Surah Al-Mumtahanah

Daftar Surah

بِسْمِ اللّٰهِ الرَّحْمٰنِ الرَّحِيْمِ
يٰٓاَيُّهَا الَّذِيْنَ اٰمَنُوْا لَا تَتَّخِذُوْا عَدُوِّيْ وَعَدُوَّكُمْ اَوْلِيَاۤءَ تُلْقُوْنَ اِلَيْهِمْ بِالْمَوَدَّةِ وَقَدْ كَفَرُوْا بِمَا جَاۤءَكُمْ مِّنَ الْحَقِّۚ يُخْرِجُوْنَ الرَّسُوْلَ وَاِيَّاكُمْ اَنْ تُؤْمِنُوْا بِاللّٰهِ رَبِّكُمْۗ اِنْ كُنْتُمْ خَرَجْتُمْ جِهَادًا فِيْ سَبِيْلِيْ وَابْتِغَاۤءَ مَرْضَاتِيْ تُسِرُّوْنَ اِلَيْهِمْ بِالْمَوَدَّةِ وَاَنَا۠ اَعْلَمُ بِمَآ اَخْفَيْتُمْ وَمَآ اَعْلَنْتُمْۗ وَمَنْ يَّفْعَلْهُ مِنْكُمْ فَقَدْ ضَلَّ سَوَاۤءَ السَّبِيْلِ١
Yā ayyuhal-lażīna āmanū lā tattakhiżū ‘aduwwī wa ‘aduwwakum auliyā'a tulqūna ilaihim bil-mawaddati wa qad kafarū bimā jā'akum minal-ḥaqq(i), yukhrijūnar-rasūla wa iyyākum an tu'minū billāhi rabbikum, in kuntum kharajtum jihādan fī sabīlī wabtigā'a marḍātī tusirrūna ilaihim bil-mawaddah(ti), wa ana a‘lamu bimā akhfaitum wa mā a‘lantum, wa may yaf‘alhu minkum faqad ḍalla sawā'as-sabīl(i).
[1] ऐ लोगो जो ईमान लाए हो! मेरे शत्रुओं तथा अपने शत्रुओं को मित्र न बनाओ। तुम उनकी ओर मैत्री1 का संदेश भेजते हो, हालाँकि निश्चय उन्होंने उस सत्य का इनकार किया है, जो तुम्हारे पास आया है। वे रसूल को तथा तुमको इस कारण निकालते हैं कि तुम अपने पालनहार अल्लाह पर ईमान लाए हो। यदि तुम मेरी राह में जिहाद के लिए और मेरी प्रसन्नता तलाश करने के लिए निकले हो (तो ऐसा मत करो)। तुम गुप्त रूप से उनकी ओर मैत्री का संदेश भेजते हो, हालाँकि मैं अधिक जानने वाला हूँ, जो कुछ तुमने छिपाया और जो तुमने ज़ाहिर किया। तथा तुममें से जो भी ऐसा करेगा, तो निश्चय वह सीधे रास्ते से भटक गया।
1. मक्का वासियों ने जब ह़ुदैबिया की संधि का उल्लंघन किया, तो नबी (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) ने मक्का पर आक्रमण करने के लिए गुप्त रूप से मुसलमानों को तैयारी का आदेश दे दिया। उसी बीच आपकी इस योजना से सूचित करने के लिए ह़ातिब बिन अबी बलतआ ने एक पत्र एक नारी के माध्यम से मक्का वासियों को भेज दिया। जिसकी सूचना नबी (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) को वह़्य द्वारा दे दी गई। आपने आदरणीय अली, मिक़दाद तथा ज़बैर से कहा कि जाओ, रौज़ा ख़ाख़ (एक स्थान का नाम) में एक स्त्री मिलेगी जो मक्का जा रही होगी। उसके पास एक पत्र है वह ले आओ। ये लोग वह पत्र लाए। तब नबी (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ने कहा : ऐ ह़ातिब! यह क्या है? उन्होंने कहा : यह काम मैंने कुफ़्र तथा अपने धर्म से फिर जाने के कारण नहीं किया है। बल्कि इसका कारण यह है कि अन्य मुहाजिरीन के मक्का में संबंधी हैं। जो उनके परिवार तथा धनों की रक्षा करते हैं। पर मेरा वहाँ कोई संबंधी नहीं है, इस लिए मैंने चाहा कि उन्हें सूचित कर दूँ। ताकि वे मेरे आभारी रहें। और मेरे समीपवर्तियों की रक्षा करें। आपने उनकी सच्चाई के कारण उन्हें कुछ नहीं कहा। फिर भी अल्लाह ने चेतावनी के रूप में यह आयतें उतारीं ताकि भविष्य में कोई मुसलमान काफ़िरों से ऐसा मैत्री संबंध न रखे। (सह़ीह़ बुख़ारी : 4890)

اِنْ يَّثْقَفُوْكُمْ يَكُوْنُوْا لَكُمْ اَعْدَاۤءً وَّيَبْسُطُوْٓا اِلَيْكُمْ اَيْدِيَهُمْ وَاَلْسِنَتَهُمْ بِالسُّوْۤءِ وَوَدُّوْا لَوْ تَكْفُرُوْنَۗ٢
Iy yaṡqafūkum yakūnū lakum a‘dā'aw wa yabsuṭū ilaikum aidiyahum wa alsinatahum bis-sū'i wa waddū lau takfurūn(a).
[2] यदि वे तुम्हें पा जाएँ, तो तुम्हारे दुश्मन होंगे तथा अपने हाथ और अपनी ज़बानें तुम्हारी ओर बुराई के साथ बढ़ाएँगे और चाहेंगे कि तुम काफ़िर हो जाओ।

لَنْ تَنْفَعَكُمْ اَرْحَامُكُمْ وَلَآ اَوْلَادُكُمْ ۛيَوْمَ الْقِيٰمَةِ ۛيَفْصِلُ بَيْنَكُمْۗ وَاللّٰهُ بِمَا تَعْمَلُوْنَ بَصِيْرٌ٣
Lan tanfa‘akum arḥāmukum wa lā aulādukum yaumal-qiyāmati yafṣilu bainakum, wallāhu bimā ta‘malūna baṣīr(un).
[3] क़ियामत के दिन हरगिज़ न तुम्हारी नातेदारियाँ तुम्हें लाभ पहुँचाएँगी और न तुम्हारी संतान। वह तुम्हारे बीच जुदाई डाल देगा। और अल्लाह उसे जो तुम कर रहे हो ख़ूब देखने वाला है।

قَدْ كَانَتْ لَكُمْ اُسْوَةٌ حَسَنَةٌ فِيْٓ اِبْرٰهِيْمَ وَالَّذِيْنَ مَعَهٗۚ اِذْ قَالُوْا لِقَوْمِهِمْ اِنَّا بُرَءٰۤؤُا مِنْكُمْ وَمِمَّا تَعْبُدُوْنَ مِنْ دُوْنِ اللّٰهِ ۖ كَفَرْنَا بِكُمْ وَبَدَا بَيْنَنَا وَبَيْنَكُمُ الْعَدَاوَةُ وَالْبَغْضَاۤءُ اَبَدًا حَتّٰى تُؤْمِنُوْا بِاللّٰهِ وَحْدَهٗٓ اِلَّا قَوْلَ اِبْرٰهِيْمَ لِاَبِيْهِ لَاَسْتَغْفِرَنَّ لَكَ وَمَآ اَمْلِكُ لَكَ مِنَ اللّٰهِ مِنْ شَيْءٍۗ رَبَّنَا عَلَيْكَ تَوَكَّلْنَا وَاِلَيْكَ اَنَبْنَا وَاِلَيْكَ الْمَصِيْرُ٤
Qad kānat lakum uswatun ḥasanatun fī ibrāhīma wal-lażīna ma‘ah(ū), iż qālū liqaumihim innā bura'ā'u minkum wa mimmā ta‘budūna min dūnillāh(i), kafarnā bikum wa badā bainanā wa bainakumul-‘adāwatu wal-bagḍā'u abadan ḥattā tu'minū billāhi waḥdahū illā qaula ibrāhīma li'abīhi la'astagfiranna laka wa mā amliku laka minallāhi min syai'(in), rabbanā ‘alaika tawakkalnā wa ilaika anabnā wa ilaikal-maṣīr(u).
[4] निश्चय तुम्हारे लिए इबराहीम तथा उनके साथियों में एक अच्छा आदर्श है। जब उन्होंने अपनी जाति से कहा : निःसंदेह हम तुमसे और उन सभी चीज़ों से बरी हैं, जिन्हें तुम अल्लाह के अतिरिक्त पूजते हो। हम तुम्हें नहीं मानते और हमारे बीच तथा तुम्हारे बीच दुश्मनी और घृणा सदा के लिए प्रकट हो चुकी है, यहाँ तक कि तुम अकेले अल्लाह पर ईमान ले आओ। परंतु इबराहीम का अपने पिता से यह कहना (तुम्हारे लिए आदर्श नहीं) कि मैं अवश्य तुम्हारे लिए क्षमा की प्रार्थना करूँगा2 और मैं अल्लाह के सामने तुम्हारे लिए कुछ अधिकार नहीं रखता। ऐ हमारे पालनहार! हमने तुझी पर भरोसा किया और तेरी ही ओर लौटे और तेरी ही ओर लौटकर आना है।
2. इबराहीम (अलैहिस्सलाम) ने जो प्रार्थनाएँ अपने पिता के लिए कीं उनके लिए देखिए : सूरत इबराहीम, आयत : 41, तथा सूरतुश्-शुअरा, आयत : 86। फिर जब आदरणीय इबराहीम (अलैहिस्सलाम) को यह ज्ञान हो गया कि उन का पिता अल्लाह का शत्रु है तो आप उससे विरक्त हो गए। (देखिए : सूरतुत-तौबा, आयत : 114)

رَبَّنَا لَا تَجْعَلْنَا فِتْنَةً لِّلَّذِيْنَ كَفَرُوْا وَاغْفِرْ لَنَا رَبَّنَاۚ اِنَّكَ اَنْتَ الْعَزِيْزُ الْحَكِيْمُ٥
Rabbanā lā taj‘alnā fitnatal lil-lażīna kafarū wagfir lanā rabbanā, innaka antal-‘azīzul-ḥakīm(u).
[5] ऐ हमारे पालनहार! हमें काफ़िरों के लिए परीक्षण3 न बना और ऐ हमारे पालनहार! हमें क्षमा कर दे। निश्चय तू ही प्रभुत्वशाली, पूर्ण हिकमत वाला है।
3. इस आयत में मक्का की विजय और अधिकांश मुश्रिकों के ईमान लाने की भविष्यवाणी है जो कुछ ही सप्ताह के पश्चात् पूरी हुई। और पूरा मक्का ईमान ले आया।

لَقَدْ كَانَ لَكُمْ فِيْهِمْ اُسْوَةٌ حَسَنَةٌ لِّمَنْ كَانَ يَرْجُوا اللّٰهَ وَالْيَوْمَ الْاٰخِرَۗ وَمَنْ يَّتَوَلَّ فَاِنَّ اللّٰهَ هُوَ الْغَنِيُّ الْحَمِيْدُ ࣖ٦
Laqad kāna lakum fīhim uswatun ḥasanatul liman kāna yarjullāha wal-yaumal-ākhir(a), wa may yatawalla fa'innallāha huwal-ganiyyul-ḥamīd(u).
[6] निःसंदेह तुम्हारे लिए उनके अंदर एक अच्छा आदर्श है, उस व्यक्ति के लिए जो अल्लाह तथा अंतिम दिवस की आशा रखता है। और जो कोई मुँह फेरे, तो निश्चय अल्लाह बेनियाज़, हर प्रकार की प्रशंसा के योग्य है।

۞ عَسَى اللّٰهُ اَنْ يَّجْعَلَ بَيْنَكُمْ وَبَيْنَ الَّذِيْنَ عَادَيْتُمْ مِّنْهُمْ مَّوَدَّةًۗ وَاللّٰهُ قَدِيْرٌۗ وَاللّٰهُ غَفُوْرٌ رَّحِيْمٌ٧
‘Asallāhu ay yaj‘ala bainakum wa bainal-lażīna ‘ādaitum minhum mawaddah(tan), wallāhu qadīr(un), wallāhu gafūrur raḥīm(un).
[7] निकट है कि अल्लाह तुम्हारे बीच तथा उन लोगों के बीच, जिनसे तुम उन (काफिरों) में से बैर रखते हो, मित्रता4 पैदा कर दे। और अल्लाह सर्वशक्तिमान् है तथा अल्लाह अति क्षमाशील, अत्यंत दयावान् है।
4. अर्थात उनको मुसलमान करके तुम्हारा दीनी भाई बना दे। और फिर ऐसा ही हुआ कि मक्का की विजय के बाद लोग तेज़ी के साथ मुसलमान होना आरंभ हो गए। और जो पुरानी दुश्मनी थी वह प्रेम में बदल गई।

لَا يَنْهٰىكُمُ اللّٰهُ عَنِ الَّذِيْنَ لَمْ يُقَاتِلُوْكُمْ فِى الدِّيْنِ وَلَمْ يُخْرِجُوْكُمْ مِّنْ دِيَارِكُمْ اَنْ تَبَرُّوْهُمْ وَتُقْسِطُوْٓا اِلَيْهِمْۗ اِنَّ اللّٰهَ يُحِبُّ الْمُقْسِطِيْنَ٨
Lā yanhākumullāhu ‘anil-lażīna lam yuqātilūkum fid-dīni wa lam yukhrijūkum min diyārikum an tabarrūhum wa tuqsiṭū ilaihim, innallāha yuḥibbul-muqsiṭīn(a).
[8] अल्लाह तुम्हें इससे नहीं रोकता कि तुम उन लोगों से अच्छा व्यवहार करो और उनके साथ न्याय करो, जिन्होंने तुमसे धर्म के विषय में युद्ध नहीं किया और न तुम्हें तुम्हारे घरों से निकाला। निश्चय अल्लाह न्याय करने वालों5 से प्रेम करता है।
5. इस आयत में सभी मनुष्यों के साथ अच्छे व्यवहार तथा न्याय करने की मूल शिक्षा दी गई है। उनके सिवा जो इस्लाम के विरुद्ध युद्ध करते हों और मूसलमानों से बैर रखते हों।

اِنَّمَا يَنْهٰىكُمُ اللّٰهُ عَنِ الَّذِيْنَ قَاتَلُوْكُمْ فِى الدِّيْنِ وَاَخْرَجُوْكُمْ مِّنْ دِيَارِكُمْ وَظَاهَرُوْا عَلٰٓى اِخْرَاجِكُمْ اَنْ تَوَلَّوْهُمْۚ وَمَنْ يَّتَوَلَّهُمْ فَاُولٰۤىِٕكَ هُمُ الظّٰلِمُوْنَ٩
Innamā yanhākumullāhu ‘anil-lażīna qātalūkum fid-dīni wa akhrajūkum min diyārikum wa ẓāharū ‘alā ikhrājikum an tawallauhum, wa may yatawallahum fa'ulā'ika humuẓ-ẓālimūn(a).
[9] अल्लाह तो तुम्हें केवल उन लोगों से मैत्री रखने से रोकता है, जिन्होंने तुमसे धर्म के विषय में युद्ध किया तथा तुम्हें तुम्हारे घरों से निकाला और तुम्हें निकालने में एक-दूसरे की सहायता की। और जो उनसे मैत्री करेगा, तो वही लोग अत्याचारी हैं।

يٰٓاَيُّهَا الَّذِيْنَ اٰمَنُوْٓا اِذَا جَاۤءَكُمُ الْمُؤْمِنٰتُ مُهٰجِرٰتٍ فَامْتَحِنُوْهُنَّۗ اَللّٰهُ اَعْلَمُ بِاِيْمَانِهِنَّ فَاِنْ عَلِمْتُمُوْهُنَّ مُؤْمِنٰتٍ فَلَا تَرْجِعُوْهُنَّ اِلَى الْكُفَّارِۗ لَا هُنَّ حِلٌّ لَّهُمْ وَلَا هُمْ يَحِلُّوْنَ لَهُنَّۗ وَاٰتُوْهُمْ مَّآ اَنْفَقُوْاۗ وَلَا جُنَاحَ عَلَيْكُمْ اَنْ تَنْكِحُوْهُنَّ اِذَآ اٰتَيْتُمُوْهُنَّ اُجُوْرَهُنَّۗ وَلَا تُمْسِكُوْا بِعِصَمِ الْكَوَافِرِ وَسْـَٔلُوْا مَآ اَنْفَقْتُمْ وَلْيَسْـَٔلُوْا مَآ اَنْفَقُوْاۗ ذٰلِكُمْ حُكْمُ اللّٰهِ ۗيَحْكُمُ بَيْنَكُمْۗ وَاللّٰهُ عَلِيْمٌ حَكِيْمٌ١٠
Yā ayyuhal-lażīna āmanū iżā jā'akumul-mu'minātu muhājirātin famtaḥinūhunn(a), allāhu a‘lamu bi'īmānihinna fa'in ‘alimtumūhunna mu'minātin falā tarji‘ūhunna ilal-kuffār(i), lā hunna ḥillul lahum wa lā hum yaḥillūna lahunn(a), wa ātūhum mā anfaqū, wa lā junāḥa ‘alaikum an tankiḥūhunna iżā ātaitumūhunna ujūrahunn(a), wa lā tumsikū bi‘iṣamil-kawāfiri was'alū mā anfaqū, żālikum ḥukmullāh(i), yaḥkumu bainakum, wallāhu ‘alīmun ḥakīm(un).
[10] ऐ ईमान वालो! जब तुम्हारे पास ईमान वाली स्त्रियाँ हिजरत करके आएँ, तो उन्हें जाँच लिया करो। अल्लाह उनके ईमान को ज़्यादा जानने वाला है। फिर यदि वे तुम्हें ईमान वाली मालूम हों, तो उन्हें काफ़िरों की ओर वापस न करो।6 न ये स्त्रियाँ उन (काफ़िरों) के लिए हलाल हैं और न वे (काफ़िर) इनके लिए हलाल7 होंगे। और उन काफ़िरों ने जो खर्च किया है, वह उन्हें दे दो। तथा तुमपर कोई दोष नहीं है कि उनसे विवाह कर लो, जब उन्हें उनका महर दे दो। तथा तुम काफ़िर स्त्रियों के सतीत्व को रोक कर न रखो और जो तुमने ख़र्च किया है वह माँग लो। और वे (काफ़िर) भी माँग लें, जो उन्होंने खर्च किया है। यह अल्लाह का फैसला है। वह तुम्हारे बीच फैसला करता है। तथा अल्लाह सब कुछ जानने वाला, पूर्ण हिकमत वाला है।
6. इस आयत में यह आदेश दिया जा रहा है कि जो स्त्री ईमान ला कर मदीना हिजरत करके आ जाए, उसे काफ़िरों को वापस न करो। यदि वह काफ़िर की पत्नी रही है, तो उसके पति को जो स्त्री उपहार (महर) उसने दिया हो, उसे दे दो। और उनसे विवाह कर लो। और अपने विवाह का महर भी उस स्त्री को दो। ऐसे ही जो काफ़िर स्त्री किसी मुसलमान के विवाह में हो अब उसका विवाह उसके साथ अवैध है। इस लिए वह मक्का जा कर किसी काफ़िर से विवाह करे, तो उसके पति से जो स्त्री उपहार तुमने उसे दिया है, माँग लो। 7. अर्थात अब मुसलमान स्त्री का विवाह काफ़िर के साथ, तथा काफ़िर स्त्री का मुसलमान के साथ अवैध (ह़राम) कर दिया गया है।

وَاِنْ فَاتَكُمْ شَيْءٌ مِّنْ اَزْوَاجِكُمْ اِلَى الْكُفَّارِ فَعَاقَبْتُمْ فَاٰتُوا الَّذِيْنَ ذَهَبَتْ اَزْوَاجُهُمْ مِّثْلَ مَآ اَنْفَقُوْاۗ وَاتَّقُوا اللّٰهَ الَّذِيْٓ اَنْتُمْ بِهٖ مُؤْمِنُوْنَ١١
Wa in fātakum syai'um min azwājikum ilal-kuffāri fa‘āqabtum fa'ātul-lażīna żahabat azwājuhum miṡla mā anfaqū, wattaqullāhal-lażī antum bihī mu'minūn(a).
[11] और यदि तुम्हारी पत्नियों में से कोई काफ़िरों की ओर चली जाए, फिर तुम्हें बदले8 का अवसर मिल जाए, तो जिन लोगों की पत्नियाँ चली गई हैं, उन्हें उनके खर्च के बराबर दे दो। तथा अल्लाह से डरते रहो, जिसपर तुम ईमान रखते हो।
8. भावार्थ यह है कि मुसलमान होकर जो स्त्री आ गई है, उसका महर जो उसके काफ़िर पति को देना है वह उसे न देकर उसके बराबर उस मुसलमान को दे दो, जिसकी काफ़िर पत्नी उसके हाथ से निकल गई है।

يٰٓاَيُّهَا النَّبِيُّ اِذَا جَاۤءَكَ الْمُؤْمِنٰتُ يُبَايِعْنَكَ عَلٰٓى اَنْ لَّا يُشْرِكْنَ بِاللّٰهِ شَيْـًٔا وَّلَا يَسْرِقْنَ وَلَا يَزْنِيْنَ وَلَا يَقْتُلْنَ اَوْلَادَهُنَّ وَلَا يَأْتِيْنَ بِبُهْتَانٍ يَّفْتَرِيْنَهٗ بَيْنَ اَيْدِيْهِنَّ وَاَرْجُلِهِنَّ وَلَا يَعْصِيْنَكَ فِيْ مَعْرُوْفٍ فَبَايِعْهُنَّ وَاسْتَغْفِرْ لَهُنَّ اللّٰهَ ۗاِنَّ اللّٰهَ غَفُوْرٌ رَّحِيْمٌ١٢
Yā ayyuhan-nabiyyu iżā jā'akal-mu'minātu yubāyi‘naka ‘alā allā yusyrikna billāhi syai'aw wa lā yasriqna wa lā yaznīna wa lā yaqtulna aulādahunna wa lā ya'tīna bibuhtāniy yaftarīnahū baina aidīhinna wa arjulihinna wa lā ya‘ṣīnaka fī ma‘rūfin fabāyi‘hunna wastagfir lahunnallāh(a), innallāha gafūrur raḥīm(un).
[12] ऐ नबी! जब आपके पास ईमान वाली स्त्रियाँ9 आएँ, जो आपसे इस बात पर 'बैअत' करें कि वे किसी को अल्लाह का साझी नहीं बनाएँगी और न चोरी करेंगी, न व्यभिचार करेंगी, न अपनी संतान को क़त्ल करेंगी, न कोई बोहतान (झूठा अभियोग) लगाएँगी जिसे उन्होंने अपने हाथों तथा पैरों के सामने गढ़ लिया हो और न किसी नेक काम में आपकी अवज्ञा करेंगी, तो आप उनसे 'बैअत' ले लें तथा उनके लिए अल्लाह से क्षमा की याचना करें। निःसंदेह अल्लाह अति क्षमाशील, अत्यंत दयावान् है।
9. ह़दीस में है कि आप (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) इस आयत द्वारा उनकी परीक्षा लेते और जो मान लेती उससे कहते कि जाओ मैंने तुमसे वचन ले लिया। और आपने (अपनी पत्नियों के अलावा) कभी किसी नारी के हाथ को हाथ नहीं लगाया। (सह़ीह़ बुख़ारी : 93, 94, 95, 4891)

يٰٓاَيُّهَا الَّذِيْنَ اٰمَنُوْا لَا تَتَوَلَّوْا قَوْمًا غَضِبَ اللّٰهُ عَلَيْهِمْ قَدْ يَىِٕسُوْا مِنَ الْاٰخِرَةِ كَمَا يَىِٕسَ الْكُفَّارُ مِنْ اَصْحٰبِ الْقُبُوْرِ ࣖ١٣
Yā ayyuhal-lażīna āmanū lā tatawallau qauman gaḍiballāhu ‘alaihim qad ya'isū minal-ākhirati kamā ya'isal-kuffāru min aṣḥābil-qubūr(i).
[13] ऐ ईमान वालो! तुम उन लोगों को मित्र न बनाओ, जिनपर अल्लाह क्रोधित हुआ है। निश्चय वे आख़िरत10 से वैसे ही निराश हो चुके हैं, जैसे काफ़िर लोग क़ब्र वालों (के जीवित होने) से निराश हो चुके हैं।
10. आख़िरत से निराश होने का अर्थ उसका इनकार है, जैसे उन्हें मरने के पश्चात् जीवन का इनकार है।