Surah Al-Jinn
بِسْمِ اللّٰهِ الرَّحْمٰنِ الرَّحِيْمِ
قُلْ اُوْحِيَ اِلَيَّ اَنَّهُ اسْتَمَعَ نَفَرٌ مِّنَ الْجِنِّ فَقَالُوْٓا اِنَّا سَمِعْنَا قُرْاٰنًا عَجَبًاۙ١
Qul ūḥiya ilayya annahustama‘a nafarum minal-jinni fa qālū innā sami‘nā qur'ānan ‘ajabā(n).
[1]
(ऐ नबी!) कह दें : मेरी ओर वह़्य1 की गई है कि जिन्नों के एक समूह ने (मेरे क़ुरआन पढ़ने को) ध्यान से सुना। फिर उन्होंने कहा : निःसंदेह हमने एक अद्भुत क़ुरआन सुना है।
1. सूरतुल-अह़्क़ाफ़, आयत : 29 में इसका वर्णन किया गया है। इस सूरत में यह बताया गया है कि जब जिन्नों ने क़ुरआन सुना, तो आपने न जिन्नों को देखा और न आपको उसका ज्ञान हुआ। बल्कि आप (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) को वह़्य (प्रकाशना) द्वारा इससे सूचित किया गया।
يَّهْدِيْٓ اِلَى الرُّشْدِ فَاٰمَنَّا بِهٖۗ وَلَنْ نُّشْرِكَ بِرَبِّنَآ اَحَدًاۖ٢
Yahdī ilar-rusydi fa'āmannā bih(ī), wa lan nusyrika birabbinā aḥadā(n).
[2]
जो सीधी राह दिखाता है, तो हम उसपर ईमान ले आए और (अब) हम अपने पालनहार के साथ किसी को कभी साझी नहीं बनाएँगे।
وَّاَنَّهٗ تَعٰلٰى جَدُّ رَبِّنَا مَا اتَّخَذَ صَاحِبَةً وَّلَا وَلَدًاۖ٣
Wa annahū ta‘ālā jaddu rabbinā mattakhaża ṣāḥibataw wa lā waladā(n).
[3]
तथा यह कि हमारे पालनहार की महिमा बहुत ऊँची है। उसने न (अपनी) कोई संगिनी (पत्नी) बनाई है और न कोई संतान।
وَّاَنَّهٗ كَانَ يَقُوْلُ سَفِيْهُنَا عَلَى اللّٰهِ شَطَطًاۖ٤
Wa annahū kāna yaqūlu safīhunā ‘alallāhi syaṭaṭā(n).
[4]
तथा यह कि हमारा मूर्ख अल्लाह के बारे में सत्य से हटी हुई बात कहा करता था।
وَّاَنَّا ظَنَنَّآ اَنْ لَّنْ تَقُوْلَ الْاِنْسُ وَالْجِنُّ عَلَى اللّٰهِ كَذِبًاۙ٥
Wa annā ẓanannā allan taqūlal-insu wal-jinnu ‘alallāhi każibā(n).
[5]
और यह कि हमने समझ रखा था कि मनुष्य और जिन्न अल्लाह पर हरगिज़ कोई झूठी बात नहीं बोलेंगे।
وَّاَنَّهٗ كَانَ رِجَالٌ مِّنَ الْاِنْسِ يَعُوْذُوْنَ بِرِجَالٍ مِّنَ الْجِنِّ فَزَادُوْهُمْ رَهَقًاۖ٦
Wa annahū kāna rijālum minal insi ya‘ūżūna birijālim minal-jinni fa zādūhum rahaqā(n).
[6]
और वास्तविकता यह है कि मनुष्यों में से कुछ लोग, जिन्नों में से कुछ लोगों की शरण लिया करते थे। तो उन्होंने उन (जिन्नों) को सरकशी में बढ़ा दिया।
وَّاَنَّهُمْ ظَنُّوْا كَمَا ظَنَنْتُمْ اَنْ لَّنْ يَّبْعَثَ اللّٰهُ اَحَدًاۖ٧
Wa annahum ẓannū kamā ẓanantum allay yab‘aṡallāhu aḥadā(n).
[7]
और यह कि उन (इनसानों) ने गुमान किया था, जैसे कि तुमने गुमान किया था कि अल्लाह किसी को कभी नहीं उठाएगा।
وَّاَنَّا لَمَسْنَا السَّمَاۤءَ فَوَجَدْنٰهَا مُلِئَتْ حَرَسًا شَدِيْدًا وَّشُهُبًاۖ٨
Wa annā lamasnas-samā'a fa wajadnāhā muli'at ḥarasan syadīdaw wa syuhubā(n).
[8]
तथा यह कि हमने आकाश को टटोला, तो उसे सख़्त पहरेदारों और उल्काओं से भरा हुआ पाया।
وَّاَنَّا كُنَّا نَقْعُدُ مِنْهَا مَقَاعِدَ لِلسَّمْعِۗ فَمَنْ يَّسْتَمِعِ الْاٰنَ يَجِدْ لَهٗ شِهَابًا رَّصَدًاۖ٩
Wa annā kunnā naq‘udu minhā maqā‘ida lis-sam‘(i), famay yastami‘il-āna yajid lahū syihābar raṣadā(n).
[9]
और यह कि हम उसके कई स्थानों में सुनने के लिए बैठा करते थे। परन्तु, अब जो सुनने का प्रयास करता है, वह अपने लिए एक उल्का घात में लगा हुआ पाता है।
وَّاَنَّا لَا نَدْرِيْٓ اَشَرٌّ اُرِيْدَ بِمَنْ فِى الْاَرْضِ اَمْ اَرَادَ بِهِمْ رَبُّهُمْ رَشَدًاۙ١٠
Wa annā lā nadrī asyarrun urīda biman fil-arḍi am arāda bihim rabbuhum rasyadā(n).
[10]
और यह कि हम नहीं जानते कि क्या धरती वालों के साथ किसी बुराई का इरादा किया गया है या उनके पालनहार ने उनके साथ किसी भलाई का इरादा किया है?
وَّاَنَّا مِنَّا الصّٰلِحُوْنَ وَمِنَّا دُوْنَ ذٰلِكَۗ كُنَّا طَرَاۤىِٕقَ قِدَدًاۙ١١
Wa annā minnaṣ-ṣāliḥūna wa minnā dūna żālik(a), kunnā ṭarā'iqa qidadā(n).
[11]
और यह कि हममें से कुछ सदाचारी हैं तथा हममें से कुछ इसके अलावा हैं। हम विभिन्न तरीक़ों पर हैं।
وَّاَنَّا ظَنَنَّآ اَنْ لَّنْ نُّعْجِزَ اللّٰهَ فِى الْاَرْضِ وَلَنْ نُّعْجِزَهٗ هَرَبًاۖ١٢
Wa annā ẓanannā allan nu‘jizallāha fil-arḍi wa lan nu‘jizahū harabā(n).
[12]
तथा यह कि हमें विश्वास हो गया कि निःसंदेह हम धरती में अल्लाह को कदापि विवश नहीं कर सकेंगे और न ही उसे भागकर कभी विवश कर सकेंगे।
وَّاَنَّا لَمَّا سَمِعْنَا الْهُدٰىٓ اٰمَنَّا بِهٖۗ فَمَنْ يُّؤْمِنْۢ بِرَبِّهٖ فَلَا يَخَافُ بَخْسًا وَّلَا رَهَقًاۖ١٣
Wa annā lammā sami‘nal-hudā āmannā bih(ī), famay yu'mim birabbihī falā yakhāfu bakhsaw wa lā rahaqā(n).
[13]
तथा यह कि जब हमने मार्गदर्शन की बात सुनी, तो उसपर ईमान ले आए। अब जो कोई अपने पालनहार पर ईमान लाएगा, तो वह न किसी हानि से डरेगा और न किसी अत्याचार से।
وَّاَنَّا مِنَّا الْمُسْلِمُوْنَ وَمِنَّا الْقٰسِطُوْنَۗ فَمَنْ اَسْلَمَ فَاُولٰۤىِٕكَ تَحَرَّوْا رَشَدًا١٤
Wa annā minnal-muslimūna wa minnal-qāsiṭūn(a), faman aslama fa ulā'ika taḥarrau rasyadā(n).
[14]
और यह कि हममें से कुछ आज्ञाकारी हैं और हममें से कुछ अत्याचारी हैं। फिर जो आज्ञाकारी हो गया, तो वही लोग हैं जिन्होंने सीधा रास्ता खोजा।
وَاَمَّا الْقٰسِطُوْنَ فَكَانُوْا لِجَهَنَّمَ حَطَبًاۙ١٥
Wa ammal-qāsiṭūna fa kānū lijahannama ḥaṭabā(n).
[15]
तथा जो अत्याचारी हैं, तो वे जहन्नम का ईंधन होंगे।
وَّاَنْ لَّوِ اسْتَقَامُوْا عَلَى الطَّرِيْقَةِ لَاَسْقَيْنٰهُمْ مَّاۤءً غَدَقًاۙ١٦
Wa allawistaqāmū ‘alaṭ-ṭarīqati la'asqaināhum mā'an gadaqā(n).
[16]
और यह (वह़्य की गई है) कि यदि वे सीधी राह पर क़ायम रहते, तो हम उन्हें अवश्य भरपूर जल से सैराब करते।
لِّنَفْتِنَهُمْ فِيْهِۗ وَمَنْ يُّعْرِضْ عَنْ ذِكْرِ رَبِّهٖ يَسْلُكْهُ عَذَابًا صَعَدًاۙ١٧
Linaftinahum fīh(i), wa may yu‘riḍ ‘an żikri rabbihī yasluk-hu ‘ażāban ṣa‘adā(n).
[17]
ताकि हम उसमें उनका परीक्षण करें। और जो अपने पालनहार की याद से विमुख होगा, वह उसे कड़ी यातना में दाख़िल करेगा।
وَّاَنَّ الْمَسٰجِدَ لِلّٰهِ فَلَا تَدْعُوْا مَعَ اللّٰهِ اَحَدًاۖ١٨
Wa annal-masājida lillāhi falā tad‘ū ma‘allāhi aḥadā(n).
[18]
और यह कि मस्जिदें2 केवल अल्लाह के लिए हैं। अतः अल्लाह के साथ किसी को भी मत पुकारो।
2. मस्जिद का अर्थ सज्दा करने का स्थान है। भावार्थ यह है कि अल्लाह के सिवा किसी अन्य की इबादत तथा उसके सिवा किसी से प्रार्थना तथा विनय करना अवैध है।
وَّاَنَّهٗ لَمَّا قَامَ عَبْدُ اللّٰهِ يَدْعُوْهُ كَادُوْا يَكُوْنُوْنَ عَلَيْهِ لِبَدًاۗ ࣖ١٩
Wa annahū lammā qāma ‘abdullāhi yad‘ūhu kādū yakūnūna ‘alaihi libadā(n).
[19]
और यह कि जब अल्लाह का बंदा3 उसे पुकारता हुआ खड़ा हुआ, तो निकट था कि वे उनपर जत्थे बनकर टूट पड़ते।
3. अल्लाह के भक्त से अभिप्राय मुह़म्मद (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) हैं। तथा भावार्थ यह है कि जिन्न तथा मनुष्य मिल कर क़ुर्आन तथा इस्लाम की राह से रोकना चाहते हैं।
قُلْ اِنَّمَآ اَدْعُوْا رَبِّيْ وَلَآ اُشْرِكُ بِهٖٓ اَحَدًا٢٠
Qul innamā ad‘ū rabbī wa lā usyriku bihī aḥadā(n).
[20]
आप कह दें : मैं तो केवल अपने पालनहार को पुकारता हूँ और उसके साथ किसी को साझी नहीं ठहराता।
قُلْ اِنِّيْ لَآ اَمْلِكُ لَكُمْ ضَرًّا وَّلَا رَشَدًا٢١
Qul innī lā amliku lakum ḍarraw wa lā rasyadā(n).
[21]
आप कह दें : निःसंदेह मैं तुम्हारे लिए न किसी हानि का अधिकार रखता हूँ और न किसी भलाई का।
قُلْ اِنِّيْ لَنْ يُّجِيْرَنِيْ مِنَ اللّٰهِ اَحَدٌ ەۙ وَّلَنْ اَجِدَ مِنْ دُوْنِهٖ مُلْتَحَدًا ۙ٢٢
Qul innī lay yujīranī minallāhi aḥad(un), wa lan ajida min dūnihī multaḥadā(n).
[22]
आप कह दें : निश्चय मुझे कदापि कोई अल्लाह से नहीं बचा सकेगा4 और न मैं उसके सिवा कभी कोई शरण का स्थान पाऊँगा।
4. अर्थात यदि मैं उसकी अवज्ञा करूँ और वह मुझे यातना देना चाहे।
اِلَّا بَلٰغًا مِّنَ اللّٰهِ وَرِسٰلٰتِهٖۗ وَمَنْ يَّعْصِ اللّٰهَ وَرَسُوْلَهٗ فَاِنَّ لَهٗ نَارَ جَهَنَّمَ خٰلِدِيْنَ فِيْهَآ اَبَدًاۗ٢٣
Illā balāgam minallāhi wa risālātih(ī), wa may ya‘ṣillāha wa rasūlahū fa inna lahū nāra jahannama khālidīna fīhā abadā(n).
[23]
परंतु (मैं तो केवल) अल्लाह के आदेश पहुँचाने और उसके संदेशों का (अधिकार रखता हूँ)। और जो अल्लाह तथा उसके रसूल की अवज्ञा करेगा, तो निश्चय उसी के लिए जहन्नम की आग है, जिसमें वे हमेशा के लिए रहने वाले हैं।
حَتّٰىٓ اِذَا رَاَوْا مَا يُوْعَدُوْنَ فَسَيَعْلَمُوْنَ مَنْ اَضْعَفُ نَاصِرًا وَّاَقَلُّ عَدَدًاۗ٢٤
Ḥattā iżā ra'au mā yū‘adūna fasaya‘lamūna man aḍ‘afu nāṣiraw wa aqallu ‘adadā(n).
[24]
यहाँ तक कि जब वे उस चीज़ को देख लेंगे, जिसका उनसे वादा किया जाता है, तो अवश्य जान लेंगे कि कौन है जो सहायक की दृष्टि से अधिक कमज़ोर है और जो संख्या में अधिक कम है?
قُلْ اِنْ اَدْرِيْٓ اَقَرِيْبٌ مَّا تُوْعَدُوْنَ اَمْ يَجْعَلُ لَهٗ رَبِّيْٓ اَمَدًا٢٥
Qul in adrī aqarībum mā tū‘adūna am yaj‘alu lahū rabbī amadā(n).
[25]
आप कह दें : मैं नहीं जानता कि जिस चीज़ का तुमसे वादा किया जाता है, वह निकट है अथवा मेरा पालनहार उसके लिए कोई अवधि निर्धारित करेगा?
عٰلِمُ الْغَيْبِ فَلَا يُظْهِرُ عَلٰى غَيْبِهٖٓ اَحَدًاۙ٢٦
‘Ālimul-gaibi falā yuẓhiru ‘alā gaibihī aḥadā(n).
[26]
वही ग़ैब (प्रोक्ष) का जानने वाला है। वह अपने ग़ैब (प्रोक्ष) को किसी पर प्रकट नहीं करता।
اِلَّا مَنِ ارْتَضٰى مِنْ رَّسُوْلٍ فَاِنَّهٗ يَسْلُكُ مِنْۢ بَيْنِ يَدَيْهِ وَمِنْ خَلْفِهٖ رَصَدًاۙ٢٧
Illā manirtaḍā mir rasūlin fa innahū yasluku mim baini yadaihi wa min khalfihī raṣadā(n).
[27]
सिवाय किसी रसूल के, जिसे वह पसंद कर ले। तो निःसंदेह वह उसके आगे तथा उसके पीछे पहरेदार नियुक्त कर देता है।5
5. अर्थात ग़ैब (परोक्ष) का ज्ञान तो अल्लाह ही को है। किंतु यदि धर्म के विषय में कुछ परोक्ष की बातों की वह़्य अपने किसी रसूल की ओर करता है, तो फ़रिश्तों द्वारा उसकी रक्षा की व्यवस्था भी करता है ताकि उसमें कुछ मिलाया न जा सके। रसूल को जितना ग़ैब का ज्ञान दिया जाता है, वह इस आयत से उजागर हो जाता है। फिर भी कुछ लोग आप (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) को पूरे ग़ैब का ज्ञानी मानते हैं। और आप को गुहारते और सब जगह उपस्थित कहते हैं। और तौह़ीद को आघात पहुँचा कर शिर्क करते हैं।
لِّيَعْلَمَ اَنْ قَدْ اَبْلَغُوْا رِسٰلٰتِ رَبِّهِمْ وَاَحَاطَ بِمَا لَدَيْهِمْ وَاَحْصٰى كُلَّ شَيْءٍ عَدَدًا ࣖ٢٨
Liya‘lama an qad ablagū risālāti rabbihim wa aḥāṭa bimā ladaihim wa aḥṣā kulla syai'in ‘adadā(n).
[28]
ताकि वह जान ले कि उन्होंने वास्तव में अपने पालनहार के संदेश6 पहुँचा दिए हैं। और उसने उन सभी चीज़ों को घेर रखा है, जो उनके पास हैं और प्रत्येक वस्तु को गिन रखा है।
6. अर्थात वह रसूलों की दशा को जानता है। उसने प्रत्येक चीज़ को गिन रखा है, ताकि रसूलों के संदेश पहुँचाने में कोई कमी-बेशी न हो। इसलिए लोगों को रसूलों की बातें मान लेनी चाहिए।