Surah Al-Ma`idah

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بِسْمِ اللّٰهِ الرَّحْمٰنِ الرَّحِيْمِ
يٰٓاَيُّهَا الَّذِيْنَ اٰمَنُوْٓا اَوْفُوْا بِالْعُقُوْدِۗ اُحِلَّتْ لَكُمْ بَهِيْمَةُ الْاَنْعَامِ اِلَّا مَا يُتْلٰى عَلَيْكُمْ غَيْرَ مُحِلِّى الصَّيْدِ وَاَنْتُمْ حُرُمٌۗ اِنَّ اللّٰهَ يَحْكُمُ مَا يُرِيْدُ١
Yā ayyuhal-lażīna āmanū aufū bil-‘uqūd(i), uḥillat lakum bahīmatul-an‘āmi illā mā yutlā ‘alaikum gaira muḥilliṣ-ṣaidi wa antum ḥurum(un), innallāha yaḥkumu mā yurīd(u).
[1] ऐ लोगो जो ईमान लाए हो! प्रतिज्ञाओं (अनुबंधों)1 को पूरा करो। तुम्हारे लिए चौपाए जानवर (मवेशी) ह़लाल किए गए हैं, सिवाय उनके जो तुमपर पढ़े जाएँगे, इस हाल में कि शिकार को हलाल जानने वाले न हो, जबकि तुम एह़राम2 की हालत में हो। बेशक अल्लाह फैसला करता है जो चाहता है।
1. ये अनुबंध धार्मिक आदेशों से संबंधित हों अथवा आपस के हों। 2. अर्थात जब ह़ज्ज अथवा उमरे का एह़राम बाँधे रहो।

يٰٓاَيُّهَا الَّذِيْنَ اٰمَنُوْا لَا تُحِلُّوْا شَعَاۤىِٕرَ اللّٰهِ وَلَا الشَّهْرَ الْحَرَامَ وَلَا الْهَدْيَ وَلَا الْقَلَاۤىِٕدَ وَلَآ اٰۤمِّيْنَ الْبَيْتَ الْحَرَامَ يَبْتَغُوْنَ فَضْلًا مِّنْ رَّبِّهِمْ وَرِضْوَانًا ۗوَاِذَا حَلَلْتُمْ فَاصْطَادُوْا ۗوَلَا يَجْرِمَنَّكُمْ شَنَاٰنُ قَوْمٍ اَنْ صَدُّوْكُمْ عَنِ الْمَسْجِدِ الْحَرَامِ اَنْ تَعْتَدُوْاۘ وَتَعَاوَنُوْا عَلَى الْبِرِّ وَالتَّقْوٰىۖ وَلَا تَعَاوَنُوْا عَلَى الْاِثْمِ وَالْعُدْوَانِ ۖوَاتَّقُوا اللّٰهَ ۗاِنَّ اللّٰهَ شَدِيْدُ الْعِقَابِ٢
Yā ayyuhal-lażīna āmanū lā tuḥillū sya‘ā'irallāhi wa lasy-syahral-ḥarāma wa lal-hadya wa lal-qalā'ida wa lā āmmīnal-baital-ḥarāma yabtagūna faḍlam mir rabbihim wa riḍwānā(n), wa iżā ḥalaltum faṣṭādū, wa lā yajrimannakum syana'ānu qaumin an ṣaddūkum ‘anil- asjidil-ḥarāmi an ta‘tadū, wa ta‘āwanū ‘alal-birri wat-taqwā, wa lā ta‘āwanū ‘alal-iṡmi wal-‘udwān(i), wattaqullāh(a), innallāha syadīdul-‘iqāb(i).
[2] ऐ ईमान वालो! अल्लाह की निशानियों3 का अनादर न करो, न सम्मानित महीने4 का, न ह़रम की क़ुर्बानी का, न पट्टे वाले जानवरों का, और न उन लोगों का जो अपने पालनहार के अनुग्रह और उसकी प्रसन्नता की खोज में सम्मानित घर (काबा) की ओर जा रहे हों। और जब एह़राम खोल दो, तो शिकार करो। और किसी गिरोह की दुश्मनी, इस कारण कि उन्होंने तुम्हें मस्जिदे-ह़राम से रोका था, तुम्हें इस बात पर न उभारे कि अत्याचार करने लगो। तथा नेकी और परहेज़गारी पर एक-दूसरे का सहयोग करो और पाप तथा अत्याचार पर एक-दूसरे की सहायता न करो। और अल्लाह से डरो। निःसंदेह अल्लाह कड़ी यातना देने वाला है।
3. अल्लाह की उपासना के लिए निर्धारित चिह्नों का। 4. अर्थात ज़ुल-क़ादा, ज़ुल-ह़िज्जा, मुह़र्रम तथा रजब के मासों में युद्ध न करो।

حُرِّمَتْ عَلَيْكُمُ الْمَيْتَةُ وَالدَّمُ وَلَحْمُ الْخِنْزِيْرِ وَمَآ اُهِلَّ لِغَيْرِ اللّٰهِ بِهٖ وَالْمُنْخَنِقَةُ وَالْمَوْقُوْذَةُ وَالْمُتَرَدِّيَةُ وَالنَّطِيْحَةُ وَمَآ اَكَلَ السَّبُعُ اِلَّا مَا ذَكَّيْتُمْۗ وَمَا ذُبِحَ عَلَى النُّصُبِ وَاَنْ تَسْتَقْسِمُوْا بِالْاَزْلَامِۗ ذٰلِكُمْ فِسْقٌۗ اَلْيَوْمَ يَىِٕسَ الَّذِيْنَ كَفَرُوْا مِنْ دِيْنِكُمْ فَلَا تَخْشَوْهُمْ وَاخْشَوْنِۗ اَلْيَوْمَ اَكْمَلْتُ لَكُمْ دِيْنَكُمْ وَاَتْمَمْتُ عَلَيْكُمْ نِعْمَتِيْ وَرَضِيْتُ لَكُمُ الْاِسْلَامَ دِيْنًاۗ فَمَنِ اضْطُرَّ فِيْ مَخْمَصَةٍ غَيْرَ مُتَجَانِفٍ لِّاِثْمٍۙ فَاِنَّ اللّٰهَ غَفُوْرٌ رَّحِيْمٌ٣
Ḥurrimat ‘alaikumul-maitatu wad-damu wa laḥmul-khinzīri wa mā uhilla ligairillāhi bihī wal-munkhaniqatu wal-mauqūżatu wal-mutaraddiyatu wan-naṭīḥatu wa mā akalas-sabu‘u illā mā żakkaitum, wa mā żubiḥa ‘alan-nuṣubi wa an tastaqsimū bil-azlām(i), żālikum fisq(un), al-yauma ya'isal-lażīna kafarū min dīnikum falā takhsyauhum wakhsyaun(i), al-yauma akmaltu lakum dīnakum wa atmamtu ‘alaikum ni‘matī wa raḍītu lakumul-islāma dīnā(n), fa maniḍṭurra fī makhmaṣatin gaira mutajānifil li'iṡm(in), fa innallāha gafūrur raḥīm(un).
[3] तुमपर ह़राम किया गया है मुर्दार,5 (बहता हुआ) रक्त, सूअर का माँस और वह जिसपर (ज़बह करते समय) अल्लाह के अलावा का नाम पुकारा जाए, तथा गला घुटने वाला जानवर, और जिसे चोट लगी हो, तथा गिरने वाला और जिसे सींग लगा हो और जिसे दरिंदे ने खाया हो, परंतु जो तुम (इनमें से) ज़बह6 कर लो। और जो थानों पर ज़बह किया गया हो और यह कि तुम तीरों के साथ भाग्य मालूम करो। यह सब (अल्लाह की) अवज्ञा है। आज वे लोग जिन्होंने कुफ़्र किया, तुम्हारे धर्म से निराश7 हो गए। तो तुम उनसे न डरो, केवल मुझसे डरो। आज8 मैंने तुम्हारे लिए तुम्हारा धर्म परिपूर्ण कर दिया, तथा तुमपर अपनी नेमत पूरी कर दी और तुम्हारे लिए इस्लाम को धर्म के तौर पर पसंद कर लिया। फिर जो व्यक्ति भूख की किसी सूरत में मजूबर कर दिया जाए, इस हाल में कि किसी पाप की ओर झुकाव रखने वाला न हो, तो निःसंदेह अल्लाह अति क्षमाशील, अत्यंत दयावान् है।
5. मुर्दार से अभिप्राय वह पशु है, जिसे धर्म के नियमानुसार ज़बह न किया गया हो। 6. अर्थात जीवित मिल जाए और उसे नियमानुसार ज़बह कर दो। 7. अर्थात इससे कि तुम फिर से मूर्तियों के पुजारी हो जाओगे। 8. सूरतुल-बक़रा आयत संख्या : 28 में कहा गया है कि इबराहीम अलैहिस्सलाम ने यह प्रार्थना की थी कि "इन में से एक आज्ञाकारी समुदाय बना दे"। फिर आयत : 150 में अल्लाह ने कहा कि "अल्लाह चाहता है कि तुमपर अपना पुरस्कार पूरा कर दे।" और यहाँ कहा कि आज अपना पुरस्कार पूरा कर दिया। यह आयत ह़ज्जतुल वदाअ में अरफ़ा के दिन अरफ़ात में उतरी। (सह़ीह बुखारी : 4606) जो नबी सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम का अंतिम ह़ज्ज था, जिसके लग-भग तीन महीने बाद आप संसार से चले गए।

يَسْـَٔلُوْنَكَ مَاذَآ اُحِلَّ لَهُمْۗ قُلْ اُحِلَّ لَكُمُ الطَّيِّبٰتُۙ وَمَا عَلَّمْتُمْ مِّنَ الْجَوَارِحِ مُكَلِّبِيْنَ تُعَلِّمُوْنَهُنَّ مِمَّا عَلَّمَكُمُ اللّٰهُ فَكُلُوْا مِمَّآ اَمْسَكْنَ عَلَيْكُمْ وَاذْكُرُوا اسْمَ اللّٰهِ عَلَيْهِ ۖوَاتَّقُوا اللّٰهَ ۗاِنَّ اللّٰهَ سَرِيْعُ الْحِسَابِ٤
Yas'alūnaka māżā uḥilla lahum, qul uḥilla lakumuṭ-ṭayyibāt(u), wa mā ‘allamtum minal-jawāriḥi mukallibīna tu‘allimūnahunna mimmā ‘allamakumullāhu fa kulū mimmā amsakna ‘alaikum ważkurusmallāhi ‘alaih(i), wattaqullāh(a), innallāha sarī‘ul-ḥisāb(i).
[4] वे आपसे पूछते हैं कि उनके लिए क्या हलाल किया गया है? आप कह दें कि तुम्हारे लिए अच्छी पवित्र चीजें हलाल की गई हैं। और शिकारी जानवरों में से जो तुमने सधाए हैं, (जिन्हें तुम) शिकारी बनाने वाले हो, उन्हें उसमें से सिखाते हो जो अल्लाह ने तुम्हें सिखाया है। तो उसमें से खाओ जो (शिकार) वे तुम्हारे लिए रोक रखें, और उसपर अल्लाह का नाम9 लो। तथा अल्लाह से डरो। निःसंदेह अल्लाह शीघ्र हिसाब लेने वाला है।
9. अर्थात सधाए हुए कुत्ते और बाज़-शिक़रे आदि का शिकार। उनके शिकार के उचित होने के लिए निम्नलिखित दो बातें आवश्यक हैं : 1- उसे बिस्मिल्लाह कह कर छोड़ा गया हो। इसी प्रकार शिकार जीवित हो तो बिस्मिल्लाह कहकर ज़बह किया जाए। 2- उसने शिकार में से कुछ खाया न हो। (बुख़ारी : 5478, मुस्लिम : 1930)

اَلْيَوْمَ اُحِلَّ لَكُمُ الطَّيِّبٰتُۗ وَطَعَامُ الَّذِيْنَ اُوْتُوا الْكِتٰبَ حِلٌّ لَّكُمْ ۖوَطَعَامُكُمْ حِلٌّ لَّهُمْ ۖوَالْمُحْصَنٰتُ مِنَ الْمُؤْمِنٰتِ وَالْمُحْصَنٰتُ مِنَ الَّذِيْنَ اُوْتُوا الْكِتٰبَ مِنْ قَبْلِكُمْ اِذَآ اٰتَيْتُمُوْهُنَّ اُجُوْرَهُنَّ مُحْصِنِيْنَ غَيْرَ مُسٰفِحِيْنَ وَلَا مُتَّخِذِيْٓ اَخْدَانٍۗ وَمَنْ يَّكْفُرْ بِالْاِيْمَانِ فَقَدْ حَبِطَ عَمَلُهٗ ۖوَهُوَ فِى الْاٰخِرَةِ مِنَ الْخٰسِرِيْنَ ࣖ٥
Al-yauma uḥilla lakumuṭ-ṭayyibāt(u), wa ṭa‘āmul-lażīna ūtul-kitāba ḥillul lakum, wa ṭa‘āmukum ḥillul lahum, wal-muḥṣanātu minal-mu'mināti wal-muḥṣanātu minal-lażīna ūtul-kitāba min qablikum iżā ātaitumūhunna ujūrahunna muḥṣinīna gaira musāfiḥīna wa lā muttakhiżī akhdān(in), wa may yakfur bil-īmāni faqad ḥabiṭa ‘amaluh(ū), wa huwa fil-ākhirati minal-khāsirīn(a).
[5] आज तुम्हारे लिए अच्छी पवित्र चीज़ें हलाल कर दी गईं और उन लोगों का खाना तुम्हारे लिए हलाल है जिन्हें किताब दी गई, और तुम्हारा खाना उनके लिए हलाल है, और ईमान वाली औरतों में से पाक-दामन औरतें तथा उन लोगों की पाक-दामन औरतें जिन्हें तुमसे पहले किताब दी गई, जब तुम उन्हें उनके महर दे दो, इस हाल में कि तुम विवाह में लाने वाले हो, व्यभिचार करने वाले नहीं और न चोरी-छिपे याराना करने वाले। और जो ईमान से इनकार करे, तो निश्चय उसका कर्म व्यर्थ हो गया तथा वह आख़िरत में घाटा उठाने वालों में से है।

يٰٓاَيُّهَا الَّذِيْنَ اٰمَنُوْٓا اِذَا قُمْتُمْ اِلَى الصَّلٰوةِ فَاغْسِلُوْا وُجُوْهَكُمْ وَاَيْدِيَكُمْ اِلَى الْمَرَافِقِ وَامْسَحُوْا بِرُءُوْسِكُمْ وَاَرْجُلَكُمْ اِلَى الْكَعْبَيْنِۗ وَاِنْ كُنْتُمْ جُنُبًا فَاطَّهَّرُوْاۗ وَاِنْ كُنْتُمْ مَّرْضٰٓى اَوْ عَلٰى سَفَرٍ اَوْ جَاۤءَ اَحَدٌ مِّنْكُمْ مِّنَ الْغَاۤىِٕطِ اَوْ لٰمَسْتُمُ النِّسَاۤءَ فَلَمْ تَجِدُوْا مَاۤءً فَتَيَمَّمُوْا صَعِيْدًا طَيِّبًا فَامْسَحُوْا بِوُجُوْهِكُمْ وَاَيْدِيْكُمْ مِّنْهُ ۗمَا يُرِيْدُ اللّٰهُ لِيَجْعَلَ عَلَيْكُمْ مِّنْ حَرَجٍ وَّلٰكِنْ يُّرِيْدُ لِيُطَهِّرَكُمْ وَلِيُتِمَّ نِعْمَتَهٗ عَلَيْكُمْ لَعَلَّكُمْ تَشْكُرُوْنَ٦
Yā ayyuhal-lażīna āmanū iżā qumtum ilaṣ-ṣalāti fagsilū wujūhakum wa aidiyakum ilal-marāfiqi wamsaḥū biru'ūsikum wa arjulakum ilal-ka‘bain(i), wa in kuntum junuban faṭṭahharū, wa in kuntum marḍā au ‘alā safarin au jā'a aḥadum minkum minal-gā'iṭi au lāmastumun-nisā'a falam tajidū mā'an fa tayammamū ṣa‘īdan ṭayyiban famsaḥū biwujūhikum wa aidīkum minh(u), mā yurīdullāhu liyaj‘ala ‘alaikum min ḥarajiw wa lākiy yurīdu liyuṭahhirakum wa liyutimma na‘matahū ‘alaikum la‘allakum tasykurūn(a).
[6] ऐ ईमान वालो! जब तुम नमाज़ के लिए उठो, तो अपने चेहरों को और अपने हाथों को कुहनियों समेत धो लो और अपने सिरों का मसह़10 करो तथा अपने पाँवों को टखनों समेत (धो लो)। और यदि तुम जनाबत11 की हालत में हो, तो स्नान कर लो। तथा यदि तुम बीमार हो, अथवा यात्रा में हो, अथवा तुममें से कोई शौचकर्म से आया हो, अथवा तुमने स्त्रियों से सहवास किया हो, फिर कोई पानी न पाओ, तो पाक मिट्टी का क़सद करो और उससे अपने चेहरों तथा हाथों पर मसह 12कर लो। अल्लाह नहीं चाहता कि तुमपर कोई तंगी करे। लेकिन वह चाहता है कि तुम्हें पाक करे और ताकि अपनी नेमत तुमपर पूरी करे, ताकि तुम शुक्र करो।
10. मसह़ का अर्थ है, दोनों हाथ भिगोकर सिर पर फेरना। 11. जनाबत से अभिप्राय वह मलिनता है, जो स्वप्नदोष तथा स्त्री संभोग से होती है। यही आदेश मासिक धर्म तथा प्रसव का भी है।12. ह़दीस में है कि एक यात्रा में आयशा रज़ियल्लाहु अन्हा का हार खो गया, जिसके लिए बैदा के स्थान पर रुकना पड़ा। भोर की नमाज़ के वुज़ु के लिए पानी नहीं मिल सका और यह आयत उतरी। (देखिए : सह़ीह़ बुख़ारी : 4607) मसह़ का अर्थ हाथ फेरना है। तयम्मुम के लि देखिए : सूरतुन-निसा, आयत : 43)

وَاذْكُرُوْا نِعْمَةَ اللّٰهِ عَلَيْكُمْ وَمِيْثَاقَهُ الَّذِيْ وَاثَقَكُمْ بِهٖٓ ۙاِذْ قُلْتُمْ سَمِعْنَا وَاَطَعْنَا ۖوَاتَّقُوا اللّٰهَ ۗاِنَّ اللّٰهَ عَلِيْمٌ ۢبِذَاتِ الصُّدُوْرِ٧
Ważkurū ni‘matallāhi ‘alaikum wa mīṡāqahul-lażī wāṡaqakum bih(ī), iż qultum sami‘nā wa aṭa‘nā, wattaqullāh(a), innallāha ‘alīmum biżātiṣ-ṣudūr(i).
[7] तथा अपने ऊपर अल्लाह की नेमत याद करो और उसका वह वचन जो उसने तुमसे दृढ़ रूप से लिया है, जब तुमने कहा था : "हमने सुना और हमने मान लिया" तथा अल्लाह से डरो। निःसंदेह अल्लाह सीनों की बात को भली-भाँति जानने वाला है।

يٰٓاَيُّهَا الَّذِيْنَ اٰمَنُوْا كُوْنُوْا قَوَّامِيْنَ لِلّٰهِ شُهَدَاۤءَ بِالْقِسْطِۖ وَلَا يَجْرِمَنَّكُمْ شَنَاٰنُ قَوْمٍ عَلٰٓى اَلَّا تَعْدِلُوْا ۗاِعْدِلُوْاۗ هُوَ اَقْرَبُ لِلتَّقْوٰىۖ وَاتَّقُوا اللّٰهَ ۗاِنَّ اللّٰهَ خَبِيْرٌۢ بِمَا تَعْمَلُوْنَ٨
Yā ayyuhal-lażīna āmanū kūnū qawwāmīna lillāhi syuhadā'a bil-qisṭi wa lā yajrimannakum syana'ānu qamin ‘alā allā ta‘dilū, i‘dilū, huwa aqrabu lit-taqwā wattaqullāh(a), innallāha khabīrum bimā ta‘malūn(a).
[8] ऐ ईमान वालो! अल्लाह के लिए मज़बूती से क़ायम रहने वाले, न्याय के साथ गवाही देने वाले बन जाओ। तथा किसी समूह की शत्रुता तुम्हें इस बात पर हरगिज़ न उभारे कि तुम न्याय न करो। न्याय करो, यह तक़्वा (अल्लाह से डरने) के अधिक निकट13 है, और अल्लाह से डरो। निःसंदेह अल्लाह उससे भली-भाँति अवगत है जो तुम करते हो।
13. ह़दीस में है कि नबी सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ने कहा : जो न्याय करते हैं, वे अल्लाह के पास नूर (प्रकाश) के मंच पर उसके दाईं ओर रहेंगे, - और उसके दोनों हाथ दाएँ हैं - जो अपने आदेश तथा अपने परिजनों और जो उनके अधिकार में हो, में न्याय करते हैं। (सह़ीह़ मुस्लिम : 1827)

وَعَدَ اللّٰهُ الَّذِيْنَ اٰمَنُوْا وَعَمِلُوا الصّٰلِحٰتِۙ لَهُمْ مَّغْفِرَةٌ وَّاَجْرٌ عَظِيْمٌ٩
Wa‘adallāhul-lażīna āmanū wa ‘amiluṣ-ṣāliḥāt(i), lahum magfiratuw wa ajrun ‘aẓīm(un).
[9] अल्लाह ने उन लोगों से वादा किया है, जो ईमान लाए तथा उन्होंने सत्कर्म किए कि उनके लिए क्षमादान तथा बड़ा बदला है।

وَالَّذِيْنَ كَفَرُوْا وَكَذَّبُوْا بِاٰيٰتِنَآ اُولٰۤىِٕكَ اَصْحٰبُ الْجَحِيْمِ١٠
Wal-lażīna kafarū wa każżabū bi'āyātinā ulā'ika aṣḥābul-jaḥīm(i).
[10] तथा जिन लोगों ने कुफ़्र किया और हमारी आयतों को झुठलाया, वही भड़कती आग वाले हैं।

يٰٓاَيُّهَا الَّذِيْنَ اٰمَنُوا اذْكُرُوْا نِعْمَتَ اللّٰهِ عَلَيْكُمْ اِذْ هَمَّ قَوْمٌ اَنْ يَّبْسُطُوْٓا اِلَيْكُمْ اَيْدِيَهُمْ فَكَفَّ اَيْدِيَهُمْ عَنْكُمْۚ وَاتَّقُوا اللّٰهَ ۗوَعَلَى اللّٰهِ فَلْيَتَوَكَّلِ الْمُؤْمِنُوْنَ ࣖ١١
Yā ayyuhal-lażīna āmanużkurū ni‘matallāhi ‘alaikum iż hamma qaumun ay yabsuṭū ilaikum aidiyahum fa kaffa aidiyahum ‘ankum, wattaqullāh(a), wa ‘alallāhi falyatawakkalil-mu'minūn(a).
[11] ऐ ईमान वालो! अपने ऊपर अल्लाह की नेमत को याद करो, जब कुछ लोगों ने इरादा किया कि तुम्हारी ओर अपने हाथ14 बढ़ाएँ, तो उसने उनके हाथों को तुमसे रोक दिया। तथा अल्लाह से डरो और ईमान वालों को अल्लाह ही पर भरोसा करना चाहिए।
14. अर्थात तुमपर आक्रमण करने का निश्चय किया, तो अल्लाह ने उनके आक्रमण से तुम्हारी रक्षा की। इस आयत से संबंधित बुख़ारी में सह़ीह़ ह़दीस आती है कि एक युद्ध में नबी सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम एकांत में एक पेड़ के नीचे विश्राम कर रहे थे कि एक व्यक्ति आया और आपकी तलवार खींच कर कहा : तुम को अब मुझसे कौन बचाएगा? आपने कहा : अल्लाह! यह सुनते ही तलवार उसके हाथ से गिर गई और आपने उसे क्षमा कर दिया। (सह़ीह़ बुख़ारी : 4139)

۞ وَلَقَدْ اَخَذَ اللّٰهُ مِيْثَاقَ بَنِيْٓ اِسْرَاۤءِيْلَۚ وَبَعَثْنَا مِنْهُمُ اثْنَيْ عَشَرَ نَقِيْبًاۗ وَقَالَ اللّٰهُ اِنِّيْ مَعَكُمْ ۗ لَىِٕنْ اَقَمْتُمُ الصَّلٰوةَ وَاٰتَيْتُمُ الزَّكٰوةَ وَاٰمَنْتُمْ بِرُسُلِيْ وَعَزَّرْتُمُوْهُمْ وَاَقْرَضْتُمُ اللّٰهَ قَرْضًا حَسَنًا لَّاُكَفِّرَنَّ عَنْكُمْ سَيِّاٰتِكُمْ وَلَاُدْخِلَنَّكُمْ جَنّٰتٍ تَجْرِيْ مِنْ تَحْتِهَا الْاَنْهٰرُۚ فَمَنْ كَفَرَ بَعْدَ ذٰلِكَ مِنْكُمْ فَقَدْ ضَلَّ سَوَاۤءَ السَّبِيْلِ١٢
Wa laqad akhażallāhu mīṡāqa banī isrā'īl(a), wa ba‘aṡnā minhumuṡnai ‘asyara naqībā(n), wa qālallāhu innī ma‘akum, la'in aqamtumuṣ-ṣalāta wa ātaitumuz-zakāta wa āmantum birusulī wa ‘azzartumūhum wa aqraḍtumullāha qarḍan ḥasanal la'ukaffiranna ‘ankum sayyi'ātikum wa la'udkhilannakum jannātin tajrī min taḥtihal-anhār(u), faman kafara ba‘da żālika minkum faqad ḍalla sawā'as-sabīl(i).
[12] तथा निःसंदेह अल्लाह ने बनी इसराईल से दृढ़ वचन लिया और हमने उनमें से बारह प्रमुख नियुक्त किए। तथा अल्लाह ने फरमाया : निःसंदेह मैं तुम्हारे साथ हूँ, यदि तुमने नमाज़ क़ायम की और ज़कात अदा की और मेरे रसूलों पर ईमान लाए और उनका समर्थन किया तथा अल्लाह को अच्छा क़र्ज़15 दिया। तो निश्चय मैं तुमसे तुम्हारे पाप अवश्य क्षमा कर दूँगा और निश्चय तुम्हें ऐसे बाग़ों में अवश्य दाख़िल करूँगा, जिनके नीचे से नहरें बहती हैं। फिर जिसने इसके बाद तुममें से कुफ़्र किया, तो निश्चय वह सीधे रास्ते से भटक गया।
15. अल्लाह को क़र्ज़ देने का अर्थ उसके लिए दान करना है। इस आयत में ईमान वालों को सावधान किया गया है कि तुम अह्ले किताब : यहूद और नसारा जैसे न हो जाना जो अल्लाह के वचन को भंग करके उसकी धिक्कार के अधिकारी बन गए। (इब्ने कसीर)

فَبِمَا نَقْضِهِمْ مِّيْثَاقَهُمْ لَعَنّٰهُمْ وَجَعَلْنَا قُلُوْبَهُمْ قٰسِيَةً ۚ يُحَرِّفُوْنَ الْكَلِمَ عَنْ مَّوَاضِعِهٖۙ وَنَسُوْا حَظًّا مِّمَّا ذُكِّرُوْا بِهٖۚ وَلَا تَزَالُ تَطَّلِعُ عَلٰى خَاۤىِٕنَةٍ مِّنْهُمْ اِلَّا قَلِيْلًا مِّنْهُمْ ۖ فَاعْفُ عَنْهُمْ وَاصْفَحْ ۗاِنَّ اللّٰهَ يُحِبُّ الْمُحْسِنِيْنَ١٣
Fabimā naqḍihim mīṡāqahum la‘annāhum wa ja‘alnā qulūbahum qāsiyah(tan), yuḥarrifūnal-kalima ‘am mawāḍi‘ih(ī), wa nasū ḥaẓẓam mimmā żukkirū bih(ī), wa lā tazālu taṭṭali‘u ‘alā khā'inatim minhum illā qalīlam minhum fa‘fu ‘anhum waṣfaḥ, innallāha yuḥibbul-muḥsinīn(a).
[13] तो उनके अपने वचन को भंग करने ही के कारण, हमने उन्हें धिक्कार दिया और उनके दिलों को कठोर कर दिया कि वे शब्दों को उनके स्थानों से फेर देते16 हैं। तथा वे उसमें से एक हिस्सा भूल गए जिसकी उन्हें नसीहत की गई थी। और आपको हमेशा उनके किसी न किसी विश्वासघात का पता चलता रहेगा, सिवाय उनके थोड़े-से लोगों के। अतः आप उन्हें क्षमा कर दें और उन्हें जाने दें। निःसंदेह अल्लाह उपकार करने वालों से प्रेम करता है।
16. सह़ीह़ ह़दीस में आया है कि कुछ यहूदी, रसूलुल्लाह सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम के पास एक नर और नारी को लाए जिन्होंने व्यभिचार किया था। आपने कहा : तुम तौरात में क्या पाते हो? उन्होंने कहा : उनका अपमान करें और कोड़े मारें। अब्दुल्लाह बिन सलाम ने कहा : तुम झूठे हो, बल्कि उसमें (रज्म) करने का आदेश है। तौरात लाओ। वे तौरात लाए, तो एक ने रज्म की आयत पर हाथ रख दिया और आगे-पीछे पढ़ दिया। अब्दुल्लाह बिन सलाम ने कहा : हाथ उठाओ। उसने हाथ उठाया तो उसमें रज्म की आयत थी। (सह़ीह़ बुख़ारी : 3559, सह़ीह़ मुस्लिम : 1699)

وَمِنَ الَّذِيْنَ قَالُوْٓا اِنَّا نَصٰرٰٓى اَخَذْنَا مِيْثَاقَهُمْ فَنَسُوْا حَظًّا مِّمَّا ذُكِّرُوْا بِهٖۖ فَاَغْرَيْنَا بَيْنَهُمُ الْعَدَاوَةَ وَالْبَغْضَاۤءَ اِلٰى يَوْمِ الْقِيٰمَةِ ۗ وَسَوْفَ يُنَبِّئُهُمُ اللّٰهُ بِمَا كَانُوْا يَصْنَعُوْنَ١٤
Wa minal-lażīna qālū innā naṣārā akhażnā mīṡāqahum fa nasū ḥaẓẓam mimmā żukkirū bih(ī), fa agrainā bainahumul-‘adāwata wal-bagḍā'a ilā yaumil-qiyāmah(ti), wa saufa yunabbi'uhumullāhu bimā kānū yaṣna‘ūn(a).
[14] तथा जिन लोगों ने कहा कि हम ईसाई हैं, हमने उनसे (भी) दृढ़ वचन लिया, फिर वे उसका एक हिस्सा भूल गए जिसका उन्हें उपदेश दिया गया था। अतः हमने उनके बीच क़ियामत के दिन तक के लिए दुश्मनी और द्वेष भड़का दिया। और शीघ्र ही अल्लाह उन्हें उसकी ख़बर17 देगा, जो वे किया करते थे।
17. आयत का अर्थ यह है कि जब ईसाइयों ने वचन भंग कर दिया, तो उनमें कई परस्पर विरोधी संप्रदाय हो गए, जैसे याक़ूबिय्यः, नसतूरिय्यः और आरयूसिय्यः। ये सभी एक-दूसरे के शत्रु हो गए। तथा इस समय आर्थिक और राजनीतिक संप्रदायों में विभाजित होकर आपस में रक्तपात कर रहे हैं। इसमें मुसलमानों को भी सावधान किया गया है कि क़ुरआन के अर्थों में परिवर्तन करके ईसाइयों के समान संप्रदायों में विभाजित न होना।

يٰٓاَهْلَ الْكِتٰبِ قَدْ جَاۤءَكُمْ رَسُوْلُنَا يُبَيِّنُ لَكُمْ كَثِيْرًا مِّمَّا كُنْتُمْ تُخْفُوْنَ مِنَ الْكِتٰبِ وَيَعْفُوْا عَنْ كَثِيْرٍەۗ قَدْ جَاۤءَكُمْ مِّنَ اللّٰهِ نُوْرٌ وَّكِتٰبٌ مُّبِيْنٌۙ١٥
Yā ahlal-kitābi qad jā'akum rasūlunā yubayyinu lakum kaṡīram mimmā kuntum tukhfūna minal-kitābi wa ya‘fū ‘an kaṡīr(in), qad jā'akum minallāhi nūruw wa kitābum mubīn(un).
[15] ऐ किताब वालो! तुम्हारे पास हमारे रसूल18 आ गए हैं, जो तुम्हारे लिए उनमें से बहुत-सी बातें खोलकर बयान करते हैं, जिन्हें तुम किताब में से छिपाया करते थे और बहुत-सी बातों को नज़रअंदाज़ कर देते हैं। निःसंदेह तुम्हारे पास अल्लाह की ओर से एक प्रकाश तथा स्पष्ट पुस्तक (क़ुरआन) आई है।
18. अर्थात मुह़म्मद सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम। तथा प्रकाश से अभिप्राय क़ुरआन पाक है।

يَّهْدِيْ بِهِ اللّٰهُ مَنِ اتَّبَعَ رِضْوَانَهٗ سُبُلَ السَّلٰمِ وَيُخْرِجُهُمْ مِّنَ الظُّلُمٰتِ اِلَى النُّوْرِ بِاِذْنِهٖ وَيَهْدِيْهِمْ اِلٰى صِرَاطٍ مُّسْتَقِيْمٍ١٦
Yahdī bihillāhi manittaba‘a riḍwānahū subulas-salāmi wa yukhrijuhum minaẓ-ẓulumāti ilan-nūri bi'iżnihī wa yahdīhim ilā ṣirāṭim mustaqīm(in).
[16] जिसके द्वारा अल्लाह उन लोगों को शांति के मार्ग दिखाता है, जो उसकी प्रसन्नता के पीछे चलें। और उन्हें अपनी अनुमति से अँधेरों से प्रकाश की ओर निकालता है और उन्हें सीधे रास्ते का मार्गदर्शन प्रदान करता है।

لَقَدْ كَفَرَ الَّذِيْنَ قَالُوْٓا اِنَّ اللّٰهَ هُوَ الْمَسِيْحُ ابْنُ مَرْيَمَۗ قُلْ فَمَنْ يَّمْلِكُ مِنَ اللّٰهِ شَيْـًٔا اِنْ اَرَادَ اَنْ يُّهْلِكَ الْمَسِيْحَ ابْنَ مَرْيَمَ وَاُمَّهٗ وَمَنْ فِى الْاَرْضِ جَمِيْعًا ۗوَلِلّٰهِ مُلْكُ السَّمٰوٰتِ وَالْاَرْضِ وَمَا بَيْنَهُمَا ۗ يَخْلُقُ مَا يَشَاۤءُ ۗوَاللّٰهُ عَلٰى كُلِّ شَيْءٍ قَدِيْرٌ١٧
Laqad kafaral-lażīna qālū innallāha huwal-masīḥubnu maryam(a), qul famay yamliku minallāhi syai'an in arāda ay yuhlikal-masīḥabna maryama wa ummahū wa man fil-arḍi jamī‘ā(n), wa lillāhi mulkus-samāwāti wal-arḍi wa mā bainahumā, yakhluqu mā yasyā'(u), wallāhu ‘alā kulli syai'in qadīr(un).
[17] निश्चय वे लोग काफ़िर19 हो गए, जिन्होंने कहा कि निःसंदेह अल्लाह मरयम का पुत्र मसीह ही तो है। (ऐ नबी!) कह दें : यदि अल्लाह मसीह बिन मरयम और उसकी माता तथा धरती में मौजूद सभी लोगों को विनष्ट करना चाहे, तो कौन अल्लाह को रोकने का अधिकार रखता है? तथा अल्लाह ही के लिए आकाशों और धरती का राज्य है और उसकी भी जो उन दोनों के बीच है। वह पैदा करता है जो चाहता है तथा अल्लाह हर चीज़ का पूर्ण सामर्थ्य रखता है।
19. इस आयत में ईसा अलैहिस्सलाम के अल्लाह होने की मिथ्या आस्था का खंडन किया जा रहा है।

وَقَالَتِ الْيَهُوْدُ وَالنَّصٰرٰى نَحْنُ اَبْنٰۤؤُا اللّٰهِ وَاَحِبَّاۤؤُهٗ ۗ قُلْ فَلِمَ يُعَذِّبُكُمْ بِذُنُوْبِكُمْ ۗ بَلْ اَنْتُمْ بَشَرٌ مِّمَّنْ خَلَقَۗ يَغْفِرُ لِمَنْ يَّشَاۤءُ وَيُعَذِّبُ مَنْ يَّشَاۤءُۗ وَلِلّٰهِ مُلْكُ السَّمٰوٰتِ وَالْاَرْضِ وَمَا بَيْنَهُمَا ۖوَاِلَيْهِ الْمَصِيْرُ١٨
Wa qālatil-yahūdu wan-naṣārā naḥnu abnā'ullāhi wa aḥibbā'uh(ū), qul falima yu‘ażżibukum biżunūbikum, bal antum basyarum mimman khalaq(a), yagfiru limay yasyā'u wa yu‘ażżibu may yasyā'(u), wa lillāhi mulkus-samāwāti wal-arḍi wa mā bainahumā, wa ilaihil-maṣīr(u).
[18] तथा यहूदियों और ईसाइयों ने कहा कि हम अल्लाह के पुत्र और उसके प्यारे हैं। आप कह दें : फिर वह तुम्हें तुम्हारे पापों के कारण सज़ा क्यों देता है? बल्कि तुम (भी) उसके पैदा किए हुए प्राणियों में से एक मनुष्य हो। वह जिसे चाहता है, क्षमा करता है और जिसे चाहता है, सज़ा देता है। तथा अल्लाह ही के लिए आकाशों और धरती का राज्य20 है और उसका भी जो उन दोनों के बीच है। और उसी की ओर लौटकर जाना है।
20. इस आयत में ईसाइयों तथा यहूदियों के इस भ्रम का खंडन किया जा रहा है कि वह अल्लाह के प्रियवर हैं, इस लिए जो भी करें, उनके लिए मुक्ति ही मुक्ति है।

يٰٓاَهْلَ الْكِتٰبِ قَدْ جَاۤءَكُمْ رَسُوْلُنَا يُبَيِّنُ لَكُمْ عَلٰى فَتْرَةٍ مِّنَ الرُّسُلِ اَنْ تَقُوْلُوْا مَا جَاۤءَنَا مِنْۢ بَشِيْرٍ وَّلَا نَذِيْرٍۗ فَقَدْ جَاۤءَكُمْ بَشِيْرٌ وَّنَذِيْرٌ ۗوَاللّٰهُ عَلٰى كُلِّ شَيْءٍ قَدِيْرٌ ࣖ١٩
Yā ahlal-kitābi qad jā'akum rasūlunā yubayyinu lakum ‘alā fatratim minar-rusuli an taqūlū mā jā'anā mim basyīriw wa lā nażīr(in), faqad jā'akum basyīruw wa nażīr(un), wallāhu ‘alā kulli syai'in qadīr(un).
[19] ऐ किताब वालो! निःसंदेह तुम्हारे पास हमारा रसूल21 आया है, जो तुम्हारे लिए खोलकर बयान करता है, रसूलों के एक अंतराल के बाद, ताकि तुम यह न कहो कि हमारे पास न कोई शुभ सूचना देने वाला आया और न डराने वाला। तो निश्चय तुम्हारे पास एक शुभ सूचना देने वाला और डराने वाला आ चुका है। तथा अल्लाह हर चीज़ पर शक्ति रखने वाला है।
21. अंतिम नबी मुह़म्मद सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम, ईसा अलैहिस्सलाम के छः सौ वर्ष पश्चात् 610 ईस्वी में नबी हुए। आपके और ईसा अलैहिस्सलाम के बीच कोई नबी नहीं आया।

وَاِذْ قَالَ مُوْسٰى لِقَوْمِهٖ يٰقَوْمِ اذْكُرُوْا نِعْمَةَ اللّٰهِ عَلَيْكُمْ اِذْ جَعَلَ فِيْكُمْ اَنْۢبِيَاۤءَ وَجَعَلَكُمْ مُّلُوْكًاۙ وَّاٰتٰىكُمْ مَّا لَمْ يُؤْتِ اَحَدًا مِّنَ الْعٰلَمِيْنَ٢٠
Wa iż qāla mūsā liqaumihī yā qaumiżkurū ni‘matallāhi ‘alaikum iż ja‘ala fīkum ambiyā'a wa ja‘alakum mulūkā(n), wa ātākum mā lam yu'ti aḥadam minal-‘ālamīn(a).
[20] तथा (याद करो) जब मूसा ने अपनी जाति से कहा : ऐ मेरी जाति के लोगो! अपने ऊपर अल्लाह की नेमत को याद करो, जब उसने तुममें नबी बनाए और तुम्हें बादशाह बना दिया तथा तुम्हें वह कुछ दिया, जो समस्त संसार में किसी को नहीं दिया।

يٰقَوْمِ ادْخُلُوا الْاَرْضَ الْمُقَدَّسَةَ الَّتِيْ كَتَبَ اللّٰهُ لَكُمْ وَلَا تَرْتَدُّوْا عَلٰٓى اَدْبَارِكُمْ فَتَنْقَلِبُوْا خٰسِرِيْنَ٢١
Yā qaumidkhulul-arḍal-muqaddasatal-latī kataballāhu lakum wa lā tartaddū ‘alā adbārikum fa tanqalibū khāsirīn(a).
[21] ऐ मेरी जाति के लोगो! उस पवित्र धरती (बैतुल मक़दिस) में प्रवेश कर जाओ, जो अल्लाह ने तुम्हारे लिए लिख दी है और अपनी पीठों पर न फिर जाओ, अन्यथा घाटा उठाने वाले होकर लौटोगो।

قَالُوْا يٰمُوْسٰٓى اِنَّ فِيْهَا قَوْمًا جَبَّارِيْنَۖ وَاِنَّا لَنْ نَّدْخُلَهَا حَتّٰى يَخْرُجُوْا مِنْهَاۚ فَاِنْ يَّخْرُجُوْا مِنْهَا فَاِنَّا دٰخِلُوْنَ٢٢
Qālū yā mūsā inna fīhā qauman jabbārīn(a), wa innā lan nadkhulahā ḥattā yakhrujū minhā, fa iy yakhrujū minhā fa innā dākhilūn(a).
[22] उन्होंने कहा : ऐ मूसा! उसमें बड़े बलवान लोग रहते हैं और निःसंदेह हम उसमें हरगिज़ प्रवेश न करेंगे, यहाँ तक कि वे उससे निकल जाएँ। यदि वे उससे निकल जाएँ, तो हम अवश्य प्रवेश करने वाले हैं।

قَالَ رَجُلَانِ مِنَ الَّذِيْنَ يَخَافُوْنَ اَنْعَمَ اللّٰهُ عَلَيْهِمَا ادْخُلُوْا عَلَيْهِمُ الْبَابَۚ فَاِذَا دَخَلْتُمُوْهُ فَاِنَّكُمْ غٰلِبُوْنَ ەۙ وَعَلَى اللّٰهِ فَتَوَكَّلُوْٓا اِنْ كُنْتُمْ مُّؤْمِنِيْنَ٢٣
Qāla rajulāni minal-lażīna yakhāfūna an‘amallāhu ‘alaihimadkhulū ‘alaihimul-bāb(a), fa iżā dakhaltumūhu fa innakum gālibūn(a), wa ‘alallāhi fa tawakkalū in kuntum mu'minīn(a).
[23] दो व्यक्तियों ने कहा, जो उन लोगों में से थे जो (अल्लाह से) डरते थे, जिनपर अल्लाह ने अनुग्रह किया था : तुम उनपर दरवाज़े में प्रवेश कर जाओ। जब तुम वहाँ प्रवेश कर गए, तो निश्चय तुम विजेता हो। तथा अल्लाह ही पर भरोसा करो, यदि तुम ईमान वाले हो।

قَالُوْا يٰمُوْسٰٓى اِنَّا لَنْ نَّدْخُلَهَآ اَبَدًا مَّا دَامُوْا فِيْهَا ۖفَاذْهَبْ اَنْتَ وَرَبُّكَ فَقَاتِلَآ اِنَّا هٰهُنَا قٰعِدُوْنَ٢٤
Qālū yā mūsā innā lan nadkhulahā abadam mā dāmū fīhā, fażhab anta wa rabbuka fa qātilā innā hāhunā qā‘idūn(a).
[24] उन्होंने कहा : ऐ मूसा! निःसंदेह हम हरगिज़ उसमें कभी प्रवेश नहीं करेंगे, जब तक वे उसमें मौजूद हैं। अतः तुम और तुम्हारा पालनहार जाओ। फिर तुम दोनों लड़ो, निःसंदेह हम यहीं बैठने वाले हैं।

قَالَ رَبِّ اِنِّيْ لَآ اَمْلِكُ اِلَّا نَفْسِيْ وَاَخِيْ فَافْرُقْ بَيْنَنَا وَبَيْنَ الْقَوْمِ الْفٰسِقِيْنَ٢٥
Qāla rabbi innī lā amliku illā nafsī wa akhī fafruq bainanā wa bainal-qaumil-fāsiqīn(a).
[25] उस (मूसा) ने कहा : ऐ मेरे पालनहार! मैं अपने और अपने भाई के सिवा किसी पर कोई अधिकार नहीं रखता। अतः तू हमारे तथा इन अवज्ञाकारी लोगों के बीच अलगाव कर दे।

قَالَ فَاِنَّهَا مُحَرَّمَةٌ عَلَيْهِمْ اَرْبَعِيْنَ سَنَةً ۚيَتِيْهُوْنَ فِى الْاَرْضِۗ فَلَا تَأْسَ عَلَى الْقَوْمِ الْفٰسِقِيْنَ ࣖ٢٦
Qāla fa innahā muḥarramatun ‘alaihim arba‘īna sanah(tan), yatīhūna fil-arḍ(i), falā ta'sa ‘alal qaumil-fāsiqīn(a).
[26] (अल्लाह ने) कहा : निःसंदेह वह (धरती) उनपर चालीस वर्षों के लिए हराम (वर्जित) कर दी गई। (इस दौरान) वे धरती में भटकते रहेंगे। अतः तुम इन अवज्ञाकारी लोगों पर शोक न करो।22
22. इन आयतों का भावार्थ यह है कि जब मूसा अलैहिस्सलाम बनी इसराईल को लेकर मिस्र से निकले, तो अल्लाह ने उन्हें बैतुल मक़्दिस में प्रवेश कर जाने का आदेश दिया, जिस पर अमालिक़ा जाति का क़ब्ज़ा था और वही उसके शासक थे। परंतु बनी इसराईल ने, जो कायर हो गए थे, अमालिक़ा से युद्ध करने का साहस नहीं किया। और इस आदेश का विरोध किया, जिसके परिणाम स्वरूप उसी क्षेत्र में 40 वर्ष तक फिरते रहे। और जब 40 वर्ष बीत गए, और एक नया वंश जो साहसी था पैदा हो गया, तो उसने उस धरती पर अधिकार कर लिया। (इब्ने कसीर)

۞ وَاتْلُ عَلَيْهِمْ نَبَاَ ابْنَيْ اٰدَمَ بِالْحَقِّۘ اِذْ قَرَّبَا قُرْبَانًا فَتُقُبِّلَ مِنْ اَحَدِهِمَا وَلَمْ يُتَقَبَّلْ مِنَ الْاٰخَرِۗ قَالَ لَاَقْتُلَنَّكَ ۗ قَالَ اِنَّمَا يَتَقَبَّلُ اللّٰهُ مِنَ الْمُتَّقِيْنَ٢٧
Watlu ‘alaihim naba'abnai ādama bil-ḥaqqi iż qarrabā qurbānan fa tuqubbila min aḥadihimā wa lam yutaqabbal minal-ākhar(i), qāla la'aqtulannak(a), qāla innamā yataqabbalullāhu minal-muttaqīn(a).
[27] तथा उन्हें आदम के दो बेटों23 का समाचार सच्चाई के साथ सुना दो, जब उन दोनों ने कुछ क़ुर्बानी प्रस्तुत की, तो उनमें से एक की स्वीकार कर ली गई और दूसरे की स्वीकार न की गई। उस (दूसरे) ने कहा : मैं तुझे अवश्य ही क़त्ल कर दूँगा। उसने उत्तर दिया : निःसंदेह अल्लाह डरने वालों ही से स्वीकार करता है।
23. भाष्यकारों ने इन दोनों के नाम क़ाबील और हाबील बताए हैं।

لَىِٕنْۢ بَسَطْتَّ اِلَيَّ يَدَكَ لِتَقْتُلَنِيْ مَآ اَنَا۠ بِبَاسِطٍ يَّدِيَ اِلَيْكَ لِاَقْتُلَكَۚ اِنِّيْٓ اَخَافُ اللّٰهَ رَبَّ الْعٰلَمِيْنَ٢٨
La'im basaṭta ilayya yadaka litaqtulanī mā ana bibāsiṭiy yadiya ilaika li'aqtulak(a), innī akhāfullāha rabbal-‘ālamīn(a).
[28] यदि तूने मुझे मार डालने के लिए मेरी ओर अपना हाथ बढ़ाया24, तो मैं हरगिज़ अपना हाथ तेरी ओर इसलिए बढ़ाने वाला नहीं कि तुझे क़त्ल करूँ। निःसंदेह मैं अल्लाह से डरता हूँ, जो सारे संसार का पालनहार है।
24. नबी (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) ने कहा : जो भी प्राणी अत्याचार से मारा जाए, तो आदम के प्रथम पुत्र पर उनके ख़ून का भाग होता है, क्योंकि उसी ने सर्वप्रथम हत्या की रीति बनाई है। (सह़ीह़ बुख़ारी : 6867, सह़ीह़ मुस्लिम : 1677)

اِنِّيْٓ اُرِيْدُ اَنْ تَبُوْۤاَ بِاِثْمِيْ وَاِثْمِكَ فَتَكُوْنَ مِنْ اَصْحٰبِ النَّارِۚ وَذٰلِكَ جَزٰۤؤُا الظّٰلِمِيْنَۚ٢٩
Innī urīdu an tabū'a bi'iṡmī wa iṡmika fa takūna min aṣḥābin-nār(i), wa żālika jazā'uẓ-ẓālimīn(a).
[29] मैं तो यह चाहता हूँ कि तू मेरे पाप और अपने पाप के साथ लौटे, फिर तू आग वालों में से हो जाए। और यही अत्याचारियों का बदला है।

فَطَوَّعَتْ لَهٗ نَفْسُهٗ قَتْلَ اَخِيْهِ فَقَتَلَهٗ فَاَصْبَحَ مِنَ الْخٰسِرِيْنَ٣٠
Fa ṭawwa‘at lahū nafsuhū qatla akhīhi fa qatalahū fa aṣbaḥa minal-khāsirīn(a).
[30] अंततः उसके मन ने उसके लिए अपने भाई की हत्या को सुसज्जित कर दिया, तो उसने उसे क़त्ल कर दिया, सो वह घाटा उठाने वालों में से हो गया।

فَبَعَثَ اللّٰهُ غُرَابًا يَّبْحَثُ فِى الْاَرْضِ لِيُرِيَهٗ كَيْفَ يُوَارِيْ سَوْءَةَ اَخِيْهِ ۗ قَالَ يٰوَيْلَتٰٓى اَعَجَزْتُ اَنْ اَكُوْنَ مِثْلَ هٰذَا الْغُرَابِ فَاُوَارِيَ سَوْءَةَ اَخِيْۚ فَاَصْبَحَ مِنَ النّٰدِمِيْنَ ۛ٣١
Fa ba‘aṡallāhu gurābay yabḥaṡu fil-arḍi liyuriyahū kaifa yuwārī sau'ata akhīh(i), qāla yā wailatā a‘ajazta an akūna miṡla hāżal-gurābi fa uwāriya sau'ata akhī, fa aṣbaḥa minan-nādimīn(a).
[31] फिर अल्लाह ने एक कौआ भेजा, जो भूमि कुरेदता था, ताकि उसे दिखाए कि वह अपने भाई के शव को कैसे छिपाए। कहने लगा : हाय मेरा विनाश! क्या मैं इस कौए जैसा भी न हो सका कि अपने भाई का शव छिपा सकूँ। फिर वह लज्जित होने वालों में से हो गया।

مِنْ اَجْلِ ذٰلِكَ ۛ كَتَبْنَا عَلٰى بَنِيْٓ اِسْرَاۤءِيْلَ اَنَّهٗ مَنْ قَتَلَ نَفْسًاۢ بِغَيْرِ نَفْسٍ اَوْ فَسَادٍ فِى الْاَرْضِ فَكَاَنَّمَا قَتَلَ النَّاسَ جَمِيْعًاۗ وَمَنْ اَحْيَاهَا فَكَاَنَّمَآ اَحْيَا النَّاسَ جَمِيْعًا ۗوَلَقَدْ جَاۤءَتْهُمْ رُسُلُنَا بِالْبَيِّنٰتِ ثُمَّ اِنَّ كَثِيْرًا مِّنْهُمْ بَعْدَ ذٰلِكَ فِى الْاَرْضِ لَمُسْرِفُوْنَ٣٢
Min ajli żālik(a), katabnā ‘alā banī isrā'īla annahū man qatala nafsam bigairi nafsin au fasādin fil-arḍi fa ka'annamā qatalan-nāsa jamī‘ā(n), wa man aḥyāhā fa ka'annamā aḥyan-nāsa jamī‘ā(n), wa laqad jā'athum rusulunā bil-bayyināt(i), ṡumma inna kaṡīram minhum ba‘da żālika fil-arḍi lamusrifūn(a).
[32] इसी कारण, हमने बनी इसराईल पर लिख दिया25 कि निःसंदेह जिसने किसी प्राणी की किसी प्राणी के खून (के बदले) अथवा धरती में विद्रोह के बिना हत्या कर दी, तो मानो उसने सारे इनसानों की हत्या26 कर दी, और जिसने उसे जीवन प्रदान किया, तो मानो उसने सारे इनसानों को जीवन प्रदान किया। तथा निःसंदेह उनके पास हमारे रसूल स्पष्ट प्रमाण लेकर आए। फिर निःसंदेह उनमें से बहुत से लोग उसके बाद भी धरती में निश्चय सीमा से आगे बढ़ने वाले हैं।
25. अर्थात नियम बना दिया। इस्लाम में भी यही नियम और आदेश है। 26. क्योंकि सभी प्राण, प्राण होने में बराबर हैं।

اِنَّمَا جَزٰۤؤُا الَّذِيْنَ يُحَارِبُوْنَ اللّٰهَ وَرَسُوْلَهٗ وَيَسْعَوْنَ فِى الْاَرْضِ فَسَادًا اَنْ يُّقَتَّلُوْٓا اَوْ يُصَلَّبُوْٓا اَوْ تُقَطَّعَ اَيْدِيْهِمْ وَاَرْجُلُهُمْ مِّنْ خِلَافٍ اَوْ يُنْفَوْا مِنَ الْاَرْضِۗ ذٰلِكَ لَهُمْ خِزْيٌ فِى الدُّنْيَا وَلَهُمْ فِى الْاٰخِرَةِ عَذَابٌ عَظِيْمٌ٣٣
Innamā jazā'ul-lażīna yuḥāribūnallāha wa rasūlahū wa yas‘auna fil-arḍi fasādan ay yuqattalū au yuṣallabū au tuqaṭṭa‘a aidīhim wa arjuluhum min khilāfin au yunfau minal-arḍ(i), żālika lahum khizyun fid-dun-yā wa lahum fil-ākhirati ‘ażābun ‘aẓīm(un).
[33] जो लोग अल्लाह और उसके रसूल से जंग करते हैं तथा धरती में उपद्रव करने का प्रयास करते हैं, उनका दंड यही है कि उन्हें बुरी तरह क़त्ल कर दिया जाए, या उन्हें बुरी तरह सूली दी जाए, या उनके हाथ-पाँव विपरीत दिशाओं से बुरी तरह काट दिए जाएँ, या उन्हें (उस) देश से निकाल दिया जाए। यह उनके लिए दुनिया में अपमान है तथा आख़िरत में उनके लिए बहुत बड़ी यातना है।

اِلَّا الَّذِيْنَ تَابُوْا مِنْ قَبْلِ اَنْ تَقْدِرُوْا عَلَيْهِمْۚ فَاعْلَمُوْٓا اَنَّ اللّٰهَ غَفُوْرٌ رَّحِيْمٌ ࣖ٣٤
Illal-lażīna tābū min qabli an taqdirū ‘alaihim, fa‘lamū annallāha gafūrur raḥīm(un).
[34] परंतु जो लोग इससे पहले तौबा कर लें कि तुम उनपर क़ाबू पाओ, तो जान लो कि निःसंदेह अल्लाह अति क्षमाशील, अत्यंत दयावान् है।

يٰٓاَيُّهَا الَّذِيْنَ اٰمَنُوا اتَّقُوا اللّٰهَ وَابْتَغُوْٓا اِلَيْهِ الْوَسِيْلَةَ وَجَاهِدُوْا فِيْ سَبِيْلِهٖ لَعَلَّكُمْ تُفْلِحُوْنَ٣٥
Yā ayyuhal-lażīna āmanuttaqullāha wabtagū ilaihil-wasīlata wa jāhidū fī sabīlihī la‘allakum tufliḥūn(a).
[35] ऐ ईमान वालो! अल्लाह से डरो और उसकी ओर निकटता27 तलाश करो तथा उसके मार्ग में जिहाद करो, ताकि तुम सफल हो जाओ।
27. "वसीला" का अर्थ है : अल्लाह की आज्ञा का पालन करने और उसकी अवज्ञा से बचने तथा ऐसे कर्मों के करने का, जिनसे वह प्रसन्न हो। वसीला ह़दीस में स्वर्ग के उस सर्वोच्च स्थान को भी कहा गया है, जो स्वर्ग में नबी (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) को मिलेगा, जिसका नाम "मक़ामे मह़मूद" है। इसीलिए आपने कहा : जो अज़ान के पश्चात् मेरे लिए वसीला की दुआ करेगा, वह मेरी सिफारिश के योग्य होगा। (बुख़ारी : 4719) पीरों और फ़क़ीरों आदि की समाधियों को वसीला समझना निर्मूल और शिर्क है।

اِنَّ الَّذِيْنَ كَفَرُوْا لَوْ اَنَّ لَهُمْ مَّا فِى الْاَرْضِ جَمِيْعًا وَّمِثْلَهٗ مَعَهٗ لِيَفْتَدُوْا بِهٖ مِنْ عَذَابِ يَوْمِ الْقِيٰمَةِ مَا تُقُبِّلَ مِنْهُمْ ۚ وَلَهُمْ عَذَابٌ اَلِيْمٌ٣٦
Innal-lażīna kafarū lau anna lahum mā fil-arḍi jamī‘aw wa miṡlahū ma‘ahū liyaftadū bihī min ‘ażābi yaumil-qiyāmati mā tuqubbila minhum, wa lahum ‘ażābun alīm(un).
[36] निःसंदेह जिन लोगों ने कुफ़्र किया, यदि उनके पास वह सब कुछ हो जो धरती में है और उतना ही उसके साथ और भी हो, ताकि वे यह सब कुछ क़ियामत के दिन की यातना से छुड़ौती के रूप मे दे दें, तो उनकी ओर से स्वीकार नहीं किया जाएगा और उनके लिए दर्दनाक यातना है।

يُرِيْدُوْنَ اَنْ يَّخْرُجُوْا مِنَ النَّارِ وَمَا هُمْ بِخٰرِجِيْنَ مِنْهَا ۖوَلَهُمْ عَذَابٌ مُّقِيْمٌ٣٧
Yurīdūna ay yakhrujū minan-nāri wa mā hum bikhārijīna minhā, wa lahum ‘ażābun muqīm(un).
[37] वे चाहेंगे कि आग से निकल जाएँ, हालाँकि वे उससे हरगिज़ निकलने वाले नहीं और उनके लिए हमेशा रहने वाली यातना है।

وَالسَّارِقُ وَالسَّارِقَةُ فَاقْطَعُوْٓا اَيْدِيَهُمَا جَزَاۤءًۢ بِمَا كَسَبَا نَكَالًا مِّنَ اللّٰهِ ۗوَاللّٰهُ عَزِيْزٌ حَكِيْمٌ٣٨
Was-sāriqu was-sāriqatu faqṭa‘ū aidiyahumā jazā'am bimā kasabā nakālam minallāh(i), wallāhu ‘azīzun ḥakīm(un).
[38] और जो चोरी करने वाला (पुरुष) और जो चोरी करने वाली (स्त्री) है, सो दोनों के हाथ काट दो, उसके बदले में जो उन दोनों ने कमाया, अल्लाह की ओर से इबरत (भय)28 दिलाने के लिए। और अल्लाह सब पर प्रभुत्वशाली, पूर्ण हिकमत वाला है।
28. यहाँ पर चोरी के विषय में इस्लाम का धर्म-विधान वर्णित किया जा रहा है कि यदि चौथाई दीनार अथवा उसके मूल्य के समान की चोरी की जाए, तो चोर का सीधा हाथ कलाई से काट दो। इसके लिए स्थान तथा समय के और भी प्रतिबंध हैं। इबरत वाला दंड होने का अर्थ यह है कि दूसरे इससे शिक्षा ग्रहण करें, ताकि पूरा देश और समाज चोरी के अपराध से स्वच्छ और पवित्र हो जाए। तथा यह ऐतिहासिक सत्य है कि इस घोर दंड के कारण, इस्लाम के चौदह सौ वर्षों में जिन्हें यह दंड दिया गया है, वह बहुत कम हैं। क्योंकि यह सज़ा ही ऐसी है कि जहाँ भी इसको लागू किया जाएगा, वहाँ चोर और डाकू बहुत कुछ सोच समझ कर ही आगे क़दम बढ़ाएँगे। जिसके फलस्वरूप पूरा समाज अम्न और चैन का गहवारा बन जाएगा। इसके विपरीत संसार के आधुनिक विधानों ने अपराधियों को सुधारने तथा उन्हें सभ्य बनाने का जो नियम बनाया है, उसने अपराधियों में अपराध का साहस बढ़ा दिया है। अतः यह मानना पड़ेगा कि इस्लाम का ये दंड चोरी जैसे अपराध को रोकने में अब तक सबसे सफल सिद्ध हुआ है। और यह दंड मानवता के मान और उसके अधिकार के विपरीत नहीं है। क्योंकि जिस व्यक्ति ने अपना माल, अपने खून-पसीना, परिश्रम तथा अपने हाथों की शक्ति से कमाया है, तो यदि कोई चोर आकर उसको उचकना चाहे तो उसकी सज़ा यही होनी चाहिए कि उसका हाथ ही काट दिया जाए, जिससे वह अन्य का माल हड़प करना चाह रहा है।

فَمَنْ تَابَ مِنْۢ بَعْدِ ظُلْمِهٖ وَاَصْلَحَ فَاِنَّ اللّٰهَ يَتُوْبُ عَلَيْهِ ۗاِنَّ اللّٰهَ غَفُوْرٌ رَّحِيْمٌ٣٩
Faman tāba mim ba‘di ẓulmihī wa aṣlaḥa fa innallāha yatūbu ‘alaih(i), innallāha gafūrur raḥīm(un).
[39] फिर जो व्यक्ति अपने अत्याचार (चोरी) के बाद तौबा कर ले और सुधार करे, तो निश्चय अल्लाह उसकी तौबा स्वीकार करेगा।29 निःसंदेह अल्लाह अति क्षमाशील, अत्यंत दयावान् है।
29. अर्थात उसे परलोक में दंड नहीं देगा, परंतु न्यायालय उसे चोरी सिद्ध होने पर चोरी का दंड देगा। (तफसीर क़ुर्तुबी)

اَلَمْ تَعْلَمْ اَنَّ اللّٰهَ لَهٗ مُلْكُ السَّمٰوٰتِ وَالْاَرْضِۗ يُعَذِّبُ مَنْ يَّشَاۤءُ وَيَغْفِرُ لِمَنْ يَّشَاۤءُ ۗوَاللّٰهُ عَلٰى كُلِّ شَيْءٍ قَدِيْرٌ٤٠
Alam ta‘lam annallāha lahū mulkus-samāwāti wal-arḍ(i), yu‘ażżibu may yasyā'u wa yagfiru limay yasyā'(u), wallāhu ‘alā kulli syai'in qadīr(un).
[40] क्या तुमने नहीं जाना कि निःसंदेह अल्लाह ही है जिसके पास आकाशों तथा धरती का राज्य है? वह जिसे चाहता है, दंड देता है और जिसे चाहता है, क्षमा कर देता है। तथा अल्लाह हर चीज़ पर सर्वशक्तिमान है।

۞ يٰٓاَيُّهَا الرَّسُوْلُ لَا يَحْزُنْكَ الَّذِيْنَ يُسَارِعُوْنَ فِى الْكُفْرِ مِنَ الَّذِيْنَ قَالُوْٓا اٰمَنَّا بِاَفْوَاهِهِمْ وَلَمْ تُؤْمِنْ قُلُوْبُهُمْ ۛ وَمِنَ الَّذِيْنَ هَادُوْا ۛ سَمّٰعُوْنَ لِلْكَذِبِ سَمّٰعُوْنَ لِقَوْمٍ اٰخَرِيْنَۙ لَمْ يَأْتُوْكَ ۗ يُحَرِّفُوْنَ الْكَلِمَ مِنْۢ بَعْدِ مَوَاضِعِهٖۚ يَقُوْلُوْنَ اِنْ اُوْتِيْتُمْ هٰذَا فَخُذُوْهُ وَاِنْ لَّمْ تُؤْتَوْهُ فَاحْذَرُوْا ۗوَمَنْ يُّرِدِ اللّٰهُ فِتْنَتَهٗ فَلَنْ تَمْلِكَ لَهٗ مِنَ اللّٰهِ شَيْـًٔا ۗ اُولٰۤىِٕكَ الَّذِيْنَ لَمْ يُرِدِ اللّٰهُ اَنْ يُّطَهِّرَ قُلُوْبَهُمْ ۗ لَهُمْ فِى الدُّنْيَا خِزْيٌ ۖوَّلَهُمْ فِى الْاٰخِرَةِ عَذَابٌ عَظِيْمٌ٤١
Yā ayyuhar-rasūlu lā yaḥzunkal-lażīna yusāri‘ūna fil-kufri minal-lażīna qālū āmannā bi'afwāhihim wa lam tu'min qulūbuhum - wa minal-lażīna hādū - sammā‘ūna lil-każibi sammā‘ūna liqaumin ākharīna lam ya'tūk(a), yuḥarrifūnal-kalima mim ba‘di mawāḍi‘ih(ī), yaqūlūna in ūtītum hāżā fa khuż­hu wa illam tu'tauhu faḥżarū, wa may yuridillāhu fitnatahū falan tamlika lahū minallāhi syai'ā(n), ulā'ikal-lażīna lam yuridillāhu ay yuṭahhira qulūbahum, lahum fid-dun-yā khizyuw wa lahum fil-ākhirati ‘ażābun ‘aẓīm(un).
[41] ऐ रसूल! वे लोग आपको शोकाकुल न करें, जो कुफ़्र में दौड़कर जाते हैं, उन लोगों में से जिन्होंने अपने मुँह से कहा कि हम ईमान लाए, हालाँकि उनके दिल ईमान नहीं लाए और उन लोगों में से जो यहूदी बने। बहुत सुनने वाले हैं झूठ को, बहुत सुनने वाले हैं दूसरे लोगों के लिए जो आपके पास नहीं आए, वे शब्दों को उनके स्थानों के बाद फेर देते हैं। वे कहते हैं : यदि तुम्हें यह दिया जाए तो ले लो, और यदि तुम्हें यह न दिया जाए, तो बचकर रहो। और जिसे अल्लाह अपनी परीक्षा में डालना चाहे, तो उसे (ऐ रसूल!) आप अल्लाह से बचाने के लिए कुछ नहीं कर सकते। ये वे लोग हैं कि अल्लाह ने नहीं चाहा कि उनके दिलों को पवित्र करे। उनके लिए दुनिया में अपमान है और उनके लिए आख़िरत में बहुत बड़ी यातना30 है।
30. मदीना के यहूदी विद्वान, मुनाफ़िक़ों को नबी सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम के पास भेजते कि आपकी बातें सुनें, और उन्हें सूचित करें। तथा अपने विवाद आपके पास ले जाएँ, और आप सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम कोई निर्णय करें तो हमारे आदेशानुसार हो तो स्वीकार करें, अन्यथा स्वीकार न करें। जबकि तौरात की आयतों में इनके आदेश थे, फिर भी वे उनमें परिवर्तन करके, उनका अर्थ कुछ का कुछ बना देते थे। ( देखिए व्याख्या आयत : 13)

سَمّٰعُوْنَ لِلْكَذِبِ اَكّٰلُوْنَ لِلسُّحْتِۗ فَاِنْ جَاۤءُوْكَ فَاحْكُمْ بَيْنَهُمْ اَوْ اَعْرِضْ عَنْهُمْ ۚوَاِنْ تُعْرِضْ عَنْهُمْ فَلَنْ يَّضُرُّوْكَ شَيْـًٔا ۗ وَاِنْ حَكَمْتَ فَاحْكُمْ بَيْنَهُمْ بِالْقِسْطِۗ اِنَّ اللّٰهَ يُحِبُّ الْمُقْسِطِيْنَ٤٢
Sammā‘ūna lil-każibi akkālūna lis-suḥt(i), fa in jā'ūka faḥkum bainahum au a‘riḍ ‘anhum, wa in tu‘riḍ ‘anhum falay yaḍurrūka syai'ā(n), wa in ḥakamta faḥkum bainahum bil-qisṭ(i), innallāha yuḥibbul-muqsiṭīn(a).
[42] बहुत सुनने वाले हैं झूठ को, बहुत खाने वाले हैं हराम को। फिर यदि वे आपके पास आएँ, तो आप उनके बीच निर्णय करें या उनसे मुँह फेर लें, और यदि आप उनसे मुँह फेर लें, तो वे आपको हरगिज़ कोई हानि नहीं पहुँचा सकेंगे और यदि आप निर्णय करें, तो उनके बीच न्याय के साथ निर्णय करें। निःसंदेह अल्लाह न्याय करने वालों से प्रेम करता है।

وَكَيْفَ يُحَكِّمُوْنَكَ وَعِنْدَهُمُ التَّوْرٰىةُ فِيْهَا حُكْمُ اللّٰهِ ثُمَّ يَتَوَلَّوْنَ مِنْۢ بَعْدِ ذٰلِكَ ۗوَمَآ اُولٰۤىِٕكَ بِالْمُؤْمِنِيْنَ ࣖ٤٣
Wa kaifa yuḥakkimūnaka wa ‘indahumut-taurātu fīhā ḥukmullāhi ṡumma yatawallauna mim ba‘di żālik(a), wa mā ulā'ika bil-mu'minīn(a).
[43] और वे आपको कैसे न्यायकर्ता बनाते हैं, जबकि उनके पास तौरात है, जिसमें अल्लाह का हुक्म (मौजूद) है! फिर वे उसके पश्चात मुँह फेर लेते हैं। और ये लोग कदापि ईमान वाले नहीं।31
31. क्योंकि वे न तो आपको नबी मानते, और न आपका निर्णय मानते, तथा न तौरात का आदेश मानते हैं।

اِنَّآ اَنْزَلْنَا التَّوْرٰىةَ فِيْهَا هُدًى وَّنُوْرٌۚ يَحْكُمُ بِهَا النَّبِيُّوْنَ الَّذِيْنَ اَسْلَمُوْا لِلَّذِيْنَ هَادُوْا وَالرَّبّٰنِيُّوْنَ وَالْاَحْبَارُ بِمَا اسْتُحْفِظُوْا مِنْ كِتٰبِ اللّٰهِ وَكَانُوْا عَلَيْهِ شُهَدَاۤءَۚ فَلَا تَخْشَوُا النَّاسَ وَاخْشَوْنِ وَلَا تَشْتَرُوْا بِاٰيٰتِيْ ثَمَنًا قَلِيْلًا ۗوَمَنْ لَّمْ يَحْكُمْ بِمَآ اَنْزَلَ اللّٰهُ فَاُولٰۤىِٕكَ هُمُ الْكٰفِرُوْنَ٤٤
Innā anzalnat-taurāta fīhā hudaw wa nūr(un), yaḥkumu bihan-nabiyyūnal-lażīna aslamū lil-lażīna hādū war-rabbāniyyūna wal-aḥbāru bimastuḥfiẓū min kitābillāhi wa kānū ‘alaihi syuhadā'(a), falā takhsyawun-nāsa wakhsyauni wa lā tasytarū bi'āyātī ṡamanan qalīlā(n), wa mal lam yaḥkum bimā anzalallāhu fa ulā'ika humul-kāfirūn(a).
[44] निःसंदेह हमने तौरात उतारी, जिसमें मार्गदर्शन और प्रकाश था। उसके अनुसार वे नबी जो आज्ञाकारी थे उन लोगों के लिए फ़ैसला करते थे, जो यहूदी बने, तथा अल्लाह वाले और विद्वान लोग भी (उसी के अनुसार फ़ैसला करते थे)। क्योंकि वे अल्लाह की पुस्तक के रक्षक बनाए गए थे और वे उसके (सत्य होने के) गवाह थे। अतः तुम लोगों से न डरो, केवल मुझसे डरो और मेरी आयतों के बदले तनिक मूल्य न खरीदो। और जो उसके अनुसार फ़ैसला न करे जो अल्लाह ने उतारा है, तो वही लोग काफ़िर हैं।

وَكَتَبْنَا عَلَيْهِمْ فِيْهَآ اَنَّ النَّفْسَ بِالنَّفْسِ وَالْعَيْنَ بِالْعَيْنِ وَالْاَنْفَ بِالْاَنْفِ وَالْاُذُنَ بِالْاُذُنِ وَالسِّنَّ بِالسِّنِّۙ وَالْجُرُوْحَ قِصَاصٌۗ فَمَنْ تَصَدَّقَ بِهٖ فَهُوَ كَفَّارَةٌ لَّهٗ ۗوَمَنْ لَّمْ يَحْكُمْ بِمَآ اَنْزَلَ اللّٰهُ فَاُولٰۤىِٕكَ هُمُ الظّٰلِمُوْنَ٤٥
Wa katabnā ‘alaihim fīhā annan-nafsa bin-nafsi wal-‘aina bil-‘aini wal-anfa bil-anfi wal-użuna bil-użuni was-sinna bis-sinni wal-jurūḥa qiṣāṣ(un), faman taṣaddaqa bihī fa huwa kaffāratul lah(ū), wa mal lam yaḥkum bimā anzalallāhu fa ulā'ika humuẓ-ẓālimūn(a).
[45] और हमने उस (तौरात) में उन (यहूदियों) पर लिख दिया कि प्राण के बदले प्राण है और आँख के बदले आँख, नाक के बदले नाक, कान के बदले कान, दाँत के बदले दाँत32 तथा सभी घावों में बराबर बदला है। फिर जो इस (बदला) को दान (माफ़) कर दे, तो वह उसके (पापों के) लिए प्रायश्चित है। तथा जो उसके अनुसार फ़ैसला न करे जो अल्लाह ने उतारा है, तो वही लोग अत्याचारी हैं।
32. इस्लाम में भी यही नियम है और नबी सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ने दाँत तोड़ने पर यही निर्णय दिया था। (सह़ीह़ बुखारी : 4611)

وَقَفَّيْنَا عَلٰٓى اٰثَارِهِمْ بِعِيْسَى ابْنِ مَرْيَمَ مُصَدِّقًا لِّمَا بَيْنَ يَدَيْهِ مِنَ التَّوْرٰىةِ ۖوَاٰتَيْنٰهُ الْاِنْجِيْلَ فِيْهِ هُدًى وَّنُوْرٌۙ وَّمُصَدِّقًا لِّمَا بَيْنَ يَدَيْهِ مِنَ التَّوْرٰىةِ وَهُدًى وَّمَوْعِظَةً لِّلْمُتَّقِيْنَۗ٤٦
Wa qaffainā ‘alā āṡārihim bi‘īsabni maryama muṣaddiqal limā baina yadaihi minat-taurāh(ti), wa ātaināhul-injīla fīhi hudaw wa nūr(un), wa muṣaddiqal limā baina yadaihi minat-taurāti wa hudaw wa mau‘iẓatal lil-muttaqīn(a).
[46] और हमने उनके पीछे उन्हीं के पद-चिन्हों पर मरयम के बेटे ईसा को भेजा, जो उससे पहले (उतरने वाली) तौरात की पुष्टि करने वाला था तथा हमने उसे इंजील प्रदान की, जिसमें मार्गदर्शन और प्रकाश थी और वह उससे पूर्व (उतरने वाली किताब) तौरात की पुष्टि करने वाली थी तथा वह (अल्लाह से) डरने वालों के लिए सर्वथा मार्गदर्शन और उपदेश थी।

وَلْيَحْكُمْ اَهْلُ الْاِنْجِيْلِ بِمَآ اَنْزَلَ اللّٰهُ فِيْهِۗ وَمَنْ لَّمْ يَحْكُمْ بِمَآ اَنْزَلَ اللّٰهُ فَاُولٰۤىِٕكَ هُمُ الْفٰسِقُوْنَ٤٧
Walyaḥkum ahlul-injīli bimā anzalallāhu fīh(i), wa mal lam yaḥkum bimā anzalallāhu fa ulā'ika humul-fasiqūn(a).
[47] और इंजील वालों को चाहिए कि उसी के अनुसार फ़ैसला करें, जो अल्लाह ने उसमें उतारा है। और जो उसके अनुसार फ़ैसला न करे, जो अल्लाह ने उतारा है, तो वही लोग अवज्ञाकारी हैं।

وَاَنْزَلْنَآ اِلَيْكَ الْكِتٰبَ بِالْحَقِّ مُصَدِّقًا لِّمَا بَيْنَ يَدَيْهِ مِنَ الْكِتٰبِ وَمُهَيْمِنًا عَلَيْهِ فَاحْكُمْ بَيْنَهُمْ بِمَآ اَنْزَلَ اللّٰهُ وَلَا تَتَّبِعْ اَهْوَاۤءَهُمْ عَمَّا جَاۤءَكَ مِنَ الْحَقِّۗ لِكُلٍّ جَعَلْنَا مِنْكُمْ شِرْعَةً وَّمِنْهَاجًا ۗوَلَوْ شَاۤءَ اللّٰهُ لَجَعَلَكُمْ اُمَّةً وَّاحِدَةً وَّلٰكِنْ لِّيَبْلُوَكُمْ فِيْ مَآ اٰتٰىكُمْ فَاسْتَبِقُوا الْخَيْرٰتِۗ اِلَى اللّٰهِ مَرْجِعُكُمْ جَمِيْعًا فَيُنَبِّئُكُمْ بِمَا كُنْتُمْ فِيْهِ تَخْتَلِفُوْنَۙ٤٨
Wa anzalnā ilaikal-kitāba bil-ḥaqqi muṣaddiqal limā baina yadaihi minal-kitābi wa muhaiminan ‘alaihi faḥkum bainahum bimā anzalallāhu wa lā tattabi‘ ahwā'ahum ‘ammā jā'aka minal-ḥaqq(i), likullin ja‘alnā minkum syir‘ataw wa minhājā(n), wa lau syā'allāhu laja‘alakum ummataw wāḥidataw wa lākil liyabluwakum fī mā ātākum fastabiqul-khairāt(i), ilallāhi marji‘ukum jamī‘an fa yunabbi'ukum bimā kuntum fīhi takhtalifūn(a).
[48] और (ऐ नबी!) हमने आपकी ओर यह पुस्तक (क़ुरआन) सत्य के साथ उतारी, जो अपने पूर्व की पुस्तकों की पुष्टि करने वाली तथा उनकी संरक्षक33 है। अतः आप उनके बीच उसके अनुसार फ़ैसला करें, जो अल्लाह ने उतारा है, तथा आपके पास जो सत्य आया है, उससे मुँह मोड़कर उनकी इच्छाओं का पालन न करें। हमने तुममें से हर (समुदाय) के लिए एक शरीयत तथा एक मार्ग निर्धारित किया34 है। और यदि अल्लाह चाहता, तो तुम्हें एक समुदाय बना देता, लेकिन ताकि वह तुम्हारी उसमें परीक्षा ले, जो कुछ उसने तुम्हें दिया है। अतः भलाइयों में एक-दूसरे से आगे बढ़ो35, अल्लाह ही की ओर तुम सबको लौटकर जाना है। फिर वह तुम्हें बताएगा, जिन बातों में तुम मतभेद किया करते थे।
33. संरक्षक होने का अर्थ यह है कि क़ुरआन अपने पूर्व की धर्म पुस्तकों का केवल पुष्टिकर ही नहीं, कसौटी (परख) भी है। अतः पूर्व पुस्तकों में जो भी बात क़ुरआन के विरुद्ध होगी, वह सत्य नहीं परिवर्तित होगी, सत्य वही होगी जो अल्लाह की अंतिम किताब क़ुरआन पाक के अनुकूल है। 34. यहाँ यह प्रश्न उठता है कि जब तौरात तथा इंजील और क़ुरआन सब एक ही सत्य लाए हैं, तो फिर इनके धर्म विधानों तथा कार्य प्रणाली में अंतर क्यों है? क़ुरआन उसका उत्तर देता है कि एक चीज़ मूल धर्म है, अर्थात एकेश्वरवाद तथा सत्कर्म का नियम, और दूसरी चीज़ धर्म-विधान तथा कार्य-प्रणाली है, जिसके अनुसार जीवन व्यतीत किया जाए। तो मूल धर्म तो एक ही है, परंतु समय और स्थितियों के अनुसार कार्य प्रणाली में अंतर होता रहा है, क्योंकि प्रत्येक युग की स्थितियाँ एक समान नहीं थीं, और यह मूल धर्म का अंतर नहीं, कार्य प्रणाली का अंतर हुआ। अतः अब समय तथा परिस्थतियाँ बदल जाने के पशचात् क़ुरआन जो धर्म विधान तथा कार्य प्रणाली परस्तुत कर रहा है, वही सत्धर्म है। 35. अर्थात क़ुरआन के आदेशों का पालन करने में।

وَاَنِ احْكُمْ بَيْنَهُمْ بِمَآ اَنْزَلَ اللّٰهُ وَلَا تَتَّبِعْ اَهْوَاۤءَهُمْ وَاحْذَرْهُمْ اَنْ يَّفْتِنُوْكَ عَنْۢ بَعْضِ مَآ اَنْزَلَ اللّٰهُ اِلَيْكَۗ فَاِنْ تَوَلَّوْا فَاعْلَمْ اَنَّمَا يُرِيْدُ اللّٰهُ اَنْ يُّصِيْبَهُمْ بِبَعْضِ ذُنُوْبِهِمْ ۗوَاِنَّ كَثِيْرًا مِّنَ النَّاسِ لَفٰسِقُوْنَ٤٩
Wa aniḥkum bainahum bimā anzalallāhu wa lā tattabi‘ ahwā'ahum waḥżarūhum ay yaftinūka ‘am ba‘ḍi mā anzalallāhu ilaik(a), fa in tawallau fa‘lam annamā yurīdullāhu ay yuṣībahum biba‘ḍi żunūbihim, wa inna kaṡīram minan-nāsi lafāsiqūn(a).
[49] तथा (ऐ नबी!) आप उनके बीच उसी के अनुसार निर्णय करें, जो अल्लाह ने उतारा है, और उनकी इच्छाओं का पालन न करें, तथा उनसे सावधान रहें कि वे आपको किसी ऐसे हुक्म से बहका दें, जो अल्लाह ने आपकी ओर उतारा है। फिर यदि वे फिर जाएँ, तो जान लें कि अल्लाह यही चाहता है कि उन्हें उनके कुछ पापों का दंड पहुँचाए। और निःसंदेह बहुत-से लोग निश्चय उल्लंघनकारी हैं।

اَفَحُكْمَ الْجَاهِلِيَّةِ يَبْغُوْنَۗ وَمَنْ اَحْسَنُ مِنَ اللّٰهِ حُكْمًا لِّقَوْمٍ يُّوْقِنُوْنَ ࣖ٥٠
Afaḥukmul-jāhiliyyati yabgūn(a), wa man aḥsanu minallāhi ḥukmal liqaumiy yūqinūn(a).
[50] फिर क्या वे जाहिलिय्यत (पूर्व-इस्लामिक काल) का फ़ैसला चाहते हैं? और अल्लाह से बेहतर फ़ैसला करने वाला कौन है, उन लोगों के लिए जो विश्वास रखते हैं?

۞ يٰٓاَيُّهَا الَّذِيْنَ اٰمَنُوْا لَا تَتَّخِذُوا الْيَهُوْدَ وَالنَّصٰرٰٓى اَوْلِيَاۤءَ ۘ بَعْضُهُمْ اَوْلِيَاۤءُ بَعْضٍۗ وَمَنْ يَّتَوَلَّهُمْ مِّنْكُمْ فَاِنَّهٗ مِنْهُمْ ۗ اِنَّ اللّٰهَ لَا يَهْدِى الْقَوْمَ الظّٰلِمِيْنَ٥١
Yā ayyuhal-lażīna āmanū lā tattakhiżul-yahūda wan-naṣārā auliyā'(a), ba‘ḍuhum auliyā'u ba‘ḍ(in), wa may yatawallahum minkum fa innahū minhum, innallāha lā yahdil-qaumaẓ-ẓālimīn(a).
[51] ऐ ईमान वालो! तुम यहूदियों तथा ईसाइयों को मित्र न बनाओ। वे परस्पर एक-दूसरे के मित्र हैं। और तुममें से जो उन्हें मित्र बनाएगा, तो निश्चय वह उन्हीं में से है। निःसंदेह अल्लाह अत्याचारियों को मार्गदर्शन प्रदान नहीं करता।

فَتَرَى الَّذِيْنَ فِيْ قُلُوْبِهِمْ مَّرَضٌ يُّسَارِعُوْنَ فِيْهِمْ يَقُوْلُوْنَ نَخْشٰٓى اَنْ تُصِيْبَنَا دَاۤىِٕرَةٌ ۗفَعَسَى اللّٰهُ اَنْ يَّأْتِيَ بِالْفَتْحِ اَوْ اَمْرٍ مِّنْ عِنْدِهٖ فَيُصْبِحُوْا عَلٰى مَآ اَسَرُّوْا فِيْٓ اَنْفُسِهِمْ نٰدِمِيْنَۗ٥٢
Fa taral-lażīna fī qulūbihim maraḍuy yusāri‘ūna fīhim yaqūlūna nakhsyā an tuṣībanā dā'irah(tun), fa ‘asallāhu ay ya'tiya bil-fatḥi au amrim min ‘indihī fa yuṣbiḥū ‘alā mā asarrū fī anfusihim nādimīn(a).
[52] फिर (ऐ नबी!) आप उन लोगों को देखेंगे जिनके दिलों में एक रोग है कि वे दौड़कर उनमें जाते हैं। वे कहते हैं : हम डरते हैं कि हमपर कोई विपत्ति (न) आ जाए। तो निकट है कि अल्लाह विजय प्रदान कर दे या अपनी ओर से कोई और मामला (प्रकट कर दे)। फिर वे उसपर, जो उन्होंने अपने दिलों में छिपाया था, लज्जित हो जाएँ।

وَيَقُوْلُ الَّذِيْنَ اٰمَنُوْٓا اَهٰٓؤُلَاۤءِ الَّذِيْنَ اَقْسَمُوْا بِاللّٰهِ جَهْدَ اَيْمَانِهِمْۙ اِنَّهُمْ لَمَعَكُمْۗ حَبِطَتْ اَعْمَالُهُمْ فَاَصْبَحُوْا خٰسِرِيْنَ٥٣
Wa yaqūlul-lażīna āmanū ahā'ulā'il-lażīna aqsamū billāhi jahda aimānihim, innahum lama‘akum, ḥabiṭat a‘māluhum fa aṣbaḥū khāsirīn(a).
[53] तथा ईमान वाले कहते हैं : क्या यही लोग हैं, जिन्होंने अपनी मज़बूत क़समें खाते हुए अल्लाह की क़सम खाई थी कि निःसंदेह वे निश्चय तुम्हारे साथ हैं। उनके कार्य नष्ट हो गए, अतः वे घाटा उठाने वाले हो गए।

يٰٓاَيُّهَا الَّذِيْنَ اٰمَنُوْا مَنْ يَّرْتَدَّ مِنْكُمْ عَنْ دِيْنِهٖ فَسَوْفَ يَأْتِى اللّٰهُ بِقَوْمٍ يُّحِبُّهُمْ وَيُحِبُّوْنَهٗٓ ۙاَذِلَّةٍ عَلَى الْمُؤْمِنِيْنَ اَعِزَّةٍ عَلَى الْكٰفِرِيْنَۖ يُجَاهِدُوْنَ فِيْ سَبِيْلِ اللّٰهِ وَلَا يَخَافُوْنَ لَوْمَةَ لَاۤىِٕمٍ ۗذٰلِكَ فَضْلُ اللّٰهِ يُؤْتِيْهِ مَنْ يَّشَاۤءُۗ وَاللّٰهُ وَاسِعٌ عَلِيْمٌ٥٤
Yā ayyuhal-lażīna āmanū may yartadda minkum ‘an dīnihī fa saufa ya'tillāhu biqaumiy yuḥibbuhum wa yuḥibbūnah(ū), ażillatin ‘alal-mu'minīna a‘izzatin ‘alal-kāfirīn(a), yujāhidūna fī sabīlillāhi wa lā yakhāfūna laumata lā'im(in), żālika faḍlullāhi yu'tīhi may yasyā'(u), wallāhu wāsi‘un ‘alīm(un).
[54] ऐ ईमान वालो! तुममें से जो कोई अपने धर्म से फिर जाए, तो अल्लाह निकट ही ऐसे लोग लाएगा, जिनसे वह प्रेम करेगा और वे उससे प्रेम करेंगे। वे ईमान वालों के प्रति बहुत नरम तथा काफ़िरों के प्रति बहुत कठोर36 होंगे, अल्लाह की राह में जिहाद करेंगे और किसी निंदा करने वाले की निंदा से नहीं डरेंगे। यह अल्लाह का अनुग्रह है, वह उसे देता है जिसको चाहता है और अल्लाह विस्तार वाला, सब कुछ जानने वाला है।
36. कठोर होने का अर्थ यह है कि वह युद्ध तथा अपने धर्म की रक्षा के समय उनके दबाव में नहीं आएँगे, न जिहाद की निंदा उन्हें अपने धर्म की रक्षा से रोक सकेगी।

اِنَّمَا وَلِيُّكُمُ اللّٰهُ وَرَسُوْلُهٗ وَالَّذِيْنَ اٰمَنُوا الَّذِيْنَ يُقِيْمُوْنَ الصَّلٰوةَ وَيُؤْتُوْنَ الزَّكٰوةَ وَهُمْ رٰكِعُوْنَ٥٥
Innamā waliyyukumullāhu wa rasūluhū wal-lażīna āmanul-lażīna yuqīmūnaṣ-ṣalāta wa yu'tūnaz-zakāta wa hum rāki‘ūn(a).
[55] तुम्हारे मित्र तो केवल अल्लाह और उसका रसूल तथा वे लोग हैं जो ईमान लाए, जो नमाज़ क़ायम करते और ज़कात देते हैं और वे (अल्लाह के आगे) झुकने वाले हैं।

وَمَنْ يَّتَوَلَّ اللّٰهَ وَرَسُوْلَهٗ وَالَّذِيْنَ اٰمَنُوْا فَاِنَّ حِزْبَ اللّٰهِ هُمُ الْغٰلِبُوْنَ ࣖ٥٦
Wa may yatawallallāha wa rasūlahū wal-lażīna āmanū fa inna ḥizballāhi humul-gālibūn(a).
[56] तथा जो कोई अल्लाह और उसके रसूल को और उन लोगों को दोस्त बनाए, जो ईमान लाए हैं, तो निश्चय अल्लाह का दल ही वे लोग हैं जो प्रभावी हैं।

يٰٓاَيُّهَا الَّذِيْنَ اٰمَنُوْا لَا تَتَّخِذُوا الَّذِيْنَ اتَّخَذُوْا دِيْنَكُمْ هُزُوًا وَّلَعِبًا مِّنَ الَّذِيْنَ اُوْتُوا الْكِتٰبَ مِنْ قَبْلِكُمْ وَالْكُفَّارَ اَوْلِيَاۤءَۚ وَاتَّقُوا اللّٰهَ اِنْ كُنْتُمْ مُّؤْمِنِيْنَ٥٧
Yā ayyuhal-lażīna āmanū lā tattakhiżul-lażīnattakhażū dīnakum huzuwaw wa la‘ibam minal-lażīna ūtul-kitāba min qablikum wal-kuffāra auliyā'(a), wattaqullāha in kuntum mu'minīn(a).
[57] ऐ ईमान वालो! उन लोगों को जिन्होंने तुम्हारे धर्म को उपहास और खेल बना लिया, उन लोगों में से जिन्हें तुमसे पहले पुस्तक दी गई है और काफ़िरों को मित्र न बनाओ और अल्लाह से डरो, यदि तुम ईमान वाले हो।

وَاِذَا نَادَيْتُمْ اِلَى الصَّلٰوةِ اتَّخَذُوْهَا هُزُوًا وَّلَعِبًا ۗذٰلِكَ بِاَ نَّهُمْ قَوْمٌ لَّا يَعْقِلُوْنَ٥٨
Wa iżā nādaitum ilaṣ-ṣalātittakhażūhā huzuwaw wa la‘ibā(n), żālika bi'annahum qaumul lā ya‘qilūn(a).
[58] और जब तुम नमाज़ के लिए पुकारते हो, तो वे उसे उपहास और खेल बना लेते हैं। यह इसलिए कि वे ऐसे लोग हैं जो समझते नहीं।

قُلْ يٰٓاَهْلَ الْكِتٰبِ هَلْ تَنْقِمُوْنَ مِنَّآ اِلَّآ اَنْ اٰمَنَّا بِاللّٰهِ وَمَآ اُنْزِلَ اِلَيْنَا وَمَآ اُنْزِلَ مِنْ قَبْلُۙ وَاَنَّ اَكْثَرَكُمْ فٰسِقُوْنَ٥٩
Qul yā ahlal-kitābi hal tanqimūna minnā illā an āmannā billāhi wa mā unzila ilainā wa mā unzila min qabl(u), wa anna akṡarakum fāsiqūn(a).
[59] (ऐ नबी!) आप कह दें : ऐ किताब वालो! तुम्हें हमारी केवल यह बात बुरी लगती है कि हम अल्लाह पर ईमान लाए और उसपर जो हमारी ओर उतारा गया और उसपर भी जो हमसे पहले उतारा गया और यह कि निःसंदेह तुममें से अधिकतर लोग अवज्ञाकारी हैं।

قُلْ هَلْ اُنَبِّئُكُمْ بِشَرٍّ مِّنْ ذٰلِكَ مَثُوْبَةً عِنْدَ اللّٰهِ ۗمَنْ لَّعَنَهُ اللّٰهُ وَغَضِبَ عَلَيْهِ وَجَعَلَ مِنْهُمُ الْقِرَدَةَ وَالْخَنَازِيْرَ وَعَبَدَ الطَّاغُوْتَۗ اُولٰۤىِٕكَ شَرٌّ مَّكَانًا وَّاَضَلُّ عَنْ سَوَاۤءِ السَّبِيْلِ٦٠
Qul hal unabbi'ukum bisyarrim min żālika maṡūbatan ‘indallāh(i), mal la‘anahullāhu wa gaḍiba ‘alaihi wa ja‘ala minhumul-qiradata wal-khanāzīra wa ‘abadaṭ-ṭāgūt(a), ulā'ika syarrum makānaw wa aḍallu ‘an sawā'is-sabīl(i).
[60] आप कह दें : क्या मैं तुम्हें अल्लाह के निकट इससे अधिक बुरा बदला वाले लोग बताऊँ, वे लोग जिनपर अल्लाह ने ला'नत की और जिनपर क्रोधित हुआ, और जिनमें से बंदर और सूअर बना दिए और जिन्होंने 'ताग़ूत' की पूजा की। ये लोग दर्जे में अधिक बुरे तथा सीधे मार्ग से अधिक भटके हुए हैं।

وَاِذَا جَاۤءُوْكُمْ قَالُوْٓا اٰمَنَّا وَقَدْ دَّخَلُوْا بِالْكُفْرِ وَهُمْ قَدْ خَرَجُوْا بِهٖ ۗوَاللّٰهُ اَعْلَمُ بِمَا كَانُوْا يَكْتُمُوْنَ٦١
Wa iżā jā'ūkum qālū āmannā wa qad dakhalū bil-kufri wa hum qad kharajū bih(ī), wallāhu a‘lamu bimā kānū yaktumūn(a).
[61] और जब वे37 तुम्हारे पास आते हैं, तो कहते हैं कि हम ईमान लाए, हालाँकि निश्चय वे कुफ़्र के साथ प्रवेश किए और निश्चय उसी के साथ वे निकल गए। तथा अल्लाह अधिक जानने वाला है, जो वे छिपाते थे।
37. इसमें मुनाफ़िक़ों का दुराचार बताया गया है।

وَتَرٰى كَثِيْرًا مِّنْهُمْ يُسَارِعُوْنَ فِى الْاِثْمِ وَالْعُدْوَانِ وَاَكْلِهِمُ السُّحْتَۗ لَبِئْسَ مَا كَانُوْا يَعْمَلُوْنَ٦٢
Wa tarā kaṡīram minhum yusāri‘ūna fil-iṡmi wal-‘udwāni wa aklihimus-suḥt(a), labi'sa mā kānū ya‘malūn(a).
[62] तथा आप उनमें से बहुतों को देखेंगे कि वे पाप तथा अत्याचार और अपनी हरामख़ोरी में दौड़कर जाते हैं। निश्चय बहुत बुरा है, जो वे किया करते थे।

لَوْلَا يَنْهٰىهُمُ الرَّبّٰنِيُّوْنَ وَالْاَحْبَارُ عَنْ قَوْلِهِمُ الْاِثْمَ وَاَكْلِهِمُ السُّحْتَۗ لَبِئْسَ مَا كَانُوْا يَصْنَعُوْنَ٦٣
Lau lā yanhāhumur-rabbāniyyūna wal-aḥbāru ‘an qaulihimul-iṡma wa aklihimus-suḥt(a), labi'sa mā kānū yaṣna‘ūn(a).
[63] उन्हें अल्लाह वाले तथा विद्वान उनके झूठ कहने तथा उनके हराम खाने से क्यों नहीं रोकते? निश्चय बुरा है, जो वे किया करते थे।

وَقَالَتِ الْيَهُوْدُ يَدُ اللّٰهِ مَغْلُوْلَةٌ ۗغُلَّتْ اَيْدِيْهِمْ وَلُعِنُوْا بِمَا قَالُوْا ۘ بَلْ يَدٰهُ مَبْسُوْطَتٰنِۙ يُنْفِقُ كَيْفَ يَشَاۤءُۗ وَلَيَزِيْدَنَّ كَثِيْرًا مِّنْهُمْ مَّآ اُنْزِلَ اِلَيْكَ مِنْ رَّبِّكَ طُغْيَانًا وَّكُفْرًاۗ وَاَلْقَيْنَا بَيْنَهُمُ الْعَدَاوَةَ وَالْبَغْضَاۤءَ اِلٰى يَوْمِ الْقِيٰمَةِۗ كُلَّمَآ اَوْقَدُوْا نَارًا لِّلْحَرْبِ اَطْفَاَهَا اللّٰهُ ۙوَيَسْعَوْنَ فِى الْاَرْضِ فَسَادًاۗ وَاللّٰهُ لَا يُحِبُّ الْمُفْسِدِيْنَ٦٤
Wa qālatil-yahūdu yadullāhi maglūlah(tun), gullat aidīhim wa lu‘inū bimā qālū, bal yadāhu mabsūṭatān(i), yunfiqu kaifa yasyā'(u), wa layazīdanna kaṡīram minhum mā unzila ilaika mir rabbika ṭugyānaw wa kufrā(n), wa alqainā bainahumul-‘adāwata wal-bagḍā'a ilā yaumil-qiyāmah(ti), kullamā auqadū nāral lil-ḥarbi aṭfa'ahallāh(u), wa yas‘auna fil-arḍi fasādā(n), wallāhu lā yuḥibbul-mufsidīn(a).
[64] तथा यहूदियों ने कहा कि अल्लाह का हाथ बँधा38 हुआ है। उनके हाथ बाँधे गए और उनपर ला'नत की गई, उसके कारण जो उन्होंने कहा। बल्कि उसके दोनों हाथ खुले हुए हैं। वह जैसे चाहता है, खर्च करता है। और निश्चय जो कुछ (ऐ रसूल!) आपकी ओर आपके पालनहार की तरफ़ से उतारा गया है, वह उनमें से बहुत-से लोगों को सरकशी (उद्दंडता) और कुफ़्र में अवश्य बढ़ा देगा। तथा हमने उनके बीच क़ियामत के दिन तक शत्रुता और द्वेष डाल दिया। जब कभी वे लड़ाई की कोई आग भड़काते हैं, अल्लाह उसे बुझा39 देता है। तथा वे धरती में उपद्रव का प्रयास करते रहते हैं और अल्लाह उपद्रव करने वालों से प्रेम नहीं करता।
38. अरबी मुह़ावरे में हाथ बँधे का अर्थ है कंजूस होना, और दान करने से हाथ रोकना। (देखिए : सूरत आल-इमरान, आयत : 181) 39. अर्थात उनके षड्यंत्र को सफल नहीं होने देता, बल्कि उनका कुफल उन्हीं को भोगना पड़ता है। जैसा कि नबी (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) के समय में विभिन्न दशाओं में हुआ।

وَلَوْ اَنَّ اَهْلَ الْكِتٰبِ اٰمَنُوْا وَاتَّقَوْا لَكَفَّرْنَا عَنْهُمْ سَيِّاٰتِهِمْ وَلَاَدْخَلْنٰهُمْ جَنّٰتِ النَّعِيْمِ٦٥
Wa lau anna ahlal-kitābi āmanū wattaqau lakaffarnā ‘anhum sayyi'ātihim wa la'adkhalnāhum jannātin-na‘īm(i).
[65] और यदि वास्तव में अह्ले किताब ईमान ले आते तथा (अल्लाह से) डरते, तो हम अवश्य उनकी बुराइयाँ उनसे दूर कर देते और उन्हें अवश्य नेमतों वाली जन्नतों में दाखिल करते।

وَلَوْ اَنَّهُمْ اَقَامُوا التَّوْرٰىةَ وَالْاِنْجِيْلَ وَمَآ اُنْزِلَ اِلَيْهِمْ مِّنْ رَّبِّهِمْ لَاَكَلُوْا مِنْ فَوْقِهِمْ وَمِنْ تَحْتِ اَرْجُلِهِمْۗ مِنْهُمْ اُمَّةٌ مُّقْتَصِدَةٌ ۗ وَكَثِيْرٌ مِّنْهُمْ سَاۤءَ مَا يَعْمَلُوْنَ ࣖ٦٦
Wa lau annahum aqāmut-taurāta wal-injīla wa mā unzila ilaihim mir rabbihim la'akalū min fauqihim wa min taḥti arjulihim, minhum ummatum muqtaṣidah(tun), wa kaṡīrum minhum sā'a mā ya‘malūn(a).
[66] तथा यदि वे वास्तव में तौरात और इंजील का पालन40 करते और उसका जो उनके पालनहार की तरफ़ से उनकी ओर उतारा गया है, तो निश्चय वे अपने ऊपर से तथा अपने पैरों के नीचे से41 खाते। उनमें से एक समूह मध्यम मार्ग पर है और उनमें से बहुत-से लोग जो कर रहे हैं, वह बहुत बुरा है।
40. अर्थात उनके आदेशों का पालन करते और उसे अपना जीवन विधान बनाते। 41. अर्थात आकाश की वर्षा तथा धर्ती की उपज में अधिकता होती।

۞ يٰٓاَيُّهَا الرَّسُوْلُ بَلِّغْ مَآ اُنْزِلَ اِلَيْكَ مِنْ رَّبِّكَ ۗوَاِنْ لَّمْ تَفْعَلْ فَمَا بَلَّغْتَ رِسٰلَتَهٗ ۗوَاللّٰهُ يَعْصِمُكَ مِنَ النَّاسِۗ اِنَّ اللّٰهَ لَا يَهْدِى الْقَوْمَ الْكٰفِرِيْنَ٦٧
Yā ayyuhar-rasūlu ballig mā unzila ilaika mir rabbik(a), wa illam taf‘al famā ballagta risālatah(ū), wallāhu ya‘ṣimuka minan-nās(i), innallāha lā yahdil-qaumal-kāfirīn(a).
[67] ऐ रसूल!42 जो कुछ आपपर आपके पालनहार की ओर से उतारा गया है, उसे पहुँचा दें। और यदि आपने (ऐसा) न किया, तो आपने उसका संदेश नहीं पहुँचाया। और अल्लाह आपको लोगों से बचाएगा।43 निःसंदेह अल्लाह काफ़िर लोगों को मार्गदर्शन नहीं प्रदान करता।
42. अर्थात मुह़म्मद सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम। 43. नबी (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) के नबी होने के पश्चात् आपपर विरोधियों ने कई बार प्राण घातक आक्रमण का प्रयास किया। जब आपने मक्का में सफ़ा पर्वत से एकेश्वरवाद का उपदेश दिया, तो आपके चचा अबू लहब ने आपपर पत्थर चलाए। फिर उसी युग में आप काबा के पास नमाज़ पढ़ रहे थे कि अबू जह्ल ने आपकी गर्दन रौंदने का प्रयास किया, किंतु आपके रक्षक फ़रिश्तों को देखकर भागा। और जब क़ुरैश ने यह योजना बनाई कि आपको वध कर दिया जाए, और प्रत्येक क़बीले का एक युवक आपके द्वार पर तलवार लेकर खड़ा रहे और आप निकलें तो सब एक साथ प्रहार कर दें, तब भी आप उनके बीच से निकल गए और किसी ने देखा भी नहीं। फिर आपने अपने साथी अबू बक्र के साथ हिजरत के समय सौर पर्वत की गुफा में शरण ली। काफ़िर गुफा के मुँह तक आपकी खोज में आ पहुँचे, उन्हें आपके साथी ने देखा, किंतु वे आपको नहीं देख सके। तथा जब आप वहाँ से मदीना चले, तो सुराक़ा नामी एक व्यक्ति ने क़रैश के पुरस्कार के लोभ में आकर आपका पीछा किया। किंतु उसके घोड़े के अगले पैर भूमि में धंस गए। उसने आपको गुहारा, आपने दुआ कर दी, और उसका घोड़ा निकल गया। उसने ऐसा प्रयास तीन बार किया, फिर भी असफल रहा। आपने उसको क्षमा कर दिया। और यह देखकर वह मुसलमान हो गया। आपने फरमाया कि एक दिन तुम अपने हाथ में ईरान के राजा का कंगन पहनोगे। और उमर बिन ख़त्ताब के युग में यह बात सच साबित हुई। मदीने में भी यहूदियों के क़बीले बनू नज़ीर ने छत के ऊपर से आप पर भारी पत्थर गिराने का प्रयास किया, जिससे अल्लाह ने आपको सूचित कर दिया। ख़ैबर की एक यहूदी स्त्री ने आपको विष मिलाकर बकरी का मांस खिलाया। परंतु आपपर उसका कोई बड़ा प्रभाव नहीं हुआ। जबकि आपका एक साथी उसे खाकर मर गया। एक युद्ध यात्रा में आप अकेले एक वृक्ष के नीचे सो गए। एक व्यक्ति आया और आप की तलवार लेकर कहा : मुझसे आपको कौन बचाएगा? आपने कहा : अल्लाह! यह सुनकर वह काँपने लगा और उस के हाथ से तलवार गिर गई। आपने उसे क्षमा कर दिया। इन सब घटनाओं से यह सिद्ध हो जाता है कि अल्लाह ने आपकी रक्षा करने का जो वचन आपको दिया, उसको पूरा कर दिया।

قُلْ يٰٓاَهْلَ الْكِتٰبِ لَسْتُمْ عَلٰى شَيْءٍ حَتّٰى تُقِيْمُوا التَّوْرٰىةَ وَالْاِنْجِيْلَ وَمَآ اُنْزِلَ اِلَيْكُمْ مِّنْ رَّبِّكُمْ ۗوَلَيَزِيْدَنَّ كَثِيْرًا مِّنْهُمْ مَّآ اُنْزِلَ اِلَيْكَ مِنْ رَّبِّكَ طُغْيَانًا وَّكُفْرًاۚ فَلَا تَأْسَ عَلَى الْقَوْمِ الْكٰفِرِيْنَ٦٨
Qul yā ahlal-kitābi lastum ‘alā syai'in ḥattā tuqīmut-taurāta wal-injīla wa mā unzila ilaikum mir rabbikum, wa layazīdanna kaṡīram minhum mā unzila ilaika mir rabbika ṭugyānaw wa kufrā(n), falā ta'sa ‘alal-qaumil-kāfirīn(a).
[68] (ऐ नबी!) आप कह दें : ऐ अह्ले किताब! तुम किसी चीज़ पर नहीं हो, यहाँ तक कि तुम तौरात और इंजील को क़ायम करो44 और उसको जो तुम्हारी ओर तुम्हारे पालनहार की तरफ़ से उतारा गया है। तथा निश्चय जो कुछ आपकी ओर आपके पालनहार की तरफ़ से उतारा गया है, वह उनमें से बहुत से लोगों को उल्लंघन और कुफ़्र में अवश्य बढ़ा देगा। अतः आप काफ़िर लोगों पर दुखी न हों।
44. अर्थात उनके आदेशों का पालन करो।

اِنَّ الَّذِيْنَ اٰمَنُوْا وَالَّذِيْنَ هَادُوْا وَالصَّابِـُٔوْنَ وَالنَّصٰرٰى مَنْ اٰمَنَ بِاللّٰهِ وَالْيَوْمِ الْاٰخِرِ وَعَمِلَ صَالِحًا فَلَا خَوْفٌ عَلَيْهِمْ وَلَا هُمْ يَحْزَنُوْنَ٦٩
Innal-lażīna āmanū wal-lażīna hādū waṣ-ṣābi'ūna wan-naṣārā man āmana billāhi wal-yaumil-ākhiri wa ‘amila ṣāliḥan falā khaufun ‘alaihim wa lā hum yaḥzanūn(a).
[69] निःसंदेह जो लोग ईमान लाए और जो यहूदी बने, तथा साबी और ईसाई, जो भी अल्लाह तथा अंतिम दिन पर ईमान लाया और उसने अच्छा कर्म किया, तो उनपर न कोई डर है और न वे शोकाकुल45 होंगे।
45. आयत का भावार्थ यह है कि इस्लाम से पहले यहूदी, ईसाई तथा साबी जिन्होंने अपने धर्म को पकड़ रखा है, और उसमें किसी प्रकार का हेरफेर नहीं किया, अल्लाह और आख़िरत पर ईमान रखा और सत्कर्म किए उनको कोई भय और चिंता नहीं होनी चाहिए। इसी प्रकार की आयत सूरतुल-बक़रा (62) में भी आई है, जिसके विषय में आता है कि कुछ लोगों ने नबी (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) से प्रश्न किया कि उन लोगों का क्या होगा जो अपने धर्म पर स्थित थे और मर गए? इसी पर यह आयत उतरी। परंतु अब नबी (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) और आपके लाए धर्म पर ईमान लाना अनिवार्य है, इसके बिना मोक्ष (नजात) नहीं मिल सकता।

لَقَدْ اَخَذْنَا مِيْثَاقَ بَنِيْٓ اِسْرَاۤءِيْلَ وَاَرْسَلْنَآ اِلَيْهِمْ رُسُلًا ۗ كُلَّمَا جَاۤءَهُمْ رَسُوْلٌۢ بِمَا لَا تَهْوٰٓى اَنْفُسُهُمْۙ فَرِيْقًا كَذَّبُوْا وَفَرِيْقًا يَّقْتُلُوْنَ٧٠
Laqad akhażnā mīṡāqa banī isrā'īla wa arsalnā ilaihim rusulā(n), kullamā jā'ahum rasūlum bimā lā tahwā anfusuhum, farīqan każżabū wa farīqay yaqtulūn(a).
[70] निःसंदेह हमने बनी इसराईल से दृढ़ वचन लिया तथा उनकी ओर कई रसूल भेजे। जब कभी कोई रसूल उनके पास वह चीज़ लेकर आया, जिसे उनके दिल नहीं चाहते थे, तो उन्होंने एक गिरोह को झुठला दिया तथा एक गिरोह को क़त्ल करते रहे।

وَحَسِبُوْٓا اَلَّا تَكُوْنَ فِتْنَةٌ فَعَمُوْا وَصَمُّوْا ثُمَّ تَابَ اللّٰهُ عَلَيْهِمْ ثُمَّ عَمُوْا وَصَمُّوْا كَثِيْرٌ مِّنْهُمْۗ وَاللّٰهُ بَصِيْرٌۢ بِمَا يَعْمَلُوْنَ٧١
Wa ḥasibū allā takūna fitnatun fa ‘amū wa ṣammū ṡumma tāballāhu ‘alaihim ṡumma ‘amū wa ṣammū kaṡīrum minhum, wallāhu baṣīrum bimā ya‘malūn(a).
[71] तथा उन्होंने सोचा कि कोई फ़ितना (परीक्षण या दंड) नहीं होगा, इसलिए वे अंधे और बहरे हो गए। फिर अल्लाह ने उन्हें क्षमा कर दिया। फिर उनमें से बहुत से अंधे और बहरे हो गए। तथा अल्लाह ख़ूब देखने वाला है, जो वे करते हैं।

لَقَدْ كَفَرَ الَّذِيْنَ قَالُوْٓا اِنَّ اللّٰهَ هُوَ الْمَسِيْحُ ابْنُ مَرْيَمَ ۗوَقَالَ الْمَسِيْحُ يٰبَنِيْٓ اِسْرَاۤءِيْلَ اعْبُدُوا اللّٰهَ رَبِّيْ وَرَبَّكُمْ ۗاِنَّهٗ مَنْ يُّشْرِكْ بِاللّٰهِ فَقَدْ حَرَّمَ اللّٰهُ عَلَيْهِ الْجَنَّةَ وَمَأْوٰىهُ النَّارُ ۗوَمَا لِلظّٰلِمِيْنَ مِنْ اَنْصَارٍ٧٢
Laqad kafaral-lażīna qālū innallāha huwal-masīḥubnu maryam(a), wa qālal-masīḥu yā banī isrā'īla‘budullāha rabbī wa rabbakum, innahū may yusyrik billāhi faqad ḥarramallāhu ‘alaihil-jannata wa ma'wāhun nār(u), wa mā liẓ-ẓālimīna min anṣār(in).
[72] निःसंदेह उन लोगों ने कुफ़्र किया, जिन्होंने कहा कि निःसंदेह अल्लाह46 तो मरयम का बेटा मसीह ही है। जबकि मसीह ने कहा : ऐ बनी इसराईल! अल्लाह की इबादत करो, जो मेरा पालनहार तथा तुम्हारा पालनहार है। निःसंदेह सच्चाई यह है कि जो भी अल्लाह के साथ साझी बनाए, तो निश्चय उसपर अल्लाह ने जन्नत हराम (वर्जित) कर दी और उसका ठिकाना आग (जहन्नम) है। तथा अत्याचारियों के लिए कोई मदद करने वाले नहीं।
46. आयत का भावार्थ यह है कि ईसाइयों को भी मूल धर्म एकेश्वरवाद और सत्कर्म की शिक्षा दी गई थी। परंतु वे भी उससे फिर गए, तथा ईसा को स्वयं अल्लाह अथवा अल्लाह का अंश बना दिया, और पिता-पुत्र और पवित्रात्मा तीनों के योग को एक प्रभु मानने लगे।

لَقَدْ كَفَرَ الَّذِيْنَ قَالُوْٓا اِنَّ اللّٰهَ ثَالِثُ ثَلٰثَةٍ ۘ وَمَا مِنْ اِلٰهٍ اِلَّآ اِلٰهٌ وَّاحِدٌ ۗوَاِنْ لَّمْ يَنْتَهُوْا عَمَّا يَقُوْلُوْنَ لَيَمَسَّنَّ الَّذِيْنَ كَفَرُوْا مِنْهُمْ عَذَابٌ اَلِيْمٌ٧٣
Laqad kafaral-lażīna qālū innallāha ṡāliṡu ṡalāsah(tin), wa mā min ilāhin illā ilāhuw wāḥid(un), wa illam yantahū ‘ammā yaqūlūna layamassannal-lażīna kafarū minhum ‘ażābun alīm(un).
[73] निःसंदेह उन लोगों ने कुफ़्र किया, जिन्होंने कहा : निःसंदेह अल्लाह तीन में से तीसरा है! हालाँकि कोई भी पूज्य नहीं है, परंतु एक पूज्य। और यदि वे उससे नहीं रुके जो वे कहते हैं, तो निश्चय उनमें से जिन लोगों ने कुफ़्र किया, उन्हें अवश्य दर्दनाक यातना पहुँचेगी।

اَفَلَا يَتُوْبُوْنَ اِلَى اللّٰهِ وَيَسْتَغْفِرُوْنَهٗۗ وَاللّٰهُ غَفُوْرٌ رَّحِيْمٌ٧٤
Afalā yatūbūna ilallāhi wa yastagfirūnah(ū), wallāhu gafūrur raḥīm(un).
[74] तो क्या वे अल्लाह के समक्ष तौबा नहीं करते तथा उससे क्षमा याचना नहीं करते, और अल्लाह अति क्षमाशील, अत्यंत दयावान् है।

مَا الْمَسِيْحُ ابْنُ مَرْيَمَ اِلَّا رَسُوْلٌۚ قَدْ خَلَتْ مِنْ قَبْلِهِ الرُّسُلُۗ وَاُمُّهٗ صِدِّيْقَةٌ ۗ كَانَا يَأْكُلَانِ الطَّعَامَ ۗ اُنْظُرْ كَيْفَ نُبَيِّنُ لَهُمُ الْاٰيٰتِ ثُمَّ انْظُرْ اَنّٰى يُؤْفَكُوْنَ٧٥
Mal-masīḥubnu maryama illā rasūl(un), qad khalat min qablihir rusul(u), wa ummuhū ṣiddīqah(tun), kānā ya'kulāniṭ-ṭa‘ām(a), unẓur kaifa nubayyinu lahumul-āyāti ṡummanẓur annā yu'fakūn(a).
[75] मरयम का बेटा मसीह एक रसूल के सिवा कुछ नहीं। निश्चय उससे पहले बहुत-से रसूल गुज़र चुके और उसकी माँ सिद्दीक़ा (अत्यंत सच्ची) है। दोनों खाना खाया करते थे। देखो, हम उनके लिए किस तरह निशानियाँ स्पष्ट करते हैं। फिर देखो, वे किस तरह फेरे47 जाते हैं।
47. आयत का भावार्थ यह है कि ईसाइयों को भी मूल धर्म एकेश्वरवाद और सत्कर्म की शिक्षा दी गई थी। परंतु वे भी उससे फिर गए, तथा ईसा को स्वयं अल्लाह तथा अल्लाह का अंश बना दिया, और पिता-पुत्र और पवित्रात्मा तीनों के योग को एक प्रभु मानने लगे।

قُلْ اَتَعْبُدُوْنَ مِنْ دُوْنِ اللّٰهِ مَا لَا يَمْلِكُ لَكُمْ ضَرًّا وَّلَا نَفْعًا ۗوَاللّٰهُ هُوَ السَّمِيْعُ الْعَلِيْمُ٧٦
Qul ata‘budūna min dūnillāhi mā lā yamliku lakum ḍarraw wa lā naf‘ā(n), wallāhu huwas-samī‘ul-‘alīm(u).
[76] आप कह दें : क्या तुम अल्लाह के सिवा उसकी इबादत करते हो, जो तुम्हारे लिए न किसी हानि का मालिक है और न लाभ का? तथा अल्लाह ही सब कुछ सुनने वाला, सब कुछ जानने वाला है।

قُلْ يٰٓاَهْلَ الْكِتٰبِ لَا تَغْلُوْا فِيْ دِيْنِكُمْ غَيْرَ الْحَقِّ وَلَا تَتَّبِعُوْٓا اَهْوَاۤءَ قَوْمٍ قَدْ ضَلُّوْا مِنْ قَبْلُ وَاَضَلُّوْا كَثِيْرًا وَّضَلُّوْا عَنْ سَوَاۤءِ السَّبِيْلِ ࣖ٧٧
Qul yā ahlal-kitābi lā taglū fī dīnikum gairal-ḥaqqi wa lā tattabi‘ū ahwā'a qaumin qad ḍallū min qablu wa aḍallū kaṡīraw wa ḍallū ‘an sawā'is-sabīl(i).
[77] (ऐ नबी!) कह दो : ऐ अह्ले किताब! अपने धर्म में नाहक़ अतिशयोक्ति न करो48 और उन लोगों की इच्छाओं के पीछे न चलो, जो इससे पहले पथभ्रष्ट49 हुए और बहुतों को पथभ्रष्ट किया और सीधे मार्ग से भटक गए।
48. "अतिशयोक्ति न करो" अर्थात ईसा अलैहिस्सलाम को प्रभु अथवा प्रभु का पुत्र न बनाओ। 49. इनसे अभिप्राय वे हो सकते हैं, जो नबियों को स्वयं प्रभु अथवा प्रभु का अंश मानते हैं।

لُعِنَ الَّذِيْنَ كَفَرُوْا مِنْۢ بَنِيْٓ اِسْرَاۤءِيْلَ عَلٰى لِسَانِ دَاوٗدَ وَعِيْسَى ابْنِ مَرْيَمَ ۗذٰلِكَ بِمَا عَصَوْا وَّكَانُوْا يَعْتَدُوْنَ٧٨
Lu‘inal-lażīna kafarū mim banī isrā'īla ‘alā lisāni dāwūda wa ‘īsabni maryam(a), żālika bimā ‘aṣaw wa kānū ya‘tadūn(a).
[78] बनी इसराईल में से जिन लोगों ने कुफ़्र किया, उनपर दाऊद तथा मरयम के बेटे ईसा की ज़बान पर ला'नत (धिक्कार)50 की गई। यह इस कारण कि उन्होंने अवज्ञा की तथा वे हद से आगे बढ़ते थे।
50. अर्थात धर्म पुस्तक ज़बूर तथा इंजील में इनके धिक्कृत होने की सूचना दी गई है। (इब्ने कसीर)

كَانُوْا لَا يَتَنَاهَوْنَ عَنْ مُّنْكَرٍ فَعَلُوْهُۗ لَبِئْسَ مَا كَانُوْا يَفْعَلُوْنَ٧٩
Kānū lā yatanāhauna ‘am munkarin fa‘alūh(u), labi'sa mā kānū yaf‘alūn(a).
[79] वे एक-दूसरे को किसी बुराई से, जो उन्होंने की होती, रोकते न थे। निःसंदेह बहुत बुरा था, जो वे किया करते थे।51
51. इस आयत में उनपर धिक्कार का कारण बताया गया है।

تَرٰى كَثِيْرًا مِّنْهُمْ يَتَوَلَّوْنَ الَّذِيْنَ كَفَرُوْا ۗ لَبِئْسَ مَا قَدَّمَتْ لَهُمْ اَنْفُسُهُمْ اَنْ سَخِطَ اللّٰهُ عَلَيْهِمْ وَفِى الْعَذَابِ هُمْ خٰلِدُوْنَ٨٠
Tarā kaṡīram minhum yatawallaunal-lażīna kafarū, labi'sa mā qaddamat lahum anfusuhum an sakhiṭallāhu ‘alaihim wa fil ‘ażābi hum khālidūn(a).
[80] आप उनमें से बहुतेरे लोगों को देखेंगे कि वे उन लोगों से मित्रता रखते हैं, जिन्होंने कुफ़्र किया। निश्चय बुरा है जो उन्होंने अपने लिए आगे भेजा कि अल्लाह उनपर क्रुद्ध हो गया तथा यातना ही में वे हमेशा रहने वाले हैं।

وَلَوْ كَانُوْا يُؤْمِنُوْنَ بِاللّٰهِ وَالنَّبِيِّ وَمَآ اُنْزِلَ اِلَيْهِ مَا اتَّخَذُوْهُمْ اَوْلِيَاۤءَ وَلٰكِنَّ كَثِيْرًا مِّنْهُمْ فٰسِقُوْنَ٨١
Wa lau kānū yu'minūna billāhi wan-nabiyyi wa mā unzila ilaihi mattakhażūhum auliyā'a wa lākinna kaṡīram minhum fāsiqūn(a).
[81] और यदि वे अल्लाह और नबी पर और उसपर ईमान रखते होते जो उसकी ओर उतारा गया है, तो उन्हें मित्र न बनाते52, लेकिन उनमें से बहुत से अवज्ञाकारी हैं।
52. भावार्थ यह है कि यदि यहूदी, मूसा अलैहिस्सलाम को अपना नबी और तौरात को अल्लाह की किताब मानते, जैसा कि उनका दावा है, तो वे मुसलमानों को शत्रु और काफ़िरों को मित्र नहीं बनाते। क़ुरआन का यह सच आज भी देखा जा सकता है।

۞ لَتَجِدَنَّ اَشَدَّ النَّاسِ عَدَاوَةً لِّلَّذِيْنَ اٰمَنُوا الْيَهُوْدَ وَالَّذِيْنَ اَشْرَكُوْاۚ وَلَتَجِدَنَّ اَقْرَبَهُمْ مَّوَدَّةً لِّلَّذِيْنَ اٰمَنُوا الَّذِيْنَ قَالُوْٓا اِنَّا نَصٰرٰىۗ ذٰلِكَ بِاَنَّ مِنْهُمْ قِسِّيْسِيْنَ وَرُهْبَانًا وَّاَنَّهُمْ لَا يَسْتَكْبِرُوْنَ ۔٨٢
Latajidanna asyaddan-nāsi ‘adāwatal lil-lażīna āmanul-yahūda wal-lażīna asyrakū, wa latajidanna aqrabahum mawaddatal lil-lażīna āmanul-lażīna qālū innā naṣārā, żālika bi'anna minhum qissīsīna wa ruhbānaw wa annahum lā yastakbirūn(a).
[82] (ऐ नबी!) निश्चय आप उन लोगों के लिए जो ईमान लाए हैं, सब लोगों से अधिक सख़्त दुश्मनी रखने वाले यहूदियों को तथा उन लोगों को पाएँगे, जिन्होंने शिर्क किया। तथा निश्चय आप उन लोगों के लिए जो ईमान लाए हैं, उनमें से मित्रता में सबसे निकट उनको पाएँगे, जिन्होंने कहा निःसंदेह हम ईसाई हैं। यह इसलिए कि निःसंदेह उनमें विद्वान तथा पादरी (उपासक) हैं और इसलिए कि निःसंदेह वे अभिमान53 नहीं करते।
53. अब्दुल्लाह बिन अब्बास (रज़ियल्लाहु अन्हुमा) कहते हैं कि यह आयत ह़ब्शा के राजा नजाशी और उसके साथियों के बारे में उतरी, जो क़ुरआन सुनकर रोने लगे, और मुसलमान हो गए। (इब्ने जरीर)

وَاِذَا سَمِعُوْا مَآ اُنْزِلَ اِلَى الرَّسُوْلِ تَرٰٓى اَعْيُنَهُمْ تَفِيْضُ مِنَ الدَّمْعِ مِمَّا عَرَفُوْا مِنَ الْحَقِّۚ يَقُوْلُوْنَ رَبَّنَآ اٰمَنَّا فَاكْتُبْنَا مَعَ الشّٰهِدِيْنَ٨٣
Wa iżā sami‘ū mā unzila ilar-rasūli tarā a‘yunahum tafīḍu minad-dam‘i mimmā ‘arafū minal-ḥaqq(i), yaqūlūna rabbanā āmannā faktubnā ma‘asy-syāhidīn(a).
[83] तथा जब वे उस (क़ुरआन) को सुनते हैं, जो रसूल की ओर उतारा गया है, तो आप देखते हैं कि उनकी आँखें आँसुओं से बह रही होती हैं, इस कारण कि उन्होंने सत्य को पहचान लिया। वे कहते हैं : ऐ हमारे पालनहार! हम ईमान ले आए। अतः हमें (सत्य) की गवाही देने वालों के साथ लिख54 ले।
54. जब जाफ़र (रज़ियल्लाहु अन्हु) ने ह़ब्शा के राजा नजाशी को सूरत मरयम की आरंभिक आयतें सुनाईं, तो वह और उस के पादरी रोने लगे। (सीरत इब्ने हिशाम 1/359)

وَمَا لَنَا لَا نُؤْمِنُ بِاللّٰهِ وَمَا جَاۤءَنَا مِنَ الْحَقِّۙ وَنَطْمَعُ اَنْ يُّدْخِلَنَا رَبُّنَا مَعَ الْقَوْمِ الصّٰلِحِيْنَ٨٤
Wa mā lanā lā nu'minu billāhi wa mā jā'anā minal-ḥaqq(i), wa naṭma‘u ay yudkhilanā rabbunā ma‘al-qaumiṣ-ṣāliḥīn(a).
[84] और हमें क्या है कि हम अल्लाह पर तथा उस सत्य पर ईमान न लाएँ, जो हमारे पास आया है? जबकि हम आशा रखते हैं कि हमारा पालनहार हमें सदाचारियों के साथ दाखिल कर लेगा।

فَاَثَابَهُمُ اللّٰهُ بِمَا قَالُوْا جَنّٰتٍ تَجْرِيْ مِنْ تَحْتِهَا الْاَنْهٰرُ خٰلِدِيْنَ فِيْهَاۗ وَذٰلِكَ جَزَاۤءُ الْمُحْسِنِيْنَ٨٥
Fa aṡābahumullāhu bimā qālū jannātin tajrī min taḥtihal-anhāru khālidīna fīhā, wa żālika jazā'ul-muḥsinīn(a).
[85] तो अल्लाह ने उनके यह कहने के बदले में उन्हें ऐसे बाग़ प्रदान किए, जिनके नीचे से नहरें बहती हैं, जिनमें वे सदैव रहने वाले हैं तथा यही सत्कर्मियों का बदला है।

وَالَّذِيْنَ كَفَرُوْا وَكَذَّبُوْا بِاٰيٰتِنَآ اُولٰۤىِٕكَ اَصْحٰبُ الْجَحِيْمِ ࣖ٨٦
Wal-lażīna kafarū wa każżabū bi'āyātinā ulā'ika aṣḥābul-jaḥīm(i).
[86] तथा जिन लोगों ने कुफ़्र किया और हमारी आयतों को झुठलाया, वही लोग भड़कती आग वाले हैं।

يٰٓاَيُّهَا الَّذِيْنَ اٰمَنُوْا لَا تُحَرِّمُوْا طَيِّبٰتِ مَآ اَحَلَّ اللّٰهُ لَكُمْ وَلَا تَعْتَدُوْا ۗاِنَّ اللّٰهَ لَا يُحِبُّ الْمُعْتَدِيْنَ٨٧
Yā ayyuhal-lażīna āmanū lā tuḥarrimū ṭayyibāti mā aḥallallāhu lakum wa lā ta‘tadū, innallāha lā yuḥibbul-mu‘tadīn(a).
[87] ऐ ईमान वालो! उन स्वच्छ पवित्र चीज़ों को, जो अल्लाह ने तुम्हारे लिए हलाल (वैध) की हैं, हराम (अवैध)55 न ठहराओ और सीमा से आगे न बढ़ो। निःसंदेह अल्लाह हद से आगे बढ़ने वालों56 से प्रेम नहीं करता।
55. अर्थात किसी भी खाद्य अथवा वस्तु को वैध अथवा अवैध करने का अधिकार केवल अल्लाह को है। 56. यहाँ से फिर आदेशों तथा निषेधों का वर्णन किया जा रहा है। अन्य धर्मों के अनुयायियों ने संन्यास को अल्लाह के सामीप्य का साधन समझ लिया था, और ईसाइयों ने संन्यास की रीति बना ली थी और अपने ऊपर सांसारिक उचित स्वाद तथा सुख को अवैध कर लिया था। इस लिए यहाँ सावधान किया जा रहा है कि यह कोई अच्छाई नहीं, बल्कि धर्म सीमा का उल्लंघन है।

وَكُلُوْا مِمَّا رَزَقَكُمُ اللّٰهُ حَلٰلًا طَيِّبًا ۖوَّاتَّقُوا اللّٰهَ الَّذِيْٓ اَنْتُمْ بِهٖ مُؤْمِنُوْنَ٨٨
Wa kulū mimmā razaqakumullāhu ḥalālan ṭayyibā(n), wattaqullāhal-lażī antum bihī mu'minūn(a).
[88] तथा अल्लाह ने तुम्हें जो कुछ दिया है, उसमें से हलाल, पवित्र (चीज़) खाओ और उस अल्लाह से डरो, जिसपर तुम ईमान रखते हो।

لَا يُؤَاخِذُكُمُ اللّٰهُ بِاللَّغْوِ فِيْٓ اَيْمَانِكُمْ وَلٰكِنْ يُّؤَاخِذُكُمْ بِمَا عَقَّدْتُّمُ الْاَيْمَانَۚ فَكَفَّارَتُهٗٓ اِطْعَامُ عَشَرَةِ مَسٰكِيْنَ مِنْ اَوْسَطِ مَا تُطْعِمُوْنَ اَهْلِيْكُمْ اَوْ كِسْوَتُهُمْ اَوْ تَحْرِيْرُ رَقَبَةٍ ۗفَمَنْ لَّمْ يَجِدْ فَصِيَامُ ثَلٰثَةِ اَيَّامٍ ۗذٰلِكَ كَفَّارَةُ اَيْمَانِكُمْ اِذَا حَلَفْتُمْ ۗوَاحْفَظُوْٓا اَيْمَانَكُمْ ۗ كَذٰلِكَ يُبَيِّنُ اللّٰهُ لَكُمْ اٰيٰتِهٖ لَعَلَّكُمْ تَشْكُرُوْنَ٨٩
Lā yu'ākhiżukumullāhu bil-lagwi fī aimānikum wa lākiy yu'ākhiżukum bimā ‘aqqattumul-aimān(a), fa kaffāratuhū iṭ‘āmu ‘asyarati masākīna min ausaṭi mā tuṭ‘imūna ahlīkum au kiswatuhum au taḥrīru raqabah(tin), famal lam yajid fa ṣiyāmu ṡalāṡati ayyām(in), żālika kaffāratu aimānikum iżā ḥalaftum, waḥfaẓū aimānakum, każālika yubayyinullāhu lakum āyātihī la‘allakum tasykurūn(a).
[89] अल्लाह तुम्हें तुम्हारी व्यर्थ क़समों57 पर नहीं पकड़ता, परंतु तुम्हें उसपर पकड़ता है जो तुमने पक्के इरादे से क़समें खाई हैं। तो उसका प्रायश्चित58 दस निर्धनों को भोजन कराना है, औसत दर्जे का, जो तुम अपने घर वालों को खिलाते हो, अथवा उन्हें कपड़े पहनाना, अथवा एक दास मुक्त करना। फिर जो न पाए, तो तीन दिन के रोज़े रखना है। यह तुम्हारी क़समों का प्रायश्चित है, जब तुम क़सम खा लो तथा अपनी क़समों की रक्षा करो। इसी प्रकार अल्लाह तुम्हारे लिए अपनी आयतें (आदेश) खोलकर बयान करता है, ताकि तुम आभार व्यक्त करो।
57. व्यर्थ अर्थात बिना निश्चय के। जैसे कोई बात-बात पर बोलता है : (नहीं, अल्लाह की क़सम!) अथवा (हाँ, अल्लाह की क़सम!) (बुख़ारी : 4613) 58. अर्थात यदि क़सम तोड़ दे, तो यह प्रायश्चित है।

يٰٓاَيُّهَا الَّذِيْنَ اٰمَنُوْٓا اِنَّمَا الْخَمْرُ وَالْمَيْسِرُ وَالْاَنْصَابُ وَالْاَزْلَامُ رِجْسٌ مِّنْ عَمَلِ الشَّيْطٰنِ فَاجْتَنِبُوْهُ لَعَلَّكُمْ تُفْلِحُوْنَ٩٠
Yā ayyuhal-lażīna āmanū innamal-khamru wal-maisiru wal-anṣābu wal-azlāmu rijsum min ‘amalisy-syaiṭāni fajtanibūhu la‘allakum tufliḥūn(a).
[90] ऐ ईमान वालो! बात यही है कि शराब59, जुआ, देवथान60 और फ़ाल निकालने के तीर61 सर्वथा गंदे और शैतानी कार्य हैं। अतः इनसे दूर रहो, ताकि तुम सफल हो।
59. शराब के निषेध के विषय में पहले सूरतुल-बक़रा आयत : 219, और सूरतुन-निसा, आयत : 43 में दो आदेश आ चुके हैं। और यह अंतिम आदेश है, जिसमें शराब को सदैव के लिए वर्जित कर दिया गया। 60. देवथान अर्थात वह वेदियाँ जिन पर देवी-देवताओं के नाम पर पशुओं की बलि दी जाती है। आयत का भावार्थ यह है कि अल्लाह के सिवा किसी अन्य के नाम से बलि दिया हुआ पशु अथवा प्रसाद अवैध है। 61. यानी पाँसे, ये तीन तीर होते हैं, जिनसे वे कोई काम करने के समय यह निर्णय लेते थे कि उसे करें या न करें। उनमें एक पर "करो" और दूसरे पर "मत करो" और तीसरे पर "शून्य" लिखा होता था।

اِنَّمَا يُرِيْدُ الشَّيْطٰنُ اَنْ يُّوْقِعَ بَيْنَكُمُ الْعَدَاوَةَ وَالْبَغْضَاۤءَ فِى الْخَمْرِ وَالْمَيْسِرِ وَيَصُدَّكُمْ عَنْ ذِكْرِ اللّٰهِ وَعَنِ الصَّلٰوةِ فَهَلْ اَنْتُمْ مُّنْتَهُوْنَ٩١
Innamā yurīdusy-syaiṭānu ay yūqi‘a bainakumul-‘adāwata wal-bagḍā'a fil-khamri wal-maisiri wa yaṣuddakum ‘an żikrillāhi wa ‘aniṣ-ṣalāti fahal antum muntahūn(a).
[91] शैतान तो यही चाहता है कि शराब तथा जुए के द्वारा तुम्हारे बीच बैर तथा द्वेष डाल दे और तुम्हें अल्लाह के स्मरण तथा नमाज़ से रोक दे, तो क्या तुम रुकने वाले हो?

وَاَطِيْعُوا اللّٰهَ وَاَطِيْعُوا الرَّسُوْلَ وَاحْذَرُوْا ۚفَاِنْ تَوَلَّيْتُمْ فَاعْلَمُوْٓا اَنَّمَا عَلٰى رَسُوْلِنَا الْبَلٰغُ الْمُبِيْنُ٩٢
Wa aṭī‘ullāha wa aṭī‘ur-rasūla waḥżarū, fa in tawallaitum fa‘lamū annamā ‘alā rasūlinal-balāgul-mubīn(u).
[92] तथा अल्लाह का आज्ञापालन करो और रसूल का आज्ञापालन करो और (अवज्ञा से) सावधान रहो। फिर यदि तुम विमुख हुए, तो जान लो कि हमारे रसूल पर केवल स्पष्ट रूप से (संदेश) पहुँचा देना है।

لَيْسَ عَلَى الَّذِيْنَ اٰمَنُوْا وَعَمِلُوا الصّٰلِحٰتِ جُنَاحٌ فِيْمَا طَعِمُوْٓا اِذَا مَا اتَّقَوْا وَّاٰمَنُوْا وَعَمِلُوا الصّٰلِحٰتِ ثُمَّ اتَّقَوْا وَّاٰمَنُوْا ثُمَّ اتَّقَوْا وَّاَحْسَنُوْا ۗوَاللّٰهُ يُحِبُّ الْمُحْسِنِيْنَ ࣖ٩٣
Laisa ‘alal-lażīna āmanū wa ‘amiluṣ-ṣāliḥāti ṡummattaqau wa āmanū ṡummattaqau wa aḥsanū, wallāhu yuḥibbul-muḥsinīn(a).
[93] उन लोगों पर जो ईमान लाए तथा उन्होंने अच्छे कर्म किए, उसमें कोई पाप नहीं जो वे खा चुके, जबकि वे अल्लाह से डरे तथा ईमान लाए और सत्कर्म किए, फिर वे डरते रहे और ईमान पर स्थिर रहे, फिर वे अल्लाह से डरे और उन्होंने अच्छे कार्य किए और अल्लाह अच्छे कार्य करने वालों से प्रेम करता62 है।
62. आयत का भावार्थ यह है कि जिन्होंने वर्जित चीज़ों का निषेधाज्ञा से पहले प्रयोग किया, फिर जब भी उनको निषिद्ध किया गया तो उनसे रुक गए, उनपर कोई दोष नहीं। सह़ीह़ ह़दीस में है कि जब शराब वर्जित की गई, तो कुछ लोगों ने कहा कि कुछ लोग इस स्थिति में मर गए कि वे शराब पीते थे। उसी पर यह आयत उतरी। (बुख़ारी : 4620) आप सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ने कहा : जो भी नशा लाए, वह मदिरा और अवैध है। (सह़ीह़ बुख़ारी : 2003) और इस्लाम में उसका दंड अस्सी कोड़े हैं। (बुख़ारी : 6779)

يٰٓاَيُّهَا الَّذِيْنَ اٰمَنُوْا لَيَبْلُوَنَّكُمُ اللّٰهُ بِشَيْءٍ مِّنَ الصَّيْدِ تَنَالُهٗٓ اَيْدِيْكُمْ وَرِمَاحُكُمْ لِيَعْلَمَ اللّٰهُ مَنْ يَّخَافُهٗ بِالْغَيْبِۚ فَمَنِ اعْتَدٰى بَعْدَ ذٰلِكَ فَلَهٗ عَذَابٌ اَلِيْمٌ٩٤
Yā ayyuhal-lażīna āmanū layabluwannakumullāhu bisyai'im minaṣ-ṣaidi tanāluhū aidīkum wa rimāḥukum liya‘lamallāhu may yakhāfuhū bil-gaib(i), fa mani‘tadā ba‘da żālika fa lahū ‘ażābun alīm(un).
[94] ऐ ईमान वालो! निश्चय अल्लाह शिकार में से किसी चीज़ के साथ तुम्हारी अवश्य परीक्षा लेगा, जिसपर तुम्हारे हाथ तथा भाले पहुँचते होंगे, ताकि अल्लाह जान ले कि कौन उससे बिन देखे डरता है। फिर जो उसके पश्चात सीमा से बढ़े, तो उसके लिए दर्दनाक यातना है।

يٰٓاَيُّهَا الَّذِيْنَ اٰمَنُوْا لَا تَقْتُلُوا الصَّيْدَ وَاَنْتُمْ حُرُمٌ ۗوَمَنْ قَتَلَهٗ مِنْكُمْ مُّتَعَمِّدًا فَجَزَۤاءٌ مِّثْلُ مَا قَتَلَ مِنَ النَّعَمِ يَحْكُمُ بِهٖ ذَوَا عَدْلٍ مِّنْكُمْ هَدْيًاۢ بٰلِغَ الْكَعْبَةِ اَوْ كَفَّارَةٌ طَعَامُ مَسٰكِيْنَ اَوْ عَدْلُ ذٰلِكَ صِيَامًا لِّيَذُوْقَ وَبَالَ اَمْرِهٖ ۗعَفَا اللّٰهُ عَمَّا سَلَفَ ۗوَمَنْ عَادَ فَيَنْتَقِمُ اللّٰهُ مِنْهُ ۗوَاللّٰهُ عَزِيْزٌ ذُو انْتِقَامٍ٩٥
Yā ayyuhal-lażīna āmanū lā taqtuluṣ-ṣaida wa antum ḥurum(un), wa man qatalahū minkum muta‘ammidan fa jazā'um miṡlu mā qatala minan-na‘ami yaḥkumu bihī żawā ‘adlim minkum hadyam bāligal-ka‘bati au kaffāratun ṭa‘āmu masākīna au ‘adlu żālika ṣiyāmal liyażūqa wabāla amrih(ī), ‘afallāhu ‘ammā salaf(a), wa man ‘āda fa yantaqimullāhu minh(u), wallāhu ‘azīzun żuntiqām(in).
[95] ऐ ईमान वालो! शिकार को न मारो63, जबकि तुम एहराम की स्थिति में हो। तथा तुममें से जो उसे जान-बूझकर मारे, तो चौपायों में से उसी जैसा बदला है जो उसने मारा है, जिसका निर्णय तुममें से दो न्यायप्रिय व्यक्ति करेंगे, जो क़ुर्बानी के रूप में काबा पहुँचने वाली है, या प्रायश्चित64 के रूप में निर्धनों को खाना खिलाना है, या उसके बराबर रोज़े रखने हैं, ताकि वह अपने किए का कष्ट चखे। अल्लाह ने क्षमा कर दिया जो कुछ हो चुका और जो फिर करे, तो अल्लाह उससे बदला लेगा और अल्लाह सबपर प्रभुत्वशाली, बदला लेने वाला है।
63. इससे अभिप्राय थल का शिकार है। 64. अर्थात यदि शिकार के पशु के समान पालतू पशु न हो, तो उसका मूल्य ह़रम के निर्धनों को खाने के लिए भेजा जाए अथवा उसके मूल्य से जितने निर्धनों को खिलाया जा सकता हो, उतने रोज़े रखे जाएँ।

اُحِلَّ لَكُمْ صَيْدُ الْبَحْرِ وَطَعَامُهٗ مَتَاعًا لَّكُمْ وَلِلسَّيَّارَةِ ۚوَحُرِّمَ عَلَيْكُمْ صَيْدُ الْبَرِّ مَا دُمْتُمْ حُرُمًا ۗوَاتَّقُوا اللّٰهَ الَّذِيْٓ اِلَيْهِ تُحْشَرُوْنَ٩٦
Uḥilla lakum ṣaidul-baḥri wa ṭa‘āmuhū matā‘al lakum wa lis-sayyārah(ti), wa ḥurrima ‘alaikum ṣaidul-barri mā dumtum ḥurumā(n), wattaqullāhal-lażī ilaihi tuḥsyarūn(a).
[96] तथा तुम्हारे लिए समुद्र (जल) का शिकार और उसका खाना65 हलाल कर दिया गया, तुम्हारे तथा यात्रियों के लाभ के लिए, तथा तुमपर भूमि का शिकार हराम कर दिया गया है जब तक तुम एहराम की स्थिति में रहो, और अल्लाह (की अवज्ञा) से डरो, जिसकी ओर तुम एकत्र किए जाओगे।
65. अर्थात जो बिना शिकार किए हाथ आए, जैसे मरी हुई मछली। अर्थात जल का शिकार एह़राम की स्थिति में तथा साधारण अवस्था में अनुमेय है।

۞ جَعَلَ اللّٰهُ الْكَعْبَةَ الْبَيْتَ الْحَرَامَ قِيٰمًا لِّلنَّاسِ وَالشَّهْرَ الْحَرَامَ وَالْهَدْيَ وَالْقَلَاۤىِٕدَ ۗذٰلِكَ لِتَعْلَمُوْٓا اَنَّ اللّٰهَ يَعْلَمُ مَا فِى السَّمٰوٰتِ وَمَا فِى الْاَرْضِۙ وَاَنَّ اللّٰهَ بِكُلِّ شَيْءٍ عَلِيْمٌ٩٧
Ja‘alallāhul-ka‘batal-baital-ḥarāma qiyāmal lin-nāsi wasy-syahral-ḥarāma wal-hadya wal-qalā'id(a), żālika lita‘lamū annallāha ya‘lamu mā fis-samāwāti wa mā fil-arḍ(i), wa annallāha bikulli syai'in ‘alīm(un).
[97] अल्लाह ने सम्मानित घर काबा को लोगों के लिए स्थापना का साधन बनाया है तथा सम्मानित महीनों66 और (हज्ज की) क़ुर्बानी के जानवरों तथा गर्दन में पट्टे लगे हुए जानवरों को। यह इसलिए कि तुम जान लो कि निःसंदेह अल्लाह जानता है, जो कुछ आकाशों में है और जो कुछ धरती में है, तथा यह कि निःसंदेह अल्लाह प्रत्येक वस्तु को ख़ूब जानने वाला है।
66. सम्मानित महीनों से अभिप्रेत ज़ुल-क़ादा, ज़ुल-ह़िज्जा, मुह़र्रम और रजब के महीने हैं।

اِعْلَمُوْٓا اَنَّ اللّٰهَ شَدِيْدُ الْعِقَابِۙ وَاَنَّ اللّٰهَ غَفُوْرٌ رَّحِيْمٌۗ٩٨
I‘lamū annallāha syadīdul-‘iqāb(i), wa annallāha gafūrur raḥīm(un).
[98] जान लो! निःसंदेह अल्लाह बहुत कठोर दंड वाला है और निःसंदेह अल्लाह अति क्षमाशील, अत्यंत दयावान् है।

مَا عَلَى الرَّسُوْلِ اِلَّا الْبَلٰغُ ۗوَاللّٰهُ يَعْلَمُ مَا تُبْدُوْنَ وَمَا تَكْتُمُوْنَ٩٩
Mā ‘alar-rasūli illal-balāg(u),wallāhu ya‘lamu mā tubdūna wa mā taktumūn(a).
[99] रसूल पर (संदेश) पहुँचा देने के सिवा कुछ नहीं और अल्लाह जानता है जो तुम प्रकट करते हो और जो छिपाते हो।

قُلْ لَّا يَسْتَوِى الْخَبِيْثُ وَالطَّيِّبُ وَلَوْ اَعْجَبَكَ كَثْرَةُ الْخَبِيْثِۚ فَاتَّقُوا اللّٰهَ يٰٓاُولِى الْاَلْبَابِ لَعَلَّكُمْ تُفْلِحُوْنَ ࣖ١٠٠
Qul lā yastawil-khabīṡu waṭ-ṭayyibu wa lau a‘jabaka kaṡratul-khabīṡ(i), fattaqullāha yā ulil-albābi la‘allakum tufliḥūn(a).
[100] (ऐ नबी!) कह दो कि अपवित्र (बुरी चीज़) तथा पवित्र (अच्छी चीज़) समान नहीं, चाहे अपवित्र (बुरी चीज़) की बहुतायत तुम्हें भली लगे। तो ऐ बुद्धि वालो! अल्लाह से डरो, ताकि तुम सफल हो जाओ।67
67. आयत का भावार्थ यह है कि अल्लाह ने जिससे रोक दिया है, वही मलिन और जिसकी अनुमति दी है, वही पवित्र है। अतः मलिन में रूचि न रखो, और किसी चीज़ की कमी और अधिकता को न देखो, उसके लाभ और हानि को देखो।

يٰٓاَيُّهَا الَّذِيْنَ اٰمَنُوْا لَا تَسْـَٔلُوْا عَنْ اَشْيَاۤءَ اِنْ تُبْدَ لَكُمْ تَسُؤْكُمْ ۚوَاِنْ تَسْـَٔلُوْا عَنْهَا حِيْنَ يُنَزَّلُ الْقُرْاٰنُ تُبْدَ لَكُمْ ۗعَفَا اللّٰهُ عَنْهَا ۗوَاللّٰهُ غَفُوْرٌ حَلِيْمٌ١٠١
Yā ayyuhal-lażīna āmanū lā tas'alū ‘an asy-yā'a in tubda lakum tasu'kum, wa in tas'alū ‘anhā ḥīna yunazzalul-qur'ānu tubda lakum, ‘afallāhu ‘anhā, wallāhu gafūrun ḥalīm(un).
[101] ऐ ईमान वालो! उन चीज़ों के विषय में प्रश्न न करो, जो यदि तुम्हारे लिए प्रकट कर दी जाएँ, तो तुम्हें बुरी लगें, तथा यदि तुम उनके विषय में उस समय प्रश्न करोगे, जब क़ुरआन उतारा जा रहा है, तो वे तुम्हारे लिए प्रकट कर दी जाएँगी। अल्लाह ने उन्हें क्षमा कर दिया और अल्लाह बहुत क्षमा करने वाला, अत्यंत सहनशील68 है।
68. इब्ने अब्बास (रज़ियल्लाहु अन्हुमा) कहते हैं कि कुछ लोग नबी सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम से उपहास के लिए प्रश्न किया करते थे। कोई प्रश्न करता कि मेरा पिता कौन है? किसी की ऊँटनी खो गई हो, तो आपसे प्रश्न करता कि मेरी ऊँटनी कहाँ है? इसी पर यह आयत उतरी। (सह़ीह़ बुख़ारी : 4622)

قَدْ سَاَلَهَا قَوْمٌ مِّنْ قَبْلِكُمْ ثُمَّ اَصْبَحُوْا بِهَا كٰفِرِيْنَ١٠٢
Qad sa'alahā qaumum min qablikum ṡumma aṣbaḥū bihā kāfirīn(a).
[102] निःसंदेह तुमसे पहले कुछ लोगों ने ऐसी ही बातों के बारे में प्रश्न किया69, फिर वे इसके कारण काफ़िर हो गए।
69. अर्थात अपने रसूलों से। आयत का भावार्थ यह है कि धर्म के विषय में कुरेद न करो। जो करना है, अल्लाह ने बता दिया है, और जो नहीं बताया है उसे क्षमा कर दिया है, अतः अपने मन से प्रश्न न करो, अन्यथा धर्म में सुविधा की जगह असुविधा पैदा होगी, और प्रतिबंध अधिक हो जाएँगे, तो फिर तुम उनका पालन न कर सकोगे।

مَا جَعَلَ اللّٰهُ مِنْۢ بَحِيْرَةٍ وَّلَا سَاۤىِٕبَةٍ وَّلَا وَصِيْلَةٍ وَّلَا حَامٍ ۙوَّلٰكِنَّ الَّذِيْنَ كَفَرُوْا يَفْتَرُوْنَ عَلَى اللّٰهِ الْكَذِبَۗ وَاَكْثَرُهُمْ لَا يَعْقِلُوْنَ١٠٣
Mā ja‘alallāhu mim baḥīratiw wa lā sā'ibatiw wa lā waṣīlatiw wa lā ḥām(in), wa lākinnal-lażīna kafarū yaftarūna ‘alallāhil-każib(a), wa akṡaruhum lā ya‘qilūn(a).
[103] अल्लाह ने कोई बह़ीरा, साइबा, वसीला और ह़ाम नियुक्त नहीं किया।70 परंतु जिन लोगों ने कुफ़्र किया वे अल्लाह पर झूठ बाँधते हैं और उनमें से अधिकतर नहीं समझते।
70. अरब के मिश्रणवादी देवी- देवता के नाम पर कुछ पशुओं को छोड़ देते थे, और उन्हें पवित्र समझते थे, यहाँ उन्हीं की चर्चा की गई है। बह़ीरा- वह ऊँटनी जिसे उसका कान चीर कर देवताओं के लिए मुक्त कर दिया जाता था, और उसका दूध कोई नहीं दूह सकता था। साइबा- वह पशु जिसे देवताओं के नाम पर मुक्त कर देते थे, जिसपर न कोई बोझ लाद सकता था, न सवार हो सकता था। वसीला- वह ऊँटनी जिसका पहला तथा दूसरा बच्चा मादा हो, ऐसी ऊँटनी को भी देवताओं के नाम पर मुक्त कर देते थे। ह़ाम- नर जिसके वीर्य से दस बच्चे हो जाएँ, उन्हें भी देवताओं के नाम पर साँड बना कर मुक्त कर दिया जाता था। भावार्थ यह है कि ये अनर्गल चीजें हैं। अल्लाह ने इनका आदेश नहीं दिया है। नबी (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) ने कहा : मैंने नरक को देखा कि उसकी ज्वाला एक दूसरे को तोड़ रही है। और अमर बिन लुह़य्य को देखा कि वह अपनी आँतें खींच रहा है। उसी ने सबसे पहले साइबा बनाया था। (बुख़ारी : 4624)

وَاِذَا قِيْلَ لَهُمْ تَعَالَوْا اِلٰى مَآ اَنْزَلَ اللّٰهُ وَاِلَى الرَّسُوْلِ قَالُوْا حَسْبُنَا مَا وَجَدْنَا عَلَيْهِ اٰبَاۤءَنَا ۗ اَوَلَوْ كَانَ اٰبَاۤؤُهُمْ لَا يَعْلَمُوْنَ شَيْـًٔا وَّلَا يَهْتَدُوْنَ١٠٤
Wa iżā qīla lahum ta‘ālau ilā mā anzalallāhu wa ilar-rasūli qālū ḥasbunā mā wajadnā ‘alaihi ābā'anā, awalau kāna ābā'uhum lā ya‘lamūna syai'aw wa lā yahtadūn(a).
[104] और जब उनसे कहा जाता है : आओ उसकी ओर जो अल्लाह ने उतारा है और रसूल की ओर, तो कहते हैं : हमें वही काफ़ी है, जिसपर हमने अपने बाप-दादा को पाया है। क्या अगरचे उनके बाप-दादा कुछ भी न जानते हों और न मार्गदर्शन पाते हों।

يٰٓاَيُّهَا الَّذِيْنَ اٰمَنُوْا عَلَيْكُمْ اَنْفُسَكُمْ ۚ لَا يَضُرُّكُمْ مَّنْ ضَلَّ اِذَا اهْتَدَيْتُمْ ۗ اِلَى اللّٰهِ مَرْجِعُكُمْ جَمِيْعًا فَيُنَبِّئُكُمْ بِمَا كُنْتُمْ تَعْمَلُوْنَ١٠٥
Yā ayyuhal-lażīna āmanū ‘alaikum anfusakum, lā yaḍurrukum man ḍalla iżahtadaitum, ilallāhi marji‘ukum jamī‘an fa yunabbi'ukum bimā kuntum ta‘malūn(a).
[105] ऐ ईमान वालो! तुमपर अपनी चिंता अनिवार्य है। तुम्हें वह व्यक्ति हानि नहीं पहुँचाएगा, जो गुमराह हो गया, जब तुम मार्गदर्शन पा चुके। अल्लाह ही की ओर तुम सबको लौटकर जाना है। फिर वह तुम्हें बताएगा, जो कुछ तुम किया करते थे।71
71. आयत का भावार्थ यह है कि यदि लोग कुपथ हो जाएँ, तो उनका कुपथ होना तुम्हारे लिए तर्क (दलील) नहीं हो सकता कि जब सभी कुपथ हो रहे हैं तो हम अकेले क्या करें? प्रत्येक व्यक्ति पर स्वयं अपना दायित्व है, दूसरों का दायित्व उस पर नहीं है। अतः पूरा संसार कुपथ हो जाए, तब भी तुम सत्य पर स्थित रहो।

يٰٓاَيُّهَا الَّذِيْنَ اٰمَنُوْا شَهَادَةُ بَيْنِكُمْ اِذَا حَضَرَ اَحَدَكُمُ الْمَوْتُ حِيْنَ الْوَصِيَّةِ اثْنٰنِ ذَوَا عَدْلٍ مِّنْكُمْ اَوْ اٰخَرٰنِ مِنْ غَيْرِكُمْ اِنْ اَنْتُمْ ضَرَبْتُمْ فِى الْاَرْضِ فَاَصَابَتْكُمْ مُّصِيْبَةُ الْمَوْتِۗ تَحْبِسُوْنَهُمَا مِنْۢ بَعْدِ الصَّلٰوةِ فَيُقْسِمٰنِ بِاللّٰهِ اِنِ ارْتَبْتُمْ لَا نَشْتَرِيْ بِهٖ ثَمَنًا وَّلَوْ كَانَ ذَا قُرْبٰىۙ وَلَا نَكْتُمُ شَهَادَةَ اللّٰهِ اِنَّآ اِذًا لَّمِنَ الْاٰثِمِيْنَ١٠٦
Yā ayyuhal-lażīna āmanū syahādatu bainikum iżā ḥaḍara aḥadakumul-mautu ḥīnal-waṣiyyatiṡnāni żawā ‘adlim minkum au ākharāni min gairikum in antum ḍarabtum fil-arḍi fa aṣābatkum muṣībatul-maut(i), taḥbisūnahumā mim ba‘diṣ-ṣalāti fa yuqsimāni billāhi inirtabtum lā nasytarī bihī ṡamanaw wa lau kāna żā qurbā, wa lā naktumu syahādatallāhi innā iżal laminal-āṡimīn(a).
[106] ऐ ईमान वालो! जब तुममें से किसी की मृत्यु आ पहुँचे, तो वसिय्यत72 के समय तुम्हारे बीच गवाही (के लिए) तुममें से दो न्यायप्रिय व्यक्ति हों या तुम्हारे ग़ैरों में से दूसरे दो व्यक्ति हों, यदि तुम धरती में यात्रा कर रहे हो, फिर तुम्हें मरण की आपदा आ पहुँचे। तुम उन दोनों को नमाज़ के बाद रोक लोगे, यदि तुम्हें (उनपर) संदेह हो। फिर वे दोनों अल्लाह की क़सम खाएँगे कि हम उसके साथ कोई मूल्य नहीं लेंगे, यद्यपि वह निकट का संबंधी हो और न हम अल्लाह की गवाही छिपाएँगे, निःसंदेह हम उस समय निश्चय पापियों में से होंगे।
72. वसिय्यत का अर्थ है, उत्तरदान, मरणासन्न आदेश।

فَاِنْ عُثِرَ عَلٰٓى اَنَّهُمَا اسْتَحَقَّآ اِثْمًا فَاٰخَرٰنِ يَقُوْمٰنِ مَقَامَهُمَا مِنَ الَّذِيْنَ اسْتَحَقَّ عَلَيْهِمُ الْاَوْلَيٰنِ فَيُقْسِمٰنِ بِاللّٰهِ لَشَهَادَتُنَآ اَحَقُّ مِنْ شَهَادَتِهِمَا وَمَا اعْتَدَيْنَآ ۖاِنَّآ اِذًا لَّمِنَ الظّٰلِمِيْنَ١٠٧
Fa in ‘uṡira ‘alā annahumastaḥaqqā iṡman fa ākharāni yaqūmāni maqāmahumā minal-lażīnastaḥaqqa ‘alaihimul-aulayāni fa yuqsimāni billāhi lasyahādatunā aḥaqqu min syahādatihimā wa ma‘tadainā, innā iżal laminaẓ-ẓālimīn(a).
[107] फिर यदि पता चले कि निःसंदेह वे दोनों (गवाह) किसी पाप के पात्र हुए हैं, तो उन दोनों के स्थान पर, दो अन्य गवाह खड़े हों, उनमें से जिनका हक़ दबाया गया है, जो (मरे हुए व्यक्ति के) अधिक निकट हों। फिर वे दोनों अल्लाह की क़समें खाएँ कि हमारी गवाही उन दोनों की गवाही से अधिक सच्ची है और हमने कोई ज़्यादती नहीं की। निःसंदेह हम उस समय निश्चय अत्याचारियों में से होंगे।

ذٰلِكَ اَدْنٰٓى اَنْ يَّأْتُوْا بِالشَّهَادَةِ عَلٰى وَجْهِهَآ اَوْ يَخَافُوْٓا اَنْ تُرَدَّ اَيْمَانٌۢ بَعْدَ اَيْمَانِهِمْۗ وَاتَّقُوا اللّٰهَ وَاسْمَعُوْا ۗوَاللّٰهُ لَا يَهْدِى الْقَوْمَ الْفٰسِقِيْنَ ࣖ١٠٨
Żālika adnā ay ya'tū bisy-syahādati ‘alā wajhihā au yakhāfū an turadda aimānum ba‘da aimānihim, wattaqullāha wasma‘ū, wallāhu lā yahdil qaumal-fāsiqīn(a).
[108] यह अधिक निकट है कि वे गवाही को उसके (वास्तविक) तरीक़े पर दें, अथवा इस बात से डरें कि (उनकी) क़समें उन (संबंधियों) की क़समों के बाद रद्द कर दी जाएँगी तथा अल्लाह से डरो और सुनो और अल्लाह अवज्ञाकारियों को मार्गदर्शन प्रदान नहीं करता।73
73. आयत 106 से 108 तक में वसिय्यत तथा उसके साक्ष्य का नियम बताया जा रहा है कि दो विश्वस्त व्यक्तियों को साक्षी बनाया जाए, और यदि मुसलमान न मिलें तो ग़ैर मुस्लिम भी साक्षी हो सकते हैं। साक्षियों को शपथ के साथ साक्ष्य देना चाहिए। विवाद की दशा में दोनों पक्ष अपने-अपने साक्षी लाएँ, जो इनकार करे उसपर शपथ है।

۞ يَوْمَ يَجْمَعُ اللّٰهُ الرُّسُلَ فَيَقُوْلُ مَاذَٓا اُجِبْتُمْ ۗ قَالُوْا لَا عِلْمَ لَنَا ۗاِنَّكَ اَنْتَ عَلَّامُ الْغُيُوْبِ١٠٩
Yauma yajma‘ullāhur-rusula fa yaqūlu māżā ujibtum, qālū lā ‘ilma lanā, innaka anta ‘allāmul-guyūb(i).
[109] जिस दिन अल्लाह रसूलों को एकत्र करेगा, फिर कहेगा : तुम्हें क्या उत्तर दिया गया? वे कहेंगे : हमें कोई ज्ञान नहीं।74 निःसंदेह तू ही छिपी बातों को ख़ूब जानने वाला है।
74. अर्थात हम नहीं जानते कि उनके मन में क्या था, और हमारे बाद उनका कर्म क्या रहा?

اِذْ قَالَ اللّٰهُ يٰعِيْسَى ابْنَ مَرْيَمَ اذْكُرْ نِعْمَتِيْ عَلَيْكَ وَعَلٰى وَالِدَتِكَ ۘاِذْ اَيَّدْتُّكَ بِرُوْحِ الْقُدُسِۗ تُكَلِّمُ النَّاسَ فِى الْمَهْدِ وَكَهْلًا ۚوَاِذْ عَلَّمْتُكَ الْكِتٰبَ وَالْحِكْمَةَ وَالتَّوْرٰىةَ وَالْاِنْجِيْلَ ۚوَاِذْ تَخْلُقُ مِنَ الطِّيْنِ كَهَيْـَٔةِ الطَّيْرِ بِاِذْنِيْ فَتَنْفُخُ فِيْهَا فَتَكُوْنُ طَيْرًاۢ بِاِذْنِيْ وَتُبْرِئُ الْاَكْمَهَ وَالْاَبْرَصَ بِاِذْنِيْ ۚوَاِذْ تُخْرِجُ الْمَوْتٰى بِاِذْنِيْ ۚوَاِذْ كَفَفْتُ بَنِيْٓ اِسْرَاۤءِيْلَ عَنْكَ اِذْ جِئْتَهُمْ بِالْبَيِّنٰتِ فَقَالَ الَّذِيْنَ كَفَرُوْا مِنْهُمْ اِنْ هٰذَآ اِلَّا سِحْرٌ مُّبِيْنٌ١١٠
Iż qālallāhu yā ‘īsabna maryamażkur ni‘matī ‘alaika wa ‘alā wālidatik(a), iż ayyattuka birūḥil-qudus(i), tukallimun-nāsa fil-mahdi wa kahlā(n), wa iż ‘allamtukal-kitāba wal-ḥikmata wat-taurāta wal-injīl(a), wa iż takhluqu minaṭ-ṭīni kahai'atiṭ-ṭairi bi'iżnī fa tanfukhu fīhā fa takūnu ṭairam bi'iżnī wa tubri'ul-akmaha wal-abraṣa bi'iżnī, wa iż tukhrijul-mautā bi'iżnī, wa iż kafaftu banī isrā'īla ‘anka iż ji'tahum bil-bayyināti fa qālal-lażīna kafarū minhum in hāżā illā siḥrum mubīn(un).
[110] (तथा याद करो) जब अल्लाह कहेगा : ऐ मरयम के पुत्र ईसा! अपने ऊपर तथा अपनी माता के ऊपर मेरा अनुग्रह याद कर, जब मैंने पवित्रात्मा (जिबरील) द्वारा तेरी सहायता की। तू गोद (पालने) में तथा अधेड़ आयु में लोगों से बातें करता था। तथा जब मैंने तुझे किताब और हिकमत तथा तौरात और इंजील की शिक्षा दी। और जब तू मेरी अनुमति से मिट्टी से पक्षी की आकृति की तरह (रूप) बनाता था, फिर तू उसमें फूँक मारता तो वह मेरी अनुमति से पक्षी बन जाता था और तू जन्म से अंधे तथा कोढ़ी को मेरी अनुमति से स्वस्थ कर देता था और जब तू मुर्दों को मेरी अनुमति से निकाल (जीवित) खड़ा करता था। और जब मैंने बनी इसराईल को तुझसे रोका, जब तू उनके पास खुली निशानियाँ लेकर आया, तो उनमें से कुफ़्र करने वालों ने कहा : यह तो स्पष्ट जादू के सिवा कुछ नहीं।

وَاِذْ اَوْحَيْتُ اِلَى الْحَوَارِيّٖنَ اَنْ اٰمِنُوْا بِيْ وَبِرَسُوْلِيْ ۚ قَالُوْٓا اٰمَنَّا وَاشْهَدْ بِاَنَّنَا مُسْلِمُوْنَ١١١
Wa iż auḥaitu ilal-ḥawāriyyīna an āminū bī wa birasūlī, qālū āmannā wasyhad bi'annanā muslimūn(a).
[111] तथा (याद कर) जब मैंने हवारियों के दिलों में यह बात डाल दी कि मुझपर तथा मेरे रसूल (ईसा) पर ईमान लाओ। उन्होंने कहा : हम ईमान लाए और तू गवाह रह कि हम आज्ञाकारी हैं।

اِذْ قَالَ الْحَوَارِيُّوْنَ يٰعِيْسَى ابْنَ مَرْيَمَ هَلْ يَسْتَطِيْعُ رَبُّكَ اَنْ يُّنَزِّلَ عَلَيْنَا مَاۤىِٕدَةً مِّنَ السَّمَاۤءِ ۗقَالَ اتَّقُوا اللّٰهَ اِنْ كُنْتُمْ مُّؤْمِنِيْنَ١١٢
Iż qālal-ḥawāriyyūna yā ‘īsabna maryama hal yastaṭī‘u rabbuka ay yunazzila ‘alainā mā'idatam minas-samā'(i), qālattaqullāha in kuntum mu'minīn(a).
[112] जब हवारियों ने कहा : ऐ मरयम के पुत्र ईसा! क्या तेरा पालनहार यह कर सकता है कि हमपर आकाश से एक थाल (भोजन सहित दस्तर-ख़्वान) उतार दे? उस (ईसा) ने कहा : अल्लाह से डरो, यदि तुम ईमान वाले हो।

قَالُوْا نُرِيْدُ اَنْ نَّأْكُلَ مِنْهَا وَتَطْمَىِٕنَّ قُلُوْبُنَا وَنَعْلَمَ اَنْ قَدْ صَدَقْتَنَا وَنَكُوْنَ عَلَيْهَا مِنَ الشّٰهِدِيْنَ١١٣
Qālū nurīdu an na'kula minhā wa taṭma'inna qulūbunā wa na‘lama an qad ṣadaqtanā wa nakūna ‘alaihā minasy-syāhidīn(a).
[113] उन्होंने कहा : हम चाहते हैं कि उसमें से खाएँ और हमारे दिलों को संतोष हो जाए तथा हम जान लें कि निश्चय तूने हमसे सच कहा है और हम उसपर गवाहों में से हो जाएँ।

قَالَ عِيْسَى ابْنُ مَرْيَمَ اللّٰهُمَّ رَبَّنَآ اَنْزِلْ عَلَيْنَا مَاۤىِٕدَةً مِّنَ السَّمَاۤءِ تَكُوْنُ لَنَا عِيْدًا لِّاَوَّلِنَا وَاٰخِرِنَا وَاٰيَةً مِّنْكَ وَارْزُقْنَا وَاَنْتَ خَيْرُ الرّٰزِقِيْنَ١١٤
Qāla ‘īsabnu maryamallāhumma rabbanā anzil ‘alainā mā'idatam minas-samā'i takūnu lanā ‘īdal li'awwalinā wa ākhirinā wa āyatam minka warzuqnā wa anta khairur-rāziqīn(a).
[114] मरयम के पुत्र ईसा ने प्रार्थना की : ऐ अल्लाह! ऐ हमारे पालनहार! हम पर आकाश से एक थाल उतार, जो हमारे तथा हमारे पश्चात् के लोगों के लिए उत्सव (का दिन) बन जाए तथा तेरी ओर से एक निशानी (हो)। तथा हमें जीविका प्रदान कर, तू ही सबसे उत्तम जीविका प्रदान करने वाला है।

قَالَ اللّٰهُ اِنِّيْ مُنَزِّلُهَا عَلَيْكُمْ ۚ فَمَنْ يَّكْفُرْ بَعْدُ مِنْكُمْ فَاِنِّيْٓ اُعَذِّبُهٗ عَذَابًا لَّآ اُعَذِّبُهٗٓ اَحَدًا مِّنَ الْعٰلَمِيْنَ ࣖ١١٥
Qālallāhu innī munazziluhā ‘alaikum, famay yakfur ba‘du minkum fa innī u‘ażżibuhū ‘ażābal lā u‘ażzibuhū aḥadam minal-‘ālamīn(a).
[115] अल्लाह ने कहा : निःसंदेह मैं उसे तुमपर उतारने75 वाला हूँ। फिर जो उसके बाद तुममें से कुफ़्र (अविश्वास) करेगा, तो निःसंदेह मैं उसे दंड दूँगा, ऐसा दंड कि संसार वासियों में से किसी को न दूँगा।
75. अधिकतर भाष्यकारों ने लिखा है कि वह थाल आकाश से उतरा। (इब्ने कसीर)

وَاِذْ قَالَ اللّٰهُ يٰعِيْسَى ابْنَ مَرْيَمَ ءَاَنْتَ قُلْتَ لِلنَّاسِ اتَّخِذُوْنِيْ وَاُمِّيَ اِلٰهَيْنِ مِنْ دُوْنِ اللّٰهِ ۗقَالَ سُبْحٰنَكَ مَا يَكُوْنُ لِيْٓ اَنْ اَقُوْلَ مَا لَيْسَ لِيْ بِحَقٍّ ۗاِنْ كُنْتُ قُلْتُهٗ فَقَدْ عَلِمْتَهٗ ۗتَعْلَمُ مَا فِيْ نَفْسِيْ وَلَآ اَعْلَمُ مَا فِيْ نَفْسِكَ ۗاِنَّكَ اَنْتَ عَلَّامُ الْغُيُوْبِ١١٦
Wa iż qālallāhu yā ‘īsabna maryama a'anta qulta lin-nāsittakhiżūnī wa ummiya ilāhaini min dūnillah(i), qāla subḥānaka mā yakūnu lī an aqūla mā laisa lī biḥaqq(in), in kuntu qultuhū faqad ‘alimtah(ū), ta‘lamu mā fī nafsī wa lā a‘lamu mā fī nafsik(a), innaka anta ‘allāmul-guyūb(i).
[116] तथा जब अल्लाह (क़ियामत के दिन) कहेगा : ऐ मरयम के पुत्र ईसा! क्या तुमने लोगों से कहा था कि मुझे तथा मेरी माँ को अल्लाह के अलावा दो पूज्य बना लो? वह कहेगा : तू पवित्र है, मुझसे यह कैसे हो सकता है कि ऐसी बात कहूँ, जिसका मुझे कोई अधिकार नहीं? यदि मैंने यह बात कही थी, तो निश्चय तूने उसे जान लिया। तू जानता है, जो मेरे मन में है और मैं नहीं जानता जो तेरे मन में है। निश्चय तू ही सब छिपी बातों (परोक्ष)) को बहुत ख़ूब जानने वाला है।

مَا قُلْتُ لَهُمْ اِلَّا مَآ اَمَرْتَنِيْ بِهٖٓ اَنِ اعْبُدُوا اللّٰهَ رَبِّيْ وَرَبَّكُمْ ۚوَكُنْتُ عَلَيْهِمْ شَهِيْدًا مَّا دُمْتُ فِيْهِمْ ۚ فَلَمَّا تَوَفَّيْتَنِيْ كُنْتَ اَنْتَ الرَّقِيْبَ عَلَيْهِمْ ۗوَاَنْتَ عَلٰى كُلِّ شَيْءٍ شَهِيْدٌ١١٧
Mā qultu lahum illā mā amartanī bihī ani‘budullāha rabbī wa rabbakum, wa kuntu ‘alaihim syahīdam mā dumtu fīhim, falammā tawaffaitanī kunta antar-raqība ‘alaihim, wa anta ‘alā kulli syai'in syahīd(un).
[117] मैंने उनसे उसके सिवा कुछ नहीं कहा, जिसका तूने मुझे आदेश दिया था कि अल्लाह की इबादत करो, जो मेरा पालनहार और तुम्हारा पालनहार है। और मैं उनपर गवाह था, जब तक उनमें रहा, फिर जब तूने मुझे उठा लिया76, तो तू ही उनपर निरीक्षक था और तू हर चीज़ पर गवाह है।
76. अर्थात् आकाश पर उठा लिया। नबी (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) ने कहा : जब प्रलय के दिन कुछ लोग बायें से धर लिए जाएँगे तो मैं भी यही कहूँगा। (बुख़ारी : 4626)

اِنْ تُعَذِّبْهُمْ فَاِنَّهُمْ عِبَادُكَ ۚوَاِنْ تَغْفِرْ لَهُمْ فَاِنَّكَ اَنْتَ الْعَزِيْزُ الْحَكِيْمُ١١٨
In tu‘ażżibhum fa innahum ‘ibāduk(a), wa in tagfir lahum fa innaka antal-‘azīzul-ḥakīm(u).
[118] यदि तू उन्हें दंड दे, तो निःसंदेह वे तेरे बंदे हैं और यदि तू उन्हें क्षमा कर दे, तो निःसंदेह तू ही सब पर प्रभुत्वशाली, पूर्ण हिकमत वाला है।

قَالَ اللّٰهُ هٰذَا يَوْمُ يَنْفَعُ الصّٰدِقِيْنَ صِدْقُهُمْ ۗ لَهُمْ جَنّٰتٌ تَجْرِيْ مِنْ تَحْتِهَا الْاَنْهٰرُ خٰلِدِيْنَ فِيْهَآ اَبَدًا ۗرَضِيَ اللّٰهُ عَنْهُمْ وَرَضُوْا عَنْهُ ۗذٰلِكَ الْفَوْزُ الْعَظِيْمُ١١٩
Qālallāhu hāżā yaumu yanfa‘uṣ-ṣādiqīna ṣidquhum, lahum jannātun tajrī min taḥtihal-anhāru khālidīna fīhā abadā(n), raḍiyallāhu ‘anhum wa raḍū ‘anh(u), żālikal-fauzul-‘aẓīm(u).
[119] अल्लाह कहेगा : यह वह दिन है कि सच्चों को उनका सच ही लाभ देगा। उन के लिए ऐसे बाग़ हैं, जिनके नीचे से नहरें बहती हैं, उनमें हमेशा-हमेशा के लिए रहने वाले हैं। अल्लाह उनसे प्रसन्न हो गया तथा वे अल्लाह से प्रसन्न हो गए, यही बहुत बड़ी सफलता है।

لِلّٰهِ مُلْكُ السَّمٰوٰتِ وَالْاَرْضِ وَمَا فِيْهِنَّ ۗوَهُوَ عَلٰى كُلِّ شَيْءٍ قَدِيْرٌ ࣖ١٢٠
Lillāhi mulkus-samāwāti wal-arḍi wa mā fīhinn(a), wa huwa ‘alā kulli syai'in qadīr(un).
[120] आकाशों और धरती तथा जो कुछ उनमें है, उन सबका राज्य अल्लाह ही77 के लिए है और वह हर चीज़ पर शक्ति रखने वाला है।
77. आयत 116 से अब तक की आयतों का सारांश यह है कि अल्लाह ने पहले अपने वे पुरस्कार याद दिलाए जो ईसा अलैहिस्सलाम को प्रदान किए। फिर कहा कि सत्य की शिक्षाओं के होते तेरे अनुयायियों ने क्यों तुझे और तेरी माता को पूज्य बना लिया? इसपर ईसा अलैहिस्सलाम कहेंगे कि मैं इससे निर्दोष हूँ। अभिप्राय यह है कि सभी नबियों ने एकेश्वरवाद तथा सत्कर्म की शिक्षा दी। परंतु उनके अनुयायियों ने उन्हीं को पूज्य बना लिया। इस लिए इसका भार अनुयायियों और वे जिसकी पूजा कर रहे हैं, उनपर है। वह स्वयं इससे निर्दोष हैं।