Surah Muhammad

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بِسْمِ اللّٰهِ الرَّحْمٰنِ الرَّحِيْمِ
اَلَّذِيْنَ كَفَرُوْا وَصَدُّوْا عَنْ سَبِيْلِ اللّٰهِ اَضَلَّ اَعْمَالَهُمْ١
Allażīna kafarū wa ṣaddū ‘an sabīlillāhi aḍalla a‘mālahum.
[1] जिन लोगों ने कुफ़्र किया और अल्लाह के मार्ग से रोका, उस (अल्लाह) ने उनके कर्मों को नष्ट कर दिया।

وَالَّذِيْنَ اٰمَنُوْا وَعَمِلُوا الصّٰلِحٰتِ وَاٰمَنُوْا بِمَا نُزِّلَ عَلٰى مُحَمَّدٍ وَّهُوَ الْحَقُّ مِنْ رَّبِّهِمْ ۚ كَفَّرَ عَنْهُمْ سَيِّاٰتِهِمْ وَاَصْلَحَ بَالَهُمْ٢
Wal-lażīna āmanū wa ‘amiluṣ-ṣāliḥāti wa āmanū bimā nuzzila ‘alā muḥammadiw wa huwal-ḥaqqu mir rabbihim, kaffara ‘anhum sayyi'ātihim wa aṣlaḥa bālahum.
[2] तथा जो लोग ईमान लाए और उन्होंने अच्छे कर्म किए और उस पर ईमान लाए जो मुहम्मद पर उतारा गया और वही उनके रब की ओर से सत्य है, उसने उनसे उनके बुरे कर्मों को दूर कर दिया और उनके हाल को ठीक कर दिया।

ذٰلِكَ بِاَنَّ الَّذِيْنَ كَفَرُوا اتَّبَعُوا الْبَاطِلَ وَاَنَّ الَّذِيْنَ اٰمَنُوا اتَّبَعُوا الْحَقَّ مِنْ رَّبِّهِمْ ۗ كَذٰلِكَ يَضْرِبُ اللّٰهُ لِلنَّاسِ اَمْثَالَهُمْ٣
Żālika bi'annal-lażīna kafaruttaba‘ul-bāṭila wa annal-lażīna āmanuttaba‘ul-ḥaqqa mir rabbihim, każālika yaḍribullāhu lin-nāsi amṡālahum.
[3] यह इसलिए कि निःसंदेह जिन लोगों ने कुफ़्र किया, उन्होंने असत्य का अनुसरण किया और निःसंदेह जो लोग ईमान लाए, उन्होंने अपने पालनहार की ओर से (आये हुए) सत्य का अनुसरण किया। इसी प्रकार अल्लाह लोगों के लिए उनकी मिसालें बयान करता है।1
1. यह सूरत बद्र के युद्ध से पहले उतरी। जिसमें मक्का के काफ़िरों के आक्रमण से अपने धर्म और प्राण तथा मान-मर्यादा की रक्षा के लिए युद्ध करने की प्रेरणा तथा साहस और आवश्यक निर्देश दिए गए हैं।

فَاِذَا لَقِيْتُمُ الَّذِيْنَ كَفَرُوْا فَضَرْبَ الرِّقَابِۗ حَتّٰٓى اِذَآ اَثْخَنْتُمُوْهُمْ فَشُدُّوا الْوَثَاقَۖ فَاِمَّا مَنًّاۢ بَعْدُ وَاِمَّا فِدَاۤءً حَتّٰى تَضَعَ الْحَرْبُ اَوْزَارَهَا ەۛ ذٰلِكَ ۛ وَلَوْ يَشَاۤءُ اللّٰهُ لَانْتَصَرَ مِنْهُمْ وَلٰكِنْ لِّيَبْلُوَا۟ بَعْضَكُمْ بِبَعْضٍۗ وَالَّذِيْنَ قُتِلُوْا فِيْ سَبِيْلِ اللّٰهِ فَلَنْ يُّضِلَّ اَعْمَالَهُمْ٤
Fa iżā laqītumul-lażīna kafarū faḍarbar-riqāb(i), ḥattā iżā aṡkhantumūhum fa syuddul-waṡāq(a), fa'immā mannam ba‘du wa immā fidā'an ḥattā taḍa‘al-ḥarbu auzārahā - żālika - wa lau yasyā'ullāhu lantaṣara minhum wa lākil liyabluwa ba‘ḍakum biba‘ḍ(in), wal-lażīna qutilū fī sabīlillāhi falay yuḍilla a‘mālahum.
[4] अतः जब तुम काफ़िरों से मुठभेड़ करो, तो गरदनें मारना है, यहाँ तक कि जब उन्हें अच्छी तरह से क़त्ल कर चुको, तो (उन्हें) कसकर बाँध लो। फिर बाद में या तो उपकार करना है और या छुड़ौती लेना। यहाँ तक कि युद्ध अपने हथियार रख दे।2 यही (अल्लाह का आदेश) है। और यदि अल्लाह चाहे, तो अवश्य उनसे बदला ले। किंतु (यह आदेश इसलिए दिया) ताकि तुममें से कुछ की कुछ के साथ परीक्षा ले। और जो लोग अल्लाह की राह में मारे गए, तो वह (अल्लाह) उनके कर्मों को कदापि व्यर्थ नहीं करेगा।
2. इस्लाम से पहले युद्ध के बंदियों को दास बना लिया जाता था, किंतु इस्लाम उन्हें उपकार करके या छुड़ौती लेकर मुक्त करने का आदेश देता है। इस आयत में यह संकेत हैं कि इस्लाम जिहाद की अनुमति दूसरों के आक्रमण से रक्षा के लिए देता है।

سَيَهْدِيْهِمْ وَيُصْلِحُ بَالَهُمْۚ٥
Sayahdīhim wa yuṣliḥu bālahum.
[5] वह उनका मार्गदर्शन करेगा और उनकी स्थिति सुधार देगा।

وَيُدْخِلُهُمُ الْجَنَّةَ عَرَّفَهَا لَهُمْ٦
Wa yudkhiluhumul-jannata ‘arrafahā lahum.
[6] और उन्हें उस जन्नत में दाखिल करेगा, जिससे वह उन्हें परिचित करा चुका है।

يٰٓاَيُّهَا الَّذِيْنَ اٰمَنُوْٓا اِنْ تَنْصُرُوا اللّٰهَ يَنْصُرْكُمْ وَيُثَبِّتْ اَقْدَامَكُمْ٧
Yā ayyuhal-lażīna āmanū in tanṣurullāha yanṣurkum wa yuṡabbit aqdāmakum.
[7] ऐ ईमान वालो! यदि तुम अल्लाह (के धर्म) की सहायता करोगे, तो वह तुम्हारी सहायता करेगा और तुम्हारे क़दम जमा देगा।

وَالَّذِيْنَ كَفَرُوْا فَتَعْسًا لَّهُمْ وَاَضَلَّ اَعْمَالَهُمْ٨
Wal-lażīna kafarū fata‘sal lahum wa aḍalla a‘mālahum.
[8] और जिन लोगों ने कुफ़्र किया, तो उनके लिए विनाश है और उसने उनके कर्मों को व्यर्थ कर दिया।

ذٰلِكَ بِاَنَّهُمْ كَرِهُوْا مَآ اَنْزَلَ اللّٰهُ فَاَحْبَطَ اَعْمَالَهُمْ٩
Żālika bi'annahum karihū mā anzalallāhu fa aḥbaṭa a‘mālahum.
[9] यह इसलिए कि उन्होंने उस चीज़ को नापसंद किया, जिसे अल्लाह ने उतारा, तो उसने उनके कर्म अकारथ कर दिए।3
3. इसमें इस ओर संकेत है कि बिना ईमान के अल्लाह के पास कोई सत्कर्म मान्य नहीं है।

۞ اَفَلَمْ يَسِيْرُوْا فِى الْاَرْضِ فَيَنْظُرُوْا كَيْفَ كَانَ عَاقِبَةُ الَّذِيْنَ مِنْ قَبْلِهِمْ ۗ دَمَّرَ اللّٰهُ عَلَيْهِمْ ۖوَلِلْكٰفِرِيْنَ اَمْثَالُهَا١٠
Afalam yasīrū fil-arḍi fayanẓurū kaifa kāna ‘āqibatul-lażīna min qablihim, dammarallāhu ‘alaihim, wa lil-kāfirīna amṡāluhā.
[10] तो क्या ये लोग धरती में चले-फिरे नहीं कि देखते कि उन लोगों का कैसा परिणाम हुआ जो इनसे पहले थे? अल्लाह ने उन्हें नष्ट कर दिया और इन काफ़िरों के लिए भी इसी के समान (यातनाएँ) हैं।

ذٰلِكَ بِاَنَّ اللّٰهَ مَوْلَى الَّذِيْنَ اٰمَنُوْا وَاَنَّ الْكٰفِرِيْنَ لَا مَوْلٰى لَهُمْ ࣖ١١
Żālika bi'annallāha maulal-lażīna āmanū wa annal-kāfirīna lā maulā lahum.
[11] यह इसलिए कि निःसंदेह अल्लाह उन लोगों का संरक्षक है जो ईमान लाए और इसलिए कि निःसंदेह काफ़िरों का कोई संरक्षक नहीं।4
4. उह़ुद के युद्ध में जब काफ़िरों ने कहा कि हमारे पास उज़्ज़ा (देवी) है, और तुम्हारे पास कोई उज़्ज़ा नहीं। तो आप (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) ने कहा कि उनका उत्तर देते हुए कहो : अल्लाह हमारा संरक्षक है और तुम्हारा कोई संरक्षक नहीं। (सह़ीह़ बुख़ारी : 4043)

اِنَّ اللّٰهَ يُدْخِلُ الَّذِيْنَ اٰمَنُوْا وَعَمِلُوا الصّٰلِحٰتِ جَنّٰتٍ تَجْرِيْ مِنْ تَحْتِهَا الْاَنْهٰرُ ۗوَالَّذِيْنَ كَفَرُوْا يَتَمَتَّعُوْنَ وَيَأْكُلُوْنَ كَمَا تَأْكُلُ الْاَنْعَامُ وَالنَّارُ مَثْوًى لَّهُمْ١٢
Innallāha yudkhilul-lażīna āmanū wa ‘amiluṣ-ṣāliḥāti jannātin tajrī min taḥtihal-anhār(u), wal-lażīna kafarū yatamatta‘ūna wa ya'kulūna kamā ta'kulul-an‘āmu wan-nāru maṡwal lahum.
[12] निश्चय अल्लाह उन लोगों को जो ईमान लाए और उन्होंने अच्छे कर्म किए, ऐसे बाग़ों में दाखिल करेगा जिनके नीचे से नहरें बहती हैं। तथा जिन लोगों ने कुफ़्र किया, वे फ़ायदा उठाते और खाते हैं, जैसे पशु खाते हैं और आग उनके लिए रहने की जगह है।

وَكَاَيِّنْ مِّنْ قَرْيَةٍ هِيَ اَشَدُّ قُوَّةً مِّنْ قَرْيَتِكَ الَّتِيْٓ اَخْرَجَتْكَۚ اَهْلَكْنٰهُمْ فَلَا نَاصِرَ لَهُمْ١٣
Wa ka'ayyim min qaryatin hiya asyaddu quwwatam min qaryatikal-latī akhrajatk(a), ahlaknāhum falā nāṣira lahum.
[13] तथा कितनी ही बस्तियाँ हैं, जो आपकी उस बस्ती से अधिक शक्तिशाली थीं, जिसने आपको निकाल दिया, हमने उन्हें नष्ट कर दिया, फिर कोई उनका सहायक न था।

اَفَمَنْ كَانَ عَلٰى بَيِّنَةٍ مِّنْ رَّبِّهٖ كَمَنْ زُيِّنَ لَهٗ سُوْۤءُ عَمَلِهٖ وَاتَّبَعُوْٓا اَهْوَاۤءَهُمْ١٤
Afaman kāna ‘alā bayyinatim mir rabbihī kaman zuyyina lahū sū'u ‘amalihī wattaba‘ū ahwā'ahum.
[14] तो क्या वह व्यक्ति जो अपने रब की ओर से एक स्पष्ट तर्क पर है, उस व्यक्ति के समान है, जिसके लिए उसके बुरे कर्मों को सुंदर बना दिया गया और उसने अपनी इच्छाओं का पालन किया?

مَثَلُ الْجَنَّةِ الَّتِيْ وُعِدَ الْمُتَّقُوْنَ ۗفِيْهَآ اَنْهٰرٌ مِّنْ مَّاۤءٍ غَيْرِ اٰسِنٍۚ وَاَنْهٰرٌ مِّنْ لَّبَنٍ لَّمْ يَتَغَيَّرْ طَعْمُهٗ ۚوَاَنْهٰرٌ مِّنْ خَمْرٍ لَّذَّةٍ لِّلشّٰرِبِيْنَ ەۚ وَاَنْهٰرٌ مِّنْ عَسَلٍ مُّصَفًّى ۗوَلَهُمْ فِيْهَا مِنْ كُلِّ الثَّمَرٰتِ وَمَغْفِرَةٌ مِّنْ رَّبِّهِمْ ۗ كَمَنْ هُوَ خَالِدٌ فِى النَّارِ وَسُقُوْا مَاۤءً حَمِيْمًا فَقَطَّعَ اَمْعَاۤءَهُمْ١٥
Maṡalul-jannatil-latī wu‘idal-muttaqūn(a), fīhā anhārum mim mā'in gairi āsin(in), wa anhārum mil labanil lam yatagayyar ṭa‘muh(ū), wa anhārum min khamril lażżatil lisy-syāribīn(a), wa anhārum min ‘asalim muṣaffā(n), wa lahum fīhā min kulliṡ-ṡamarāti wa magfiratum mir rabbihim, kaman huwa khālidun fin-nāri wa suqū mā'an ḥamīman faqaṭṭa‘a am‘ā'ahum.
[15] उस जन्नत की विशेषता, जिसका वादा परहेज़गारों से किया गया है, यह है कि उसमें कई नहरें ऐसे पानी की हैं जो खराब होने वाला नहीं, और कई नहरें दूध की हैं जिनका स्वाद नहीं बदला, और कई नहरें शराब की हैं जो पीने वालों के लिए स्वादिष्ट है, और कई नहरें ख़ूब साफ़ किए हुए शहद की हैं। और उनके लिए उसमें हर प्रकार के फल और उनके पालनहार की ओर से बड़ी क्षमा है। (क्या ये परहेज़गार) उनके समान हैं, जो सदैव आग (जहन्नम) में रहने वाले हैं तथा जिन्हें खौलता हुआ पानी पिलाया जाएगा, जो उनकी आँतों के टुकड़े-टुकड़े कर देगा?

وَمِنْهُمْ مَّنْ يَّسْتَمِعُ اِلَيْكَۚ حَتّٰىٓ اِذَا خَرَجُوْا مِنْ عِنْدِكَ قَالُوْا لِلَّذِيْنَ اُوْتُوا الْعِلْمَ مَاذَا قَالَ اٰنِفًا ۗ اُولٰۤىِٕكَ الَّذِيْنَ طَبَعَ اللّٰهُ عَلٰى قُلُوْبِهِمْ وَاتَّبَعُوْٓا اَهْوَاۤءَهُمْ١٦
Wa minhum may yastami‘u ilaiīk(a), ḥattā iżā kharajū min ‘indika qālū lil-ażīna ūtul-ilma māżā qāla ānifā(n), ulā'ikal-ażīna ṭaba‘allāhu ‘alā qulūbihim wattaba‘ū ahwā'ahum.
[16] तथा उनमें से कुछ लोग ऐसे हैं, जो आपकी ओर कान लगाते हैं, यहाँ तक कि जब वे आपके पास से निकलते हैं, तो उन लोगों से जिन्हें ज्ञान प्रदान किया गया है, कहते हैं कि उसने अभी क्या5 कहा? यही लोग हैं, जिनके दिलों पर अल्लाह ने मुहर लगा दी और उन्होंने अपनी इच्छाओं का पालन किया।
5. यह कुछ मुनाफ़िक़ों की दशा का वर्णन है जिनको आप (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) की बातें समझ में नहीं आती थीं। क्योंकि वे आप की बातें दिल लगा कर नहीं सुनते थे। तथा आपकी बातों का इस प्रकार उपहास करते थे।

وَالَّذِيْنَ اهْتَدَوْا زَادَهُمْ هُدًى وَّاٰتٰىهُمْ تَقْوٰىهُمْ١٧
Wal-ażīnahtadau zādahum hudaw wa ātāhum taqwāhum.
[17] और वे लोगों जिन्होंने मार्गदर्शन अपनाया, उसने उन्हें हिदायत में बढ़ा दिया और उन्हें उनका तक़वा प्रदान किया।

فَهَلْ يَنْظُرُوْنَ اِلَّا السَّاعَةَ اَنْ تَأْتِيَهُمْ بَغْتَةً ۚ فَقَدْ جَاۤءَ اَشْرَاطُهَا ۚ فَاَنّٰى لَهُمْ اِذَا جَاۤءَتْهُمْ ذِكْرٰىهُمْ١٨
Fahal yanẓurūna illas-ā‘ata an ta'tiyahum bagtah(tan), faqad jā'a asyrāṭuhā, fa'annā lahum iżā jā'athum żikrāhum.
[18] तो वे किस चीज़ का इंतज़ार कर रहे हैं सिवाय क़ियामत के कि वह उनपर अचानक आ जाए? तो निश्चय उसकी निशानियाँ6 आ चुकी हैं, फिर जब वह उनके पास आ जाएगी, तो उनके लिए नसीहत ग्रहण करना कैसे संभव होगा?
6. आयत में कहा गया है कि प्रलय के लक्षण आ चुके हैं। और उनमें सब से बड़ा लक्षण आप (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) का आगमन है। जैसा कि नबी (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) का कथन है कि आपने फरमाया : "मेरा आगमन तथा प्रलय इन दो उंग्लियों के समान है।" (सह़ीह़ बुख़ारी 4936) अर्थात बहुत समीप है। जिसका अर्थ यह है कि जिस प्रकार दो उंग्लियों के बीच कोई तीसरी उंगली नहीं, इसी प्रकार मेरे और प्रलय के बीच कोई नबी नहीं। मेरे आगमन के पश्चात् अब प्रलय ही आएगी।

فَاعْلَمْ اَنَّهٗ لَآ اِلٰهَ اِلَّا اللّٰهُ وَاسْتَغْفِرْ لِذَنْۢبِكَ وَلِلْمُؤْمِنِيْنَ وَالْمُؤْمِنٰتِۚ وَاللّٰهُ يَعْلَمُ مُتَقَلَّبَكُمْ وَمَثْوٰىكُمْ ࣖ١٩
Fa‘lam annahū lā ilāha illallāhu wastagfir liżambika wa lil-u'minīna wal-u'mināt(i), wallāhu ya‘lamu mutaqallabakum wa maṡwākum.
[19] अतः जान लें कि निःसंदेह तथ्य यह है कि अल्लाह के सिवा कोई पूज्य नहीं, तथा अपने पापों के लिए क्षमा7 माँगें और ईमान वाले पुरुषों और ईमान वाली स्त्रियों के लिए भी, और अल्लाह तुम्हारे चलने-फिरने और तुम्हारे ठहरने को जानता है।
7. आप (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) ने फरमाया : मैं दिन में सत्तर बार से अधिक अल्लाह से क्षमा माँगता तथा तौबा करता हूँ। (बुख़ारी : 6307) और फरमाया : लोगो! अल्लाह से क्षमा माँगो। मैं दिन में सौ बार क्षमा माँगता हूँ। (सह़ीह़ मुस्लिम : 2702)

وَيَقُوْلُ الَّذِيْنَ اٰمَنُوْا لَوْلَا نُزِّلَتْ سُوْرَةٌ ۚفَاِذَآ اُنْزِلَتْ سُوْرَةٌ مُّحْكَمَةٌ وَّذُكِرَ فِيْهَا الْقِتَالُ ۙرَاَيْتَ الَّذِيْنَ فِيْ قُلُوْبِهِمْ مَّرَضٌ يَّنْظُرُوْنَ اِلَيْكَ نَظَرَ الْمَغْشِيِّ عَلَيْهِ مِنَ الْمَوْتِۗ فَاَوْلٰى لَهُمْۚ٢٠
Wa yaqūlul-ażīna āmanū lau lā nuzzilat sūrah(tun), fa iżā unzilat sūratum muḥkamatuw wa żukira fīhal-itāl(u), ra'aital-ażīna fī qulūbihim maraḍuy yanẓurūna ilaika naẓaral-magsyiyyi ‘alaihi minal-maut(i), fa'aulā lahum.
[20] तथा जो लोग ईमान लाए, वे कहते हैं कि कोई सूरत क्यों नहीं उतारी गई (जिसमें युद्ध का उल्लेख हो)? फिर जब कोई मोहकम (दृढ़) सूरत उतारी जाती है और उसमें युद्ध का उल्लेख होता है, तो आप उन लोगों को देखेंगे जिनके दिलों में बीमारी है, वे आपकी ओर इस तरह देखेंगे, जैसे वह आदमी देखता है, जिसपर मौत की बेहोशी छा गई हो। तो उनके लिए उत्तम है।

طَاعَةٌ وَّقَوْلٌ مَّعْرُوْفٌۗ فَاِذَا عَزَمَ الْاَمْرُۗ فَلَوْ صَدَقُوا اللّٰهَ لَكَانَ خَيْرًا لَّهُمْۚ٢١
Ṭā‘atuw wa qaulum ma‘rūf(un), fa'iżā ‘azamal-amr(u), falau ṣadaqullāha lakāna khairal lahum.
[21] आज्ञा का पालन करना और अच्छी बात कहना, फिर जब आज्ञा आवश्यक हो जाए, तो यदि वे अल्लाह के प्रति सच्चे रहें, तो निश्चय ही यह उनके लिए बेहतर है।

فَهَلْ عَسَيْتُمْ اِنْ تَوَلَّيْتُمْ اَنْ تُفْسِدُوْا فِى الْاَرْضِ وَتُقَطِّعُوْٓا اَرْحَامَكُمْ٢٢
Fahal ‘asaitum in tawallaitum an tufsidū fil-arḍi wa tuqaṭṭi‘ū arḥāmakum.
[22] फिर निश्चय तुम निकट हो, यदि तुम मुँह फेर लो8, कि तुम धरती में बिगाड़ पैदा करो और अपने संबंधों को पूरी तरह से काट दो।
8. अर्थात अल्लाह तथा रसूल की आज्ञा का पालन करने से। इस आयत में संकेत है कि धरती में उपद्रव, तथा रक्तपात का कारण अल्लाह तथा उसके रसूल (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) की आज्ञा से विमुख होने का परिणाम है। ह़दीस में है कि जो रिश्ते (संबंध) को जोड़ेगा, तो अल्लाह उसको (अपनी दया से) जोड़ेगा। और जो तोड़ेगा, तो उसे (अपनी दया से) दूर करेगा। (सह़ीह़ बुख़ारी : 4820)

اُولٰۤىِٕكَ الَّذِيْنَ لَعَنَهُمُ اللّٰهُ فَاَصَمَّهُمْ وَاَعْمٰٓى اَبْصَارَهُمْ٢٣
Ulā'ikal-lażīna la‘anahumullāhu fa aṣammahum wa a‘mā abṣārahum.
[23] यही वे लोग हैं, जिन्हें अल्लाह ने अपनी दया से दूर कर दिया। अतः उन्हें बहरा बना दिया और उनकी आँखें अंधी कर दीं।9
9. अतः वे न तो सत्य को देख सकते हैं और न ही सुन सकते हैं।

اَفَلَا يَتَدَبَّرُوْنَ الْقُرْاٰنَ اَمْ عَلٰى قُلُوْبٍ اَقْفَالُهَا٢٤
Afalā yatadabbarūnal-qur'āna am ‘alā qulūbin aqfāluhā.
[24] तो क्या वे क़ुरआन में सोच-विचार नहीं करते या उनके दिलों पर ताले लगे हैं?

اِنَّ الَّذِيْنَ ارْتَدُّوْا عَلٰٓى اَدْبَارِهِمْ مِّنْۢ بَعْدِ مَا تَبَيَّنَ لَهُمُ الْهُدَى الشَّيْطٰنُ سَوَّلَ لَهُمْۗ وَاَمْلٰى لَهُمْ٢٥
Innal-lażīnartaddū ‘alā adbārihim mim ba‘di mā tabayyana lahumul-hudasy-syaiṭānu sawwala lahum, wa amlā lahum.
[25] निःसंदेह जो लोग अपनी पीठों के बल फिर गए, इसके बाद कि उनके लिए सीधा रास्ता स्पष्ट हो गया, शैतान ने उनके लिए (उनके कार्य को) सुशोभित कर दिया और उन्हें लंबी आशा दिलाई।

ذٰلِكَ بِاَنَّهُمْ قَالُوْا لِلَّذِيْنَ كَرِهُوْا مَا نَزَّلَ اللّٰهُ سَنُطِيْعُكُمْ فِيْ بَعْضِ الْاَمْرِۚ وَاللّٰهُ يَعْلَمُ اِسْرَارَهُمْ٢٦
Żālika bi'annahum qālū lil-lażīna karihū mā nazzalallāhu sanuṭī‘ukum fī ba‘ḍil-amr(i), wallāhu ya‘lamu isrārahum.
[26] यह इसलिए कि उन्होंने, उन लोगों से जिन्होंने उसे नापसंद किया जो अल्लाह ने उतारा है, कहा कि हम कुछ मामलों में तुम्हारी बात मानेंगे और अल्लाह उनके छिपाने को जानता है।

فَكَيْفَ اِذَا تَوَفَّتْهُمُ الْمَلٰۤىِٕكَةُ يَضْرِبُوْنَ وُجُوْهَهُمْ وَاَدْبَارَهُمْ٢٧
Fa kaifa iżā tawaffathumul-malā'ikatu yaḍribūna wujūhahum wa adbārahum.
[27] तो क्या हाल होगा जब फ़रिश्ते उनके प्राण निकालेंगे, उनके चेहरों और उनकी पीठों पर मारते होंगे।

ذٰلِكَ بِاَنَّهُمُ اتَّبَعُوْا مَآ اَسْخَطَ اللّٰهَ وَكَرِهُوْا رِضْوَانَهٗ فَاَحْبَطَ اَعْمَالَهُمْ ࣖ٢٨
Żālika bi'annahumuttaba‘ū mā askhaṭallāha wa karihū riḍwānahū fa aḥbaṭa a‘mālahum.
[28] यह इस कारण कि निःसंदेह उन्होंने उसका अनुसरण किया जिसने अल्लाह को क्रोधित कर दिया और उसकी प्रसन्नता को बुरा जाना, तो उसने उनके कर्मों को नष्ट कर दिया।10
10. आयत में उनके दुष्परिणाम की ओर संकेत है जो इस्लाम के साथ उसके विरोधी नियमों और विधानों को मानते हैं और युद्ध के समय काफ़िरों का साथ देते हैं।

اَمْ حَسِبَ الَّذِيْنَ فِيْ قُلُوْبِهِمْ مَّرَضٌ اَنْ لَّنْ يُّخْرِجَ اللّٰهُ اَضْغَانَهُمْ٢٩
Am ḥasibal-lażīna fī qulūbihim maraḍun allay yukhrijallāhu aḍgānahum.
[29] या उन लोगों ने जिनके दिलों में कोई बीमारी है, यह समझ रखा है कि अल्लाह उनके द्वेष कभी प्रकट नहीं करेगा?11
11. अर्थात जो द्वेष और बैर इस्लाम और मुसलमानों से रखते हैं, अल्लाह उसे अवश्य उजागर करके रहेगा।

وَلَوْ نَشَاۤءُ لَاَرَيْنٰكَهُمْ فَلَعَرَفْتَهُمْ بِسِيْمٰهُمْ ۗوَلَتَعْرِفَنَّهُمْ فِيْ لَحْنِ الْقَوْلِۗ وَاللّٰهُ يَعْلَمُ اَعْمَالَكُمْ٣٠
Wa lau nasyā'u la'arainākahum fala‘araftahum bisīmāhum, wa lata‘rifannahum fī laḥnil-qaul(i), wallāhu ya‘lamu a‘mālakum.
[30] और (ऐ नबी!) यदि हम चाहें तो अवश्य आपको वे लोग दिखा दें, फिर निश्चय आप उन्हें उनकी निशानियों से पहचान लेंगे तथा आप उन्हें उनके बात करने के ढंग से अवश्य पहचान लेंगे। और अल्लाह तुम्हारे कामों को जानता है।

وَلَنَبْلُوَنَّكُمْ حَتّٰى نَعْلَمَ الْمُجٰهِدِيْنَ مِنْكُمْ وَالصّٰبِرِيْنَۙ وَنَبْلُوَا۟ اَخْبَارَكُمْ٣١
Wa lanabluwannakum ḥattā na‘lamal-mujāhidīna minkum waṣ-ṣābirīn(a), wa nabluwa akhbārakum.
[31] और हम अवश्य ही तुम्हारी परीक्षा लेंगे, यहाँ तक कि हम तुममें से जिहाद करने वालों और सब्र करने वालों को जान लें और तुम्हारी परिस्थितियों को परख लें।

اِنَّ الَّذِيْنَ كَفَرُوْا وَصَدُّوْا عَنْ سَبِيْلِ اللّٰهِ وَشَاۤقُّوا الرَّسُوْلَ مِنْۢ بَعْدِ مَا تَبَيَّنَ لَهُمُ الْهُدٰى لَنْ يَّضُرُّوا اللّٰهَ شَيْـًٔاۗ وَسَيُحْبِطُ اَعْمَالَهُمْ٣٢
Innal-lażīna kafarū wa ṣaddū ‘an sabīlillāhi wa syāqqur-rasūla mim ba‘di mā tabayyana lahumul-hudā lay yaḍurrullāha syai'ā(n), wa sayuḥbiṭu a‘mālahum.
[32] निःसंदेह जिन लोगों ने कुफ़्र किया और अल्लाह की राह से रोका तथा रसूल का विरोध किया, इसके पश्चात कि उनके लिए सीधा मार्ग स्पष्ट हो गया, वे कदापि अल्लाह का कोई नुक़सान नहीं करेंगे और जल्द ही वह उनके कर्मों को नष्ट कर देगा।

۞ يٰٓاَيُّهَا الَّذِيْنَ اٰمَنُوْٓا اَطِيْعُوا اللّٰهَ وَاَطِيْعُوا الرَّسُوْلَ وَلَا تُبْطِلُوْٓا اَعْمَالَكُمْ٣٣
Yā ayyuhal-lażīna āmanū aṭī‘ullāha wa aṭī‘ur-rasūla wa lā tubṭilū a‘mālakum.
[33] ऐ लोगो जो ईमान लाए हो! अल्लाह का आज्ञापालन करो और रसूल का आज्ञापालन करो12 तथा अपने कर्मों को व्यर्थ न करो।
12. इस आयत में कहा गया है कि जिस प्रकार क़ुरआन को मानना अनिवार्य है, उसी प्रकार नबी (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) की सुन्नत (ह़दीसों) का पालन करना भी अनिवार्य है। ह़दीस में है कि आप (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) ने फरमाया : मेरी उम्मत स्वर्ग में जाएगी सिवा उस व्यक्ति के जिसने इनकार किया। कहा गया कि कौन इनकार करेगा, ऐ अल्लाह के रसूल!? आप (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) ने फरमाया : जिसने मेरी आज्ञा का पालन किया, वह स्वर्ग में जाएगा। और जिसने मेरी अवज्ञा की, तो निश्चय उसने इनकार किया। (सह़ीह़ बुख़ारी : 7280)

اِنَّ الَّذِيْنَ كَفَرُوْا وَصَدُّوْا عَنْ سَبِيْلِ اللّٰهِ ثُمَّ مَاتُوْا وَهُمْ كُفَّارٌ فَلَنْ يَّغْفِرَ اللّٰهُ لَهُمْ٣٤
Innal-lażīna kafarū wa ṣaddū ‘an sabīlillāhi ṡumma mātū wa hum kuffārun falay yagfirallāhu lahum.
[34] निःसंदेह जिन लोगों ने कुफ़्र किया और अल्लाह के मार्ग से रोका, फिर वे काफ़िर ही रहते हुए मर गए, तो अल्लाह उन्हें कभी क्षमा नहीं करेगा।

فَلَا تَهِنُوْا وَتَدْعُوْٓا اِلَى السَّلْمِۖ وَاَنْتُمُ الْاَعْلَوْنَۗ وَاللّٰهُ مَعَكُمْ وَلَنْ يَّتِرَكُمْ اَعْمَالَكُمْ٣٥
Falā tahinū wa tad‘ū ilas-salm(i), wa antumul-a‘laun(a), wallāhu ma‘akum wa lay yatirakum a‘mālakum.
[35] अतः निर्बल न बनो और न सुलह13 के लिए बुलाओ और तुम ही सर्वोच्च हो और अल्लाह तुम्हारे साथ है और वह कभी भी तुम्हारे कामों को तुमसे कम न करेगा।
13. आयत का अर्थ यह नहीं कि इस्लाम संधि का विरोधी है। इसका अर्थ यह है कि ऐसी दशा में शत्रु से संधि न करो कि वह तुम्हें निर्बल समझने लगे। बल्कि अपनी शक्ति का लोहा मनवाने के पश्चात संधि करो। ताकि वह तुम्हें निर्बल समझ कर जैसे चाहें संधि के लिये बाध्य न कर लें।

اِنَّمَا الْحَيٰوةُ الدُّنْيَا لَعِبٌ وَّلَهْوٌ ۗوَاِنْ تُؤْمِنُوْا وَتَتَّقُوْا يُؤْتِكُمْ اُجُوْرَكُمْ وَلَا يَسْـَٔلْكُمْ اَمْوَالَكُمْ٣٦
Innamal-ḥayātud-dun-yā la‘ibuw wa lahw(un), wa in tu'minū wa tattaqū yu'tikum ujūrakum wa lā yas'alkum amwālakum.
[36] सांसारिक जीवन तो केवल एक खेल और तमाशा है और यदि तुम ईमान लाओ और (अल्लाह से) डरते रहो, तो वह तुम्हें तुम्हारा प्रतिफल प्रदान करेगा और तुमसे तुम्हारा (सारा) धन नहीं माँगेगा।

اِنْ يَّسْـَٔلْكُمُوْهَا فَيُحْفِكُمْ تَبْخَلُوْا وَيُخْرِجْ اَضْغَانَكُمْ٣٧
Iy yas'alkumūhā fa yuḥfikum tabkhalū wa yukhrij aḍgānakum.
[37] यदि वह तुमसे उनकी माँग करे और तुमपर ज़ोर देकर माँगे, तो तुम कंजूसी करोगे और वह तुम्हारे द्वेष को प्रकट कर देगा।14
14. अर्थात तुम्हारा पूरा धन माँगे, तो यह स्वाभाविक है कि तुम कंजूसी करके दोषी बन जाओगे। इसलिए इस्लाम ने केवल ज़कात अनिवार्य की है। जो कुल धन का ढाई प्रतिशत है।

هٰٓاَنْتُمْ هٰٓؤُلَاۤءِ تُدْعَوْنَ لِتُنْفِقُوْا فِيْ سَبِيْلِ اللّٰهِۚ فَمِنْكُمْ مَّنْ يَّبْخَلُ ۚوَمَنْ يَّبْخَلْ فَاِنَّمَا يَبْخَلُ عَنْ نَّفْسِهٖ ۗوَاللّٰهُ الْغَنِيُّ وَاَنْتُمُ الْفُقَرَاۤءُ ۗوَاِنْ تَتَوَلَّوْا يَسْتَبْدِلْ قَوْمًا غَيْرَكُمْۙ ثُمَّ لَا يَكُوْنُوْٓا اَمْثَالَكُمْ ࣖ٣٨
Hā antum hā'ulā'i tud‘auna litunfiqū fī sabīlillāh(i), fa minkum may yabkhal(u), wa may yabkhal fa innamā yabkhalu ‘an nafsih(ī), wallāhul-ganiyyu wa antumul-fuqarā'(u), wa in tatawallau yastabdil qauman gairakum, ṡumma lā yakūnū amṡālakum.
[38] सुनो! तुम वे लोग हो कि अल्लाह की राह में खर्च करने के लिए बुलाए जाते हो, तो तुममें से कुछ लोग कंजूसी करते हैं। हालाँकि जो कंजूसी करता है, वह अपने आप ही से कंजूसी15 करता है। और अल्लाह तो बेनियाज़ है, और तुम ही मोहताज हो। और यदि तुम फिर जाओगे, तो वह तुम्हारे स्थान पर तुम्हारे सिवा और लोगों को ले आएगा, फिर वे तुम्हारे जैसे नहीं होंगे।16
15. अर्थात कंजूसी करके अपने ही को हानि पहुँचाता है। 16. तो कंजूस नहीं होंगे। (देखिए : सूरतुल-माइदा, आयत : 54)