Surah Al-An`am
بِسْمِ اللّٰهِ الرَّحْمٰنِ الرَّحِيْمِ
اَلْحَمْدُ لِلّٰهِ الَّذِيْ خَلَقَ السَّمٰوٰتِ وَالْاَرْضَ وَجَعَلَ الظُّلُمٰتِ وَالنُّوْرَ ەۗ ثُمَّ الَّذِيْنَ كَفَرُوْا بِرَبِّهِمْ يَعْدِلُوْنَ١
Al-ḥamdu lillāhil-lażī khalaqas-samāwāti wal-arḍa wa ja‘alaẓ-ẓulumāti wan-nūr(a), ṡummal-lażīna kafarū birabbihim ya‘dilūn(a).
[1]
सब प्रशंसा उस अल्लाह के लिए है, जिसने आकाशों तथा धरती को पैदा किया और अँधेरों और प्रकाश को बनाया, फिर (भी) वे लोग जिन्होंने कुफ़्र किया, अपने रब के साथ (दूसरों को) बराबर1 ठहराते हैं।
1. अर्थात वे अँधेरों और प्रकाश में विवेक (अंतर) नहीं करते, और रचित को रचयिता का स्थान देते हैं।
هُوَ الَّذِيْ خَلَقَكُمْ مِّنْ طِيْنٍ ثُمَّ قَضٰٓى اَجَلًا ۗوَاَجَلٌ مُّسَمًّى عِنْدَهٗ ثُمَّ اَنْتُمْ تَمْتَرُوْنَ٢
Huwal-lażī khalaqakum min ṭīnin ṡumma qaḍā ajalā(n), wa ajalum musamman ‘indahū ṡumma antum tamtarūn(a).
[2]
वही है जिसने तुम्हें तुच्छ मिट्टी2 से पैदा किया, फिर एक अवधि निर्धारित कर दी तथा एक और अवधि उसके पास3 निर्धारित है। फिर (भी) तुम संदेह करते हो।
2. अर्थात तुम्हारे पिता आदम अलैहिस्सलाम को। 3. दो अवधि, एक जीवन और कर्म के लिए, तथा दूसरी कर्मों के फल के लिए।
وَهُوَ اللّٰهُ فِى السَّمٰوٰتِ وَفِى الْاَرْضِۗ يَعْلَمُ سِرَّكُمْ وَجَهْرَكُمْ وَيَعْلَمُ مَا تَكْسِبُوْنَ٣
Wa huwallāhu fis-samāwāti wa fil-arḍ(i), ya‘lamu sirrakum wa jahrakum wa ya‘lamu mā taksibūn(a).
[3]
तथा आकाशों में और धरती में वही (एकमात्र) अल्लाह है, वह तुम्हारे छिपे और तुम्हारे खुले को जानता है तथा जानता है जो तुम कमाते हो।
وَمَا تَأْتِيْهِمْ مِّنْ اٰيَةٍ مِّنْ اٰيٰتِ رَبِّهِمْ اِلَّا كَانُوْا عَنْهَا مُعْرِضِيْنَ٤
Wa mā ta'tīhim min āyatim min āyāti rabbihim illā kānū ‘anhā mu‘riḍīn(a).
[4]
और उनके पास4 उनके पालनहार की आयतों (निशानियों) में से कोई आयत (निशानी) नहीं आती, परंतु वे उससे मुँह फेरने वाले होते हैं।
4. अर्थात् मिश्रणवादियों के पास।
فَقَدْ كَذَّبُوْا بِالْحَقِّ لَمَّا جَاۤءَهُمْۗ فَسَوْفَ يَأْتِيْهِمْ اَنْۢبـٰۤؤُا مَا كَانُوْا بِهٖ يَسْتَهْزِءُوْنَ٥
Faqad każżabū bil-ḥaqqi lammā jā'ahum fa saufa ya'tīhim ambā'u mā kānū bihī yastahzi'ūn(a).
[5]
चुनाँचे निःसंदेह उन्होंने सत्य को झुठला दिया, जब वह उनके पास आया। तो शीघ्र ही उनके पास उसके समाचार आ जाएँगे5, जिसका वे उपहास किया करते हैं।
5. अर्थात उसके तथ्य का ज्ञान हो जाएगा। यह आयत मक्का में उस समय उतरी जब मुसलमान विवश थे, परंतु बद्र के युद्ध के बाद यह भविष्यवाणी पूरी होने लगी और अंततः मिश्रणवादी परास्त हो गए।
اَلَمْ يَرَوْا كَمْ اَهْلَكْنَا مِنْ قَبْلِهِمْ مِّنْ قَرْنٍ مَّكَّنّٰهُمْ فِى الْاَرْضِ مَا لَمْ نُمَكِّنْ لَّكُمْ وَاَرْسَلْنَا السَّمَاۤءَ عَلَيْهِمْ مِّدْرَارًا ۖوَّجَعَلْنَا الْاَنْهٰرَ تَجْرِيْ مِنْ تَحْتِهِمْ فَاَهْلَكْنٰهُمْ بِذُنُوْبِهِمْ وَاَنْشَأْنَا مِنْۢ بَعْدِهِمْ قَرْنًا اٰخَرِيْنَ٦
Alam yarau kam ahlaknā min qablihim min qarnim makkanāhum fil-arḍi mā lam numakkil lakum wa arsalnas-samā'a ‘alaihim midrārā(n), wa ja‘alnal-anhāra tajrī min taḥtihim fa ahlaknāhum biżunūbihim wa ansya'nā mim ba‘dihim qarnan ākharīn(a).
[6]
क्या उन्होंने नहीं देखा कि हमने उनसे पहले कितने समुदायों को नष्ट कर दिया, जिन्हें हमने धरती में वह सत्ता (शक्ति एवं अधिकार) दी थी, जो सत्ता तुम्हें नहीं दी, और हमने उनपर मूसला धार वर्षा की, और हमने नहरें बनाईं, जो उनके नीचे से बहती थीं। फिर हमने उन्हें उनके पापों के कारण विनष्ट कर दिया6, और उनके पश्चात् दूसरे समुदायों को पैदा कर दिया।
6. अर्थात अल्लाह का यह नियम है कि पापियों को कुछ अवसर देता है, और अंततः उनका विनाश कर देता है।
وَلَوْ نَزَّلْنَا عَلَيْكَ كِتٰبًا فِيْ قِرْطَاسٍ فَلَمَسُوْهُ بِاَيْدِيْهِمْ لَقَالَ الَّذِيْنَ كَفَرُوْٓا اِنْ هٰذَآ اِلَّا سِحْرٌ مُّبِيْنٌ٧
Wa lau nazzalnā ‘alaika kitāban fī qirṭāsin fa lamasūhu bi'aidīhim laqālal-lażīna kafarū in hāżā illā siḥrum mubīn(un).
[7]
(ऐ नबी!) यदि हम आपपर काग़ज़ में लिखी हुई कोई पुस्तक उतारते, फिर वे उसे अपने हाथों से छूते, तो निश्चय वे लोग जिन्होंने कुफ़्र किया, यही कहते कि यह तो स्पष्ट जादू के सिवा कुछ नहीं।7
7. इसमें इन काफ़िरों के दुराग्रह की दशा का वर्णन है।
وَقَالُوْا لَوْلَآ اُنْزِلَ عَلَيْهِ مَلَكٌ ۗوَلَوْ اَنْزَلْنَا مَلَكًا لَّقُضِيَ الْاَمْرُ ثُمَّ لَا يُنْظَرُوْنَ٨
Wa qālū lau lā unzila ‘alaihi malak(un), wa lau anzalnā malakal laquḍiyal-amru ṡumma lā yunẓarūn(a).
[8]
तथा उन्होंने कहा :8 इस (नबी) पर कोई फ़रिश्ता क्यों न उतारा9 गया? और यदि हम कोई फ़रिश्ता उतारते, तो अवश्य काम तमाम कर दिया जाता, फिर उन्हें मोहलत न दी जाती।10
8. जैसा कि वह माँग करते हैं। (देखिए : सूरत बनी इसराईल, आयत : 93) 9. अर्थात अपने वास्तविक रूप में, जबकि जिबरील (अलैहिस्सलाम) मनुष्य के रूप में आया करते थे। 10. अर्थात मानने या न मानने की।
وَلَوْ جَعَلْنٰهُ مَلَكًا لَّجَعَلْنٰهُ رَجُلًا وَّلَلَبَسْنَا عَلَيْهِمْ مَّا يَلْبِسُوْنَ٩
Wa lau ja‘alnāhu malakal laja‘alnāhu rajulaw wa lalabasnā ‘alaihim mā yalbisūn(a).
[9]
और यदि हम उसे फ़रिश्ता बनाते, तो निश्चय उसे आदमी (के रूप में) बनाते11 और अवश्य उनपर वही संदेह डाल देते, जिस संदेह में वे (अब) पड़े हुए हैं।
11. क्योंकि फ़रिश्तों को आँखों से उनके स्वभाविक रूप में देखना मानव के बस की बात नहीं है। और यदि फ़रिश्ते को रसूल बनाकर मनुष्य के रूप में भेजा जाता, तब भी कहते कि यह तो मनुष्य है। यह रसूल कैसे हो सकता है?
وَلَقَدِ اسْتُهْزِئَ بِرُسُلٍ مِّنْ قَبْلِكَ فَحَاقَ بِالَّذِيْنَ سَخِرُوْا مِنْهُمْ مَّا كَانُوْا بِهٖ يَسْتَهْزِءُوْنَ ࣖ١٠
Wa laqadistuhzi'a birusulim min qablika fa ḥāqa bil-lażīna sakhirū minhum mā kānū bihī yastahzi'ūn(a).
[10]
और निःसंदेह (ऐ नबी!) आपसे पहले कई रसूलों का उपहास किया गया, तो उन लोगों को जिन्होंने उनमें से उपहास किया था, उसी चीज़ ने घेर लिया, जिसका वे उपहास किया करते थे।
قُلْ سِيْرُوْا فِى الْاَرْضِ ثُمَّ انْظُرُوْا كَيْفَ كَانَ عَاقِبَةُ الْمُكَذِّبِيْنَ١١
Qul sīrū fil-arḍi ṡummanẓurū kaifa kāna ‘āqibatul-mukażżibīn(a).
[11]
(ऐ नबी!) आप कह दें कि धरती में चलो-फिरो, फिर देखो कि झुठलाने वालों का परिणाम कैसा हुआ?12
12. अर्थात मक्का से शाम तक समूद तथा लूत (अलैहिस्सलाम) की बस्तियों के अवशेष पड़े हुए हैं, वहाँ जाओ और उनके दुष्परिणाम से सीख ग्रहण करो।
قُلْ لِّمَنْ مَّا فِى السَّمٰوٰتِ وَالْاَرْضِۗ قُلْ لِّلّٰهِ ۗ كَتَبَ عَلٰى نَفْسِهِ الرَّحْمَةَ ۗ لَيَجْمَعَنَّكُمْ اِلٰى يَوْمِ الْقِيٰمَةِ لَا رَيْبَ فِيْهِۗ اَلَّذِيْنَ خَسِرُوْٓا اَنْفُسَهُمْ فَهُمْ لَا يُؤْمِنُوْنَ١٢
Qul limam mā fis-samāwāti wal-arḍ(i), qul lillāh(i), kataba ‘alā nafsihir-raḥmah(ta), layajma‘annakum ilā yaumil-qiyāmati lā raiba fīh(i), al-lażīna khasirū anfusahum fahum lā yu'minūn(a).
[12]
(ऐ नबी!) (उनसे) पूछिए कि जो कुछ आकाशों तथा धरती में है, वह किसका है? कह दें : अल्लाह का है! उसने अपने ऊपर दया करना लिख दिया है। निश्चय वह तुम्हें क़ियामत के दिन की ओर (ले जाकर) अवश्य एकत्र14 करेगा, जिसमें कोई संदेह नहीं। जिन लोगों ने अपने-आपको क्षति में डाला, वही ईमान नहीं लाते।
13. अर्थात पूरे ब्रह्मांड की व्यवस्था उसकी दया का प्रमाण है। तथा अपनी दया के कारण ही दुनिया में दंड नहीं दे रहा है। ह़दीस में है कि जब अल्लाह ने उत्पत्ति कर ली, तो एक लेख लिखा, जो उसके पास उसके अर्श (सिंहासन) के ऊपर है : "निश्चय मेरी दया मेरे क्रोध से बढ़ कर है।" (सह़ीह़ बुख़ारी : 3194, मुस्लिम : 2751) दूसरी ह़दीस में है कि अल्लाह के पास सौ दया हैं। उसमें से एक को जिन्नों, इनसानों तथा पशुओं और कीड़ों-मकूड़ों के लिए उतारा है। जिससे वे आपस में प्रेम तथा दया करते हैं, तथा निन्नान्वे दया अपने पास रख ली है। जिनसे प्रलय के दिन अपने बंदों पर दया करेगा। (सह़ीह़ बुख़ारी : 6000, मुस्लिम : 2752) 14. अर्थात कर्मों का फल देने के लिए।
۞ وَلَهٗ مَا سَكَنَ فِى الَّيْلِ وَالنَّهَارِ ۗوَهُوَ السَّمِيْعُ الْعَلِيْمُ١٣
Wa lahū mā sakana fil-laili wan-nahār(i), wa huwas-samī‘ul-‘alīm(u).
[13]
तथा उसी15 (अल्लाह) का है, जो कुछ रात और दिन में बस रहा है और वह सब कुछ सुनने वाला, सब कुछ जानने वाला है।
15. अर्थात उसी के अधिकार में तथा उसी के अधीन है।
قُلْ اَغَيْرَ اللّٰهِ اَتَّخِذُ وَلِيًّا فَاطِرِ السَّمٰوٰتِ وَالْاَرْضِ وَهُوَ يُطْعِمُ وَلَا يُطْعَمُ ۗ قُلْ اِنِّيْٓ اُمِرْتُ اَنْ اَكُوْنَ اَوَّلَ مَنْ اَسْلَمَ وَلَا تَكُوْنَنَّ مِنَ الْمُشْرِكِيْنَ١٤
Qul agairallāhi attakhiżu waliyyan fāṭiris-samāwāti wal-arḍi wa huwa yuṭ‘imu wa lā yuṭ‘am(u), qul innī umirtu an akūna awwala man aslama wa lā takūnanna minal-musyrikīn(a).
[14]
(ऐ नबी!) कह दो : क्या मैं अल्लाह के सिवा कोई सहायक बनाऊँ, जो आकाशों तथा धरती का बनाने वाला है, हालाँकि वह खिलाता है और उसे नहीं खिलाया जाता। आप कहिए : निःसंदेह मुझे आदेश दिया गया है कि सबसे पहला व्यक्ति बनूँ जो आज्ञाकारी हुआ, तथा तुम कदापि साझी बनाने वालों में से न हो।
قُلْ اِنِّيْٓ اَخَافُ اِنْ عَصَيْتُ رَبِّيْ عَذَابَ يَوْمٍ عَظِيْمٍ١٥
Qul innī akhāfu in ‘aṣaitu rabbī ‘ażāba yaumin ‘aẓīm(in).
[15]
आप कह दें कि यदि मैं अपने पालनहार की अवज्ञा करूँ, तो निःसंदेह मैं एक बड़े दिन की यातना से डरता हूँ।16
16. इन आयतों का भावार्थ यह है कि जब अल्लाह ही ने इस विश्व की उत्पत्ति की है, वही अपनी दया से इसकी व्यवस्था कर रहा है, और सबको जीविका प्रदान कर रहा है, तो फिर तुम्हारा स्वभाविक कर्म भी यही होना चाहिए कि उसी एक की उपासना करो। यह तो बड़े कुपथ की बात होगी कि उससे मुँह फेरकर दूसरों की उपासना करो और उनके आगे झुको।
مَنْ يُّصْرَفْ عَنْهُ يَوْمَىِٕذٍ فَقَدْ رَحِمَهٗ ۗوَذٰلِكَ الْفَوْزُ الْمُبِيْنُ١٦
May yuṣraf ‘anhu yauma'iżin faqad raḥimah(ū), wa żālikal-fauzul-mubīn(u).
[16]
जिस व्यक्ति से उस दिन वह हटा लिया जाएगा, तो निश्चय अल्लाह ने उसपर दया कर दी और यही खुली सफलता है।
وَاِنْ يَّمْسَسْكَ اللّٰهُ بِضُرٍّ فَلَا كَاشِفَ لَهٗٓ اِلَّا هُوَ ۗوَاِنْ يَّمْسَسْكَ بِخَيْرٍ فَهُوَ عَلٰى كُلِّ شَيْءٍ قَدِيْرٌ١٧
Iy yamsaskallāhu biḍurrin falā kāsyifa lahū illā huw(a), wa iy yamsaska bikhairin fa huwa ‘alā kulli syai'in qadīr(un).
[17]
यदि अल्लाह तुझे कोई हानि पहुँचाए, तो उसके सिवा कोई उसे दूर करने वाला नहीं, और यदि वह तुझे कोई भलाई पहुँचाए, तो वह हर चीज़ पर सर्वशक्तिमान है।
وَهُوَ الْقَاهِرُ فَوْقَ عِبَادِهٖۗ وَهُوَ الْحَكِيْمُ الْخَبِيْرُ١٨
Wa huwal-qāhiru fauqa ‘ibādih(ī), wa huwal-ḥakīmul-khabīr(u).
[18]
तथा वही अपने बंदों पर ग़ालिब (हावी) है तथा वही पूर्ण हिकमत वाला, हर चीज़ की ख़बर रखने वाला है।
قُلْ اَيُّ شَيْءٍ اَكْبَرُ شَهَادَةً ۗ قُلِ اللّٰهُ ۗشَهِيْدٌۢ بَيْنِيْ وَبَيْنَكُمْ ۗوَاُوْحِيَ اِلَيَّ هٰذَا الْقُرْاٰنُ لِاُنْذِرَكُمْ بِهٖ وَمَنْۢ بَلَغَ ۗ اَىِٕنَّكُمْ لَتَشْهَدُوْنَ اَنَّ مَعَ اللّٰهِ اٰلِهَةً اُخْرٰىۗ قُلْ لَّآ اَشْهَدُ ۚ قُلْ اِنَّمَا هُوَ اِلٰهٌ وَّاحِدٌ وَّاِنَّنِيْ بَرِيْۤءٌ مِّمَّا تُشْرِكُوْنَ١٩
Qul ayyu syai'in akbaru syahādah(tan), qulillāhu syahīdum bainī wa bainakum, wa ūḥiya ilayya hāżal-qur'ānu li'unżirakum bihī wa man balag(a), a'innakum latasyhadūna anna ma‘allāhi ālihatan ukhrā, qul lā asyhad(u), qul innamā huwa ilāhuw wāḥiduw wa innanī barī'um mimmā tusyrikūn(a).
[19]
(ऐ नबी!) आप (इन मुश्रिकों से) पूछें कि कौन-सी चीज़ गवाही में सबसे बड़ी है? आप कह दें कि अल्लाह मेरे और तुम्हारे बीच गवाह17 है तथा मेरी ओर यह क़ुरआन वह़्य (प्रकाशना) द्वारा भेजा गया है, ताकि मैं तुम्हें इसके द्वारा डराऊँ18 और उसे भी जिस तक यह पहुँचे। क्या निःसंदेह तुम वास्तव में यह गवाही देते हो कि बेशक अल्लाह के साथ कुछ और पूज्य भी हैं? आप कह दें कि मैं तो इसकी गवाही नहीं देता। आप कह दें कि वह तो केवल एक ही पूज्य है तथा निःसंदेह मैं उससे बरी हूँ जो तुम शरीक ठहराते हो।
17. अर्थात मेरे नबी होने का साक्षी अल्लाह तथा उसका मुझपर उतारा हुआ क़ुरआन है। 18. अर्थात अल्लाह की अवज्ञा के दुष्परिणाम से।
اَلَّذِيْنَ اٰتَيْنٰهُمُ الْكِتٰبَ يَعْرِفُوْنَهٗ كَمَا يَعْرِفُوْنَ اَبْنَاۤءَهُمْۘ اَلَّذِيْنَ خَسِرُوْٓا اَنْفُسَهُمْ فَهُمْ لَا يُؤْمِنُوْنَ ࣖ٢٠
Al-lażīna ātaināhumul-kitāba ya‘rifūnahū kamā ya‘rifūna abnā'ahum, al-lażīna khasirū anfusahum fahum lā yu'minūn(a).
[20]
जिन लोगों को हमने पुस्तक19 प्रदान की, वे उसे उसी प्रकार पहचानते हैं, जैसे वे अपने बेटों को पहचानते20 हैं। वे लोग जिन्होंने स्वयं को क्षति में डाला, तो वे ईमान नहीं लाते।
19. अर्थात तौरात तथा इंजील आदि। 20. अर्थात आपके उन गुणों द्वारा जो उनकी पुस्तकों में वर्णित हैं।
وَمَنْ اَظْلَمُ مِمَّنِ افْتَرٰى عَلَى اللّٰهِ كَذِبًا اَوْ كَذَّبَ بِاٰيٰتِهٖۗ اِنَّهٗ لَا يُفْلِحُ الظّٰلِمُوْنَ٢١
Wa man aẓlamu mimmaniftarā ‘alallāhi każiban au każżaba bi'āyātih(ī), innahū lā yufliḥuẓ-ẓālimūn(a).
[21]
तथा उससे बड़ा अत्याचारी कौन है, जिसने अल्लाह पर कोई झूठ गढ़ा, या उसकी आयतों को झुठलाया। निःसंदेह अत्याचारी कभी सफल नहीं होते।
وَيَوْمَ نَحْشُرُهُمْ جَمِيْعًا ثُمَّ نَقُوْلُ لِلَّذِيْنَ اَشْرَكُوْٓا اَيْنَ شُرَكَاۤؤُكُمُ الَّذِيْنَ كُنْتُمْ تَزْعُمُوْنَ٢٢
Wa yauma naḥsyuruhum jamī‘an ṡumma naqūlu lil-lażīna asyrakū aina syurakā'ukumul-lażīna kuntum taz‘umūn(a).
[22]
और जिस दिन हम उन सबको एकत्र करेंगे, फिर हम उन लोगों से कहेंगे, जिन्होंने साझी ठहराए : तुम्हारे वे साझी कहाँ हैं, जिनका तुम दावा करते थे?
ثُمَّ لَمْ تَكُنْ فِتْنَتُهُمْ اِلَّآ اَنْ قَالُوْا وَاللّٰهِ رَبِّنَا مَا كُنَّا مُشْرِكِيْنَ٢٣
Ṡumma lam takun fitnatuhum illā an qālū wallāhi rabbinā mā kunnā musyrikīn(a).
[23]
फिर उनका कोई बहाना न होगा सिवाय इसके कि वे कहेंगे : अल्लाह की क़सम! जो हमारा पालनहार है, हम मुश्रिक न थे।
اُنْظُرْ كَيْفَ كَذَبُوْا عَلٰٓى اَنْفُسِهِمْ وَضَلَّ عَنْهُمْ مَّا كَانُوْا يَفْتَرُوْنَ٢٤
Unẓur kaifa każabū ‘alā anfusihim wa ḍalla ‘anhum mā kānū yaftarūn(a).
[24]
देखो उन्होंने कैसे अपने आपपर झूठ बोला और उनसे गुम हो गया, जो वे झूठ बनाया करते थे।
وَمِنْهُمْ مَّنْ يَّسْتَمِعُ اِلَيْكَ ۚوَجَعَلْنَا عَلٰى قُلُوْبِهِمْ اَكِنَّةً اَنْ يَّفْقَهُوْهُ وَفِيْٓ اٰذَانِهِمْ وَقْرًا ۗوَاِنْ يَّرَوْا كُلَّ اٰيَةٍ لَّا يُؤْمِنُوْا بِهَا ۗحَتّٰٓى اِذَا جَاۤءُوْكَ يُجَادِلُوْنَكَ يَقُوْلُ الَّذِيْنَ كَفَرُوْٓا اِنْ هٰذَآ اِلَّآ اَسَاطِيْرُ الْاَوَّلِيْنَ٢٥
Wa minhum may yastami‘u ilaik(a), wa ja‘alnā ‘alā qulūbihim akinnatan ay yafqahūhu wa fī āżānihim waqrā(n), wa iy yarau kulla āyatil lā yu'minū bihā, ḥattā iżā jā'ūka yujādilūnaka yaqūlul-lażīna kafarū in hāżā illā asāṭīrul-awwalīn(a).
[25]
और उनमें से कुछ ऐसे हैं जो आपकी ओर कान लगाते हैं, और हमने उनके दिलों पर परदे डाल दिए हैं, कि बात न समझें21 और उनके कानों में बोझ डाल दिया है। यदि वे प्रत्येक निशानी देख लें, (तब भी) उसपर ईमान नहीं लाएँगे, यहाँ तक कि जब वे आपके पास झगड़ते हुए आते हैं, तो वे लोग जिन्होंने कुफ़्र किया, कहते हैं : ये पहले लोगों की कल्पित कथाओं के सिवा कुछ नहीं।
21. न समझने तथा न सुनने का अर्थ यह है कि उससे प्रभावित नहीं होते, क्योंकि कुफ़्र तथा निफ़ाक़ के कारण सत्य से प्रभावित होने की क्षमता खो जाती है।
وَهُمْ يَنْهَوْنَ عَنْهُ وَيَنْـَٔوْنَ عَنْهُ ۚوَاِنْ يُّهْلِكُوْنَ اِلَّآ اَنْفُسَهُمْ وَمَا يَشْعُرُوْنَ٢٦
Wa hum yanhauna ‘anhu wa yan'auna ‘anh(u), wa iy yuhlikūna illā anfusahum wa mā yasy‘urūn(a).
[26]
और वे उससे22 (लोगों को) रोकते हैं और (स्वयं भी) उससे दूर रहते हैं, और वे मात्र अपने आपको विनष्ट कर रहे हैं और वे नहीं समझते।
22. अर्थात क़ुरआन सुनने से।
وَلَوْ تَرٰٓى اِذْ وُقِفُوْا عَلَى النَّارِ فَقَالُوْا يٰلَيْتَنَا نُرَدُّ وَلَا نُكَذِّبَ بِاٰيٰتِ رَبِّنَا وَنَكُوْنَ مِنَ الْمُؤْمِنِيْنَ٢٧
Wa lau tarā iż wuqifū ‘alan-nāsi fa qālū yā laitanā nuraddu wa lā nukażżiba bi'āyāti rabbinā wa nakūna minal-mu'minīn(a).
[27]
तथा (ऐ नबी!) यदि आप उस समय देखें, जब वे आग पर खड़े किए जाएँगे, तो वे कहेंगे : ऐ काश! हम वापस भेजे जाएँ और अपने पालनहार की आयतों को न झुठलाएँ और हम ईमान वालों में से हो जाएँ।
بَلْ بَدَا لَهُمْ مَّا كَانُوْا يُخْفُوْنَ مِنْ قَبْلُ ۗوَلَوْ رُدُّوْا لَعَادُوْا لِمَا نُهُوْا عَنْهُ وَاِنَّهُمْ لَكٰذِبُوْنَ٢٨
Bal badā lahum mā kānū yukhfūna min qabl(u), wa lau ruddū la‘ādū limā nuhū ‘anhu wa innahum lakāżibūn(a).
[28]
बल्कि उनके लिए वह प्रकट हो गया, जो वे इससे पहले छिपाते23 थे। और यदि उन्हें वापस भेज दिया जाए, तो अवश्य फिर वही करेंगे, जिससे उन्हें रोका गया था। और निःसंदेह वे निश्चय झूठे हैं।
23. अर्थात जिस तथ्य को वे शपथ ले कर छिपा रहे थे कि हम मिश्रणवादी नहीं थे, उस समय खुल जाएगा। अथवा आप (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) को पहचानते हुए भी यह बात जो छिपा रहे थे, वह खुल जाएगी। अथवा मुनाफ़िक़ों के दिल का वह रोग खुल जाएगा, जिसे वह संसार में छिपा रहे थे। (तफ़्सीर इब्ने कसीर)
وَقَالُوْٓا اِنْ هِيَ اِلَّا حَيَاتُنَا الدُّنْيَا وَمَا نَحْنُ بِمَبْعُوْثِيْنَ٢٩
Wa qālū in hiya illā ḥayātunad-dun-yā wa mā naḥnu bimab‘ūṡīn(a).
[29]
और उन्होंने कहा : जीवन तो बस यही हमारा सांसारिक जीवन है। और हम हरगिज़ उठाए जाने वाले नहीं।24
24. अर्थात हम मरने के पश्चात् परलोक में कर्मों का फल भोगने के लिए जीवित नहीं किए जाएँगे।
وَلَوْ تَرٰٓى اِذْ وُقِفُوْا عَلٰى رَبِّهِمْ ۗ قَالَ اَلَيْسَ هٰذَا بِالْحَقِّ ۗقَالُوْا بَلٰى وَرَبِّنَا ۗقَالَ فَذُوْقُوا الْعَذَابَ بِمَا كُنْتُمْ تَكْفُرُوْنَ ࣖ٣٠
Wa lau tarā iż wuqifū ‘alā rabbihim, qāla alaisa hāżā bil-ḥaqq(i), qālū balā wa rabbinā, qāla fa żūqul-‘ażāba bimā kuntum takfurūn(a).
[30]
तथा यदि आप उस समय देखें, जब वे अपने पालनहार के समक्ष खड़े किए जाएँगे।वह कहेगा : क्या यह (जीवन) सत्य नहीं है? वे कहेंगे : क्यों नहीं, हमारे पालनहार की क़सम! वह (अल्लाह) कहेगा : तो अब यातना चखो उसके बदले जो तुम कुफ़्र किया करते थे।
قَدْ خَسِرَ الَّذِيْنَ كَذَّبُوْا بِلِقَاۤءِ اللّٰهِ ۗحَتّٰٓى اِذَا جَاۤءَتْهُمُ السَّاعَةُ بَغْتَةً قَالُوْا يٰحَسْرَتَنَا عَلٰى مَا فَرَّطْنَا فِيْهَاۙ وَهُمْ يَحْمِلُوْنَ اَوْزَارَهُمْ عَلٰى ظُهُوْرِهِمْۗ اَلَا سَاۤءَ مَا يَزِرُوْنَ٣١
Qad khasiral-lażīna każżabū biliqā'illāh(i), ḥattā iżā jā'athumus-sā‘atu bagtatan qālū yā ḥasratanā ‘alā mā farraṭnā fīhā, wa hum yaḥmilūna auzārahum ‘alā ẓuhūrihim, alā sā'a mā yazirūn(a).
[31]
निश्चय वे लोग घाटे में रहे, जिन्होंने अल्लाह से मिलने को झुठलाया, यहाँ तक कि जब क़ियामत उनपर अचानक आ पहुँचेगी, तो कहेंगे : हाय अफ़सोस! उसपर जो हमने इसमें कोताही की। और वे अपने (पापों के) बोझ अपनी पीठों पर उठाए होंगे। सुन लो! बहुत बुरा बोझ है, जो वे उठाएँगे।
وَمَا الْحَيٰوةُ الدُّنْيَآ اِلَّا لَعِبٌ وَّلَهْوٌ ۗوَلَلدَّارُ الْاٰخِرَةُ خَيْرٌ لِّلَّذِيْنَ يَتَّقُوْنَۗ اَفَلَا تَعْقِلُوْنَ٣٢
Wa mal-ḥayātud-dun-yā illā la‘ibuw wa lahw(un), wa lad-dārul-ākhiratu khairul lil-lażīna yattaqūn(a), afalā ta‘qilūn(a).
[32]
तथा सांसारिक जीवन खेल और मनोरंजन25 के सिवा कुछ नहीं, तथा निश्चय आख़िरत का घर उन लोगों के लिए बेहतर26 है जो (अल्लाह से) डरते हैं, तो क्या तुम नहीं समझते?27
25. अर्थात साम्यिक और अस्थायी है। 26. अर्थात स्थायी है। 27. आयत का भावार्थ यह है कि यदि कर्मों के फल के लिए कोई दूसरा जीवन न हो, तो सांसारिक जीवन एक मनोरंजन और खेल से अधिक कुछ नहीं रह जाएगा। तो क्या यह सांसारिक व्यवस्था इसी लिए की गई है कि कुछ दिनों खेलो और फिर समाप्त हो जाए? यह बात तो समझ-बूझ का निर्णय नहीं हो सकती। अतः एक दूसरे जीवन का होना ही समझ-बूझ का निर्णय है।
قَدْ نَعْلَمُ اِنَّهٗ لَيَحْزُنُكَ الَّذِيْ يَقُوْلُوْنَ فَاِنَّهُمْ لَا يُكَذِّبُوْنَكَ وَلٰكِنَّ الظّٰلِمِيْنَ بِاٰيٰتِ اللّٰهِ يَجْحَدُوْنَ٣٣
Qad na‘lamu innahū layaḥzunukal-lażī yaqūlūna fa innahum lā yukażżibūnaka wa lākinnaẓ-ẓālimīna bi'āyātillāhi yajhadūn(a).
[33]
निःसंदेह हम जानते हैं कि निश्चय (ऐ नबी!) आपको वह बात दुखी करती है, जो वे कहते हैं। तो वास्तव में वे आपको नहीं झुठलाते, परंतु वे अत्याचारी अल्लाह की आयतों ही का इनकार करते हैं।
وَلَقَدْ كُذِّبَتْ رُسُلٌ مِّنْ قَبْلِكَ فَصَبَرُوْا عَلٰى مَا كُذِّبُوْا وَاُوْذُوْا حَتّٰٓى اَتٰىهُمْ نَصْرُنَا ۚوَلَا مُبَدِّلَ لِكَلِمٰتِ اللّٰهِ ۚوَلَقَدْ جَاۤءَكَ مِنْ نَّبَإِ۟ى الْمُرْسَلِيْنَ٣٤
Wa laqad kużżibat rusulum min qablika fa ṣabarū ‘alā mā kużżibū wa ūżū ḥattā atāhum naṣrunā, wa lā mubaddila likalimātillāh(i), wa laqad jā'aka min naba'il-mursalīn(a).
[34]
और निःसंदेह आपसे पहले कई रसूल झुठलाए गए, तो उन्होंने अपने झुठलाए जाने और कष्ट दिए जाने पर सब्र किया, यहाँ तक कि उनके पास हमारी सहायता आ गई। तथा कोई अल्लाह की बातों को बदलने वाला नहीं28 और निःसंदेह आपके पास (उन) रसूलों के कुछ समाचार आ चुके हैं।
28. अर्थात अल्लाह के निर्धारित नियम को, कि पहले वह परीक्षा में डालता है, फिर सहायता करता है।
وَاِنْ كَانَ كَبُرَ عَلَيْكَ اِعْرَاضُهُمْ فَاِنِ اسْتَطَعْتَ اَنْ تَبْتَغِيَ نَفَقًا فِى الْاَرْضِ اَوْ سُلَّمًا فِى السَّمَاۤءِ فَتَأْتِيَهُمْ بِاٰيَةٍ ۗوَلَوْ شَاۤءَ اللّٰهُ لَجَمَعَهُمْ عَلَى الْهُدٰى فَلَا تَكُوْنَنَّ مِنَ الْجٰهِلِيْنَ٣٥
Wa in kāna kabura ‘alaika i‘rāḍuhum fa inistaṭa‘ta an tabtagiya nafaqan fil-arḍi au sullaman fis-samā'i fa ta'tiyahum bi'āyah(tin), wa lau syā'allāhu lajama‘ahum ‘alal-hudā falā takūnanna minal-jāhilīn(a).
[35]
और यदि आपपर उनकी विमुखता भारी गुज़र रही है, तो यदि आपसे हो सके कि धरती में कोई सुरंग अथवा आकाश में कोई सीढ़ी ढूँढ निकालें, फिर उनके पास कोई निशानी (चमत्कार) ले आएँ, (तो ले आएँ) और यदि अल्लाह चाहता, तो निश्चय उन्हें मार्गदर्शन पर एकत्र कर देता। अतः आप कदापि अज्ञानियों में से न हों।
۞ اِنَّمَا يَسْتَجِيْبُ الَّذِيْنَ يَسْمَعُوْنَ ۗوَالْمَوْتٰى يَبْعَثُهُمُ اللّٰهُ ثُمَّ اِلَيْهِ يُرْجَعُوْنَ٣٦
Innamā yastajībul-lażīna yasma‘ūn(a), wal-mautā yab‘aṡuhumullāhu ṡumma ilaihi yurja‘ūn(a).
[36]
स्वीकार तो केवल वही लोग करते हैं, जो सुनते हैं। और जो मुर्दे हैं, उन्हें अल्लाह उठाएगा29, फिर वे उसी की ओर लौटाए जाएँगे।
29. अर्थात प्रलय के दिन उनकी समाधियों से। आयत का भावार्थ यह है कि आपके सदुपदेश को वही स्वीकार करेंगे, जिनकी अंतरात्मा जीवित हो। परंतु जिनके दिल निर्जीव हैं, तो यदि आप धरती अथवा आकाश से लाकर उन्हें कोई चमत्कार भी दिखा दें, तब भी वह उनके लिए व्यर्थ होगा। यह सत्य को स्वीकार करने की योग्यता ही खो चुके हैं।
وَقَالُوْا لَوْلَا نُزِّلَ عَلَيْهِ اٰيَةٌ مِّنْ رَّبِّهٖۗ قُلْ اِنَّ اللّٰهَ قَادِرٌ عَلٰٓى اَنْ يُّنَزِّلَ اٰيَةً وَّلٰكِنَّ اَكْثَرَهُمْ لَا يَعْلَمُوْنَ٣٧
Wa qālū lau lā nuzzila ‘alaihi āyatum mir rabbih(ī), qul innallāha qādirun ‘alā ay yunazzila āyataw wa lākinna akṡarahum lā ya‘lamūn(a).
[37]
तथा उन्होंने कहा : उस (नबी) पर उसके पालनहार की ओर से कोई निशानी क्यों नहीं उतारी गई? आप कह दें : निःसंदेह अल्लाह इसका सामर्थ्य रखता है कि कोई निशानी उतारे, परंतु उनके अधिकतर लोग नहीं जानते।
وَمَا مِنْ دَاۤبَّةٍ فِى الْاَرْضِ وَلَا طٰۤىِٕرٍ يَّطِيْرُ بِجَنَاحَيْهِ اِلَّآ اُمَمٌ اَمْثَالُكُمْ ۗمَا فَرَّطْنَا فِى الْكِتٰبِ مِنْ شَيْءٍ ثُمَّ اِلٰى رَبِّهِمْ يُحْشَرُوْنَ٣٨
Wa mā min dābbatin fil-arḍi wa lā ṭā'iriy yaṭīru bijanāḥaihi illā umamun amṡālukum, mā farraṭnā fil-kitābi min syai'in ṡumma ilā rabbihim yuḥsyarūn(a).
[38]
तथा धरती में न कोई चलने वाला है तथा न कोई उड़ने वाला, जो अपने दो पंखों से उड़ता है, परंतु तुम्हारी जैसी जातियाँ हैं। हमने पुस्तक30 में किसी चीज़ की कमी31 नहीं छोड़ी। फिर वे अपने पालनहार की ओर एकत्र किए जाएँगे।32
30. पुस्तक का अर्थ "लौह़े मह़्फ़ूज़" है, जिसमें सारे संसार का भाग्य लिखा हुआ है। 31. इन आयतों का भावार्थ यह है कि यदि तुम निशानियों और चमत्कारों की माँग करते हो, तो यह पूरे संसार में जो जीव और पक्षी हैं, जिनके जीवन साधनों की व्यवस्था अल्लाह ने की है, और सबके भाग्य में जो लिख दिया है, वह पूरा हो रहा है। क्या तुम्हारे लिए अल्लाह के अस्तित्व और गुणों के प्रतीक नहीं हैं? यदि तुम ज्ञान तथा समझ से काम लो, तो यह संसार की व्यवस्था ही ऐसा लक्षण और प्रमाण है कि जिसके पश्चात किसी अन्य चमत्कार की आवश्यक्ता नहीं रह जाती। 32. अर्थ यह है कि सब जीवों के प्राण मरने के पश्चात् उसी के पास एकत्र हो जाते हैं, क्योंकि वही सब का उत्पत्तिकार है।
وَالَّذِيْنَ كَذَّبُوْا بِاٰيٰتِنَا صُمٌّ وَّبُكْمٌ فِى الظُّلُمٰتِۗ مَنْ يَّشَاِ اللّٰهُ يُضْلِلْهُ وَمَنْ يَّشَأْ يَجْعَلْهُ عَلٰى صِرَاطٍ مُّسْتَقِيْمٍ٣٩
Wal-lażīna każżabū bi'āyātinā ṣummuw wa bukmun fiẓ-ẓulumāt(i), may yasya'illāhu yuḍlilhu wa may yasya' yaj‘alhu ‘alā ṣirāṭim mustaqīm(in).
[39]
तथा जिन लोगों ने हमारी आयतों (निशानियों) को झुठलाया, वे बहरे और गूँगे है, अँधेरों में पड़े हुए हैं। जिसे अल्लाह चाहता है, पथभ्रष्ट कर देता है और जिसे चाहता है, सीधे मार्ग पर लगा देता है।
قُلْ اَرَءَيْتَكُمْ اِنْ اَتٰىكُمْ عَذَابُ اللّٰهِ اَوْ اَتَتْكُمُ السَّاعَةُ اَغَيْرَ اللّٰهِ تَدْعُوْنَۚ اِنْ كُنْتُمْ صٰدِقِيْنَ٤٠
Qul ara'aitakum in atākum ‘ażābullāhi au atatkumus-sā‘atu agairallāhi tad‘ūn(a), in kuntum ṣādiqīn(a).
[40]
(ऐ नबी!) उनसे कहो, भला बताओ तो सही कि यदि तुमपर अल्लाह की यातना आ जाए, या तुमपर क़ियामत आ जाए, तो क्या तुम अल्लाह के सिवा किसी और को पुकारोगे? यदि तुम सच्चे हो।
بَلْ اِيَّاهُ تَدْعُوْنَ فَيَكْشِفُ مَا تَدْعُوْنَ اِلَيْهِ اِنْ شَاۤءَ وَتَنْسَوْنَ مَا تُشْرِكُوْنَ ࣖ٤١
Bal iyyāhu tad‘ūna fa yaksyifu mā tad‘ūna ilaihi in syā'a wa tansauna mā tusyrikūn(a).
[41]
बल्कि तुम उसी को पुकारोगे, फिर वह दूर कर देगा (उस विपत्ति को) जिसके लिए तुम उसे पुकारोगे, यदि उसने चाहा, और तुम भूल जाओगे जिसे साझी बनाते हो।33
33. इस आयत का भावार्थ यह है कि किसी घोर आपदा के समय तुम्हारा अल्लाह ही को गुहारना, स्वयं तुम्हारी ओर से उसके अकेले पूज्य होने का प्रमाण और स्वीकरण है।
وَلَقَدْ اَرْسَلْنَآ اِلٰٓى اُمَمٍ مِّنْ قَبْلِكَ فَاَخَذْنٰهُمْ بِالْبَأْسَاۤءِ وَالضَّرَّاۤءِ لَعَلَّهُمْ يَتَضَرَّعُوْنَ٤٢
Wa laqad arsalnā ilā umamim min qablika fa akhażnāhum bil-ba'sā'i waḍ-ḍarrā'i la‘allahum yataḍarra‘ūn(a).
[42]
और निःसंदेह हमने आपसे पहले कई समुदायों की ओर रसूल भेजे, फिर हमने उन्हें दरिद्रता और कष्ट के साथ पकड़ा, ताकि वे गिड़गिड़ाएँ।34
34. अर्थात ताकि अल्लाह से विनय करें और उस के सामने झुक जाएँ।
فَلَوْلَآ اِذْ جَاۤءَهُمْ بَأْسُنَا تَضَرَّعُوْا وَلٰكِنْ قَسَتْ قُلُوْبُهُمْ وَزَيَّنَ لَهُمُ الشَّيْطٰنُ مَا كَانُوْا يَعْمَلُوْنَ٤٣
Falau lā iż jā'ahum ba'sunā taḍarra‘ū wa lākin qasat qulūbuhum wa zayyana lahumusy-syaiṭānu mā kānū ya‘malūn(a).
[43]
फिर वे क्यों न गिड़गिड़ाए, जब उनपर हमारी यातना आई? परंतु उनके दिल कठोर हो गए तथा शैतान ने उनके लिए उसे सुंदर बना35 दिया, जो कुछ वे किया करते थे।
35. आयत का अर्थ यह है कि जब कुकर्मों के कारण दिल कठोर हो जाते हैं, तो कोई भी बात उन्हें सुधार के लिए तैयार नहीं कर सकती।
فَلَمَّا نَسُوْا مَا ذُكِّرُوْا بِهٖ فَتَحْنَا عَلَيْهِمْ اَبْوَابَ كُلِّ شَيْءٍۗ حَتّٰٓى اِذَا فَرِحُوْا بِمَآ اُوْتُوْٓا اَخَذْنٰهُمْ بَغْتَةً فَاِذَا هُمْ مُّبْلِسُوْنَ٤٤
Falammā nasū mā żukkirū bihī fataḥnā ‘alaihim abwāba kulli syai'(in), ḥattā iżā fariḥū bimā ūtū akhażnāhum bagtatan fa iżā hum mublisūn(a).
[44]
फिर जब वे उसको भूल गए, जिसका उन्हें उपदेश दिया गया था, तो हमने उनपर हर चीज़ के द्वार खोल दिए। यहाँ तक कि जब वे उन चीज़ों पर खुश हो गए, जो उन्हें दी गई थीं, हमने उन्हें अचानक पकड़ लिया तो वे निराश होकर रह गए।
فَقُطِعَ دَابِرُ الْقَوْمِ الَّذِيْنَ ظَلَمُوْاۗ وَالْحَمْدُ لِلّٰهِ رَبِّ الْعٰلَمِيْنَ٤٥
Fa quṭi‘a dābirul-qaumil-lażīna ẓalamū, wal-ḥamdu lillāhi rabbil-‘ālamīn(a).
[45]
तो उन लोगों की जड़ काट दी गई, जिन्होंने अत्याचार किया। और सब प्रशंसा अल्लाह ही के लिए है, जो सारे संसारों का पालनहार है।
قُلْ اَرَاَيْتُمْ اِنْ اَخَذَ اللّٰهُ سَمْعَكُمْ وَاَبْصَارَكُمْ وَخَتَمَ عَلٰى قُلُوْبِكُمْ مَّنْ اِلٰهٌ غَيْرُ اللّٰهِ يَأْتِيْكُمْ بِهٖۗ اُنْظُرْ كَيْفَ نُصَرِّفُ الْاٰيٰتِ ثُمَّ هُمْ يَصْدِفُوْنَ٤٦
Qul ara'aitum in akhażallāhu sam‘akum wa abṣārakum wa khatama ‘alā qulūbikum man ilāhun gairullāhi ya'tīkum bih(ī), unẓur kaifa nuṣarriful-āyāti ṡumma hum yaṣdifūn(a).
[46]
ऐ नबी! आप कह दें कि भला बताओ तो सही कि यदि अल्लाह तुम्हारे सुनने तथा देखने की शक्ति छीन ले और तुम्हारे दिलों पर मुहर लगा दे, तो अल्लाह के सिवा कौन-सा पूज्य है, जो तुम्हें ये चीज़ें लाकर दे? देखो, हम कैसे तरह-तरह से आयतें36 बयान करते हैं, फिर (भी) वे मुँह फेर लेते37 हैं।
36. अर्थात इस बात की निशानियाँ कि अल्लाह ही पूज्य है, और दूसरे सभी पूज्य मिथ्या हैं। (इब्ने कसीर) 37. अर्थात सत्य से।
قُلْ اَرَاَيْتَكُمْ اِنْ اَتٰىكُمْ عَذَابُ اللّٰهِ بَغْتَةً اَوْ جَهْرَةً هَلْ يُهْلَكُ اِلَّا الْقَوْمُ الظّٰلِمُوْنَ٤٧
Qul ara'aitakum in atākum ‘ażābullāhi bagtatan au jahratan hal yuhlaku illal-qaumuẓ-ẓālimūn(a).
[47]
आप कह दें, भला बताओ तो सही कि यदि तुमपर अल्लाह की यातना अचानक या खुल्लम-खुल्ला आ जाए, तो क्या अत्याचारी लोगों के सिवा कोई और विनष्ट किया जाएगा?
وَمَا نُرْسِلُ الْمُرْسَلِيْنَ اِلَّا مُبَشِّرِيْنَ وَمُنْذِرِيْنَۚ فَمَنْ اٰمَنَ وَاَصْلَحَ فَلَا خَوْفٌ عَلَيْهِمْ وَلَا هُمْ يَحْزَنُوْنَ٤٨
Wa mā nursilul-mursalīna illā mubasysyirīna wa munżirīn(a), faman āmana wa aṣlaḥa falā khaufun ‘alaihim wa lā hum yaḥzanūn(a).
[48]
और हम रसूलों को केवल इसलिए भेजते हैं कि वे (आज्ञाकारियों को) शुभ सूचना दें तथा (अवज्ञाकारियों को) डराएँ। फिर जो व्यक्ति ईमान ले आए और अपना सुधार कर ले, तो उनपर कोई भय नहीं और न वे शोकाकुल होंगे।
وَالَّذِيْنَ كَذَّبُوْا بِاٰيٰتِنَا يَمَسُّهُمُ الْعَذَابُ بِمَا كَانُوْا يَفْسُقُوْنَ٤٩
Wal-lażīna każżabū bi'āyātinā yamassuhumul-‘ażābu bimā kānū yafsuqūn(a).
[49]
और जिन लोगों ने हमारी आयतों को झुठलाया, उन्हें यातना पहुँचेगी इस कारणवश कि वे अवज्ञा करते थे।
قُلْ لَّآ اَقُوْلُ لَكُمْ عِنْدِيْ خَزَاۤىِٕنُ اللّٰهِ وَلَآ اَعْلَمُ الْغَيْبَ وَلَآ اَقُوْلُ لَكُمْ اِنِّيْ مَلَكٌۚ اِنْ اَتَّبِعُ اِلَّا مَا يُوْحٰٓى اِلَيَّۗ قُلْ هَلْ يَسْتَوِى الْاَعْمٰى وَالْبَصِيْرُۗ اَفَلَا تَتَفَكَّرُوْنَ ࣖ٥٠
Qul lā aqūlu lakum ‘indī khazā'inullāhi wa lā a‘lamul-gaiba wa lā aqūlu lakum innī malak(un), in attabi‘u illā mā yūḥā ilayy(a), qul hal yastawil-a‘mā wal-baṣīr(u), afalā tatafakkarūn(a).
[50]
(ऐ नबी!) आप कह दें : मैं तुमसे यह नहीं कहता कि मेरे पास अल्लाह के ख़ज़ाने हैं, और न मैं परोक्ष (ग़ैब) का ज्ञान रखता हूँ, और न मैं तुमसे यह कहता हूँ कि मैं कोई फ़रिश्ता हूँ। मैं तो केवल उसी का अनुसरण करता हूँ, जो मेरी ओर वह़्य (प्रकाशना) की जाती है। आप कह दें : क्या अंधा38 और देखने वाला बराबर होते हैं? तो क्या तुम सोच-विचार नहीं करते?
38. अंधा से अभिप्राय : सच से विचलित है। इस आयत में कहा गया है कि नबी, मानव पुरुष से अधिक और कुछ नहीं होता। वह सत्य का अनुयायी तथा उसी का प्रचारक होता है।
وَاَنْذِرْ بِهِ الَّذِيْنَ يَخَافُوْنَ اَنْ يُّحْشَرُوْٓا اِلٰى رَبِّهِمْ لَيْسَ لَهُمْ مِّنْ دُوْنِهٖ وَلِيٌّ وَّلَا شَفِيْعٌ لَّعَلَّهُمْ يَتَّقُوْنَ٥١
Wa anżir bihil-lażīna yakhāfūna ay yuḥsyarū ilā rabbihim laisa lahum min dūnihī waliyyuw wa lā syafī‘ul la‘allahum yattaqūn(a).
[51]
और इस (क़ुरआन) के द्वारा उन लोगों को डराएँ, जो इस बात का भय रखते हैं कि वे अपने पालनहार के पास (क़ियामत के दिन) एकत्र किए जाएँगे, उनके लिए उस (अल्लाह) के सिवा न कोई सहायक होगा और न कोई सिफ़ारिशी, ताकि वे (अल्लाह से) डरें।
وَلَا تَطْرُدِ الَّذِيْنَ يَدْعُوْنَ رَبَّهُمْ بِالْغَدٰوةِ وَالْعَشِيِّ يُرِيْدُوْنَ وَجْهَهٗ ۗمَا عَلَيْكَ مِنْ حِسَابِهِمْ مِّنْ شَيْءٍ وَّمَا مِنْ حِسَابِكَ عَلَيْهِمْ مِّنْ شَيْءٍ فَتَطْرُدَهُمْ فَتَكُوْنَ مِنَ الظّٰلِمِيْنَ٥٢
Wa lā taṭrudil-lażīna yad‘ūna rabbahum bil-gadāti wal-‘asyiyyi yurīdūna wajhah(ū), mā ‘alaika min ḥisābihim min syai'iw wa mā min ḥisābika ‘alaihim min syai'in fa taṭrudahum fa takūna minaẓ-ẓālimīn(a).
[52]
तथा (ऐ नबी!) आप उन लोगों को (अपने से) दूर न करें, जो सुबह और शाम अपने पालनहार को पुकारते हैं, वे उसका चेहरा चाहते हैं। आपपर उनके हिसाब में से कुछ नहीं और न आपके हिसाब में से उनपर39 कुछ है कि आप उन्हें दूर हटा दें, फिर आप अत्याचारियों में से हो जाएँ।
39. अर्थात न आप उनके कर्मों के उत्तरदायी हैं, न वे आपके कर्मों के। रिवायतों से विदित होता है कि मक्का के कुछ धनी मिश्रणवादियों ने नबी सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम से कहा कि हम आपकी बातें सुनना चाहते हैं, किंतु आपके पास नीच लोग रहते हैं, जिनके साथ हम नहीं बैठ सकते। इसी पर यह आयत उतरी। (इबने कसीर) ह़दीस में है कि अल्लाह, तुमहारे रूप और वस्त्र नहीं देखता किंतु तुम्हारे दिलों और कर्मों को देखता है। (सह़ीह़ मुस्लिम : 2564)
وَكَذٰلِكَ فَتَنَّا بَعْضَهُمْ بِبَعْضٍ لِّيَقُوْلُوْٓا اَهٰٓؤُلَاۤءِ مَنَّ اللّٰهُ عَلَيْهِمْ مِّنْۢ بَيْنِنَاۗ اَلَيْسَ اللّٰهُ بِاَعْلَمَ بِالشّٰكِرِيْنَ٥٣
Wa każālika fatannā ba‘ḍahum biba‘ḍil liyaqūlū ahā'ulā'i mannallāhu ‘alaihim mim baininā, alaisallāhu bi'a‘lama bisy-syākirīn(a).
[53]
और इसी प्रकार40 हमने उनमें से कुछ को कुछ के द्वारा परीक्षा में डाला, ताकि वे कहें : क्या यही लोग हैं, जिनपर अल्लाह ने हमारे बीच में से उपकार किया41 है? क्या अल्लाह शुक्र करने वालों को अधिक जानने वाला नहीं?
40. अर्थात धनी और निर्धन बनाकर। 41. अर्थात मार्गदर्शन प्रदान किया।
وَاِذَا جَاۤءَكَ الَّذِيْنَ يُؤْمِنُوْنَ بِاٰيٰتِنَا فَقُلْ سَلٰمٌ عَلَيْكُمْ كَتَبَ رَبُّكُمْ عَلٰى نَفْسِهِ الرَّحْمَةَۙ اَنَّهٗ مَنْ عَمِلَ مِنْكُمْ سُوْۤءًاۢ بِجَهَالَةٍ ثُمَّ تَابَ مِنْۢ بَعْدِهٖ وَاَصْلَحَ فَاَنَّهٗ غَفُوْرٌ رَّحِيْمٌ٥٤
Wa iżā jā'akal-lażīna yu'minūna bi'āyātinā fa qul salāmun ‘alaikum kataba rabbukum ‘alā nafsihir-raḥmah(ta), annahū man ‘amila minkum sū'am bijahālatin ṡumma tāba mim ba‘dihī wa aṣlaḥa fa annahū gafūrur raḥīm(un).
[54]
तथा (ऐ नबी!) जब आपके पास वे लोग आएँ, जो हमारी आयतों (क़ुरआन) पर ईमान रखते हैं, तो आप कह दें कि तुमपर42 सलाम (शांति) है। तुम्हारे रब ने दया करना अपने ऊपर अनिवार्य कर लिया है कि निःसंदेह तुममें से जो व्यक्ति अज्ञानतावश कोई बुराई करे, फिर उसके पश्चात् तौबा (क्षमा याचना) करे और अपना सुधार कर ले, तो निश्चय वह (अल्लाह) अति क्षमाशील, अत्यंत दयावान् है।
42. अर्तथात उनके सलाम का उत्तर दें और उनका आदर सम्मान करें।
وَكَذٰلِكَ نُفَصِّلُ الْاٰيٰتِ وَلِتَسْتَبِيْنَ سَبِيْلُ الْمُجْرِمِيْنَ ࣖ٥٥
Wa każālika nufaṣṣilul-āyāti wa litastabīna sabīlal-mujrimīn(a).
[55]
और इसी प्रकार हम आयतों को खोलकर बयान करते हैं और ताकि अपराधियों का मार्ग स्पष्ट हो जाए।
قُلْ اِنِّيْ نُهِيْتُ اَنْ اَعْبُدَ الَّذِيْنَ تَدْعُوْنَ مِنْ دُوْنِ اللّٰهِ ۗ قُلْ لَّآ اَتَّبِعُ اَهْوَاۤءَكُمْۙ قَدْ ضَلَلْتُ اِذًا وَّمَآ اَنَا۠ مِنَ الْمُهْتَدِيْنَ٥٦
Qul innī nuhītu an a‘budal-lażīna tad‘ūna min dūnillāh(i), qul lā attabi‘u ahwā'akum, qad ḍalaltu iżaw wa mā ana minal-muhtadīn(a).
[56]
(ऐ नबी!) आप (मुश्रिकों से) कह दें : निःसंदेह मुझे मना किया गया है कि मैं उनकी इबादत करूँ, जिन्हें तुम अल्लाह के सिवा पुकारते हो। आप कह दें : मैं तुम्हारी इच्छाओं के पीछे नहीं चलता। निश्चय मैं उस समय पथभ्रष्ट हो गया और मैं मार्गदर्शन पाने वालो में से न रहा।
قُلْ اِنِّيْ عَلٰى بَيِّنَةٍ مِّنْ رَّبِّيْ وَكَذَّبْتُمْ بِهٖۗ مَا عِنْدِيْ مَا تَسْتَعْجِلُوْنَ بِهٖۗ اِنِ الْحُكْمُ اِلَّا لِلّٰهِ ۗيَقُصُّ الْحَقَّ وَهُوَ خَيْرُ الْفٰصِلِيْنَ٥٧
Qul innī ‘alā bayyinatim mir rabbī wa każżabtum bih(ī), mā ‘indī mā tasta‘jilūna bih(ī), inil-ḥukmu illā lillāh(i), yaquṣṣul-ḥaqqa wa huwa khairul-fāṣilīn(a).
[57]
आप कह दें कि मैं अपने पालनहार की ओर से एक स्पष्ट प्रमाण पर क़ायम43 हूँ और तुमने उसे झुठला दिया है। मेरे पास वह चीज़ नहीं है जिसके लिए तुम जल्दी मचा रहे हो। निर्णय अल्लाह के सिवा किसी के अधिकार में नहीं। वह सत्य का वर्णन करता है और वही निर्णय करने वालों में सबसे बेहतर है।
43. अर्थात सत्धर्म पर, जो वह़्य द्वारा मुझ पर उतारा गया है। आयत का भावार्थ यह है कि वह़्य (प्रकाशना) की राह ही सत्य और विश्वास तथा ज्ञान की राह है। और जो उसे नहीं मानते, उनके पास शंका और अनुमान के सिवा कुछ नहीं।
قُلْ لَّوْ اَنَّ عِنْدِيْ مَا تَسْتَعْجِلُوْنَ بِهٖ لَقُضِيَ الْاَمْرُ بَيْنِيْ وَبَيْنَكُمْ ۗوَاللّٰهُ اَعْلَمُ بِالظّٰلِمِيْنَ٥٨
Qul lau anna ‘indī mā tasta‘jilūna bihī laquḍiyal-amru bainī wa bainakum, wallāhu a‘lamu biẓ-ẓālimīn(a).
[58]
आप कह दें : यदि वाक़ई मेरे पास वह चीज़ होती जो तुम जल्दी माँग रहे हो, तो हमारे और तुम्हारे बीच मामले का निर्णय अवश्य कर दिया जाता44 तथा अल्लाह अत्याचारियों को अधिक जानने वाला है।
44. अर्थात निर्णय का अधिकार अल्लाह को है, जो उसके निर्धारित समय पर हो जाएगा।
۞ وَعِنْدَهٗ مَفَاتِحُ الْغَيْبِ لَا يَعْلَمُهَآ اِلَّا هُوَۗ وَيَعْلَمُ مَا فِى الْبَرِّ وَالْبَحْرِۗ وَمَا تَسْقُطُ مِنْ وَّرَقَةٍ اِلَّا يَعْلَمُهَا وَلَا حَبَّةٍ فِيْ ظُلُمٰتِ الْاَرْضِ وَلَا رَطْبٍ وَّلَا يَابِسٍ اِلَّا فِيْ كِتٰبٍ مُّبِيْنٍ٥٩
Wa ‘indahū mafātiḥul-gaibi lā ya‘lamuhā illā huw(a), wa ya‘lamu mā fil-barri wal-baḥr(i), wa mā tasquṭu miw waraqatin illā ya‘lamuhā wa lā ḥabbatin fī ẓulumātil-arḍi wa lā raṭbiw wa lā yābisin illā fī kitābim mubīn(in).
[59]
और उसी (अल्लाह) के पास ग़ैब (परोक्ष) की कुंजियाँ45 हैं, उन्हें उसके सिवा कोई नहीं जानता। तथा वह जानता है जो कुछ थल और जल में है और कोई पत्ता नहीं गिरता, परंतु वह उसे जानता है। और धरती के अँधेरों में कोई दाना नहीं और न कोई गीली चीज़ है और न कोई सूखी चीज़, परंतु वह एक स्पष्ट पुस्तक में (अंकित) है।
45. सह़ीह़ ह़दीस में है कि ग़ैब की कुंजियाँ पाँच हैं : अल्लाह ही के पास प्रलय का ज्ञान है। और वही वर्षा करता है। और जो गर्भाशयों में है उसको वही जानता है। तथा कोई जीव नहीं जानता कि वह कल क्या कमाएगा। और न ही यह जानता है कि वह किस भूमि में मरेगा। (सह़ीह़ बुख़ारी : 4627)
وَهُوَ الَّذِيْ يَتَوَفّٰىكُمْ بِالَّيْلِ وَيَعْلَمُ مَا جَرَحْتُمْ بِالنَّهَارِ ثُمَّ يَبْعَثُكُمْ فِيْهِ لِيُقْضٰٓى اَجَلٌ مُّسَمًّىۚ ثُمَّ اِلَيْهِ مَرْجِعُكُمْ ثُمَّ يُنَبِّئُكُمْ بِمَا كُنْتُمْ تَعْمَلُوْنَ ࣖ٦٠
Wa huwal-lażī yatawaffākum bil-laili wa ya‘lamu mā jaraḥtum bin-nahāri ṡumma yab‘aṡukum fīhi liyuqḍā ajalum musammā(n), ṡumma ilaihi marji‘ukum ṡumma yunabbi'ukum bimā kuntum ta‘malūn(a).
[60]
और वही है, जो रात को तुम्हारी रूह़ क़ब्ज़ कर लेता है तथा जानता है जो कुछ तुमने दिन में कमाया। फिर वह तुम्हें उस (दिन) में उठा देता है, ताकि निर्धारित अवधि46 पूरी की जाए। फिर उसी की ओर तुम्हारा लौटना है, फिर वह तुम्हें बताएगा जो कुछ तुम किया करते थे।
46. अर्थात सांसारिक जीवन की निर्धारित अवधि।
وَهُوَ الْقَاهِرُ فَوْقَ عِبَادِهٖ وَيُرْسِلُ عَلَيْكُمْ حَفَظَةً ۗحَتّٰٓى اِذَا جَاۤءَ اَحَدَكُمُ الْمَوْتُ تَوَفَّتْهُ رُسُلُنَا وَهُمْ لَا يُفَرِّطُوْنَ٦١
Wa huwal-qāhiru fauqa ‘ibādihī wa yursilu ‘alaikum ḥafaẓah(tan), ḥattā iżā jā'a aḥadakumul-mautu tawaffathu rusulunā wa hum lā yufarriṭūn(a).
[61]
तथा वही अपने बंदों पर ग़ालिब (हावी) है और वह तुमपर रक्षकों47 को भेजता है। यहाँ तक कि जब तुममें से किसी को मौत आती है, तो हमारे फ़रिश्ते उसका प्राण निकाल लेते हैं और वे कोताही नहीं करते।
47. अर्थात फ़रिश्तों को तुम्हारे कर्म लिखने के लिए।
ثُمَّ رُدُّوْٓا اِلَى اللّٰهِ مَوْلٰىهُمُ الْحَقِّۗ اَلَا لَهُ الْحُكْمُ وَهُوَ اَسْرَعُ الْحٰسِبِيْنَ٦٢
Ṡumma ruddū ilallāhi maulāhumul-ḥaqq(i), alā lahul-ḥukmu wa huwa asra‘ul-ḥāsibīn(a).
[62]
फिर वे अल्लाह की ओर लौटाए जाएँगे, जो उनका वास्तविक स्वामी है। सावधान! उसी को निर्णय करने का अधिकार है और वही सब हिसाब लेने वालों से अधिक शीध्र हिसाब लेने वाला है।
قُلْ مَنْ يُّنَجِّيْكُمْ مِّنْ ظُلُمٰتِ الْبَرِّ وَالْبَحْرِ تَدْعُوْنَهٗ تَضَرُّعًا وَّخُفْيَةً ۚ لَىِٕنْ اَنْجٰىنَا مِنْ هٰذِهٖ لَنَكُوْنَنَّ مِنَ الشّٰكِرِيْنَ٦٣
Qul may yunajjīkum min ẓulumātil-barri wal-baḥri tad‘ūnahū taḍarru‘aw wa khufyah(tan), la'in anjānā min hāżihī lanakūnanna minasy- syākirīn(a).
[63]
(ऐ नबी!) उनसे पूछिए कि थल तथा जल के अँधेरों में तुम्हें कौन बचाता है? तुम उसे गिड़गिड़ाकर और चुपके-चुपके पुकारते हो कि निःसंदेह यदि वह हमें इससे बचा ले, तो हम अवश्य शुक्र करने वालों में से हो जाएँगे?
قُلِ اللّٰهُ يُنَجِّيْكُمْ مِّنْهَا وَمِنْ كُلِّ كَرْبٍ ثُمَّ اَنْتُمْ تُشْرِكُوْنَ٦٤
Qulillāhu yunajjīkum minhā wa min kulli karbin ṡumma antum tusyrikūn(a).
[64]
आप कह दें : अल्लाह ही तुम्हें इससे तथा प्रत्येक संकट से बचाता है। फिर (भी) तुम उसका साझी बनाते हो!
قُلْ هُوَ الْقَادِرُ عَلٰٓى اَنْ يَّبْعَثَ عَلَيْكُمْ عَذَابًا مِّنْ فَوْقِكُمْ اَوْ مِنْ تَحْتِ اَرْجُلِكُمْ اَوْ يَلْبِسَكُمْ شِيَعًا وَّيُذِيْقَ بَعْضَكُمْ بَأْسَ بَعْضٍۗ اُنْظُرْ كَيْفَ نُصَرِّفُ الْاٰيٰتِ لَعَلَّهُمْ يَفْقَهُوْنَ٦٥
Qul huwal-qādiru ‘alā ay yab‘aṡa ‘alaikum ‘ażābam min fauqikum au min taḥti arjulikum au yalbisakum syiya‘aw wa yużīqa ba‘ḍakum ba'sa ba‘ḍ(in), unẓur kaifa nuṣarriful-āyāti la‘allahum yafqahūn(a).
[65]
आप (उनसे) कह दें : वही इसका सामर्थ्य रखता है कि तुमपर तुम्हारे ऊपर से यातना भेज दे, या तुम्हारे पैरों के नीचे से, या तुम्हें विभिन्न समूह बनाकर परस्पर भिड़ा दे और तुममें से कुछ को कुछ की लड़ाई48 (का स्वाद) चखा दे। देखिए, हम कैसे आयतों को विभिन्न प्रकार से बयान करते हैं, ताकि वे समझें।
48. ह़दीस में है कि नबी (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) ने अपनी उम्मत के लिए तीन दुआएँ कीं : मेरी उम्मत का विनाश डूब कर न हो। साधारण आकाल से न हो। और आपस की लड़ाई से न हो। तो पहली दो दुआएँ स्वीकार हूईं और तीसरी से आपको रोक दिया गया। (बुख़ारी : 2216)
وَكَذَّبَ بِهٖ قَوْمُكَ وَهُوَ الْحَقُّۗ قُلْ لَّسْتُ عَلَيْكُمْ بِوَكِيْلٍ ۗ٦٦
Wa każżaba bihī qaumuka wa huwal-ḥaqq(u), qul lastu ‘alaikum biwakīl(in).
[66]
और (ऐ नबी!) आपकी जाति ने इस (क़ुरआन) को झुठला दिया, हालाँकि वह सत्य है।आप कह दें : मैं हरगिज़ तुमपर कोई निरीक्षक नहीं हूँ।49
49. कि तुम्हें बलपूर्वक मनवाऊँ। मेरा दायित्व केवल तुमको अल्लाह का आदेश पहुँचा देना है।
لِكُلِّ نَبَاٍ مُّسْتَقَرٌّ وَّسَوْفَ تَعْلَمُوْنَ٦٧
Likulli naba'im mustaqarruw wa saufa ta‘lamūn(a).
[67]
प्रत्येक सूचना का एक समय नियत है और तुम शीघ्र ही जान लोगे।
وَاِذَا رَاَيْتَ الَّذِيْنَ يَخُوْضُوْنَ فِيْٓ اٰيٰتِنَا فَاَعْرِضْ عَنْهُمْ حَتّٰى يَخُوْضُوْا فِيْ حَدِيْثٍ غَيْرِهٖۗ وَاِمَّا يُنْسِيَنَّكَ الشَّيْطٰنُ فَلَا تَقْعُدْ بَعْدَ الذِّكْرٰى مَعَ الْقَوْمِ الظّٰلِمِيْنَ٦٨
Wa iżā ra'aital-lażīna yakhūḍūna fī āyātinā fa a‘riḍ ‘anhum ḥattā yakhūḍū fī ḥadīṡin gairih(ī), wa immā yunsiyannakasy-syaiṭānu falā taq‘ud ba‘daż-żikrā ma‘al-qaumiẓ-ẓālimīn(a).
[68]
और जब आप उन लोगों को देखें, जो हमारी आयतों के विषय में (उपहास के साथ) बात करते हैं, तो उनसे मुँह फेर लें, यहाँ तक कि वे उसके अलावा बात में लग जाएँ, और यदि कभी शैतान आपको भुला दे, तो याद आ जाने के बाद ऐसे अत्याचारी लोगों के साथ न बैठें।
وَمَا عَلَى الَّذِيْنَ يَتَّقُوْنَ مِنْ حِسَابِهِمْ مِّنْ شَيْءٍ وَّلٰكِنْ ذِكْرٰى لَعَلَّهُمْ يَتَّقُوْنَ٦٩
Wa mā ‘alal-lażīna yattaqūna min ḥisābihim min syai'iw wa lākin żikrā la‘allahum yattaqūn(a).
[69]
तथा उन लोगों पर जो अल्लाह से डरते हैं, इनके50 हिसाब का कुछ भार नहीं है, परंतु याद दिलाना51 है, ताकि वे बच जाएँ।
50. अर्थात जो अल्लाह की आयतों में दोष निकालते हैं। 51. अर्थात समझा देना।
وَذَرِ الَّذِيْنَ اتَّخَذُوْا دِيْنَهُمْ لَعِبًا وَّلَهْوًا وَّغَرَّتْهُمُ الْحَيٰوةُ الدُّنْيَا وَذَكِّرْ بِهٖٓ اَنْ تُبْسَلَ نَفْسٌۢ بِمَا كَسَبَتْۖ لَيْسَ لَهَا مِنْ دُوْنِ اللّٰهِ وَلِيٌّ وَّلَا شَفِيْعٌ ۚوَاِنْ تَعْدِلْ كُلَّ عَدْلٍ لَّا يُؤْخَذْ مِنْهَاۗ اُولٰۤىِٕكَ الَّذِيْنَ اُبْسِلُوْا بِمَا كَسَبُوْا لَهُمْ شَرَابٌ مِّنْ حَمِيْمٍ وَّعَذَابٌ اَلِيْمٌ ۢبِمَا كَانُوْا يَكْفُرُوْنَ ࣖ٧٠
Wa żaril-lażīnattakhażū dīnahum la‘ibaw wa lahwaw wa garrathumul-ḥayātud-dun-yā wa żakkir bihī an tubsala nafsum bimā kasabat, laisa lahā min dūnillāhi waliyyuw wa lā syafī‘(un), wa in ta‘dil kulla ‘adlil lā yu'khaż minhā, ulā'ikal-lażīna ubsilū bimā kasabū lahum syarābum min ḥamīmiw wa ‘ażābun alīmum bimā kānū yakfurūn(a).
[70]
तथा आप उन लोगों को छोड़ दें, जिन्होंने अपने धर्म को खेल और मनोरंजन बना लिया और उन्हें सांसारिक जीवन ने धोखे में डाल रखा है। आप इस (क़ुरआन) के द्वारा उपदेश दें कि कहीं कोई प्राणी अपने कमाए हुए के बदले विनाश में न डाल दिया जाए, उसके लिए अल्लाह के सिवा कोई न कोई सहायक हो और न कोई सिफ़ारिश करने वाला। और यदि वह हर प्रकार की छुड़ौती दे, तो उससे न ली जाए।52 यही लोग हैं जो विनाश के हवाले किए गए, उसके बदले जो उन्होंने कमाया। उनके लिए पीने को खौलता हुआ पानी तथा दर्दनाक यातना है, इस कारण कि वे कुफ़्र करते थे।
52. सांसारिक दंड से बचाव के लिए तीन साधनों से काम लिया जाता है- मैत्री, सिफ़ारिश और अर्थदंड। परंतु अल्लाह के हाँ ऐसे साधन किसी काम नहीं आएँगे। वहाँ केवल ईमान और सत्कर्म ही काम आएँगे।
قُلْ اَنَدْعُوْا مِنْ دُوْنِ اللّٰهِ مَا لَا يَنْفَعُنَا وَلَا يَضُرُّنَا وَنُرَدُّ عَلٰٓى اَعْقَابِنَا بَعْدَ اِذْ هَدٰىنَا اللّٰهُ كَالَّذِى اسْتَهْوَتْهُ الشَّيٰطِيْنُ فِى الْاَرْضِ حَيْرَانَ لَهٗٓ اَصْحٰبٌ يَّدْعُوْنَهٗٓ اِلَى الْهُدَى ائْتِنَا ۗ قُلْ اِنَّ هُدَى اللّٰهِ هُوَ الْهُدٰىۗ وَاُمِرْنَا لِنُسْلِمَ لِرَبِّ الْعٰلَمِيْنَۙ٧١
Qul anad‘ū min dūnillāhi mā lā yanfa‘unā wa lā yaḍurrunā wa nuraddu ‘alā a‘qābinā ba‘da iż hadānallāhu kal-lażīstahwathusy-syayāṭīnu fil-arḍi ḥairāna lahū aṣḥābuy yad‘ūnahū ilal-huda'tinā, qul inna hudallāhi huwal-hudā, wa umirnā linuslima lirabbil-‘ālamīn(a).
[71]
(ऐ नबी!) कह दीजिए : क्या हम अल्लाह के सिवा उसको पुकारें, जो न हमें लाभ पहुँचा सके और न हमें हानि पहुँचा सके और हम अपनी एड़ियों पर फेर दिए जाएँ, इसके बाद कि अल्लाह ने हमें मार्गदर्शन प्रदान किया है, उस व्यक्ति की तरह जिसे शैतानों ने धरती में बहका दिया, इस हाल में कि चकित है, उसके कुछ साथी हैं जो उसे सीधे मार्ग की ओर बुला रहे हैं कि हमारे पास चला आ।53 आप कह दें कि निःसंदेह अल्लाह का दर्शाया हुआ मार्ग ही असल मार्ग है और हमें आदेश दिया गया है कि हम सारे संसारों के पालनहार के आज्ञाकारी हो जाएँ।
53. इसमें कुफ़्र और ईमान का उदाहरण दिया गया है कि ईमान की राह निश्चित है और अविश्वास की राह अनिश्चित तथा अनेक है।
وَاَنْ اَقِيْمُوا الصَّلٰوةَ وَاتَّقُوْهُۗ وَهُوَ الَّذِيْٓ اِلَيْهِ تُحْشَرُوْنَ٧٢
Wa aqīmuṣ-ṣalāta wattaqūh(u), wa huwal-lażī ilaihi tuḥsyarūn(a).
[72]
और यह कि नमाज़ स्थापित करो और उस (अल्लाह) से डरो, तथा वही है, जिसकी ओर तुम इकट्ठे किए जाओगे।
وَهُوَ الَّذِيْ خَلَقَ السَّمٰوٰتِ وَالْاَرْضَ بِالْحَقِّۗ وَيَوْمَ يَقُوْلُ كُنْ فَيَكُوْنُۚ قَوْلُهُ الْحَقُّۗ وَلَهُ الْمُلْكُ يَوْمَ يُنْفَخُ فِى الصُّوْرِۗ عٰلِمُ الْغَيْبِ وَالشَّهَادَةِ وَهُوَ الْحَكِيْمُ الْخَبِيْرُ٧٣
Wa huwal-lażī khalaqas-samāwāti wal-arḍa bil-ḥaqq(i), wa yauma yaqūlu kun fa yakūn(u), qauluhul-ḥaqq(u), wa lahul-mulku yauma yunfakhu fiṣ-ṣūr(i), ‘ālimul-gaibi wasy-syahādati wa huwal-ḥakīmul-khabīr(u).
[73]
और वही है, जिसने आकाशों तथा धरती की रचना सत्य के साथ की54 और जिस दिन वह कहेगा "हो जा" तो वह हो जाएगा। उसकी बात सत्य है और उसी का राज्य होगा, जिस दिन सूर में फूँका जाएगा। वह परोक्ष55 तथा प्रत्यक्ष को जानने वाला है और वही पूर्ण हिकमत वाला, हर चीज़ की खबर रखने वाला है।
54. अर्थात विश्व की व्यवस्था यह बता रही है कि इसका कोई रचयिता है। 55. जिन चीज़ों को हम अपनी पाँच ज्ञान-इंद्रियों से जान लेते हैं वे हमारे लिए प्रत्यक्ष हैं, और जिनका ज्ञान नहीं कर सकते वे परोक्ष हैं।
۞ وَاِذْ قَالَ اِبْرٰهِيْمُ لِاَبِيْهِ اٰزَرَ اَتَتَّخِذُ اَصْنَامًا اٰلِهَةً ۚاِنِّيْٓ اَرٰىكَ وَقَوْمَكَ فِيْ ضَلٰلٍ مُّبِيْنٍ٧٤
Wa iż qāla ibrāhīmu li'abīhi āzara atattakhiżu aṣnāman ālihah(tan), innī arāka wa qaumaka fī ḍalālim mubīn(in).
[74]
तथा जब इबराहीम ने अपने पिता आज़र से कहा : क्या आप मूर्तियों को पूज्य बनाते हो? निःसंदेह मैं आपको तथा आपकी जाति को खुली पथभ्रष्टता में देखता हूँ।
وَكَذٰلِكَ نُرِيْٓ اِبْرٰهِيْمَ مَلَكُوْتَ السَّمٰوٰتِ وَالْاَرْضِ وَلِيَكُوْنَ مِنَ الْمُوْقِنِيْنَ٧٥
Wa każālika nurī ibrāhīma malakūtas-samāwāti wal-arḍi wa liyakūna minal-mūqinīn(a).
[75]
और इसी प्रकार हम इबराहीम को आकाशों तथा धरती का महान राज्य दिखाते थे और ताकि वह परिपूर्ण विश्वास रखने वालों में से हो जाए।
فَلَمَّا جَنَّ عَلَيْهِ الَّيْلُ رَاٰ كَوْكَبًا ۗقَالَ هٰذَا رَبِّيْۚ فَلَمَّآ اَفَلَ قَالَ لَآ اُحِبُّ الْاٰفِلِيْنَ٧٦
Falammā janna ‘alaihil-lailu ra'ā kaukabā(n), qāla hāżā rabbī, falammā afala qāla lā uḥibbul-āfilīn(a).
[76]
तो जब उसपर रात छा गई, तो उसने एक तारा देखा। कहने लगा : यह मेरा पालनहार है। फिर जब वह डूब गया, तो उसने कहा : मैं डूबने वालों से प्रेम नहीं करता।
فَلَمَّا رَاَ الْقَمَرَ بَازِغًا قَالَ هٰذَا رَبِّيْ ۚفَلَمَّآ اَفَلَ قَالَ لَىِٕنْ لَّمْ يَهْدِنِيْ رَبِّيْ لَاَكُوْنَنَّ مِنَ الْقَوْمِ الضَّاۤلِّيْنَ٧٧
Falammā ra'al-qamara bāzigan qāla hāżā rabbī, falammā afala qāla la'illam yahdinī rabbī la'akūnanna minal-qaumiḍ-ḍāllīn(a).
[77]
फिर जब उसने चाँद को चमकता हुआ देखा, तो कहा : यह मेरा पालनहार है। फिर जब वह डूब गया, तो उसने कहा : निःसंदेह यदि मेरे पालनहार ने मुझे मार्ग नहीं दिखाया, तो निश्चय मैं अवश्य पथभ्रष्ट लोगों में से हो जाऊँगा।
فَلَمَّا رَاَ الشَّمْسَ بَازِغَةً قَالَ هٰذَا رَبِّيْ هٰذَآ اَكْبَرُۚ فَلَمَّآ اَفَلَتْ قَالَ يٰقَوْمِ اِنِّيْ بَرِيْۤءٌ مِّمَّا تُشْرِكُوْنَ٧٨
Falammā ra'asy-syamsa bāzigatan qāla hāżā rabbī hāżā akbar(u), falammā afalat qāla yā qaumi innī barī'um mimmā tusyrikūn(a).
[78]
फिर जब उसने सूर्य को चमकता हुआ देखा, तो कहा : यह मेरा पालनहार है। यह सबसे बड़ा है। फिर जब वह (भी) डूब गया, तो कहने लगे : ऐ मेरी जाति के लोगो! निःसंदेह मैं उससे बरी हूँ, जो तुम (अल्लाह के साथ) साझी बनाते हो।
اِنِّيْ وَجَّهْتُ وَجْهِيَ لِلَّذِيْ فَطَرَ السَّمٰوٰتِ وَالْاَرْضَ حَنِيْفًا وَّمَآ اَنَا۠ مِنَ الْمُشْرِكِيْنَۚ٧٩
Innī wajjahtu wajhiya lil-lażī faṭaras-samāwāti wal-arḍa ḥanīfaw wa mā ana minal-musyrikīn(a).
[79]
निःसंदेह मैंने एकाग्र होकर अपना चेहरा उसकी ओर कर लिया, जिसने आकाशों तथा धरती को पैदा किया है, और मैं मुश्रिकों में से नहीं हूँ।56
56. इबराहीम अलैहिस्सलाम उस युग में नबी हुए जब बाबिल तथा नेनवा के निवासी आकाशीय ग्रहों की पूजा कर रहे थे। परंतु इबराहीम अलैहिस्सलाम पर अल्लाह ने सत्य की राह खोल दी। उन्होंने इन आकाशीय ग्रहों पर विचार किया तथा उनको निकलते और फिर डूबते देखकर यह निर्णय लिया कि ये किसी की रचना तथा उसके अधीन हैं। और इनका रचयिता कोई और है। अतः रचित तथा रचना कभी पूज्य नहीं हो सकती, पूज्य वही हो सकता है जो इन सबका रचयिता तथा व्यवस्थापक है।
وَحَاۤجَّهٗ قَوْمُهٗ ۗقَالَ اَتُحَاۤجُّوْۤنِّيْ فِى اللّٰهِ وَقَدْ هَدٰىنِۗ وَلَآ اَخَافُ مَا تُشْرِكُوْنَ بِهٖٓ اِلَّآ اَنْ يَّشَاۤءَ رَبِّيْ شَيْـًٔا ۗوَسِعَ رَبِّيْ كُلَّ شَيْءٍ عِلْمًا ۗ اَفَلَا تَتَذَكَّرُوْنَ٨٠
Wa ḥājjahū qaumuh(ū), qāla atuḥājjūnnī fillāhi wa qad hadān(i), wa lā akhāfu mā tusyrikūna bihī illā ay yasyā'a rabbī syai'ā(n), wasi‘a rabbī kulla syai'in ‘ilmā(n), afalā tatażakkarūn(a).
[80]
और उसकी जाति ने उससे झगड़ा किया, उसने कहा : क्या तुम मुझसे अल्लाह के विषय में झगड़ते हो, हालाँकि निश्चय उसने मुझे मार्गदर्शन प्रदान किया है तथा मैं उससे नहीं डरता, जिसे तुम उसके साथ साझी बनाते हो। परंतु यह कि मेरा पालनहार कुछ चाहे। मेरे पालनहार ने प्रत्येक वस्तु को अपने ज्ञान से घेर रखा है। तो क्या तुम उपदेश ग्रहण नहीं करते?
وَكَيْفَ اَخَافُ مَآ اَشْرَكْتُمْ وَلَا تَخَافُوْنَ اَنَّكُمْ اَشْرَكْتُمْ بِاللّٰهِ مَا لَمْ يُنَزِّلْ بِهٖ عَلَيْكُمْ سُلْطٰنًا ۗفَاَيُّ الْفَرِيْقَيْنِ اَحَقُّ بِالْاَمْنِۚ اِنْ كُنْتُمْ تَعْلَمُوْنَۘ٨١
Wa kaifa akhāfu mā asyraktum wa lā takhāfūna annakum asyraktum billāhi mā lam yunazzil bihī ‘alaikum sulṭānā(n), fa ayyul-farīqaini aḥaqqu bil-amn(i), in kuntum ta‘lamūn(a).
[81]
और मैं उससे कैसे डरूँ, जिसे तुमने साझी बनाया है, हालाँकि तुम इस बात से नहीं डरते कि निःसंदेह तुमने अल्लाह के साथ उसको साझी बनाया है, जिसकी कोई दलील उसने तुमपर नहीं उतारी, तो दोनों पक्षों में शांति का अधिक हक़दार कौन है, यदि तुम जानते हो?
اَلَّذِيْنَ اٰمَنُوْا وَلَمْ يَلْبِسُوْٓا اِيْمَانَهُمْ بِظُلْمٍ اُولٰۤىِٕكَ لَهُمُ الْاَمْنُ وَهُمْ مُّهْتَدُوْنَ ࣖ٨٢
Al-lażīna āmanū wa lam yalbisū īmānahum biẓulmin ulā'ika lahumul-amnu wa hum muhtadūn(a).
[82]
जो लोग ईमान लाए और उन्होंने अपने ईमान को अत्याचार (शिर्क) के साथ नहीं मिलाया57, यही लोग हैं जिनके लिए शांति है तथा वही मार्गदर्शन पाने वाले हैं।
57. ह़दीस में है कि जब यह आयत उतरी तो नबी सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम के साथियों ने कहा : हममें कौन है जिसने अत्याचार न किया हो? उस समय वह आयत उतरी, जिसका अर्थ यह है कि निश्चय शिर्क (मिश्रणवाद) ही सबसे बड़ा अत्याचार है। (सह़ीह़ बुख़ारी : 4629)
وَتِلْكَ حُجَّتُنَآ اٰتَيْنٰهَآ اِبْرٰهِيْمَ عَلٰى قَوْمِهٖۗ نَرْفَعُ دَرَجٰتٍ مَّنْ نَّشَاۤءُۗ اِنَّ رَبَّكَ حَكِيْمٌ عَلِيْمٌ٨٣
Wa tilka ḥujjatunā ātaināhā ibrāhīma ‘alā qaumih(ī), narfa‘u darajātim man nasyā'(u), inna rabbaka ḥakīmun ‘alīm(un).
[83]
यह हमारा तर्क है, जो हमने इबराहीम को उसकी जाति के विरुद्ध प्रदान किया। हम जिसे चाहते है, पदों में ऊँचा58 कर देते हैं। निःसंदेह आपका पालनहार पूर्ण हिकमत वाला, सब कुछ जानने वाला है।
58. एक व्यक्ति नबी (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) के पास आया और कहा : ऐ सर्वोत्तम पुरुष! आपने कहा : वह (सर्वोत्तम पुरुष) इबराहीम (अलैहिस्सलाम) हैं। (सह़ीह़ मुस्लिम : 2369)
وَوَهَبْنَا لَهٗٓ اِسْحٰقَ وَيَعْقُوْبَۗ كُلًّا هَدَيْنَا وَنُوْحًا هَدَيْنَا مِنْ قَبْلُ وَمِنْ ذُرِّيَّتِهٖ دَاوٗدَ وَسُلَيْمٰنَ وَاَيُّوْبَ وَيُوْسُفَ وَمُوْسٰى وَهٰرُوْنَ ۗوَكَذٰلِكَ نَجْزِى الْمُحْسِنِيْنَۙ٨٤
Wa wahabnā lahū isḥāqa wa ya‘qūb(a), kullan hadainā wa nūḥan hadainā min qablu wa min żurriyyatihī dāwūda wa sulaimāna wa ayyūba wa yūsufa wa mūsā wa hārūna wa każālika najzil-muḥsinīn(a).
[84]
और हमने उसे (इबराहीम को) इसहाक़ और याक़ूब प्रदान किए, प्रत्येक को हमने मार्गदर्शन दिया और उससे पहले नूह को मार्गदर्शन प्रदान किया और उसकी संतति में से दाऊद और सुलैमान और अय्यूब और यूसुफ़ और मूसा तथा हारून को। और इसी प्रकार हम नेकी करने वालों को प्रतिफल प्रदान करते हैं।
وَزَكَرِيَّا وَيَحْيٰى وَعِيْسٰى وَاِلْيَاسَۗ كُلٌّ مِّنَ الصّٰلِحِيْنَۙ٨٥
Wa zakariyyā wa yaḥyā wa ‘īsā wa ilyās(a), kullum minaṣ-ṣāliḥīn(a).
[85]
तथा ज़करीया और यह़्या और ईसा और इलयास को। ये सभी सदाचारियों में से थे।
وَاِسْمٰعِيْلَ وَالْيَسَعَ وَيُوْنُسَ وَلُوْطًاۗ وَكُلًّا فَضَّلْنَا عَلَى الْعٰلَمِيْنَۙ٨٦
Wa ismā‘īla wal-yasa‘a wa yūnusa wa lūṭā(n), wa kullan faḍḍalnā ‘alal-‘ālamīn(a).
[86]
तथा इसमाईल और अल-यसअ, यूनुस और लूत को। और उन सबको हमने संसार वालों पर श्रेष्ठता प्रदान की है।
وَمِنْ اٰبَاۤىِٕهِمْ وَذُرِّيّٰتِهِمْ وَاِخْوَانِهِمْ ۚوَاجْتَبَيْنٰهُمْ وَهَدَيْنٰهُمْ اِلٰى صِرَاطٍ مُّسْتَقِيْمٍ٨٧
Wa min ābā'ihim wa żurriyyātihim wa ikhwānihim, wajtabaināhum wa hadaināhum ilā ṣirāṭim mustaqīm(in).
[87]
तथा उनके बाप-दादा और उनकी संतानों तथा उनके भाइयों में से भी कुछ को (तौफ़ीक़ दी) और हमने उन्हें चुन लिया और सीधे मार्ग की ओर उनका मार्गदर्शन किया।
ذٰلِكَ هُدَى اللّٰهِ يَهْدِيْ بِهٖ مَنْ يَّشَاۤءُ مِنْ عِبَادِهٖ ۗوَلَوْ اَشْرَكُوْا لَحَبِطَ عَنْهُمْ مَّا كَانُوْا يَعْمَلُوْنَ٨٨
Żālika hudallāhi yahdī bihī may yasyā'u min ‘ibādih(ī), wa lau asyrakū laḥabiṭa ‘anhum mā kānū ya‘malūn(a).
[88]
यह अल्लाह का मार्गदर्शन है, जिसपर वह अपने बंदों में से जिसे चाहता है, चलाता है। और यदि ये लोग शिर्क करते, तो निश्चय उनसे वह सब नष्ट हो जाता जो वे किया करते थे।59
59. इन आयतों में अठारह नबियों की चर्चा करने के पश्चात् यह कहा गया है कि यदि ये सब भी शिर्क करते, तो इनके सत्कर्म व्यर्थ हो जाते। जिससे अभिप्राय शिर्क की गंभीरता से सावधान करना है।
اُولٰۤىِٕكَ الَّذِيْنَ اٰتَيْنٰهُمُ الْكِتٰبَ وَالْحُكْمَ وَالنُّبُوَّةَ ۚفَاِنْ يَّكْفُرْ بِهَا هٰٓؤُلَاۤءِ فَقَدْ وَكَّلْنَا بِهَا قَوْمًا لَّيْسُوْا بِهَا بِكٰفِرِيْنَ٨٩
Ulā'ikal-lażīna ātaināhumul-kitāba wal-ḥukma wan-nubuwwah(ta), fa iy yakfur bihā hā'ulā'i faqad wakkalnā bihā qaumal laisū bihā bikāfirīn(a).
[89]
यही वे लोग हैं जिन्हें हमने पुस्तक, हिकमत एवं नुबुव्वत प्रदान की। फिर यदि ये (मुश्रिक) इन बातों का इनकार करें, तो हमने इन (बातों) के लिए ऐसे लोग नियत किए हैं, जो इनका इनकार करने वाले नहीं।
اُولٰۤىِٕكَ الَّذِيْنَ هَدَى اللّٰهُ فَبِهُدٰىهُمُ اقْتَدِهْۗ قُلْ لَّآ اَسْـَٔلُكُمْ عَلَيْهِ اَجْرًاۗ اِنْ هُوَ اِلَّا ذِكْرٰى لِلْعٰلَمِيْنَ ࣖ٩٠
Ulā'ikal-lażīna hadallāhu fa bihudāūhumuqtadih, qul lā as'alukum ‘alaihi ajrā(n), in huwa illā żikrā lil-‘ālamīn(a).
[90]
यही वे लोग हैं, जिन्हें अल्लाह ने मार्गदर्शन प्रदान किया, तो आप उनके मार्गदर्शन का अनुसरण करें। आप कह दें : मैं इस (कार्य) पर60 तुमसे कोई बदला नहीं माँगता। यह तो सारे संसारों के लिए एक उपदेश के सिवा कुछ नहीं।
60. अर्थात इस्लाम का उपदेश देने पर।
وَمَا قَدَرُوا اللّٰهَ حَقَّ قَدْرِهٖٓ اِذْ قَالُوْا مَآ اَنْزَلَ اللّٰهُ عَلٰى بَشَرٍ مِّنْ شَيْءٍۗ قُلْ مَنْ اَنْزَلَ الْكِتٰبَ الَّذِيْ جَاۤءَ بِهٖ مُوْسٰى نُوْرًا وَّهُدًى لِّلنَّاسِ تَجْعَلُوْنَهٗ قَرَاطِيْسَ تُبْدُوْنَهَا وَتُخْفُوْنَ كَثِيْرًاۚ وَعُلِّمْتُمْ مَّا لَمْ تَعْلَمُوْٓا اَنْتُمْ وَلَآ اٰبَاۤؤُكُمْ ۗقُلِ اللّٰهُ ۙثُمَّ ذَرْهُمْ فِيْ خَوْضِهِمْ يَلْعَبُوْنَ٩١
Wa mā qadarullāha ḥaqqa qadrihī iż qālū mā anzalallāhu ‘alā basyarim min syai'(in), qul man anzalal-kitābal-lażī jā'a bihī mūsā nūraw wa hudal lin-nāsi taj‘alūnahū qarāṭīsa tubdūnahā wa tukhfūna kaṡīrā(n), wa ‘ullimtum mā lam ta‘lamū antum wa lā ābā'ukum, qulillāh(u), ṡumma żarhum fī khauḍihim yal‘abūn(a).
[91]
तथा उन्होंने अल्लाह की महिमा नहीं की, जो उसकी महिमा का हक़ था, जब उन्होंने कहा कि अल्लाह ने किसी मनुष्य पर कोई चीज़ नहीं उतारी। कहो : वह पुस्तक किसने उतारी, जो मूसा लेकर आए? जो लोगों के लिए प्रकाश तथा मार्गदर्शन थी, तुम उसे पन्नों में करके रखते हो, जिन्हें तुम प्रकट करते हो और बहुत-से छिपाते हो, तथा तुम्हें वह ज्ञान दिया गया, जिसे न तुम जानते थे और न तुम्हारे बाप-दादा। आप कह दें कि अल्लाह ने। फिर उन्हें छोड़ दें अपनी व्यर्थ की चर्चा में खेलते रहें।
وَهٰذَا كِتٰبٌ اَنْزَلْنٰهُ مُبٰرَكٌ مُّصَدِّقُ الَّذِيْ بَيْنَ يَدَيْهِ وَلِتُنْذِرَ اُمَّ الْقُرٰى وَمَنْ حَوْلَهَاۗ وَالَّذِيْنَ يُؤْمِنُوْنَ بِالْاٰخِرَةِ يُؤْمِنُوْنَ بِهٖ وَهُمْ عَلٰى صَلَاتِهِمْ يُحٰفِظُوْنَ٩٢
Wa hāżā kitābun anzalnāhu mubārakum muṣaddiqul-lażī baina yadaihi wa litunżira ummal-qurā wa man ḥaulahā, wal-lażīna yu'minūna bil-ākhirati yu'minūna bihī wa hum ‘alā ṣalātihim yuḥāfiẓūn(a).
[92]
तथा यह (क़ुरआन) एक पुस्तक है, जिसे हमने उतारा है, बड़ी बरकत वाली है, उसकी पुष्टि करने वाली है जो उससे पहले है, और ताकि आप बस्तियों के केंद्र (मक्का) तथा उसके चारों ओर के लोगों को डराएँ61, तथा जो लोग आख़िरत पर ईमान रखते हैं, वे इसपर ईमान लाते हैं और वे अपनी नमाज़ों की रक्षा62 करते हैं।
61. अर्थात पूरे मानव संसार को अल्लाह की अवज्ञा के दुष्परिणाम से सावधान करें। इसमें यह संकेत है कि आप सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम पूरे मानव संसार के पथपर्दर्शक तथा क़ुरआन सबके लिए मार्गदर्शन है। और आप केवल किसी एक जाति या क्षेत्र अथवा देश के लिए नबी नहीं हैं। 62. अर्थात नमाज़ उसके निर्धारित समय पर बराबर पढ़ते हैं।
وَمَنْ اَظْلَمُ مِمَّنِ افْتَرٰى عَلَى اللّٰهِ كَذِبًا اَوْ قَالَ اُوْحِيَ اِلَيَّ وَلَمْ يُوْحَ اِلَيْهِ شَيْءٌ وَّمَنْ قَالَ سَاُنْزِلُ مِثْلَ مَآ اَنْزَلَ اللّٰهُ ۗوَلَوْ تَرٰٓى اِذِ الظّٰلِمُوْنَ فِيْ غَمَرٰتِ الْمَوْتِ وَالْمَلٰۤىِٕكَةُ بَاسِطُوْٓا اَيْدِيْهِمْۚ اَخْرِجُوْٓا اَنْفُسَكُمْۗ اَلْيَوْمَ تُجْزَوْنَ عَذَابَ الْهُوْنِ بِمَا كُنْتُمْ تَقُوْلُوْنَ عَلَى اللّٰهِ غَيْرَ الْحَقِّ وَكُنْتُمْ عَنْ اٰيٰتِهٖ تَسْتَكْبِرُوْنَ٩٣
Wa man aẓlamu mimmaniftarā ‘alallāhi każiban au qāla ūḥiya ilayya wa lam yūḥa ilaihi syai'uw wa man qāla sa'unzilu miṡla mā anzalallāh(u), wa lau tarā iżiẓ-ẓālimūna fī gamarātil-mauti wal-malā'ikatu bāsiṭū aidīhim, akhirjū anfusakum, al-yauma tujzauna ‘ażābal-hūni bimā kuntum taqūlūna ‘alallāhi gairal-ḥaqqi wa kuntum ‘an āyātihī tastakbirūn(a).
[93]
और उससे बढ़कर अत्याचारी कौन है, जो अल्लाह पर झूठ गढ़े, या कहे कि मेरी ओर वह़्य (प्रकाशना) की गई है, हालाँकि उसकी ओर कोई चीज़ वह़्य (प्रकाशना) नहीं की गई तथा जो कहे कि अल्लाह ने जो उतारा है, उसके समान मैं (भी) उतार दूँगा। और काश! (ऐ नबी!) आप देखें जब अत्याचारी लोग मौत की कठिनाइयों में होते हैं और फ़रिश्ते अपने हाथ फैलाए हुए होते हैं, (कहते हैं) : निकालो अपने प्राण! आज तुम्हें अपमानजनक यातना दी जाएगी, इस कारण कि तुम अल्लाह पर अनुचित (झूठ) बातें कहते थे और तुम उसकी आयतों (को मानने) से अभिमान करते थे।
وَلَقَدْ جِئْتُمُوْنَا فُرَادٰى كَمَا خَلَقْنٰكُمْ اَوَّلَ مَرَّةٍ وَّتَرَكْتُمْ مَّا خَوَّلْنٰكُمْ وَرَاۤءَ ظُهُوْرِكُمْۚ وَمَا نَرٰى مَعَكُمْ شُفَعَاۤءَكُمُ الَّذِيْنَ زَعَمْتُمْ اَنَّهُمْ فِيْكُمْ شُرَكٰۤؤُا ۗ لَقَدْ تَّقَطَّعَ بَيْنَكُمْ وَضَلَّ عَنْكُمْ مَّا كُنْتُمْ تَزْعُمُوْنَ ࣖ٩٤
Wa laqad ji'tumūnā furādā kamā khalaqnākum awwala marratiw wa taraktum mā khawwalnākum warā'a ẓuhūrikum, wa mā narā ma‘akum syufa‘ā'akumul-lażīna za‘amtum annahum fīkum syurakā'(u), laqat taqaṭṭa‘a bainakum wa ḍalla ‘ankum mā kuntum taz‘umūn(a).
[94]
तथा निःसंदेह तुम हमारे पास अकेले-अकेले आए हो, जैसे हमने तुम्हें प्रथम बार पैदा किया था, तथा हमने जो कुछ तु्म्हें दिया था, अपनी पीठों के पीछे छोड़ आए हो और हम तुम्हारे साथ तुम्हारे उन सिफ़ारिशियों को नहीं देखते, जिनके बारे में तुम्हारा भ्रम था कि निःसंदेह वे तुम्हारे कामों में (अल्लाह के) साझी हैं? निश्चय तुम्हारे बीच का संबंध कट गया और तुमसे गुम हो गया, जो कुछ तुम गुमान किया करते थे।
۞ اِنَّ اللّٰهَ فَالِقُ الْحَبِّ وَالنَّوٰىۗ يُخْرِجُ الْحَيَّ مِنَ الْمَيِّتِ وَمُخْرِجُ الْمَيِّتِ مِنَ الْحَيِّ ۗذٰلِكُمُ اللّٰهُ فَاَنّٰى تُؤْفَكُوْنَ٩٥
Innallāha fāliqul-ḥabbi wan-nawā, yukhrijul-ḥayya minal-mayyiti wa mukhrijul-mayyiti minal-ḥayy(i), żālikumullāhu fa annā tu'fakūn(a).
[95]
निःसंदेह अल्लाह ही दाने तथा गुठलियों को फाड़ने वाला है। वह सजीव को निर्जीव से निकालता है तथा निर्जीव को सजीव से निकालने वाला है। यही अल्लाह है, फिर तुम कहाँ बहकाए जाते हो?
فَالِقُ الْاِصْبَاحِۚ وَجَعَلَ الَّيْلَ سَكَنًا وَّالشَّمْسَ وَالْقَمَرَ حُسْبَانًا ۗذٰلِكَ تَقْدِيْرُ الْعَزِيْزِ الْعَلِيْمِ٩٦
Fāliqul-iṣbāḥ(i), wa ja‘alal-laila sakanaw wasy-syamsa wal-qamara ḥusbānā(n), żālika taqdīrul-‘azīzil-‘alīm(i).
[96]
(वही) पौ फाड़ने वाला है और उसी ने रात को आराम के लिए तथा सूर्य और चाँद को हिसाब का साधन बनाया। यह अति प्रभुत्वशाली, सब कुछ जानने वाले का ठहराया हुआ अंदाज़ा63 है।
63. जिसमें एक पल की भी कमी अथवा अधिकता नहीं होती।
وَهُوَ الَّذِيْ جَعَلَ لَكُمُ النُّجُوْمَ لِتَهْتَدُوْا بِهَا فِيْ ظُلُمٰتِ الْبَرِّ وَالْبَحْرِۗ قَدْ فَصَّلْنَا الْاٰيٰتِ لِقَوْمٍ يَّعْلَمُوْنَ٩٧
Wa huwal-lażī ja‘ala lakumun-nujūma litahtadū bihā fī ẓulumātil-barri wal-baḥr(i), qad faṣṣalnal-āyāti liqaumiy ya‘lamūn(a).
[97]
तथा वही है जिसने तुम्हारे लिए तारे बनाए, ताकि तुम उनके द्वारा थल और समुद्र के अँधेरों में मार्ग पा सको। निःसंदेह हमने उन लोगों के लिए खोलकर निशानियाँ बयान कर दी हैं, जो ज्ञान रखते हैं।
وَهُوَ الَّذِيْٓ اَنْشَاَكُمْ مِّنْ نَّفْسٍ وَّاحِدَةٍ فَمُسْتَقَرٌّ وَّمُسْتَوْدَعٌ ۗقَدْ فَصَّلْنَا الْاٰيٰتِ لِقَوْمٍ يَّفْقَهُوْنَ٩٨
Wa huwal-lażī ansya'akum min nafsiw wāḥidatin fa mustaqarruw wa mustauda‘(un), qad faṣṣalnal-āyāti liqaumiy yafqahūn(a).
[98]
वही है, जिसने तुम्हें एक जान से पैदा किया। फिर एक ठहरने का स्थान और एक सौंपे जाने का स्थान है। निःसंदहे हमने उन लोगों के लिए निशानियाँ खोलकर बयान कर दी हैं, जो समझते हैं।
وَهُوَ الَّذِيْٓ اَنْزَلَ مِنَ السَّمَاۤءِ مَاۤءًۚ فَاَخْرَجْنَا بِهٖ نَبَاتَ كُلِّ شَيْءٍ فَاَخْرَجْنَا مِنْهُ خَضِرًا نُّخْرِجُ مِنْهُ حَبًّا مُّتَرَاكِبًاۚ وَمِنَ النَّخْلِ مِنْ طَلْعِهَا قِنْوَانٌ دَانِيَةٌ وَّجَنّٰتٍ مِّنْ اَعْنَابٍ وَّالزَّيْتُوْنَ وَالرُّمَّانَ مُشْتَبِهًا وَّغَيْرَ مُتَشَابِهٍۗ اُنْظُرُوْٓا اِلٰى ثَمَرِهٖٓ اِذَٓا اَثْمَرَ وَيَنْعِهٖ ۗاِنَّ فِيْ ذٰلِكُمْ لَاٰيٰتٍ لِّقَوْمٍ يُّؤْمِنُوْنَ٩٩
Wa huwal-lażī anzala minas-samā'i mā'ā(n), fa akhrajnā bihī nabāta kulli syai'in fa akhrajnā minhu khaḍiran nukhriju minhu ḥabbam mutarākibā(n), wa minan nakhli min ṭal‘ihā qinwānun dāniyatuw wa jannātim min a‘nābiw waz-zaitūna war-rummāna musytabihaw wa gaira mutasyābih(in), unẓurū ilā ṡamarihī iżā aṡmara wa yan‘ih(ī), inna fī żālikum la'āyātil liqaumiy yu'minūn(a).
[99]
तथा वही है जिसने आकाश से कुछ पानी उतारा, फिर हमने उसके द्वारा प्रत्येक प्रकार के पौधे निकाले। फिर हमने उससे हरियाली निकाली। जिसमें से हम तह-ब-तह चढ़े हुए दाने निकालते हैं तथा खजूर के पेड़ों से उनके गाभे से झुके हुए गुच्छे हैं तथा अंगूरों के बाग़ और ज़ैतून और अनार मिलते-जुलते और न मिलने-जुलने वाले। उसके फल को देखो, जब वह फल लाए तथा उसके पकने की ओर। निःसंदेह इनमें उन लोगों के लिए निश्चय बहुत-सी निशानियाँ64 हैं, जो ईमान लाते हैं।
64. अर्थात अल्लाह के पालनहार होने की निशानियाँ। आयत का भावार्थ यह है कि जब अल्लाह ने तुम्हारे आर्थिक जीवन के साधन बनाए हैं, तो फिर तुम्हारे आत्मिक जीवन के सुधार के लिए भी प्रकाशना और पुस्तक द्वारा तुम्हारे मार्गदर्शन की व्यवस्था की है, तो तुम्हें उसपर आश्चर्य क्यों है तथा इसे अस्वीकार क्यों करते हो?
وَجَعَلُوْا لِلّٰهِ شُرَكَاۤءَ الْجِنَّ وَخَلَقَهُمْ وَخَرَقُوْا لَهٗ بَنِيْنَ وَبَنٰتٍۢ بِغَيْرِ عِلْمٍۗ سُبْحٰنَهٗ وَتَعٰلٰى عَمَّا يَصِفُوْنَ ࣖ١٠٠
Wa ja‘alū lillāhi syurakā'al-jinna wa khalaqahum wa kharaqū lahū banīna wa banātim bigairi ‘ilm(in), subḥānahū wa ta‘ālā ‘ammā yaṣifūn(a).
[100]
और उन्होंने जिन्नों को अल्लाह का साझी बना दिया। हालाँकि उस (अल्लाह) ने उन्हें पैदा किया है, तथा बिना कुछ ज्ञान के उसके लिए बेटे और बेटियाँ गढ़ लीं। वह पवित्र तथा सर्वोच्च है, उन बातों से, जो वे बयान करते हैं।
بَدِيْعُ السَّمٰوٰتِ وَالْاَرْضِۗ اَنّٰى يَكُوْنُ لَهٗ وَلَدٌ وَّلَمْ تَكُنْ لَّهٗ صَاحِبَةٌ ۗوَخَلَقَ كُلَّ شَيْءٍۚ وَهُوَ بِكُلِّ شَيْءٍ عَلِيْمٌ١٠١
Badī‘us-samāwāti wal-arḍ(i), annā yakūnu lahū waladuw wa lam takul lahū ṣāḥibah(tun), wa khalaqa kulla syai'(in), wa huwa bikulli syai'in‘alīm(un).
[101]
वह आकाशों तथा धरती का अविष्कारक है, उसकी संतान कैसे होगी, जबकि उसकी कोई पत्नी नहीं? तथा उसी ने हर चीज़ पैदा की और वह प्रत्येक वस्तु को भली-भाँति जानने वाला है।
ذٰلِكُمُ اللّٰهُ رَبُّكُمْۚ لَآ اِلٰهَ اِلَّا هُوَۚ خَالِقُ كُلِّ شَيْءٍ فَاعْبُدُوْهُ ۚوَهُوَ عَلٰى كُلِّ شَيْءٍ وَّكِيْلٌ١٠٢
Żālikumullāhu rabbukum, lā ilāha illā huw(a), khāliqu kulli syai'in fa‘budūh(u), wa huwa ‘alā kulli syai'iw wakīl(un).
[102]
यही अल्लाह तुम्हारा पालनहार है, उसके सिवा कोई सच्चा पूज्य नहीं, हर चीज़ का स्रष्टा है। अतः तुम उसी की इबादत करो तथा वह हर चीज़ का निरीक्षक है।
لَا تُدْرِكُهُ الْاَبْصَارُ وَهُوَ يُدْرِكُ الْاَبْصَارَۚ وَهُوَ اللَّطِيْفُ الْخَبِيْرُ١٠٣
Lā tudrikuhul-abṣāru wa huwa yudrikul-abṣār(a), wa huwal-laṭīful-khabīr(u).
[103]
उसे निगाहें नहीं पातीं65 और वह सब निगाहों को पाता है और वही अत्यंत सूक्ष्मदर्शी, सब ख़बर रखने वाला है।
65. अर्थात इस संसार में उसे कोई नहीं देख सकता।
قَدْ جَاۤءَكُمْ بَصَاۤىِٕرُ مِنْ رَّبِّكُمْۚ فَمَنْ اَبْصَرَ فَلِنَفْسِهٖۚ وَمَنْ عَمِيَ فَعَلَيْهَاۗ وَمَآ اَنَا۠ عَلَيْكُمْ بِحَفِيْظٍ١٠٤
Qad jā'akum baṣā'iru mir rabbikum, faman abṣara fa linafsih(ī), wa man ‘amiya fa ‘alaihā, wa mā ana ‘alaikum biḥafīẓ(in).
[104]
निःसंदेह तुम्हारे पास तुम्हारे पालनहार की ओर से कई निशानियाँ आ चुकीं। फिर जिसने देख लिया, तो उसका लाभ उसी के लिए है और जो अंधा रहा, तो उसकी हानि उसी पर है और मैं तुमपर कोई संरक्षक66 नहीं।
66. अर्थात नबी (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) सत्धर्म के प्रचारक हैं।
وَكَذٰلِكَ نُصَرِّفُ الْاٰيٰتِ وَلِيَقُوْلُوْا دَرَسْتَ وَلِنُبَيِّنَهٗ لِقَوْمٍ يَّعْلَمُوْنَ١٠٥
Wa każālika nuṣarriful-āyāti wa liyaqūlū darasta wa linubayyinahū liqaumiy ya‘lamūn(a).
[105]
और इसी प्रकार, हम आयतों को विविध ढंग से बयान करते हैं और ताकि वे (मुश्रिक) कहें : आपने पढ़ा67 है, और ताकि हम उसे उन लोगों के लिए उजागर कर दें, जो ज्ञान रखते हैं।
67. अर्थात काफ़िर यह कहें कि आपने यह अह्ले किताब से सीख लिया है और इसे अस्वीकार कर दें। (इब्ने कसीर)
اِتَّبِعْ مَآ اُوْحِيَ اِلَيْكَ مِنْ رَّبِّكَۚ لَآ اِلٰهَ اِلَّا هُوَۚ وَاَعْرِضْ عَنِ الْمُشْرِكِيْنَ١٠٦
Ittabi‘ mā ūḥiya ilaika mir rabbik(a), lā ilāha illā huw(a), wa a‘riḍ ‘anil-musyrikīn(a).
[106]
आप उसका पालन करें, जो आपकी ओर आपके पालनहार की तरफ़ से वह़्य की गई है, उसके सिवा कोई सत्य पूज्य नहीं और मुश्रिकों से किनारा कर लें।
وَلَوْ شَاۤءَ اللّٰهُ مَآ اَشْرَكُوْاۗ وَمَا جَعَلْنٰكَ عَلَيْهِمْ حَفِيْظًاۚ وَمَآ اَنْتَ عَلَيْهِمْ بِوَكِيْلٍ١٠٧
Wa lau syā'allāhu mā asyrakū, wa mā ja‘alnā ‘alaihim ḥafīẓā(n), wa mā anta ‘alaihim biwakīl(in).
[107]
और यदि अल्लाह चाहता, तो वे लोग साझी न बनाते, तथा हमने आपको उनपर संरक्षक नहीं बनाया और न आप उनके कोई निरीक्षक हैं।68
68. आयत का भावार्थ यह है कि नबी का यह कर्तव्य नहीं कि वह सबको सीधी राह दिखा दे। उसका कर्तव्य केवल अल्लाह का संदेश पहुँचा देना है।
وَلَا تَسُبُّوا الَّذِيْنَ يَدْعُوْنَ مِنْ دُوْنِ اللّٰهِ فَيَسُبُّوا اللّٰهَ عَدْوًاۢ بِغَيْرِ عِلْمٍۗ كَذٰلِكَ زَيَّنَّا لِكُلِّ اُمَّةٍ عَمَلَهُمْۖ ثُمَّ اِلٰى رَبِّهِمْ مَّرْجِعُهُمْ فَيُنَبِّئُهُمْ بِمَا كَانُوْا يَعْمَلُوْنَ١٠٨
Wa lā tasubbul-lażīna yad‘ūna min dūnillāhi fa yasubbullāha ‘adwam bigairi ‘ilm(in), każālika zayyannā likulli ummatin ‘amalahum, ṡumma ilā rabbihim marji‘uhum fa yunabbi'uhum bimā kānū ya‘malūn(a).
[108]
और (ऐ ईमान वालो!) उन्हें बुरा न कहो, जिन्हें ये (मुश्रिक) अल्लाह के सिवा पुकारते हैं। अन्यथा, वे अतिक्रम करते हुए अज्ञानतावश अल्लाह को बुरा कहेंगे। इसी प्रकार, हमने प्रत्येक समुदाय के लिए उनके कर्म को सुशोभित कर दिया है। फिर उनके पालनहार ही की ओर उनका लौटना है, तो वह उन्हें बताएगा, जो कुछ वे किया करते थे।
وَاَقْسَمُوْا بِاللّٰهِ جَهْدَ اَيْمَانِهِمْ لَىِٕنْ جَاۤءَتْهُمْ اٰيَةٌ لَّيُؤْمِنُنَّ بِهَاۗ قُلْ اِنَّمَا الْاٰيٰتُ عِنْدَ اللّٰهِ وَمَا يُشْعِرُكُمْ اَنَّهَآ اِذَا جَاۤءَتْ لَا يُؤْمِنُوْنَ١٠٩
Wa aqsamū billāhi jahda aimānihim la'in jā'athum āyatul layu'minunna bihā, qul innamal-āyātu ‘indallāhi wa mā yusy‘irukum annahā iżā jā'at lā yu'minūn(a).
[109]
और उन्होंने अपनी मज़बूत क़समें खाते हुए अल्लाह की क़सम खाई कि निःसंदेह यदि उनके पास कोई आयत (निशानी) आई, तो वे उसपर अवश्य ही ईमान लाएँगे। आप कह दें : आयतें (निशानियाँ) तो केवल अल्लाह के पास हैं और (ऐ ईमान वालो!) तुम्हें क्या पता कि निःसंदेह वे निशानियाँ जब आ जाएँगी, तो वे ईमान नहीं लाएँगे।69
69. मक्का के मुश्रिकों ने नबी सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम से कहा कि यदि सफ़ा (पर्वत) सोने का हो जाए, तो वे ईमान ले आएँगे। कुछ मुसलमानों ने भी सोचा कि यदि ऐसा हो जाए, तो संभव है कि वे ईमान ले आएँ। इसी पर यह आयत उतरी। (इब्ने कसीर)
وَنُقَلِّبُ اَفْـِٕدَتَهُمْ وَاَبْصَارَهُمْ كَمَا لَمْ يُؤْمِنُوْا بِهٖٓ اَوَّلَ مَرَّةٍ وَّنَذَرُهُمْ فِيْ طُغْيَانِهِمْ يَعْمَهُوْنَ ࣖ ۔١١٠
Wa nuqallibu af'idatahum wa abṣārahum kamā lam yu'minū bihī awwala marratiw wa nażaruhum fī ṭugyānihim ya‘mahūn(a).
[110]
और हम उनके दिलों और उनकी आँखों को फेर देंगे70, जैसे वे पहली बार इस (क़ुरआन) पर ईमान नहीं लाए और हम उन्हें छोड़ देंगे, अपनी सरकशी में भटकते फिरेंगे।
70. अर्थात कोई चमत्कार आ जाने के पश्चात् भी ईमान नहीं लाएँगे, क्योंकि अल्लाह, जिसे सुपथ दर्शाना चाहता है, वह सत्य को सुनते ही उसे स्वीकार कर लेता है। किंतु जिसने सत्य के विरोध ही को अपना आचरण-स्वभाव बना लिया हो, तो वह चमत्कार देखकर भी कोई बहाना बना लेता है और ईमान नहीं लाता। जैसे इससे पहले नबियों के साथ हो चुका है। और स्वयं नबी सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ने बहुत-सी निशानियाँ दिखाईं, फिर भी ये मुश्रिक ईमान नहीं लाए। जैसे आपने मक्का वासियों की माँग पर चाँद के दो भाग कर दिए। जिन दोनों के बीच लोगों ने ह़िरा (पर्वत) को देखा। (परंतु वे फिर भी ईमान नहीं लाए) (सह़ीह़ बुख़ारी : 3637, मुस्लिम : 2802)
۞ وَلَوْ اَنَّنَا نَزَّلْنَآ اِلَيْهِمُ الْمَلٰۤىِٕكَةَ وَكَلَّمَهُمُ الْمَوْتٰى وَحَشَرْنَا عَلَيْهِمْ كُلَّ شَيْءٍ قُبُلًا مَّا كَانُوْا لِيُؤْمِنُوْٓا اِلَّآ اَنْ يَّشَاۤءَ اللّٰهُ وَلٰكِنَّ اَكْثَرَهُمْ يَجْهَلُوْنَ١١١
Wa lau annanā nazzalnā ilaihimul-malā'ikata wa kallamahumul-mautā wa ḥasyarnā ‘alaihim kulla syai'in qubulam mā kānū liyu'minū illā ay yasyā'allāhu wa lākinna akṡarahum yajhalūn(a).
[111]
और यदि हम उनकी ओर फ़रिश्ते उतार देते और उनसे मुर्दे बातें करते और हम प्रत्येक चीज़ उनके सामने लाकर इकट्ठा कर देते, तो भी वे ऐसे न थे कि ईमान लाते, परंतु यह कि अल्लाह चाहे, लेकिन उनमें से अधिकतर लोग अज्ञानता से काम लेते हैं।
وَكَذٰلِكَ جَعَلْنَا لِكُلِّ نَبِيٍّ عَدُوًّا شَيٰطِيْنَ الْاِنْسِ وَالْجِنِّ يُوْحِيْ بَعْضُهُمْ اِلٰى بَعْضٍ زُخْرُفَ الْقَوْلِ غُرُوْرًا ۗوَلَوْ شَاۤءَ رَبُّكَ مَا فَعَلُوْهُ فَذَرْهُمْ وَمَا يَفْتَرُوْنَ١١٢
Wa każālika ja‘alnā likulli nabiyyin ‘aduwwan syayāṭīnal-insi wal-jinni yūḥī ba‘ḍuhum ilā ba‘ḍin zukhrufal-qauli gurūrā(n), wa lau syā'a rabbuka mā fa‘alūhu fa żarhum wa mā yaftarūn(a).
[112]
और (ऐ नबी!) इसी प्रकार, हमने हर नबी के लिए मनुष्यों एवं जिन्नों के शैतानों को शत्रु बना दिया, जो धोखा देने के लिए एक-दूसरे के मन में चिकनी-चुपड़ी बात डालते रहते हैं। और यदि आपका पालनहार चाहता, तो वे ऐसा न करते। तो आप उन्हें छोड़ दें और जो वे झूठ गढ़ते हैं।
وَلِتَصْغٰٓى اِلَيْهِ اَفْـِٕدَةُ الَّذِيْنَ لَا يُؤْمِنُوْنَ بِالْاٰخِرَةِ وَلِيَرْضَوْهُ وَلِيَقْتَرِفُوْا مَا هُمْ مُّقْتَرِفُوْنَ١١٣
Wa litaṣgā ilaihi af'idatul-lażīna lā yu'minūna bil-ākhirati wa liyarḍauhu wa liyaqtarifū mā hum muqtarifūn(a).
[113]
और ताकि उन लोगों के दिल उस (सुशोभित झूठ) की ओर झुक जाएँ, जो आख़िरत पर विश्वास नहीं रखते और ताकि वे उसे पसंद करें और ताकि वे भी वही कुकर्म करने लगें, जो ये करने वाले हैं।
اَفَغَيْرَ اللّٰهِ اَبْتَغِيْ حَكَمًا وَّهُوَ الَّذِيْٓ اَنْزَلَ اِلَيْكُمُ الْكِتٰبَ مُفَصَّلًا ۗوَالَّذِيْنَ اٰتَيْنٰهُمُ الْكِتٰبَ يَعْلَمُوْنَ اَنَّهٗ مُنَزَّلٌ مِّنْ رَّبِّكَ بِالْحَقِّ فَلَا تَكُوْنَنَّ مِنَ الْمُمْتَرِيْنَ١١٤
Afagairallāhi abtagī ḥakamaw wa huwal-lażī anzala ilaikumul-kitāba mufaṣṣalā(n), wal-lażīna ātaināhumul-kitāba ya‘lamūna annahū munazzalum mir rabbika bil-ḥaqqi falā takunanna minal-mumtarīn(a).
[114]
तो क्या मैं अल्लाह के सिवा कोई और न्यायकर्ता तलाश करूँ, हालाँकि उसी ने तुम्हारी ओर यह विस्तारपूर्ण पुस्तक उतारी71 है? तथा जिन लोगों को हमने पुस्तक72 प्रदान की है, वे जानते हैं कि निश्चय यह आपके पालनहार की ओर से सत्य के साथ अवतरित की गई है। अतः आप हरगिज़ संदेह करने वालों में से न हों।
71. अर्थात इसमें निर्णय के नियमों का विवरण है। 72. अर्थात जब नबी (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) पर जिबरील प्रथम वह़्य लाए और आपने मक्का के ईसाई विद्वान वरक़ा बिन नौफ़ल को बताया, तो उसने कहा कि यह वही फ़रिश्ता है जिसे अल्लाह ने मूसा पर उतारा था। (बुख़ारी : 3, मुस्लिम : 160) इसी प्रकार मदीना के यहूदी विद्वान अब्दुल्लाह बिन सलाम ने भी नबी (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) को माना और इस्लाम लाए।
وَتَمَّتْ كَلِمَتُ رَبِّكَ صِدْقًا وَّعَدْلًاۗ لَا مُبَدِّلَ لِكَلِمٰتِهٖ ۚوَهُوَ السَّمِيْعُ الْعَلِيْمُ١١٥
Wa tammat kalimatu rabbika ṣidqaw wa ‘adlā(n), lā mubaddila likalimātih(ī), wa huwas-samī‘ul-‘alīm(u).
[115]
आपके पालनहार की बात सत्य एवं न्याय की दृष्टि से पूरी हो गई। उसकी बातों को कोई बदलने वाला नहीं। और वही सब कुछ सुनने वाला, सब कुछ जानने वाला है।
وَاِنْ تُطِعْ اَكْثَرَ مَنْ فِى الْاَرْضِ يُضِلُّوْكَ عَنْ سَبِيْلِ اللّٰهِ ۗاِنْ يَّتَّبِعُوْنَ اِلَّا الظَّنَّ وَاِنْ هُمْ اِلَّا يَخْرُصُوْنَ١١٦
Wa in tuṭi‘ akṡara man fil-arḍi yuḍillūka ‘an sabīlillāh(i), iy yattabi‘ūna illaẓ-ẓanna wa in hum illā yakhruṣ ūn(a).
[116]
और (ऐ नबी!) यदि आप उन लोगों में से अधिकतर का कहना मानें जो धरती पर हैं, तो वे आपको अल्लाह के मार्ग से भटका देंगे। वे तो केवल अनुमान का पालन करते73 हैं और वे इसके सिवा कुछ नहीं कि अटकल दौड़ाते हैं।
73. आयत का भावार्थ यह है कि सत्यासत्य का निर्णय उसके अनुयायियों की संख्या से नहीं, सत्य के मूल नियमों से ही किया जा सकता है। आप (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) ने कहा : मेरी उम्मत के 72 संप्रदाय नरक में जाएँगे। और एक स्वर्ग में जाएगा। और वह, वह होगा जो मेरे और मेरे साथियों के पथ पर होगा। (तिर्मिज़ी : 263)
اِنَّ رَبَّكَ هُوَ اَعْلَمُ مَنْ يَّضِلُّ عَنْ سَبِيْلِهٖۚ وَهُوَ اَعْلَمُ بِالْمُهْتَدِيْنَ١١٧
Inna rabbaka huwa a‘lamu may yaḍillu ‘an sabīlih(ī), wa huwa a‘lamu bil-muhtadīn(a).
[117]
निःसंदेह आपका पालनहार ही उसे भली-भाँति जानने वाला है, जो उसके मार्ग से भटकता है तथा वही मार्गदर्शन पाने वालों को खूब जानने वाला है।
فَكُلُوْا مِمَّا ذُكِرَ اسْمُ اللّٰهِ عَلَيْهِ اِنْ كُنْتُمْ بِاٰيٰتِهٖ مُؤْمِنِيْنَ١١٨
Fa kulū mimmā żukirasmullāhi ‘alaihi in kuntum bi'āyātihī mu'minīn(a).
[118]
तो तुम उसमें से खाओ, जिसपर (ज़बह करते समय) अल्लाह का नाम लिया गया74 है, यदि तुम उसकी आयतों पर ईमान रखने वाले हो।
74. इसका अर्थ यह है कि वध करते समय जिस जानवर पर अल्लाह का नाम न लिया गया हो, बल्कि देवी-देवता तथा पीर-फ़क़ीर के नाम पर बलि दिया गया हो, तो वह तुम्हारे लिए वर्जित है। (इब्ने कसीर)
وَمَا لَكُمْ اَلَّا تَأْكُلُوْا مِمَّا ذُكِرَ اسْمُ اللّٰهِ عَلَيْهِ وَقَدْ فَصَّلَ لَكُمْ مَّا حَرَّمَ عَلَيْكُمْ اِلَّا مَا اضْطُرِرْتُمْ اِلَيْهِ ۗوَاِنَّ كَثِيْرًا لَّيُضِلُّوْنَ بِاَهْوَاۤىِٕهِمْ بِغَيْرِ عِلْمٍ ۗاِنَّ رَبَّكَ هُوَ اَعْلَمُ بِالْمُعْتَدِيْنَ١١٩
Wa mā lakum allā ta'kulū mimmā żukirasmullāhi ‘alaihi wa qad faṣṣala lakum mā ḥarrama ‘alaikum illā maḍṭurirtum ilaih(i), wa inna kaṡīral layuḍillūna bi'ahwā'ihim bigairi ‘ilm(in), inna rabbaka huwa a‘lamu bil-mu‘tadīn(a).
[119]
और तुम्हें क्या है कि तुम उसमें से न खाओ, जिसपर अल्लाह का नाम लिया गया75 है, हालाँकि निःसंदेह उसने तुम्हारे लिए वे चीज़ें खोलकर बयान कर दी हैं, जो उसने तुमपर हराम की हैं, परंतु जिसकी ओर तुम विवश कर दिए जाओ।76 और निःसंदेह बहुत-से लोग बिना किसी जानकारी के, अपनी इच्छाओं के द्वारा (लोगों को) पथभ्रष्ट करते हैं। निःसंदेह आपका पालनहार ही हद से बढ़ने वालों को अधिक जानने वाला है।
75. अर्थात उन पशुओं को खाने में कोई हर्ज नहीं, जो मुसलसानों की दुकानों में मिलते हैं। क्योंकि कोई मुसलमान अल्लाह का नाम लिए बिना वध नहीं करता। और यदि शंका हो, तो खाते समय 'बिस्मिल्लाह' कह ले। जैसा कि ह़दीस शरीफ़ में आया है। (देखिए : बुख़ारी : 5507) 76. अर्थात उस वर्जित को प्राण रक्षा के लिए खाना उचित है।
وَذَرُوْا ظَاهِرَ الْاِثْمِ وَبَاطِنَهٗ ۗاِنَّ الَّذِيْنَ يَكْسِبُوْنَ الْاِثْمَ سَيُجْزَوْنَ بِمَا كَانُوْا يَقْتَرِفُوْنَ١٢٠
Wa żarū ẓāhiral-iṡmi wa bāṭinah(ū), innal-lażīna yaksibūnal-iṡma sayujzauna bimā kānū yaqtarifūn(a).
[120]
तथा (ऐ लोगो!) खुले पाप छोड़ दो और उसके छिपे को भी। निःसंदेह जो लोग पाप कमाते हैं, वे शीघ्र ही उसका बदला दिए जाएँगे जो वे किया करते थे।
وَلَا تَأْكُلُوْا مِمَّا لَمْ يُذْكَرِ اسْمُ اللّٰهِ عَلَيْهِ وَاِنَّهٗ لَفِسْقٌۗ وَاِنَّ الشَّيٰطِيْنَ لَيُوْحُوْنَ اِلٰٓى اَوْلِيَاۤىِٕهِمْ لِيُجَادِلُوْكُمْ ۚوَاِنْ اَطَعْتُمُوْهُمْ اِنَّكُمْ لَمُشْرِكُوْنَ ࣖ١٢١
Wa lā ta'kulū mimmā lam yużkarismullāhi ‘alaihi wa innahū lafisq(un), wa innasy-syayāṭīna layūḥūna ilā auliyā'ihim liyujādilūkum, wa in aṭa‘tumūhum innakum lamusyrikūn(a).
[121]
तथा उसमें से न खाओ, जिसपर अल्लाह का नाम न लिया गया हो, तथा निःसंदेह यह (खाना) सर्वथा अवज्ञा है। तथा निःसंदेह शैतान अपने मित्रों के मन में संशय डालते रहते हैं, ताकि वे तुमसे झगड़ा करें।77 और यदि तुमने उनका कहा मान लिया, तो निःसंदेह तुम निश्चय बहुदेववादी हो।
77. अर्थात यह कहे कि जिसे अल्लाह ने मारा हो, उसे नहीं खाते। और जिसे तुमने वध किया हो उसे खाते हो? (इब्ने कसीर)
اَوَمَنْ كَانَ مَيْتًا فَاَحْيَيْنٰهُ وَجَعَلْنَا لَهٗ نُوْرًا يَّمْشِيْ بِهٖ فِى النَّاسِ كَمَنْ مَّثَلُهٗ فِى الظُّلُمٰتِ لَيْسَ بِخَارِجٍ مِّنْهَاۗ كَذٰلِكَ زُيِّنَ لِلْكٰفِرِيْنَ مَا كَانُوْا يَعْمَلُوْنَ١٢٢
Awa man kāna maitan fa aḥyaināhu wa ja‘alnā lahū nūray yamsyī bihī fin-nāsi kamam maṡaluhū fiẓ-ẓulumāti laisa bikhārijim minhā, każālika zuyyina lil-kāfirīna mā kānū ya‘malūn(a).
[122]
क्या वह व्यक्ति जो मृत था, फिर हमने उसे जीवित किया तथा उसके लिए ऐसा प्रकाश बना दिया, जिसके साथ वह लोगों में चलता-फिरता है, उस व्यक्ति की तरह है जिसका हाल यह है कि वह अँधेरों में है, उनसे कदापि निकलने वाला नहीं?78 इसी प्रकार काफ़िरों के लिए वे कार्य सुंदर बना दिए गए, जो वे किया करते थे।
78. इस आयत में ईमान की उपमा जीवन से तथा ज्ञान की प्रकाश से, और अविश्वास की मरण तथा अज्ञानता की उपमा अंधकारों से दी गई है।
وَكَذٰلِكَ جَعَلْنَا فِيْ كُلِّ قَرْيَةٍ اَكٰبِرَ مُجْرِمِيْهَا لِيَمْكُرُوْا فِيْهَاۗ وَمَا يَمْكُرُوْنَ اِلَّا بِاَنْفُسِهِمْ وَمَا يَشْعُرُوْنَ١٢٣
Wa każālika ja‘alnā fī kulli qaryatin akābira mujrimīhā liyamkurū fīhā, wa mā yamkurūna illā bi'anfusihim wa mā yasy‘urūn(a).
[123]
और इसी प्रकार हमने प्रत्येक बस्ती में सबसे बड़े उसके अपराधियों को बना दिया, ताकि वे उसमें चालें चलें।79 हालाँकि वे अपने ही विरुद्ध चालें चलते है, परंतु वे नहीं समझते।
79. भावार्थ यह है कि जब किसी नगर में कोई सत्य का प्रचारक खड़ा होता है, तो वहाँ के प्रमुखों को यह भय होता है कि हमारा अधिकार समाप्त हो जाएगा। इसलिए वे सत्य के विरोधी बन जाते हैं। और उसके विरुद्ध षड्यंत्र रचने लगते हैं। मक्का के प्रमुखों ने भी यही नीति अपना रखी थी।
وَاِذَا جَاۤءَتْهُمْ اٰيَةٌ قَالُوْا لَنْ نُّؤْمِنَ حَتّٰى نُؤْتٰى مِثْلَ مَآ اُوْتِيَ رُسُلُ اللّٰهِ ۘ اَللّٰهُ اَعْلَمُ حَيْثُ يَجْعَلُ رِسٰلَتَهٗۗ سَيُصِيْبُ الَّذِيْنَ اَجْرَمُوْا صَغَارٌ عِنْدَ اللّٰهِ وَعَذَابٌ شَدِيْدٌۢ بِمَا كَانُوْا يَمْكُرُوْنَ١٢٤
Wa iżā jā'athum āyatun qālū lan nu'mina ḥattā nu'tā miṡla mā ūtiya rusulullāh(i), allāhu a‘lamu ḥaiṡu yaj‘alu risālatah(ū), sayuṣībul-lażīna ajramū ṣagārun ‘indallāhi wa ‘ażābun syadīdum bimā kānū yamkurūn(a).
[124]
और जब उनके पास कोई निशानी आती है, तो कहते हैं कि हम कदापि ईमान नहीं लाएँगे, यहाँ तक कि हमें उस जैसा दिया जाए, जो अल्लाह के रसूलों को दिया गया। अल्लाह अधिक जानने वाला है जहाँ वह अपनी पैग़ंबरी रखता है। शीघ्र ही उन लोगों को जिन्होंने अपराध किए, अल्लाह के पास बड़े अपमान तथा कड़ी यातना का सामना करना पड़ेगा, इस कारण कि वे चालबाज़ी (छल) किया करते थे।
فَمَنْ يُّرِدِ اللّٰهُ اَنْ يَّهْدِيَهٗ يَشْرَحْ صَدْرَهٗ لِلْاِسْلَامِۚ وَمَنْ يُّرِدْ اَنْ يُّضِلَّهٗ يَجْعَلْ صَدْرَهٗ ضَيِّقًا حَرَجًا كَاَنَّمَا يَصَّعَّدُ فِى السَّمَاۤءِۗ كَذٰلِكَ يَجْعَلُ اللّٰهُ الرِّجْسَ عَلَى الَّذِيْنَ لَا يُؤْمِنُوْنَ١٢٥
Fa may yuridillāhu ay yahdiyahū yasyraḥ ṣadrahū lil-islām(i), wa may yurid ay yuḍillahū yaj‘al ṣadrahū ḍayyiqan ḥarajan ka'annamā yaṣṣa‘‘adu fis-samā'(i), każālika yaj‘alullāhur-rijsa ‘alal-lażīna lā yu'minūn(a).
[125]
तो वह व्यक्ति जिसे अल्लाह चाहता है कि उसे मार्गदर्शन प्रदान करे, उसका सीना इस्लाम के लिए खोल देता है और जिसे चाहता है कि उसे गुमराह करे, उसका सीना तंग, अत्यंत घुटा हुआ कर देता है, मानो वह बड़ी कठिनाई से आकाश में चढ़ रहा80 है। इसी प्रकार अल्लाह उन लोगों पर यातना भेज देता है, जो ईमान नहीं लाते।
80. अर्थात उसे इस्लाम का मार्ग एक कठिन चढ़ाई लगता है, जिसके विचार ही से उसका सीना तंग हो जाता है और श्वासावरोध होने लगता है।
وَهٰذَا صِرَاطُ رَبِّكَ مُسْتَقِيْمًاۗ قَدْ فَصَّلْنَا الْاٰيٰتِ لِقَوْمٍ يَّذَّكَّرُوْنَ١٢٦
Wa hāżā ṣirāṭu rabbika mustaqīmā(n), qad faṣṣalnal-āyāti liqaumiy yażżakkarūn(a).
[126]
और यही आपके पालनहार का सीधा मार्ग है। निःसंदे हमने उन लोगों के लिए निशानियाँ खोलकर बयान कर दी हैं, जो उपदेश ग्रहण करते हों।
۞ لَهُمْ دَارُ السَّلٰمِ عِنْدَ رَبِّهِمْ وَهُوَ وَلِيُّهُمْ بِمَا كَانُوْا يَعْمَلُوْنَ١٢٧
Lahum dārus-salāmi ‘inda rabbihim wa huwa waliyyuhum bimā kānū ya‘malūn(a).
[127]
उनके लिए उनके पालनहार के पास सलामती का घर है। और वह उनका संरक्षक है, उन कर्मों के कारण, जो वे करते थे।
وَيَوْمَ يَحْشُرُهُمْ جَمِيْعًاۚ يٰمَعْشَرَ الْجِنِّ قَدِ اسْتَكْثَرْتُمْ مِّنَ الْاِنْسِ ۚوَقَالَ اَوْلِيَاۤؤُهُمْ مِّنَ الْاِنْسِ رَبَّنَا اسْتَمْتَعَ بَعْضُنَا بِبَعْضٍ وَّبَلَغْنَآ اَجَلَنَا الَّذِيْٓ اَجَّلْتَ لَنَا ۗقَالَ النَّارُ مَثْوٰىكُمْ خٰلِدِيْنَ فِيْهَآ اِلَّا مَا شَاۤءَ اللّٰهُ ۗاِنَّ رَبَّكَ حَكِيْمٌ عَلِيْمٌ١٢٨
Wa yauma yaḥsyuruhum jamī‘ā(n), yā ma‘syaral-jinni qadistakṡartum minal-ins(i), wa qāla auliyā'uhum minal-insi rabbanastamta‘a ba‘ḍunā biba‘ḍiw wa balagnā ajalanal-lażī ajjalta lanā, qālan-nāru maṡwākum khālidīna fīhā illā mā syā'allāh(u), inna rabbaka ḥakīmun ‘alīm(un).
[128]
तथा (ऐ नबी! याद करें) जिस दिन अल्लाह उन सबको एकत्र करेगा, (फिर कहेगा :) ऐ जिन्नों के गिरोह! निःसंदेह तुमने बहुत-से मनुष्यों को गुमराह कर दिया है! और मनुष्यों में से उनके मित्र कहेंगे : ऐ हमारे पालनहार! हमने एक-दूसरे से लाभ उठाया81 और हम अपने उस समय को पहुँच गए, जो तूने हमारे लिए नियत किया था। (अल्लाह) कहेगा : आग ही तुम्हारा ठिकाना है, उसमें हमेशा रहने वाले हो, परंतु जो अल्लाह चाहे। निःसंदेह आपका पालनहार पूर्ण हिकमत वाला, सब कुछ जानने वाला है।
81. इस का भावार्थ यह है कि जिन्नों ने लोगों को संशय और धोखे में रखकर कुपथ किया, और लोगों ने उन्हें अल्लाह का साझी बनाया और उनके नाम पर बलि देते और चढ़ावे चढ़ाते रहे और ओझाई तथा जादू तंत्र द्वारा लोगों को धोखा देकर अपना उल्लू सीधा करते रहे।
وَكَذٰلِكَ نُوَلِّيْ بَعْضَ الظّٰلِمِيْنَ بَعْضًاۢ بِمَا كَانُوْا يَكْسِبُوْنَ ࣖ١٢٩
Wa każālika nuwallī ba‘ḍaẓ-ẓālimīna ba‘ḍam bimā kānū yaksibūn(a).
[129]
और इसी प्रकार हम अत्याचारियों को एक-दूसरे का दोस्त बना देते हैं, उसके कारण जो वे कमाया करते थे।
يٰمَعْشَرَ الْجِنِّ وَالْاِنْسِ اَلَمْ يَأْتِكُمْ رُسُلٌ مِّنْكُمْ يَقُصُّوْنَ عَلَيْكُمْ اٰيٰتِيْ وَيُنْذِرُوْنَكُمْ لِقَاۤءَ يَوْمِكُمْ هٰذَاۗ قَالُوْا شَهِدْنَا عَلٰٓى اَنْفُسِنَا وَغَرَّتْهُمُ الْحَيٰوةُ الدُّنْيَا وَشَهِدُوْا عَلٰٓى اَنْفُسِهِمْ اَنَّهُمْ كَانُوْا كٰفِرِيْنَ١٣٠
Yā ma‘syaral-jinni wal-insi alam ya'tikum rusulum minkum yaquṣṣūna ‘alaikum āyātī wa yunżirūnakum liqā'a yaumikum hāżā, qālū syahidnā ‘alā anfusinā wa garrathumul-ḥayātud-un-yā wa syahidū ‘alā anfusihim annahum kānū kāfirīn(a).
[130]
(तथा अल्लाह कहेगा :) ऐ जिन्नों तथा मनुष्यों के समूह! क्या तुम्हारे पास तुममें से कोई रसूल नहीं आए82, जो तुमपर मेरी आयतें बयान करते हों और तुम्हें तुम्हारे इस दिन की मुलाक़ात से डराते हों? वे कहेंगे : हम अपने आपपर गवाही देते हैं। तथा उन्हें सांसारिक जीवन ने धोखा दिया। और वे अपने आपपर गवाही देंगे कि निश्चय वे काफ़िर थे।
82. क़ुरआन की अनेक आयतों से यह विदित होता है कि नबी (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) जिन्नों के भी नबी थे, जैसा कि सूरतुल-जिन्न आयत : 1, 2 में उनके क़ुरआन सुनने और ईमान लाने का वर्णन है। ऐसे ही सूरतुल-अह़क़ाफ़ में है कि जिन्नों ने कहा : हमने ऐसी पुस्तक सुनी जो मूसा के पश्चात् उतरी है। इसी प्रकार वे सुलैमान के अधीन थे। परंतु क़ुरआन और ह़दीस से जिन्नों में नबी होने का कोई संकेत नहीं मिलता। एक विचार यह भी है कि जिन्न आदम (अलैहिस्सलाम) से पहले के हैं, इस लिए हो सकता है कि पहले उनमें भी नबी आए हों।
ذٰلِكَ اَنْ لَّمْ يَكُنْ رَّبُّكَ مُهْلِكَ الْقُرٰى بِظُلْمٍ وَّاَهْلُهَا غٰفِلُوْنَ١٣١
Żālika allam yakur rabbuka muhlikal-qurā biẓulmiw wa ahluhā gāfilūn(a).
[131]
(ऐ नबी!) यह (नबियों का भेजना) इसलिए हुआ कि आपका पालनहार किसी बस्ती वालों को - कुफ़्र - इनकार के कारण ऐसी अवस्था में विनष्ट नहीं करता83 कि उसके निवासी बेखबर हों।
83. अर्थात संसार की कोई बस्ती ऐसी नहीं है जिसमें संमार्ग दर्शाने के लिए नबी न आए हों। अल्लाह का यह नियम नहीं है कि किसी जाति को वह़्य द्वारा मार्गदर्शन से वंचित रखे और फिर उसका नाश कर दे। यह अल्लाह के न्याय के बिल्कुल विपरीत है।
وَلِكُلٍّ دَرَجٰتٌ مِّمَّا عَمِلُوْاۗ وَمَا رَبُّكَ بِغَافِلٍ عَمَّا يَعْمَلُوْنَ١٣٢
Wa likullin darajātum mimmā ‘amilū, wa mā rabbuka bigāfilin ‘ammā ya‘malūn(a).
[132]
तथा प्रत्येक व्यक्ति के लिए उसके कर्म के अनुसार पद हैं। और आपका पालनहार लोगों के कर्मों से अनभिज्ञ नहीं है।
وَرَبُّكَ الْغَنِيُّ ذُو الرَّحْمَةِ ۗاِنْ يَّشَأْ يُذْهِبْكُمْ وَيَسْتَخْلِفْ مِنْۢ بَعْدِكُمْ مَّا يَشَاۤءُ كَمَآ اَنْشَاَكُمْ مِّنْ ذُرِّيَّةِ قَوْمٍ اٰخَرِيْنَ١٣٣
Wa rabbukal-ganiyyu żur-raḥmah(ti), iy yasya' yużhibkum wa yastakhlif mim ba‘dikum mā yasyā'u kamā ansya'akum min żurriyyati qaumin ākharīn(a).
[133]
तथा आपका पालनहार निस्पृह, दयाशील है। वह चाहे तो तुम्हें ले जाए और तुम्हारे स्थान पर दूसरों को ले आए। जैसे तुम लोगों को दूसरे लोगों की संतति से पैदा किया है।
اِنَّ مَا تُوْعَدُوْنَ لَاٰتٍۙ وَّمَآ اَنْتُمْ بِمُعْجِزِيْنَ١٣٤
Innamā tū‘adūna la'āt(in), wa mā antum bimu‘jizīn(a).
[134]
तुम्हें जिस (क़ियामत) का वचन दिया जा रहा है, उसे अवश्य आना है। और तुम (अल्लाह को) विवश नहीं कर सकते।
قُلْ يٰقَوْمِ اعْمَلُوْا عَلٰى مَكَانَتِكُمْ اِنِّيْ عَامِلٌۚ فَسَوْفَ تَعْلَمُوْنَۙ مَنْ تَكُوْنُ لَهٗ عَاقِبَةُ الدَّارِۗ اِنَّهٗ لَا يُفْلِحُ الظّٰلِمُوْنَ١٣٥
Qul yā qaumi‘malū ‘alā makānatikum innī ‘āmil(un), fa saufa ta‘lamūn(a), man takūnu lahū ‘āqibatud-dār(i), innahū lā yufliḥuẓ-ẓālimūn(a).
[135]
(ऐ रसूल) आप कह दें : ऐ मेरी जाति के लोगो! (यदि तुम नहीं मानते) तो तुम अपनी जगह कर्म करते रहो। मैं भी कर्म कर रहा हूँ। शीघ्र ही तुम जान लोगे कि किसका अंत (परिणाम)84 अच्छा है। निःसंदेह अत्याचारी लोग सफल नहीं होंगे।
84. इस आयत में काफ़िरों को सचेत किया गया है कि यदि सत्य को नहीं मानते, तो जो कर रहे हो वही करो, तुम्हें जल्द ही इसके परिणाम का पता चल जाएगा।
وَجَعَلُوْا لِلّٰهِ مِمَّا ذَرَاَ مِنَ الْحَرْثِ وَالْاَنْعَامِ نَصِيْبًا فَقَالُوْا هٰذَا لِلّٰهِ بِزَعْمِهِمْ وَهٰذَا لِشُرَكَاۤىِٕنَاۚ فَمَا كَانَ لِشُرَكَاۤىِٕهِمْ فَلَا يَصِلُ اِلَى اللّٰهِ ۚوَمَا كَانَ لِلّٰهِ فَهُوَ يَصِلُ اِلٰى شُرَكَاۤىِٕهِمْۗ سَاۤءَ مَا يَحْكُمُوْنَ١٣٦
Wa ja‘alū lillāhi mimmā żara'a minal-ḥarṡi wal-an‘āmi naṣīban fa qālū hāżā lillāhi biza‘mihim wa hāżā lisyurakā'inā, famā kāna lisyurakā'ihim falā yaṣilu ilallāh(i), wa mā kāna lillāhi fa huwa yaṣilu ilā syurakā'ihim, sā'a mā yaḥkumūn(a).
[136]
तथा उन्होंने अल्लाह की पैदा की हुई खेती और पशुओं में उसका एक भाग निश्चित किया। फिर वे अपने विचार से कहते हैं : "यह अल्लाह का है और यह हमारे ठहराए हुए साझीदारों का।" फिर जो हिस्सा उनके बनाए हुए साझियों का है, वह तो अल्लाह को नहीं पहुँचता, परंतु जो हिस्सा अल्लाह का है, वह उनके साझियों85 को पहुँच जाता है। क्या ही बुरा निर्णय है, जो वे करते हैं!
85. इस आयत में अरब के मुश्रिकों की कुछ धार्मिक परंपराओं का खंडन किया गया है कि सब कुछ तो अल्लाह पैदा करता है और यह उसमें से अपने देवताओं का भाग बनाते हैं। फिर अल्लाह का जो भाग है उसे देवताओं को दे देते हैं। परंतु देवताओं के भाग में से अल्लाह के लिए व्यय करने को तैयार नहीं होते।
وَكَذٰلِكَ زَيَّنَ لِكَثِيْرٍ مِّنَ الْمُشْرِكِيْنَ قَتْلَ اَوْلَادِهِمْ شُرَكَاۤؤُهُمْ لِيُرْدُوْهُمْ وَلِيَلْبِسُوْا عَلَيْهِمْ دِيْنَهُمْۗ وَلَوْ شَاۤءَ اللّٰهُ مَا فَعَلُوْهُ فَذَرْهُمْ وَمَا يَفْتَرُوْنَ١٣٧
Wa każālika zayyana likaṡīrim minal-musyrikīna qatla aulādihim syurakā'uhum liyurdūhum wa liyalbisū ‘alaihim dīnahum, wa lau syā'allāhu mā fa‘alūhu fa żarhum wa mā yaftarūn(a).
[137]
और इसी प्रकार, बहुत-से मुश्रिकों के लिए, उनके बनाए हुए साझियों ने, उनकी अपनी संतान की हत्या86 को सुंदर बना दिया है, ताकि उनका विनाश कर दें और ताकि उनके धर्म को उनपर संदिग्ध कर दें। और यदि अल्लाह चाहता, तो वे ऐसा न करते। अतः आप उन्हें छोड़ दें तथा उनकी बनाई हुई बातों को।
86. अरब के कुछ मुश्रिक अपनी पुत्रियों को जन्म लेते ही जीवित गाड़ दिया करते थे।
وَقَالُوْا هٰذِهٖٓ اَنْعَامٌ وَّحَرْثٌ حِجْرٌ لَّا يَطْعَمُهَآ اِلَّا مَنْ نَّشَاۤءُ بِزَعْمِهِمْ وَاَنْعَامٌ حُرِّمَتْ ظُهُوْرُهَا وَاَنْعَامٌ لَّا يَذْكُرُوْنَ اسْمَ اللّٰهِ عَلَيْهَا افْتِرَاۤءً عَلَيْهِۗ سَيَجْزِيْهِمْ بِمَا كَانُوْا يَفْتَرُوْنَ١٣٨
Wa qālū hāżihī an‘āmuw wa ḥarṡun ḥijrul lā yaṭ‘amuhā illā man nasyā'u biza‘mihim wa an‘āmun ḥurrimat ẓuhūruhā wa an‘āmul lā yażkurūnasmallāhi ‘alaihaftirā'an ‘alaih(i), sayajzīhim bimā kānū yaftarūn(a).
[138]
तथा वे कहते हैं कि ये पशु और खेत वर्जित हैं। इन्हें वही खा सकता है, जिसे हम खिलाना चाहें। ऐसा वे अपने ख़याल से कहते हैं। फिर कुछ पशु हैं, जिनकी पीठ हराम (वर्जित) हैं। और कुछ पशु हैं, जिनपर (ज़बह करते समय) अल्लाह का नाम नहीं लेते। यह उन्होंने अल्लाह पर झूठ गढ़ा है। उन्हें वह उनके इस झूठ गढ़ने का बदला अवश्य देगा।
87. अर्थात उनपर सवारी करना तथा बोझ लादना अवैध है। (देखिए : सूरतुल माइदा :103)
وَقَالُوْا مَا فِيْ بُطُوْنِ هٰذِهِ الْاَنْعَامِ خَالِصَةٌ لِّذُكُوْرِنَا وَمُحَرَّمٌ عَلٰٓى اَزْوَاجِنَاۚ وَاِنْ يَّكُنْ مَّيْتَةً فَهُمْ فِيْهِ شُرَكَاۤءُ ۗسَيَجْزِيْهِمْ وَصْفَهُمْۗ اِنَّهٗ حَكِيْمٌ عَلِيْمٌ١٣٩
Wa qālū mā fī buṭūni hāżihil-an‘āmi khāliṣatul liżukūrinā wa muḥarramun ‘alā azwājinā, wa iy yakum maitatan fahum fīhi syurakā'(u), sayajzīhim waṣfahum, innahū ḥakīmun ‘alīm(un).
[139]
तथा उन्होंने कहा कि इन पशुओं के पेट में जो कुछ है, वह हमारे पुरुषों ही के लिए है और हमारी पत्नियों के लिए वर्जित है। और यदि मरा हुआ हो, तो सभी उसमें शामिल होंगे।88 शीघ्र ही अल्लाह उन्हें उनके ऐसा कहने का बदला देगा। निःसंदेह वह हिकमत वाला, सब कुछ जानने वाला है।
88. अर्थात वधित पशु के गर्भ से बच्चा निकल जाता और जीवित होता, तो उसे केवल पुरुष खा सकते थे और मुर्दा होता, तो सभी (स्त्री-पुरुष) खा सकते थे। (देखिए : सूरतुन्-नह़्ल : 16, 58-59, सूरतुल-अन्आम : 151, तथा सूरतुल-इसरा : 31)
قَدْ خَسِرَ الَّذِيْنَ قَتَلُوْٓا اَوْلَادَهُمْ سَفَهًاۢ بِغَيْرِ عِلْمٍ وَّحَرَّمُوْا مَا رَزَقَهُمُ اللّٰهُ افْتِرَاۤءً عَلَى اللّٰهِ ۗقَدْ ضَلُّوْا وَمَا كَانُوْا مُهْتَدِيْنَ ࣖ١٤٠
Qad khasiral-lażīna qatalū aulādahum safaham bigairi ‘ilmiw wa ḥarramū mā razaqahumullāhuftirā'an ‘alallāh(i), qad ḍallū wa mā kānū muhtadīn(a).
[140]
निश्चय वे लोग क्षति में पड़ गए, जिन्होंने मूर्खता के कारण, बिना किसी ज्ञान के, अपने संतान की हत्या की।89 और उस जीविका को, जो अल्लाह ने उन्हें प्रदान की थी, अल्लाह पर आरोप लगाकर, अवैध बना लिया। वास्तव में, वे भटक गए और सीधी राह प्राप्त नहीं कर सके।
89. जैसा कि आधुनिक सभ्य समाज में "सुखी परिवार" के लिए अनेक प्रकार से किया जा रहा है।
۞ وَهُوَ الَّذِيْٓ اَنْشَاَ جَنّٰتٍ مَّعْرُوْشٰتٍ وَّغَيْرَ مَعْرُوْشٰتٍ وَّالنَّخْلَ وَالزَّرْعَ مُخْتَلِفًا اُكُلُهٗ وَالزَّيْتُوْنَ وَالرُّمَّانَ مُتَشَابِهًا وَّغَيْرَ مُتَشَابِهٍۗ كُلُوْا مِنْ ثَمَرِهٖٓ اِذَآ اَثْمَرَ وَاٰتُوْا حَقَّهٗ يَوْمَ حَصَادِهٖۖ وَلَا تُسْرِفُوْا ۗاِنَّهٗ لَا يُحِبُّ الْمُسْرِفِيْنَۙ١٤١
Wa huwal-lażī ansya'a jannātim ma‘rūsyātiw wa gaira ma‘rūsyātiw wan-nakhla waz-zar‘a mukhtalifan ukuluhū waz-zaitūna war-rummāna mutasyābihaw wa gaira mutasyābih(in), kulū min ṡamarihī iżā aṡmara wa ātū ḥaqqahū yauma ḥaṣādih(ī), wa lā tusrifū, innahū lā yuḥibbul-musrifīn(a).
[141]
अल्लाह वही है, जिसने बेलों वाले तथा बिना बेलों वाले बाग़ पैदा किए, तथा खजूर और खेती (पैदा की), जिनसे विभिन्न प्रकार की पैदावार प्राप्त होती है, और ज़ैतुन तथा अनार (पैदा किए), जो एक-दूसरे से मिलते-जुलते भी होते हैं और नहीं भी होते। जब वह फल दे, तो उसका फल खाओ और उकी कटाई के दिन उसका हक़ (ज़कात) अदा करो। और बेजा खर्च90 न करो। निःसंदेह अल्लाह बेजा ख़र्च करने वालों से प्रेम नहीं करता।
90. अर्थात इस प्रकार उन्होंने पशुओं में विभिन्न रूप बना लिए थे। जिनको चाहते अल्लाह के लिए विशिष्ट कर देते और जिसे चाहते अपने देवी-देवताओं के लिये विशिष्ट कर देते। यहाँ इन्हीं अंधविश्वासियों का खंडन किया जा रहा है। दान करो अथवा खाओ, परंतु अपव्यय न करो। क्योंकि यह शैतान का काम है, सब में संतुलन होना चाहिए।
وَمِنَ الْاَنْعَامِ حَمُوْلَةً وَّفَرْشًا ۗ كُلُوْا مِمَّا رَزَقَكُمُ اللّٰهُ وَلَا تَتَّبِعُوْا خُطُوٰتِ الشَّيْطٰنِۗ اِنَّهٗ لَكُمْ عَدُوٌّ مُّبِيْنٌۙ١٤٢
Wa minal-an‘āmi ḥamūlataw wa farsyā(n), kulū mimmā razaqakumullāhu wa lā tattabi‘ū khuṭuwātisy-syaiṭān(i), innahū lakum ‘aduwwum mubīn(un).
[142]
तथा चौपायों में कुछ सवारी और बोझ लादने योग्य91 (पैदा किए) और कुछ धरती से लगे92 हुए। जो कुछ अल्लाह ने तुम्हें दिया है, उसमें से खाओ और शैतान के पदचिह्नों पर न चलो। निश्चय ही वह तुम्हारा खुला शत्रु93 है।
91. जैसे ऊँट और बैल आदि। 92. जैसे बकरी और भेड़ आदि। 93. अल्लाह ने चौपायों को केवल सवारी और खाने के लिए बनाया है, देवी-देवताओं के नाम चढ़ाने के लिए नहीं। अब यदि कोई ऐसा करता है, तो वह शैतान का बंदा है और शैतान के बनाए मार्ग पर चलता है, जिससे यहाँ मना किया जा रहा है।
ثَمٰنِيَةَ اَزْوَاجٍۚ مِنَ الضَّأْنِ اثْنَيْنِ وَمِنَ الْمَعْزِ اثْنَيْنِۗ قُلْ ءٰۤالذَّكَرَيْنِ حَرَّمَ اَمِ الْاُنْثَيَيْنِ اَمَّا اشْتَمَلَتْ عَلَيْهِ اَرْحَامُ الْاُنْثَيَيْنِۗ نَبِّـُٔوْنِيْ بِعِلْمٍ اِنْ كُنْتُمْ صٰدِقِيْنَ١٤٣
Ṡamāniya azwāj(in), minaḍ-ḍa'niṡnaini wa minal-ma‘ziṡnain(i), qul āżżakaraini ḥarrama amil-unṡayaini ammasytamalat ‘alaihi arḥāmul-unṡayain(i), nabbi'ūnī bi‘ilmin in kuntum ṣādiqīn(a).
[143]
(अल्लाह ने) आठ नर-मादा (पैदा किए)। भेड़ में से दो और बकरी में से दो। आप उनसे पूछिए कि क्या अल्लाह ने दोनों नर हराम किए हैं अथवा दोनों मादा या उसे जो इन दोनों मादा के पेट में हो? मुझे किसी ज्ञान के आधार पर बताओ, यदि तुम सच्चे हो।
وَمِنَ الْاِبِلِ اثْنَيْنِ وَمِنَ الْبَقَرِ اثْنَيْنِۗ قُلْ ءٰۤالذَّكَرَيْنِ حَرَّمَ اَمِ الْاُنْثَيَيْنِ اَمَّا اشْتَمَلَتْ عَلَيْهِ اَرْحَامُ الْاُنْثَيَيْنِۗ اَمْ كُنْتُمْ شُهَدَاۤءَ اِذْ وَصّٰىكُمُ اللّٰهُ بِهٰذَاۚ فَمَنْ اَظْلَمُ مِمَّنِ افْتَرٰى عَلَى اللّٰهِ كَذِبًا لِّيُضِلَّ النَّاسَ بِغَيْرِ عِلْمٍۗ اِنَّ اللّٰهَ لَا يَهْدِى الْقَوْمَ الظّٰلِمِيْنَ ࣖ١٤٤
Wa minal-ibiliṡnaini wa minal-baqariṡnain(i), qul āżżakaraini ḥarrama amil-unṡayaini ammasytamalat ‘alaihi arḥāmul-unṡayain(i), am kuntum syuhadā'a iż waṣṣākumullāhu bihāżā, faman aẓlamu mimmaniftarā ‘alallāhi każibal liyuḍillan-nāsa bigairi ‘ilm(in), innallāha lā yahdil-qaumaẓ-ẓālimīn(a).
[144]
और ऊँट में से दो तथा गाय में से दो। आप पूछिए कि क्या अल्लाह ने दोनों नर हराम किए हैं अथवा दोनों मादा या उसे जो दोनों मादा के पेट में हो? क्या तुम उस समय उपस्थित थे, जब अल्लाह ने तुम्हें इसका आदेश दिया था? फिर उससे बड़ा अत्याचारी कौन होगा, जो अल्लाह पर झूठ गढ़े ताकि लोगों को बिना किसी ज्ञान के गुमराह करे? निश्चय अल्लाह अत्याचारियों को सत्य का मार्ग नहीं दिखाता।
قُلْ لَّآ اَجِدُ فِيْ مَآ اُوْحِيَ اِلَيَّ مُحَرَّمًا عَلٰى طَاعِمٍ يَّطْعَمُهٗٓ اِلَّآ اَنْ يَّكُوْنَ مَيْتَةً اَوْ دَمًا مَّسْفُوْحًا اَوْ لَحْمَ خِنْزِيْرٍ فَاِنَّهٗ رِجْسٌ اَوْ فِسْقًا اُهِلَّ لِغَيْرِ اللّٰهِ بِهٖۚ فَمَنِ اضْطُرَّ غَيْرَ بَاغٍ وَّلَا عَادٍ فَاِنَّ رَبَّكَ غَفُوْرٌ رَّحِيْمٌ١٤٥
Qul lā ajidu fīmā ūḥiya ilayya muḥarraman ‘alā ṭā‘imiy yaṭ‘amuhū illā ay yakūna maitatan au damam masfūḥan au laḥma khinzīrin fa innahū rijsun au fisqan uhilla ligairillāhi bih(ī), famaniḍṭurra gaira bāgiw wa lā ‘ādin fa inna rabbaka gafūrur raḥīm(un).
[145]
(ऐ नबी!) आप कह दें कि मेरी ओर जो वह़्य (प्रकाशना) की गई है, उसमें मैं किसी खाने वाले पर, कोई चीज़ जो वह खाना चाहे, हराम नहीं पाता, सिवाय इसके कि मुरदार94 हो या बहता हुआ रक्त हो या सूअर का मांस हो; क्योंकि वह निश्चय ही नापाक है, या अवैध हो, जिसे अल्लाह के सिवा दूसरे के नाम पर ज़बह किया गया हो। परंतु जो विवश हो जाए (तो वह खा सकता है) यदि वह विद्रोही तथा सीमा लाँघने वाला न हो।95 निःसंदेह आपका पालनहार अति क्षमा करने वाला, अत्यंत दयावान् है।
94. अर्थात धर्म विधान अनुसार वध न किया गया हो। 95. अर्थात कोई भूख से विवश हो जाए, तो अपनी प्राण रक्षा के लिए इन प्रतिबंधों के साथ ह़राम खा ले, तो अल्लाह उसे क्षमा कर देगा।
وَعَلَى الَّذِيْنَ هَادُوْا حَرَّمْنَا كُلَّ ذِيْ ظُفُرٍۚ وَمِنَ الْبَقَرِ وَالْغَنَمِ حَرَّمْنَا عَلَيْهِمْ شُحُوْمَهُمَآ اِلَّا مَا حَمَلَتْ ظُهُوْرُهُمَآ اَوِ الْحَوَايَآ اَوْ مَا اخْتَلَطَ بِعَظْمٍۗ ذٰلِكَ جَزَيْنٰهُمْ بِبَغْيِهِمْۚ وَاِنَّا لَصٰدِقُوْنَ١٤٦
Wa ‘alal-lażīna hādū ḥarramnā kulla żī ẓufur(in), wa minal-baqari wal-ganami ḥarramnā ‘alaihim syuḥūmahumā illā mā ḥamalat ẓuhūruhumā awil-ḥawāyā au makhtalaṭa bi‘aẓm(in), żālika jazaināhum bibagyihim, wa innā laṣādiqūn(a).
[146]
तथा हमने यहूदियों पर नाखून वाले96 जानवर ह़राम कर दियए थे और उनपर गाय एवं बकरी की चर्बियाँ भी हराम कर दी97 थीं। परंतु जो दोनों की पीठों या आँतों से लगी हों अथवा जो किसी हड्डी से मिली हुई हो (हलाल है)। हमने उन्हें यह बदला98 उनकी अवज्ञा के कारण दिया था। तथा निश्चय ही हम सच्चे हैं।
96. अर्थात जिनकी उँगलियाँ फटी हुई न हों, जैसे ऊँट, शुतुरमुर्ग, तथा बत्तख़ इत्यादि। (इब्ने कसीर) 97. ह़दीस में है कि नबी (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) ने कहा : यहूदियों पर अल्लाह की धिक्कार हो! जब चर्बियाँ वर्जित की गईं, तो उन्हें पिघलाकर उनका मूल्य खा गए। (बुख़ारी : 2236) 98. देखिए : सूरत आल-इमरान, आयत : 93 तथा सूरतुन-निसा, आयत :160।
فَاِنْ كَذَّبُوْكَ فَقُلْ رَّبُّكُمْ ذُوْ رَحْمَةٍ وَّاسِعَةٍۚ وَلَا يُرَدُّ بَأْسُهٗ عَنِ الْقَوْمِ الْمُجْرِمِيْنَ١٤٧
Fa in każżabūka faqur rabbukum żū raḥmatiw wāsi‘ah(tin), wa lā yuraddu ba'suhū ‘anil-qaumil-mujrimīn(a).
[147]
फिर (ऐ नबी!) यदि ये लोग आपको झुठलाएँ, तो कह दें कि तुम्हारा पालनहार व्यापक दया का मालिक है तथा उसकी यातना को अपराधियों से फेरा नहीं जा सकेगा।
سَيَقُوْلُ الَّذِيْنَ اَشْرَكُوْا لَوْ شَاۤءَ اللّٰهُ مَآ اَشْرَكْنَا وَلَآ اٰبَاۤؤُنَا وَلَا حَرَّمْنَا مِنْ شَيْءٍۗ كَذٰلِكَ كَذَّبَ الَّذِيْنَ مِنْ قَبْلِهِمْ حَتّٰى ذَاقُوْا بَأْسَنَاۗ قُلْ هَلْ عِنْدَكُمْ مِّنْ عِلْمٍ فَتُخْرِجُوْهُ لَنَاۗ اِنْ تَتَّبِعُوْنَ اِلَّا الظَّنَّ وَاِنْ اَنْتُمْ اِلَّا تَخْرُصُوْنَ١٤٨
Sayaqūlul-lażīna asyrakū lau syā'allāhu mā asyraknā wa lā ābā'unā wa lā ḥarramnā min syai'(in), każālika każżabal-lażīna min qablihim ḥattā żāqū ba'sanā, qul hal ‘indakum min ‘ilmin fa tukhrijūhu lanā, in tattabi‘ūna illaẓ-ẓanna wa in antum illā takhruṣūn(a).
[148]
बहुदेववादी अवश्य कहेंगे कि यदि अल्लाह चाहता, तो हम तथा हमारे पूर्वज (अल्लाह का) साझी न बनाते और न हम किसी चीज़ को हराम ठहराते। ऐसे ही इनसे पहले के लोगों ने भी झुठलाया था, तो उन्हें हमारी यातना का स्वाद चखना पड़ा। (ऐ नबी!) उनसे पूछिए कि क्या तुम्हारे पास (इस विषय में) कोई ज्ञान है, जिसे तुम हमारे समक्ष प्रस्तुत कर सको? तुम तो केवल अनुमान पर चलते हो और केवल अटकल से काम लेते हो।
قُلْ فَلِلّٰهِ الْحُجَّةُ الْبَالِغَةُۚ فَلَوْ شَاۤءَ لَهَدٰىكُمْ اَجْمَعِيْنَ١٤٩
Qul fa lillāhil-ḥujjatul-bāligah(tu), fa lau syā'a lahadākum ajma‘īn(a).
[149]
(ऐ नबी!) आप कह दें कि पूर्ण तर्क तो अल्लाह ही का है। सो यदि वह चाहता, तो तुम सबको सीधे मार्ग पर लगा देता।99
99. परंतु उसने इसे लोगों को समझ-बूझ देकर प्रत्येक दशा का एक परिणाम निर्धारित कर दिया है। और सत्यासत्य दोनों की राहें खोल दी हैं। अब जो व्यक्ति जो राह चाहे, अपना ले और अब यह कहना अज्ञानता की बात है कि यदि अल्लाह चाहता तो हम संमार्ग पर होते।
قُلْ هَلُمَّ شُهَدَاۤءَكُمُ الَّذِيْنَ يَشْهَدُوْنَ اَنَّ اللّٰهَ حَرَّمَ هٰذَاۚ فَاِنْ شَهِدُوْا فَلَا تَشْهَدْ مَعَهُمْۚ وَلَا تَتَّبِعْ اَهْوَاۤءَ الَّذِيْنَ كَذَّبُوْا بِاٰيٰتِنَا وَالَّذِيْنَ لَا يُؤْمِنُوْنَ بِالْاٰخِرَةِ وَهُمْ بِرَبِّهِمْ يَعْدِلُوْنَ ࣖ١٥٠
Qul halumma syuhadā'akumul-lażīna yasyhadūna annallāha ḥarrama hāżā, fa in syahidū falā tasyhad ma‘ahum, wa lā tattabi‘ ahwā'al-lażīna każżabū bi'āyātinā wal-lażīna lā yu'minūna bil-ākhirati wa hum birabbihim ya‘dilūn(a).
[150]
आप कह दें कि अपने गवाहों को लाओ100, जो गवाही दें कि इसे अल्लाह ही ने हराम ठहराया है। फिर यदि वे गवाही दें, तो आप उनकी गवाही को न मानें। और उन लोगों की इच्छाओं पर न चलें, जिन्होंने हमारी आयतों को झुठलाया और जो आख़िरत पर विश्वास नहीं रखते तथा दूसरों को अपने पालनहार का समकक्ष ठहराते हैं।
100. ह़दीस में है कि सबसे बड़ा पाप अल्लाह का साझी बनाना तथा माता-पिता के साथ बुरा व्यवहार करना और झूठी शपथ लेना है। (तिर्मिज़ी : 3020, यह ह़दीस ह़सन है।)
۞ قُلْ تَعَالَوْا اَتْلُ مَا حَرَّمَ رَبُّكُمْ عَلَيْكُمْ اَلَّا تُشْرِكُوْا بِهٖ شَيْـًٔا وَّبِالْوَالِدَيْنِ اِحْسَانًاۚ وَلَا تَقْتُلُوْٓا اَوْلَادَكُمْ مِّنْ اِمْلَاقٍۗ نَحْنُ نَرْزُقُكُمْ وَاِيَّاهُمْ ۚوَلَا تَقْرَبُوا الْفَوَاحِشَ مَا ظَهَرَ مِنْهَا وَمَا بَطَنَۚ وَلَا تَقْتُلُوا النَّفْسَ الَّتِيْ حَرَّمَ اللّٰهُ اِلَّا بِالْحَقِّۗ ذٰلِكُمْ وَصّٰىكُمْ بِهٖ لَعَلَّكُمْ تَعْقِلُوْنَ١٥١
Qul ta‘ālau atlu mā ḥarrama rabbukum ‘alaikum allā tusyrikū bihī syai'aw wa bil-wālidaini iḥsānā(n), wa lā taqtulū aulādakum min imlāq(in), naḥnu narzuqukum wa iyyāhum, wa lā taqrabul-fawāḥisya mā ẓahara minhā wa mā baṭan(a), wa lā taqtulun-nafsal-latī ḥarramallāhu illā bil-ḥaqq(i), żālikum waṣṣākum bihī la‘allakum ta‘qilūn(a).
[151]
आप उनसे कह दें कि आओ, मैं तुम्हें (आयतें) पढ़कर सुना दूँ कि तुमपर, तुम्हारे पालनहार ने क्या हराम किया है? वह यह है कि किसी चीज़ को अल्लाह का साझी न बनाओ और माता-पिता के साथ उपकार करो तथा निर्धनता के भय से अपनी संतानों की हत्या न करो। हम तुम्हें रोज़ी देते हैं और उन्हें भी देंगे। और निर्लज्जता की बातों के निकट भी न जाओ, खुली हों अथवा छिपी। और किसी प्राणी की हत्य न करो, जिस (की हत्या) को अल्लाह ने हराम ठहराया हो, सिवाय इसके कि उसका कोई उचित कारण101 हो। ये बातें हैं, जिनकी अल्लाह ने तुम्हें ताकीद की है, ताकि तुम समझो।
101. सह़ीह़ ह़दीस में है कि किसी मुसलमान का खून तीन कारणों के सिवा अवैध है : 1. किसी ने विवाहित होकर व्यभिचार किया हो। 2. किसी मुसलमान को जान-बूझ कर अवैध मार डाला हो। 3. इस्लाम से फिर गया हो और अल्लाह तथा उसके रसूल से युद्ध करने लगे। (सह़ीह़ मुस्लिम, ह़दीस संख्या :1676)
وَلَا تَقْرَبُوْا مَالَ الْيَتِيْمِ اِلَّا بِالَّتِيْ هِيَ اَحْسَنُ حَتّٰى يَبْلُغَ اَشُدَّهٗ ۚوَاَوْفُوا الْكَيْلَ وَالْمِيْزَانَ بِالْقِسْطِۚ لَا نُكَلِّفُ نَفْسًا اِلَّا وُسْعَهَاۚ وَاِذَا قُلْتُمْ فَاعْدِلُوْا وَلَوْ كَانَ ذَا قُرْبٰىۚ وَبِعَهْدِ اللّٰهِ اَوْفُوْاۗ ذٰلِكُمْ وَصّٰىكُمْ بِهٖ لَعَلَّكُمْ تَذَكَّرُوْنَۙ١٥٢
Wa lā taqrabū mālal-yatīmi illā bil-latī hiya aḥsanu ḥattā yabluga asyuddah(ū), wa auful-kaila wal-mīzāna bil-qisṭ(i), lā nukallifu nafsan illā wus‘ahā, wa iżā qultum fa‘dilū wa lau kāna żā qurbā, wa bi‘ahdillāhi aufū, żālikum waṣṣākum bihī la‘allakum tażakkarūn(a).
[152]
और अनाथ के धन के पास न जाओ, परंतु ऐसे ढंग से जो उचित हो। यहाँ तक कि वह अपनी युवा अवस्था को पहुँच जाए। तथा नाप-तौल न्याय के साथ पूरा करो। हम किसी प्राणी पर उसकी शक्ति से अधिक बोझ नहीं डालते। और जब बोलो, तो न्याय की बात बोलो, यद्यपि मामला किसी निकटवर्ती का ही क्यों न हो। और अल्लाह का वचन पूरा करो। उसने तुम्हें इन बातों की ताकीद की है, ताकि तुम याद रखो।
وَاَنَّ هٰذَا صِرَاطِيْ مُسْتَقِيْمًا فَاتَّبِعُوْهُ ۚوَلَا تَتَّبِعُوا السُّبُلَ فَتَفَرَّقَ بِكُمْ عَنْ سَبِيْلِهٖ ۗذٰلِكُمْ وَصّٰىكُمْ بِهٖ لَعَلَّكُمْ تَتَّقُوْنَ١٥٣
Wa anna hāżā ṣirāṭī mustaqīman fattabi‘ūh(u), wa lā tattabi‘us-subula fa tafarraqa bikum ‘an sabīlih(ī), żālikum waṣṣākum bihī la‘allakum tattaqūn(a).
[153]
तथा यह कि यही मेरा सीधा मार्ग102 है। सो तुम उसी पर चलो। और दूसरी राहों पर न चलो, अन्यथा वे तुम्हें उसकी राह से हटाकर इधर-उधर कर देंगे। यही वह बात है, जिसकी ताकीद उसने तुम्हें की है, ताकि तुम उसके आज्ञाकारी रहो।
102. नबी (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) ने एक लकीर बनाई, और कहा : यह अल्लाह की राह है। फिर दाएँ-बाएँ कई लकीरें खींचीं और कहा : इन पर शैतान है, जो इनकी ओर बुलाता है और यही आयत पढ़ी। (मुसनद अह़मद : 431)
ثُمَّ اٰتَيْنَا مُوْسَى الْكِتٰبَ تَمَامًا عَلَى الَّذِيْٓ اَحْسَنَ وَتَفْصِيْلًا لِّكُلِّ شَيْءٍ وَّهُدًى وَّرَحْمَةً لَّعَلَّهُمْ بِلِقَاۤءِ رَبِّهِمْ يُؤْمِنُوْنَ ࣖ١٥٤
Ṡumma ātainā mūsal-kitāba tamāman ‘alal-lażī aḥsana wa tafṣīlal likulli syai'iw wa hudaw wa raḥmatal la‘allahum biliqā'i rabbihim yu'minūn(a).
[154]
फिर हमने मूसा को पुस्तक प्रदान की, उनके अच्छे काम के लिए बदला के रूप में अनुग्रह को पूरा करने के लिए, तथा प्रत्येक वस्तु के विवरण और मार्गदर्शन एवं दया के लिए। ताकि वे अपने पालनहार से मिलने पर मिलने पर ईमान ले आएँ।
وَهٰذَا كِتٰبٌ اَنْزَلْنٰهُ مُبٰرَكٌ فَاتَّبِعُوْهُ وَاتَّقُوْا لَعَلَّكُمْ تُرْحَمُوْنَۙ١٥٥
Wa hāżā kitābun anzalnāhu mubārakun fattabi‘ūhu wattaqū la‘allakum turḥamūn(a).
[155]
तथा यह एक बरकत वाली पुस्तक है, जिसे हमने उतारा है। अतः इसका अनुसरण करो103 और अल्लाह से डरते रहो, ताकि तुमपर दया की जाए।
103. अर्थात जब अह्ले किताब सहित पूरे संसार वासियों के लिए प्रलय तक इसी क़ुरआन का अनुसरण ही अल्लाह की दया का साधन है।
اَنْ تَقُوْلُوْٓا اِنَّمَآ اُنْزِلَ الْكِتٰبُ عَلٰى طَاۤىِٕفَتَيْنِ مِنْ قَبْلِنَاۖ وَاِنْ كُنَّا عَنْ دِرَاسَتِهِمْ لَغٰفِلِيْنَۙ١٥٦
An taqūlū innamā unzilal-kitābu ‘alā ṭā'ifataini min qablinā, wa in kunnā ‘an dirāsatihim lagāfilīn(a).
[156]
ताकि (ऐ अरब वासियो!) तुम यह न कहो कि पुस्तक तो हमसे पहले के दो समुदायों (यहूदी तथा ईसाई) पर उतारी गई थी और निश्चय हम उनके पढ़ने-पढ़ाने से अनजान थे।
اَوْ تَقُوْلُوْا لَوْ اَنَّآ اُنْزِلَ عَلَيْنَا الْكِتٰبُ لَكُنَّآ اَهْدٰى مِنْهُمْۚ فَقَدْ جَاۤءَكُمْ بَيِّنَةٌ مِّنْ رَّبِّكُمْ وَهُدًى وَّرَحْمَةٌ ۚفَمَنْ اَظْلَمُ مِمَّنْ كَذَّبَ بِاٰيٰتِ اللّٰهِ وَصَدَفَ عَنْهَا ۗسَنَجْزِى الَّذِيْنَ يَصْدِفُوْنَ عَنْ اٰيٰتِنَا سُوْۤءَ الْعَذَابِ بِمَا كَانُوْا يَصْدِفُوْنَ١٥٧
Au taqūlū lau annā unzila ‘alainal-kitābu lakunnā ahdā minhum, faqad jā'akum bayyinatum mir rabbikum wa hudaw wa raḥmah(tun), faman aẓlamu mimman każżaba bi'āyātillāhi wa ṣadafa ‘anhā, sanajzil-lażīna yaṣdifūna ‘an āyātinā sū'al-‘ażābi bimā kānū yaṣdifūn(a).
[157]
या यह न कहो कि यदि हमपर पुस्तक उतारी गई होती, तो हम उनसे भी अधिक सीधी राह पर होते। तो लो, अब तुम्हारे पास तुम्हारे पालनहार की ओर से एक खुला तर्क और मार्गदर्शन एवं दया आ चुकी है। अतः उससे बड़ा अत्यचारी कौन होगा, जो अल्लाह की आयतों को मिथ्या कहे और उनसे कतरा जाए? और जो लोग हमारी आयतों से कतराते हैं, हम उनके कतराने के बदले उन्हें कड़ी यातना देंगे।
هَلْ يَنْظُرُوْنَ اِلَّآ اَنْ تَأْتِيَهُمُ الْمَلٰۤىِٕكَةُ اَوْ يَأْتِيَ رَبُّكَ اَوْ يَأْتِيَ بَعْضُ اٰيٰتِ رَبِّكَ ۗيَوْمَ يَأْتِيْ بَعْضُ اٰيٰتِ رَبِّكَ لَا يَنْفَعُ نَفْسًا اِيْمَانُهَا لَمْ تَكُنْ اٰمَنَتْ مِنْ قَبْلُ اَوْ كَسَبَتْ فِيْٓ اِيْمَانِهَا خَيْرًاۗ قُلِ انْتَظِرُوْٓا اِنَّا مُنْتَظِرُوْنَ١٥٨
Hal yanẓurūna illā an ta'tiyahumul-malā'ikatu au ya'tiya rabbuka au ya'tiya ba‘ḍu āyāti rabbik(a), yauma ya'tī ba‘ḍu āyāti rabbika lā yanfa‘u nafsan īmānuhā lam takun āmanat min qablu au kasabat fī īmānihā khairā(n), qulintaẓirū innā muntaẓirūn(a).
[158]
क्या वे इसी बात की प्रतीक्षा कर रहे हैं कि उनके पास फ़रिश्ते आ जाएँ, या स्वयं उनका पालनहार आ जाए या आपके पालनहार की कोई निशानी आ जाए?104 जिस दिन आपके पालनहार की कोई निशानी आ जाएगी, तो किसी प्राणी को उसका ईमान लाभ नहीं देगा, जो पहले ईमान न लाया हो या अपने ईमान की हालत में कोई सत्कर्म न किया हो। आप कह दें कि तुम प्रतीक्षा करो, हम भी प्रतीक्षा कर रहे हैं।
104. आयत का भावार्थ यह है कि इन सभी तर्कों के प्रस्तुत किए जाने पर भी यदि ये ईमान नहीं लाते, तो क्या उस समय ईमान लाएँगे जब फ़रिश्ते उनके प्राण निकालने आएँगे? या प्रलय के दिन जब अल्लाह इनका निर्णय करने आएगा? या जब प्रलय की कुछ निशानियाँ आ जाएँगी? जैसे सूर्य का पश्चिम से निकल आना। सह़ीह़ बुखारी की ह़दीस है कि आप सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ने कहा कि प्रलय उस समय तक नहीं आएगी जब तक कि सूर्य पश्चिम से नहीं निकलेगा। और जब निकलेगा, तो जो देखेंगे सभी ईमान ले आएँगे। और यह वह समय होगा कि किसी प्रणी को उसका ईमान लाभ नहीं देगा। फिर आपने यही आयत पढ़ी। (सह़ीह़ बुख़ारी, ह़दीस : 4636)
اِنَّ الَّذِيْنَ فَرَّقُوْا دِيْنَهُمْ وَكَانُوْا شِيَعًا لَّسْتَ مِنْهُمْ فِيْ شَيْءٍۗ اِنَّمَآ اَمْرُهُمْ اِلَى اللّٰهِ ثُمَّ يُنَبِّئُهُمْ بِمَا كَانُوْا يَفْعَلُوْنَ١٥٩
Innal-lażīna farraqū dīnahum wa kānū syiya‘al lasta minhum fī syai'(in), innamā amruhum ilallāhi ṡumma yunabbi'uhum bimā kānū yaf‘alūn(a).
[159]
जिन लोगों ने अपने धर्म के टुकड़े-टुकड़े कर लिए और विभिन्न गिरोहों में बट गए, आपका उनसे कोई संबंध नहीं। उनका मामला अल्लाह के हवाले है। फिर वह उन्हें बता देगा कि वे क्या करते रहे हैं।
مَنْ جَاۤءَ بِالْحَسَنَةِ فَلَهٗ عَشْرُ اَمْثَالِهَا ۚوَمَنْ جَاۤءَ بِالسَّيِّئَةِ فَلَا يُجْزٰٓى اِلَّا مِثْلَهَا وَهُمْ لَا يُظْلَمُوْنَ١٦٠
Man jā'a bil-ḥasanati fa lahū ‘asyru amṡālihā, wa man jā'a bis-sayyi'ati falā yujzā illā miṡlahā wa hum lā yuẓlamūn(a).
[160]
जो (क़ियामत के दिन) एक नेकी लेकर आएगा, उसे उसका दस गुना बदला मिलेगा और जो एक बुराई लेकर आएगा, उसे उसका बस उतना ही बदला दिया जाएगा और उनपर कोई अत्याचार नहीं किया जाएगा।
قُلْ اِنَّنِيْ هَدٰىنِيْ رَبِّيْٓ اِلٰى صِرَاطٍ مُّسْتَقِيْمٍ ەۚ دِيْنًا قِيَمًا مِّلَّةَ اِبْرٰهِيْمَ حَنِيْفًاۚ وَمَا كَانَ مِنَ الْمُشْرِكِيْنَ١٦١
Qul innanī hadānī rabbī ilā ṣirāṭim mustaqīm(in), dīnan qiyamam millata ibrāhīma ḥanīfā(n), wa mā kāna minal-musyrikīn(a).
[161]
(ऐ नबी!) आप कह दें कि यकीनन मेरे पालनहार ने मुझे सीधी राह दिखा दी है। वही सीधा धर्म, जो एकेश्वरवादी इबराहीम का धर्म था। और वह बहुदेववादियों में से न था।
قُلْ اِنَّ صَلَاتِيْ وَنُسُكِيْ وَمَحْيَايَ وَمَمَاتِيْ لِلّٰهِ رَبِّ الْعٰلَمِيْنَۙ١٦٢
Qul inna ṣalātī wa nusukī wa maḥyāya wa mamātī lillāhi rabbil-‘ālamīn(a).
[162]
आप कह दें कि निश्चय मेरी नमाज़, मेरी क़ुरबानी तथा मेरा जीवन-मरण सारे संसारों के पालनहार अल्लाह के लिए हैl
لَا شَرِيْكَ لَهٗ ۚوَبِذٰلِكَ اُمِرْتُ وَاَنَا۠ اَوَّلُ الْمُسْلِمِيْنَ١٦٣
Lā syarīka lah(ū), wa biżālika umirtu wa ana awwalul-muslimīn(a).
[163]
उसका कोई साझी नहीं। मुझे इसी का आदेश दिया गया है। और मैं सबसे पहला मुसलमान हूँ।
قُلْ اَغَيْرَ اللّٰهِ اَبْغِيْ رَبًّا وَّهُوَ رَبُّ كُلِّ شَيْءٍۗ وَلَا تَكْسِبُ كُلُّ نَفْسٍ اِلَّا عَلَيْهَاۚ وَلَا تَزِرُ وَازِرَةٌ وِّزْرَ اُخْرٰىۚ ثُمَّ اِلٰى رَبِّكُمْ مَّرْجِعُكُمْ فَيُنَبِّئُكُمْ بِمَا كُنْتُمْ فِيْهِ تَخْتَلِفُوْنَ١٦٤
Qul agairallāhi abgī rabbaw wa huwa rabbu kulli syai'(in), wa lā taksibu kullu nafsin illā ‘alaihā, wa lā taziru wāziratuw wizra ukhrā, ṡumma ilā rabbikum marji‘ukum fa yunabbi'ukum bimā kuntum fīhi takhtalifūn(a).
[164]
आप (उनसे) कह दें कि क्या मैं अल्लाह के सिवा किसी और पालनहार की खोज करूँ? जबकि वह प्रत्येक वस्तु का पालनहार है। तथा जो भी प्राणी कोई कार्य करेगा, उसका फल वही भोगेगा। और कोई किसी दूसरे का बोझ नहीं उठाएगा। फिर (अंततः) तुम्हें अपने पालनहार के पास ही जाना है। उस समय वह तुम्हें बता देगा, जिसमें तुम मतभेद किया करते थे।
وَهُوَ الَّذِيْ جَعَلَكُمْ خَلٰۤىِٕفَ الْاَرْضِ وَرَفَعَ بَعْضَكُمْ فَوْقَ بَعْضٍ دَرَجٰتٍ لِّيَبْلُوَكُمْ فِيْ مَآ اٰتٰىكُمْۗ اِنَّ رَبَّكَ سَرِيْعُ الْعِقَابِۖ وَاِنَّهٗ لَغَفُوْرٌ رَّحِيْمٌ ࣖ١٦٥
Wa huwal-lażī ja‘alakum khalā'ifal-arḍi wa rafa‘a ba‘ḍakum fauqa ba‘ḍin darajātil liyabluwakum fī mā ātākum, inna rabbaka sarī‘ul-‘iqāb(i), wa innahū lagafūrur raḥīm(un).
[165]
और वही है, जिसने तुम्हें धरती में उत्तराधिकारी बनाया और तुममें से कुछ लोगों के दरजे दूसरे लोगों की अपेक्षा ऊँचे रखे। ताकि उसने तुम्हें जो कुछ दिया है, उसमें तुम्हारी परीक्षा ले।105 निश्चय आपका पालनहार शीघ्र ही दंड देने वाला106 है। और निश्चय वह बहुत क्षमा करने वाला, अत्यंत दयावान् है।
105. नबी सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ने कहा : काबा के रब की क़सम! वह क्षति में पड़ गया। अबूज़र (रज़ियल्लाहु अन्हु) ने कहा : कौन? आप (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) ने कहा : धनी। परंतु जो दान करता रहता है। (सह़ीह़ बुख़ारी : 6638, सह़ीह़ मुस्लिम : 990) 106. अर्थात अवज्ञाकारियों को।