Surah Al-Munafiqun

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بِسْمِ اللّٰهِ الرَّحْمٰنِ الرَّحِيْمِ
اِذَا جَاۤءَكَ الْمُنٰفِقُوْنَ قَالُوْا نَشْهَدُ اِنَّكَ لَرَسُوْلُ اللّٰهِ ۘوَاللّٰهُ يَعْلَمُ اِنَّكَ لَرَسُوْلُهٗ ۗوَاللّٰهُ يَشْهَدُ اِنَّ الْمُنٰفِقِيْنَ لَكٰذِبُوْنَۚ١
Iżā jā'akal-munāfiqūna qālū nasyhadu innaka larasūlullāh(i), wallāhu ya‘lamu innaka larasūluh(ū), wallāhu yasyhadu innal-munāfiqīna lakāżibūn(a).
[1] जब आपके पास मुनाफ़िक़ आते हैं, तो कहते हैं : हम गवाही देते हैं कि निःसंदेह आप निश्चय अल्लाह के रसूल हैं। तथा अल्लाह जानता है कि निःसंदेह आप निश्चय अल्लाह के रसूल हैं और अल्लाह गवाही देता है कि मुनाफ़िक़ निश्चित रूप से झूठे1 हैं।
1. आदरणीय ज़ैद पुत्र अर्क़म (रज़ियल्लाहु अन्हु) कहते हैं कि एक युद्ध में मैंने (मुनाफ़िक़ों के प्रमुख) अब्दुल्लाह पुत्र उबय्य को कहते हुए सुना कि उनपर ख़र्च न करो जो अल्लाह के रसूल के पास हैं। यहाँ तक कि वे आपके आस-पास से बिखर जाएँ। और यदि हम मदीना वापस गए, तो हम सम्मानित उससे अपमानित (इससे अभिप्राय वह मुसलमानों को ले रहे थे।) को अवश्य निकाल देंगे। मैंने अपने चाचा को यह बात बता दी। और उन्होंने नबी (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) को बता दी। तो आप (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) ने अब्दुल्लाह पुत्र उबय्य को बुलाया। उसने और उसके साथियों ने शपथ ले ली कि उन्होंने यह बात नहीं कही है। इस कारण मुझे झूठा समझ लिया गया। जिसपर मुझे बड़ा शोक हुआ और मैं घर में रहने लगा। फिर अल्लाह ने यह सूरह उतारी, तो आपने मुझे बुलाकर सुनाई और कहा : ऐ ज़ैद! अल्लाह ने तुम्हें सच्चा सिद्ध कर दिया है। (सह़ीह़ बुख़ारी : 4900)

اِتَّخَذُوْٓا اَيْمَانَهُمْ جُنَّةً فَصَدُّوْا عَنْ سَبِيْلِ اللّٰهِ ۗاِنَّهُمْ سَاۤءَ مَا كَانُوْا يَعْمَلُوْنَ٢
Ittakhażū aimānahum junnatan faṣaddū ‘an sabīlillāh(i), innahum sā'a mā kānū ya‘malūn(a).
[2] उन्होंने अपनी क़समों को ढाल बना लिया है, फिर उन्होंने (लोगों को) अल्लाह की राह से रोका है। निःसंदेह बहुत बुरा है, जो कुछ वे करते रहे हैं।

ذٰلِكَ بِاَنَّهُمْ اٰمَنُوْا ثُمَّ كَفَرُوْا فَطُبِعَ عَلٰى قُلُوْبِهِمْ فَهُمْ لَا يَفْقَهُوْنَ٣
Żālika bi'annahum āmanū ṡumma kafarū faṭubi‘a ‘alā qulūbihim fahum lā yafqahūn(a).
[3] यह इस कारण कि वे ईमान लाए, फिर उन्होंने कुफ़्र किया। तो अल्लाह ने उनके दिलों पर मुहर लगा दी। अतः वे नहीं समझते।

۞ وَاِذَا رَاَيْتَهُمْ تُعْجِبُكَ اَجْسَامُهُمْۗ وَاِنْ يَّقُوْلُوْا تَسْمَعْ لِقَوْلِهِمْۗ كَاَنَّهُمْ خُشُبٌ مُّسَنَّدَةٌ ۗيَحْسَبُوْنَ كُلَّ صَيْحَةٍ عَلَيْهِمْۗ هُمُ الْعَدُوُّ فَاحْذَرْهُمْۗ قَاتَلَهُمُ اللّٰهُ ۖاَنّٰى يُؤْفَكُوْنَ٤
Wa iżā ra'aitahum tu‘jibuka ajsāmuhum, wa iy yaqūlū tasma‘ liqaulihim, ka'annahum khusyubum musannadah(tun), yaḥsabūna kulla ṣaiḥatin ‘alaihim, humul-‘aduwwu faḥżarhum, qātalahumullāh(u), annā yu'fakūn(a).
[4] और यदि तुम उन्हें देखो, तो तुम्हें उनके शरीर अच्छे लगेंगे और यदि वे बात करें, तो तुम उनकी बात पर कान लगाओगे। मानो कि वे टेक लगाई हुई लकड़ियाँ2 हैं। वे हर तेज़ आवाज़ को अपने ही विरुद्ध3 समझते हैं। वही वास्तविक शत्रु हैं। अतः आप उनसे सावधान रहें। अल्लाह उन्हें नाश करे! वे किधर फेरे जा रहे हैं!
2. जो देखने में सुंदर, परंतु निर्बोध होती हैं। 3. अर्थात प्रत्येक समय उन्हें धड़का लगा रहता है कि उनके अपराध खुल न जाएँ।

وَاِذَا قِيْلَ لَهُمْ تَعَالَوْا يَسْتَغْفِرْ لَكُمْ رَسُوْلُ اللّٰهِ لَوَّوْا رُءُوْسَهُمْ وَرَاَيْتَهُمْ يَصُدُّوْنَ وَهُمْ مُّسْتَكْبِرُوْنَ٥
Wa iżā qīla lahum ta‘ālau yastagfir lakum rasūlullāhi lawwau ru'ūsahum wa ra'aitahum yaṣuddūna wa hum mustakbirūn(a).
[5] और जब उनसे कहा जाए : आओ, अल्लाह के रसूल तुम्हारे लिए क्षमा की प्रार्थना करें, तो वे अपने सिर फेर लेते हैं। तथा आप उन्हें देखेंगे कि वे अभिमान करते हुए विमुख हो जाते हैं।

سَوَاۤءٌ عَلَيْهِمْ اَسْتَغْفَرْتَ لَهُمْ اَمْ لَمْ تَسْتَغْفِرْ لَهُمْۗ لَنْ يَّغْفِرَ اللّٰهُ لَهُمْۗ اِنَّ اللّٰهَ لَا يَهْدِى الْقَوْمَ الْفٰسِقِيْنَ٦
Sawā'un ‘alaihim astagfarta lahum am lam tastagfir lahum, lay yagfirallāhu lahum, innallāha lā yahdil-qaumal-fāsiqīn(a).
[6] (ऐ नबी!) उनके लिए बराबर है, चाहे आप उनके लिए क्षमा की प्रार्थना करें या क्षमा की प्रार्थना न करें। अल्लाह उन्हें कदापि क्षमा नहीं करेगा। निःसंदेह अल्लाह अवज्ञाकारियों को सीधा मार्ग नहीं दिखाता।

هُمُ الَّذِيْنَ يَقُوْلُوْنَ لَا تُنْفِقُوْا عَلٰى مَنْ عِنْدَ رَسُوْلِ اللّٰهِ حَتّٰى يَنْفَضُّوْاۗ وَلِلّٰهِ خَزَاۤىِٕنُ السَّمٰوٰتِ وَالْاَرْضِۙ وَلٰكِنَّ الْمُنٰفِقِيْنَ لَا يَفْقَهُوْنَ٧
Humul-lażīna yaqūlūna lā tunfiqū ‘alā man ‘inda rasūlillāhi ḥattā yanfaḍḍū, wa lillāhi khazā'inus-samāwāti wal-arḍ(i), wa lākinnal-munāfiqīna lā yafqahūn(a).
[7] ये वही लोग हैं, जो कहते हैं कि उन लोगों पर खर्च न करो, जो अल्लाह के रसूल के पास हैं, यहाँ तक कि वे तितर-बितर हो जाएँ। हालाँकि आकाशों और धरती के खज़ाने अल्लाह ही के हैं। परंतु मुनाफ़िक़ नहीं समझते।

يَقُوْلُوْنَ لَىِٕنْ رَّجَعْنَآ اِلَى الْمَدِيْنَةِ لَيُخْرِجَنَّ الْاَعَزُّ مِنْهَا الْاَذَلَّ ۗوَلِلّٰهِ الْعِزَّةُ وَلِرَسُوْلِهٖ وَلِلْمُؤْمِنِيْنَ وَلٰكِنَّ الْمُنٰفِقِيْنَ لَا يَعْلَمُوْنَ ࣖ٨
Yaqūlūna la'ir raja‘nā ilal-madīnati layukhrijannal-a‘azzu minhal-ażall(a), wa lillāhil-‘izzatu wa lirasūlihī wa lil-mu'minīna wa lākinnal-munāfiqīna lā ya‘lamūn(a).
[8] वे कहते हैं : यदि हम मदीना वापस गए, तो जो सबसे अधिक सम्मान वाला है, वह वहाँ से तुच्छतर को निकाल4 बाहर करेगा। हालाँकि सम्मान तो केवल अल्लाह के लिए और उसके रसूल के लिए और ईमान वालों के लिए है। परंतु मुनाफ़िक़ नहीं जानते।
4. मुनाफ़िक़ों के मुखिया अब्दुल्लाह पुत्र उबय्य ने स्वयं को अधिक सम्मान वाला तथा रसूल (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) को अधिक अपमान वाला कहा था।

يٰٓاَيُّهَا الَّذِيْنَ اٰمَنُوْا لَا تُلْهِكُمْ اَمْوَالُكُمْ وَلَآ اَوْلَادُكُمْ عَنْ ذِكْرِ اللّٰهِ ۚوَمَنْ يَّفْعَلْ ذٰلِكَ فَاُولٰۤىِٕكَ هُمُ الْخٰسِرُوْنَ٩
Yā ayyuhal-lażīna āmanū lā tulhikum amwālukum wa lā aulādukum ‘an żikrillāh(i), wa may yaf‘al żālika fa ulā'ika humul-khāsirūn(a).
[9] ऐ ईमान वालो! तुम्हारे धन तथा तुम्हारी संतानें तुम्हें अल्लाह की याद से गाफ़िल न कर दें। और जो ऐसा करे, तो वही लोग घाटा उठाने वाले हैं।

وَاَنْفِقُوْا مِنْ مَّا رَزَقْنٰكُمْ مِّنْ قَبْلِ اَنْ يَّأْتِيَ اَحَدَكُمُ الْمَوْتُ فَيَقُوْلَ رَبِّ لَوْلَآ اَخَّرْتَنِيْٓ اِلٰٓى اَجَلٍ قَرِيْبٍۚ فَاَصَّدَّقَ وَاَكُنْ مِّنَ الصّٰلِحِيْنَ١٠
Wa anfiqū mimmā razaqnākum min qabli ay ya'tiya aḥadakumul-mautu fa yaqūla rabbi lau lā akhkhartanī ilā ajalin qarīb(in), fa aṣṣaddaqa wa akum minaṣ-ṣāliḥīn(a).
[10] तथा हमने तुम्हें जो कुछ दिया है, उसमें से खर्च करो, इससे पहले कि तुममें से किसी की मृत्यु5 आ जाए, फिर वह कहे : ऐ मेरे पालनहार! मुझे थोड़ी-सी मोहलत क्यों न दी कि मैं दान करता तथा सदाचारियों में से हो जाता।
5. ह़दीस में है कि मनुष्य का वास्तविक धन वही है, जो वह इस संसार में दान कर जाए। और जो वह छोड़ जाए, तो वह उसका नहीं, बल्कि उसके वारिस का धन है। (सह़ीह़ बुख़ारी : 6442)

وَلَنْ يُّؤَخِّرَ اللّٰهُ نَفْسًا اِذَا جَاۤءَ اَجَلُهَاۗ وَاللّٰهُ خَبِيْرٌۢ بِمَا تَعْمَلُوْنَ ࣖ١١
Wa lay yu'akhkhirallāhu nafsan iżā jā'a ajaluhā, wallāhu khabīrum bimā ta‘malūn(a).
[11] और अल्लाह किसी प्राणी को कदापि अवसर नहीं देगा, जब उसका निर्धारित समय आ गया। और अल्लाह उससे भली-भाँति अवगत है, जो कुछ तुम करते हो।