Surah Asy-Syura

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بِسْمِ اللّٰهِ الرَّحْمٰنِ الرَّحِيْمِ
حٰمۤ ۚ١
Ḥā mīm.
[1] ह़ा, मीम।

عۤسۤقۤ ۗ٢
‘Ain sīn qāf.
[2] ऐन, सीन, क़ाफ़।

كَذٰلِكَ يُوْحِيْٓ اِلَيْكَ وَاِلَى الَّذِيْنَ مِنْ قَبْلِكَۙ اللّٰهُ الْعَزِيْزُ الْحَكِيْمُ٣
Każālika yūḥī ilaika wa ilal-lażīna min qablik(a), allāhul-‘azīzul-ḥakīm(u).
[3] इसी प्रकार, आपकी ओर और आपसे पहले के नबियों की ओर, वह अल्लाह वह़्य (प्रकाशना)1 करता (रहा) है, जो सब पर प्रभुत्वशाली, पूर्ण हिकमत वाला है।
1. आरंभ में यह बताया जा रहा है कि मुह़म्मद (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) कोई नई बात नहीं कर रहे हैं और न यह वह़्य (प्रकाशना) का विषय ही इस संसार के इतिहास में प्रथम बार सामने आया है। इससे वूर्व भी पहले नबियों पर प्रकाशना आ चुकी है और वे एकेश्वरवाद का संदेश सुनाते रहे हैं।

لَهٗ مَا فِى السَّمٰوٰتِ وَمَا فِى الْاَرْضِۗ وَهُوَ الْعَلِيُّ الْعَظِيْمُ٤
Lahū mā fis-samāwāti wa mā fil-arḍ(i), wa huwal-‘aliyyul-‘aẓīm(u).
[4] उसी का है जो कुछ आकाशों में है और जो कुछ धरती में है और वह सर्वोच्च, सबसे महान है।

تَكَادُ السَّمٰوٰتُ يَتَفَطَّرْنَ مِنْ فَوْقِهِنَّ وَالْمَلٰۤىِٕكَةُ يُسَبِّحُوْنَ بِحَمْدِ رَبِّهِمْ وَيَسْتَغْفِرُوْنَ لِمَنْ فِى الْاَرْضِۗ اَلَآ اِنَّ اللّٰهَ هُوَ الْغَفُوْرُ الرَّحِيْمُ٥
Takādus-samāwātu yatafaṭṭarna min fauqihinna wal-malā'ikatu yusabbiḥūna biḥamdi rabbihim wa yastagfirūna liman fil-arḍ(i), alā innallāha huwal-gafūrur-raḥīm(u).
[5] निकट है कि आकाश अपने ऊपर से फट2 पड़ें, और फ़रिश्ते अपने पालनहार की प्रशंसा के साथ पवित्रता गान करते हैं तथा उनके लिए क्षमायाचना करते हैं, जो धरती में हैं। सुन लो! निःसंदेह अल्लाह ही अत्यंत क्षमा करने वाला, असीम दया करने वाला है।
2. अल्लाह की महिमा तथा प्रताप के भय से।

وَالَّذِيْنَ اتَّخَذُوْا مِنْ دُوْنِهٖٓ اَوْلِيَاۤءَ اللّٰهُ حَفِيْظٌ عَلَيْهِمْۖ وَمَآ اَنْتَ عَلَيْهِمْ بِوَكِيْلٍ٦
Wal-lażīnattakhażū min dūnihī auliyā'allāhu ḥafīẓun ‘alaihim, wa mā anta ‘alaihim biwakīl(in).
[6] तथा जिन लोगों ने अल्लाह के सिवा दूसरे संरक्षक बना लिए, अल्लाह उनपर निगरानी रखे हुए है और आप कदापि उनके उत्तरदायी3 नहीं हैं।
3. आपका दायित्व मात्र सावधान कर देना है।

وَكَذٰلِكَ اَوْحَيْنَآ اِلَيْكَ قُرْاٰنًا عَرَبِيًّا لِّتُنْذِرَ اُمَّ الْقُرٰى وَمَنْ حَوْلَهَا وَتُنْذِرَ يَوْمَ الْجَمْعِ لَا رَيْبَ فِيْهِ ۗفَرِيْقٌ فِى الْجَنَّةِ وَفَرِيْقٌ فِى السَّعِيْرِ٧
Wa każālika auḥainā ilaika qur'ānan ‘arabiyyal litunżira ummal-qurā wa man ḥaulahā wa tunżira yaumal-jam‘i lā raiba fīh(i), farīqun fil-jannati wa farīqun fis-sa‘īr(i).
[7] तथा इसी प्रकार, हमने आपकी ओर अरबी क़ुरआन की वह़्य (प्रकाशना) भेजी है, ताकि आप मक्का4 वासियों को और उसके आस-पास के लोगों को सावधान कर दें, और एकत्र होने के दिन5 से सचेत कर दें, जिसमें कोई संदेह नहीं। एक समूह जन्नत में तथा एक समूह भड़कती आग में होगा।
4. आयत में मक्का को उम्मुल क़ुरा कहा गया है। जो मक्का का एक नाम है जिसका शाब्दिक अर्थ "बस्तियों की माँ" है। बताया जाता है कि मक्का अरब की मूल बस्ती है और उसके आस-पास से अभिप्राय पूरा भूमंडल है। आधुनिक भुगोल शास्त्र के अनुसार मक्का पूरे भूमंडल का केंद्र है। इसलिए यह आश्चर्य की बात नहीं की क़ुरआन इसी तथ्य की ओर संकेत कर रहा हो। सारांश यह है कि इस आयत में इस्लाम के विश्वव्यापी धर्म होने की ओर संकेत किया गया है। 5. इससे अभिप्राय प्रलय का दिन है, जिस दिन कर्मों के प्रतिकार स्वरूप एक समूह स्वर्ग में और एक समूह नरक में जाएगा।

وَلَوْ شَاۤءَ اللّٰهُ لَجَعَلَهُمْ اُمَّةً وَّاحِدَةً وَّلٰكِنْ يُّدْخِلُ مَنْ يَّشَاۤءُ فِيْ رَحْمَتِهٖۗ وَالظّٰلِمُوْنَ مَا لَهُمْ مِّنْ وَّلِيٍّ وَّلَا نَصِيْرٍ٨
Wa lau syā'allāhu laja‘alahum ummataw wāḥidataw wa lākiy yudkhilu may yasyā'u fī raḥmatih(ī), waẓ-ẓālimūna mā lahum miw waliyyiw wa lā naṣīr(in).
[8] और यदि अल्लाह चाहता, तो अवश्य उन्हें एक समुदाय6 बना देता। परंतु वह जिसे चाहता है अपनी रहमत में दाख़िल करता है और ज़ालिमों का न तो कोई दोस्त है और न कोई मददगार।
6. अर्थात एक ही सत्धर्म पर कर देता। किंतु उसने प्रत्येक को अपनी इच्छा से सत्य या असत्य को अपनाने की स्वाधीनता दे रखी है। और दोनों का परिणाम बता दिया है।

اَمِ اتَّخَذُوْا مِنْ دُوْنِهٖٓ اَوْلِيَاۤءَۚ فَاللّٰهُ هُوَ الْوَلِيُّ وَهُوَ يُحْيِ الْمَوْتٰى ۖوَهُوَ عَلٰى كُلِّ شَيْءٍ قَدِيْرٌ ࣖ٩
Amittakhażū min dūnihī auliyā'(a), fallāhu huwal-waliyyu wa huwa yuḥyil-mautā, wa huwa ‘alā kulli syai'in qadīr(un).
[9] या उन्होंने उसके सिवा अन्य संरक्षक बना रखे हैं? सो अल्लाह ही वास्तविक संरक्षक है और वही मुर्दों को जीवित करेगा और वह हर चीज़ पर सर्वशक्तिमान है।7
7. अतः उसी को संरक्षक बनाओ और उसी की आज्ञा का पालन करो।

وَمَا اخْتَلَفْتُمْ فِيْهِ مِنْ شَيْءٍ فَحُكْمُهٗٓ اِلَى اللّٰهِ ۗذٰلِكُمُ اللّٰهُ رَبِّيْ عَلَيْهِ تَوَكَّلْتُۖ وَاِلَيْهِ اُنِيْبُ١٠
Wa makhtalaftum fīhi min syai'in faḥukmuhū ilallāh(i), żālikumullāhu rabbī ‘alaihi tawakkaltu wa ilaihi unīb(u).
[10] और तुम जिस चीज़ के बारे में भी मतभेद करो, उसका निर्णय अल्लाह की ओर है।8 वही अल्लाह मेरा रब है, उसी पर मैंने भरोसा किया है तथा उसी की ओर मैं लौटता हूँ।
8. अतः उसका निर्णय अल्लाह की पुस्तक क़ुरआन से तथा उसके रसूल की सुन्नत से लो।

فَاطِرُ السَّمٰوٰتِ وَالْاَرْضِۗ جَعَلَ لَكُمْ مِّنْ اَنْفُسِكُمْ اَزْوَاجًا وَّمِنَ الْاَنْعَامِ اَزْوَاجًاۚ يَذْرَؤُكُمْ فِيْهِۗ لَيْسَ كَمِثْلِهٖ شَيْءٌ ۚوَهُوَ السَّمِيْعُ الْبَصِيْرُ١١
Fāṭirus-samāwāti wal-arḍ(i), ja‘ala lakum min anfusikum azwājaw wa minal-an‘āmi azwājā(n), yażra'ukum fīh(i), laisa kamiṡlihī syai'(un), wa huwas-samī‘ul-baṣīr(u).
[11] (वह) आकाशों तथा धरती का रचयिता है। उसने तुम्हारे लिए तुम्हारी अपनी ही जाति से जोड़े बनाए तथा पशुओं से भी जोड़े। वह तुम्हें इसमें फैलाता है। उसके जैसी9 कोई चीज़ नहीं और वह सब कुछ सुनने वाला, सब कुछ देखने वाला है।
9. अर्थात उसके अस्तित्व तथा गुण और कर्म में कोई उसके समान नहीं है। भावार्थ यह है कि किसी व्यक्ति या वस्तु में उसका गुण या कर्म मानना या उसे उसका अंश मानना, असत्य तथा अधर्म है।

لَهٗ مَقَالِيْدُ السَّمٰوٰتِ وَالْاَرْضِۚ يَبْسُطُ الرِّزْقَ لِمَنْ يَّشَاۤءُ وَيَقْدِرُ ۗاِنَّهٗ بِكُلِّ شَيْءٍ عَلِيْمٌ١٢
Lahū maqālīdus-samāwāti wal-arḍ(i), yabsuṭur-rizqa limay yasyā'u wa yaqdir(u), innahū bikulli syai'in ‘alīm(un).
[12] आकाशों तथा धरती की कुंजियाँ उसी के पास हैं। वह जिसके लिए चाहता है, रोज़ी कुशादा कर देता है और (जिसकी चाहता है) तंग कर देता है। निःसंदेह वह प्रत्येक वस्तु को ख़ूब जानने वाला है।10
10. आयत संख्या 9 से 12 तक जिन तथ्यों की चर्चा है उनमें एकेश्वरवाद तथा परलोक के प्रमाण प्रस्तुत किए गए हैं। और सत्य से विमुख होने वालों को चेतावनी दी गई है।

۞ شَرَعَ لَكُمْ مِّنَ الدِّيْنِ مَا وَصّٰى بِهٖ نُوْحًا وَّالَّذِيْٓ اَوْحَيْنَآ اِلَيْكَ وَمَا وَصَّيْنَا بِهٖٓ اِبْرٰهِيْمَ وَمُوْسٰى وَعِيْسٰٓى اَنْ اَقِيْمُوا الدِّيْنَ وَلَا تَتَفَرَّقُوْا فِيْهِۗ كَبُرَ عَلَى الْمُشْرِكِيْنَ مَا تَدْعُوْهُمْ اِلَيْهِۗ اَللّٰهُ يَجْتَبِيْٓ اِلَيْهِ مَنْ يَّشَاۤءُ وَيَهْدِيْٓ اِلَيْهِ مَنْ يُّنِيْبُۗ١٣
Syara‘a lakum minad-dīni mā waṣṣā bihī nūḥaw wal-lażī auḥainā ilaika wa mā waṣṣā bihī ibrāhīma wa mūsā wa ‘īsā an aqīmud-dīna wa lā tatafarraqū fīh(i), kabura ‘alal-musyrikīna mā tad‘ūhum ilaih(i), allāhu yajtabī ilaihi may yasyā'u wa yahdī ilaihi may yunīb(u).
[13] उसने तुम्हारे लिए वही धर्म निर्धारित11 किया है, जिसका आदेश उसने नूह़ को दिया और जिसकी वह़्य हमने आपकी ओर की, तथा जिसका आदेश हमने इबराहीम तथा मूसा और ईसा को दिया, यह कि इस धर्म को क़ायम करो और उसके विषय में अलग-अलग न हो जाओ। बहुदेववादियों पर वह बात भारी है जिसकी ओर आप उन्हें बुलाते हैं। अल्लाह जिसे चाहता है, अपने लिए चुन लेता है और अपनी ओर मार्ग उसी को दिखाता है, जो उसकी ओर लौटता है।
11. इस आयत में पाँच नबियों का नाम लेकर बताया गया है कि सबको एक ही धर्म देकर भेजा गया है। जिसका अर्थ यह है कि इस मानव संसार में अंतिम नबी मुह़म्मद (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) तक जो भी नबी आए सभी की मूल शिक्षा एक रही है, कि एक अल्लाह को मानो और उसी एक की इबादत करो। तथा वैध-अवैध के विषय में अल्लाह ही के आदेशों का पालन करो। और अपने सभी धार्मिक तथा सामाजिक और राजनैतिक विवादों का निर्णय उसी के धर्म-विधान के आधार पर करो। (देखिए : सूरतुन-निसा, आयत :163-164)

وَمَا تَفَرَّقُوْٓا اِلَّا مِنْۢ بَعْدِ مَا جَاۤءَهُمُ الْعِلْمُ بَغْيًاۢ بَيْنَهُمْۗ وَلَوْلَا كَلِمَةٌ سَبَقَتْ مِنْ رَّبِّكَ اِلٰٓى اَجَلٍ مُّسَمًّى لَّقُضِيَ بَيْنَهُمْۗ وَاِنَّ الَّذِيْنَ اُوْرِثُوا الْكِتٰبَ مِنْۢ بَعْدِهِمْ لَفِيْ شَكٍّ مِّنْهُ مُرِيْبٍ١٤
Wa mā tafarraqū illā mim ba‘di mā jā'ahumul-‘ilmu bagyam bainahum, wa lau lā kalimatun sabaqat mir rabbika ilā ajalim musammal laquḍiya bainahum, wa innal-lażīna ūriṡul-kitāba mim ba‘dihim lafī syakkim minhu murīb(in).
[14] और वे12 लोग आपस की ज़िद के कारण इसके पश्चात् अलग-अलग हुए कि उनके पास ज्ञान आ चुका था। तथा यदि वह बात न होती जो आपके पालनहार की ओर से एक निश्चित समय के लिए पहले तय13 हो चुकी, तो अवश्य उनके बीच निर्णय कर दिया जाता। और निःसंदेह वे लोग जो उनके पश्चात् पुस्तक के उत्तराधिकारी बनाए14 गए, वे इस (क़ुरआन) के बारे में दुविधा में डालने वाले संदेह में पड़े हैं।
12. अर्थात मुश्रिक। 13. अर्थात प्रलय के दिन निर्णय करने की। 14. अर्थात यहूदी तथा ईसाई भी सत्य में मतभेद तथा संदेह कर रहे हैं।

فَلِذٰلِكَ فَادْعُ ۚوَاسْتَقِمْ كَمَآ اُمِرْتَۚ وَلَا تَتَّبِعْ اَهْوَاۤءَهُمْۚ وَقُلْ اٰمَنْتُ بِمَآ اَنْزَلَ اللّٰهُ مِنْ كِتٰبٍۚ وَاُمِرْتُ لِاَعْدِلَ بَيْنَكُمْ ۗ اَللّٰهُ رَبُّنَا وَرَبُّكُمْ ۗ لَنَآ اَعْمَالُنَا وَلَكُمْ اَعْمَالُكُمْ ۗ لَاحُجَّةَ بَيْنَنَا وَبَيْنَكُمْ ۗ اَللّٰهُ يَجْمَعُ بَيْنَنَا ۚوَاِلَيْهِ الْمَصِيْرُ ۗ١٥
Fa liżālika fad‘(u), wastaqim kamā umirt(a), wa lā tattabi‘ ahwā'ahum, wa qul āmantu bimā anzalallāhu min kitāb(in), wa umirtu li'a‘dila bainakum, allāhu rabbunā wa rabbukum, lanā a‘mālunā wa lakum a‘mālukum, lā ḥujjata bainanā wa bainakum, allāhu yajma‘u bainanā,wa ilaihil-maṣīr(u).
[15] अतः आप लोगों को इसी (धर्म) की ओर बुलाएँ और (उसपर) जमें रहें, जैसाकि आपको आदेश दिया गया है और उनकी इच्छाओं का पालन न करें, तथा कह दें कि अल्लाह ने जो भी किताब उतारी15 है मैं उसपर ईमान लाया। तथा मुझे आदेश दिया गया है कि मैं तुम्हारे बीच न्याय करूँ। अल्लाह ही हमारा पालनहार तथा तुम्हारा पालनहार है। हमारे लिए हमारे कर्म हैं तथा तुम्हारे लिए तुम्हारे कर्म। हमारे और तुम्हारे बीच कोई झगड़ा नहीं। अल्लाह हम सभी को एकत्र करेगा तथा उसी की ओर लौटकर जाना है।16
15. अर्थात सभी आकाशीय पुस्तकों पर जो नबियों पर उतारी गई हैं। 16. अर्थात प्रलय के दिन। फिर वह हमारे बीच निर्णय कर देगा।

وَالَّذِيْنَ يُحَاۤجُّوْنَ فِى اللّٰهِ مِنْۢ بَعْدِ مَا اسْتُجِيْبَ لَهٗ حُجَّتُهُمْ دَاحِضَةٌ عِنْدَ رَبِّهِمْ وَعَلَيْهِمْ غَضَبٌ وَّلَهُمْ عَذَابٌ شَدِيْدٌ١٦
Wal-lażīna yuḥājjūna fillāhi mim ba‘di mastujība lahū ḥujjatuhum dāḥiḍatun ‘inda rabbihim wa ‘alaihim gaḍabuw wa lahum ‘ażābun syadīd(un).
[16] तथा जो लोग अल्लाह के (धर्म के) बारे में झगड़ते हैं, इसके पश्चात कि उसे17 स्वीकार कर लिया गया, उनका तर्क उनके रब के यहाँ बातिल (व्यर्थ) है, तथा उनपर बड़ा प्रकोप है और उनके लिए बुहत कड़ी यातना है।
17. अर्थात मुह़म्मद (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम), और इस्लाम धर्म को।

اَللّٰهُ الَّذِيْٓ اَنْزَلَ الْكِتٰبَ بِالْحَقِّ وَالْمِيْزَانَ ۗوَمَا يُدْرِيْكَ لَعَلَّ السَّاعَةَ قَرِيْبٌ١٧
Allāhul-lażī anzalal-kitāba bil-ḥaqqi wal-mīzān(a), wa mā yudrīka la‘allas-sā‘ata qarīb(un).
[17] अल्लाह ही है जिसने सत्य के साथ यह पुस्तक उतारी तथा तराज़ू18 भी, और आपको क्या चीज़ सूचित करती है शायद कि क़ियामत क़रीब हो।
18. तराज़ू से अभिप्राय न्याय का आदेश है। जो क़ुरआन द्वारा दिया गया है। (देखिए : सूरतुल-ह़दीद, आयत : 25)

يَسْتَعْجِلُ بِهَا الَّذِيْنَ لَا يُؤْمِنُوْنَ بِهَاۚ وَالَّذِيْنَ اٰمَنُوْا مُشْفِقُوْنَ مِنْهَاۙ وَيَعْلَمُوْنَ اَنَّهَا الْحَقُّ ۗ اَلَآ اِنَّ الَّذِيْنَ يُمَارُوْنَ فِى السَّاعَةِ لَفِيْ ضَلٰلٍۢ بَعِيْدٍ١٨
Yasta‘jilu bihal-lażīna lā yu'minūna bihā, wal-lażīna āmanū musyfiqūna minhā, wa ya‘lamūna annahal-ḥaqq(u), alā innal-lażīna yumārūna fis-sā‘ati lafī ḍalālim ba‘īd(in).
[18] उसे वे लोग शीघ्र माँगते हैं, जो उसपर ईमान नहीं रखते, तथा वे लोग जो उसपर विश्वास रखते हैं, वे उससे डरने वाले हैं और जानते हैं कि निःसंदेह वह सत्य है। सुनो! निःसंदेह जो लोग क़ियामत के विषय में बहस (संदेह) करते हैं, निश्चय वे बहुत दूर की गुमराही में हैं।

اَللّٰهُ لَطِيْفٌۢ بِعِبَادِهٖ يَرْزُقُ مَنْ يَّشَاۤءُ ۚوَهُوَ الْقَوِيُّ الْعَزِيْزُ ࣖ١٩
Allāhu laṭīfum bi‘ibādihī yarzuqu may yasyā'(u), wa huwal-qawiyyul-‘azīz(u).
[19] अल्लाह अपने बंदों पर बड़ा दयालु है। वह जिसे चाहता है रोज़ी देता है और वही सर्वशक्तिमान, सब पर प्रभुत्वशाली है।

مَنْ كَانَ يُرِيْدُ حَرْثَ الْاٰخِرَةِ نَزِدْ لَهٗ فِيْ حَرْثِهٖۚ وَمَنْ كَانَ يُرِيْدُ حَرْثَ الدُّنْيَا نُؤْتِهٖ مِنْهَاۙ وَمَا لَهٗ فِى الْاٰخِرَةِ مِنْ نَّصِيْبٍ٢٠
Man kāna yurīdu ḥarṡal-ākhirati nazid lahū fī ḥarṡih(ī), wa man kāna yurīdu ḥarṡad-dun-yā nu'tihī minhā, wa mā lahū fil-ākhirati min naṣīb(in).
[20] जो कोई आख़िरत की खेती19 चाहता है, हम उसके लिए उसकी खेती में बढ़ोतरी कर देंगे, और जो कोई दुनिया की खेती चाहता है, हम उसे उसमें से कुछ दे देंगे, और आख़िरत में उसका कोई हिस्सा नहीं होगा।
19. अर्थात जो अपने सांसारिक सत्कर्म का प्रतिफल परलोक में चाहता है, तो उसे उसका प्रतिफल दस गुना से सात सौ गुना तक मिलेगा। और जो सांसारिक फल का अभिलाषी है, तो जो उसके भाग्य में है उसे उतना ही मिलेगा और परलोक में कुछ नहीं मिलेगा। (इब्ने कसीर)

اَمْ لَهُمْ شُرَكٰۤؤُا شَرَعُوْا لَهُمْ مِّنَ الدِّيْنِ مَا لَمْ يَأْذَنْۢ بِهِ اللّٰهُ ۗوَلَوْلَا كَلِمَةُ الْفَصْلِ لَقُضِيَ بَيْنَهُمْ ۗوَاِنَّ الظّٰلِمِيْنَ لَهُمْ عَذَابٌ اَلِيْمٌ٢١
Am lahum syurakā'u syara‘ū lahum minad-dīni mā lam ya'żam bihillāh(u), wa lau lā kalimatul-faṣli laquḍiya bainahum, wa innaẓ-ẓālimīna lahum ‘ażābun alīm(un).
[21] या इन (मुश्रिकों) के कुछ ऐसे साझी20 हैं, जिन्होंने उनके लिए धर्म का एक ऐसा नियम निर्धारित किया है जिसकी अल्लाह ने अनुमति नहीं दी है? और यदि नियत की हुई बात न होती, तो अवश्य उनके बीच निर्णय कर दिया जाता तथा निश्चय ही अत्याचारियों के लिए दुखद यातना है।
20. इससे अभिप्राय उनके वे प्रमुख हैं जो वैध-अवैध का नियम बनाते थे। इसमें यह संकेत है कि धार्मिक जीवन-विधान बनाने का अधिकार केवल अल्लाह को है। उसके सिवा दूसरों के बनाए हुये धार्मिक जीवन-विधान को मानना और उसका पालन करना शिर्क है।

تَرَى الظّٰلِمِيْنَ مُشْفِقِيْنَ مِمَّا كَسَبُوْا وَهُوَ وَاقِعٌۢ بِهِمْ ۗوَالَّذِيْنَ اٰمَنُوْا وَعَمِلُوا الصّٰلِحٰتِ فِيْ رَوْضَاتِ الْجَنَّاتِۚ لَهُمْ مَّا يَشَاۤءُوْنَ عِنْدَ رَبِّهِمْ ۗذٰلِكَ هُوَ الْفَضْلُ الْكَبِيْرُ٢٢
Taraẓ-ẓālimīna musyfiqīna mimmā kasabū wa huwa wāqi‘um bihim, wal-lażīna āmanū wa ‘amiluṣ-ṣāliḥāti fī rauḍātil-jannāt(i), lahum mā yasyā'ūna ‘inda rabbihim, żālika huwal-faḍlul-kabīr(u).
[22] आप अत्याचारियों को देखेंगे कि वे उससे डरने वाले होंगे जो उन्होंने कमाया, हालाँकि वह उनपर आकर रहने वाला है, तथा जो लोग ईमान लाए और उन्होंने अच्छे कर्म किए, वे जन्नतों के बागों में होंगे। उनके लिए जो कुछ भी वे चाहेंगे उनके रब के पास होगा। यही बहुत बड़ा अनुग्रह है।

ذٰلِكَ الَّذِيْ يُبَشِّرُ اللّٰهُ عِبَادَهُ الَّذِيْنَ اٰمَنُوْا وَعَمِلُوا الصّٰلِحٰتِۗ قُلْ لَّآ اَسْـَٔلُكُمْ عَلَيْهِ اَجْرًا اِلَّا الْمَوَدَّةَ فِى الْقُرْبٰىۗ وَمَنْ يَّقْتَرِفْ حَسَنَةً نَّزِدْ لَهٗ فِيْهَا حُسْنًا ۗاِنَّ اللّٰهَ غَفُوْرٌ شَكُوْرٌ٢٣
Żālikal-lażī yubasysyirullāhu ‘ibādahul-lażīna āmanū wa ‘amiluṣ-ṣāliḥāt(i), qul lā as'alukum ‘alaihi ajran illal-mawaddata fil-qurbā, wa may yaqtarif ḥasanatan nazid lahū fīhā ḥusnā(n), innallāha gafūrun syakūr(un).
[23] यही वह चीज़ है, जिसकी शुभ-सूचना अल्लाह अपने उन बंदों को देता है, जो ईमान लाए और उन्होंने अच्छे कार्य किए। आप कह दें : मैं इसपर तुमसे कोई पारिश्रमिक नहीं माँगता, रिश्तेदारी के कारण प्रेम-भाव के सिवा।21 और जो कोई नेकी कमाएगा, हम उसके लिए उसमें अच्छाई की अभिवृद्धि करेंगे। निश्चय अल्लाह अत्यंत क्षमाशील, अति गुण-ग्राहक है।
21. भावार्थ यह है कि मक्का वासियो! यदि तुम सत्धर्म पर ईमान नहीं लाते हो, तो मुझे इसका प्रचार तो करने दो। मुझपर अत्याचार न करो। तुम सभी मेरे संबंधी हो। इसलिए मेरे साथ प्रेम का व्यवहार करो। (सह़ीह़ बुख़ारी : 4818)

اَمْ يَقُوْلُوْنَ افْتَرٰى عَلَى اللّٰهِ كَذِبًاۚ فَاِنْ يَّشَاِ اللّٰهُ يَخْتِمْ عَلٰى قَلْبِكَ ۗوَيَمْحُ اللّٰهُ الْبَاطِلَ وَيُحِقُّ الْحَقَّ بِكَلِمٰتِهٖ ۗاِنَّهٗ عَلِيْمٌ ۢبِذَاتِ الصُّدُوْرِ٢٤
Am yaqūlūnaftarā ‘alallāhi każibā(n), fa'iy yasya'illāhu yakhtim ‘alā qalbik(a), wa yamḥullāhul-bāṭila wa yuḥiqqul-ḥaqqa bikalimātih(ī), innahū ‘alīmum biżātiṣ-ṣudūr(i).
[24] या वे कहते हैं कि उसने अल्लाह पर झूठ गढ़ लिया है? तो यदि अल्लाह चाहे, तो आपके दिल पर मुहर लगा दे।22 और अल्लाह असत्य को मिटा देता है और सत्य को अपने शब्दों (प्रमाणों) द्वारा साबित कर देता है। निश्चय वह सीनों (दिलों) की बातों को ख़ूब जानने वाला है।
22. अर्थ यह है कि ऐ नबी! इन्होंने आपको अपने जैसा समझ लिया है, जो अपने स्वार्थ के लिए झूठ का सहारा लेते हैं। किंतु अल्लाह ने आपके दिल पर मुहर नहीं लगाई है जैसे इनके दिलों पर लगा रखी है।

وَهُوَ الَّذِيْ يَقْبَلُ التَّوْبَةَ عَنْ عِبَادِهٖ وَيَعْفُوْا عَنِ السَّيِّاٰتِ وَيَعْلَمُ مَا تَفْعَلُوْنَۙ٢٥
Wa huwal-lażī yaqbalut-taubata ‘an ‘ibādihī wa ya‘fū ‘anis-sayyi'āti wa ya‘lamu mā taf‘alūn(a).
[25] वही है, जो अपने बंदों की तौबा क़बूल करता है और बुराइयों23 को माफ़ करता है और जो कुछ तुम करते हो, उसे जानता है।
23. तौबा का अर्थ है अपने पाप पर लज्जित होना, फिर उसे न करने का संकल्प लेना। ह़दीस में है कि जब बंदा अपना पाप स्वीकार कर लेता है और फिर तौबा करता है, तो अल्लाह उसे क्षमा कर देता है। (सह़ीह बुख़ारी : 4141, सह़ीह़ मुस्लिम : 2770)

وَيَسْتَجِيْبُ الَّذِيْنَ اٰمَنُوْا وَعَمِلُوا الصّٰلِحٰتِ وَيَزِيْدُهُمْ مِّنْ فَضْلِهٖ ۗوَالْكٰفِرُوْنَ لَهُمْ عَذَابٌ شَدِيْدٌ٢٦
Wa yastajībul-lażīna āmanū wa ‘amiluṣ-ṣāliḥāti wa yazīduhum min faḍlih(ī), wal-kāfirūna lahum ‘ażābun syadīd(un).
[26] और उन लोगों की प्रार्थना स्वीकार करता है, जो ईमान लाए और उन्होंने अच्छे कार्य किए तथा उन्हें अपने अनुग्रह से अधिक प्रदान करता है और जो काफ़िर हैं उनके लिए कड़ी यातना है।

۞ وَلَوْ بَسَطَ اللّٰهُ الرِّزْقَ لِعِبَادِهٖ لَبَغَوْا فِى الْاَرْضِ وَلٰكِنْ يُّنَزِّلُ بِقَدَرٍ مَّا يَشَاۤءُ ۗاِنَّهٗ بِعِبَادِهٖ خَبِيْرٌۢ بَصِيْرٌ٢٧
Wa lau basaṭallāhur rizqa li‘ibādihī labagau fil-arḍi wa lākiy yunazzilu biqadarim mā yasyā'(u), innahū bi‘ibādihī khabīrum baṣīr(un).
[27] और यदि अल्लाह अपने (सब) बंदों के लिए रोज़ी कुशादा कर देता, तो वे धरती में सरकशी24 करते। परंतु वह एक अनुमान से उतारता है, जितना चाहता है। निश्चय वह अपने बंदों से भली-भाँति अवगत, भली-भाँति देखने वाला है।
24. अर्थात यदि अल्लाह सभी को संपन्न बना देता, तो धरती में अवज्ञा और अत्याचार होने लगता और कोई किसी के आधीन न रहता।

وَهُوَ الَّذِيْ يُنَزِّلُ الْغَيْثَ مِنْۢ بَعْدِ مَا قَنَطُوْا وَيَنْشُرُ رَحْمَتَهٗ ۗوَهُوَ الْوَلِيُّ الْحَمِيْدُ٢٨
Wa huwal-lażī yunazzilul-gaiṡa mim ba‘di mā qanaṭū wa yansyuru raḥmatah(ū), wa huwal-waliyyul-ḥamīd(u).
[28] तथा वही है जो बारिश बरसाता है, इसके बाद कि वे निराश हो चुके होते हैं और अपनी दया फैला25 देता है और वही संरक्षक, सराहनीय है।
25. इस आयत में वर्षा को अल्लाह की दया कहा गया है। क्यों कि इससे धरती में उपज होती है, जो अल्लाह के अधिकार में है। इसे नक्षत्रों का प्रभाव मानना शिर्क है।

وَمِنْ اٰيٰتِهٖ خَلْقُ السَّمٰوٰتِ وَالْاَرْضِ وَمَا بَثَّ فِيْهِمَا مِنْ دَاۤبَّةٍ ۗوَهُوَ عَلٰى جَمْعِهِمْ اِذَا يَشَاۤءُ قَدِيْرٌ ࣖ٢٩
Wa min āyātihī khalqus-samāwāti wal-arḍi wa mā baṡṡa fīhimā min dābbah(tin), wa huwa ‘alā jam‘ihim iżā yasyā'u qadīr(un).
[29] तथा उसकी निशानियों में से आकाशों और धरती का पैदा करना है और वे प्राणी जो उसने उन दोनों में फैला रखे हैं, और वह उन्हें इकट्ठा करने में जब चाहे पूर्ण सक्षम है।

وَمَآ اَصَابَكُمْ مِّنْ مُّصِيْبَةٍ فَبِمَا كَسَبَتْ اَيْدِيْكُمْ وَيَعْفُوْا عَنْ كَثِيْرٍۗ٣٠
Wa mā aṣābakum mim muṣībatin fabimā kasabat aidīkum wa ya‘fū ‘an kaṡīr(in).
[30] तथा जो भी विपत्ति तुम्हें पहुँची, वह उसके कारण है जो तुम्हारे हाथों ने कमाया। तथा वह बहुत-सी चीज़ों को क्षमा कर देता है।26
26. देखिए : सूरत फ़ातिर, आयत : 45

وَمَآ اَنْتُمْ بِمُعْجِزِيْنَ فِى الْاَرْضِۚ وَمَا لَكُمْ مِّنْ دُوْنِ اللّٰهِ مِنْ وَّلِيٍّ وَّلَا نَصِيْرٍ٣١
Wa mā antum bimu‘jizīna fil-arḍ(i), wa mā lakum min dūnillāhi miw waliyyiw wa lā naṣīr(in).
[31] और तुम धरती में (अल्लाह को) विवश करने वाले नहीं हो और न अल्लाह के सिवा तुम्हारा कोई संरक्षक है और न कोई सहायक।

وَمِنْ اٰيٰتِهِ الْجَوَارِ فِى الْبَحْرِ كَالْاَعْلَامِ ۗ٣٢
Wa min āyātihil-jawāri fil-baḥri kal-a‘lām(i).
[32] तथा उसकी निशानियों में से समुद्र में चलने वाले जहाज़ हैं, जो पहाड़ों के समान हैं।

اِنْ يَّشَأْ يُسْكِنِ الرِّيْحَ فَيَظْلَلْنَ رَوَاكِدَ عَلٰى ظَهْرِهٖۗ اِنَّ فِيْ ذٰلِكَ لَاٰيٰتٍ لِّكُلِّ صَبَّارٍ شَكُوْرٍۙ٣٣
Iy yasya' yuskinir-rīḥa fa yaẓlalna rawākida ‘alā ẓahrih(ī), inna fī żālika la'āyātil likulli ṣabbārin syakūr(in).
[33] यदि वह चाहे तो वायु को ठहरा दे, तो वे उसकी सतह पर खड़े रह जाएँ। निःसंदेह इसमें हर ऐसे व्यक्ति के लिए निश्चय कई निशानियाँ हैं जो बहुत धैर्यवान, बड़ा कृतज्ञ है।

اَوْ يُوْبِقْهُنَّ بِمَا كَسَبُوْا وَيَعْفُ عَنْ كَثِيْرٍۙ٣٤
Au yūbiqhunna bimā kasabū wa ya‘fu ‘an kaṡīr(in).
[34] या वह उन्हें उसके कारण विनष्ट27 कर दे जो उन्होंने कमाया और वह बहुत-से पापों को क्षमा कर देता है।
27. उनके सवारों को उनके पापों के कारण डुबो दे।

وَّيَعْلَمَ الَّذِيْنَ يُجَادِلُوْنَ فِيْٓ اٰيٰتِنَاۗ مَا لَهُمْ مِّنْ مَّحِيْصٍ٣٥
Wa ya‘lamal-lażīna yujādilūna fī āyātinā, mā lahum mim maḥīṣ(in).
[35] तथा वे लोग जान लें, जो हमारी आयतों में झगड़ते हैं कि उनके लिए भागने का कोई स्थान नहीं है।

فَمَآ اُوْتِيْتُمْ مِّنْ شَيْءٍ فَمَتَاعُ الْحَيٰوةِ الدُّنْيَا ۚوَمَا عِنْدَ اللّٰهِ خَيْرٌ وَّاَبْقٰى لِلَّذِيْنَ اٰمَنُوْا وَعَلٰى رَبِّهِمْ يَتَوَكَّلُوْنَۚ٣٦
Famā ūtītum min syai'in fa matā‘ul-ḥayātid-dun-yā, wa mā ‘indallāhi khairuw wa abqā lil-lażīna āmanū wa ‘alā rabbihim yatawakkalūn(a).
[36] तुम्हें जो चीज़ भी दी गई है, वह सांसारिक जीवन का सामान है, तथा जो कुछ अल्लाह के पास है, वह उत्तम और स्थायी28 है, उन लोगों के लिए जो अल्लाह पर ईमान लाए तथा केवल अपने पालनहार पर भरोसा रखते हैं।
28. अर्थ यह है कि सांसारिक सुख को परलोक के स्थायी जीवन तथा सुख पर प्राथमिकता न दो।

وَالَّذِيْنَ يَجْتَنِبُوْنَ كَبٰۤىِٕرَ الْاِثْمِ وَالْفَوَاحِشَ وَاِذَا مَا غَضِبُوْا هُمْ يَغْفِرُوْنَ ۚ٣٧
Wal-lażīna yajtanibūna kabā'iral-iṡmi wal-fawāḥisya wa iżā mā gaḍibū hum yagfirūn(a).
[37] तथा वे लोग जो बड़े पापों एवं निर्लज्जता के कामों से बचते हैं और जब भी गुस्सा आए तो माफ कर देते हैं।

وَالَّذِيْنَ اسْتَجَابُوْا لِرَبِّهِمْ وَاَقَامُوا الصَّلٰوةَۖ وَاَمْرُهُمْ شُوْرٰى بَيْنَهُمْۖ وَمِمَّا رَزَقْنٰهُمْ يُنْفِقُوْنَ ۚ٣٨
Wal-lażīnastajābū lirabbihim wa aqāmuṣ-ṣalāta wa amruhum syūrā bainahum, wa mimmā razaqnāhum yunfiqūn(a).
[38] तथा जिन लोगों ने अपने रब का हुक्म माना और नमाज़ क़ायम की और उनका काम आपस में परामर्श करना है29 और जो कुछ हमने उन्हें दिया है उसमें से ख़र्च करते हैं।
29. इस आयत में ईमान वालों का एक उत्तम गुण बताया गया है कि वे अपने प्रत्येक महत्वपूर्ण कार्य परस्पर परामर्श से करते हैं। सूरत आल-इमरान आयत : 159 में नबी (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) को आदेश दिया गया है कि आप मुसलमानों से परामर्श करें। तो आप सभी महत्वपूर्ण कार्यों में उनसे परामर्श करते थे। यही नीति तत्पश्चात् आदरणीय ख़लीफ़ा उमर (रज़ियल्लाहु अन्हु) ने भी अपनाई। जब आप घायल हो गए और जीवन की आशा न रही, तो आपने छह व्यक्तियों को नियुक्त कर दिया कि वे आपस के परामर्श से किसी को ख़लीफ़ा चुन लें। और उन्होंने आदरणीय उसमान (रज़ियल्लाहु अन्हु) को ख़लीफ़ा चुन लिया। इस्लाम पहला धर्म है जिसने परामर्श की व्यवस्था की नींव डाली। किंतु यह परामर्श केवल देश का शासन चलाने के विषयों तक सीमित है। फिर भी जिन विषयों में क़ुरआन तथा ह़दीस की शिक्षाएँ मौजूद हों उनमें किसी परामर्श की आवश्यकता नहीं है।

وَالَّذِيْنَ اِذَآ اَصَابَهُمُ الْبَغْيُ هُمْ يَنْتَصِرُوْنَ٣٩
Wal-lażīna iżā aṣābahumul-bagyu hum yantaṣirūn(a).
[39] और वे लोग कि जब उनपर अत्याचार होता है, तो वे बदला लेते हैं।

وَجَزٰۤؤُا سَيِّئَةٍ سَيِّئَةٌ مِّثْلُهَا ۚفَمَنْ عَفَا وَاَصْلَحَ فَاَجْرُهٗ عَلَى اللّٰهِ ۗاِنَّهٗ لَا يُحِبُّ الظّٰلِمِيْنَ٤٠
Wa jazā'u sayyi'atin sayyi'atum miṡluhā, faman ‘afā wa aṣlaḥa fa ajruhū ‘alallāh(i), innahū lā yuḥibbuẓ-ẓālimīn(a).
[40] और किसी बुराई का बदला उसी जैसी बुराई30 है। फिर जो क्षमा कर दे तथा सुधार कर ले, तो उसका प्रतिफल अल्लाह के ज़िम्मे है। निःसंदेह वह अत्याचारियों से प्रेम नहीं करता।
30. इस आयत में बुराई का बदला लेने की अनुमति दी गई है। बुराई का बदला यद्पि बुराई नहीं, बल्कि न्याय है, फिर भी बुराई के समरूप होने का कारण उसे बुराई ही कहा गया है।

وَلَمَنِ انْتَصَرَ بَعْدَ ظُلْمِهٖ فَاُولٰۤىِٕكَ مَا عَلَيْهِمْ مِّنْ سَبِيْلٍۗ٤١
Wa lamanintaṣara ba‘da ẓulmihī fa ulā'ika mā ‘alaihim min sabīl(in).
[41] तथा जो अपने ऊपर अत्याचार होने के पश्चात् बदला ले ले, तो ये वे लोग हैं जिनपर कोई दोष नहीं।

اِنَّمَا السَّبِيْلُ عَلَى الَّذِيْنَ يَظْلِمُوْنَ النَّاسَ وَيَبْغُوْنَ فِى الْاَرْضِ بِغَيْرِ الْحَقِّۗ اُولٰۤىِٕكَ لَهُمْ عَذَابٌ اَلِيْمٌ٤٢
Innamas-sabīlu ‘alal-lażīna yaẓlimūnan-nāsa wa yabgūna fil-arḍi bigairil-ḥaqq(i), ulā'ika lahum ‘ażābun alīm(un).
[42] दोष तो केवल उन्हीं पर है, जो लोगों पर अत्याचार करते हैं और धरती पर बिना अधिकार के सरकशी करते हैं। यही लोग हैं जिनके लिए कष्टदायक यातना है।

وَلَمَنْ صَبَرَ وَغَفَرَ اِنَّ ذٰلِكَ لَمِنْ عَزْمِ الْاُمُوْرِ ࣖ٤٣
Wa laman ṣabara wa gafara inna żālika lamin ‘azmil-umūr(i).
[43] और निःसंदेह जो सब्र करे तथा क्षमा कर दे, तो निःसदंहे यह निश्चय बड़े साहस के कामों में से है।31
31. इस आयत में क्षमा करने की प्रेरणा दी गई है कि यदि कोई अत्याचार कर दे, तो उसे सहन करना और क्षमा कर देना और सामर्थ्य रखते हुए उससे बदला न लेना बड़ी सुशीलता तथा साहस की बात है जिसकी बड़ी प्रधानता है।

وَمَنْ يُّضْلِلِ اللّٰهُ فَمَا لَهٗ مِنْ وَّلِيٍّ مِّنْۢ بَعْدِهٖ ۗوَتَرَى الظّٰلِمِيْنَ لَمَّا رَاَوُا الْعَذَابَ يَقُوْلُوْنَ هَلْ اِلٰى مَرَدٍّ مِّنْ سَبِيْلٍۚ٤٤
Wa may yuḍlilillāhu famā lahū miw waliyyim mim ba‘dih(ī), wa taraẓ-ẓālimīna lammā ra'awul-‘ażāba yaqūlūna hal ilā maraddim min sabīl(in).
[44] तथा जिसे अल्लाह गुमराह कर दे, तो उसके बाद उसका कोई सहायक नहीं। तथा आप अत्याचारियों को देखेंगे कि जब वे यातना देखेंगे, तो कहेंगे : क्या वापसी का कोई रास्ता है?32
32. ताकि संसार में जाकर ईमान लाएँ और सत्कर्म करें तथा परलोक की यातना से बच जाएँ।

وَتَرٰىهُمْ يُعْرَضُوْنَ عَلَيْهَا خٰشِعِيْنَ مِنَ الذُّلِّ يَنْظُرُوْنَ مِنْ طَرْفٍ خَفِيٍّۗ وَقَالَ الَّذِيْنَ اٰمَنُوْٓا اِنَّ الْخٰسِرِيْنَ الَّذِيْنَ خَسِرُوْٓا اَنْفُسَهُمْ وَاَهْلِيْهِمْ يَوْمَ الْقِيٰمَةِ ۗ اَلَآ اِنَّ الظّٰلِمِيْنَ فِيْ عَذَابٍ مُّقِيْمٍ٤٥
Wa tarāhum yu‘raḍūna ‘alaihā khāsyi‘īna minaż żulli yanẓurūna min ṭarfin khafiyy(in), wa qālal-lażīna āmanū innal-khāsirīnal-lażīna khasirū anfusahum wa ahlīhim yaumal-qiyāmah(ti), alā innaẓ-ẓālimīna fī ‘ażābim muqīm(in).
[45] तथा आप उन्हें देखेंगे कि वे उस (आग) पर इस दशा में पेश किए जाएँगे कि अपमान से झुके हुए, छिपी आँखों से देख रहे होंगे। तथा ईमान वाले कहेंगे : वास्तव में, असल घाटा उठाने वाले वही लोग हैं, जिन्होंने क़ियामत के दिन अपने आपको और अपने परिवार को घाटे में डाल दिया। सुन लो! निःसंदेह अत्याचारी लोग स्थायी यातना में होंगे।

وَمَا كَانَ لَهُمْ مِّنْ اَوْلِيَاۤءَ يَنْصُرُوْنَهُمْ مِّنْ دُوْنِ اللّٰهِ ۗوَمَنْ يُّضْلِلِ اللّٰهُ فَمَا لَهٗ مِنْ سَبِيْلٍ ۗ٤٦
Wa mā kāna lahum min auliyā'a yanṣurūnahum min dūnillāh(i), wa may yuḍlilillāhu famā lahū min sabīl(in).
[46] तथा उनके कोई सहायक नहीं होंगे, जो अल्लाह के मुक़ाबले में उनकी सहायता करें। और जिसे अल्लाह राह से भटका दे, फिर उसके लिए कोई मार्ग नहीं।

اِسْتَجِيْبُوْا لِرَبِّكُمْ مِّنْ قَبْلِ اَنْ يَّأْتِيَ يَوْمٌ لَّا مَرَدَّ لَهٗ مِنَ اللّٰهِ ۗمَا لَكُمْ مِّنْ مَّلْجَاٍ يَّوْمَىِٕذٍ وَّمَا لَكُمْ مِّنْ نَّكِيْرٍ٤٧
Istajībū lirabbikum min qabli ay ya'tiya yaumul lā maradda lahū minallāh(i), mā lakum mim malja'iy yauma'iżiw wa mā lakum min nakīr(in).
[47] अपने पालनहार का निमंत्रण स्वीकार करो, इससे पहले कि वह दिन आए, जिसे अल्लाह की ओर से टलना नहीं। उस दिन तुम्हारे लिए न कोई शरण स्थल होगा और न तुम्हारे लिए इनकार का कोई रास्ता होगा।

فَاِنْ اَعْرَضُوْا فَمَآ اَرْسَلْنٰكَ عَلَيْهِمْ حَفِيْظًا ۗاِنْ عَلَيْكَ اِلَّا الْبَلٰغُ ۗوَاِنَّآ اِذَآ اَذَقْنَا الْاِنْسَانَ مِنَّا رَحْمَةً فَرِحَ بِهَا ۚوَاِنْ تُصِبْهُمْ سَيِّئَةٌ ۢبِمَا قَدَّمَتْ اَيْدِيْهِمْ فَاِنَّ الْاِنْسَانَ كَفُوْرٌ٤٨
Fa in a‘raḍū famā arsalnāka ‘alaihim ḥafīẓā(n), in ‘alaika illal-balāg(u), wa innā iżā ażaqnal-insāna minnā raḥmatan fariḥa bihā, wa in tuṣibhum sayyi'atum bimā qaddamat aidīhim fa'innal-insāna kafūr(un).
[48] फिर यदि वे मुँह फेर लें, तो हमने आपको उनपर कोई संरक्षक बनाकर नहीं भेजा। आपका दायित्व तो केवल (संदेश) पहुँचा देना है। और निःसंदेह जब हम मनुष्य को अपनी ओर से कोई दया चखाते हैं, तो वह उससे खुश हो जाता है, और यदि उनपर उसके कारण कोई विपत्ति आ पड़ती है, जो उनके हाथों ने आगे भेजा है, तो निःसंदेह मनुष्य बड़ा नाशुक्रा है।

لِلّٰهِ مُلْكُ السَّمٰوٰتِ وَالْاَرْضِۗ يَخْلُقُ مَا يَشَاۤءُ ۗيَهَبُ لِمَنْ يَّشَاۤءُ اِنَاثًا وَّيَهَبُ لِمَنْ يَّشَاۤءُ الذُّكُوْرَ ۙ٤٩
Lillāhi mulkus-samāwāti wal-arḍ(i), yakhluqu mā yasyā'(u), yahabu limay yasyā'u ināṡaw wa yahabu limay yasyā'uż-żukūr(a).
[49] आकाशों तथा धरती का राज्य अल्लाह ही का है। वह जो चाहता है पैदा करता है, जिसे चाहता है बेटियाँ देता है और जिसे चाहता है बेटे देता है।

اَوْ يُزَوِّجُهُمْ ذُكْرَانًا وَّاِنَاثًا ۚوَيَجْعَلُ مَنْ يَّشَاۤءُ عَقِيْمًا ۗاِنَّهٗ عَلِيْمٌ قَدِيْرٌ٥٠
Au yuzawwijuhum żukrānaw wa ināṡā(n), wa yaj‘alu may yasyā'u ‘aqīmā(n), innahū ‘alīmun qadīr(un).
[50] या उन्हें बेटे-बेटियाँ33 मिलाकर देता है और जिसे चाहता है बाँझ कर देता है। निश्चय ही वह सब कुछ जानने वाला, हर चीज़ की शक्ति रखने वाला है।
33. इस आयत में संकेत है कि पुत्र-पुत्री माँगने के लिए किसी पीर, फ़क़ीर के मज़ार पर जाना, उनको अल्लाह की शक्ति में साझी बनाना है। जो शिर्क है। और शिर्क ऐसा पाप है जिसके लिए बिना तौबा के कोई क्षमा नहीं।

۞ وَمَا كَانَ لِبَشَرٍ اَنْ يُّكَلِّمَهُ اللّٰهُ اِلَّا وَحْيًا اَوْ مِنْ وَّرَاۤئِ حِجَابٍ اَوْ يُرْسِلَ رَسُوْلًا فَيُوْحِيَ بِاِذْنِهٖ مَا يَشَاۤءُ ۗاِنَّهٗ عَلِيٌّ حَكِيْمٌ٥١
Wa mā kāna libasyarin ay yukallimahullāhu illā waḥyan au miw warā'i ḥijābin au yursila rasūlan fa yūḥiya bi'iżnihī mā yasyā'(u), innahū ‘aliyyun ḥakīm(un).
[51] और किसी मनुष्य के लिए संभव नहीं कि अल्लाह उससे बात करे, परंतु वह़्य34 के द्वारा, अथवा पर्दे के पीछे से, अथवा यह कि कोई दूत (फ़रिश्ता) भेजे, फिर वह उसकी अनुमति से वह़्य करे, जो कुछ वह चाहे। निःसंदेह वह सबसे ऊँचा, पूर्ण हिकमत वाला है।
34. वह़्य का अर्थ, संकेत करना या गुप्त रूप से बात करना है। अर्थात अल्लाह अपने रसूलों को आदेश और निर्देश इस प्रकार देता है, जिसे कोई दूसरा व्यक्ति सुन नहीं सकता। जिसके तीन रूप होते हैं : प्रथम : रसूल के दिल में सीधे अपना ज्ञान भर दे। दूसरा : पर्दे के पीछे से बात करें, किंतु वह दिखाई न दे। तीसरा : फ़रिश्ते के द्वारा अपनी बात रसूल तक गुप्त रूप से पहुँचा दे। इनमें पहले और तीसरे रूप में नबी (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) के पास वह़्य उतरती थी। (सह़ीह़ बुख़ारी : 2)

وَكَذٰلِكَ اَوْحَيْنَآ اِلَيْكَ رُوْحًا مِّنْ اَمْرِنَا ۗمَا كُنْتَ تَدْرِيْ مَا الْكِتٰبُ وَلَا الْاِيْمَانُ وَلٰكِنْ جَعَلْنٰهُ نُوْرًا نَّهْدِيْ بِهٖ مَنْ نَّشَاۤءُ مِنْ عِبَادِنَا ۗوَاِنَّكَ لَتَهْدِيْٓ اِلٰى صِرَاطٍ مُّسْتَقِيْمٍۙ٥٢
Wa każālika auḥainā ilaika rūḥam min amrinā, mā kunta tadrī mal-kitābu wa lal-īmānu wa lākin ja‘alnāhu nūran nahdī bihī man nasyā'u min ‘ibādinā, wa innaka latahdī ilā ṣirāṭim mustaqīm(in).
[52] और इसी प्रकार हमने आपकी ओर अपने आदेश से एक रूह़ (क़ुरआन) की वह़्य की। आप नहीं जानते थे कि पुस्तक क्या है और न यह कि ईमान35 क्या है। परंतु हमने उसे एक ऐसा प्रकाश बनाया दिया है, जिसके द्वारा हम अपने बंदों में से जिसे चाहते हैं, मार्ग दिखाते हैं। और निःसंदेह आप सीधी राह36 की ओर मार्गदर्शन करते हैं।
35. मक्का वासियों को यह आश्चर्य था कि मनुष्य अल्लाह का नबी कैसे हो सकता है? इसपर क़ुरआन बता रहा है कि आप नबी होने से पहले न तो किसी आकाशीय पुस्तक से अवगत थे और न कभी ईमान की बात ही आपके विचार में आई। और यह दोनों बातें ऐसी थीं जिनका मक्कावासी भी इनकार नहीं कर सकते थे। और यही आपका अपढ़ होना आपके सत्य नबी होने का प्रमाण है। जिसे क़ुरआन की अनेक आयतों में वर्णन किया गया है। 36. सीधी राह से अभिप्राय सत्धर्म इस्लाम है।

صِرَاطِ اللّٰهِ الَّذِيْ لَهٗ مَا فِى السَّمٰوٰتِ وَمَا فِى الْاَرْضِۗ اَلَآ اِلَى اللّٰهِ تَصِيْرُ الْاُمُوْرُ ࣖ٥٣
Ṣirāṭillāhil-lażī lahū mā fis-samāwāti wa mā fil-arḍ(i), alā ilallāhi taṣīrul-umūr(u).
[53] उस अल्लाह की राह की ओर कि जो कुछ आकाशों में है और जो कुछ धरती में है, उसी का है। सुनो! सभी मामले अल्लाह ही की ओर लौटते हैं।