Surah Al-Fath
بِسْمِ اللّٰهِ الرَّحْمٰنِ الرَّحِيْمِ
اِنَّا فَتَحْنَا لَكَ فَتْحًا مُّبِيْنًاۙ١
Innā fataḥnā laka fatḥam mubīnā(n).
[1]
निःसंदेह हमने आपको एक स्पष्ट विजय1 प्रदान की।
1. ह़दीस में है कि इससे अभिप्राय ह़ुदैबिया की संधि है। (बुख़ारी : 4834)
لِّيَغْفِرَ لَكَ اللّٰهُ مَا تَقَدَّمَ مِنْ ذَنْۢبِكَ وَمَا تَاَخَّرَ وَيُتِمَّ نِعْمَتَهٗ عَلَيْكَ وَيَهْدِيَكَ صِرَاطًا مُّسْتَقِيْمًاۙ٢
Liyagfira lakallāhu mā taqaddama min żambika wa mā ta'akhkhara wa yutimma ni‘matahū ‘alaika wa yahdiyaka ṣirāṭam mustaqīmā(n).
[2]
ताकि अल्लाह आपके अगले और पिछले गुनाहों को क्षमा2 कर दे तथा आपपर अपनी अनुकंपा पूर्ण कर दे और आपको सीधे मार्ग पर चलाए।
2. ह़दीस में है कि नबी (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) रात्रि में इतनी नमाज़ पढ़ा करते थे कि आपके पाँव सूज जाते थे। तो आपसे कहा गया कि आप ऐसा क्यों करते हैं, हालाँकि अल्लाह ने तो आपके पहले तथा पिछले पाप क्षमा कर दिए हैं? तो आपने फरमाया : तो क्या मैं एक कृतज्ञ बंदा बनना पसंद न करूँ? (सह़ीह़ बुख़ारी : 4837)
وَّيَنْصُرَكَ اللّٰهُ نَصْرًا عَزِيْزًا٣
Wa yanṣurakallāhu naṣran ‘azīzā(n).
[3]
तथा अल्लाह आपकी भरपूर सहायता करे।
هُوَ الَّذِيْٓ اَنْزَلَ السَّكِيْنَةَ فِيْ قُلُوْبِ الْمُؤْمِنِيْنَ لِيَزْدَادُوْٓا اِيْمَانًا مَّعَ اِيْمَانِهِمْ ۗوَلِلّٰهِ جُنُوْدُ السَّمٰوٰتِ وَالْاَرْضِۗ وَكَانَ اللّٰهُ عَلِيْمًا حَكِيْمًاۙ٤
Huwal-lażī anzalas-sakīnata fī qulūbil-mu'minīna liyazdādū īmānam ma‘a īmānihim, wa lillāhi junūdus-samāwāti wal-arḍ(i), wa kānallāhu ‘alīman ḥakīmā(n).
[4]
वही है, जिसने ईमान वालों के दिलों में शांति उतारी, ताकि वे अपने ईमान के साथ ईमान में और बढ़ जाएँ। और आकाशों तथा धरती की सेनाएँ अल्लाह ही की हैं। तथा अल्लाह सब कुछ जानने वाला, पूर्ण हिकमत वाला है।
لِّيُدْخِلَ الْمُؤْمِنِيْنَ وَالْمُؤْمِنٰتِ جَنّٰتٍ تَجْرِيْ مِنْ تَحْتِهَا الْاَنْهٰرُ خٰلِدِيْنَ فِيْهَا وَيُكَفِّرَ عَنْهُمْ سَيِّاٰتِهِمْۗ وَكَانَ ذٰلِكَ عِنْدَ اللّٰهِ فَوْزًا عَظِيْمًاۙ٥
Liyudkhilal-mu'minīna wal-mu'mināti jannātin tajrī min taḥtihal-anhāru khālidīna fīhā wa yukaffira ‘anhum sayyi'ātihim, wa kāna żālika ‘indallāhi fauzan ‘aẓīmā(n).
[5]
ताकि वह ईमान वाले पुरुषों तथा ईमान वाली स्त्रियों को ऐसे बागों में दाखिल करे, जिनके नीचे से नहरें बहती हैं, वे उनमें सदैव रहेंगे। तथा उनसे उनकी बुराइयाँ दूर कर दे और यह अल्लाह के निकट हमेशा बड़ी कामयाबी है।
وَّيُعَذِّبَ الْمُنٰفِقِيْنَ وَالْمُنٰفِقٰتِ وَالْمُشْرِكِيْنَ وَالْمُشْرِكٰتِ الظَّاۤنِّيْنَ بِاللّٰهِ ظَنَّ السَّوْءِۗ عَلَيْهِمْ دَاۤىِٕرَةُ السَّوْءِۚ وَغَضِبَ اللّٰهُ عَلَيْهِمْ وَلَعَنَهُمْ وَاَعَدَّ لَهُمْ جَهَنَّمَۗ وَسَاۤءَتْ مَصِيْرًا٦
Wa yu‘ażżibal-munāfiqīna wal-munāfiqāti wal-musyrikīna wal-musyrikātiẓ-ẓānnīna billāhi ẓannas-sau'(i), ‘alaihim dā'iratus-sau'(i), wa gaḍiballāhu ‘alaihim wa la‘anahum wa a‘adda lahum jahannam(a), wa sā'at maṣīrā(n).
[6]
और (ताकि) उन मुनाफ़िक़ पुरुषों एवं मुनाफ़िक़ स्त्रियों तथा मुश्रिक पुरुषों एवं मुश्रिक स्त्रियों को यातना दे, जो अल्लाह के संबंध में बुरा गुमान रखते हैं। बुराई का फेरा उन्हीं पर है। उनपर अल्लाह का प्रकोप हुआ और उसने उनपर लानत की तथा उनके लिए जहन्नम तैयार कर रखी है और वह बहुत बुरा ठिकाना है।
وَلِلّٰهِ جُنُوْدُ السَّمٰوٰتِ وَالْاَرْضِۗ وَكَانَ اللّٰهُ عَزِيْزًا حَكِيْمًا٧
Wa lillāhi junūdus-samāwāti wal-arḍ(i), wa kānallāhu ‘azīzan ḥakīmā(n).
[7]
तथा अल्लाह ही के लिए आकाशों और धरती की सेनाएँ हैं और अल्लाह हमेशा से सबपर प्रभुत्वशाली, पूर्ण हिकमत वाला है।3
3. इसलिए वह जिसे चाहे और जब चाहे, विनष्ट कर सकता है।
اِنَّآ اَرْسَلْنٰكَ شَاهِدًا وَّمُبَشِّرًا وَّنَذِيْرًاۙ٨
Innā arsalnāka syāhidaw wa mubasysyiraw wa nażīrā(n).
[8]
निःसंदेह हमने आपको गवाही देने वाला और खुशख़बरी देने वाला और सावधान करने वाला बनाकर भेजा है।
لِّتُؤْمِنُوْا بِاللّٰهِ وَرَسُوْلِهٖ وَتُعَزِّرُوْهُ وَتُوَقِّرُوْهُۗ وَتُسَبِّحُوْهُ بُكْرَةً وَّاَصِيْلًا٩
Litu'minū billāhi wa rasūlihī wa tu‘azzirūhu wa tuwaqqirūh(u), wa tusabbiḥūhu bukrataw wa aṣīlā(n).
[9]
ताकि तुम अल्लाह और उसके रसूल पर ईमान लाओ और उसकी मदद करो और उसका सम्मान करो और दिन के आरंभ एवं अंत में उसकी पवित्रता का गान करो।
اِنَّ الَّذِيْنَ يُبَايِعُوْنَكَ اِنَّمَا يُبَايِعُوْنَ اللّٰهَ ۗيَدُ اللّٰهِ فَوْقَ اَيْدِيْهِمْ ۚ فَمَنْ نَّكَثَ فَاِنَّمَا يَنْكُثُ عَلٰى نَفْسِهٖۚ وَمَنْ اَوْفٰى بِمَا عٰهَدَ عَلَيْهُ اللّٰهَ فَسَيُؤْتِيْهِ اَجْرًا عَظِيْمًا ࣖ١٠
Innal-lażīna yubāyi‘ūnaka innamā yubāyi‘ūnallāh(a), yadullāhi fauqa aidīhim, faman nakaṡa fa'innamā yankuṡu ‘alā nafsih(ī), wa man aufā bimā ‘āhada ‘alaihullāha fa sayu'tīhi ajran ‘aẓīmā(n).
[10]
निःसंदेह वे लोग, जो आपसे बैअत करते हैं, वे असल में अल्लाह से बैअत4 करते हैं, अल्लाह का हाथ उनके हाथों के ऊपर है। फिर जिस किसी ने वचन तोड़ा, तो वह अपने आप ही पर वचन तोड़ता है। तथा जिसने, अल्लाह से जो वादा किया था, उसे पूरा किया, तो वह जल्द ही उसे बहुत बड़ा प्रतिफल देगा।
4. बै'अत का अर्थ है हाथ पर हाथ मार कर वचन देना। यह बैअत नबी (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) ने युद्ध के लिए ह़ुदैबिया में अपने चौदह सौ साथियों से एक वृक्ष के नीचे ली थी। जो इस्लामी इतिहास में "बैअत रिज़वान" के नाम से प्रसिद्ध है। रही वह बै'अत जो पीर अपने मुरीदों से लेते हैं, तो उसका इस्लाम से कोई संबंध नहीं है।
سَيَقُوْلُ لَكَ الْمُخَلَّفُوْنَ مِنَ الْاَعْرَابِ شَغَلَتْنَآ اَمْوَالُنَا وَاَهْلُوْنَا فَاسْتَغْفِرْ لَنَا ۚيَقُوْلُوْنَ بِاَلْسِنَتِهِمْ مَّا لَيْسَ فِيْ قُلُوْبِهِمْۗ قُلْ فَمَنْ يَّمْلِكُ لَكُمْ مِّنَ اللّٰهِ شَيْـًٔا اِنْ اَرَادَ بِكُمْ ضَرًّا اَوْ اَرَادَ بِكُمْ نَفْعًا ۗبَلْ كَانَ اللّٰهُ بِمَا تَعْمَلُوْنَ خَبِيْرًا١١
Sayaqūlu lakal-mukhallafūna minal-a‘rābi syagalatnā amwālunā wa ahlūnā fastagfir lanā, yaqūlūna bi'alsinatihim mā laisa fī qulūbihim, qul famay yamliku lakum minallāhi syai'an in arāda bikum ḍarran au arāda bikum naf‘ā(n), bal kānallāhu bimā ta‘malūna khabīrā(n).
[11]
शीघ्र ही देहातियों में से पीछे छोड़ दिए जाने वाले5 लोग आपसे कहेंगे : हमारे धन और हमारे घरवालों ने हमें व्यस्त रखा। अतः आप हमारे लिए क्षमा की प्रार्थना करें। वे अपनी ज़बानों से वह बात कहते हैं, जो उनके दिलों में नहीं है। आप कह दीजिए कि कौन है, जो अल्लाह के मुकाबले में तुम्हारे लिए किसी चीज़ का अधिकार रखता है, यदि वह तुम्हें कोई हानि पहुँचाना चाहे या तुम्हें कोई लाभ पहुँचाने का इरादा करे? बल्कि तुम जो कुछ करते हो, अल्लाह हमेशा से उसकी खबर रखता है।
5. आयत 11-12 में मदीना के आस-पास के मुनाफ़िक़ों की दशा बताई गई है, जो नबी के साथ उमरा के लिए मक्का नहीं गए। उन्होंने इस डर से कि मुसलमान सब के सब मार दिए जाएँगे, आप (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) का साथ नही दिया।
بَلْ ظَنَنْتُمْ اَنْ لَّنْ يَّنْقَلِبَ الرَّسُوْلُ وَالْمُؤْمِنُوْنَ اِلٰٓى اَهْلِيْهِمْ اَبَدًا وَّزُيِّنَ ذٰلِكَ فِيْ قُلُوْبِكُمْ وَظَنَنْتُمْ ظَنَّ السَّوْءِۚ وَكُنْتُمْ قَوْمًاۢ بُوْرًا١٢
Bal ẓanantum allay yanqalibar-rasūlu wal-mu'minūna ilā ahlīhim abadaw wa zuyyina żālika fī qulūbikum wa ẓanantum ẓannas-sau'(i), wa kuntum qaumam būrā(n).
[12]
बल्कि, तुमने सोचा था कि रसूल और ईमान वाले अपने परिजनों की ओर कभी वापस ही नहीं आएँगे, और यह बात तुम्हारे दिलों में सुंदर बना दी गई। और तुमने बहुत बुरा गुमान किया, और तुम नाश होने वाले लोग थे।
وَمَنْ لَّمْ يُؤْمِنْۢ بِاللّٰهِ وَرَسُوْلِهٖ فَاِنَّآ اَعْتَدْنَا لِلْكٰفِرِيْنَ سَعِيْرًا١٣
Wa mal lam yu'mim billāhi wa rasūlihī fa'innā a‘tadnā lil-kāfirīna sa‘īrā(n).
[13]
और जो व्यक्ति अल्लाह तथा उसके रसूल पर ईमान न लाया, तो निश्चय हमने इनकार करने वालों के लिए दहकती हुई आग तैयार कर रखी है।
وَلِلّٰهِ مُلْكُ السَّمٰوٰتِ وَالْاَرْضِۗ يَغْفِرُ لِمَنْ يَّشَاۤءُ وَيُعَذِّبُ مَنْ يَّشَاۤءُ ۗوَكَانَ اللّٰهُ غَفُوْرًا رَّحِيْمًا١٤
Wa lillāhi mulkus-samāwāti wal-arḍ(i), yagfiru limay yasyā'u wa yu‘ażżibu may yasyā'(u), wa kānallāhu gafūrar raḥīmā(n).
[14]
और आकाशों तथा धरती का राज्य अल्लाह ही के लिए है। वह जिसे चाहता है क्षमा कर देता है और जिसे चाहता है दंड देता है, और अल्लाह बड़ा क्षमाशील, अत्यंत दयावान है।
سَيَقُوْلُ الْمُخَلَّفُوْنَ اِذَا انْطَلَقْتُمْ اِلٰى مَغَانِمَ لِتَأْخُذُوْهَا ذَرُوْنَا نَتَّبِعْكُمْ ۚ يُرِيْدُوْنَ اَنْ يُّبَدِّلُوْا كَلٰمَ اللّٰهِ ۗ قُلْ لَّنْ تَتَّبِعُوْنَا كَذٰلِكُمْ قَالَ اللّٰهُ مِنْ قَبْلُ ۖفَسَيَقُوْلُوْنَ بَلْ تَحْسُدُوْنَنَا ۗ بَلْ كَانُوْا لَا يَفْقَهُوْنَ اِلَّا قَلِيْلًا١٥
Sayaqūlul-mukhallafūna iżanṭalaqtum ilā magānima lita'khużūhā żarūnā nattabi‘kum, yurīdūna ay yubaddilū kalāmallāh(i), qul lan tattabi‘ūnā każālikum qālallāhu min qabl(u), fasayaqūlūna bal taḥsudūnanā, bal kānū lā yafqahūna illā qalīlā(n).
[15]
शीघ्र ही पीछे छोड़ दिए जाने वाले लोग कहेंगे, जब तुम कुछ ग़नीमतों को प्राप्त करने के लिए चलोगे : हमें छोड़ो कि हम तुम्हारे साथ चलें।6 वे चाहते हैं कि अल्लाह के वचन को बदल दें। आप कह दें : तुम हमारे साथ कभी नहीं जाओगे, इसी तरह अल्लाह ने पहले ही कह दिया है। तो वे अवश्य कहेंगे : बल्कि तुम हमसे जलते हो। बल्कि वे बहुत कम समझते हैं।
6. ह़ुदैबिया से वापिस आकर नबी (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) ने ख़ैबर पर आक्रमण किया, जहाँ के यहूदियों ने संधि भंग करके अह़ज़ाब के युद्ध में मक्का के काफ़िरों का साथ दिया था। तो जो दोहाती ह़ुदैबिया में नहीं गए, वे अब ख़ैबर के युद्ध में इसलिए आपके साथ जाने के लिए तैयार हो गए कि वहाँ ग़नीमत का धन मिलने की आशा थी। अतः आप (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) से यह कहा गया कि उन्हें यह बता दें कि यह पहले ही से अल्लाह का आदेश है कि तुम हमारे साथ नहीं जा सकते। ख़ैबर मदीने से डेढ़ सौ किलोमीटर दूर मदीने से उत्तर पूर्वी दिशा में है। यह युद्ध मुह़र्रम सन् 7 हिजरी में हुआ।
قُلْ لِّلْمُخَلَّفِيْنَ مِنَ الْاَعْرَابِ سَتُدْعَوْنَ اِلٰى قَوْمٍ اُولِيْ بَأْسٍ شَدِيْدٍ تُقَاتِلُوْنَهُمْ اَوْ يُسْلِمُوْنَ ۚ فَاِنْ تُطِيْعُوْا يُؤْتِكُمُ اللّٰهُ اَجْرًا حَسَنًا ۚ وَاِنْ تَتَوَلَّوْا كَمَا تَوَلَّيْتُمْ مِّنْ قَبْلُ يُعَذِّبْكُمْ عَذَابًا اَلِيْمًا١٦
Qul lil-mukhallafīna minal-a‘rābi satud‘auna ilā qaumin ulī ba'sin syadīdin tuqātilūnahum au yuslimūn(a), fa'in tuṭī‘ū yu'tikumullāhu ajran ḥasanā(n), wa in tatawallau kamā tawallaitum min qablu yu‘ażżibkum ‘ażāban alīmā(n).
[16]
आप पीछे रह जाने वाले बद्दुओं से कह दें : जल्द ही तुम एक भयंकर युद्ध करने वाली जाति (से युद्ध) की ओर7 बुलाए जाओगे। तुम उनसे युद्ध करोगे, या वे मुसलमान बन जाएँगे। फिर यदि तुम आज्ञा का पालन करोगे, तो अल्लाह तुम्हें उत्तम प्रतिफल प्रदान करेगा और यदि तुम फिर जाओगे, जैसे तुम इससे पहले फिर गए थे, तो वह तुम्हें दर्दनाक यातना देगा।
7. इससे अभिप्राय ह़ुनैन का युद्ध है जो सन् 8 हिज्री में मक्का पर विजय के पश्चात् हुआ। जिसमें पहले पराजय, फिर विजय हुई। और बहुत-सा ग़नीमत का धन प्राप्त हुआ, फिर वे भी इस्लाम ले आए।
لَيْسَ عَلَى الْاَعْمٰى حَرَجٌ وَّلَا عَلَى الْاَعْرَجِ حَرَجٌ وَّلَا عَلَى الْمَرِيْضِ حَرَجٌ ۗ وَمَنْ يُّطِعِ اللّٰهَ وَرَسُوْلَهٗ يُدْخِلْهُ جَنّٰتٍ تَجْرِيْ مِنْ تَحْتِهَا الْاَنْهٰرُ ۚ وَمَنْ يَّتَوَلَّ يُعَذِّبْهُ عَذَابًا اَلِيْمًا ࣖ١٧
Laisa ‘alal-a‘mā ḥarajuw wa lā ‘alal-a‘raji ḥarajuw wa lā ‘alal-marīḍi ḥaraj(uw), wa may yuṭi‘illāha wa rasūlahū yudkhilhu jannātin tajrī min taḥtihal-anhār(u), wa may yatawalla yu‘ażżibhu ‘ażāban alīmā(n).
[17]
न अंधे पर कोई दोष8 है और न लंगड़े पर कोई दोष है और न रोगी पर कोई दोष है। तथा जो अल्लाह और उसके रसूल की आज्ञा का पालन करेगा, वह उसे ऐसे बाग़ों में दाख़िल करेगा, जिनके नीचे से नहरें बहती हैं। और जो मुँह फेरेगा, वह उसे दर्दनाक यातना देगा।
8. अर्थात जिहाद में भाग न लेने पर।
۞ لَقَدْ رَضِيَ اللّٰهُ عَنِ الْمُؤْمِنِيْنَ اِذْ يُبَايِعُوْنَكَ تَحْتَ الشَّجَرَةِ فَعَلِمَ مَا فِيْ قُلُوْبِهِمْ فَاَنْزَلَ السَّكِيْنَةَ عَلَيْهِمْ وَاَثَابَهُمْ فَتْحًا قَرِيْبًاۙ١٨
Laqad raḍiyallāhu ‘anil-mu'minīna iż yubāyi‘ūnaka taḥtasy-syajarati fa‘alima mā fī qulūbihim fa'anzalas-sakīnata ‘alaihim wa aṡābahum fatḥan qarībā(n).
[18]
निःसंदेह अल्लाह ईमान वालों से प्रसन्न हो गया, जब वे वृक्ष के नीचे आपसे बैअत कर रहे थे। तो उसने जान लिया जो कुछ उनके दिलों में था। अतः उनपर शांति उतार दी और उन्हें बदले में एक निकट विजय9 प्रदान की।
9. इससे अभिप्राय ख़ैबर की विजय है।
وَّمَغَانِمَ كَثِيْرَةً يَّأْخُذُوْنَهَا ۗ وَكَانَ اللّٰهُ عَزِيْزًا حَكِيْمًا١٩
Wa magānima kaṡīratay ya'khużūnahā, wa kānallāhu ‘azīzan ḥakīmā(n).
[19]
तथा बहुत-से ग़नीमत के धन, जिन्हें वे प्राप्त करेंगे और अल्लाह हमेशा से सबपर प्रभुत्वशाली, पूर्ण हिकमत वाला है।
وَعَدَكُمُ اللّٰهُ مَغَانِمَ كَثِيْرَةً تَأْخُذُوْنَهَا فَعَجَّلَ لَكُمْ هٰذِهٖ وَكَفَّ اَيْدِيَ النَّاسِ عَنْكُمْۚ وَلِتَكُوْنَ اٰيَةً لِّلْمُؤْمِنِيْنَ وَيَهْدِيَكُمْ صِرَاطًا مُّسْتَقِيْمًاۙ٢٠
Wa‘adakumullāhu magānima kaṡīratan ta'khużūnahā fa‘ajjala lakum hāżihī wa kaffa aidiyan-nāsi ‘ankum, wa litakūna āyatal lil-mu'minīna wa yahdiyakum ṣirāṭam mustaqīmā(n).
[20]
अल्लाह ने तुमसे बहुत-सी ग़नीमतों का वादा किया है, जिन्हें तुम प्राप्त करोगे। फिर उसने तुम्हें यह जल्दी प्रदान कर दी। तथा लोगों के हाथ तुमसे रोक दिए और ताकि10 यह ईमान वालों के लिए एक निशानी बन जाए और (ताकि) वह तुम्हें सीधी राह पर चलाए।
10. अर्थात ख़ैबर की विजय और मक्का की विजय के समय शत्रुओं के हाथों को रोक दिया, ताकि यह विश्वास हो जाए कि अल्लाह ही तुम्हारा रक्षक तथा सहायक है।
وَّاُخْرٰى لَمْ تَقْدِرُوْا عَلَيْهَا قَدْ اَحَاطَ اللّٰهُ بِهَا ۗوَكَانَ اللّٰهُ عَلٰى كُلِّ شَيْءٍ قَدِيْرًا٢١
Wa ukhrā lam taqdirū ‘alaihā qad aḥāṭallāhu bihā, wa kānallāhu ‘alā kulli syai'in qadīrā(n).
[21]
तथा कई अन्य (ग़नीमतों का भी), जिन्हें तुम प्राप्त करने में सक्षम नहीं हुए। निश्चय अल्लाह ने उन्हें घेर रखा है। तथा अल्लाह हमेशा से हर चीज़ पर सर्वशक्तिमान है।
وَلَوْ قَاتَلَكُمُ الَّذِيْنَ كَفَرُوْا لَوَلَّوُا الْاَدْبَارَ ثُمَّ لَا يَجِدُوْنَ وَلِيًّا وَّلَا نَصِيْرًا٢٢
Wa lau qātalakumul-lażīna kafarū lawallawul-adbāra ṡumma lā yajidūna waliyyaw wa lā naṣīrā(n).
[22]
और यदि काफ़िर11 लोग तुमसे युद्ध करते, तो अवश्य पीठ फेर जाते, फिर न उन्हें कोई समर्थक मिलेगा और न कोई सहायक।
11. अर्थात मक्का में प्रवेश के समय युद्ध हो जाता।
سُنَّةَ اللّٰهِ الَّتِيْ قَدْ خَلَتْ مِنْ قَبْلُ ۖوَلَنْ تَجِدَ لِسُنَّةِ اللّٰهِ تَبْدِيْلًا٢٣
Sunnatallāhil-latī qad khalat min qabl(u), wa lan tajida lisunnatillāhi tabdīlā(n).
[23]
अल्लाह के उस नियम के अनुसार जो पहले से चला आ रहा है, तथा आप अल्लाह के नियम में कदापि कोई बदलाव नहीं पाएँगे।
وَهُوَ الَّذِيْ كَفَّ اَيْدِيَهُمْ عَنْكُمْ وَاَيْدِيَكُمْ عَنْهُمْ بِبَطْنِ مَكَّةَ مِنْۢ بَعْدِ اَنْ اَظْفَرَكُمْ عَلَيْهِمْ ۗوَكَانَ اللّٰهُ بِمَا تَعْمَلُوْنَ بَصِيْرًا٢٤
Wa huwal-lażī kaffa aidiyahum ‘ankum wa aidiyakum ‘anhum bibaṭni makkata mim ba‘di an aẓfarakum ‘alaihim, wa kānallāh bimā ta‘malūna baṣīrā(n).
[24]
तथा वही है जिसने मक्का की वादी में उनके हाथों को तुमसे तथा तुम्हारे हाथों को उनसे रोक दिया12, इसके बाद कि वह तुम्हें उनपर विजय दिला चुका था। और जो कुछ तुम करते हो, अल्लाह उसे हमेशा से खूब देखने वाला है।
12. जब नबी (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) ह़ुदैबिया में थे, तो काफ़िरों ने 80 सशस्त्र युवकों को भेजा कि वे आप तथा आपके साथियों के विरुद्ध कार्रवाई करके सब को समाप्त कर दें। परंतु वे सभी पकड़ लिए गए। और आपने सबको क्षमा कर दिया। तो यह आयत इसी अवसर पर उतरी। (सह़ीह़ मुस्लिम : 1808)
هُمُ الَّذِيْنَ كَفَرُوْا وَصَدُّوْكُمْ عَنِ الْمَسْجِدِ الْحَرَامِ وَالْهَدْيَ مَعْكُوْفًا اَنْ يَّبْلُغَ مَحِلَّهٗ ۚوَلَوْلَا رِجَالٌ مُّؤْمِنُوْنَ وَنِسَاۤءٌ مُّؤْمِنٰتٌ لَّمْ تَعْلَمُوْهُمْ اَنْ تَطَـُٔوْهُمْ فَتُصِيْبَكُمْ مِّنْهُمْ مَّعَرَّةٌ ۢبِغَيْرِ عِلْمٍ ۚ لِيُدْخِلَ اللّٰهُ فِيْ رَحْمَتِهٖ مَنْ يَّشَاۤءُۚ لَوْ تَزَيَّلُوْا لَعَذَّبْنَا الَّذِيْنَ كَفَرُوْا مِنْهُمْ عَذَابًا اَلِيْمًا٢٥
Humul-lażīna kafarū wa ṣaddūkum ‘anil-masjidil-ḥarāmi wal-hadya ma‘kūfan ay yabluga maḥillah(ū), wa lau lā rijālum mu'minūna wa nisā'um mu'minātul lam ta‘lamūhum an taṭa'ūhum fa tuṣībakum minhum ma‘arratum bigairi ‘ilm(in), liyudkhilallāhu fī raḥmatihī may yasyā'(u), lau tazayyalū la‘ażżabnal-lażīna kafarū minhum ‘ażāban alīmā(n).
[25]
ये वही लोग हैं, जिन्होंने कुफ़्र किया और तुम्हें मस्जिदे-ह़राम से रोका तथा क़ुर्बानी के बंधे हुए जानवरों को भी इससे रोका कि वे अपने ज़बह होने के स्थान पर पहुँचें। और यदि यह बात न होती कि तुम कुछ मुसलमान पुरुषों तथा कुछ मुसलमान स्त्रियों को, जिन्हें तुम नहीं जानते, रौंद डालोगे, तो तुमपर अनजाने में उनके कारण दोष आ जाएगा13 (तो उनपर आक्रमण कर दिया जाता); ताकि अल्लाह जिसे चाहे, अपनी दया में दाख़िल करे। यदि वे (मुसलमान एवं काफ़िर) अलग-अगल हो गए होते, तो हम अवश्य उनमें से कुफ़्र करने वालों को दर्दनाक यातना देते।
13. अर्थात यदि ह़ुदैबिया के अवसर पर संधि न होती और युद्ध हो जाता, तो अनजाने में मक्का में कई मुसलमान भी मारे जाते जो अपना ईमान छिपाए हुए थे और हिज्रत नहीं कर सके थे। फिर तुमपर दोष आ जाता कि तुम एक ओर इस्लाम का संदेश देते हो, तथा दूसरी ओर स्वयं मुसलमानों को मार रहे हो।
اِذْ جَعَلَ الَّذِيْنَ كَفَرُوْا فِيْ قُلُوْبِهِمُ الْحَمِيَّةَ حَمِيَّةَ الْجَاهِلِيَّةِ فَاَنْزَلَ اللّٰهُ سَكِيْنَتَهٗ عَلٰى رَسُوْلِهٖ وَعَلَى الْمُؤْمِنِيْنَ وَاَلْزَمَهُمْ كَلِمَةَ التَّقْوٰى وَكَانُوْٓا اَحَقَّ بِهَا وَاَهْلَهَا ۗوَكَانَ اللّٰهُ بِكُلِّ شَيْءٍ عَلِيْمًا ࣖ٢٦
Iż ja‘alal-lażīna kafarū fī qulūbihimul-ḥamiyyata ḥamiyyatal-jāhiliyyati fa anzalallāhu sakīnatahū ‘alā rasūlihī wa ‘alal-mu'minīna wa alzamahum kalimatat-taqwā wa kānū aḥaqqa bihā wa ahlahā, wa kānallāhu bikulli syai'in ‘alīmā(n).
[26]
जब काफ़िरों ने अपने दिलों में हठ कर लिया, जाहिलिय्यत (पूर्व-इस्लामी युग) का हठ, तो अल्लाह ने अपने रसूल पर और ईमान वालों पर अपनी शांति उतार दी और उन्हें परहेज़गारी की बात14 पर सुदृढ़ कर दिया। तथा वे उसके अधिक हक़दार और उसके योग्य थे। और अल्लाह सदैव हर चीज़ को भली-भाँति जानने वाला है।
14. परहेज़गारी की बात से अभिप्राय "ला इलाहा इल्लल्लाह मुह़म्मदुर् रसूलुल्लाह" है। ह़ुदैबिया का संधिलेख जब लिखा गया और आपने पहले "बिस्मिल्लाहिर् रह़मानिर् रह़ीम" लिखवाई तो क़ुरैश के प्रतिनिधियों ने कहा : हम रह़मान रह़ीम नहीं जानते। इसलिए "बिस्मिका अल्लाहुम्मा" लिखा जाए। और जब आपने लिखवाया कि यह संधिपत्र है जिस पर "मुह़म्मदुर् रसूलुल्लाह" ने संधि की है, तो उन्होंने कहा : "मुह़म्मद पुत्र अब्दुल्लाह" लिखा जाए। यदि हम आपको अल्लाह का रसूल ही मानते, तो अल्लाह के घर से नहीं रोकते। आपने उनकी सब बातें मान लीं। और मुसलमानों ने भी सब कुछ सहन कर लिया। और अल्लाह ने उनके दिलों को शांत रखा और संधि हो गई।
لَقَدْ صَدَقَ اللّٰهُ رَسُوْلَهُ الرُّءْيَا بِالْحَقِّ ۚ لَتَدْخُلُنَّ الْمَسْجِدَ الْحَرَامَ اِنْ شَاۤءَ اللّٰهُ اٰمِنِيْنَۙ مُحَلِّقِيْنَ رُءُوْسَكُمْ وَمُقَصِّرِيْنَۙ لَا تَخَافُوْنَ ۗفَعَلِمَ مَا لَمْ تَعْلَمُوْا فَجَعَلَ مِنْ دُوْنِ ذٰلِكَ فَتْحًا قَرِيْبًا٢٧
Laqad ṣadaqallāhu rasūlahur-ru'yā bil-ḥaqq(i), latadkhulunnal-masjidal-ḥarāma in syā'allāhu āminīn(a), muḥalliqīna ru'ūsakum wa muqaṣṣirīn(a), lā takhāfūn(a), fa‘alima mā lam ta‘lamū faja‘ala min dūni żālika fatḥan qarībā(n).
[27]
निःसंदेह अल्लाह ने अपने रसूल को हक़ के साथ सच्चा सपना दिखाया कि यदि अल्लाह ने चाहा तो तुम अवश्य मस्जिदे-ह़राम में प्रवेश करोगे, सुरक्षित होकर, अपने सिर मुँडाते तथा बाल कतरवाते हुए, तुम्हें किसी प्रकार का भय नहीं होगा।15 तो उसने वह बात जान ली जो तुमने नहीं जानी। इसिलए उससे पहले एक निकट विजय16 रख दी।
15. अर्थात "उम्रा" करते हुए जिसमें सिर के बाल मुँडाए या कटाए जाते हैं। इसी प्रकार "ह़ज्ज" में भी मुँडाए या कटाए जाते हैं। 16. इससे अभिप्राय ख़ैबर की विजय है, जो ह़ुदैबिया से वापसी के पश्चात् कुछ दिनों के बाद हुई। और दूसरे वर्ष संधि के अनुसार आपने अपने अनुयायियों के साथ उम्रा किया और आपका सपना अल्लाह ने साकार कर दिया।
هُوَ الَّذِيْٓ اَرْسَلَ رَسُوْلَهٗ بِالْهُدٰى وَدِيْنِ الْحَقِّ لِيُظْهِرَهٗ عَلَى الدِّيْنِ كُلِّهٖ ۗوَكَفٰى بِاللّٰهِ شَهِيْدًا٢٨
Huwal-lażī arsala rasūlahū bil-hudā wa dīnil-ḥaqqi liyuẓhirahū ‘alad-dīni kullih(ī), wa kafā billāhi syahīdā(n).
[28]
वही है जिसने अपने रसूल को मार्गदर्शन तथा सत्य धर्म (इस्लाम) के साथ भेजा, ताकि उसे प्रत्येक धर्म पर प्रभुत्व प्रदान कर दे। और गवाह के तौर पर अल्लाह काफ़ी है।
مُحَمَّدٌ رَّسُوْلُ اللّٰهِ ۗوَالَّذِيْنَ مَعَهٗٓ اَشِدَّاۤءُ عَلَى الْكُفَّارِ رُحَمَاۤءُ بَيْنَهُمْ تَرٰىهُمْ رُكَّعًا سُجَّدًا يَّبْتَغُوْنَ فَضْلًا مِّنَ اللّٰهِ وَرِضْوَانًا ۖ سِيْمَاهُمْ فِيْ وُجُوْهِهِمْ مِّنْ اَثَرِ السُّجُوْدِ ۗذٰلِكَ مَثَلُهُمْ فِى التَّوْرٰىةِ ۖوَمَثَلُهُمْ فِى الْاِنْجِيْلِۚ كَزَرْعٍ اَخْرَجَ شَطْـَٔهٗ فَاٰزَرَهٗ فَاسْتَغْلَظَ فَاسْتَوٰى عَلٰى سُوْقِهٖ يُعْجِبُ الزُّرَّاعَ لِيَغِيْظَ بِهِمُ الْكُفَّارَ ۗوَعَدَ اللّٰهُ الَّذِيْنَ اٰمَنُوْا وَعَمِلُوا الصّٰلِحٰتِ مِنْهُمْ مَّغْفِرَةً وَّاَجْرًا عَظِيْمًا ࣖ٢٩
Muḥammadur rasūlullāh(i), wal-lażīna ma‘ahū asyiddā'u ‘alal-kuffāri ruḥamā'u bainahum tarāhum rukka‘an sujjaday yabtagūna faḍlam minallāhi wa riḍwānā(n), sīmāhum fī wujūhihim min aṡaris-sujūd(i), żālika maṡaluhum fit-taurāh(ti), wa maṡaluhum fil-injīl(i), kazar‘in akhraja syaṭ'ahū fa āzarahū fastaglaẓa fastawā ‘alā sūqihī yu‘jibuz-zurrā‘a liyagīẓa bihimul-kuffār(a), wa‘adallāhul-lażīna āmanū wa ‘amiluṣ-ṣāliḥāti minhum magfirataw wa ajran ‘aẓīmā(n).
[29]
मुहम्मद17 अल्लाह के रसूल हैं और वे लोग जो उनके साथ हैं, काफ़िरों पर बहुत सख़्त हैं, आपस में बहुत दयालु हैं। तुम उन्हें रुकू' करते हुए, सजदा करते हुए, अल्लाह का अनुग्रह और (उसकी) प्रसन्नता तलाश करते हुए देखोगे। उनकी निशानी उनके चेहरों पर है, सजदों के चिह्न से। यह उनका विवरण तौरात में है। तथा इंजील में उनका विवरण उस खेती की तरह है, जिसने अपना अंकुर निकाला, फिर उसे प्रबल किया, फिर वह मोटा हो गया, फिर वह अपने तने पर सीधा खड़ा हो गया। वह किसानों को खुश करता है, ताकि उनके द्वारा काफिरों को गुस्सा दिलाए। अल्लाह ने उनमें से उन लोगों से, जो ईमान लाए तथा उन्होंने अच्छे कर्म किए, बड़ी क्षमा तथा बहुत बड़े प्रतिफल का वादा किया है।
17. इस अंतिम आयत में सह़ाबा (नबी के साथियों) के गुणों का वर्णन करते हुए यह सूचना दी गई है कि इस्लाम क्रमशः प्रगतिशील होकर प्रभुत्व प्राप्त कर लेगा। तथा ऐसा ही हुआ कि इस्लाम जो आरंभ में खेती के अंकुर के समान था, क्रमशः उन्नति करके एक दृढ़ प्रभुत्वशाली धर्म बन गया। और काफ़िर अपने द्वेष की अग्नि में जल-भुन कर ही रह गए। ह़दीस में है कि ईमान वाले आपस के प्रेम तथा दया और करुणा में एक शरीर के समान हैं। यदि उसके एक अंग को दुःख हो, तो पूरा शरीर ताप और अनिद्रा से ग्रस्त हो जाता है। (सह़ीह़ बुखारी : 6011, सह़ीह़ मुस्लिम : 2596)