilāfa rasūlillāhi wa karihū ay yujāhidū bi'amwālihim wa anfusihim fī sabīlillāhi wa qālū lā tanfirū fil-ḥarr(i), qul nāru jahannama asyaddu ḥarrā(n), lau kānū yafqahūn(a).
[81] वे लोग जो पीछे छोड़ दिए40 गए, अल्लाह के रसूल के पीछे अपने बैठ रहने पर खुश हो गए और उन्होंने नापसंद किया कि अपने धनों और अपने प्राणों के साथ अल्लाह के मार्ग में जिहाद करें और उन्होंने (अन्य लोगों से) कहा कि गर्मी में मत निकलो। आप कह दें : जहन्नम की आग कहीं अधिक गर्म है। काश! वे समझते होते।
40. अर्थात मुनाफ़िक़ जो मदीना में रह गए और तबूक के युद्ध में नबी सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम के साथ नहीं गए।

فَلْيَضْحَكُوْا قَلِيْلًا وَّلْيَبْكُوْا كَثِيْرًاۚ جَزَاۤءًۢ بِمَا كَانُوْا يَكْسِبُوْنَ٨٢
Falyaḍḥakū qalīlaw walyabkū kaṡīrā(n), jazā'am bimā kānū yaksibūn(a).
[82] तो उन्हें चाहिए कि थोड़ा हँसें और बहुत अधिक रोएँ, उसके बदले जो वे कमाते रहे हैं।

فَاِنْ رَّجَعَكَ اللّٰهُ اِلٰى طَاۤىِٕفَةٍ مِّنْهُمْ فَاسْتَأْذَنُوْكَ لِلْخُرُوْجِ فَقُلْ لَّنْ تَخْرُجُوْا مَعِيَ اَبَدًا وَّلَنْ تُقَاتِلُوْا مَعِيَ عَدُوًّاۗ اِنَّكُمْ رَضِيْتُمْ بِالْقُعُوْدِ اَوَّلَ مَرَّةٍۗ فَاقْعُدُوْا مَعَ الْخٰلِفِيْنَ٨٣
Fa ir raja‘akallāhu ilā ṭā'ifatim minhum fasta'żanūka lil-khurūji faqul lan takhrujū ma‘iya abadaw wa lan tuqātilū ma‘iya ‘aduwwā(n), innakum raḍītum bil-qu‘ūdi awwala marrah(tin), faq‘udū ma‘al-khālifīn(a).
[83] तो यदि अल्लाह आपको इन (मुनाफ़िक़ों) के किसी गिरोह की ओर वापस ले आए, फिर वे आपसे (युद्ध में) निकलने की अनुमति माँगें, तो आप कह दें : तुम मेरे साथ कभी नहीं निकलोगे और मेरे साथ मिलकर किसी शत्रु से नहीं लड़ोगे। निःसंदेह तुम प्रथम बार बैठे रहने पर प्रसन्न हुए, अतः पीछे रहने वालों के साथ बैठे रहो।

وَلَا تُصَلِّ عَلٰٓى اَحَدٍ مِّنْهُمْ مَّاتَ اَبَدًا وَّلَا تَقُمْ عَلٰى قَبْرِهٖۗ اِنَّهُمْ كَفَرُوْا بِاللّٰهِ وَرَسُوْلِهٖ وَمَاتُوْا وَهُمْ فٰسِقُوْنَ٨٤
Wa lā tuṣalli ‘alā aḥadim minhum māta abadaw wa lā taqum ‘alā qabrih(ī), innahum kafarū billāhi wa rasūlihī wa mātū wa hum fāsiqūn(a).
[84] और उनमें से जो कोई मर जाए, उसका कभी जनाज़ा न पढ़ना और न उसकी क़ब्र पर खड़े होना। निःसंदेह उन्होंने अल्लाह और उसके रसूल के साथ कुफ़्र किया और इस अवस्था में मरे कि वे अवज्ञाकारी थे।41
41. सह़ीह़ ह़दीस में है कि जब नबी (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) ने मुनाफ़िक़ों के मुखिया अब्दुल्लाह बिन उबय्य का जनाज़ा पढ़ा, तो यह आयत उतरी। (सह़ीह़ बुख़ारी : 4672)

وَلَا تُعْجِبْكَ اَمْوَالُهُمْ وَاَوْلَادُهُمْۗ اِنَّمَا يُرِيْدُ اللّٰهُ اَنْ يُّعَذِّبَهُمْ بِهَا فِى الدُّنْيَا وَتَزْهَقَ اَنْفُسُهُمْ وَهُمْ كٰفِرُوْنَ٨٥
Wa lā tu‘jibka amwāluhum wa lā aulāduhum, innamā yurīdullāhu ay yu‘ażżibahum bihā fid-dun-yā wa tazhaqa anfusuhum wa hum kāfirūn(a).
[85] और आपको उनके धन और उनकी संतान भले न लगें। अल्लाह तो यही चाहता है कि उन्हें इनके द्वारा सांसारिक जीवन में यातना दे और उनके प्राण इस हाल में निकलें कि वे काफ़िर हों।

وَاِذَآ اُنْزِلَتْ سُوْرَةٌ اَنْ اٰمِنُوْا بِاللّٰهِ وَجَاهِدُوْا مَعَ رَسُوْلِهِ اسْتَأْذَنَكَ اُولُوا الطَّوْلِ مِنْهُمْ وَقَالُوْا ذَرْنَا نَكُنْ مَّعَ الْقٰعِدِيْنَ٨٦
Wa iżā unzilat sūratun an āminū billāhi wa jāhidū ma‘a rasūlihista'żanaka uluṭ-ṭauli minhum wa qālū żarnā nakum ma‘al-qā‘idīn(a).
[86] तथा जब कोई सूरत उतारी जाती है कि अल्लाह पर ईमान लाओ तथा उसके रसूल के साथ मिलकर जिहाद करो, तो उनमें से धनवान लोग आपसे अनुमति माँगते हैं और कहते हैं : आप हमें छोड़ दें कि हम बैठने वालों के साथ हो जाएँ।

رَضُوْا بِاَنْ يَّكُوْنُوْا مَعَ الْخَوَالِفِ وَطُبِعَ عَلٰى قُلُوْبِهِمْ فَهُمْ لَا يَفْقَهُوْنَ٨٧
Raḍū bi'ay yakūnū ma‘al-khawālifi wa ṭubi‘a ‘alā qulūbihim fahum lā yafqahūn(a).
[87] वे इसपर राज़ी हो गए कि पीछे रहने वाली स्त्रियों के साथ हो जाएँ और उनके दिलों पर मुहर लगा दी गई। अतः वे नहीं समझते।

لٰكِنِ الرَّسُوْلُ وَالَّذِيْنَ اٰمَنُوْا مَعَهٗ جَاهَدُوْا بِاَمْوَالِهِمْ وَاَنْفُسِهِمْۗ وَاُولٰۤىِٕكَ لَهُمُ الْخَيْرٰتُ ۖوَاُولٰۤىِٕكَ هُمُ الْمُفْلِحُوْنَ٨٨
Lākinir-rasūlu wal-lażīna āmanū ma‘ahū jāhadū bi'amwālihim wa anfusihim, wa ulā'ika lahumul-khairāt(u), wa ulā'ika humul-mufliḥūn(a).
[88] परंतु रसूल ने और उन लोगों ने जो उसके साथ ईमान लाए, अपने धनों और अपने प्राणों के साथ जिहाद किया और यही लोग हैं जिनके लिए सब भलाइयाँ हैं और यही सफल होने वाले हैं।

اَعَدَّ اللّٰهُ لَهُمْ جَنّٰتٍ تَجْرِيْ مِنْ تَحْتِهَا الْاَنْهٰرُ خٰلِدِيْنَ فِيْهَاۗ ذٰلِكَ الْفَوْزُ الْعَظِيْمُ ࣖ٨٩
A‘addallāhu lahum jannātin tajrī min taḥtihal-anhāru khālidīna fīhā, żālikal-fauzul-‘aẓīm(u).
[89] अल्लाह ने उनके लिए ऐसे बाग़ तैयार कर रखे हैं, जिनके नीचे से नहरें बहती हैं। वे उनमें हमेशा रहने वाले हैं। यही बहुत बड़ी सफलता है।

وَجَاۤءَ الْمُعَذِّرُوْنَ مِنَ الْاَعْرَابِ لِيُؤْذَنَ لَهُمْ وَقَعَدَ الَّذِيْنَ كَذَبُوا اللّٰهَ وَرَسُوْلَهٗ ۗسَيُصِيْبُ الَّذِيْنَ كَفَرُوْا مِنْهُمْ عَذَابٌ اَلِيْمٌ٩٠
Wa jā'al-mu‘ażżirūna minal-a‘rābi liyu'żana lahum wa qa‘adal-lażīna każabullāha wa rasūlah(ū), sayuṣībul-lażīna kafarū minhum ‘ażābun alīm(un).
[90] और देहातियों में से बहाना करने वाले लोग आए, ताकि उन्हें (युद्ध में शरीक न होने की) अनुमति दी जाए। तथा वे लोग (अपने घरों में) बैठ रहे, जिन्होंने अल्लाह और उसके रसूल से झूठ बोला। उनमें से उन लोगों को जिन्होंने कुफ़्र किया, जल्द ही दर्दनाक यातना पहुँचेगी।

لَيْسَ عَلَى الضُّعَفَاۤءِ وَلَا عَلَى الْمَرْضٰى وَلَا عَلَى الَّذِيْنَ لَا يَجِدُوْنَ مَا يُنْفِقُوْنَ حَرَجٌ اِذَا نَصَحُوْا لِلّٰهِ وَرَسُوْلِهٖۗ مَا عَلَى الْمُحْسِنِيْنَ مِنْ سَبِيْلٍ ۗوَاللّٰهُ غَفُوْرٌ رَّحِيْمٌۙ٩١
Laisa ‘alaḍ-ḍu‘afā'i wa lā ‘alal-marḍā wa lā ‘alal-lażīna lā yajidūna mā yunfiqūna ḥarajun iżā naṣaḥū lillāhi wa rasūlih(ī), mā ‘alal-muḥsinīna min sabīl(in), wallāhu gafūrur raḥīm(un).
[91] न तो कमज़ोरों पर कोई हर्ज (पाप) है और न बीमारों पर और न उन लोगों पर जो वह चीज़ नहीं पाते जो ख़र्च करें, जब वे अल्लाह और उसके रसूल के प्रति निष्ठावान हों। सत्कर्म करने वालों पर (आपत्ति का) का कोई रास्ता नहीं। और अल्लाह बड़ा क्षमाशील, अत्यंत दयावान है।

وَّلَا عَلَى الَّذِيْنَ اِذَا مَآ اَتَوْكَ لِتَحْمِلَهُمْ قُلْتَ لَآ اَجِدُ مَآ اَحْمِلُكُمْ عَلَيْهِ ۖتَوَلَّوْا وَّاَعْيُنُهُمْ تَفِيْضُ مِنَ الدَّمْعِ حَزَنًا اَلَّا يَجِدُوْا مَا يُنْفِقُوْنَۗ٩٢
Wa lā ‘alal-lażīna iżā mā atauka litaḥmilahum qulta lā ajidu mā aḥmilukum ‘alaih(i), tawallau wa a‘yunuhum tafīḍu minad dam‘i ḥazanan allā yajidū mā yunfiqūn(a).
[92] और न उन लोगों पर (कोई पाप है) कि जब वे आपके पास आए, ताकि आप उनके लिए सवारी की व्यवस्था कर दें, आपने कहा मैं वह चीज़ नहीं पाता जिसपर तुम्हें सवार करूँ, तो वे इस हाल में वापस हुए कि उनकी आँखें आँसुओं से बह रही थीं42 इस शोक के कारण कि वे खर्च करने के लिए कुछ नहीं पाते।
42. ये विभिन्न क़बीलों के लोग थे, जो आप सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम की सेवा में उपस्थित हुए कि आप हमारे लिए सवारी का प्रबंध कर दें। हम भी आपके साथ तबूक के जिहाद में जाएँगे। परंतु आप सवारी का कोई प्रबंध न कर सके और वे रोते हुए वापस हुए। (इब्ने कसीर)

۞ اِنَّمَا السَّبِيْلُ عَلَى الَّذِيْنَ يَسْتَأْذِنُوْنَكَ وَهُمْ اَغْنِيَاۤءُۚ رَضُوْا بِاَنْ يَّكُوْنُوْا مَعَ الْخَوَالِفِۙ وَطَبَعَ اللّٰهُ عَلٰى قُلُوْبِهِمْ فَهُمْ لَا يَعْلَمُوْنَ ۔٩٣
Innamas-sabīlu ‘alal-lażīna yasta'żinūnaka wa hum agniyā'(u), raḍū bi'ay yakūnū ma‘al-khawālif(i), wa ṭaba‘allāhu ‘alā qulūbihim fahum lā ya‘lamūn(a).
[93] (आपत्ति का) का रास्ता तो केवल उन लोगों पर है, जो आपसे अनुमति माँगते हैं, हालाँकि वे मालदार हैं। वे इसपर राज़ी हो गए कि पीछे रहने वाली औरतों के साथ हो जाएँ और अल्लाह ने उनके दिलों पर मुहर लगा दी, सो वे नहीं जानते।

يَعْتَذِرُوْنَ اِلَيْكُمْ اِذَا رَجَعْتُمْ اِلَيْهِمْ ۗ قُلْ لَّا تَعْتَذِرُوْا لَنْ نُّؤْمِنَ لَكُمْ قَدْ نَبَّاَنَا اللّٰهُ مِنْ اَخْبَارِكُمْ وَسَيَرَى اللّٰهُ عَمَلَكُمْ وَرَسُوْلُهٗ ثُمَّ تُرَدُّوْنَ اِلٰى عٰلِمِ الْغَيْبِ وَالشَّهَادَةِ فَيُنَبِّئُكُمْ بِمَا كُنْتُمْ تَعْمَلُوْنَ٩٤
Ya‘tażirūna ilaikum iżā raja‘tum ilaihim, qul lā ta‘tażirū lan nu'mina lakum qad nabba'anallāhu min akhbārikum wa sayarallāhu ‘amalakum wa rasūluhū ṡumma turaddūna ilā ‘ālimil-gaibi wasy-syahādati fa yunabbi'ukum bimā kuntum ta‘malūn(a).
[94] जब तुम उनकी ओर वापस जाओगे, तो वे तुम्हारे सामने बहाने पेश करेंगे। आप कह दें : हम तुम्हारा कभी विश्वास नहीं करेंगे, निःसंदेह अल्लाह हमें तुम्हारी कुछ ख़बरें बता चुका है, और जल्द ही अल्लाह तुम्हारे काम को देखेगा और उसका रसूल भी। फिर तुम हर परोक्ष और प्रत्यक्ष चीज़ को जानने वाले की ओर लौटाए जाओगे। फिर वह तुम्हें बताएगा जो कुछ तुम करते रहे थे।

سَيَحْلِفُوْنَ بِاللّٰهِ لَكُمْ اِذَا انْقَلَبْتُمْ اِلَيْهِمْ لِتُعْرِضُوْا عَنْهُمْ ۗ فَاَعْرِضُوْا عَنْهُمْ ۗ اِنَّهُمْ رِجْسٌۙ وَّمَأْوٰىهُمْ جَهَنَّمُ جَزَاۤءً ۢبِمَا كَانُوْا يَكْسِبُوْنَ٩٥
Sayaḥlifūna billāhi lakum iżanqalabtum ilaihim litu‘riḍū ‘anhum, fa a‘riḍū ‘anhum, innahum rijs(un), wa ma'wāhum jahannamu jazā'am bimā kānū yaksibūn(a).
[95] शीघ्र ही जब तुम उनकी ओर वापस जाओगे, तो वे तुम्हारे सामने अल्लाह की क़समें खाएँगे, ताकि तुम उनसे ध्यान हटा लो। अतः उनकी उपेक्षा करो, निःसंदेह वे गंदे हैं और उनका ठिकाना जहन्नम है, उसके बदले जो वे कमाते रहे हैं।

يَحْلِفُوْنَ لَكُمْ لِتَرْضَوْا عَنْهُمْ ۚفَاِنْ تَرْضَوْا عَنْهُمْ فَاِنَّ اللّٰهَ لَا يَرْضٰى عَنِ الْقَوْمِ الْفٰسِقِيْنَ٩٦
Yaḥlifūna lakum litarḍau ‘anhum, fa in tarḍau ‘anhum fa innallāha lā yarḍā ‘anil-qaumil-fāsiqīn(a).
[96] वे तुम्हारे लिए क़समें खाएँगे, ताकि तुम उनसे राज़ी हो जाओ। तो यदि तुम उनसे राज़ी हो जाओ, तो निःसंदेह अल्लाह अवज्ञाकारी लोगों से राज़ी नहीं होता।

اَلْاَعْرَابُ اَشَدُّ كُفْرًا وَّنِفَاقًا وَّاَجْدَرُ اَلَّا يَعْلَمُوْا حُدُوْدَ مَآ اَنْزَلَ اللّٰهُ عَلٰى رَسُوْلِهٖ ۗوَاللّٰهُ عَلِيْمٌ حَكِيْمٌ٩٧
Al-a‘rābu asyaddu kufraw wa nifāqaw wa ajdaru allā ya‘lamū ḥudūda mā anzalallāhu ‘alā rasūlih(ī), wallāhu ‘alīmun ḥakīm(un).
[97] देहाती43 अविश्वास तथा पाखंड में अधिक बढ़े हुए हैं और इस बात के अधिक योग्य हैं कि उन सीमाओं को न जानें, जो अल्लाह ने अपने रसूल पर उतारी हैं, और अल्लाह सब कुछ जानने वाला, पूर्ण हिकमत वाला है।
43. इससे अभिप्राय मदीना के आस-पास के क़बीले हैं।

وَمِنَ الْاَعْرَابِ مَنْ يَّتَّخِذُ مَا يُنْفِقُ مَغْرَمًا وَّيَتَرَبَّصُ بِكُمُ الدَّوَاۤىِٕرَ ۗعَلَيْهِمْ دَاۤىِٕرَةُ السَّوْءِ ۗوَاللّٰهُ سَمِيْعٌ عَلِيْمٌ٩٨
Wa minal-a‘rābi may yattakhiżu mā yunfiqu magramaw wa yatarabbaṣu bikumud-dawā'ir(a), ‘alaihim dā'iratus-sau'(i), wallāhu samī‘un ‘alīm(un).
[98] देहातियों में कुछ ऐसे हैं कि जो कुछ ख़र्च करते हैं, उसे तावान समझते हैं और तुम्हारे लिए बुरे समय की प्रतीक्षा करते हैं। बुरा समय उन्हीं पर आए। और अल्लाह सब कुछ सुनने वाला, सब कुछ जानने वाला है।

وَمِنَ الْاَعْرَابِ مَنْ يُّؤْمِنُ بِاللّٰهِ وَالْيَوْمِ الْاٰخِرِ وَيَتَّخِذُ مَا يُنْفِقُ قُرُبٰتٍ عِنْدَ اللّٰهِ وَصَلَوٰتِ الرَّسُوْلِ ۗ اَلَآ اِنَّهَا قُرْبَةٌ لَّهُمْ ۗ سَيُدْخِلُهُمُ اللّٰهُ فِيْ رَحْمَتِهٖ ۗاِنَّ اللّٰهَ غَفُوْرٌ رَّحِيْمٌ ࣖ٩٩
Wa minal-a‘rābi may yu'minu billāhi wal-yaumil-ākhiri wa yattakhiżu mā yunfiqu qurubātin ‘indallāhi wa ṣalawātir-rasūl(i), alā innahā qurbatul lahum, sayudkhiluhumullāhu fī raḥmatih(ī), innallāha gafūrur raḥīm(un).
[99] और देहातियों में कुछ ऐसे हैं, जो अल्लाह तथा अंतिम दिन पर ईमान रखते हैं और जो कुछ ख़र्च करते हैं, उसे अल्लाह के यहाँ निकटता तथा रसूल की दुआओं (की प्राप्ति) का साधन समझते हैं। सुन लो! निःसंदेह यह उनके लिए निकटता का साधन है। शीघ्र ही अल्लाह उन्हें अपनी दया में दाखिल करेगा। निःसंदेह अल्लाह अत्यंत क्षमाशील, असीम दयावान् है।

وَالسّٰبِقُوْنَ الْاَوَّلُوْنَ مِنَ الْمُهٰجِرِيْنَ وَالْاَنْصَارِ وَالَّذِيْنَ اتَّبَعُوْهُمْ بِاِحْسَانٍۙ رَّضِيَ اللّٰهُ عَنْهُمْ وَرَضُوْا عَنْهُ وَاَعَدَّ لَهُمْ جَنّٰتٍ تَجْرِيْ تَحْتَهَا الْاَنْهٰرُ خٰلِدِيْنَ فِيْهَآ اَبَدًا ۗذٰلِكَ الْفَوْزُ الْعَظِيْمُ١٠٠
Was-sābiqūnal-awwalūna minal-muhājirīna wal-anṣāri wal-lażīnattaba‘ūhum bi'iḥsān(in), raḍiyallāhu ‘anhum wa raḍū ‘anhu wa a‘adda lahum jannātin tajrī taḥtahal-anhāru khālidīna fīhā abadā(n), żālikal-fauzul-‘aẓīm(u).
[100] तथा सबसे पहले (ईमान की ओर) आगे बढ़ने वाले मुहाजिरीन44 और अंसार और जिन लोगों ने नेकी के साथ उनका अनुसरण किया, अल्लाह उनसे प्रसन्न हो गया और वे उससे प्रसन्न हो गए तथा उसने उनके लिए ऐसी जन्नतें तैयार कर रखी हैं, जिनके नीचे से नहरें बहती हैं। वे उनके अंदर हमेशा रहेंगे। यही बड़ी सफलता है।
44. इससे अभिप्राय वे मुहाजिरीन हैं जो मक्का से हिजरत करके ह़ुदैबिया की संधि सन् 6 हिजरी से पहले मदीना आ गए थे। और प्रथम आगे बढ़नेवाले अंसार मदीना के वे मुसलमान हैं जो मुहाजिरीन के सहायक बने और ह़ुदैबिया में उपस्थित थे। (इब्ने कसीर)

وَمِمَّنْ حَوْلَكُمْ مِّنَ الْاَعْرَابِ مُنٰفِقُوْنَ ۗوَمِنْ اَهْلِ الْمَدِيْنَةِ مَرَدُوْا عَلَى النِّفَاقِۗ لَا تَعْلَمُهُمْۗ نَحْنُ نَعْلَمُهُمْۗ سَنُعَذِّبُهُمْ مَّرَّتَيْنِ ثُمَّ يُرَدُّوْنَ اِلٰى عَذَابٍ عَظِيْمٍ ۚ١٠١
Wa mimman ḥaulakum minal-a‘rābi munāfiqūn(a),wa min ahlil-madīnati maradū ‘alan nifāq(i), lā ta‘lamuhum, naḥnu na‘lamuhum, sanu‘ażżibuhum marrataini ṡumma yuraddūna ilā ‘ażābin ‘aẓīm(in).
[101] और तुम्हारे आस-पास जो देहाती हैं, उनमें से कुछ लोग मुनाफ़िक़ हैं और मदीना वालों में से भी, जो अपने निफ़ाक़ (पाखंड) पर जमे हुए हैं। आप उन्हें नहीं जानते, हम ही उन्हें जानते हैं। जल्द ही हम उन्हें दो बार45 यातना देंगे। फिर वे बहुत बड़ी यातना की ओर लौटाए जाएँगे।
45. संसार में तथा क़ब्र में। फिर परलोक की घोर यातना होगी। (इब्ने कसीर)

وَاٰخَرُوْنَ اعْتَرَفُوْا بِذُنُوْبِهِمْ خَلَطُوْا عَمَلًا صَالِحًا وَّاٰخَرَ سَيِّئًاۗ عَسَى اللّٰهُ اَنْ يَّتُوْبَ عَلَيْهِمْۗ اِنَّ اللّٰهَ غَفُوْرٌ رَّحِيْمٌ١٠٢
Wa ākharūna‘tarafū biżunūbihim khalaṭū ‘amalan ṣāliḥaw wa ākhara sayyi'ā(n), ‘asallāhu ay yatūba ‘alaihim, innallāha gafūrur raḥīm(un).
[102] और कुछ अन्य लोग भी हैं, जिन्होंने अपने गुनाहों का इक़रार किया। उन्होंने कुछ काम अच्छे और कुछ दूसरे बुरे मिला दिए। निकट है कि अल्लाह उनपर फिर से दया करे। निःसंदेह अल्लाह अति क्षमाशील, अत्यंत दयावान् है।

خُذْ مِنْ اَمْوَالِهِمْ صَدَقَةً تُطَهِّرُهُمْ وَتُزَكِّيْهِمْ بِهَا وَصَلِّ عَلَيْهِمْۗ اِنَّ صَلٰوتَكَ سَكَنٌ لَّهُمْۗ وَاللّٰهُ سَمِيْعٌ عَلِيْمٌ١٠٣
Khuż min amwālihim ṣadaqatan tuṭahhiruhum wa tuzakkīhim bihā wa ṣalli ‘alaihim, inna ṣalātaka sakanul lahum, wallāhu samī‘un ‘alīm(un).
[103] आप उनके मालों में से दान लें, जिसके साथ आप उन्हें पवित्र और पाक-साफ़ करें, तथा उनके लिए दुआ करें। निःसंदेह आपकी दुआ उनके लिए शांति का कारण है और अल्लाह सब कुछ सुनने वाला, सब कुछ जानने वाला है।

اَلَمْ يَعْلَمُوْٓا اَنَّ اللّٰهَ هُوَ يَقْبَلُ التَّوْبَةَ عَنْ عِبَادِهٖ وَيَأْخُذُ الصَّدَقٰتِ وَاَنَّ اللّٰهَ هُوَ التَّوَّابُ الرَّحِيْمُ١٠٤
Alam ya‘lamū annallāha huwa yaqbalut-taubata ‘an ‘ibādihī wa ya'khużuṣ-ṣadaqāti wa annallāha huwat-tawwābur-raḥīm(u).
[104] क्या वे नहीं जानते कि निःसंदेह अल्लाह ही अपने बंदों की तौबा क़बूल करता और सदक़े लेता है और यह कि निःसंदेह अल्लाह ही है जो बहुत अधिक तौबा क़बूल करने वाला, अत्यंत दयावान् है।

وَقُلِ اعْمَلُوْا فَسَيَرَى اللّٰهُ عَمَلَكُمْ وَرَسُوْلُهٗ وَالْمُؤْمِنُوْنَۗ وَسَتُرَدُّوْنَ اِلٰى عٰلِمِ الْغَيْبِ وَالشَّهَادَةِ فَيُنَبِّئُكُمْ بِمَا كُنْتُمْ تَعْمَلُوْنَۚ١٠٥
Wa quli‘malū fa sayarallāhu ‘amalakum wa rasūluhū wal-mu'minūn(a), wa saturaddūna ilā ‘ālimil-gaibi wasy-syahādati fa yunabbi'ukum bimā kuntum ta‘malūn(a).
[105] और कह दीजिए : तुम कर्म किए जाओ। जल्द ही अल्लाह तुम्हारे कर्मों को देखेगा, और उसके रसूल और ईमान वाले भी। और जल्द ही तुम हर परोक्ष और प्रत्यक्ष बात को जानने वाले की ओर लौटाए जाओगे। फिर वह तुम्हें बताएगा जो कुछ तुम किया करते थे

وَاٰخَرُوْنَ مُرْجَوْنَ لِاَمْرِ اللّٰهِ اِمَّا يُعَذِّبُهُمْ وَاِمَّا يَتُوْبُ عَلَيْهِمْۗ وَاللّٰهُ عَلِيْمٌ حَكِيْمٌ١٠٦
Wa ākharūna murjaunal li'amrillāhi immā yu‘ażżibuhum wa immā yatūbu ‘alaihim, wallāhu ‘alīmun ḥakīm(un).
[106] और कुछ दूसरे लोग भी हैं, जिनका मामला अल्लाह का आदेश आने तक स्थगित46 है। या तो वह उन्हें यातना दे और या फिर उनकी तौबा क़बूल करे। तथा अल्लाह सब कुछ जानने वाला, पूर्ण हिकमत वाला है।
46. अर्थात अपने विषय में अल्लाह के निर्णय की प्रतीक्षा कर रहे हैं। ये तीन व्यक्ति थे जिन्होंने आप सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम के तबूक से वापस आने पर यह कहा कि वे अपने आलस्य के कारण आपका साथ नहीं दे सके। आपने उनसे कहा कि अल्लाह के आदेश की प्रतीक्षा करो। और आगामी आयत 117 में उनके बारे में आदेश आ रहा है।

وَالَّذِيْنَ اتَّخَذُوْا مَسْجِدًا ضِرَارًا وَّكُفْرًا وَّتَفْرِيْقًاۢ بَيْنَ الْمُؤْمِنِيْنَ وَاِرْصَادًا لِّمَنْ حَارَبَ اللّٰهَ وَرَسُوْلَهٗ مِنْ قَبْلُ ۗوَلَيَحْلِفُنَّ اِنْ اَرَدْنَآ اِلَّا الْحُسْنٰىۗ وَاللّٰهُ يَشْهَدُ اِنَّهُمْ لَكٰذِبُوْنَ١٠٧
Wal-lażīnattakhażū masjidan ḍirāraw wa kufraw wa tafrīqam bainal-mu'minīna wa irṣādal liman ḥāraballāha wa rasūlahū min qabl(u), wa layaḥlifunna in aradnā illal-ḥusnā, wallāhu yasyhadu innahum lakāżibūn(a).
[107] तथा (मुनाफ़िक़ों में से) वे लोग भी हैं, जिन्होंने एक मस्जिद47 बनाई; ताकि (मुसलमानों को) हानि पहुँचाएँ, कुफ़्र करें, ईमान वालों के बीच फूट डालें तथा ऐसे व्यक्ति के लिए घात लगाने का ठिकाना बनाएँ, जो इससे पहले अल्लाह और उसके रसूल से युद्ध कर चुका48 है। तथा निश्चय वे अवश्य क़समें खाएँगे कि हमारा इरादा भलाई के सिवा और कुछ न था, और अल्लाह गवाही देता है कि निःसंदेह वे निश्चय झूठे हैं।
47. इस्लामी इतिहास में यह "मस्जिदे ज़िरार" के नाम से याद की जाती है। जब नबी सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम मदीना आए तो आपके आदेश से "क़ुबा" नाम के स्थान में एक मस्जिद बनाई गई। जो इस्लामी युग की प्रथम मस्जिद है। कुछ मुनाफ़िक़ों ने उसी के पास एक नई मस्जिद का निर्माण किया। और जब आप तबूक के लिए निकल रहे थे तो आपसे कहा कि आप एक दिन उसमें नमाज़ पढ़ा दें। आपने कहा कि यात्रा से वापसी पर देखा जाएगा। और जब वापस मदीना के समीप पहुँचे तो यह आयत उतरी, और आपके आदेश से उसे ध्वस्त कर दिया गया। (इब्ने कसीर) 48. इससे अभीप्रेत अबू आमिर राहिब है। जिसने कुछ लोगों से कहा कि एक मस्जिद बनाओ और जितनी शक्ति और अस्त्र-शस्त्र हो सके तैयार कर लो। मैं रोम के राजा क़ैसर के पास जा रहा हूँ। रोमियों की सेना लाऊँगा, और मुह़म्मद तथा उसके साथियों को मदीना से निकाल दूँगा। (इब्ने कसीर)

لَا تَقُمْ فِيْهِ اَبَدًاۗ لَمَسْجِدٌ اُسِّسَ عَلَى التَّقْوٰى مِنْ اَوَّلِ يَوْمٍ اَحَقُّ اَنْ تَقُوْمَ فِيْهِۗ فِيْهِ رِجَالٌ يُّحِبُّوْنَ اَنْ يَّتَطَهَّرُوْاۗ وَاللّٰهُ يُحِبُّ الْمُطَّهِّرِيْنَ١٠٨
Lā taqum fīhi abadā(n), lamasjidun ussisa ‘alat-taqwā min awwali yaumin aḥaqqu an taqūma fīh(i), fīhi rijāluy yuḥibbūna ay yataṭahharū, wallāhu yuḥibbul-muṭṭahhirīn(a).
[108] उसमें कभी खड़े न होना। निश्चय वह मस्जिद49 जिसकी बुनियाद पहले दिन से परहेज़गारी पर रखी गई है, वह अधिक योग्य है कि आप उसमें खड़े हों। उसमें ऐसे लोग हैं, जो बहुत पाक-साफ़ रहना पसंद50 करते हैं और अल्लाह पाक-साफ़ रहने वालों से प्रेम करता है।
49. इस मस्जिद से अभिप्राय क़ुबा की मस्जिद है। तथा मस्जिद नबवी शरीफ़ भी इसी में आती है। (इब्ने कसीर) 50. अर्थात शुद्धता के लिए जल का प्रयोग करते हैं।

اَفَمَنْ اَسَّسَ بُنْيَانَهٗ عَلٰى تَقْوٰى مِنَ اللّٰهِ وَرِضْوَانٍ خَيْرٌ اَمْ مَّنْ اَسَّسَ بُنْيَانَهٗ عَلٰى شَفَا جُرُفٍ هَارٍ فَانْهَارَ بِهٖ فِيْ نَارِ جَهَنَّمَۗ وَاللّٰهُ لَا يَهْدِى الْقَوْمَ الظّٰلِمِيْنَ١٠٩
Afaman assasa bun-yānahū ‘alā taqwā minallāhi wa riḍwānin khairun am man assasa bun-yānahū ‘alā syafā jurufin hārin fanhāra bihī fī nāri jahannam(a), wallāhu lā yahdil-qaumaẓ-ẓālimīn(a).
[109] तो क्या वह व्यक्ति बेहतर है जिसने अपनी इमारत की नींव अल्लाह के डर और उसकी खुशी पर रखी, या वह जिसने अपनी इमारत की नींव एक गड्ढे के किनारे पर रखी जो ढहने वाला था? तो वह उसके साथ जहन्नम की आग में गिर पड़ा और अल्लाह ज़ालिमों को हिदायत नहीं देता।

لَا يَزَالُ بُنْيَانُهُمُ الَّذِيْ بَنَوْا رِيْبَةً فِيْ قُلُوْبِهِمْ اِلَّآ اَنْ تَقَطَّعَ قُلُوْبُهُمْۗ وَاللّٰهُ عَلِيْمٌ حَكِيْمٌ ࣖ١١٠
Lā yazālu bun-yānuhumul-lażī banau rībatan fī qulūbihim illā an taqaṭṭa‘a qulūbuhum, wallāhu ‘alīmun ḥakīm(un).
[110] उनका भवन जो उन्होंने बनाया है, उनके दिलों में हमेशा चिंता का स्रोत रहेगा, परंतु यह कि उनके दिलों के टुकड़े-टुकड़े हो जाएँ। तथा अल्लाह सब कुछ जानने वाला, पूर्ण हिकमत वाला है।

۞ اِنَّ اللّٰهَ اشْتَرٰى مِنَ الْمُؤْمِنِيْنَ اَنْفُسَهُمْ وَاَمْوَالَهُمْ بِاَنَّ لَهُمُ الْجَنَّةَۗ يُقَاتِلُوْنَ فِيْ سَبِيْلِ اللّٰهِ فَيَقْتُلُوْنَ وَيُقْتَلُوْنَ وَعْدًا عَلَيْهِ حَقًّا فِى التَّوْرٰىةِ وَالْاِنْجِيْلِ وَالْقُرْاٰنِۗ وَمَنْ اَوْفٰى بِعَهْدِهٖ مِنَ اللّٰهِ فَاسْتَبْشِرُوْا بِبَيْعِكُمُ الَّذِيْ بَايَعْتُمْ بِهٖۗ وَذٰلِكَ هُوَ الْفَوْزُ الْعَظِيْمُ١١١
Innallāhasytarā minal-mu'minīna anfusahum wa amwālahum bi'anna lahumul-jannah(ta), yuqātilūna fī sabīlillāhi fa yaqtulūna wa yuqtalūna wa‘dan ‘alaihi ḥaqqan fit-taurāti wal-injīli wal-qur'ān(i), wa man aufā bi‘ahdihī minallāhi fastabsyirū bibai‘ikumul-lażī bāya‘tum bih(ī), wa żālika huwal-fauzul-‘aẓīm(u).
[111] निःसंदेह अल्लाह ने ईमान वालों के प्राणों तथा उनके धनों को इसके बदले ख़रीद लिया है कि निश्चय उनके लिए जन्नत है। वे अल्लाह की राह में युद्ध करते हैं, तो वे क़त्ल करते हैं और क़त्ल किए जाते हैं। यह तौरात और इंजील और क़ुरआन में उसके ज़िम्मे पक्का वादा है और अल्लाह से बढ़कर अपना वादा पूरा करने वाला कौन है? तो अपने उस सौदे पर प्रसन्न हो जाओ, जो तुमने उससे किया है और यही बहुत बड़ी सफलता है।

اَلتَّاۤىِٕبُوْنَ الْعٰبِدُوْنَ الْحٰمِدُوْنَ السَّاۤىِٕحُوْنَ الرّٰكِعُوْنَ السّٰجِدُوْنَ الْاٰمِرُوْنَ بِالْمَعْرُوْفِ وَالنَّاهُوْنَ عَنِ الْمُنْكَرِ وَالْحٰفِظُوْنَ لِحُدُوْدِ اللّٰهِ ۗوَبَشِّرِ الْمُؤْمِنِيْنَ١١٢
At tā'ibūnal-‘ābidul-ḥāmidūnas-sā'iḥūnar-rāki‘ūnas-sājidūnal-āmirūna bil-ma‘rūfi wan-nāhūna ‘anil-munkari wal-ḥāfiẓūna liḥudūdillāh(i), wa basysyiril-mu'minīn(a).
[112] (वे मोमिन) तौबा करने वाले, इबादत करने वाले, स्तुति करने वाले, रोज़ा रखने वाले, रुकू' करने वाले, सजदा करने वाले, भलाई का आदेश देने वाले, बुराई से रोकने वाले और अल्लाह की सीमाओं की रक्षा करने वाले हैं, और (ऐ नबी!) आप ऐसे मोमिनों को शुभ-सूचना दे दें।

مَا كَانَ لِلنَّبِيِّ وَالَّذِيْنَ اٰمَنُوْٓا اَنْ يَّسْتَغْفِرُوْا لِلْمُشْرِكِيْنَ وَلَوْ كَانُوْٓا اُولِيْ قُرْبٰى مِنْۢ بَعْدِ مَا تَبَيَّنَ لَهُمْ اَنَّهُمْ اَصْحٰبُ الْجَحِيْمِ١١٣
Mā kāna lin-nabiyyi wal-lażīna āmanū ay yastagfirū lil-musyrikīna wa lau kānū ulī qurbā mim ba‘di mā tabayyana lahum annahum aṣḥābul-jaḥīm(i).
[113] नबी51 तथा ईमान वालों के लिए मुशरिकों के लिए क्षमा की प्रार्थना करना कदापि जायज़ नहीं है, भले ही वे रिश्तेदार ही क्यों न हों, जबकि उनके लिए यह स्पष्ट हो गया कि निश्चय वे जहन्नम में जाने वाले52 हैं।
51. ह़दीस में है कि जब नबी सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम के चाचा अबू तालिब के निधन का समय आया तो आप उसके पास गए और कहा : चाचा! "ला इलाहा इल्लल्लाह" पढ़ लो। मैं अल्लाह के पास तुम्हारे लिए इसको प्रमाण बना लूँगा। उस समय अबू जह्ल और अब्दुल्लाह बिन उमय्या ने कहा : क्या तुम अब्दुल मुत्तलिब के धर्म से फिर जाओगे? (अतः वह काफ़िर ही मरा।) तब आपने कहा : मैं तुम्हारे लिए क्षमा की प्रार्थना करता रहूँगा, जब तक उससे रोक न दिया जाऊँ। और इसी पर यह आयत उतरी। (सह़ीह़ बुख़ारी : 4675) 52. देखिए : सूरतुल-मायदा, आयत : 72, तथा सूरतुन-निसा, आयत : 48,116.

وَمَا كَانَ اسْتِغْفَارُ اِبْرٰهِيْمَ لِاَبِيْهِ اِلَّا عَنْ مَّوْعِدَةٍ وَّعَدَهَآ اِيَّاهُۚ فَلَمَّا تَبَيَّنَ لَهٗٓ اَنَّهٗ عَدُوٌّ لِّلّٰهِ تَبَرَّاَ مِنْهُۗ اِنَّ اِبْرٰهِيْمَ لَاَوَّاهٌ حَلِيْمٌ١١٤
Wa mā kānastigfāru ibrāhīma li'abīhi illā ‘am mau‘idatiw wa‘adahā iyyāh(u), falammā tabayyana lahū annahū ‘aduwwul lillāhi tabarra'a minh(u), inna ibrāhīma la'awwāhun ḥalīm(un).
[114] और इबराहीम का अपने बाप के लिए क्षमा की प्रार्थना करना, केवल उस वादे53 के कारण था जो उसने उससे किया था, फिर जब उसके सामने स्पष्ट हो गया कि वह वास्तव में अल्लाह का शत्रु है, तो उसने अपने आपको उससे अलग कर लिया। निःसंदेह इबराहीम बड़ा कोमल हृदय, अत्यंत सहनशील था।
53. देखिए : सूरतुल-मुम्तह़िना, आयत : 4

وَمَا كَانَ اللّٰهُ لِيُضِلَّ قَوْمًاۢ بَعْدَ اِذْ هَدٰىهُمْ حَتّٰى يُبَيِّنَ لَهُمْ مَّا يَتَّقُوْنَۗ اِنَّ اللّٰهَ بِكُلِّ شَيْءٍ عَلِيْمٌ١١٥
Wa mā kānallāhu liyuḍilla qaumam ba‘da iż hadāhum ḥattā yubayyina lahum mā yattaqūn(a), innallāha bikulli syai'in ‘alīm(un).
[115] और अल्लाह कभी ऐसा नहीं कि किसी जाति को सीधा मार्ग दिखाने के बाद पथभ्रष्ट कर दे, जब तक उनके लिए वे बातें स्पष्ट न कर दे, जिनसे वे बचें। निःसंदेह अल्लाह प्रत्येक वस्तु को भली-भाँति जानने वाला है।

اِنَّ اللّٰهَ لَهٗ مُلْكُ السَّمٰوٰتِ وَالْاَرْضِۗ يُحْيٖ وَيُمِيْتُۗ وَمَا لَكُمْ مِّنْ دُوْنِ اللّٰهِ مِنْ وَّلِيٍّ وَّلَا نَصِيْرٍ١١٦
Innallāha lahū mulkus-samāwāti wal-arḍ(i), yuḥyī wa yumīt(u), wa mā lakum min dūnillāhi miw waliyyiw wa lā naṣīr(in).
[116] निःसंदेह अल्लाह ही है, जिसके अधिकार में आकाशों तथा धरती का राज्य है। वही जीवन देता और मारता है और तुम्हारे लिए अल्लाह के सिवा न कोई मित्र है और न कोई सहायक।

لَقَدْ تَّابَ اللّٰهُ عَلَى النَّبِيِّ وَالْمُهٰجِرِيْنَ وَالْاَنْصَارِ الَّذِيْنَ اتَّبَعُوْهُ فِيْ سَاعَةِ الْعُسْرَةِ مِنْۢ بَعْدِ مَا كَادَ يَزِيْغُ قُلُوْبُ فَرِيْقٍ مِّنْهُمْ ثُمَّ تَابَ عَلَيْهِمْۗ اِنَّهٗ بِهِمْ رَءُوْفٌ رَّحِيْمٌ ۙ١١٧
Laqat tāballāhu ‘alan-nabiyyi wal-muhājirīna wal-anṣāril-lażīnattaba‘ūhu fī sā‘atil-‘usrati mim ba‘di mā kāda yazīgu qulūbu farīqim minhum ṡumma tāba ‘alaihim, innahū bihim ra'ūfur raḥīm(un).
[117] निःसंदेह अल्लाह ने नबी तथा मुहाजिरों और अंसार की तौबा क़बूल कर ली, जिन्होंने तंगी के समय नबी का साथ दिया, इसके बाद कि उनमें से एक समूह के दिल क़रीब थे कि टेढ़े हो जाएँ। फिर उसने उनकी क्षमायाचना क़बूल कर ली। निश्चय वह उनके लिए अति करुणामय, अत्यंत दयावान् है।

وَّعَلَى الثَّلٰثَةِ الَّذِيْنَ خُلِّفُوْاۗ حَتّٰٓى اِذَا ضَاقَتْ عَلَيْهِمُ الْاَرْضُ بِمَا رَحُبَتْ وَضَاقَتْ عَلَيْهِمْ اَنْفُسُهُمْ وَظَنُّوْٓا اَنْ لَّا مَلْجَاَ مِنَ اللّٰهِ اِلَّآ اِلَيْهِۗ ثُمَّ تَابَ عَلَيْهِمْ لِيَتُوْبُوْاۗ اِنَّ اللّٰهَ هُوَ التَّوَّابُ الرَّحِيْمُ ࣖ١١٨
Wa ‘alaṡ-ṡalāṡatil-lażīna khullifū, ḥattā iżā ḍāqat ‘alaihimul-arḍu bimā raḥubat wa ḍāqat ‘alaihim anfusuhum wa ẓannū allā malja'a minallāhi illā ilaih(i), ṡumma tāba ‘alaihim liyatūbū, innallāha huwat-tawwābur-raḥīm(u).
[118] तथा उन तीन54 लोगों की भी (तौबा क़बूल कर ली), जिनका मामला स्थगित कर दिया गया था, यहाँ तक कि जब धरती उनपर अपने विस्तार के बावजूद तंग हो गई और उनपर उनके प्राण संकीर्ण55 हो गए और उन्होंने यक़ीन कर लिया कि अल्लाह से भागकर उनके लिए कोई शरण लेने का स्थान नहीं, परंतु उसी की ओर। फिर उसने उनपर दया करते हुए उन्हें तौबा की तौफ़ीक़ दी, ताकि वे तौबा करें। निश्चय अल्लाह ही है जो बहुत तौबा क़बूल करने वाला, अत्यंत दयावान् है।
54. ये वही तीन लोग हैं जिनकी चर्चा आयत संख्या 106 में आ चुकी है। इनके नाम थे : 1-का'ब बिन मालिक, 2-हिलाल बिन उमय्या, 3- मुरारह बिन रबी'। (सह़ीह़ बुख़ारी : 4677) 55. क्योंकि उनका सामाजिक बहिष्कार कर दिया गया था।

يٰٓاَيُّهَا الَّذِيْنَ اٰمَنُوا اتَّقُوا اللّٰهَ وَكُوْنُوْا مَعَ الصّٰدِقِيْنَ١١٩
Yā ayyuhal-lażīna āmanuttaqullāha wa kūnū ma‘aṣ-ṣādiqīn(a).
[119] ऐ ईमान लाने वालो! अल्लाह से डरो तथा सच्चे लोगों के साथ हो जाओ।

مَا كَانَ لِاَهْلِ الْمَدِيْنَةِ وَمَنْ حَوْلَهُمْ مِّنَ الْاَعْرَابِ اَنْ يَّتَخَلَّفُوْا عَنْ رَّسُوْلِ اللّٰهِ وَلَا يَرْغَبُوْا بِاَنْفُسِهِمْ عَنْ نَّفْسِهٖۗ ذٰلِكَ بِاَنَّهُمْ لَا يُصِيْبُهُمْ ظَمَاٌ وَّلَا نَصَبٌ وَّلَا مَخْمَصَةٌ فِيْ سَبِيْلِ اللّٰهِ وَلَا يَطَـُٔوْنَ مَوْطِئًا يَّغِيْظُ الْكُفَّارَ وَلَا يَنَالُوْنَ مِنْ عَدُوٍّ نَّيْلًا اِلَّا كُتِبَ لَهُمْ بِهٖ عَمَلٌ صَالِحٌۗ اِنَّ اللّٰهَ لَا يُضِيْعُ اَجْرَ الْمُحْسِنِيْنَ١٢٠
Mā kāna li'ahlil-madīnati wa man ḥaulahum minal-a‘rābi ay yatakhallafū ‘ar rasūlillāhi wa lā yargabū bi'anfusihim ‘an nafsih(ī), żālika bi'annahum lā yuṣībuhum ẓama'uw wa lā naṣabuw wa lā makhmaṣatun fī sabīlillāhi wa lā yaṭa'ūna mauṭi'ay yagīẓul-kuffāra wa lā yanālūna min ‘aduwwin nailan illā kutiba lahum bihī ‘amalun ṣāliḥ(un), innallāha lā yuḍī‘u ajral-muḥsinīn(a).
[120] मदीना के वासियों तथा उनके आस-पास के देहातियों को अधिकार नहीं था कि अल्लाह के रसूल से पीछे रहते और न यह कि अपने प्राणों को आपके प्राण से प्रिय समझते। यह इसलिए कि वे अल्लाह की राह में जो भी प्यास और थकान तथा भूख की तकलीफ़ उठाते हैं और जिस स्थान पर भी क़दम रखते हैं, जो काफ़िरों के क्रोध को भड़काए और किसी शत्रु के मुक़ाबले में जो भी सफलता प्राप्त करते हैं, तो उनके लिए, उसके बदले में एक सत्कर्म लिख दिया जाता है। निश्चय अल्लाह सत्कर्म करने वालों का कर्मफल व्यर्थ नहीं करता।

وَلَا يُنْفِقُوْنَ نَفَقَةً صَغِيْرَةً وَّلَا كَبِيْرَةً وَّلَا يَقْطَعُوْنَ وَادِيًا اِلَّا كُتِبَ لَهُمْ لِيَجْزِيَهُمُ اللّٰهُ اَحْسَنَ مَا كَانُوْا يَعْمَلُوْنَ١٢١
Wa lā yunfiqūna nafaqatan ṣagīrataw wa lā kabīrataw wa lā yaqṭa‘ūna wādiyan illā kutiba lahum liyajziyahumullāhu aḥsana mā kānū ya‘malūn(a).
[121] और वे थोड़ा या अधिक, जो भी खर्च करते हैं और जो भी घाटी पार करते हैं, उसे उनके हक़ में लिख लिया जाता है, ताकि अल्लाह उन्हें उसका सबसे अच्छा बदला दे, जो वे किया करते थे।

۞ وَمَا كَانَ الْمُؤْمِنُوْنَ لِيَنْفِرُوْا كَاۤفَّةًۗ فَلَوْلَا نَفَرَ مِنْ كُلِّ فِرْقَةٍ مِّنْهُمْ طَاۤىِٕفَةٌ لِّيَتَفَقَّهُوْا فِى الدِّيْنِ وَلِيُنْذِرُوْا قَوْمَهُمْ اِذَا رَجَعُوْٓا اِلَيْهِمْ لَعَلَّهُمْ يَحْذَرُوْنَ ࣖ١٢٢
Wa mā kānal-mu'minūna liyanfirū kāffah(tan), falau lā nafara min kulli firqatim minhum ṭā'ifatul liyatafaqqahū fid-dīni wa liyunżirū qaumahum iżā raja‘ū ilaihim la‘allahum yaḥżarūn(a).
[122] और संभव नहीं कि ईमान वाले सब के सब निकल पड़ें, तो उनके हर गिरोह में से कुछ लोग क्यों न निकले, ताकि वे धर्म में समझ हासिल करें और ताकि वे अपने लोगों को डराएँ, जब वे उनके पास वापस जाएँ, ताकि वे बच जाएँ।56
56. इस आयत में यह संकेत है कि धार्मिक शिक्षा की एक साधारण व्यवस्था होनी चाहिए। और यह नहीं हो सकता कि सब धार्मिक शिक्षा ग्रहण करने के लिए निकल पड़ें। इसलिए प्रत्येक समुदाय से कुछ लोग जाकर धर्म की शिक्षा ग्रहण करें। फिर दूसरों को धर्म की बातें बताएँ। क़ुरआन के इसी संकेत ने मुसलमानों में शिक्षा ग्रहण करने की ऐसी भावना उत्पन्न कर दी कि एक शताब्दी के भीतर उन्होंने शीक्षा ग्रहण करने की ऐसी व्यवस्था बना दी जिसका उदाहरण संसार के इतिहास में नहीं मिलता।

يٰٓاَيُّهَا الَّذِيْنَ اٰمَنُوْا قَاتِلُوا الَّذِيْنَ يَلُوْنَكُمْ مِّنَ الْكُفَّارِ وَلْيَجِدُوْا فِيْكُمْ غِلْظَةًۗ وَاعْلَمُوْٓا اَنَّ اللّٰهَ مَعَ الْمُتَّقِيْنَ١٢٣
Yā ayyuhal-lażīna āmanū qātilul-lażīna yalūnakum minal-kuffāri wal-yajidū fīkum gilẓah(tan), wa‘lamū annallāha ma‘al-muttaqīn(a).
[123] ऐ ईमान वलो! काफ़िरों में से जो तुम्हारे क़रीब हैं, उनसे लड़ो57 और ज़रूरी है कि वे तुममें कुछ सख्ती पाएँ और जान लो कि अल्लाह परहेज़गारों के साथ है।
57. जो शत्रु इस्लामी केंद्र के समीप के क्षेत्रों में हों, पहले उनसे अपनी रक्षा करो।

وَاِذَا مَآ اُنْزِلَتْ سُوْرَةٌ فَمِنْهُمْ مَّنْ يَّقُوْلُ اَيُّكُمْ زَادَتْهُ هٰذِهٖٓ اِيْمَانًاۚ فَاَمَّا الَّذِيْنَ اٰمَنُوْا فَزَادَتْهُمْ اِيْمَانًا وَّهُمْ يَسْتَبْشِرُوْنَ١٢٤
Wa iżā mā unzilat sūratun fa minhum may yaqūlu ayyukum zādathu hāżihī īmānā(n), fa ammal-lażīna āmanū fa zādathum īmānaw wa hum yastabsyirūn(a).
[124] और जब भी कोई सूरत उतारी जाती है, तो इन (मुनाफ़िक़ों) में से कुछ लोग कहते हैं कि इसने तुममें से किसके ईमान को बढ़ायाॽ58 चुनाँचे जो लोग ईमान लाए, तो इसने उनके ईमान को बढ़ा दिया और वे बहुत खुश होते हैं।
58. अर्थात उपहास करते हैं।

وَاَمَّا الَّذِيْنَ فِيْ قُلُوْبِهِمْ مَّرَضٌ فَزَادَتْهُمْ رِجْسًا اِلٰى رِجْسِهِمْ وَمَاتُوْا وَهُمْ كٰفِرُوْنَ١٢٥
Wa ammal-lażīna fī qulūbihim maraḍun fa zādathum rijsan ilā rijsihim wa mātū wa hum kāfirūn(a).
[125] और रहे वे लोग जिनके दिलों में रोग है, तो उसने उनकी अशुद्धता पर अशुद्धता को और बढ़ा दिया और वे इस अवस्था में मरे कि वे काफ़िर थे।

اَوَلَا يَرَوْنَ اَنَّهُمْ يُفْتَنُوْنَ فِيْ كُلِّ عَامٍ مَّرَّةً اَوْ مَرَّتَيْنِ ثُمَّ لَا يَتُوْبُوْنَ وَلَا هُمْ يَذَّكَّرُوْنَ١٢٦
Awalā yarauna annahum yuftanūna fī kulli ‘āmim marrataini ṡumma lā yatūbūna wa lā hum yażżakkarūn(a).
[126] और क्या वे नहीं देखते कि निःसंदेह वे प्रत्येक वर्ष एक या दो बार आज़माए59 जाते हैं? फिर भी वे न तौबा करते हैं और न ही वे उपदेश ग्रहण करते हैं!
59. अर्थात उनपर आपदा आती है तथा अपमानित किए जाते हैं। (इब्ने कसीर)

وَاِذَا مَآ اُنْزِلَتْ سُوْرَةٌ نَّظَرَ بَعْضُهُمْ اِلٰى بَعْضٍۗ هَلْ يَرٰىكُمْ مِّنْ اَحَدٍ ثُمَّ انْصَرَفُوْاۗ صَرَفَ اللّٰهُ قُلُوْبَهُمْ بِاَنَّهُمْ قَوْمٌ لَّا يَفْقَهُوْنَ١٢٧
Wa iżā mā unzilat sūratun naẓara ba‘ḍuhum ilā ba‘ḍ(in), hal yarākum min aḥadin ṡummanṣarafū, ṣarafallāhu qulūbahum bi'annahum qaumul lā yafqahūn(a).
[127] और जब भी कोई सूरत उतारी जाती है, तो उनमें से कुछ एक-दूसरे की तरफ देखते हैं कि क्या तुम्हें कोई देख रहा है? फिर वे वापस पलट जाते हैं। अल्लाह ने उनके दिलों को फेर दिया है, क्योंकि निःसंदेह वे ऐसे लोग हैं जो नहीं समझते।

لَقَدْ جَاۤءَكُمْ رَسُوْلٌ مِّنْ اَنْفُسِكُمْ عَزِيْزٌ عَلَيْهِ مَا عَنِتُّمْ حَرِيْصٌ عَلَيْكُمْ بِالْمُؤْمِنِيْنَ رَءُوْفٌ رَّحِيْمٌ١٢٨
Laqad jā'akum rasūlum min anfusikum ‘azīzun ‘alaihi mā ‘anittum ḥarīṣun ‘alaikum bil-mu'minīna ra'ūfur raḥīm(un).
[128] निःसंदेह तुम्हारे पास तुम्हीं में से एक रसूल आया है। तुम्हारा कठिनाई में पड़ना उसपर बहुत कठिन है। वह तुम्हारे कल्याण के लिए अति उत्सुक है, ईमान वालों के प्रति बहुत करुणामय, अत्यंत दयावान् है।

فَاِنْ تَوَلَّوْا فَقُلْ حَسْبِيَ اللّٰهُ لَآ اِلٰهَ اِلَّا هُوَ ۗ عَلَيْهِ تَوَكَّلْتُ وَهُوَ رَبُّ الْعَرْشِ الْعَظِيْمِ ࣖ١٢٩
Fa in tawallau faqul ḥasbiyallāhu lā ilāha illā huw(a), ‘alaihi tawakkaltu wa huwa rabbul-‘arsyil-‘aẓīm(i).
[129] फिर यदि वे मुँह फेरें, तो कह दें कि मेरे लिए अल्लाह ही काफ़ी है। उसके सिवा कोई (वास्तविक) पूज्य नहीं, मैंने उसी पर भरोसा किया है, और वही बड़े अर्श का रब है।