Surah Al-Anfal

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بِسْمِ اللّٰهِ الرَّحْمٰنِ الرَّحِيْمِ
يَسْـَٔلُوْنَكَ عَنِ الْاَنْفَالِۗ قُلِ الْاَنْفَالُ لِلّٰهِ وَالرَّسُوْلِۚ فَاتَّقُوا اللّٰهَ وَاَصْلِحُوْا ذَاتَ بَيْنِكُمْ ۖوَاَطِيْعُوا اللّٰهَ وَرَسُوْلَهٗٓ اِنْ كُنْتُمْ مُّؤْمِنِيْنَ١
Yas'alūnaka ‘anil-anfāl(i), qulil-anfālu lillāhi war-rasūl(i), fattaqullāha wa aṣliḥū żāta bainikum, wa aṭī‘ullāha wa rasūlahū in kuntum mu'minīn(a).
[1] (ऐ नबी!) वे (आपके साथी) आपसे युद्ध में प्राप्त धन के विषय में पूछते हैं। आप कह दें कि युद्ध में प्राप्त धन अल्लाह और रसूल के हैं। अतः अल्लाह से डरो और आपस में सुधार रखो तथा अल्लाह और उसके रसूल की आज्ञा का पालन करो1, यदि तुम ईमान वाले हो।
1. नबी सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ने तेरह वर्ष तक मक्का के मिश्रणवादियों के अत्याचार सहन किए। फिर मदीना हिजरत कर गए। परंतु वहाँ भी मक्का वासियों ने आप को चैन नहीं लेने दिया। और निरंतर आक्रमण आरंभ कर दिए। ऐसी दशा में आप भी अपनी रक्षा के लिए वीरता के साथ अपने 313 साथियों को लेकर बद्र के रणक्षेत्र में पहुँचे। जिसमें मिश्रणवादियों की पराजय हुई। और कुछ सामान भी मुसलमानों के हाथ आया। जिसे इस्लामी परिभाषा में "माले-ग़नीमत" कहा जाता है। और उसी के विषय में प्रश्न का उत्तर इस आयत में दिया गया है। यह प्रथम युद्ध हिजरत के दूसरे वर्ष हुआ।

اِنَّمَا الْمُؤْمِنُوْنَ الَّذِيْنَ اِذَا ذُكِرَ اللّٰهُ وَجِلَتْ قُلُوْبُهُمْ وَاِذَا تُلِيَتْ عَلَيْهِمْ اٰيٰتُهٗ زَادَتْهُمْ اِيْمَانًا وَّعَلٰى رَبِّهِمْ يَتَوَكَّلُوْنَۙ٢
Innamal-mu'minūnal-lażīna iżā żukirallāhu wajilat qulūbuhum wa iżā tuliyat ‘alaihim āyātuhū zādathum īmānaw wa ‘alā rabbihim yatawakkalūn(a).
[2] (वास्तव में) ईमान वाले तो वही हैं कि जब अल्लाह का ज़िक्र किया जाए, तो उनके दिल काँप उठते हैं, और जब उनके सामने उसकी आयतें पढ़ी जाएँ, तो उनका ईमान बढ़ा देती हैं, और वे अपने पालनहार ही पर भरोसा रखते हैं।

الَّذِيْنَ يُقِيْمُوْنَ الصَّلٰوةَ وَمِمَّا رَزَقْنٰهُمْ يُنْفِقُوْنَۗ٣
Al-lażīna yuqīmūnaṣ-ṣalāta wa mimmā razaqnāhum yunfiqūn(a).
[3] वे लोग जो नमाज़ स्थापित करते हैं तथा हमने उन्हें जो कुछ प्रदान किया है, उसमें से ख़र्च करते हैं।

اُولٰۤىِٕكَ هُمُ الْمُؤْمِنُوْنَ حَقًّاۗ لَهُمْ دَرَجٰتٌ عِنْدَ رَبِّهِمْ وَمَغْفِرَةٌ وَّرِزْقٌ كَرِيْمٌۚ٤
Ulā'ika humul-mu'minūna ḥaqqā(n), lahum darajātun ‘inda rabbihim wa magfiratuw wa rizqun karīm(un).
[4] वही सच्चे ईमान वाले हैं, उन्हीं के लिए उनके पालनहार के पास बहुत से दर्जे तथा बड़ी क्षमा और सम्मानित (उत्तम) जीविका है।

كَمَآ اَخْرَجَكَ رَبُّكَ مِنْۢ بَيْتِكَ بِالْحَقِّۖ وَاِنَّ فَرِيْقًا مِّنَ الْمُؤْمِنِيْنَ لَكٰرِهُوْنَ٥
Kamā akhrajaka rabbuka mim baitika bil-ḥaqq(i), wa inna farīqam minal-mu'minīna lakārihūn(a).
[5] जिस प्रकार2 आपके पालनहार ने आपको आपके घर (मदीना) से (बहुदेववादियों से युद्ध के लिए) सत्य के साथ निकाला, हालाँकि निश्चय ईमान वालों का एक समूह तो (इसे) नापसंद करने वाला था।
2. अर्थात यह युद्ध के माल का विषय भी उसी प्रकार है कि अल्लाह ने उसे अपने और अपने रसूल का भाग बना दिया, जिस प्रकार अपने आदेश से आपको यूद्ध के लिये निकाला।

يُجَادِلُوْنَكَ فِى الْحَقِّ بَعْدَمَا تَبَيَّنَ كَاَنَّمَا يُسَاقُوْنَ اِلَى الْمَوْتِ وَهُمْ يَنْظُرُوْنَ ۗ٦
Yujādilūnaka fil-ḥaqqi ba‘da mā tabayyana ka'annamā yusāqūna ilal-mauti wa hum yanẓurūn(a).
[6] वे आपसे सच के बारे में झगड़ते थे, इसके बाद कि वह स्पष्ट हो चुका था, जैसे उन्हें मौत की ओर हाँका जा रहा है और वे उसे देख रहे हैं।

وَاِذْ يَعِدُكُمُ اللّٰهُ اِحْدَى الطَّاۤىِٕفَتَيْنِ اَنَّهَا لَكُمْ وَتَوَدُّوْنَ اَنَّ غَيْرَ ذَاتِ الشَّوْكَةِ تَكُوْنُ لَكُمْ وَيُرِيْدُ اللّٰهُ اَنْ يُّحِقَّ الْحَقَّ بِكَلِمٰتِهٖ وَيَقْطَعَ دَابِرَ الْكٰفِرِيْنَۙ٧
Wa iż ya‘idukumullāhu iḥdaṭ-ṭā'ifataini annahā lakum wa tawaddūna anna gaira żātisy-syaukati takūnu lakum wa yurīdullāhu ay yuḥiqqal-ḥaqqa bikalimātihī wa yaqṭa‘a dābiral-kāfirīn(a).
[7] तथा (वह समय याद करो) जब अल्लाह तुम्हें वचन दे रहा था कि दो गिरोहों3 में से एक तुम्हारे हाथ आएगा और तुम चाहते थे कि निर्बल (निःशस्त्र) गिरोह तुम्हारे हाथ लगे। और अल्लाह चाहता था कि अपने वचन द्वारा सत्य को सिद्ध कर दे और काफ़िरों की जड़ काट दे।
3. अर्थात क़ुरैश मक्का का व्यापारिक क़ाफ़िला जो सीरिया की ओर से आ रहा था, या उनकी सेना जो मक्का से आ रही थी। इसमें निर्बल गिरोह व्यापारिक क़ाफ़िले को कहा गया है।

لِيُحِقَّ الْحَقَّ وَيُبْطِلَ الْبَاطِلَ وَلَوْ كَرِهَ الْمُجْرِمُوْنَۚ٨
Liyuḥiqqal-ḥaqqa wa yubṭilal-bāṭila wa lau karihal-mujrimūn(a).
[8] ताकि वह सत्य को सत्य कर दे और असत्य को असत्य कर दे, यद्यपि अपराधियों को बुरा लगे।

اِذْ تَسْتَغِيْثُوْنَ رَبَّكُمْ فَاسْتَجَابَ لَكُمْ اَنِّيْ مُمِدُّكُمْ بِاَلْفٍ مِّنَ الْمَلٰۤىِٕكَةِ مُرْدِفِيْنَ٩
Iż tastagīṡūna rabbakum fastajāba lakum annī mumiddukum bi'alfim minal-malā'ikati murdifīn(a).
[9] जब तुम अपने पालनहार से (बद्र के युद्ध के समय) मदद माँग रहे थे, तो उसने तुम्हारी प्रार्थना स्वीकार कर ली कि निःसंदेह मैं एक हज़ार फ़रिश्तों के साथ तुम्हारी सहायता करने वाला हूँ, जो एक-दूसरे के पीछे आने वाले हैं।4
4. नबी (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) ने बद्र के दिन कहा : यह घोड़े की लगाम थामे और हथियार लगाए जिब्रील अलैहिस्सलाम आए हुए हैं। (देखिए : सह़ीह़ बुख़ारी : 3995) इसी प्रकार एक मुसलमान एक मुश्रिक का पीछा कर रहा था कि अपने ऊपर से घुड़सवार की आवाज़ सुनी : हैज़ूम (घोड़े का नाम) आगे बढ़। फिर देखा कि मुश्रिक उसके सामने चित गिरा हुआ है। उसकी नाक और चेहरे पर कोड़े की मार का निशान है। फिर उसने यह बात नबी सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम को बताई। तो आपने कहा : सच्च है। यह तीसरे आकाश की सहायता है। (देखिए : सह़ीह़ मुस्लिम : 1763)

وَمَا جَعَلَهُ اللّٰهُ اِلَّا بُشْرٰى وَلِتَطْمَىِٕنَّ بِهٖ قُلُوْبُكُمْۗ وَمَا النَّصْرُ اِلَّا مِنْ عِنْدِ اللّٰهِ ۗاِنَّ اللّٰهَ عَزِيْزٌ حَكِيْمٌ ࣖ١٠
Wa mā ja‘alahullāhu illā busyrā wa litaṭma'inna bihī qulūbukum, wa man-naṡru illā min ‘indillāh(i), innallāha ‘azīzun ḥakīm(un).
[10] और अल्लाह ने यह इसलिए किया कि (तुम्हारे लिए) शुभ सूचना हो और ताकि इसके साथ तुम्हारे दिल संतुष्ट हो जाएँ। अन्यथा सहायता तो अल्लाह ही की ओर से होती है। निःसंदेह अल्लाह सब पर प्रभुत्वशाली, पूर्ण हिकमत वाला है।

اِذْ يُغَشِّيْكُمُ النُّعَاسَ اَمَنَةً مِّنْهُ وَيُنَزِّلُ عَلَيْكُمْ مِّنَ السَّمَاۤءِ مَاۤءً لِّيُطَهِّرَكُمْ بِهٖ وَيُذْهِبَ عَنْكُمْ رِجْزَ الشَّيْطٰنِ وَلِيَرْبِطَ عَلٰى قُلُوْبِكُمْ وَيُثَبِّتَ بِهِ الْاَقْدَامَۗ١١
Iż yugasysyīkumun-nu‘āsa amanatam minhu wa yunazzilu ‘alaikum minas-samā'i mā'al liyuṭahhirakum bihī wa yużhiba ‘ankum rijzasy-syaiṭāni wa liyarbiṭa ‘alā qulūbikum wa yuṡabbita bihil-aqdām(a).
[11] और वह समय याद करो जब अल्लाह अपनी ओर से शांति के लिए तुमपर ऊँघ डाल रहा था और तुमपर आकाश से जल बरसा रहा था, ताकि उसके द्वारा तुम्हें पाक कर दे और तुमसे शैतान की मलिनता दूर कर दे और तुम्हारे दिलों को मज़बूत कर दे और उसके द्वारा (तुम्हारे) पाँव जमा दे।5
5. बद्र के युद्ध के समय मुसलमानों की संख्या मात्र 313 थी। और सिवाय एक व्यक्ति के किसी के पास घोड़ा न था। मुसलमान डरे-सहमे थे। जल के स्थान पर शत्रु ने पहले ही अधिकार कर लिया था। भूमि रेतीली थी जिसमें पाँव धंस जाते थे। और शत्रु सवार थे। और उनकी संख्या भी तीन गुना थी। ऐसी दशा में अल्लाह ने मुसलमानों पर निद्रा उतारकर उन्हें निश्चिंत कर दिया और वर्षा करके पानी की व्यवस्था कर दी। जिससे भूमि भी कड़ी हो गई। और अपनी असफलता का भय जो शैतानी संशय था, वह भी दूर हो गया।

اِذْ يُوْحِيْ رَبُّكَ اِلَى الْمَلٰۤىِٕكَةِ اَنِّيْ مَعَكُمْ فَثَبِّتُوا الَّذِيْنَ اٰمَنُوْاۗ سَاُلْقِيْ فِيْ قُلُوْبِ الَّذِيْنَ كَفَرُوا الرُّعْبَ فَاضْرِبُوْا فَوْقَ الْاَعْنَاقِ وَاضْرِبُوْا مِنْهُمْ كُلَّ بَنَانٍۗ١٢
Iż yūḥī rabbuka ilal-malā'ikati annī ma‘akum fa ṡabbitul-lażīna āmanū, sa'ulqī fī qulūbil-lażīna kafarur-ru‘ba faḍribū fauqal-a‘nāqi waḍribū minhum kulla banān(in).
[12] जब आपका पालनहार फ़रिश्तों की ओर वह़्य कर रहा था कि निःसंदेह मैं तुम्हारे साथ हूँ। अतः तुम ईमान वालों को स्थिर रखो। शीघ्र ही मैं काफ़िरों के दिलों में भय डाल दूँगा। तो (ऐ मुसलमानों!) तुम उनकी गरदनों के ऊपर मारो तथा उनके पोर-पोर पर आघात पहुँचाओ।

ذٰلِكَ بِاَنَّهُمْ شَاۤقُّوا اللّٰهَ وَرَسُوْلَهٗۚ وَمَنْ يُّشَاقِقِ اللّٰهَ وَرَسُوْلَهٗ فَاِنَّ اللّٰهَ شَدِيْدُ الْعِقَابِ١٣
Żālika bi'annahum syāqqullāha wa rasūlah(ū), wa may yusyāqiqillāha wa rasūlahū fa innallāha syadīdul-‘iqāb(i).
[13] यह इसलिए कि निःसंदेह उन्होंने अल्लाह और उसके रसूल का विरोध किया तथा जो अल्लाह और उसके रसूल का विरोध करे, तो निःसंदेह अल्लाह कड़ी यातना देने वाला है।

ذٰلِكُمْ فَذُوْقُوْهُ وَاَنَّ لِلْكٰفِرِيْنَ عَذَابَ النَّارِ١٤
Żālikum fa żūqūhu wa anna lil-kāfirīna ‘ażāban-nār(i).
[14] यह है (तुम्हारी यातना), तो इसका स्वाद चखो और (जान लो कि) निःसंदेह काफ़िरों के लिए जहन्नम की यातना (भी) है।

يٰٓاَيُّهَا الَّذِيْنَ اٰمَنُوْٓا اِذَا لَقِيْتُمُ الَّذِيْنَ كَفَرُوْا زَحْفًا فَلَا تُوَلُّوْهُمُ الْاَدْبَارَۚ١٥
Yā ayyuhal-lażīna āmanū iżā laqītumul-lażīna kafarū zaḥfan falā tuwallūhumul-adbār(a).
[15] ऐ ईमान वालो! जब तुम काफ़िरों की सेना से भिड़ो, तो उनसे पीठें न फेरो।

وَمَنْ يُّوَلِّهِمْ يَوْمَىِٕذٍ دُبُرَهٗٓ اِلَّا مُتَحَرِّفًا لِّقِتَالٍ اَوْ مُتَحَيِّزًا اِلٰى فِئَةٍ فَقَدْ بَاۤءَ بِغَضَبٍ مِّنَ اللّٰهِ وَمَأْوٰىهُ جَهَنَّمُ ۗ وَبِئْسَ الْمَصِيْرُ١٦
Wa may yuwallihim yauma'iżin duburahū illā mutaḥarrifal liqitālin au mutaḥayyizan ilā fi'atin faqad bā'a bigaḍabim minallāhi wa ma'wāhu jahannam(u), wa bi'sal-maṣīr(u).
[16] और जो कोई उस दिन उनसे अपनी पीठ फेरे, सिवाय उसके जो पलटकर आक्रमण करने वाला अथवा (अपने) किसी गिरोह से मिलने वाला हो, तो निश्चय वह अल्लाह के प्रकोप के साथ लौटा, और उसका ठिकाना जहन्नम है और वह लौटने की बुरी जगह है।

فَلَمْ تَقْتُلُوْهُمْ وَلٰكِنَّ اللّٰهَ قَتَلَهُمْۖ وَمَا رَمَيْتَ اِذْ رَمَيْتَ وَلٰكِنَّ اللّٰهَ رَمٰىۚ وَلِيُبْلِيَ الْمُؤْمِنِيْنَ مِنْهُ بَلَاۤءً حَسَنًاۗ اِنَّ اللّٰهَ سَمِيْعٌ عَلِيْمٌ١٧
Falam taqtulūhum wa lākinnallāha qatalahum, wa mā ramaita iż ramaita wa lākinallāha ramā, wa liyubliyal-mu'minīna minhu balā'an ḥasanā(n), innallāha samī‘un ‘alīm(un).
[17] अतः (रणक्षेत्र में) तुमने उन्हें क़त्ल नहीं किया, परंतु अल्लाह ने उन्हें क़त्ल किया। और (ऐ नबी!) आपने नहीं फेंका जब आपने फेंका, परंतु अल्लाह ने फेंका। और (यह इसलिए हुआ) ताकि वह इसके द्वारा ईमान वालों को अच्छी तरह आज़माए। निःसंदेह अल्लाह सब कुछ सुनने वाला, सब कुछ जानने वाला है।6
6. आयत का भावार्थ यह है कि शत्रु पर विजय तुम्हारी शक्ति से नहीं हुई। इसी प्रकार नबी सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ने रणक्षेत्र में कंकरियाँ लेकर शत्रु की सेना की ओर फेंकी, जो प्रत्येक शत्रु की आँख में पड़ गई। और वहीं से उनकी पराजय का आरंभ हुआ, तो उस धूल को शत्रु की आँखों तक अल्लाह ही ने पहुँचाया था। (इब्ने कसीर)

ذٰلِكُمْ وَاَنَّ اللّٰهَ مُوْهِنُ كَيْدِ الْكٰفِرِيْنَ١٨
Żālikum wa annallāha mūhinu kaidil-kāfirīn(a).
[18] यह सब अल्लाह की ओर से है और निश्चय अल्लाह काफ़िरों की चालों को कमज़ोर करने वाला है।

اِنْ تَسْتَفْتِحُوْا فَقَدْ جَاۤءَكُمُ الْفَتْحُۚ وَاِنْ تَنْتَهُوْا فَهُوَ خَيْرٌ لَّكُمْۚ وَاِنْ تَعُوْدُوْا نَعُدْۚ وَلَنْ تُغْنِيَ عَنْكُمْ فِئَتُكُمْ شَيْـًٔا وَّلَوْ كَثُرَتْۙ وَاَنَّ اللّٰهَ مَعَ الْمُؤْمِنِيْنَ ࣖ١٩
In tastaftiḥū faqad jā'akumul-fatḥ(u), wa in tantahū fa huwa khairul lakum, wa in ta‘ūdū na‘ud, wa lan tugniya ‘ankum fi'atukum syai'aw wa lau kaṡurat, wa anallāha ma‘al-mu'minīn(a).
[19] यदि तुम7 निर्णय चाहते हो, तो तुम्हारे पास निर्णय आ चुका, और यदि तुम रुक जाओ, तो वह तुम्हारे लिए बेहतर है। और यदि तुम फिर पहले जैसा करोगे, तो हम (भी) वैसा ही करेंगे, और तुम्हारा जत्था हरगिज़ तुम्हारे कुछ काम न आएगा, चाहे वह बहुत अधिक हो। और निश्चय अल्लाह ईमान वालों के साथ है।
7. आयत में मक्का के काफ़िरों को संबोधित किया गया है, जो कहते थे कि यदि तुम सच्चे हो तो इसका निर्णय कब होगा? (देखिए : सूरतुस-सजदा, आयत : 28)

يٰٓاَيُّهَا الَّذِيْنَ اٰمَنُوْٓا اَطِيْعُوا اللّٰهَ وَرَسُوْلَهٗ وَلَا تَوَلَّوْا عَنْهُ وَاَنْتُمْ تَسْمَعُوْنَ٢٠
Yā ayyuhal-lażīna āmanū aṭī‘ullāha wa rasūlahū wa lā tawallau ‘anhu wa antum tasma‘ūn(a).
[20] ऐ ईमान वालो! अल्लाह और उसके रसूल का आज्ञापालन करो और उससे मुँह न फेरो, जबकि तुम सुन रहे हो।

وَلَا تَكُوْنُوْا كَالَّذِيْنَ قَالُوْا سَمِعْنَا وَهُمْ لَا يَسْمَعُوْنَۚ٢١
Wa lā takūnū kal-lażīna qālū sami‘nā wa hum lā yasma‘ūn(a).
[21] तथा उन लोगों के समान8 न हो जाओ, जिन्होंने कहा कि हमने सुन लिया, हालाँकि वे नहीं सुनते।
8. इसमें संकेत अह्ले किताब की ओर है।

۞ اِنَّ شَرَّ الدَّوَاۤبِّ عِنْدَ اللّٰهِ الصُّمُّ الْبُكْمُ الَّذِيْنَ لَا يَعْقِلُوْنَ٢٢
Inna syarrad-dawābbi ‘indallāhiṣ-ṣummul-bukmul-lażīna lā ya‘qilūn(a).
[22] निःसंदेह अल्लाह के निकट सब जानवरों से बुरे वे बहरे-गूँगे हैं, जो समझते नहीं।

وَلَوْ عَلِمَ اللّٰهُ فِيْهِمْ خَيْرًا لَّاَسْمَعَهُمْۗ وَلَوْ اَسْمَعَهُمْ لَتَوَلَّوْا وَّهُمْ مُّعْرِضُوْنَ٢٣
Wa lau ‘alimallāhu fīhim khairal la'asma‘ahum, wa lau asma‘ahum latawallau wa hum mu‘riḍūn(a).
[23] और यदि अल्लाह उनके अंदर कोई भलाई जानता, तो उन्हें अवश्य सुना देता और यदि वह उन्हें सुना देता, तो भी वे मुँह फेर जाते, इस हाल में कि वे उपेक्षा करने वाले होते।

يٰٓاَيُّهَا الَّذِيْنَ اٰمَنُوا اسْتَجِيْبُوْا لِلّٰهِ وَلِلرَّسُوْلِ اِذَا دَعَاكُمْ لِمَا يُحْيِيْكُمْۚ وَاعْلَمُوْٓا اَنَّ اللّٰهَ يَحُوْلُ بَيْنَ الْمَرْءِ وَقَلْبِهٖ وَاَنَّهٗٓ اِلَيْهِ تُحْشَرُوْنَ٢٤
Yā ayyuhal-lażīna āmanustajībū lillāhi wa lir-rasūli iżā da‘ākum limā yuḥyīkum, wa‘lamū annallāha yaḥūlu bainal-mar'i wa qalbihī wa annahū ilaihi tuḥsyarūn(a).
[24] ऐ ईमान वालो! अल्लाह और उसके रसूल के बुलावे को स्वीकार करो, जब वह तुम्हें उस चीज़ के लिए बुलाए, जो तुम्हें9 जीवन प्रदान करती है। और जान लो कि निःसंदेह अल्लाह आदमी और उसके दिल के बीच रुकावट10 बन जाता है। और यह कि निःसंदेह तुम उसी की ओर लौटाए जाओगे।
9. इससे अभिप्राय क़ुरआन तथा इस्लाम है। (इब्ने कसीर) 10. अर्थात जो अल्लाह और उसके रसूल की बात नहीं मानता, तो अल्लाह उसे मार्गदर्शन भी नहीं देता।

وَاتَّقُوْا فِتْنَةً لَّا تُصِيْبَنَّ الَّذِيْنَ ظَلَمُوْا مِنْكُمْ خَاۤصَّةً ۚوَاعْلَمُوْٓا اَنَّ اللّٰهَ شَدِيْدُ الْعِقَابِ٢٥
Wattaqū fitnatal lā tuṣībannal-lażīna ẓalamū minkum khāṣṣah(tan), wa‘lamū annallāha syadīdul-‘iqāb(i).
[25] तथा उस फ़ितने से बचो, जो तुममें से विशेष रूप से अत्याचारियों ही पर नहीं आएगा और जान लो कि अल्लाह कड़ी यातना11 देने वाला है।
11. इस आयत का भावार्थ यह है कि अपने समाज में बुराइयों को न पनपने दो। अन्यथा जो आपदा आएगी वह सब पर आएगी। (इब्ने कसीर)

وَاذْكُرُوْٓا اِذْ اَنْتُمْ قَلِيْلٌ مُّسْتَضْعَفُوْنَ فِى الْاَرْضِ تَخَافُوْنَ اَنْ يَّتَخَطَّفَكُمُ النَّاسُ فَاٰوٰىكُمْ وَاَيَّدَكُمْ بِنَصْرِهٖ وَرَزَقَكُمْ مِّنَ الطَّيِّبٰتِ لَعَلَّكُمْ تَشْكُرُوْنَ٢٦
Ważkurū iż antum qalīlum mustaḍ‘afūna fil-arḍi takhāfūna ay yatakhaṭṭafakumun-nāsu fa āwākum wa ayyadakum binaṣrihī wa razaqakum minaṭ-ṭayyibāti la‘allakum tasykurūn(a).
[26] तथा वह समय याद करो, जब तुम बहुत थोड़े थे, धरती (मक्का) में बहुत कमज़ोर समझे गए थे। तुम डरते थे कि लोग तुम्हें उचक कर ले जाएँगे। तो उस (अल्लाह) ने तुम्हें (मदीना में) शरण दी और अपनी सहायता द्वारा तुम्हें शक्ति प्रदान की और तुम्हें पवित्र चीज़ों से जीविका प्रदान की, ताकि तुम शुक्रिया अदा करो।

يٰٓاَيُّهَا الَّذِيْنَ اٰمَنُوْا لَا تَخُوْنُوا اللّٰهَ وَالرَّسُوْلَ وَتَخُوْنُوْٓا اَمٰنٰتِكُمْ وَاَنْتُمْ تَعْلَمُوْنَ٢٧
Yā ayyuhal-lażīna āmanū lā takhūnullāha war-rasūla wa takhūnū amānātikum wa antum ta‘lamūn(a).
[27] ऐ ईमान वालो! अल्लाह तथा उसके रसूल के साथ विश्वासघात न करो और न अपनी अमानतों में ख़यानत12 करो, जबकि तुम जानते हो।
12. अर्थात अल्लाह और उसके रसूल के लिए जो तुम्हारा दायित्व और कर्तव्य है, उसे पूरा करो। (इब्ने कसीर)

وَاعْلَمُوْٓا اَنَّمَآ اَمْوَالُكُمْ وَاَوْلَادُكُمْ فِتْنَةٌ ۙوَّاَنَّ اللّٰهَ عِنْدَهٗٓ اَجْرٌ عَظِيْمٌ ࣖ٢٨
Wa‘lamū annamā amwālukum wa aulādukum fitnah(tun), wa annallāha ‘indahū ajrun ‘aẓīm(un).
[28] तथा जान लो कि तुम्हारे धन और तुम्हारी संतान एक परीक्षण हैं और यह कि निश्चय अल्लाह के पास बहुत बड़ा प्रतिफल है।

يٰٓاَيُّهَا الَّذِيْنَ اٰمَنُوْٓا اِنْ تَتَّقُوا اللّٰهَ يَجْعَلْ لَّكُمْ فُرْقَانًا وَّيُكَفِّرْ عَنْكُمْ سَيِّاٰتِكُمْ وَيَغْفِرْ لَكُمْۗ وَاللّٰهُ ذُو الْفَضْلِ الْعَظِيْمِ٢٩
Yā ayyuhal-lażīna āmanū in tattaqullāha yaj‘al lakum furqānaw wa yukaffir ‘ankum sayyi'ātikum wa yagfir lakum, wallāhu żul-faḍlil-‘aẓīm(i).
[29] ऐ ईमान वालो! यदि तुम अल्लाह से डरोगे, तो वह तुम्हें (सत्य और असत्य के बीच) अंतर करने की शक्ति13 प्रदान करेगा तथा तुमसे तुम्हारी बुराइयाँ दूर कर देगा और तुम्हे क्षमा कर देगा। और अल्लाह बहुत बड़े अनुग्रह वाला है।
13. कुछ ने इसका अर्थ निर्णय लिया है। अर्थात अल्लाह तुम्हारे और तुम्हारे विरोधियों के बीच निर्णय कर देगा।

وَاِذْ يَمْكُرُ بِكَ الَّذِيْنَ كَفَرُوْا لِيُثْبِتُوْكَ اَوْ يَقْتُلُوْكَ اَوْ يُخْرِجُوْكَۗ وَيَمْكُرُوْنَ وَيَمْكُرُ اللّٰهُ ۗوَاللّٰهُ خَيْرُ الْمٰكِرِيْنَ٣٠
Wa iż yamkuru bikal-lażīna kafarū liyuṡbitūka au yaqtulūka au yukhrijūk(a), wa yamkurūna wa yamkurullāh(u), wallāhu khairul-mākirīn(a).
[30] तथा (ऐ नबी! वह समय याद करो) जब (मक्का में) काफ़िर आपके विरुद्ध गुप्त उपाय कर रहे थे, ताकि आपको क़ैद कर दें, अथवा आपका वध कर दें अथवा आपको (देश से) बाहर निकाल दें। तथा वे गुप्त उपाय कर रहे थे और अल्लाह भी गुप्त उपाय कर रहा था और अल्लाह सब गुप्त उपाय करने वालों से बेहतर गुप्त उपाय करने वाला है।14
14. अर्थात उनकी सभी योजनाओं को विफल करके आपको सुरक्षित मदीना पहुँचा दिया।

وَاِذَا تُتْلٰى عَلَيْهِمْ اٰيٰتُنَا قَالُوْا قَدْ سَمِعْنَا لَوْ نَشَاۤءُ لَقُلْنَا مِثْلَ هٰذَآ ۙاِنْ هٰذَآ اِلَّآ اَسَاطِيْرُ الْاَوَّلِيْنَ٣١
Wa iżā tutlā ‘alaihim āyātunā qālū qad sami‘nā lau nasyā'u laqulnā miṡla hāżā, in hāżā illā asāṭīrul-awwalīn(a).
[31] और जब उनके सामने हमारी आयतें पढ़ी जाती है, तो वे कहते हैं : निःसंदेह हमने सुन लिया। यदि हम चाहें, तो निश्चय इस (क़ुरआन) जैसा हम भी कह दें। यह तो पहले लोगों की काल्पनिक कहानियों के सिवा कुछ नहीं।

وَاِذْ قَالُوا اللّٰهُمَّ اِنْ كَانَ هٰذَا هُوَ الْحَقَّ مِنْ عِنْدِكَ فَاَمْطِرْ عَلَيْنَا حِجَارَةً مِّنَ السَّمَاۤءِ اَوِ ائْتِنَا بِعَذَابٍ اَلِيْمٍ٣٢
Wa iż qālullāhumma in kāna hāżā huwal-ḥaqqa min ‘indika fa amṭir ‘alainā ḥijāratam minas-samā'i awi'tinā bi‘ażābin alīm(in).
[32] तथा (याद करो) जब उन्होंने कहा : ऐ अल्लाह! यदि यही15 तेरी ओर से सत्य है, तो हमपर आकाश से पत्थरों की वर्षा कर दे अथवा हमपर कोई दुःखदायी यातना ले आ।
15. अर्थात क़ुरआन। यह बात क़ुरैश के मुखिया अबू जह्ल ने कही थी, जिसपर आगे की आयत उतरी। (सह़ीह़ बुख़ारी : 4648)

وَمَا كَانَ اللّٰهُ لِيُعَذِّبَهُمْ وَاَنْتَ فِيْهِمْۚ وَمَا كَانَ اللّٰهُ مُعَذِّبَهُمْ وَهُمْ يَسْتَغْفِرُوْنَ٣٣
Wa mā kānallāhu liyu‘ażżibahum wa anta fīhim, wa mā kānallāhu mu‘ażżibahum wa hum yastagfirūn(a).
[33] और अल्लाह कभी ऐसा नहीं कि उनमें आपके होते हुए उन्हें यातना दे, और अल्लाह उन्हें कभी यातना देने वाला नहीं, जब कि वे क्षमा याचना करते हों।

وَمَا لَهُمْ اَلَّا يُعَذِّبَهُمُ اللّٰهُ وَهُمْ يَصُدُّوْنَ عَنِ الْمَسْجِدِ الْحَرَامِ وَمَا كَانُوْٓا اَوْلِيَاۤءَهٗۗ اِنْ اَوْلِيَاۤؤُهٗٓ اِلَّا الْمُتَّقُوْنَ وَلٰكِنَّ اَكْثَرَهُمْ لَا يَعْلَمُوْنَ٣٤
Wa mā lahum allā yu‘ażżibahumullāhu wa hum yaṣuddūna ‘anil-masjidil-ḥarāmi wa mā kānū auliyā'ah(ū), in auliyā'uhū illal-muttaqūna wa lākinna akṡarahum lā ya‘lamūn(a).
[34] और उन्हें क्या है कि अल्लाह उन्हें यातना न दे, जबकि वे 'मस्जिदे ह़राम' (का'बा) से रोक रहे हैं, हालाँकि वे उसके संरक्षक नहीं। उसके संरक्षक तो केवल अल्लाह के डरने वाले बंदे हैं। परंतु उनके अधिकांश लोग नहीं जानते।

وَمَا كَانَ صَلَاتُهُمْ عِنْدَ الْبَيْتِ اِلَّا مُكَاۤءً وَّتَصْدِيَةًۗ فَذُوْقُوا الْعَذَابَ بِمَا كُنْتُمْ تَكْفُرُوْنَ٣٥
Wa mā kāna ṣalātuhum ‘indal-baiti illā mukā'aw wa taṣdiyah(tan), fa żūqul-‘ażāba bimā kuntum takfurūn(a).
[35] और उनकी नमाज़ उस घर (काबा) के पास सीटियाँ बजाने और तालियाँ बजाने के सिवा कुछ भी नहीं होती। तो अब अपने कुफ़्र (इनकार) के बदले यातना16 का स्वाद चखो।
16. अर्थात बद्र में पराजय की यातना।

اِنَّ الَّذِيْنَ كَفَرُوْا يُنْفِقُوْنَ اَمْوَالَهُمْ لِيَصُدُّوْا عَنْ سَبِيْلِ اللّٰهِ ۗفَسَيُنْفِقُوْنَهَا ثُمَّ تَكُوْنُ عَلَيْهِمْ حَسْرَةً ثُمَّ يُغْلَبُوْنَ ەۗ وَالَّذِيْنَ كَفَرُوْٓا اِلٰى جَهَنَّمَ يُحْشَرُوْنَۙ٣٦
Innal-lażīna kafarū yunfiqūna amwālahum liyaṣuddū ‘an sabīlillāh(i), fa sayunfiqūnahā ṡumma takūnu ‘alaihim ḥasratan ṡumma yuglabūn(a), wal-lażīna kafarū ilā jahannama yuḥsyarūn(a).
[36] निःसंदेह जिन लोगों ने कुफ़्र किया, वे अपने धन ख़र्च करते हैं ताकि अल्लाह के रास्ते से रोकें। तो वे उन्हें ख़र्च करते रहेंगे, फिर (ऐसा समय आएगा कि) वह उनके लिए पछतावे का कारण होगा। फिर वे पराजित होंगे। तथा जिन लोगों ने कुफ़्र किया, वे जहन्नम की ओर एकत्र किए जाएँगे।

لِيَمِيْزَ اللّٰهُ الْخَبِيْثَ مِنَ الطَّيِّبِ وَيَجْعَلَ الْخَبِيْثَ بَعْضَهٗ عَلٰى بَعْضٍ فَيَرْكُمَهٗ جَمِيْعًا فَيَجْعَلَهٗ فِيْ جَهَنَّمَۗ اُولٰۤىِٕكَ هُمُ الْخٰسِرُوْنَ ࣖ٣٧
Liyamīzallāhul-khabīṡa minaṭ-ṭayyibi wa yaj‘alal-khabīṡa ba‘ḍahū ‘alā ba‘ḍin fa yarkumahū jamī‘an fa yaj‘alahū fī jahannam(a), ulā'ika humul-khāsirūn(a).
[37] ताकि अल्लाह अपवित्र को पवित्र से अलग कर दे, तथा अपवित्र को एक पर एक रखकर ढेर बना दे। फिर उसे जहन्नम में फेंक दे। यही लोग घाटे में पड़ने वाले हैं।

قُلْ لِّلَّذِيْنَ كَفَرُوْٓا اِنْ يَّنْتَهُوْا يُغْفَرْ لَهُمْ مَّا قَدْ سَلَفَۚ وَاِنْ يَّعُوْدُوْا فَقَدْ مَضَتْ سُنَّتُ الْاَوَّلِيْنَ٣٨
Qul lil-lażīna kafarū in yantahū yugfar lahum mā qad salaf(a), wa iy ya‘ūdū faqad maḍat sunnatul-awwalīn(a).
[38] (ऐ नबी!) इन काफ़िरों से कह दें : यदि वे बाज़ आ जाएँ17, तो जो कुछ हो चुका, उन्हें क्षमा कर दिया जाएगा, और यदि वे फिर ऐसा ही करें, तो पहले लोगों (के बारे में अल्लाह) का तरीक़ा गुज़र ही चुका है।
17. अर्थात ईमान ले आएँ।

وَقَاتِلُوْهُمْ حَتّٰى لَا تَكُوْنَ فِتْنَةٌ وَّيَكُوْنَ الدِّيْنُ كُلُّهٗ لِلّٰهِۚ فَاِنِ انْتَهَوْا فَاِنَّ اللّٰهَ بِمَا يَعْمَلُوْنَ بَصِيْرٌ٣٩
Wa qātilūhum ḥattā lā takūna fitnatuw wa yakunad-dīnu kulluhū lillāh(i),fa inintahau fa innallāha bimā ya‘malūna baṣīr(un).
[39] तथा उनसे युद्ध करो, यहाँ तक कि कोई फ़ितना18 न रह जाए और धर्म पूरा का पूरा अल्लाह के लिए हो जाए। फिर यदि वे बाज़ आ जाएँ, तो निःसंदेह अल्लाह जो कुछ वे कर रहे हैं, उसे खूब देखने वाला है।
18. इब्ने उमर (रज़ियल्लाहु अन्हुमा) ने कहा : नबी (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) मुश्रिकों से उस समय युद्ध कर रहे थे जब मुसलमान कम थे। और उन्हें अपने धर्म के कारण सताया, मारा और बंदी बना लिया जाता था। (सह़ीह़ बुख़ारी : 4650, 4651)

وَاِنْ تَوَلَّوْا فَاعْلَمُوْٓا اَنَّ اللّٰهَ مَوْلٰىكُمْ ۗنِعْمَ الْمَوْلٰى وَنِعْمَ النَّصِيْرُ ۔٤٠
Wa in tawallau fa‘lamū annallāha maulākum, ni‘mal-maulā wa ni‘man-naṣīr(u).
[40] और यदि वे मुँह फेरें, तो जान लो कि निश्चय अल्लाह तुम्हारा संरक्षक है। वह बहुत अच्छा संरक्षक तथा बहुत अच्छा सहायक है।

۞ وَاعْلَمُوْٓا اَنَّمَا غَنِمْتُمْ مِّنْ شَيْءٍ فَاَنَّ لِلّٰهِ خُمُسَهٗ وَلِلرَّسُوْلِ وَلِذِى الْقُرْبٰى وَالْيَتٰمٰى وَالْمَسٰكِيْنِ وَابْنِ السَّبِيْلِ اِنْ كُنْتُمْ اٰمَنْتُمْ بِاللّٰهِ وَمَآ اَنْزَلْنَا عَلٰى عَبْدِنَا يَوْمَ الْفُرْقَانِ يَوْمَ الْتَقَى الْجَمْعٰنِۗ وَاللّٰهُ عَلٰى كُلِّ شَيْءٍ قَدِيْرٌ٤١
Wa‘lamū annamā ganimtum min syai'in fa anna lillāhi khumusahū wa lir-rasūli wa liżil-qurbā wal-yatāmā wal-masākīni wabnis-sabīli in kuntum āmantum billāhi wa mā anzalnā ‘alā ‘abdinā yaumal-furqāni yaumal-taqal-jam‘ān(i), wallāhu ‘alā kulli syai'in qadīr(un).
[41] और जान लो19 कि निःसंदेह तुम्हें जो कुछ भी ग़नीमत के रूप में मिले, तो निश्चय उसका पाँचवाँ भाग अल्लाह के लिए तथा रसूल के लिए और (आपके) निकट-संबंधियों तथा अनाथों, निर्धनों और यात्रियों के लिए है, यदि तुम अल्लाह पर तथा उस चीज़ पर ईमान लाए हो, जो हमने अपने बंदे20 पर निर्णय के दिन उतारी। जिस दिन, दो सेनाएँ भिड़ गईं और अल्लाह हर चीज़ पर सर्वशक्तिमान है।
19. इसमें ग़नीमत (युद्ध में मिले सामान) के वितरण का नियम बताया गया है कि उसके पाँच भाग करके चार भाग मुजाहिदों को दिए जाएँ। पैदल को एक भाग तथा सवार को तीन भाग। फिर पाँचवाँ भाग अल्लाह के रसूल (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) के लिए था जिसे आप अपने परिवार और रिश्तेदारों तथा अनाथों और निर्धनों की सहायता के लिए ख़र्च करते थे। इस प्रकार इस्लाम ने अनाथों और निर्धनों की सहायता पर सदा ध्यान दिया है। और ग़नीमत में उन्हें भी भाग दिया है, यह इस्लाम की वह विशेषता है जो किसी धर्म में नहीं मिलेगी। 20. अर्थात मुह़म्मद (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) पर। निर्णय के दिन से अभिप्राय बद्र के युद्ध का दिन है जो सत्य और असत्य के बीच निर्णय का दिन था। जिसमें काफ़िरों के बड़े-बड़े प्रमुख और वीर मारे गए, जिनके शव बद्र के एक कुएँ में फेंक दिए गए। फिर आप (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) कुएँ के किनारे खड़े हुए और उन्हें उनके नामों से पुकारने लगे कि क्या तुम प्रसन्न होते कि अल्लाह और उसके रसूल को मानते? हमने अपने पालनहार का वचन सच्च पाया तो क्या तुमने सच्च पाया? उमर (रज़ियल्लाहु अन्हु) ने कहा : क्या आप ऐसे शरीरों से बात कर रहे हैं जिनमें प्राण नहीं? आपने कहा : मेरी बात तुम उनसे अधिक नहीं सुन रहे हो। (सह़ीह़ बुख़ारी : 3976)

اِذْ اَنْتُمْ بِالْعُدْوَةِ الدُّنْيَا وَهُمْ بِالْعُدْوَةِ الْقُصْوٰى وَالرَّكْبُ اَسْفَلَ مِنْكُمْۗ وَلَوْ تَوَاعَدْتُّمْ لَاخْتَلَفْتُمْ فِى الْمِيْعٰدِۙ وَلٰكِنْ لِّيَقْضِيَ اللّٰهُ اَمْرًا كَانَ مَفْعُوْلًا ەۙ لِّيَهْلِكَ مَنْ هَلَكَ عَنْۢ بَيِّنَةٍ وَّيَحْيٰى مَنْ حَيَّ عَنْۢ بَيِّنَةٍۗ وَاِنَّ اللّٰهَ لَسَمِيْعٌ عَلِيْمٌۙ٤٢
Iż antum bil-‘udwatid-dun-yā wa hum bil-‘udwatil-quṣwā war-rakbu asfala minkum, wa lau tawā‘attum lakhtalaftum fil-mī‘ād(i), wa lākil liyaqḍiyallāhu amran kāna maf‘ūlā(n), liyahlika man halaka ‘am bayyinatiw wa yaḥyā may ḥayya ‘am bayyinah(tin), wa innallāha lasamī‘un ‘alīm(un).
[42] तथा उस समय को याद करो, जब तुम (घाटी के) निकटवर्ती छोर पर थे तथा वे (तुम्हारे शत्रु) दूरस्थ छोर पर थे और क़ाफ़िला तुमसे नीचे की ओर था। और अगर तुमने एक-दूसरे से वादा किया होता, तो तुम निश्चित रूप से नियत समय के बारे में आगे-पीछे हो जाते। लेकिन ताकि अल्लाह उस काम को पूरा कर दे, जो किया जाने वाला था। ताकि जो नष्ट हो, वह स्पष्ट प्रमाण के साथ नष्ट हो और जो जीवित रहे वह स्पष्ट प्रमाण के साथ जीवित रहे, और निःसंदेह अल्लाह सब कुछ सुनने वाला, सब कुछ जानने वाला है।

اِذْ يُرِيْكَهُمُ اللّٰهُ فِيْ مَنَامِكَ قَلِيْلًاۗ وَلَوْ اَرٰىكَهُمْ كَثِيْرًا لَّفَشِلْتُمْ وَلَتَنَازَعْتُمْ فِى الْاَمْرِ وَلٰكِنَّ اللّٰهَ سَلَّمَۗ اِنَّهٗ عَلِيْمٌۢ بِذَاتِ الصُّدُوْرِ٤٣
Iż yurīkahumullāhu fī manāmika qalīlā(n), wa lau arākahum kaṡīral lafasyiltum wa latanāza‘tum fil-amri wa lākinnallāha sallam(a), innahū ‘alīmum biżātiṣ-ṣudūr(i).
[43] जब अल्लाह आपको आपके सपने21 में उन्हें थोड़े दिखा रहा था, और यदि वह आपको उन्हें अधिक दिखाता, तो तुम अवश्य साहस खो देते और अवश्य इस मामले में आपस में झगड़ पड़ते। परंतु अल्लाह ने बचा लिया। निःसंदेह वह सीनों की बातों से भली-भाँति अवगत है।
21. इसमें उस स्वप्न की ओर संकेत है, जो आप सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम को युद्ध से पहले दिखाया गया था।

وَاِذْ يُرِيْكُمُوْهُمْ اِذِ الْتَقَيْتُمْ فِيْٓ اَعْيُنِكُمْ قَلِيْلًا وَّيُقَلِّلُكُمْ فِيْٓ اَعْيُنِهِمْ لِيَقْضِيَ اللّٰهُ اَمْرًا كَانَ مَفْعُوْلًا ۗوَاِلَى اللّٰهِ تُرْجَعُ الْاُمُوْرُ ࣖ٤٤
Wa iż yurīkumūhum iżil-taqaitum fī a‘yunikum qalīlaw wa yuqallilukum fī a‘yunihim liyaqḍiyallāhu amran kāna maf‘ūlā(n), wa ilallāhi turja‘ul-umūr(u).
[44] तथा जब वह तुम्हें, जब तुम्हारी परस्पर मुठभेड़ हुई, उनको तुम्हारी नज़रों में थोड़े दिखाता था, और तुमको उनकी नज़रों में बहुत कम करके दिखाता था, ताकि अल्लाह उस काम को पूरा कर दे, जो किया जाने वाला था। और सारे मामले अल्लाह ही की ओर लौटाए जाते हैं।22
22. अर्थात सबका निर्णय वही करता है।

يٰٓاَيُّهَا الَّذِيْنَ اٰمَنُوْٓا اِذَا لَقِيْتُمْ فِئَةً فَاثْبُتُوْا وَاذْكُرُوا اللّٰهَ كَثِيْرًا لَّعَلَّكُمْ تُفْلِحُوْنَۚ٤٥
Yā ayyuhal-lażīna āmanū iżā laqītum fi'atan faṡbutū ważkurullāha kaṡīral la‘allakum tufliḥūn(a).
[45] ऐ ईमान वालो! जब तुम किसी गिरोह से भिड़ो, तो जमे रहो तथा अल्लाह को बहुत याद करो, ताकि तुम्हें सफलता प्राप्त हो।

وَاَطِيْعُوا اللّٰهَ وَرَسُوْلَهٗ وَلَا تَنَازَعُوْا فَتَفْشَلُوْا وَتَذْهَبَ رِيْحُكُمْ وَاصْبِرُوْاۗ اِنَّ اللّٰهَ مَعَ الصّٰبِرِيْنَۚ٤٦
Wa aṭī‘ullāha wa rasūlahū wa lā tanāza‘ū fa tafsyalū wa tażhaba rīḥukum waṣbirū, innallāha ma‘aṣ-ṣābirīn(a).
[46] तथा अल्लाह और उसके रसूल की आज्ञा का पालन करो और आपस में विवाद न करो, अन्यथा तुम कायर बन जाओगे और तुम्हारी हवा उखड़ जाएगी। तथा धैर्य रखो, निःसंदेह अल्लाह धैर्य रखने वालों के साथ है।

وَلَا تَكُوْنُوْا كَالَّذِيْنَ خَرَجُوْا مِنْ دِيَارِهِمْ بَطَرًا وَّرِئَاۤءَ النَّاسِ وَيَصُدُّوْنَ عَنْ سَبِيْلِ اللّٰهِ ۗوَاللّٰهُ بِمَايَعْمَلُوْنَ مُحِيْطٌ٤٧
Wa lā takūnū kal-lażīna kharajū min diyārihim baṭaraw wa ri'ā'an-nāsi wa yaṣuddūna ‘an sabīlillāh(i), wallāhu bimā ya‘malūna muḥīṭ(un).
[47] और उन23 लोगों के समान न हो जाओ, जो अपने घरों से इतराते हुए तथा लोगों को दिखावा करते हुए निकले। और वे अल्लाह के मार्ग से रोकते थे। हालाँकि जो कुछ वे कर रहे थे, अल्लाह उसे (अपने ज्ञान के) घेरे में लिए हुए है।
23. इससे अभिप्राय मक्का की सेना है, जिसको अबू जह्ल लाया था।

وَاِذْ زَيَّنَ لَهُمُ الشَّيْطٰنُ اَعْمَالَهُمْ وَقَالَ لَا غَالِبَ لَكُمُ الْيَوْمَ مِنَ النَّاسِ وَاِنِّيْ جَارٌ لَّكُمْۚ فَلَمَّا تَرَاۤءَتِ الْفِئَتٰنِ نَكَصَ عَلٰى عَقِبَيْهِ وَقَالَ اِنِّيْ بَرِيْۤءٌ مِّنْكُمْ اِنِّيْٓ اَرٰى مَا لَا تَرَوْنَ اِنِّيْٓ اَخَافُ اللّٰهَ ۗوَاللّٰهُ شَدِيْدُ الْعِقَابِ ࣖ٤٨
Wa iż zayyana lahumusy-syaiṭānu a‘mālahum wa qāla lā gāliba lakumul-yauma minan-nāsi wa innī jārul lakum, falammā tarā'atil-fi'atāni nakaṣa ‘alā ‘aqibaihi wa qāla innī barī'um minkum innī arā mā lā tarauna innī akhāfullāh(a), wallāhu syadīdul-‘iqāb(i).
[48] और जब शैतान24 ने उनके लिए उनके कर्मों को सुंदर बना दिया और कहा : आज लोगों में से कोई भी तुमपर प्रबल नहीं होगा और निश्चय मैं तुम्हारा समर्थक हूँ। फिर जब दोनों समूह आमने-सामने हुए, तो वह अपनी एड़ियों के बल फिर गया और उसने कहा : निःसंदेह मैं तुमसे अलग हूँ। निःसंदेह मैं वह कुछ देख रहा हूँ, जो तुम नहीं देखते। निश्चय मैं अल्लाह से डरता हूँ और अल्लाह बहुत कठोर यातना देने वाला है।
24. बद्र के युद्ध में शैतान भी अपनी सेना के साथ सुराक़ा बिन मालिक के रूप में आया था। परंतु जब फ़रिश्तों को देखा, तो भाग गया। (इब्ने कसीर)

اِذْ يَقُوْلُ الْمُنٰفِقُوْنَ وَالَّذِيْنَ فِيْ قُلُوْبِهِمْ مَّرَضٌ غَرَّ هٰٓؤُلَاۤءِ دِيْنُهُمْۗ وَمَنْ يَّتَوَكَّلْ عَلَى اللّٰهِ فَاِنَّ اللّٰهَ عَزِيْزٌ حَكِيْمٌ٤٩
Iż yaqūlul-munāfiqūna wal-lażīna fī qulūbihim maraḍun garra hā'ulā'i dīnuhum, wa may yatawakkal ‘alallāhi fa innallāha ‘azīzun ḥakīm(un).
[49] जब मुनाफ़िक़ तथा वे लोग जिनके दिलों में बीमारी थे, कह रहे थे : इन लोगों को इनके धर्म ने धोखा दिया है। हालाँकि जो अल्लाह पर भरोसा करे, तो निःसंदेह अल्लाह सबपर प्रभुत्वशाली, पूर्ण हिकमत वाला है।

وَلَوْ تَرٰٓى اِذْ يَتَوَفَّى الَّذِيْنَ كَفَرُوا الْمَلٰۤىِٕكَةُ يَضْرِبُوْنَ وُجُوْهَهُمْ وَاَدْبَارَهُمْۚ وَذُوْقُوْا عَذَابَ الْحَرِيْقِ٥٠
Wa lau tarā iż yatawaffal-lażīna kafarul-malā'ikatu yaḍribūna wujūhahum wa adbārahum, wa żūqū ‘ażābal-ḥarīq(i).
[50] और काश! आप देखें, जब फ़रिश्ते काफ़िरों के प्राण निकालते हैं, उनके चेहरों और उनकी पीठों पर मारते हैं (और कहते हैं) जलाने वाली यातना25 का मज़ा चखो।
25. बद्र के युद्ध में काफ़िरों के कई प्रमुख मारे गए। आप (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) ने युद्ध से पहले बता दिया कि अमुक इस स्थान पर मारा जाएगा तथा अमुक इस स्थान पर। और युद्ध समाप्त होने पर उनका शव उन्हीं स्थानों पर मिला। तनिक भी इधर-उधर नहीं हुआ। (बुख़ारी : 4480) ऐसे ही आप (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) ने युद्ध के समय कहा कि सारे जत्थे पराजित हो जाएँगे और पीठ दिखा देंगे। और उसी समय शत्रु पराजित होने लगे। (बुख़ारी : 4875)

ذٰلِكَ بِمَا قَدَّمَتْ اَيْدِيْكُمْ وَاَنَّ اللّٰهَ لَيْسَ بِظَلَّامٍ لِّلْعَبِيْدِۙ٥١
Żālika bimā qaddamat aidīkum wa annallāha laisa biẓallāmil lil-‘abīd(i).
[51] यह उसके बदले में है जो तुम्हारे हाथों ने आगे भेजा और इसलिए कि निश्चय अल्लाह बंदों पर तनिक भी अत्याचार नहीं करता।

كَدَأْبِ اٰلِ فِرْعَوْنَۙ وَالَّذِيْنَ مِنْ قَبْلِهِمْۗ كَفَرُوْا بِاٰيٰتِ اللّٰهِ فَاَخَذَهُمُ اللّٰهُ بِذُنُوْبِهِمْۗ اِنَّ اللّٰهَ قَوِيٌّ شَدِيْدُ الْعِقَابِ٥٢
Kada'bi āli fir‘aun(a), wal-lażīna min qablihim, kafarū bi'āyātillāhi fa akhażahumullāhu biżunūbihim, innallāha qawiyyun syadīdul-‘iqāb(i).
[52] (इनका हाल) फ़िरऔनियों तथा उनसे पहले के लोगों के हाल की तरह हुआ। उन्होंने अल्लाह की निशानियों का इनकार किया, तो अल्लाह ने उन्हें उनके गुनाहों के कारण पकड़ लिया। निःसंदेह अल्लाह बहुत शक्तिशाली, बहुत कठोर दंड वाला है।

ذٰلِكَ بِاَنَّ اللّٰهَ لَمْ يَكُ مُغَيِّرًا نِّعْمَةً اَنْعَمَهَا عَلٰى قَوْمٍ حَتّٰى يُغَيِّرُوْا مَا بِاَنْفُسِهِمْۙ وَاَنَّ اللّٰهَ سَمِيْعٌ عَلِيْمٌۙ٥٣
Żālika bi'annallāha lam yaku mugayyiran ni‘matan an‘amahā ‘alā qaumin ḥattā yugayyirū mā bi'anfusihim, wa annallāha samī‘un ‘alīm(un).
[53] यह इस कारण (हुआ) कि अल्लाह कभी भी उस नेमत को बदलने वाला नहीं है, जो उसने किसी जाति पर की हो, यहाँ तक कि वे (स्वयं) बदल दें जो उनके दिलों में है। और इसलिए कि अल्लाह सब कुछ सुनने वाला, सब कुछ जानने वाला है।

كَدَأْبِ اٰلِ فِرْعَوْنَۙ وَالَّذِيْنَ مِنْ قَبْلِهِمْۚ كَذَّبُوْا بِاٰيٰتِ رَبِّهِمْ فَاَهْلَكْنٰهُمْ بِذُنُوْبِهِمْ وَاَغْرَقْنَآ اٰلَ فِرْعَوْنَۚ وَكُلٌّ كَانُوْا ظٰلِمِيْنَ٥٤
Kada'bi āli fir‘aun(a), wal-lażīna min qablihim, każżabū bi'āyāti rabbihim fa ahlaknāhum biżunūbihim wa agraqnā āla fir‘aun(a), wa kullun kānū ẓālimīn(a).
[54] इनकी दशा फ़िरऔनियों तथा उन लोगों जैसी हुई, जो उनसे पहले थे। उन्होंने अल्लाह की आयतों को झुठलाया, तो हमने उन्हें उनके पापों के कारण विनष्ट कर दिया तथा फ़िरऔनियों को डुबो दिया। और वे सभी अत्याचारी थे।26
26. इस आयत में तथा आयत संख्या 52 में व्यक्तियों तथा जातियों के उत्थान और पतन का विधान बताया गया है कि वे स्वयं अपने कर्मों से अपना-अपना जीवन बनाती या अपना विनाश करती हैं।

اِنَّ شَرَّ الدَّوَاۤبِّ عِنْدَ اللّٰهِ الَّذِيْنَ كَفَرُوْا فَهُمْ لَا يُؤْمِنُوْنَۖ٥٥
Inna syarrad-dawābbi ‘indallāhil-lażīna kafarū fahum lā yu'minūn(a).
[55] निःसंदेह अल्लाह की दृष्टि में सभी जानवरों से बुरे वे लोग हैं, जिन्होंने कुफ़्र किया, इसलिए वे ईमान नहीं लाते।

الَّذِيْنَ عَاهَدْتَّ مِنْهُمْ ثُمَّ يَنْقُضُوْنَ عَهْدَهُمْ فِيْ كُلِّ مَرَّةٍ وَّهُمْ لَا يَتَّقُوْنَ٥٦
Allażīna ‘āhatta minhum ṡumma yanquḍūna ‘ahdahum fī kulli marratiw wa hum lā yattaqūn(a).
[56] वे लोग27 जिनसे तूने संधि की। फिर वे हर बार अपना वचन भंग कर देते हैं। और वे (अल्लाह से) नहीं डरते।
27. इसमें मदीना के यहूदियों की ओर संकेत है। जिनसे नबी सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम की संधि थी। फिर भी वे मुसलमानों के विरोध में गतिशील थे और बद्र के तुरंत बाद ही क़ुरैश को बदले के लिए भड़काने लगे थे।

فَاِمَّا تَثْقَفَنَّهُمْ فِى الْحَرْبِ فَشَرِّدْ بِهِمْ مَّنْ خَلْفَهُمْ لَعَلَّهُمْ يَذَّكَّرُوْنَ٥٧
Fa immā taṡqafannahum fil-ḥarbi fa syarrid bihim man khalfahum la‘allahum yażżakkarūn(a).
[57] तो यदि कभी तुम उन्हें युद्ध में पा जाओ, तो उनपर भारी प्रहार करने के साथ उन लोगों को भगा दो, जो उनके पीछे हैं, ताकि वे सीख ग्रहण करें।

وَاِمَّا تَخَافَنَّ مِنْ قَوْمٍ خِيَانَةً فَانْۢبِذْ اِلَيْهِمْ عَلٰى سَوَاۤءٍۗ اِنَّ اللّٰهَ لَا يُحِبُّ الْخَاۤىِٕنِيْنَ ࣖ٥٨
Wa immā takhāfanna min qaumin khiyānatan fambiż ilaihim ‘alā sawā'(in), innallāha lā yuḥibbul-khā'inīn(a).
[58] और यदि कभी आपको किसी जाति की ओर से किसी विश्वासघात का भय हो, तो समानता के आधार पर उनका वचन उन पर फेंक दें।28 निःसंदेह अल्लाह विश्वासघात करने वालों से प्रेम नहीं करता।
28. अर्थात उन्हें पहले सूचित कर दो कि अब हमारे तुम्हारे बीच संधि नहीं है।

وَلَا يَحْسَبَنَّ الَّذِيْنَ كَفَرُوْا سَبَقُوْاۗ اِنَّهُمْ لَا يُعْجِزُوْنَ٥٩
Wa lā yaḥsabannal-lażīna kafarū sabaqū, innahum lā yu‘jizūn(a).
[59] जिन लोगों ने कुफ़्र किया, हरगिज़ न समझें कि वे बचकर निकले गए। निश्चय वे (हमें) विवश नहीं कर सकेंगे।

وَاَعِدُّوْا لَهُمْ مَّا اسْتَطَعْتُمْ مِّنْ قُوَّةٍ وَّمِنْ رِّبَاطِ الْخَيْلِ تُرْهِبُوْنَ بِهٖ عَدُوَّ اللّٰهِ وَعَدُوَّكُمْ وَاٰخَرِيْنَ مِنْ دُوْنِهِمْۚ لَا تَعْلَمُوْنَهُمْۚ اَللّٰهُ يَعْلَمُهُمْۗ وَمَا تُنْفِقُوْا مِنْ شَيْءٍ فِيْ سَبِيْلِ اللّٰهِ يُوَفَّ اِلَيْكُمْ وَاَنْتُمْ لَا تُظْلَمُوْنَ٦٠
Wa a‘iddū lahum mastaṭa‘tum min quwwatiw wa mir ribāṭil-khaili turhibūna bihī ‘aduwwallāhi wa ‘aduwwakum wa ākharīna min dūnihim, lā ta‘lamūnahum, allāhu ya‘lamuhum, wa mā tunfiqū min syai'in fī sabīlillāhi yuwaffa ilaikum wa antum lā tuẓlamūn(a).
[60] तथा जहाँ तक तुमसे हो सके, अपनी शक्ति बढ़ाकर और घोड़ों को तैयार करके उनके (मुक़ाबले के) लिए अपने उपकरण तैयार करो, जिसके साथ तुम अल्लाह के दुश्मन और अपने दुश्मन को और उनके अलावा कुछ और लोगों को भयभीत29 करोगे, जिन्हें तुम नहीं जानते, अल्लाह उन्हें जानता है। और तुम जो चीज़ भी अल्लाह की राह में खर्च करोगे, वह तुम्हें पूरी-पूरी लौटा दी जाएगी और तुमपर अत्याचार नहीं किया जाएगा।
29. ताकि वे तुमपर आक्रमण करने का साहस न करें, और आक्रमण करें तो अपनी रक्षा करो।

۞ وَاِنْ جَنَحُوْا لِلسَّلْمِ فَاجْنَحْ لَهَا وَتَوَكَّلْ عَلَى اللّٰهِ ۗاِنَّهٗ هُوَ السَّمِيْعُ الْعَلِيْمُ٦١
Wa in janaḥū lis-salmi fajnaḥ lahā wa tawakkal ‘alallāh(i), innahū huwas-samī‘ul-‘alīm(u).
[61] और यदि वे (शत्रु) संधि की ओर झुकें, तो आप भी उसकी ओर झुक जाएँ और अल्लाह पर भरोसा रखें। निःसंदेह वही सब कुछ सुनने वाला, सब कुछ जानने वाला है।

وَاِنْ يُّرِيْدُوْٓا اَنْ يَّخْدَعُوْكَ فَاِنَّ حَسْبَكَ اللّٰهُ ۗهُوَ الَّذِيْٓ اَيَّدَكَ بِنَصْرِهٖ وَبِالْمُؤْمِنِيْنَۙ٦٢
Wa iy yurīdū ay yakhda‘ūka fa inna ḥasbakallāh(u), huwal-lażī ayyadaka binaṣrihī wa bil-mu'minīn(a).
[62] और यदि वे यह चाहें कि आपको धोखा दें, तो निःसंदेह आपके लिए अल्लाह ही काफ़ी है। वही है जिसने आपको अपनी मदद से और मोमिनों के द्वारा शक्ति प्रदान की।

وَاَلَّفَ بَيْنَ قُلُوْبِهِمْۗ لَوْاَنْفَقْتَ مَا فِى الْاَرْضِ جَمِيْعًا مَّآ اَلَّفْتَ بَيْنَ قُلُوْبِهِمْ وَلٰكِنَّ اللّٰهَ اَلَّفَ بَيْنَهُمْۗ اِنَّهٗ عَزِيْزٌ حَكِيْمٌ٦٣
Wa allafa baina qulūbihim, lau anfaqta mā fil-arḍi jamī‘am mā allafta baina qulūbihim wa lākinnallāha allafa bainahum, innahū ‘azīzun ḥakīm(un).
[63] और उसने उनके दिलों को आपस में जोड़ दिया। यदि आप धरती में जो कुछ है, सब खर्च कर देते, तो भी उनके दिलों को जोड़ न पाते। लेकिन अल्लाह ने उन्हें आपस में जोड़ दिया। निःसंदेह वह सबपर प्रभुत्वशाली, पूर्ण हिकमत वाला है।

يٰٓاَيُّهَا النَّبِيُّ حَسْبُكَ اللّٰهُ وَمَنِ اتَّبَعَكَ مِنَ الْمُؤْمِنِيْنَ ࣖ٦٤
Yā ayyuhan-nabiyyu ḥasbukallāhu wa manittaba‘aka minal-mu'minīn(a).
[64] ऐ नबी! आपके लिए तथा आपके पीछे चलने वाले ईमानवालों के लिए अल्लाह काफ़ी है।

يٰٓاَيُّهَا النَّبِيُّ حَرِّضِ الْمُؤْمِنِيْنَ عَلَى الْقِتَالِۗ اِنْ يَّكُنْ مِّنْكُمْ عِشْرُوْنَ صٰبِرُوْنَ يَغْلِبُوْا مِائَتَيْنِۚ وَاِنْ يَّكُنْ مِّنْكُمْ مِّائَةٌ يَّغْلِبُوْٓا اَلْفًا مِّنَ الَّذِيْنَ كَفَرُوْا بِاَنَّهُمْ قَوْمٌ لَّا يَفْقَهُوْنَ٦٥
Yā ayyuhan-nabiyyu ḥarriḍil-mu'minīna ‘alal-qitāl(i), iy yakum minkum ‘isyrūna ṣabirūna yaglibū mi'atain(i), wa iy yakum minkum mi'atuy yaglibū alfam minal-lażīna kafarū bi'annahum qaumul lā yafqahūn(a).
[65] ऐ नबी! ईमान वालों को लड़ाई पर उभारें।30 यदि तुममें से बीस धैर्य रखने वाले हों, तो वे दो सौ पर विजय प्राप्त करेंगे, और यदि तुममें से एक सौ हों, तो वे कुफ़्र करने वालों में से एक हज़ार पर विजय प्राप्त करेंगे। यह इसलिए कि निःसंदेह वे ऐसे लोग हैं जो समझते नहीं।
30. इसलिए कि काफ़िर मैदान में आ गए हैं और आपसे युद्ध करना चाहते हैं। ऐसी दशा में जिहाद अनिवार्य हो जाता है, ताकि शत्रु के आक्रमण से बचा जाए।

اَلْـٰٔنَ خَفَّفَ اللّٰهُ عَنْكُمْ وَعَلِمَ اَنَّ فِيْكُمْ ضَعْفًاۗ فَاِنْ يَّكُنْ مِّنْكُمْ مِّائَةٌ صَابِرَةٌ يَّغْلِبُوْا مِائَتَيْنِۚ وَاِنْ يَّكُنْ مِّنْكُمْ اَلْفٌ يَّغْلِبُوْٓا اَلْفَيْنِ بِاِذْنِ اللّٰهِ ۗوَاللّٰهُ مَعَ الصّٰبِرِيْنَ٦٦
Al'āna khaffafallāhu ‘ankum wa ‘alima anna fīkum ḍa‘fā(n), fa iy yakum minkum mi'atun ṣābiratuy yaglibū mi'atain(i), wa iy yakum minkum alfuy yaglibū alfaini bi'iżnillāh(i), wallāhu ma‘aṣ-ṣābirīn(a).
[66] अब अल्लाह ने तुम्हारा बोझ हल्का कर दिया और जान लिया कि तुम्हारे अंदर कुछ कमज़ोरी है। तो यदि तुममें से सौ धैर्य रखने वाले हों, तो दो सौ पर विजय प्राप्त करेंगे, और यदि तुममें से एक हज़ार आदमी हों, तो अल्लाह के हुक्म से दो हज़ार पर विजय प्राप्त करेंगे, और अल्लाह धैर्य रखने वालों के साथ है।31
31. अर्थात उनका सहायक है जो दुःख तथा सुख प्रत्येक दशा में उसके नियमों का पालन करते हैं।

مَاكَانَ لِنَبِيٍّ اَنْ يَّكُوْنَ لَهٗٓ اَسْرٰى حَتّٰى يُثْخِنَ فِى الْاَرْضِۗ تُرِيْدُوْنَ عَرَضَ الدُّنْيَاۖ وَاللّٰهُ يُرِيْدُ الْاٰخِرَةَۗ وَاللّٰهُ عَزِيْزٌحَكِيْمٌ٦٧
Mā kāna linabiyyin ay yakūna lahū asrā ḥattā yuṡkhina fil-arḍ(i), turīdūna ‘araḍad-dun-yā, wallāhu yurīdul-ākhirah(ta), wallāhu ‘azīzun ḥakīm(un).
[67] किसी नबी के लिए उचित नहीं कि उसके पास बंदी हों, यहाँ तक कि वह धरती में (उनका) अच्छी तरह खून बहा ले। तुम संसार की सामग्री चाहते हो और अल्लाह आख़िरत (परलोक) चाहता है। और अल्लाह सबपर प्रभुत्वशाली, पूर्ण हिकमत वाला है।

لَوْلَاكِتٰبٌ مِّنَ اللّٰهِ سَبَقَ لَمَسَّكُمْ فِيْمَآ اَخَذْتُمْ عَذَابٌ عَظِيْمٌ٦٨
Lau lā kitābum minallāhi sabaqa lamassakum fīmā akhażtum ‘ażābun ‘aẓīm(un).
[68] यदि अल्लाह के द्वारा लिखी गई बात न होती, जो पहले तय हो चुकी, तो तुमने जो कुछ भी लिया32 उसके कारण तुम्हें बहुत बड़ी यातना पहुँचती।
32. यह आयत बद्र के बंदियों के बारे में उतरी। जब अल्लाह के किसी आदेश के बिना आपस के परामर्श से उनसे फिरौती ले ली गई। (इब्ने कसीर)

فَكُلُوْا مِمَّاغَنِمْتُمْ حَلٰلًا طَيِّبًاۖ وَّاتَّقُوا اللّٰهَ ۗاِنَّ اللّٰهَ غَفُوْرٌ رَّحِيْمٌ٦٩
Fa kulū mimmā ganimtum ḥalālan ṭayyibā(n), wattaqullāh(a), innallāha gafūrur raḥīm(un).
[69] तो जो ग़नीमत का धन तुमने प्राप्त किया है, उसमें से खाओ33, इस हाल में कि हलाल और पवित्र है, और अल्लाह से डरो। निःसंदेह अल्लाह बहुत क्षमा करने वाला, अत्यंत दयावान है।
33. आप (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) ने फरमाया : मेरी एक विशेषता यह भी है कि मेरे लिए ग़नीमत हलाल कर दी गई, जो मुझसे पहले किसी नबी के लिए हलाल नहीं थी। (बुख़ारी : 335, मुस्लिम : 521)

يٰٓاَيُّهَا النَّبِيُّ قُلْ لِّمَنْ فِيْٓ اَيْدِيْكُمْ مِّنَ الْاَسْرٰٓىۙ اِنْ يَّعْلَمِ اللّٰهُ فِيْ قُلُوْبِكُمْ خَيْرًا يُّؤْتِكُمْ خَيْرًا مِّمَّآ اُخِذَ مِنْكُمْ وَيَغْفِرْ لَكُمْۗ وَاللّٰهُ غَفُوْرٌ رَّحِيْمٌ ࣖ٧٠
Yā ayyuhan-nabiyyu qul liman fī aidīkum minal-asrā, iy ya‘lamillāhu fī qulūbikum khairay yu'tikum khairam mimmā ukhiża minkum wa yagfir lakum, wallāhu gafūrur raḥīm(un).
[70] ऐ नबी! तुम्हारे हाथों में जो बंदी हैं, उनसे कह दो : यदि अल्लाह तुम्हारे दिलों में कोई भलाई जानेगा, तो तुम्हें उससे बेहतर प्रदान करेगा, जो तुमसे लिया गया है और तुम्हें क्षमा कर देगा। और अल्लाह अति क्षमाशील, अत्यंत दयावान है।

وَاِنْ يُّرِيْدُوْا خِيَانَتَكَ فَقَدْ خَانُوا اللّٰهَ مِنْ قَبْلُ فَاَمْكَنَ مِنْهُمْ وَاللّٰهُ عَلِيْمٌ حَكِيْمٌ٧١
Wa iy yurīdū khiyānataka faqad khānullāha min qablu fa amkana minhum wallāhu ‘alīmun ḥakim(un).
[71] और यदि वे आपके साथ विश्वासघात करना चाहें, तो निःसंदेह वे इससे पहले अल्लाह के साथ विश्वासघात कर चुके हैं। तो उसने (आपको) उनपर नियंत्रण दे दिया। तथा अल्लाह सब कुछ जानने वाला, पूर्ण हिकमत वाला है।

اِنَّ الَّذِيْنَ اٰمَنُوْا وَهَاجَرُوْا وَجَاهَدُوْا بِاَمْوَالِهِمْ وَاَنْفُسِهِمْ فِيْ سَبِيْلِ اللّٰهِ وَالَّذِيْنَ اٰوَوْا وَّنَصَرُوْٓا اُولٰۤىِٕكَ بَعْضُهُمْ اَوْلِيَاۤءُ بَعْضٍۗ وَالَّذِيْنَ اٰمَنُوْا وَلَمْ يُهَاجِرُوْا مَا لَكُمْ مِّنْ وَّلَايَتِهِمْ مِّنْ شَيْءٍ حَتّٰى يُهَاجِرُوْاۚ وَاِنِ اسْتَنْصَرُوْكُمْ فِى الدِّيْنِ فَعَلَيْكُمُ النَّصْرُ اِلَّا عَلٰى قَوْمٍۢ بَيْنَكُمْ وَبَيْنَهُمْ مِّيْثَاقٌۗ وَاللّٰهُ بِمَا تَعْمَلُوْنَ بَصِيْرٌ٧٢
Innal-lażīna āmanū wa hājarū wa jāhadū bi'amwālihim wa anfusihim fī sabīlillāhi wal-lażīna āwaw wa naṣarū ulā'ika ba‘ḍuhum auliyā'u ba‘ḍ(in), wal-lażīna āmanū wa lam yuhājirū mā lakum miw walāyatihim min syai'in ḥattā yuhājirū, wa inistanṣarūkum fid-dīni fa ‘alaikumun naṣru illā ‘alā qaumim bainakum wa bainahum mīṡāq(un), wallāhu bimā ta‘malūna baṣīr(un).
[72] निःसंदेह जो लोग ईमान लाए और उन्होंने हिजरत की तथा अल्लाह के मार्ग में अपने धन और अपने प्राण के साथ जिहाद किया, तथा जिन लोगों ने (उन्हें) शरण दिया और सहायता की, ये लोग आपस में मित्र हैं। और जो लोग ईमान लाए और हिजरत नहीं की, तुम्हारे लिए उनकी मित्रता में से कुछ भी नहीं, यहाँ तक कि वे हिजरत करें। और यदि वे धर्म के बारें में तुमसे सहायता माँगें, तो तुमपर सहायता करना आवश्यक है। परंतु किसी ऐसी जाति के विरुद्ध नहीं, जिनके और तुम्हारे बीच कोई संधि हो। तथा जो कुछ तुम कर रहे हो, अल्लाह उसे ख़ूब देखने वाला है।

وَالَّذِيْنَ كَفَرُوْا بَعْضُهُمْ اَوْلِيَاۤءُ بَعْضٍۗ اِلَّا تَفْعَلُوْهُ تَكُنْ فِتْنَةٌ فِى الْاَرْضِ وَفَسَادٌ كَبِيْرٌۗ٧٣
Wal-lażīna kafarū ba‘ḍuhum auliyā'u ba‘ḍ(in), illā taf‘alūhu takun fitnatun fil-arḍi wa fasādun kabīr(un).
[73] और जिन लोगों ने कुफ़्र किया, वे आपस में एक-दूसरे के मित्र हैं। यदि तुम ऐसा न करोगे, तो धरती में बड़ा फ़ितना तथा बहुत बड़ा बिगाड़ पैदा होगा।

وَالَّذِيْنَ اٰمَنُوْا وَهَاجَرُوْا وَجَاهَدُوْا فِيْ سَبِيْلِ اللّٰهِ وَالَّذِيْنَ اٰوَوْا وَّنَصَرُوْٓا اُولٰۤىِٕكَ هُمُ الْمُؤْمِنُوْنَ حَقًّاۗ لَهُمْ مَّغْفِرَةٌ وَّرِزْقٌ كَرِيْمٌ٧٤
Wal-lażīna āmanū wa hājarū wa jāhadū fī sabīlillāhi wal-lażīna āwaw wa naṣarū ulā'ika humul-mu'minūna ḥaqqā(n), lahum magfirtuw wa rizqun karīm(un).
[74] तथ जो लोग ईमान लाए और उन्होंने हिजरत की और अल्लाह के मार्ग में जिहाद किया और जिन लोगों ने (उन्हें) शरण दी और सहायता की, वही सच्चे मोमिन हैं। उन्हीं के लिए बड़ी क्षमा और सम्मानजनक जीविका है।

وَالَّذِيْنَ اٰمَنُوْا مِنْۢ بَعْدُ وَهَاجَرُوْا وَجَاهَدُوْا مَعَكُمْ فَاُولٰۤىِٕكَ مِنْكُمْۗ وَاُولُوا الْاَرْحَامِ بَعْضُهُمْ اَوْلٰى بِبَعْضٍ فِيْ كِتٰبِ اللّٰهِ ۗاِنَّ اللّٰهَ بِكُلِّ شَيْءٍ عَلِيْمٌ ࣖ٧٥
Wal-lażīna āmanū mim ba‘du wa hājarū wa jāhadū ma‘akum fa ulā'ika minkum, wa ulul-arḥāmi ba‘ḍuhum aulā biba‘ḍin fī kitābillāh(i), innallāha bikulli syai'in ‘alīm(un).
[75] तथा जो लोग बाद में ईमान लाए और हिजरत की और तुम्हारे साथ मिलकर जिहाद किया, तो वे तुम ही में से हैं। और अल्लाह की किताब में रिश्तेदार एक-दूसरे के अधिक हक़दार34 हैं। निःसंदेह अल्लाह प्रत्येक चीज़ को भली-भाँति जानने वाला है।
34. अर्थात मीरास में उनको प्राथमिकता प्राप्त है।