Surah Al-Ahqaf
بِسْمِ اللّٰهِ الرَّحْمٰنِ الرَّحِيْمِ
حٰمۤ ۚ١
Ḥā mīm.
[1]
ह़ा, मीम।
تَنْزِيْلُ الْكِتٰبِ مِنَ اللّٰهِ الْعَزِيْزِ الْحَكِيْمِ٢
Tanzīlul-kitābi minallāhil ‘azīzil-ḥakīm(i).
[2]
इस पुस्तक का अवतरण अल्लाह की ओर से है, जो सब पर प्रभुत्वशाली, पूर्ण हिकमत वाला है।
مَا خَلَقْنَا السَّمٰوٰتِ وَالْاَرْضَ وَمَا بَيْنَهُمَآ اِلَّا بِالْحَقِّ وَاَجَلٍ مُّسَمًّىۗ وَالَّذِيْنَ كَفَرُوْا عَمَّآ اُنْذِرُوْا مُعْرِضُوْنَ٣
Mā khalaqnas-samāwāti wal-arḍa wa mā bainahumā illā bil-ḥaqqi wa ajalim musammā(n), wal-lażīna kafarū ‘ammā unżirū mu‘riḍūn(a).
[3]
हमने आकाशों तथा धरती को और जो कुछ उन दोनों के दरमियान है सत्य के साथ और एक नियत अवधि के लिए पैदा किया है। तथा जिन लोगों ने कुफ़्र किया उस चीज़ से जिससे उन्हें सावधान किया गया, मुँह फेरने वाले हैं।
قُلْ اَرَءَيْتُمْ مَّا تَدْعُوْنَ مِنْ دُوْنِ اللّٰهِ اَرُوْنِيْ مَاذَا خَلَقُوْا مِنَ الْاَرْضِ اَمْ لَهُمْ شِرْكٌ فِى السَّمٰوٰتِ ۖائْتُوْنِيْ بِكِتٰبٍ مِّنْ قَبْلِ هٰذَآ اَوْ اَثٰرَةٍ مِّنْ عِلْمٍ اِنْ كُنْتُمْ صٰدِقِيْنَ٤
Qul ara'aitum mā tad‘ūna min dūnillāhi arūnī māżā khalaqū minal-arḍi am lahum syirkun fis-samāwāt(i), i'tūnī bikitābim min qabli hāżā au aṡāratim min ‘ilmin in kuntum ṣādiqīn(a).
[4]
(ऐ रसूल!) आप कह दें : क्या तुमने उन चीज़ों को देखा जिन्हें तुम अल्लाह के सिवा पुकारते हो, मुझे दिखाओ कि उन्होंने धरती की कौन-सी चीज़ पैदा की है, या आसमानों में उनका कोई हिस्सा है? मेरे पास इससे पहले की कोई किताब1, या ज्ञान की कोई अवशेष बात2 ले आओ, यदि तुम सच्चे हो।
1. अर्थात यदि तुम्हें मेरी शिक्षा का सत्य होना स्वीकार नहीं, तो किसी धर्म की आकाशीय पुस्तक ही से सिद्ध करके दिखा दो कि सत्य की शिक्षा कुछ और है। और यह भी न हो सके, तो किसी ज्ञान पर आधारित कथन और रिवायत ही से सिद्ध कर दो कि यह शिक्षा पूर्व के नबियों ने नहीं दी है। अर्थ यह है कि जब आकाशों और धरती की रचना अल्लाह ही ने की है तो उसके साथ दूसरों को पूज्य क्यों बनाते हो? 2. अर्थात इससे पहले वाली आकाशीय पुस्तकों का।
وَمَنْ اَضَلُّ مِمَّنْ يَّدْعُوْا مِنْ دُوْنِ اللّٰهِ مَنْ لَّا يَسْتَجِيْبُ لَهٗٓ اِلٰى يَوْمِ الْقِيٰمَةِ وَهُمْ عَنْ دُعَاۤىِٕهِمْ غٰفِلُوْنَ٥
Wa man aḍallu mimmay yad‘ū min dūnillāhi mal lā yastajību lahū ilā yaumil-qiyāmati wa hum ‘an du‘ā'ihim gāfilūn(a).
[5]
तथा उससे बढ़कर पथभ्रष्ट कौन है, जो अल्लाह के सिवा उन्हें पुकारता है, जो क़ियामत के दिन तक उसकी दुआ क़बूल नहीं करेंगे, और वे उनके पुकारने से बेखबर हैं?
وَاِذَا حُشِرَ النَّاسُ كَانُوْا لَهُمْ اَعْدَاۤءً وَّكَانُوْا بِعِبَادَتِهِمْ كٰفِرِيْنَ٦
Wa iżā ḥusyiran-nāsu kānū lahum a‘dā'aw wa kānū bi‘ibādatihim kāfirīn(a).
[6]
तथा जब लोग एकत्र किए जाएँगे, तो वे उनके शत्रु होंगे और उनकी इबादत का इनकार करने वाले होंगे।3
3. इस विषय की चर्चा क़ुरआन की अनेक आयतों में आई है। जैसे सूरत यूनुस, आयत : 290, सूरत मरयम, आयत : 81-82, सूरतुल-अनकबूत, आयत : 25 आदि।
وَاِذَا تُتْلٰى عَلَيْهِمْ اٰيٰتُنَا بَيِّنٰتٍ قَالَ الَّذِيْنَ كَفَرُوْا لِلْحَقِّ لَمَّا جَاۤءَهُمْۙ هٰذَا سِحْرٌ مُّبِيْنٌۗ٧
Wa iżā tutlā ‘alaihim āyātunā bayyinātin qālal-lażīna kafarū lil-ḥaqqi lammā jā'ahum, hāżā siḥrum mubīn(un).
[7]
और जब उनके सामने हमारी स्पष्ट आयतें पढ़ी जाती हैं, तो वे लोग जिन्होंने कुफ़्र किया, सत्य के विषय में, जब वह उनके पास आया, कहते हैं कि यह खुला जादू है।
اَمْ يَقُوْلُوْنَ افْتَرٰىهُ ۗ قُلْ اِنِ افْتَرَيْتُهٗ فَلَا تَمْلِكُوْنَ لِيْ مِنَ اللّٰهِ شَيْـًٔا ۗهُوَ اَعْلَمُ بِمَا تُفِيْضُوْنَ فِيْهِۗ كَفٰى بِهٖ شَهِيْدًا ۢ بَيْنِيْ وَبَيْنَكُمْ ۗ وَهُوَ الْغَفُوْرُ الرَّحِيْمُ٨
Am yaqūlūnaftarāh(u), qul iniftaraituh(ū), falā tamlikūna lī minallāhi syai'ā(n), huwa a‘lamu bimā tufīḍūna fīh(i), kafā bihī syahīdam bainī wa bainakum, wa huwal-gafūrur-raḥīm(u).
[8]
या वे कहते हैं कि उसने इसे4 स्वयं गढ़ लिया है? आप कह दें : यदि मैंने इसे स्वयं गढ़ लिया है, तो तुम मेरे लिए अल्लाह के विरुद्ध किसी चीज़ का अधिकार नहीं रखते।4 वह उन बातों को अधिक जानने वाला है जिनमें तुम व्यस्त होते हो। वह मेरे और तुम्हारे बीच गवाह के रूप में काफ़ी है, और वही बड़ा क्षमाशील, अत्यंत दयावान है।
4. अर्थात क़ुरआन को। 4. अर्थात अल्लाह की यातना से मेरी कोई रक्षा नहीं कर सकता। (देखिए : सूरतुल अह़्क़ाफ़, आयत : 44, 47)
قُلْ مَا كُنْتُ بِدْعًا مِّنَ الرُّسُلِ وَمَآ اَدْرِيْ مَا يُفْعَلُ بِيْ وَلَا بِكُمْۗ اِنْ اَتَّبِعُ اِلَّا مَا يُوْحٰٓى اِلَيَّ وَمَآ اَنَا۠ اِلَّا نَذِيْرٌ مُّبِيْنٌ٩
Qul mā kuntu bid‘am minar-rusuli wa mā adrī mā yuf‘alu bī wa lā bikum, in attabi‘u illā mā yūḥā ilayya wa mā ana illā nażīrum mubīn(un).
[9]
आप कह दें कि मैं रसूलों में से कोई अनोखा (रसूल) नहीं हूँ और न मैं यह जानता हूँ कि मेरे साथ क्या किया जाएगा6 और न (यह कि) तुम्हारे साथ क्या (किया जाएगा)। मैं तो केवल उसी का अनुसरण करता हूँ जो मेरी ओर वह़्य (प्रकाशना) की जाती है और मैं तो केवल खुला डराने वाला हूँ।
6. अर्थात संसार में। अन्यथा यह निश्चित है कि परलोक में ईमान वाले के लिए स्वर्ग तथा काफ़िर के लिए नरक है। किंतु किसी निश्चित व्यक्ति के परिणाम का ज्ञान किसी को नहीं।
قُلْ اَرَءَيْتُمْ اِنْ كَانَ مِنْ عِنْدِ اللّٰهِ وَكَفَرْتُمْ بِهٖ وَشَهِدَ شَاهِدٌ مِّنْۢ بَنِيْٓ اِسْرَاۤءِيْلَ عَلٰى مِثْلِهٖ فَاٰمَنَ وَاسْتَكْبَرْتُمْۗ اِنَّ اللّٰهَ لَا يَهْدِى الْقَوْمَ الظّٰلِمِيْنَ ࣖ١٠
Qul ara'aitum in kāna min ‘indillāhi wa kafartum bihī wa syahida syāhidum mim banī isrā'īla ‘alā miṡlihī fa āmana wastakbartum, innallāha lā yahdil-qaumaẓ-ẓālimīn(a).
[10]
आप कह दें : क्या तुमने देखा? यदि यह (क़ुरआन) अल्लाह की ओर से हुआ और तुमने उसका इनकार कर दिया, जबकि बनी इसराईल में से एक गवाही देने वाले ने उस जैसे की गवाही दी।7 फिर वह ईमान ले आया और तुम घमंड करते रहे (तो तुम्हारा क्या परिणाम होगा?)। बेशक अल्लाह ज़ालिमों को हिदायत नहीं देता।8
7. जैसे इसराईली विद्वान अब्दुल्लाह बिन सलाम ने इसी क़ुरआन जैसी बात के तौरात में होने की गवाही दी कि तौरात में मुह़म्मद (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) के नबी होने का वर्णन है। और वह आप पर ईमान भी लाए। (सह़ीह़ बुख़ारी : 3813, सह़ीह़ मुस्लिम : 2484) 8. अर्थात अत्याचारियों को उनके अत्याचार के कारण कुपथ ही में रहने देता है, ज़बरदस्ती किसी को सीधी राह पर नहीं चलाता।
وَقَالَ الَّذِيْنَ كَفَرُوْا لِلَّذِيْنَ اٰمَنُوْا لَوْ كَانَ خَيْرًا مَّا سَبَقُوْنَآ اِلَيْهِۗ وَاِذْ لَمْ يَهْتَدُوْا بِهٖ فَسَيَقُوْلُوْنَ هٰذَآ اِفْكٌ قَدِيْمٌ١١
Wa qālal-lażīna kafarū lil-lażīna āmanū lau kāna khairam mā sabaqūnā ilaih(i), wa iż lam yahtadū bihī fasayaqūlūna hāżā ifkun qadīm(un).
[11]
और काफ़िरों ने ईमान लाने वालों के बारे में कहा : यदि यह (धर्म) कुछ भी उत्तम होता, तो ये लोग हमसे पहले उसकी ओर न आते। और जब उन्होंने उससे मार्गदर्शन नहीं पाया, तो अवश्य कहेंगे कि यह पुराना झूठ है।
وَمِنْ قَبْلِهٖ كِتٰبُ مُوْسٰٓى اِمَامًا وَّرَحْمَةً ۗوَهٰذَا كِتٰبٌ مُّصَدِّقٌ لِّسَانًا عَرَبِيًّا لِّيُنْذِرَ الَّذِيْنَ ظَلَمُوْا ۖوَبُشْرٰى لِلْمُحْسِنِيْنَ١٢
Wa min qablihī kitābu mūsā imāmaw wa raḥmah(tan), wa hāżā kitābum muṣaddiqul lisānan ‘arabiyyal liyunżiral-lażīna ẓalamū, wa busyrā lil-muḥsinīn(a).
[12]
तथा इससे पूर्व मूसा की पुस्तक पेशवा और दया थी। और यह एक पुष्टि करने वाली9 किताब (क़ुरआन) अरबी10 भाषा में है, ताकि उन लोगों को डराए जिन्होंने अत्याचार किया और नेकी करने वालों के लिए शुभ-सूचना हो।
9. अपने पूर्व की आकाशीय पुस्तकों की। 10. अर्थात इसकी कोई मूल शिक्षा ऐसी नहीं जो मूसा की पुस्तक में न हो। किंतु यह अरबी भाषा में है। इसलिए कि इससे प्रथम संबोधित अरब लोग थे, फिर सारे लोग। इसलिए क़ुरआन का अनुवाद प्राचीन काल ही से दूसरी भाषाओं में किया जा रहा है। ताकि जो अरबी नहीं समझते, वे भी उससे शिक्षा ग्रहण करें।
اِنَّ الَّذِيْنَ قَالُوْا رَبُّنَا اللّٰهُ ثُمَّ اسْتَقَامُوْا فَلَا خَوْفٌ عَلَيْهِمْ وَلَا هُمْ يَحْزَنُوْنَۚ١٣
Innal-lażīna qālū rabbunallāhu ṡummastaqāmū falā khaufun ‘alaihim wa lā hum yaḥzanūn(a).
[13]
निःसंदेह जिन लोगों ने कहा कि हमारा पालनहार अल्लाह है। फिर ख़ूब जमे रहे, तो उन्हें न तो कोई भय होगा और न वे शोकाकुल होंगे।11
11. (देखिए : सूरत ह़ा, मीम, सजदा, आयत : 31) ह़दीस में है कि एक व्यक्ति ने कहा : ऐ अल्लाह के रसूल! (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) मुझे इस्लाम के बारे में ऐसी बात बताएँ कि फिर किसी से कुछ पूछना न पड़े। आपने फरमाया : कहो कि मैं अल्लाह पर ईमान लाया, फिर उसी पर स्थिर हो जाओ। (सह़ीह़ मुस्लिम : 38)
اُولٰۤىِٕكَ اَصْحٰبُ الْجَنَّةِ خٰلِدِيْنَ فِيْهَاۚ جَزَاۤءً ۢبِمَا كَانُوْا يَعْمَلُوْنَ١٤
Ulā'ika aṣḥābul-jannati khālidīna fīhā, jazā'am bimā kānū ya‘malūn(a).
[14]
ये लोग जन्नत वाले हैं, जिसमें वे हमेशा रहने वाले हैं, उसके बदले में जो वे किया करते थे।
وَوَصَّيْنَا الْاِنْسَانَ بِوَالِدَيْهِ اِحْسَانًا ۗحَمَلَتْهُ اُمُّهٗ كُرْهًا وَّوَضَعَتْهُ كُرْهًا ۗوَحَمْلُهٗ وَفِصٰلُهٗ ثَلٰثُوْنَ شَهْرًا ۗحَتّٰىٓ اِذَا بَلَغَ اَشُدَّهٗ وَبَلَغَ اَرْبَعِيْنَ سَنَةًۙ قَالَ رَبِّ اَوْزِعْنِيْٓ اَنْ اَشْكُرَ نِعْمَتَكَ الَّتِيْٓ اَنْعَمْتَ عَلَيَّ وَعَلٰى وَالِدَيَّ وَاَنْ اَعْمَلَ صَالِحًا تَرْضٰىهُ وَاَصْلِحْ لِيْ فِيْ ذُرِّيَّتِيْۗ اِنِّيْ تُبْتُ اِلَيْكَ وَاِنِّيْ مِنَ الْمُسْلِمِيْنَ١٥
Wa waṣṣainal-insāna biwālidaihi iḥsānā(n), ḥamalathu ummuhū kurhaw wa waḍa‘athu kurhā(n), wa ḥamluhū wa fiṣāluhū ṡalāṡūna syahrā(n), ḥattā iżā balaga asyuddahū wa balaga arba‘īna sanah(tan), qāla rabbi auzi‘nī an asykura ni‘matakal-latī an‘amta ‘alayya wa ‘alā wālidayya wa an a‘mala ṣāliḥan tarḍāhu wa aṣliḥ lī fī żurriyyatī, innī tubtu ilaika wa innī minal-muslimīn(a).
[15]
और हमने मनुष्य को अपने माता-पिता के साथ अच्छा व्यवहार करने की ताकीद दी। उसकी माँ ने उसे दुःख झेलकर गर्भ में रखा तथा दुःख झेलकर जन्म दिया और उसकी गर्भावस्था की अवधि और उसके दूध छोड़ने की अवधि तीस महीने है।12 यहाँ तक कि जब वह अपनी पूरी शक्ति को पहुँचा और चालीस वर्ष का हो गया, तो उसने कहा : ऐ मेरे पालनहार! मुझे सामर्थ्य प्रदान कर कि मैं तेरी उस अनुकंपा के लिए आभार प्रकट करूँ, जो तूने मुझपर और मेरे माता-पिता पर उपकार किए हैं। तथा यह कि मैं वह सत्कर्म करूँ, जिसे तू पसंद करता है तथा मेरे लिए मेरी संतान को सुधार दे। निःसंदेह मैंने तेरी ओर तौबा की तथा निःसंदेह मैं मुसलमानों (आज्ञाकारियों) में से हूँ।
12. इस आयत तथा क़ुरआन की अन्य आयतों में भी माता-पिता के साथ अच्छा व्यवहार करने पर विशेष बल दिया गया है। तथा उनके लिए प्रार्थना करने का आदेश दिया गया है। देखिए : सूरत बनी इसराईल, आयत : 170। ह़दीसों में भी इस विषय पर अति बल दिया गया है। आदरणीय अबू हुरैरा (रज़ियल्लाहु अन्हु) कहते हैं कि एक व्यक्ति ने आप सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम से पूछा कि मेरे सद्व्यवहार का अधिक योग्य कौन है? आप सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ने फरमाया : तेरी माँ। उसने कहा : फिर कौन? आप ने कहा : तेरी माँ। उसने कहा : फिर कौन? आप ने कहा : तेरी माँ। चौथी बार आपने कहा : तेरे पिता। (सह़ीह़ बुख़ारी : 5971, सह़ीह़ मुस्लिम : 2548)
اُولٰۤىِٕكَ الَّذِيْنَ نَتَقَبَّلُ عَنْهُمْ اَحْسَنَ مَا عَمِلُوْا وَنَتَجَاوَزُ عَنْ سَيِّاٰتِهِمْ فِيْٓ اَصْحٰبِ الْجَنَّةِۗ وَعْدَ الصِّدْقِ الَّذِيْ كَانُوْا يُوْعَدُوْنَ١٦
Ulā'ikal-lażīna nataqabbalu ‘anhum aḥsana mā ‘amilū wa natajāwazu ‘an sayyi'atihim fī aṣḥābil-jannah(ti), wa‘daṣ-ṣidqil-lażī kānū yū‘adūn(a).
[16]
यही वे लोग हैं, जिनके सबसे अच्छे कर्मों को हम स्वीकार करते हैं और उनकी बुराइयों को क्षमा कर देते हैं, इस हाल में कि वे जन्नत वालों में से हैं, सच्चे वादे के अनुरूप, जो उनसे वादा किया जाता है।
وَالَّذِيْ قَالَ لِوَالِدَيْهِ اُفٍّ لَّكُمَآ اَتَعِدَانِنِيْٓ اَنْ اُخْرَجَ وَقَدْ خَلَتِ الْقُرُوْنُ مِنْ قَبْلِيْۚ وَهُمَا يَسْتَغِيْثٰنِ اللّٰهَ وَيْلَكَ اٰمِنْ ۖاِنَّ وَعْدَ اللّٰهِ حَقٌّۚ فَيَقُوْلُ مَا هٰذَآ اِلَّآ اَسَاطِيْرُ الْاَوَّلِيْنَ١٧
Wal-lażī qāla liwālidaihi uffil lakumā ata‘idāninī an ukhraja wa qad khalatil qurūnu min qablī, wa humā yastagīṡānillāha wailaka āmin, inna wa‘dallāhi ḥaqq(un), fayaqūlu mā hāżā illā asāṭīrul-awwalīn(a).
[17]
तथा जिसने अपने माता-पिता से कहा : उफ़ है तुम दोनों के लिए! क्या तुम दोनों मुझे डराते हो कि मैं (क़ब्र से) निकाला13 जाऊँगा, हालाँकि मुझसे पहले बहुत-सी पीढ़ियाँ बीत चुकी हैं।14 जबकि वे दोनों अल्लाह की दुहाई देते हुए कहते हैं : तेरा नाश हो! तू ईमान ले आ! निश्चय अल्लाह का वादा सच्चा है। तो वह कहता है : ये पहले लोगों की काल्पनिक कहानियाँ हैं।15
13. अर्थात मौत के पश्चात् प्रलय के दिन पुनः जीवित करके समाधि से निकाला जाऊँगा। इस आयत में बुरी संतान का व्यवहार बताया गया है। 14. और कोई फिर से जीवित होकर नहीं आया। 15. इस आयत में मुसलमान माता-पिता का वाद-विवाद एक काफ़िर पुत्र के साथ हो रहा है, जिसका वर्णन उदाहरण के लिए इस आयत में किया गया है। और इस प्रकार का वाद-विवाद किसी भी मुसलमान तथा काफ़िर में हो सकता है। जैसा कि आज अनेक पश्चिमी आदि देशों में हो रहा है।
اُولٰۤىِٕكَ الَّذِيْنَ حَقَّ عَلَيْهِمُ الْقَوْلُ فِيْٓ اُمَمٍ قَدْ خَلَتْ مِنْ قَبْلِهِمْ مِّنَ الْجِنِّ وَالْاِنْسِ ۗاِنَّهُمْ كَانُوْا خٰسِرِيْنَ١٨
Ulā'ikal-lażīna ḥaqqa ‘alaihimul-qaulu fī umamin qad khalat min qablihim minal-jinni wal-ins(i), innahum kānū khāsirīn(a).
[18]
यही वे लोग हैं, जिनपर (यातना की) बात सिद्ध हो गई, उन समुदायों के साथ जो जिन्नों और मनुष्यों में से इनसे पहले गुज़र चुके। निश्चय ही वे घाटे में रहने वाले थे।
وَلِكُلٍّ دَرَجٰتٌ مِّمَّا عَمِلُوْاۚ وَلِيُوَفِّيَهُمْ اَعْمَالَهُمْ وَهُمْ لَا يُظْلَمُوْنَ١٩
Wa likullin darajātum mimmā ‘amilū, wa liyuwaffiyahum a‘mālahum wa hum lā yuẓlamūn(a).
[19]
तथा प्रत्येक के लिए अलग-अलग दर्जे हैं, उन कर्मों के कारण जो उन्होंने किए। और ताकि वह (अल्लाह) उन्हें उनके कर्मों का भरपूर बदला दे और उनपर अत्याचार नहीं किया जाएगा।
وَيَوْمَ يُعْرَضُ الَّذِيْنَ كَفَرُوْا عَلَى النَّارِۗ اَذْهَبْتُمْ طَيِّبٰتِكُمْ فِيْ حَيَاتِكُمُ الدُّنْيَا وَاسْتَمْتَعْتُمْ بِهَاۚ فَالْيَوْمَ تُجْزَوْنَ عَذَابَ الْهُوْنِ بِمَا كُنْتُمْ تَسْتَكْبِرُوْنَ فِى الْاَرْضِ بِغَيْرِ الْحَقِّ وَبِمَا كُنْتُمْ تَفْسُقُوْنَ ࣖ٢٠
Wa yauma yu‘raḍul-lażīna kafarū ‘alan-nār(i), ażhabtum ṭayyibātikum fī ḥayātikumud-dun-yā wastamta‘tum bihā, fal-yauma tujzauna ‘ażābal-hūni bimā kuntum tastakbirūna fil-arḍi bigairil-ḥaqqi wa bimā kuntum tafsuqūn(a).
[20]
और जिस दिन काफ़िरों को आग के सामने लाया जाएगा। (उनसे कहा जाएगा :) तुम अपनी अच्छी चीज़ें अपने सांसारिक जीवन में ले जा चुके और तुम उनका आनंद ले चुके। सो आज तुम्हें अपमान की यातना दी जाएगी, इसलिए कि तुम धरती पर बिना किसी अधिकार के घमंड करते थे और इसलिए कि तुम अवज्ञा किया करते थे।
۞ وَاذْكُرْ اَخَا عَادٍۗ اِذْ اَنْذَرَ قَوْمَهٗ بِالْاَحْقَافِ وَقَدْ خَلَتِ النُّذُرُ مِنْۢ بَيْنِ يَدَيْهِ وَمِنْ خَلْفِهٖٓ اَلَّا تَعْبُدُوْٓا اِلَّا اللّٰهَ ۗاِنِّيْٓ اَخَافُ عَلَيْكُمْ عَذَابَ يَوْمٍ عَظِيْمٍ٢١
Ważkur akhā ‘ād(in), iż anżara qaumahū bil-aḥqāfi wa qad khalatin-nużuru mim baini yadaihi wa min khalfihī allā ta‘budū illallāh(a), innī akhāfu ‘alaikum ‘ażāba yaumin ‘aẓīm(in).
[21]
तथा आद के भाई (हूद)16 को याद करो, जब उसने अपनी जाति को अहक़ाफ़ में डराया, जबकि उससे पहले और उसके बाद कई डराने वाले गुज़र चुके कि अल्लाह के अतिरिक्त किसी की इबादत न करो, निःसंदेह मैं तुमपर एक बड़े दिन की यातना से डरता हूँ।
16. इसमें मक्का के प्रमुखों को जिन्हें अपने धन तथा बल पर बड़ा गर्व था, अरब क्षेत्र की एक प्राचीन जाति की कथा सुनाने को कहा जा रहा है, जो बड़ी संपन्न तथा शक्तिशाली थी।
قَالُوْٓا اَجِئْتَنَا لِتَأْفِكَنَا عَنْ اٰلِهَتِنَاۚ فَأْتِنَا بِمَا تَعِدُنَآ اِنْ كُنْتَ مِنَ الصّٰدِقِيْنَ٢٢
Qālū aji'tanā lita'fikanā ‘an ālihatinā fa'tinā bimā ta‘idunā in kunta minaṣ-ṣādiqīn(a).
[22]
उन्होंने कहा : क्या तू हमारे पास इसलिए आया है कि हमको हमारे माबूदों से फेर दे? तो हम पर वह (अज़ाब) ले आ, जिसकी तू हमें धमकी देता है, यदि तू सच्चों में से है।
قَالَ اِنَّمَا الْعِلْمُ عِنْدَ اللّٰهِ ۖوَاُبَلِّغُكُمْ مَّآ اُرْسِلْتُ بِهٖ وَلٰكِنِّيْٓ اَرٰىكُمْ قَوْمًا تَجْهَلُوْنَ٢٣
Qāla innamal ‘ilmu ‘indallāh(i), wa uballigukum mā ursiltu bihī wa lākinnī arākum qauman tajhalūn(a).
[23]
उसने कहा : उसका ज्ञान तो अल्लाह ही के पास है और मैं तुम्हें वही कुछ पहुँचाता हूँ, जिसके साथ मैं भेजा गया हूँ। परंतु मैं तुम्हें देख रहा हूँ कि तुम अज्ञानता का प्रदर्शन कर रहे हो।
فَلَمَّا رَاَوْهُ عَارِضًا مُّسْتَقْبِلَ اَوْدِيَتِهِمْ قَالُوْا هٰذَا عَارِضٌ مُّمْطِرُنَا ۗبَلْ هُوَ مَا اسْتَعْجَلْتُمْ بِهٖ ۗرِيْحٌ فِيْهَا عَذَابٌ اَلِيْمٌۙ٢٤
Falammā ra'auhu ‘āriḍam mustaqbila audiyatihim, qālū hāżā ‘āriḍum mumṭirunā, bal huwa masta‘jaltum bih(ī), rīḥun fīhā ‘ażābun alīm(un).
[24]
फिर जब उन्होंने उसे एक बादल के रूप में अपनी घाटियों की ओर बढ़ते हुए देखा, तो उन्होंने कहा : यह बादल है जो हमपर बरसने वाला है। बल्कि यह तो वह (यातना) है जिसके लिए तुमने जल्दी मचा रखी थी। आँधी है, जिसमें दर्दनाक अज़ाब है।17
17. ह़दीस मे है कि जब नबी (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) बादल या आँधी देखते, तो व्याकुल हो जाते। आयशा (रज़ियल्लाहु अन्हा) ने कहा : ऐ अल्लाह के रसूल! लोग बादल देखकर वर्षा की आशा में प्रसन्न होते हैं और आप क्यों व्याकुल हो जाते हैं? आपने कहा : आयशा! मुझे भय रहता है कि इसमें कोई यातना न हो? एक जाति को आँधी से यातना दी गई। और एक जाति ने यातना देखी तो कहा : यह बादल हमपर वर्षा करेगा। (सह़ीह़ बुख़ारी : 4829, तथा सह़ीह़ मुस्लिम : 899)
تُدَمِّرُ كُلَّ شَيْءٍۢ بِاَمْرِ رَبِّهَا فَاَصْبَحُوْا لَا يُرٰىٓ اِلَّا مَسٰكِنُهُمْۗ كَذٰلِكَ نَجْزِى الْقَوْمَ الْمُجْرِمِيْنَ٢٥
Tudammiru kulla syai'im bi'amri rabbihā fa'aṣbaḥū lā yurā illā masākinuhum, każālika najzil-qaumal-mujrimīn(a).
[25]
वह अपने पालनहार के आदेश से हर चीज़ को विनष्ट कर देगी। अंततः वे ऐसे हो गए कि उनके रहने की जगहों के सिवा कुछ नज़र न आता था। इसी तरह हम अपराधी लोगों को बदला देते हैं।
وَلَقَدْ مَكَّنّٰهُمْ فِيْمَآ اِنْ مَّكَّنّٰكُمْ فِيْهِ وَجَعَلْنَا لَهُمْ سَمْعًا وَّاَبْصَارًا وَّاَفْـِٕدَةًۖ فَمَآ اَغْنٰى عَنْهُمْ سَمْعُهُمْ وَلَآ اَبْصَارُهُمْ وَلَآ اَفْـِٕدَتُهُمْ مِّنْ شَيْءٍ اِذْ كَانُوْا يَجْحَدُوْنَ بِاٰيٰتِ اللّٰهِ وَحَاقَ بِهِمْ مَّا كَانُوْا بِهٖ يَسْتَهْزِءُوْنَ ࣖ٢٦
Wa laqad makkannāhum fīmā im makkannākum fīhi wa ja‘alnā lahum sam‘aw wa abṣāraw wa af'idah(tan), famā agnā ‘anhum sam‘uhum wa lā abṣāruhum wa lā af'idatuhum min syai'in iż kānū yajḥadūna bi'āyātillāhi wa ḥāqa bihim mā kānū bihī yastahzi'ūn(a).
[26]
तथा निःसंदेह हमने उन्हें उन चीज़ों में शक्ति दी, जिनमें हमने तुम्हें शक्ति नहीं दी और हमने उनके लिए कान और आँखें और दिल बनाए, तो न उनके कान उनके किसी काम आए और न उनकी आँखें और न उनके दिल; क्योंकि वे अल्लाह की आयतों का इनकार करते थे तथा उन्हें उस चीज़ ने घेर लिया जिसका वे उपहास करते थे।
وَلَقَدْ اَهْلَكْنَا مَا حَوْلَكُمْ مِّنَ الْقُرٰى وَصَرَّفْنَا الْاٰيٰتِ لَعَلَّهُمْ يَرْجِعُوْنَ٢٧
Wa laqad ahlaknā mā ḥaulakum minal-qurā wa ṣarrafnal-āyāti la‘allahum yarji‘ūn(a).
[27]
तथा निःसंदेह हमने तुम्हारे आस-पास की बस्तियों को विनष्ट कर दिया और हमने विविध प्रकार के प्रमाण प्रस्तुत किए, ताकि वे पलट आएँ।
فَلَوْلَا نَصَرَهُمُ الَّذِيْنَ اتَّخَذُوْا مِنْ دُوْنِ اللّٰهِ قُرْبَانًا اٰلِهَةً ۗبَلْ ضَلُّوْا عَنْهُمْۚ وَذٰلِكَ اِفْكُهُمْ وَمَا كَانُوْا يَفْتَرُوْنَ٢٨
Falau lā naṣarahumul-lażīnattakhażū min dūnillāhi qurbānan ālihah(tan), bal ḍallū ‘anhum, wa żālika ifkuhum wa mā kānū yaftarūn(a).
[28]
तो फिर उन लोगों ने उनकी मदद क्यों नहीं की जिन्हें उन्होंने निकटता प्राप्त करने के लिए अल्लाह के सिवा पूज्य बना रखा था? बल्कि वे उनसे गुम हो गए, और यह18 उनका झूठ था और जो वे मिथ्यारोपण करते थे।
18. अर्थात अल्लाह के अतिरिक्त को पूज्य बनाना।
وَاِذْ صَرَفْنَآ اِلَيْكَ نَفَرًا مِّنَ الْجِنِّ يَسْتَمِعُوْنَ الْقُرْاٰنَۚ فَلَمَّا حَضَرُوْهُ قَالُوْٓا اَنْصِتُوْاۚ فَلَمَّا قُضِيَ وَلَّوْا اِلٰى قَوْمِهِمْ مُّنْذِرِيْنَ٢٩
Wa iż ṣarafnā ilaika nafaram minal-jinni yastami‘ūnal-qur'ān(a), falammā ḥaḍarūhu qālū anṣitū, falammā quḍiya wallau ilā qaumihim munżirīn(a).
[29]
तथा जब हमने तुम्हारी ओर जिन्नों के एक गिरोह19 को फेरा, जो क़ुरआन को ध्यान से सुनते थे। तो जब वे उसके पास पहुँचे, तो उन्होंने कहा : चुप हो जाओ। फिर जब वह पूरा हो गया, तो अपनी क़ौम की ओर सचेतकर्ता बनकर लौटे।
19. आदरणीय इब्ने अब्बास (रज़ियल्लाहु अन्हुमा) कहते हैं कि एक बार नबी (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) अपने कुछ अनुयायियों (सह़ाबा) के साथ उकाज़ के बाज़ार की ओर जा रहे थे। इन दिनों शैतानों को आकाश की सूचनाएँ मिलनी बंद हो गई थीं। तथा उनपर आकाश से अंगारे फेंके जा रहे थे। तो वे इस खोज में पूर्व तथा पश्चिम की दिशाओं में निकले कि इस का क्या कारण है? कुछ शैतान तिहामा (ह़िजाज़) की ओर भी आए और आप (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) तक पहुँच गए। उस समय आप "नखला" में फ़ज्र की नमाज़ पढ़ा रहे थे। जब जिन्नों ने क़ुरआन सुना, तो उसकी ओर कान लगा दिए। फिर कहा कि यही वह चीज़ है जिसके कारण हमको आकाश की सूचनाएँ मिलनी बंद हो गई हैं। और अपनी जाति से जा कर यह बात कही। तथा अल्लाह ने यह आयत अपने नबी पर उतारी। (सह़ीह़ बुख़ारी : 4921) इन आयतों में संकेत है कि नबी (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) जैसे मनुष्यों के नबी थे, वैसे ही जिन्नों के भी नबी थे। और सभी नबी मनुष्यों में आए। (देखिए सूरतुन-नह़्ल, आयत : 43, सूरतुल-फ़ुरक़ान, आयत : 20)
قَالُوْا يٰقَوْمَنَآ اِنَّا سَمِعْنَا كِتٰبًا اُنْزِلَ مِنْۢ بَعْدِ مُوْسٰى مُصَدِّقًا لِّمَا بَيْنَ يَدَيْهِ يَهْدِيْٓ اِلَى الْحَقِّ وَاِلٰى طَرِيْقٍ مُّسْتَقِيْمٍ٣٠
Qālū yā qaumanā innā sami‘nā kitāban unzila mim ba‘di mūsā muṣaddiqal limā baina yadaihi yahdī ilal-ḥaqqi wa ilā ṭarīqim mustaqīm(in).
[30]
उन्होंने कहा : ऐ हमारी जाति! निःसंदेह हमने एक ऐसी पुस्तक सुनी है, जो मूसा के पश्चात उतारी गई है, उसकी पुष्टि करने वाली है जो उससे पहले है, वह सत्य की ओर और सीधे मार्ग की ओर मार्गदर्शन करती है।
يٰقَوْمَنَآ اَجِيْبُوْا دَاعِيَ اللّٰهِ وَاٰمِنُوْا بِهٖ يَغْفِرْ لَكُمْ مِّنْ ذُنُوْبِكُمْ وَيُجِرْكُمْ مِّنْ عَذَابٍ اَلِيْمٍ٣١
Yā qaumanā ajībū dā‘iyallāhi wa āminū bihī yagfir lakum min żunūbikum wa yujirkum min ‘ażābin alīm(in).
[31]
ऐ हमारी जाति के लोगो! अल्लाह की ओर बुलाने वाले का निमंत्रण स्वीकार करो और उसपर ईमान ले आओ, वह तुम्हारे पापों को क्षमा कर देगा और तुम्हें दर्दनाक यातना से पनाह देगा।
وَمَنْ لَّا يُجِبْ دَاعِيَ اللّٰهِ فَلَيْسَ بِمُعْجِزٍ فِى الْاَرْضِ وَلَيْسَ لَهٗ مِنْ دُوْنِهٖٓ اَوْلِيَاۤءُ ۗ اُولٰۤىِٕكَ فِيْ ضَلٰلٍ مُّبِيْنٍ٣٢
Wa mal lā yujib dā‘iyallāhi falaisa bimu‘jizin fil-arḍi wa laisa lahū min dūnihī auliyā'(u), ulā'ika fī ḍalālim mubīn(in).
[32]
तथा जो अल्लाह की ओर बुलाने वाले के निमंत्रण को स्वीकार नहीं करेगा, तो न वह धरती में किसी तरह विवश करने वाला है और न ही उसके सिवा उसके कोई सहायक होंगे। ये लोग खुली गुमराही में हैं।
اَوَلَمْ يَرَوْا اَنَّ اللّٰهَ الَّذِيْ خَلَقَ السَّمٰوٰتِ وَالْاَرْضَ وَلَمْ يَعْيَ بِخَلْقِهِنَّ بِقٰدِرٍ عَلٰٓى اَنْ يُّحْيِ َۧ الْمَوْتٰى ۗبَلٰٓى اِنَّهٗ عَلٰى كُلِّ شَيْءٍ قَدِيْرٌ٣٣
Awalam yarau annallāhal-lażī khalaqas-samāwāti wal-arḍa wa lam ya‘ya bikhalqihinna biqādirin ‘alā ay yuḥyiyal-mautā, balā innahū ‘alā kulli syai'in qadīr(un).
[33]
तथा क्या उन्होंने नहीं देखा कि निःसंदेह वह अल्लाह, जिसने आकाशों और धरती को बनाया और उन्हें बनाने से नहीं थका, वह मरे हुए लोगों को पुनर्जीवित करने में सक्षम है? क्यों नहीं! निश्चय वह हर चीज में पूर्ण सक्षम है।
وَيَوْمَ يُعْرَضُ الَّذِيْنَ كَفَرُوْا عَلَى النَّارِۗ اَلَيْسَ هٰذَا بِالْحَقِّ ۗ قَالُوْا بَلٰى وَرَبِّنَا ۗقَالَ فَذُوْقُوا الْعَذَابَ بِمَا كُنْتُمْ تَكْفُرُوْنَ٣٤
Wa yauma yu‘raḍul-lażīna kafarū ‘alan-nār(i), alaisa hāżā bil-ḥaqq(i), qālū balā wa rabbinā, qāla fażūqul-‘ażāba bimā kuntum takfurūn(a).
[34]
और जिस दिन वे लोग, जिन्होंने कुफ़्र किया, आग के सामने पेश किए जाएँगे, (कहा जाएगा :) क्या यह सत्य नहीं है? वे कहेंगे : क्यों नहीं, हमारे रब की क़सम! वह कहेगा : फिर यातना का मज़ा चखो, उसके बदले जो तुम कुफ़्र किया करते थे।
فَاصْبِرْ كَمَا صَبَرَ اُولُوا الْعَزْمِ مِنَ الرُّسُلِ وَلَا تَسْتَعْجِلْ لَّهُمْ ۗ كَاَنَّهُمْ يَوْمَ يَرَوْنَ مَا يُوْعَدُوْنَۙ لَمْ يَلْبَثُوْٓا اِلَّا سَاعَةً مِّنْ نَّهَارٍ ۗ بَلٰغٌ ۚفَهَلْ يُهْلَكُ اِلَّا الْقَوْمُ الْفٰسِقُوْنَ ࣖ٣٥
Faṣbir kamā ṣabara ulul-‘azmi minar-rusuli wa lā tasta‘jil lahum, ka'annahum yauma yarauna mā yū‘adūn(a), lam yalbaṡū illā sā‘atam min nahār(in), balāg(un), fahal yuhlaku illal-qaumul-fāsiqūn(a).
[35]
अतः आप सब्र करें, जिस प्रकार पक्के इरादे वाले रसूलों ने सब्र किया और उनके लिए (यातना की) जल्दी न करें। जिस दिन वे उस चीज़ को देखेंगे जिसका उनसे वादा किया जाता है, तो (ऐसा होगा) मानो वे दिन की एक घड़ी20 के सिवा नहीं रहे। यह (संदेश) पहुँचा देना है। फिर क्या अवज्ञाकारी लोगों के सिवा कोई और विनष्ट किया जाएगा?
20. अर्थात प्रलय की भीषणता के आगे सांसारिक सुख क्षण भर प्रतीत होगा। ह़दीस में है कि नारकियों में से प्रलय के दिन संसार के सबसे सुखी व्यक्ति को लाकर नरक में एक बार डालकर कहा जाएगा : क्या कभी तूने सुख देखा है? वह कहेगा : मेरे पालनहार! (कभी) नहीं (देखा)। (सह़ीह़ मुस्लिम : 2807)