Surah Al-Jasiyah
بِسْمِ اللّٰهِ الرَّحْمٰنِ الرَّحِيْمِ
حٰمۤ ۚ١
Ḥā mīm.
[1]
ह़ा, मीम।
تَنْزِيْلُ الْكِتٰبِ مِنَ اللّٰهِ الْعَزِيْزِ الْحَكِيْمِ٢
Tanzīlul-kitābi minallāhil-‘azīzil-ḥakīm(i).
[2]
इस पुस्तक1 का अवतरण अल्लाह की ओर से है, जो सब पर प्रभुत्वशाली, पूर्ण हिकमत वाला है।
1. इस सूरत में भी तौह़ीद तथा परलोक के संबंध में मुश्रिकों के संदेहा को दूर किया गया है तथा उनकी दुराग्रह की निंदा की गई है।
اِنَّ فِى السَّمٰوٰتِ وَالْاَرْضِ لَاٰيٰتٍ لِّلْمُؤْمِنِيْنَۗ٣
Inna fis-samāwāti wal-arḍi la'āyātil lil-mu'minīn(a).
[3]
निःसंदेह आकाशों तथा धरती में ईमानवालों के लिए बहुत-सी निशानियाँ हैं।
وَفِيْ خَلْقِكُمْ وَمَا يَبُثُّ مِنْ دَاۤبَّةٍ اٰيٰتٌ لِّقَوْمٍ يُّوْقِنُوْنَۙ٤
Wa fī khalqikum wa mā yabuṡṡu min dābbatin āyātul liqaumiy yūqinūn(a).
[4]
तथा तुम्हारी सृष्टि में और उन जीवित चीज़ों में जो वह फैलाता2 है, उन लोगों के लिए बहुत-सी निशानियाँ हैं जो विश्वास करते हैं।
2. तौह़ीद (एकेश्वरवाद) के प्रकरण में क़ुरआन ने प्रत्येक स्थान पर आकाश तथा धरती में अल्लाह के सामर्थ्य की फैली हुई निशानियों को प्रस्तुत किया है। और यह बताया है कि जैसे उसने वर्षा द्वारा मनुष्य के आर्थिक जीवन की व्यवस्था कर दी है, वैसे ही रसूलों तथा पुस्तकों द्वारा उसके आत्मिक जीवन की व्यवस्था कर दी है जिसपर आश्चर्य नहीं होना चाहिए। यह विश्व की व्यवस्था स्वयं ऐसी खुली पुस्तक है जिसके पश्चात् ईमान लाने के लिए किसी और प्रमाण की आवश्यकता नहीं है।
وَاخْتِلَافِ الَّيْلِ وَالنَّهَارِ وَمَآ اَنْزَلَ اللّٰهُ مِنَ السَّمَاۤءِ مِنْ رِّزْقٍ فَاَحْيَا بِهِ الْاَرْضَ بَعْدَ مَوْتِهَا وَتَصْرِيْفِ الرِّيٰحِ اٰيٰتٌ لِّقَوْمٍ يَّعْقِلُوْنَ٥
Wakhtilāfil-laili wan-nahāri wa mā anzalallāhu minas-samā'i mir rizqin fa aḥyā bihil-arḍa ba‘da mautihā wa taṣrīfir-riyāḥi āyātul liqaumiy ya‘qilūn(a).
[5]
तथा रात और दिन के फेर-बदल में और उस रोज़ी में जो अल्लाह ने आकाश से उतारा, फिर उसके द्वारा धरती को उसके मरने के पश्चात् जीवित कर दिया, तथा हवाओं के फेरने में, उन लोगों के लिए बहुत-सी निशानियाँ हैं, जो बुद्धि से काम लेते हैं।
تِلْكَ اٰيٰتُ اللّٰهِ نَتْلُوْهَا عَلَيْكَ بِالْحَقِّۚ فَبِاَيِّ حَدِيْثٍۢ بَعْدَ اللّٰهِ وَاٰيٰتِهٖ يُؤْمِنُوْنَ٦
Tilka āyātullāhi natlūhā ‘alaika bil-ḥaqq(i), fa bi'ayyi ḥadīṡim ba‘dallāhi wa āyātihī yu'minūn(a).
[6]
ये अल्लाह की आयतें हैं, जो हम तुम्हें हक़ के साथ सुना रहे हैं। फिर अल्लाह तथा उसकी आयतों के बाद वे किस बात ईमान लाएँगे?
وَيْلٌ لِّكُلِّ اَفَّاكٍ اَثِيْمٍۙ٧
Wailul likulli affākin aṡīm(in).
[7]
विनाश है प्रत्येक बहुत झूठे, महा पापी के लिए।
يَّسْمَعُ اٰيٰتِ اللّٰهِ تُتْلٰى عَلَيْهِ ثُمَّ يُصِرُّ مُسْتَكْبِرًا كَاَنْ لَّمْ يَسْمَعْهَاۚ فَبَشِّرْهُ بِعَذَابٍ اَلِيْمٍ٨
Yasma‘u āyātillāhi tutlā ‘alaihi ṡumma yuṣirru mustakbiran ka'allam yasma‘hā, fa basysyirhu bi‘ażābin alīm(in).
[8]
जो अल्लाह की आयतों को सुनता है, जबकि वे उसके सामने पढ़ी जाती हैं, फिर वह घमंड करते हुए अडिग रहता है, जैसे कि उसने उन्हें नहीं सुना, तो उसे दर्दनाक यातना की शुभ-सूचना दे दो।
وَاِذَا عَلِمَ مِنْ اٰيٰتِنَا شَيْـًٔا ۨاتَّخَذَهَا هُزُوًاۗ اُولٰۤىِٕكَ لَهُمْ عَذَابٌ مُّهِيْنٌۗ٩
Wa iżā ‘alima min āyātinā syai'anittakhażahā huzuwā(n), ulā'ika lahum ‘ażābum muhīn(un).
[9]
और जब वह हमारी आयतों में से कोई चीज़ जान लेता है, तो उसकी हँसी उड़ाता है। यही लोग हैं, जिनके लिए अपमानकारी यातना है।
مِنْ وَّرَاۤىِٕهِمْ جَهَنَّمُ ۚوَلَا يُغْنِيْ عَنْهُمْ مَّا كَسَبُوْا شَيْـًٔا وَّلَا مَا اتَّخَذُوْا مِنْ دُوْنِ اللّٰهِ اَوْلِيَاۤءَۚ وَلَهُمْ عَذَابٌ عَظِيْمٌۗ١٠
Miw warā'ihim jahannam(u), wa lā yugnī ‘anhum mā kasabū syai'aw wa lā mattakhażū min dūnillāhi auliyā'(a), wa lahum ‘ażābun ‘aẓīm(un).
[10]
उनके आगे जहन्नम है। और न वह उनके कुछ काम आएगा, जो उन्होंने कमाया और न वे जिन्हें उन्होंने अल्लाह के सिवा अपना संरक्षक बनाया है और उनके लिए बहुत बड़ी यातना है।
هٰذَا هُدًىۚ وَالَّذِيْنَ كَفَرُوْا بِاٰيٰتِ رَبِّهِمْ لَهُمْ عَذَابٌ مِّنْ رِّجْزٍ اَلِيْمٌ ࣖ١١
Hāżā hudā(n), wal-lażīna kafarū bi'āyāti rabbihim lahum ‘ażābum mir rijzin alīm(un).
[11]
यह (क़ुरआन) सर्वथा मार्गदर्शन है। तथा जिन लोगों ने अपने पालनहार की आयतों का इनकार किया, उनके लिए गंभीर दर्दनाक यातना है।
۞ اَللّٰهُ الَّذِيْ سَخَّرَ لَكُمُ الْبَحْرَ لِتَجْرِيَ الْفُلْكُ فِيْهِ بِاَمْرِهٖ وَلِتَبْتَغُوْا مِنْ فَضْلِهٖ وَلَعَلَّكُمْ تَشْكُرُوْنَۚ١٢
Allāhul-lażī sakhkhara lakumul-baḥra litajriyal-fulku fīhi bi'amrihī wa litabtagū min faḍlihī wa la‘allakum tasykurūn(a).
[12]
वह अल्लाह ही है जिसने तुम्हारे लिए समुद्र को वश में कर दिया, ताकि जहाज़ उसमें उसके आदेश से चलें, और ताकि तुम उसके अनुग्रह में से कुछ खोज सको, और ताकि तुम आभार प्रकट करो।
وَسَخَّرَ لَكُمْ مَّا فِى السَّمٰوٰتِ وَمَا فِى الْاَرْضِ جَمِيْعًا مِّنْهُ ۗاِنَّ فِيْ ذٰلِكَ لَاٰيٰتٍ لِّقَوْمٍ يَّتَفَكَّرُوْنَ١٣
Wa sakhkhara lakum mā fis-samāwāti wa mā fil-arḍi jamī‘am minh(u), inna fī żālika la'āyātil liqaumiy yatafakkarūn(a).
[13]
और उसने तुम्हारे लिए जो कुछ आकाशों में है और जो कुछ धरती में है सबको अपनी ओर से वश में कर रखा है। निःसंदेह उसमें उन लोगों के लिए बहुत-सी निशानियाँ हैं जो चिंतन करते हैं।
قُلْ لِّلَّذِيْنَ اٰمَنُوْا يَغْفِرُوْا لِلَّذِيْنَ لَا يَرْجُوْنَ اَيَّامَ اللّٰهِ لِيَجْزِيَ قَوْمًا ۢبِمَا كَانُوْا يَكْسِبُوْنَ١٤
Qul lil-lażīna āmanū yagfirū lil-lażīna lā yarjūna ayyāmallāhi liyajziya qaumam bimā kānū yaksibūn(a).
[14]
(ऐ नबी!) आप उन लोगों से जो ईमान लाए कह दें कि वे उन लोगों को क्षमा कर दें3, जो अल्लाह के दिनों4 की आशा नहीं रखते, ताकि वह (उनमें से) कुछ लोगों को उसका बदला दे जो वे कमाते रहे थे।
3. अर्थात उनकी ओर से जो दुःख पहुँचता है। 4. अल्लाह के दिनों से अभिप्राय वे दिन हैं जिनमें अल्लाह ने अपराधियों को यातनाएँ दी हैं। (देखिए : सूरत इबराहीम, आयत : 5)
مَنْ عَمِلَ صَالِحًا فَلِنَفْسِهٖۚ وَمَنْ اَسَاۤءَ فَعَلَيْهَا ۖ ثُمَّ اِلٰى رَبِّكُمْ تُرْجَعُوْنَ١٥
Man ‘amila ṣāliḥan fa linafsih(ī), wa man asā'a fa ‘alaihā, ṡumma ilā rabbikum turja‘ūn(a).
[15]
जिसने कोई नेकी की, वह उसी के लिए है और जिसने बुराई की, वह उसी के ऊपर है, फिर तुम अपने पालनहार ही की ओर लौटाए जाओगे।5
5. अर्थात प्रलय के दिन। जिस अल्लाह ने तुम्हें पैदा किया है, उसी के पास तुम्हें जाना भी है।
وَلَقَدْ اٰتَيْنَا بَنِيْٓ اِسْرَاۤءِيْلَ الْكِتٰبَ وَالْحُكْمَ وَالنُّبُوَّةَ وَرَزَقْنٰهُمْ مِّنَ الطَّيِّبٰتِ وَفَضَّلْنٰهُمْ عَلَى الْعٰلَمِيْنَ ۚ١٦
Wa laqad ātainā banī isrā'īlal-kitāba wal-ḥukma wan-nubuwwata wa razaqnāhum minaṭ-ṭayyibāti wa faḍḍalnāhum ‘alal-‘ālamīn(a).
[16]
तथा निःसंदेह हमने इसराईल की संतान को किताब और हुक्म और नुबुव्वत प्रदान की और उन्हें पाकीज़ा चीज़ों से जीविका दी, तथा उन्हें (उनके समय के) संसार वालों पर श्रेष्ठता प्रदान की।
وَاٰتَيْنٰهُمْ بَيِّنٰتٍ مِّنَ الْاَمْرِۚ فَمَا اخْتَلَفُوْٓا اِلَّا مِنْۢ بَعْدِ مَا جَاۤءَهُمُ الْعِلْمُ بَغْيًاۢ بَيْنَهُمْ ۗاِنَّ رَبَّكَ يَقْضِيْ بَيْنَهُمْ يَوْمَ الْقِيٰمَةِ فِيْمَا كَانُوْا فِيْهِ يَخْتَلِفُوْنَ١٧
Wa ātaināhum bayyinātim minal-amr(i), fa makhtalafū illā mim ba‘di mā jā'ahumul-‘ilmu bagyam bainahum, inna rabbaka yaqḍī bainahum yaumal-qiyāmati fīmā kānū fīhi yakhtalifūn(a).
[17]
तथा हमने उन्हें (धर्म के) मामले में स्पष्ट आदेश दिए। फिर उन्होंने अपने पास ज्ञान6 आ जाने के पश्चात् ही, आपसी द्वेष के कारण विभेद किया। निःसंदेह आपका पालनहार क़ियामत के दिन उनके बीच उस चीज़ के बारे में फ़ैसला कर देगा, जिसमें वे मतभेद किया करते थे।
6. अर्थात वैध तथा अवैध, और सत्यासत्य का ज्ञान आ जाने के पश्चात्।
ثُمَّ جَعَلْنٰكَ عَلٰى شَرِيْعَةٍ مِّنَ الْاَمْرِ فَاتَّبِعْهَا وَلَا تَتَّبِعْ اَهْوَاۤءَ الَّذِيْنَ لَا يَعْلَمُوْنَ١٨
Ṡumma ja‘alnāka ‘alā syarī‘atim minal-amri fattabi‘hā wa lā tattabi‘ ahwā'al-lażīna lā ya‘lamūn(a).
[18]
फिर हमने आपको धर्म के मामले में एक स्पष्ट मार्ग पर लगा दिया। अतः आप उसी का अनुसरण करें और उन लोगों की इच्छाओं का अनुसरण न करें, जो नहीं जानते।
اِنَّهُمْ لَنْ يُّغْنُوْا عَنْكَ مِنَ اللّٰهِ شَيْـًٔا ۗوَاِنَّ الظّٰلِمِيْنَ بَعْضُهُمْ اَوْلِيَاۤءُ بَعْضٍۚ وَاللّٰهُ وَلِيُّ الْمُتَّقِيْنَ١٩
Innahum lay yugnū ‘anka minallāhi syai'ā(n), wa innaẓ-ẓālimīna ba‘ḍuhum auliyā'u ba‘ḍ(in), wallāhu waliyyul-muttaqīn(a).
[19]
निःसंदेह वे अल्लाह के मुक़ाबले आपके हरगिज़ किसी काम न आएँगे और निश्चय ज़ालिम लोग एक-दूसरे के दोस्त हैं और अल्लाह परहेज़गारों का दोस्त है।
هٰذَا بَصَاۤىِٕرُ لِلنَّاسِ وَهُدًى وَّرَحْمَةٌ لِّقَوْمٍ يُّوْقِنُوْنَ٢٠
Hāżā baṣā'iru lin-nāsi wa hudaw wa raḥmatul liqaumiy yūqinūn(a).
[20]
ये लोगों के लिए समझ (अंतर्दृष्टि) की बातें हैं, तथा उन लोगों के लिए मार्गदर्शन और दया है, जो विश्वास करते हैं।
اَمْ حَسِبَ الَّذِيْنَ اجْتَرَحُوا السَّيِّاٰتِ اَنْ نَّجْعَلَهُمْ كَالَّذِيْنَ اٰمَنُوْا وَعَمِلُوا الصّٰلِحٰتِ سَوَاۤءً مَّحْيَاهُمْ وَمَمَاتُهُمْ ۗسَاۤءَ مَا يَحْكُمُوْنَ ࣖࣖ٢١
Am ḥasibal-lażīnajtaraḥus -sayyi'āti an naj‘alahum kal-lażīna āmanū wa ‘amiluṣ-ṣāliḥāti sawā'am maḥyāhum wa mamātuhum, sā'a mā yaḥkumūn(a).
[21]
या वे लोग जिन्होंने बुराइयाँ की हैं, यह समझ रखा है कि हम उन्हें उन लोगों जैसा कर देंगे, जो ईमान लाए और उन्होंने अच्छे कर्म किए? उनका जीना और उनका मरना समान7 होगा? बहुत बुरा है जो वे निर्णय कर रहे हैं।
7. अर्थात दोनों के परिणाम में अवश्य अंतर होगा।
وَخَلَقَ اللّٰهُ السَّمٰوٰتِ وَالْاَرْضَ بِالْحَقِّ وَلِتُجْزٰى كُلُّ نَفْسٍۢ بِمَا كَسَبَتْ وَهُمْ لَا يُظْلَمُوْنَ٢٢
Wa khalaqallāhus-samāwāti wal-arḍa bil-ḥaqqi wa litujzā kullu nafsim bimā kasabat wa hum lā yuẓlamūn(a).
[22]
तथा अल्लाह ने आकाशों और धरती को हक़ के साथ पैदा किया और ताकि हर व्यक्ति को उसका बदला दिया जाए जो उसने कमाया तथा उनपर अत्याचार नहीं किया जाएगा।
اَفَرَءَيْتَ مَنِ اتَّخَذَ اِلٰهَهٗ هَوٰىهُ وَاَضَلَّهُ اللّٰهُ عَلٰى عِلْمٍ وَّخَتَمَ عَلٰى سَمْعِهٖ وَقَلْبِهٖ وَجَعَلَ عَلٰى بَصَرِهٖ غِشٰوَةًۗ فَمَنْ يَّهْدِيْهِ مِنْۢ بَعْدِ اللّٰهِ ۗ اَفَلَا تَذَكَّرُوْنَ٢٣
Afa ra'aita manittakhaża ilāhahū hawāhu wa aḍallahullāhu ‘alā ‘ilmiw wa khatama ‘alā sam‘ihī wa qalbihī wa ja‘ala ‘alā baṣarihī gisyāwah(tan), famay yahdīhi mim ba‘dillāh(i), afalā tażakkarūn(a).
[23]
फिर क्या आपने उस व्यक्ति को देखा जिसने अपना पूज्य अपनी इच्छा को बना लिया तथा अल्लाह ने उसे ज्ञान के बावजूद गुमराह कर दिया और उसके कान और उसके दिल पर मुहर लगा दी और उसकी आँख पर परदा डाल दिया। फिर अल्लाह के बाद उसे कौन हिदायत दे? तो क्या तुम नसीहत ग्रहण नहीं करते?
وَقَالُوْا مَا هِيَ اِلَّا حَيَاتُنَا الدُّنْيَا نَمُوْتُ وَنَحْيَا وَمَا يُهْلِكُنَآ اِلَّا الدَّهْرُۚ وَمَا لَهُمْ بِذٰلِكَ مِنْ عِلْمٍۚ اِنْ هُمْ اِلَّا يَظُنُّوْنَ٢٤
Wa qālū mā hiya illā ḥayātunad-dun-yā namūtu wa naḥyā wa mā yuhlikunā illad-dahr(u), wa mā lahum biżālika min ‘ilmin in hum illā yaẓunnūn(a).
[24]
तथा उन्होंने कहा, हमारे इस सांसारिक जीवन के अलावा कोई (जीवन) नहीं। हम (यहीं) मरते और जीते हैं और काल के अलावा हमें कोई भी नष्ट नहीं करता। हालाँकि उन्हें इसका कोई ज्ञान नहीं। वे केवल अनुमान8 लगा रहे हैं।
8. ह़दीस में है कि अल्लाह फरमाता है कि मनुष्य मुझे बुरा कहता है। वह काल को बुरा कहता है, हालाँकि मैं ही काल हूँ। रात और दिन मेरे हाथ में हैं। (सह़ीह़ बुख़ारी : 6181) ह़दीस का अर्थ यह है कि काल को बुरा कहना, अल्लाह को बुरा कहना है। क्योंकि काल में जो होता है उसे अल्लाह ही करता है।
وَاِذَا تُتْلٰى عَلَيْهِمْ اٰيٰتُنَا بَيِّنٰتٍ مَّا كَانَ حُجَّتَهُمْ اِلَّآ اَنْ قَالُوا ائْتُوْا بِاٰبَاۤىِٕنَآ اِنْ كُنْتُمْ صٰدِقِيْنَ٢٥
Wa iżā tutlā ‘alaihim āyātunā bayyinātim mā kāna ḥujjatahum illā an qālu'tū bi'ābā'inā in kuntum ṣādiqīn(a).
[25]
और जब उनके सामने हमारी स्पष्ट आयतें पढ़ी जाती हैं, तो उनका तर्क केवल यह होता है कि वे कहते हैं : यदि तुम सच्चे हो, तो हमारे बाप-दादा को ले आओ।
قُلِ اللّٰهُ يُحْيِيْكُمْ ثُمَّ يُمِيْتُكُمْ ثُمَّ يَجْمَعُكُمْ اِلٰى يَوْمِ الْقِيٰمَةِ لَارَيْبَ فِيْهِ وَلٰكِنَّ اَكْثَرَ النَّاسِ لَا يَعْلَمُوْنَ ࣖ٢٦
Qulillāhu yuḥyīkum ṡumma yumītukum ṡumma yajma‘ukum ilā yaumil-qiyāmati lā raiba fīhi wa lākinna akṡaran-nāsi lā ya‘lamūn(a).
[26]
आप कह दें : अल्लाह ही तुम्हें जीवन देता है, फिर तुम्हें मृत्यु देता है, फिर तुम्हें क़ियामत के दिन एकत्र करेगा, जिसमें कोई संदेह नहीं, परंतु अधिकांश लोग नहीं जानते।9
9. आयत का अर्थ यह है कि जीवन और मौत देना अल्लाह के हाथ में है। वही जीवन देता है तथा मारता है। और उसने संसार में मरने के बाद प्रलय के दिन फिर जीवित करने का समय रखा है। ताकि उनके कर्मों का प्रतिफल प्रदान करे।
وَلِلّٰهِ مُلْكُ السَّمٰوٰتِ وَالْاَرْضِۗ وَيَوْمَ تَقُوْمُ السَّاعَةُ يَوْمَىِٕذٍ يَّخْسَرُ الْمُبْطِلُوْنَ٢٧
Wa lillāhi mulkus-samāwāti wal-arḍ(i), wa yauma taqūmus-sā‘atu yauma'iżiy yakhsarul-mubṭilūn(a).
[27]
तथा आकाशों एवं धरती का राज्य अल्लाह ही का है और जिस दिन क़ियामत आएगी, उस दिन झूठे लोग (असत्यवादी) घाटे में होंगे।
وَتَرٰى كُلَّ اُمَّةٍ جَاثِيَةً ۗ كُلُّ اُمَّةٍ تُدْعٰٓى اِلٰى كِتٰبِهَاۗ اَلْيَوْمَ تُجْزَوْنَ مَا كُنْتُمْ تَعْمَلُوْنَ٢٨
Wa tarā kulla ummatin jāṡiyah(tan), kullu ummatin tud‘ā ilā kitābihā, al-yauma tujzauna mā kuntum ta‘malūn(a).
[28]
तथा आप प्रत्येक समुदाय को घुटनों के बल गिरा हुआ देखेंगे। प्रत्येक समुदाय को उसके कर्म-पत्र की ओर बुलाया जाएगा। आज तुम्हें उसका बदला दिया जाएगा, जो तुम किया करते थे।
هٰذَا كِتٰبُنَا يَنْطِقُ عَلَيْكُمْ بِالْحَقِّ ۗاِنَّا كُنَّا نَسْتَنْسِخُ مَا كُنْتُمْ تَعْمَلُوْنَ٢٩
Hāżā kitābunā yanṭiqu ‘alaikum bil-ḥaqq(i), innā kunnā nastansikhu mā kuntum ta‘malūn(a).
[29]
यह हमारी किताब है, जो तुम्हारे बारे में सच-सच बोलती है। निःसंदेह हम लिखवाते जाते थे, जो कुछ तुम करते थे।
فَاَمَّا الَّذِيْنَ اٰمَنُوْا وَعَمِلُوا الصّٰلِحٰتِ فَيُدْخِلُهُمْ رَبُّهُمْ فِيْ رَحْمَتِهٖۗ ذٰلِكَ هُوَ الْفَوْزُ الْمُبِيْنُ٣٠
Fa'ammal-lażīna āmanū wa ‘amiluṣ-ṣāliḥāti fayudkhiluhum rabbuhum fī raḥmatih(ī), żālika huwal-fauzul-mubīn(u).
[30]
फिर जो लोग ईमान लाए और उन्होंने अच्छे कर्म किए, उनका रब उन्हें अपनी रहमत में दाख़िल करेगा, यही स्पष्ट सफलता है।
وَاَمَّا الَّذِيْنَ كَفَرُوْاۗ اَفَلَمْ تَكُنْ اٰيٰتِيْ تُتْلٰى عَلَيْكُمْ فَاسْتَكْبَرْتُمْ وَكُنْتُمْ قَوْمًا مُّجْرِمِيْنَ٣١
Wa ammal-lażīna kafarū, falam takun āyātī tutlā ‘alaikum fastakbartum wa kuntum qaumam mujrimīn(a).
[31]
और रहे वे लोग जिन्होंने कुफ़्र किया, तो (उनसे कहा जाएगाः) क्या तुम्हारे सामने मेरी आयतें नहीं पढ़ी जाती थीं? परंतु तुमने घमंड किया और तुम अपराधी लोग थे।
وَاِذَا قِيْلَ اِنَّ وَعْدَ اللّٰهِ حَقٌّ وَّالسَّاعَةُ لَا رَيْبَ فِيْهَا قُلْتُمْ مَّا نَدْرِيْ مَا السَّاعَةُۙ اِنْ نَّظُنُّ اِلَّا ظَنًّا وَّمَا نَحْنُ بِمُسْتَيْقِنِيْنَ٣٢
Wa iżā qīla inna wa‘dallāhi ḥaqquw was-sā‘atu lā raiba fīhā qultum mā nadrī mas-sā‘ah(tu), in naẓunnu illā ẓannaw wa mā naḥnu bimustaiqinīn(a).
[32]
और जब कहा जाता था कि अल्लाह का वादा सच्चा है तथा क़ियामत के दिन में कोई शक नहीं, तो तुम कहते थे : हम नहीं जानते कि क़ियामत का दिन क्या है, हम बस थोड़ा-सा सोचते हैं और हम पूर्ण विश्वास करने वाले नहीं हैं।
وَبَدَا لَهُمْ سَيِّاٰتُ مَا عَمِلُوْا وَحَاقَ بِهِمْ مَّا كَانُوْا بِهٖ يَسْتَهْزِءُوْنَ٣٣
Wa badā lahum sayyi'ātu mā ‘amilū wa ḥāqa bihim mā kānū bihī yastahzi'ūn(a).
[33]
और उनके किए हुए कर्मों की बुराइयाँ उनपर प्रकट हो जाएँगी और उन्हें वह चीज़ घेर लेगी, जिसका वे मज़ाक उड़ाया करते थे।
وَقِيْلَ الْيَوْمَ نَنْسٰىكُمْ كَمَا نَسِيْتُمْ لِقَاۤءَ يَوْمِكُمْ هٰذَاۙ وَمَأْوٰىكُمُ النَّارُ وَمَا لَكُمْ مِّنْ نّٰصِرِيْنَ٣٤
Wa qīlal-yauma nansākum kamā nasītum liqā'a yaumikum hāżā, wa ma'wākumun nāru wa mā lakum min nāṣirīn(a).
[34]
और कह दिया जाएगा कि आज हम तुम्हें भुला देंगे10, जैसे तुमने अपने इस दिन के मिलने को भुला दिया और तुम्हारा ठिकाना आग (जहन्नम) है और तुम्हारे कोई मदद करने वाले नहीं।
10. जैसे ह़दीस में आता है कि अल्लाह अपने कुछ बंदों से कहेगा : क्या मैंने तुम्हें पत्नी नहीं दी थी? क्या मैंने तुम्हें सम्मान नहीं दिया था? क्या मैंने घोड़े तथा बैल इत्यादि तेरे आधीन नहीं किए थे? तू सरदारी भी करता तथा चुंगी भी लेता रहा। वह कहेगा : हाँ, ये सह़ीह़ है ऐ मेरे पालनहार! फिर अल्लाह उससे प्रश्न करेगा : क्या तुम्हें मुझसे मिलने का विश्वास था? वह कहेगा : "नहीं!" अल्लाह फ़रमाएगा : (तो आज मैं तुझे नरक में डालकर भूल जाऊँगा, जैसे तू मुझे भूला रहा। (सह़ीह़ मुस्लिम : 2968)
ذٰلِكُمْ بِاَنَّكُمُ اتَّخَذْتُمْ اٰيٰتِ اللّٰهِ هُزُوًا وَّغَرَّتْكُمُ الْحَيٰوةُ الدُّنْيَا ۚفَالْيَوْمَ لَا يُخْرَجُوْنَ مِنْهَا وَلَا هُمْ يُسْتَعْتَبُوْنَ٣٥
Żālikum bi'annakumuttakhażtum āyātillāhi huzuwaw wa garratkumul-ḥayātud-dun-yā, fal-yauma lā yukhrajūna minhā wa lā hum yusta‘tabūn(a).
[35]
यह इस कारण है कि तुमने अल्लाह की आयतों का मज़ाक़ उड़ाया तथा दुनिया की ज़िंदगी ने तुम्हें धोखा दिया। तो आज न वे इससे निकाले जाएँगे और न उनसे तौबा करने को कहा जाएगा।11
11. अर्थात अल्लाह की निशानियों तथा आदेशों का उपहास तथा दुनिया के धोखे में लिप्त रहना। ये दो अपराध ऐसे हैं जिन्होंने तुम्हें नरक की यातना का पात्र बना दिया। अब उससे निकलने की संभावना नहीं तथा न इस बात की आशा है कि किसी प्रकार तुम्हें तौबा तथा क्षमा याचना का अवसर प्रदान कर दिया जाए और तुम क्षमा माँग कर अल्लाह को मना लो।
فَلِلّٰهِ الْحَمْدُ رَبِّ السَّمٰوٰتِ وَرَبِّ الْاَرْضِ رَبِّ الْعٰلَمِيْنَ٣٦
Fa lillāhil-ḥamdu rabbis-samāwāti wa rabbil-arḍi rabbil-‘ālamīn(a).
[36]
अतः सारी प्रशंसा अल्लाह ही के लिए है, जो आकाशों का रब और धरती का रब, सारे संसार का रब है।
وَلَهُ الْكِبْرِيَاۤءُ فِى السَّمٰوٰتِ وَالْاَرْضِ ۗوَهُوَ الْعَزِيْزُ الْحَكِيْمُ ࣖ ۔٣٧
Wa lahul-kibriyā'u fis-samāwāti wal-arḍ(i), wa huwal-‘azīzul-ḥakīm(u).
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तथा उसी के लिए आकाशों और धरती में सारी महानता12 है और वही सबपर प्रभुत्वशाली, पूर्ण हिकमत वाला है।
12. अर्थात महिमा और बड़ाई अल्लाह के लिए विशिष्ट है। जैसाकि एक ह़दीसे-क़ुद्सी में अल्लाह तआला ने फरमाया है कि महिमा मेरी चादर है तथा बड़ाई मेरा तहबंद है। और जो भी इन दोनों में से किसी एक को मुझसे खींचेगा तो मैं उसे नरक में फेंक दूँगा। (सह़ीह़ मुस्लिम : 2620)