Surah An-Nisa`

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بِسْمِ اللّٰهِ الرَّحْمٰنِ الرَّحِيْمِ
يٰٓاَيُّهَا النَّاسُ اتَّقُوْا رَبَّكُمُ الَّذِيْ خَلَقَكُمْ مِّنْ نَّفْسٍ وَّاحِدَةٍ وَّخَلَقَ مِنْهَا زَوْجَهَا وَبَثَّ مِنْهُمَا رِجَالًا كَثِيْرًا وَّنِسَاۤءً ۚ وَاتَّقُوا اللّٰهَ الَّذِيْ تَسَاۤءَلُوْنَ بِهٖ وَالْاَرْحَامَ ۗ اِنَّ اللّٰهَ كَانَ عَلَيْكُمْ رَقِيْبًا١
Yā ayyuhan-nāsuttaqū rabbakumul-lażī khalaqakum min nafsiw wāḥidatiw wa khalaqa minhā zaujahā wa baṡṡa minhumā rijālan kaṡīraw wa nisā'ā(n), wattaqullāhal-lażī tasā'alūna bihī wal-arḥām(a), innallāha kāna ‘alaikum raqībā(n).
[1] ऐ लोगो! अपने1 उस पालनहार से डरो, जिसने तुम्हें एक जीव (आदम) से पैदा किया तथा उसी से उसके जोड़े (हव्वा) को पैदा किया और उन दोनों से बहुत-से नर-नारी फैला दिए। उस अल्लाह से डरो, जिसके माध्यम से तुम एक-दूसरे से माँगते हो, तथा रिश्ते-नाते को तोड़ने से डरो। निःसंदेह अल्लाह तुम्हारा निरीक्षक है।
1. यहाँ से सामाजिक व्यवस्था का नियम बताया गया है कि विश्व के सभी नर-नारी एक ही माता-पिता से पैदा किए गए हैं। इसलिए सब समान हैं। और सबके साथ अच्छा व्यवहार तथा भाई-चारे की भावना रखनी चाहिए। यह उस अल्लाह का आदेश है जो तुम्हारे मूल का उत्पत्तिकर्ता है। और जिसके नाम से तुम एक-दूसरे से अपना अधिकार माँगते हो कि अल्लाह के लिए मेरी सहायता करो। फिर इस साधारण संबंध के सिवा रिश्तेदारी का संबंध भी है, जिसे जोड़ने पर बहुत बल दिया गया है। एक ह़दीस में है कि रिश्तेदारी को तोड़ने वाला जन्नत में नहीं जाएगा। (सह़ीह़ बुख़ारी : 5984, मुस्लिम : 2555) इस आयत के पश्चात् कई आयतों में इन्हीं अल्लाह के निर्धारित किए मानव अधिकारों का वर्णन किया जा रहा है।

وَاٰتُوا الْيَتٰمٰىٓ اَمْوَالَهُمْ وَلَا تَتَبَدَّلُوا الْخَبِيْثَ بِالطَّيِّبِ ۖ وَلَا تَأْكُلُوْٓا اَمْوَالَهُمْ اِلٰٓى اَمْوَالِكُمْ ۗ اِنَّهٗ كَانَ حُوْبًا كَبِيْرًا٢
Wa ātul-yatāmā amwālahum wa lā tatabaddalul-khabīṡa biṭ-ṭayyib(i), wa lā ta'kulū amwālahum ilā amwālikum, innahū kāna ḥūban kabīrā(n).
[2] तथा अनाथों को उनका माल दे दो और पवित्र व हलाल चीज़ के बदले अपवित्र व हराम चीज़ न लो और उनके माल को अपने माल के साथ मिलाकर न खाओ। निःसंदेह यह बहुत बड़ा पाप है।

وَاِنْ خِفْتُمْ اَلَّا تُقْسِطُوْا فِى الْيَتٰمٰى فَانْكِحُوْا مَا طَابَ لَكُمْ مِّنَ النِّسَاۤءِ مَثْنٰى وَثُلٰثَ وَرُبٰعَ ۚ فَاِنْ خِفْتُمْ اَلَّا تَعْدِلُوْا فَوَاحِدَةً اَوْ مَا مَلَكَتْ اَيْمَانُكُمْ ۗ ذٰلِكَ اَدْنٰٓى اَلَّا تَعُوْلُوْاۗ٣
Wa in khiftum allā tuqsiṭū fil-yatāmā fankiḥū mā ṭāba lakum minan-nisā'i maṡnā wa ṡulāṡa wa rubā‘(a), fa in khiftum allā ta‘dilū fa wāḥidatan au mā malakat aimānukum, żālika adnā allā ta‘ūlū.
[3] और यदि तुम्हें डर हो कि अनाथ लड़कियों (से विवाह) के मामले2 में न्याय न कर सकोगे, तो अन्य औरतों में से जो तुम्हें पसंद हों, दो-दो, या तीन-तीन, या चार-चार से विवाह कर लो। लेकिन यदि तुम्हें डर हो कि (उनके बीच) न्याय नहीं कर सकोगे, तो एक ही से विवाह करो अथवा जो दासी तुम्हारे स्वामित्व3 में हो (उससे लाभ उठाओ)। यह इस बात के अधिक निकट है कि तुम अन्याय न करो।
2. अरब में इस्लाम से पूर्व अनाथ बालिका का संरक्षक यदि उसके खजूर का बाग़ हो, तो उसपर अधिकार रखने के लिए उससे विवाह कर लेता था। जबकि उसे उसमें कोई रूचि नहीं होती थी। इसी पर यह आयत उतरी। (सह़ीह़ बुख़ारी, ह़दीस संख्या : 4573) 3. अर्थात युद्ध में बंदी बनाई गई दासी।

وَاٰتُوا النِّسَاۤءَ صَدُقٰتِهِنَّ نِحْلَةً ۗ فَاِنْ طِبْنَ لَكُمْ عَنْ شَيْءٍ مِّنْهُ نَفْسًا فَكُلُوْهُ هَنِيْۤـًٔا مَّرِيْۤـًٔا٤
Wa ātun-nisā'a ṣaduqātihinna niḥlah(tan), fa in ṭibna lakum ‘an syai'im minhu nafsan fa kulūhu hanī'am marī'ā(n).
[4] तथा स्त्रियों को उनके अनिवार्य मह्र खुशी से अदा कर दो। फिर यदि वे अपनी इच्छा से उसमें से कुछ तुम्हारे लिए छोड़ दें, तो उसे हलाल व पाक समझकर खाओ।

وَلَا تُؤْتُوا السُّفَهَاۤءَ اَمْوَالَكُمُ الَّتِيْ جَعَلَ اللّٰهُ لَكُمْ قِيٰمًا وَّارْزُقُوْهُمْ فِيْهَا وَاكْسُوْهُمْ وَقُوْلُوْا لَهُمْ قَوْلًا مَّعْرُوْفًا٥
Wa lā tu'tus-sufahā'a amwālakumul-latī ja‘alallāhu lakum qiyāmaw warzuqūhum fīhā waksūhum wa qūlū lahum qaulam ma‘rūfā(n).
[5] तथा अपना धन, जिसे अल्लाह ने तुम्हारे लिए जीवन-यापन का साधन बनाया है, नासमझ लोगों को न दो।4 और उन्हें उसमें से खिलाते और पहनाते रहो और उनसे भली बात कहो।
4. अर्थात धन, जीवन स्थापन का साधन है। इसलिए जब तक अनाथ चतुर तथा व्यस्क न हो जाएँ और अपने लाभ की रक्षा न कर सकें, उस समय तक उनका धन, उनके नियंत्रण में न दो।

وَابْتَلُوا الْيَتٰمٰى حَتّٰىٓ اِذَا بَلَغُوا النِّكَاحَۚ فَاِنْ اٰنَسْتُمْ مِّنْهُمْ رُشْدًا فَادْفَعُوْٓا اِلَيْهِمْ اَمْوَالَهُمْ ۚ وَلَا تَأْكُلُوْهَآ اِسْرَافًا وَّبِدَارًا اَنْ يَّكْبَرُوْا ۗ وَمَنْ كَانَ غَنِيًّا فَلْيَسْتَعْفِفْ ۚ وَمَنْ كَانَ فَقِيْرًا فَلْيَأْكُلْ بِالْمَعْرُوْفِ ۗ فَاِذَا دَفَعْتُمْ اِلَيْهِمْ اَمْوَالَهُمْ فَاَشْهِدُوْا عَلَيْهِمْ ۗ وَكَفٰى بِاللّٰهِ حَسِيْبًا٦
Wabtalul-yatāmā ḥattā iżā balagun-nikāḥ(a), fa in ānastum minhum rusydan fadfa‘ū ilaihim amwālahum, wa lā ta'kulūhā isrāfaw wa bidāran ay yakbarū, wa man kāna ganiyyan falyasta‘fif, wa man kāna faqīran falya'kul bil-ma‘rūf(i), fa iżā dafa‘tum ilaihim amwālahum fa asyhidū ‘alaihim, wa kafā billāhi ḥasībā(n).
[6] तथा अनाथों को जाँचते रहो, यहाँ तक कि जब वे वयस्कता की आयु को पहुँच जाएँ, तो यदि तुम देखो कि उनमें समझ-बूझ आ गई है, तो उनका माल उन्हें सौंप दो। और उसे फ़िज़ूल खर्ची से काम लेते हुए जल्दी-जल्दी इसलिए न खा जाओ कि वे बड़े हो जाएँगे (और अपने माल पर क़ब्ज़ा कर लेंगे)। और जो धनी हो, वह (अनाथ का माल खाने से) बचे तथा जो निर्धन हो, वह परंपरागत रूप से खा सकता है। तथा जब तुम उनका धन उनके हवाले करो, तो उनपर गवाह बना लो। और अल्लाह हिसाब लेने के लिए काफ़ी है।

لِلرِّجَالِ نَصِيْبٌ مِّمَّا تَرَكَ الْوَالِدٰنِ وَالْاَقْرَبُوْنَۖ وَلِلنِّسَاۤءِ نَصِيْبٌ مِّمَّا تَرَكَ الْوَالِدٰنِ وَالْاَقْرَبُوْنَ مِمَّا قَلَّ مِنْهُ اَوْ كَثُرَ ۗ نَصِيْبًا مَّفْرُوْضًا٧
Lir-rijāli naṣībum mimmā tarakal-wālidāni wal-aqrabūn(a), wa lin-nisā'i naṣībum mimmā tarakal-wālidāni wal-aqrabūna mimmā qalla minhu au kaṡur(a), naṣībam mafrūḍā(n).
[7] पुरुषों के लिए उस (धन) में से हिस्सा है, जो माता-पिता और क़रीबी रिश्तेदार छोड़ जाएँ, तथा स्त्रियों के लिए भी उसमें से हिस्सा है, जो माता-पिता और क़रीबी रिश्तेदार छोड़ जाएँ, वह थोड़ा हो या अधिक। ये हिस्से (अल्लाह की ओर से) निर्धारित5 हैं।
5. इस्लाम से पहले साधारणतः यह विचार था कि पुत्रियों का धन और संपत्ति की विरासत (उत्तराधिकार) में कोई भाग नहीं। इसमें इस कुरीति का निवारण किया गया और नियम बना दिय गया कि अधिकार में पुत्र और पुत्री दोनों समान हैं। यह इस्लाम ही की विशेषता है जो संसार के किसी धर्म अथवा विधान में नहीं पाई जाती। इस्लाम ही ने सर्वप्रथम नारी के साथ न्याय किया और उसे पुरुषों के बराबर अधिकार दिया है।

وَاِذَا حَضَرَ الْقِسْمَةَ اُولُوا الْقُرْبٰى وَالْيَتٰمٰى وَالْمَسٰكِيْنُ فَارْزُقُوْهُمْ مِّنْهُ وَقُوْلُوْا لَهُمْ قَوْلًا مَّعْرُوْفًا٨
Wa iżā ḥaḍaral-qismata ulul-qurbā wal-yatāmā wal-masākīnu farzuqūhum minhu wa qūlū lahum qaulam ma‘rūfā(n).
[8] और जब (विरासत के) बंटवारे के समय (गैर-वारिस) रिश्तेदार6, अनाथ और निर्धन उपस्थित हों, तो उसमें से थोड़ा बहुत उन्हें भी दे दो और उनसे भली बात कहो।
6. इन से अभिप्राय वे समीपवर्ती हैं जिनका मीरास में निर्धारित भाग न हो, जैसे अनाथ पौत्र तथा पौत्री आदि। (सह़ीह़ बुख़ारी : 4576)

وَلْيَخْشَ الَّذِيْنَ لَوْ تَرَكُوْا مِنْ خَلْفِهِمْ ذُرِّيَّةً ضِعٰفًا خَافُوْا عَلَيْهِمْۖ فَلْيَتَّقُوا اللّٰهَ وَلْيَقُوْلُوْا قَوْلًا سَدِيْدًا٩
Walyakhsyal-lażīna lau tarakū min khalfihim żurriyyatan ḍi‘āfan khāfū ‘alaihim, falyattaqullāha walyaqūlū qaulan sadīdā(n).
[9] और उन लोगों को डरना चाहिए कि यदि वे अपने पीछे कमज़ोर संतान छोड़ जाते, तो उन्हें उनके बारे में कैसा भय होता। अतः उन्हें चाहिए कि अल्लाह से डरें और भली बात कहें।

اِنَّ الَّذِيْنَ يَأْكُلُوْنَ اَمْوَالَ الْيَتٰمٰى ظُلْمًا اِنَّمَا يَأْكُلُوْنَ فِيْ بُطُوْنِهِمْ نَارًا ۗ وَسَيَصْلَوْنَ سَعِيْرًا ࣖ١٠
Innal-lażīna ya'kulūna amwālal-yatāmā ẓulman innamā ya'kulūna fī buṭūnihim nārā(n), wa sayaṣlauna sa‘īrā(n).
[10] जो लोग अनाथों का धन अन्यायपूर्ण तरीक़े से खाते हैं, वे अपने पेट में आग भरते हैं और वे शीघ्र ही जहन्नम की आग में प्रवेश करेंगे।

يُوْصِيْكُمُ اللّٰهُ فِيْٓ اَوْلَادِكُمْ لِلذَّكَرِ مِثْلُ حَظِّ الْاُنْثَيَيْنِ ۚ فَاِنْ كُنَّ نِسَاۤءً فَوْقَ اثْنَتَيْنِ فَلَهُنَّ ثُلُثَا مَا تَرَكَ ۚ وَاِنْ كَانَتْ وَاحِدَةً فَلَهَا النِّصْفُ ۗ وَلِاَبَوَيْهِ لِكُلِّ وَاحِدٍ مِّنْهُمَا السُّدُسُ مِمَّا تَرَكَ اِنْ كَانَ لَهٗ وَلَدٌ ۚ فَاِنْ لَّمْ يَكُنْ لَّهٗ وَلَدٌ وَّوَرِثَهٗٓ اَبَوٰهُ فَلِاُمِّهِ الثُّلُثُ ۚ فَاِنْ كَانَ لَهٗٓ اِخْوَةٌ فَلِاُمِّهِ السُّدُسُ مِنْۢ بَعْدِ وَصِيَّةٍ يُّوْصِيْ بِهَآ اَوْ دَيْنٍ ۗ اٰبَاۤؤُكُمْ وَاَبْنَاۤؤُكُمْۚ لَا تَدْرُوْنَ اَيُّهُمْ اَقْرَبُ لَكُمْ نَفْعًا ۗ فَرِيْضَةً مِّنَ اللّٰهِ ۗ اِنَّ اللّٰهَ كَانَ عَلِيْمًا حَكِيْمًا١١
Yūṣīkumullāhu fī aulādikum liż-żakari miṡlu ḥaẓẓil-unṡayain(i), fa in kunna nisā'an fauqaṡnataini fa lahunna ṡuluṡā mā tarak(a), wa in kānat wāḥidatan fa lahan-niṣf(u), wa li abawaihi likulli wāḥidim minhumas-sudusu mimmā taraka in kāna lahū walad(un), fa illam yakul lahū waladuw wa wariṡahū abawāhu fa li'ummihiṡ-ṡuluṡ(u), fa in kāna lahū ikhwatun fa li'ummihis-sudusu mim ba‘di waṣiyyatiy yūṣī bihā au dain(in), ābā'ukum wa abnā'ukum, lā tadrūna ayyuhum aqrabu lakum naf‘ā(n), farīḍatam minallāh(i), innallāha kāna ‘alīman ḥakīmā(n).
[11] अल्लाह तुम्हारे संतान के संबंध में तुम्हें आदेश देता है कि पुत्र का हिस्सा, दो पुत्रियों के बराबर है। यदि (दो या) दो से अधिक पुत्रियाँ7 ही हों, तो उनके लिए छोड़े हुए धन का दो तिहाई हिस्सा है। और यदि एक ही (लड़की) हो, तो उसके लिए आधा हिस्सा है। और अगर उस (मृतक) की कोई संतान है, तो उसके माता-पिता में से प्रत्येक के लिए उसके छोड़े हुए धन का छठवाँ हिस्सा है। और यदि उसकी कोई संतान नहीं8 है और उसके वारिस उसके माता-पिता ही हों, तो उसकी माँ के लिए तिहाई (हिस्सा)9 है (और शेष पिता का होगा)। फिर यदि (माता पिता के सिवा) उसके (एक से अधिक) भाई (या बहन) हों, तो उसकी माँ के लिए छठवाँ हिस्सा है, यह (विरासत का बंटवारा) उस (मृतक) की वसिय्यत10 का निष्पादन करने, या उसका क़र्ज़ चुकाने के बाद होगा। तुम्हारे बाप हों या तुम्हारे बेटे, तुम नहीं जानते कि उनमें से कौन तुम्हारे लिए अधिक लाभदायक है। यह अल्लाह का निर्धारित किया हुआ हिस्सा है। निःसंदेह अल्लाह सब कुछ जानने वाला और हिकमत वाला है।
7. अर्थात केवल पुत्रियाँ हों, तो दो हों अथवा दो से अधिक हों। 8. अर्थात न पुत्र है और न पुत्री। 9. और शेष पिता का होगा। भाई-बहनों को कुछ नहीं मिलेगा। 10. वसिय्यत का अर्थ उत्तरदान है, जो एक तिहाई या उससे कम होना चाहिए, परंतु वारिस के लिए उत्तरदान नहीं है। (देखिए : तिर्मिज़ी : 975) पहले ऋण चुकाया जाएगा, फिर वसिय्यत पूरी की जाएगी, फिर माँ का छठा भाग दिया जाएगा।

۞ وَلَكُمْ نِصْفُ مَا تَرَكَ اَزْوَاجُكُمْ اِنْ لَّمْ يَكُنْ لَّهُنَّ وَلَدٌ ۚ فَاِنْ كَانَ لَهُنَّ وَلَدٌ فَلَكُمُ الرُّبُعُ مِمَّا تَرَكْنَ مِنْۢ بَعْدِ وَصِيَّةٍ يُّوْصِيْنَ بِهَآ اَوْ دَيْنٍ ۗ وَلَهُنَّ الرُّبُعُ مِمَّا تَرَكْتُمْ اِنْ لَّمْ يَكُنْ لَّكُمْ وَلَدٌ ۚ فَاِنْ كَانَ لَكُمْ وَلَدٌ فَلَهُنَّ الثُّمُنُ مِمَّا تَرَكْتُمْ مِّنْۢ بَعْدِ وَصِيَّةٍ تُوْصُوْنَ بِهَآ اَوْ دَيْنٍ ۗ وَاِنْ كَانَ رَجُلٌ يُّوْرَثُ كَلٰلَةً اَوِ امْرَاَةٌ وَّلَهٗٓ اَخٌ اَوْ اُخْتٌ فَلِكُلِّ وَاحِدٍ مِّنْهُمَا السُّدُسُۚ فَاِنْ كَانُوْٓا اَكْثَرَ مِنْ ذٰلِكَ فَهُمْ شُرَكَاۤءُ فِى الثُّلُثِ مِنْۢ بَعْدِ وَصِيَّةٍ يُّوْصٰى بِهَآ اَوْ دَيْنٍۙ غَيْرَ مُضَاۤرٍّ ۚ وَصِيَّةً مِّنَ اللّٰهِ ۗ وَاللّٰهُ عَلِيْمٌ حَلِيْمٌۗ١٢
Wa lakum niṣfu mā taraka azwājukum illam yakul lahunna walad(un), fa in kāna lahunna waladun fa lakumur-rubu‘u mimmā tarakna mim ba‘di waṣiyyatiy yūṣīna bihā au dain(in), wa lahunnar-rubu‘u mimmā taraktum illam yakul lakum walad(un), fa in kāna lakum waladun fa lahunnaṡ-ṡumunu mimmā taraktum mim ba‘di waṣiyyatiy tūṣūna bihā au dain(in), wa in kāna rajuluy yūraṡu kalālatan awimra'atuw wa lahū akhun au ukhtun fa likulli wāḥidatim minhumas-sudus(u), fa in kānū akṡara min żālika fa hum syurakā'u fiṡ-ṡuluṡi mim ba‘di waṣiyyatiy yūṣā bihā au dain(in), gaira muḍārr(in), waṣiyyatam minallāh(i), wallāhu ‘alīmun ḥalīm(un).
[12] और तुम्हारे लिए उस (धन) का आधा है जो तुम्हारी पत्नियाँ छोड़ जाएँ, यदि उनकी संतान न हो। लेकिन यदि उनकी संतान हो, तो तुम्हारे लिए उस (धन) का चौथाई होगा जो वे छोड़ गई हों, उनकी वसिय्यत का निष्पादन करने या क़र्ज़ चुकाने के बाद। तथा उन (पत्नियों) के लिए तुम्हारे छोड़े हुए धन का चौथाई हिस्सा है, यदि तुम्हारी संतान न हो। लेकिन यदि तुम्हारी संतान हो, तो उनके लिए उस (धन) का आठवाँ11 (हिस्सा) होगा जो तुमने छोड़ा है, तुम्हारी वसिय्यत पूरी करने अथवा क़र्ज़ चुकाने के बाद। तथा यदि किसी ऐसे पुरुष या स्त्री की विरासत हो, जो 'कलाला'12 हो (अर्थात् उसकी न संतान हो, न पिता) तथा (दूसरी माता से) उसका कोई भाई अथवा बहन हो, तो उनमें से हर एक के लिए छठवाँ (हिस्सा) होगा। लेकिन यदि वे एक से अधिक हों, तो वे सब एक तिहाई में साझीदार होंगे, उसकी वसिय्यत का निष्पादन करने या क़र्ज़ चुकाने के बाद, जबकि वह किसी को हानि पहुँचाने वाला न हो। यह अल्लाह की ओर से वसिय्यत है और अल्लाह सब कुछ जानने वाला, अत्यंत सहनशील है।
11. यहाँ यह बात विचारणीय है कि जब इस्लाम में पुत्र-पुत्री तथा नर-नारी बराबर हैं, तो फिर पुत्री को पुत्र के आधा, तथा पत्नी को पति का आधा भाग क्यों दिया गया है? इसका कारण यह है कि पुत्री जब युवती और विवाहित हो जाती है, तो उसे अपने पति से महर (विवाह उपहार) मिलता है, और उसके तथा उसकी संतान के यदि हों, तो भरण-पोषण का भार उसके पति पर होता है। इसके विपरीत, पुत्र युवक होता है तो विवाह करने पर अपनी पत्नी को महर (विवाह उपहार) देने के साथ ही, उसका तथा अपनी संतान के भरण-पोषण का भार भी उसी पर होता है। इसीलिए पुत्र को पुत्री के भाग का दुगना दिया जाता है, जो न्यायोचित है। 12. कलाला : वह पुरुष अथवा स्त्री है, जिसके न पिता हो और न पुत्र-पुत्री। अब इसके वारिस तीन प्रकार के हो सकते है : 1. सगे भाई-बहन। 2. पिता एक तथा माताएँ अलग-अलग हों। 3. माता एक तथा पिता अलग-अलग हों। यहाँ इसी प्रकार का आदेश वर्णित किया गया है। ऋण चुकाने के पश्चात् बिना कोई हानि पहुँचाए, यह अल्लाह की ओर से आदेश है, तथा अल्लाह अति ज्ञानी, अत्यंत सहनशील है।

تِلْكَ حُدُوْدُ اللّٰهِ ۗ وَمَنْ يُّطِعِ اللّٰهَ وَرَسُوْلَهٗ يُدْخِلْهُ جَنّٰتٍ تَجْرِيْ مِنْ تَحْتِهَا الْاَنْهٰرُ خٰلِدِيْنَ فِيْهَا ۗ وَذٰلِكَ الْفَوْزُ الْعَظِيْمُ١٣
Tilka ḥudūdullāh(i), wa may yuṭi‘illāha wa rasūlahū yudkhilhu jannātin tajrī min taḥtihal-anhāru khālidīna fīhā, wa żālikal-fauzul-‘aẓīm(u).
[13] ये अल्लाह की (निर्धारित की हुई) सीमाएँ हैं। और जो अल्लाह तथा उसके रसूल का आज्ञापालन करेगा, अल्लाह उसे ऐसे बाग़ों में दाख़िल करेगा जिनके नीचे नहरें बह रही होंगी। उनमें वे हमेशा रहेंगे तथा यही बड़ी सफलता है।

وَمَنْ يَّعْصِ اللّٰهَ وَرَسُوْلَهٗ وَيَتَعَدَّ حُدُوْدَهٗ يُدْخِلْهُ نَارًا خَالِدًا فِيْهَاۖ وَلَهٗ عَذَابٌ مُّهِيْنٌ ࣖ١٤
Wa may ya‘ṣillāha wa rasūlahū wa yata‘adda ḥudūdahū yudkhilhu nāran khālidan fīhā, wa lahū ‘ażābum muhīn(un).
[14] और जो अल्लाह और उसके रसूल की अवज्ञा करेगा तथा उसकी सीमाओं का उल्लंघन करेगा, (अल्लाह) उसे आग (नरक) में डालेगा, जिसमें वह सदैव रहेगा और उसके लिए अपमानजनक यातना है।

وَالّٰتِيْ يَأْتِيْنَ الْفَاحِشَةَ مِنْ نِّسَاۤىِٕكُمْ فَاسْتَشْهِدُوْا عَلَيْهِنَّ اَرْبَعَةً مِّنْكُمْ ۚ فَاِنْ شَهِدُوْا فَاَمْسِكُوْهُنَّ فِى الْبُيُوْتِ حَتّٰى يَتَوَفّٰىهُنَّ الْمَوْتُ اَوْ يَجْعَلَ اللّٰهُ لَهُنَّ سَبِيْلًا١٥
Wal-lātī ya'tīnal-fāḥisyata min nisā'ikum fastasyhidū ‘alaihinna arba‘atam minkum, fa in syahidū fa amsikūhunna fil-buyūti ḥattā yatawaffāhunnal-mautu au yaj‘alallāhu lahunna sabīlā(n).
[15] तथा तुम्हारी स्त्रियों में से जो व्यभिचार कर बैठें, उनपर अपनों में से चार पुरुषों को गवाह लाओ। यदि वे गवाही दे दें, तो उन औरतों को घरों में बंद रखो, यहाँ तक कि उन्हें मौत आ जाए या अल्लाह उनके लिए कोई रास्ता13 निकाल दे।
13. यह इस्लाम के आरंभिक युग में व्याभिचार का सामयिक दंड था। इसका स्थायी दंड सूरतुन्-नूर आयत 2 में आ रहा है। जिसके उतरने पर नबी सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ने फ़रमाया : अल्लाह ने जो वचन दिया था उसे पूरा कर दिया। उसे मुझसे सीख लो।

وَالَّذٰنِ يَأْتِيٰنِهَا مِنْكُمْ فَاٰذُوْهُمَا ۚ فَاِنْ تَابَا وَاَصْلَحَا فَاَعْرِضُوْا عَنْهُمَا ۗ اِنَّ اللّٰهَ كَانَ تَوَّابًا رَّحِيْمًا١٦
Wal-lażāni ya'tiyānihā minkum fa āżūhumā, fa in tābā wa aṣlaḥā fa a‘riḍū ‘anhumā, innallāha kāna tawwābar raḥīmā(n).
[16] और तुममें से जो दो पुरुष यह कर्म करें, उन्हें यातना दो। फिर यदि वे तौबा कर लें और अपने आपको सुधार लें, तो उन्हें छोड़ दो। निःसंदेह अल्लाह बड़ा क्षमाशील, दयावान् है।

اِنَّمَا التَّوْبَةُ عَلَى اللّٰهِ لِلَّذِيْنَ يَعْمَلُوْنَ السُّوْۤءَ بِجَهَالَةٍ ثُمَّ يَتُوْبُوْنَ مِنْ قَرِيْبٍ فَاُولٰۤىِٕكَ يَتُوْبُ اللّٰهُ عَلَيْهِمْ ۗ وَكَانَ اللّٰهُ عَلِيْمًا حَكِيْمًا١٧
Innamat-taubatu ‘alallāhi lil-lażīna ya‘malūnas-sū'a bijahālatin ṡumma yatūbūna min qarībin fa ulā'ika yatūbullāhu ‘alaihim, wa kānallāhu ‘alīman ḥakīmā(n).
[17] अल्लाह के पास उन्हीं लोगों की तौबा स्वीकार्य है, जो अनजाने में बुराई कर बैठते हैं, फिर शीघ्र ही तौबा कर लेते हैं। तो अल्लाह ऐसे ही लोगों की तौबा क़बूल करता है। तथा अल्लाह सब कुछ जानने वाला हिकमत वाला है।

وَلَيْسَتِ التَّوْبَةُ لِلَّذِيْنَ يَعْمَلُوْنَ السَّيِّاٰتِۚ حَتّٰىٓ اِذَا حَضَرَ اَحَدَهُمُ الْمَوْتُ قَالَ اِنِّيْ تُبْتُ الْـٰٔنَ وَلَا الَّذِيْنَ يَمُوْتُوْنَ وَهُمْ كُفَّارٌ ۗ اُولٰۤىِٕكَ اَعْتَدْنَا لَهُمْ عَذَابًا اَلِيْمًا١٨
Wa laisatit-taubatu lil-lażīna ya‘malūnas-sayyi'āt(i), ḥattā iżā ḥaḍara aḥadahumul-mautu qāla innī tubtul-āna wa lal-lażīna yamūtūna wa hum kuffār(un), ulā'ika a‘tadnā lahum ‘ażāban alīmā(n).
[18] और उनकी तौबा स्वीकार्य नहीं, जो बुराइयाँ करते जाते हैं, यहाँ तक कि जब उनमें से किसी की मौत का समय आ जाता है, तो कहने लगता है : "अब मैंने तौबा कर ली!" और न ही उनकी (तौबा स्वीकार्य है) जो काफ़िर रहते हुए मर जाते हैं। उन्हीं के लिए हमने दुःखदायी यातना तैयार कर रखी है।

يٰٓاَيُّهَا الَّذِيْنَ اٰمَنُوْا لَا يَحِلُّ لَكُمْ اَنْ تَرِثُوا النِّسَاۤءَ كَرْهًا ۗ وَلَا تَعْضُلُوْهُنَّ لِتَذْهَبُوْا بِبَعْضِ مَآ اٰتَيْتُمُوْهُنَّ اِلَّآ اَنْ يَّأْتِيْنَ بِفَاحِشَةٍ مُّبَيِّنَةٍ ۚ وَعَاشِرُوْهُنَّ بِالْمَعْرُوْفِ ۚ فَاِنْ كَرِهْتُمُوْهُنَّ فَعَسٰٓى اَنْ تَكْرَهُوْا شَيْـًٔا وَّيَجْعَلَ اللّٰهُ فِيْهِ خَيْرًا كَثِيْرًا١٩
Yā ayyuhal-lażīna āmanū lā yaḥillu lakum an tariṡun-nisā'a karhā(n), wa lā ta‘ḍulūhunna litażhabū biba‘ḍi mā ātaitumūhunna illā ay ya'tīna bifāḥisyatim mubayyinah(tin), wa ‘āsyirūhunna bil-ma‘rūf(i), fa in karihtumūhunna fa ‘asā an takrahū syai'aw wa yaj‘alallāhu fīhi khairan kaṡīrā(n).
[19] ऐ ईमान वालो! तुम्हारे लिए हलाल (वैध) नहीं कि ज़बरदस्ती स्त्रियों के वारिस बन जाओ।14 और उन्हें इसलिए न रोके रखो कि तुमने उन्हें जो कुछ दिया है, उसमें से कुछ ले लो, सिवाय इसके कि वे खुली बुराई कर बैठें। तथा उनके साथ भली-भाँति15 जीवन व्यतीत करो। फिर यदि तुम उन्हें नापसंद करो, तो संभव है कि तुम किसी चीज़ को नापसंद करो और अल्लाह उसमें बहुत ही भलाई16 रख दे।
14. ह़दीस में है कि जब कोई मर जाता, तो उसके वारिस उसकी पत्नी पर भी अधिकार कर लेते थे। इसी को रोकने के लिए यह आयत उतरी। (सह़ीह़ वुख़ारी : 4579) 15. ह़दीस में है कि पूरा ईमान उसमें है जो सुशील हो। और भला वह है, जो अपनी पत्नियों के लिए भला हो। (तिर्मिज़ी :1162) 16. अर्थात पत्नी किसी कारण न भाए, तो तुरंत तलाक़ न दे दो, बल्कि धैर्य से काम लो।

وَاِنْ اَرَدْتُّمُ اسْتِبْدَالَ زَوْجٍ مَّكَانَ زَوْجٍۙ وَّاٰتَيْتُمْ اِحْدٰىهُنَّ قِنْطَارًا فَلَا تَأْخُذُوْا مِنْهُ شَيْـًٔا ۗ اَتَأْخُذُوْنَهٗ بُهْتَانًا وَّاِثْمًا مُّبِيْنًا٢٠
Wa in arattumustibdāla zaujim makāna zauj(in), wa ātaitum iḥdāhunna qinṭāran falā ta'khużū minhu syai'ā(n), ata'khużūnahū buhtānaw wa iṡmam mubīnā(n).
[20] और यदि तुम एक पत्नी के स्थान पर दूसरी पत्नी लाना चाहो और तुमने उनमें से किसी को (महर में) ढेर सारा धन दे रखा हो, तो उसमें से कुछ न लो। क्या तुम उसे अनाधिकार और खुला गुनाह होते हुए भी ले लोगे।

وَكَيْفَ تَأْخُذُوْنَهٗ وَقَدْ اَفْضٰى بَعْضُكُمْ اِلٰى بَعْضٍ وَّاَخَذْنَ مِنْكُمْ مِّيْثَاقًا غَلِيْظًا٢١
Wa kaifa ta'khużūnahū wa qad afḍā ba‘ḍukum ilā ba‘ḍiw wa akhażna minkum mīṡāqan galīẓā(n).
[21] तथा तुम उसे कैसे ले सकते हो, जबकि तुम एक-दूसरे से मिलन कर चुके हो और वे तुमसे (विवाह के समय) दृढ़ वचन (भी) ले चुकी हैं।

وَلَا تَنْكِحُوْا مَا نَكَحَ اٰبَاۤؤُكُمْ مِّنَ النِّسَاۤءِ اِلَّا مَا قَدْ سَلَفَ ۗ اِنَّهٗ كَانَ فَاحِشَةً وَّمَقْتًاۗ وَسَاۤءَ سَبِيْلًا ࣖ٢٢
Wa lā tankiḥū mā nakaḥa ābā'ukum minan-nisā'i illā mā qad salaf(a), innahū kāna fāḥisyataw wa maqtā(n), wa sā'a sabīlā(n).
[22] और उन स्त्रियों से विवाह17 न करो, जिनसे तुम्हारे पिताओं ने विवाह किया हो, परंतु जो पहले हो चुका18 (सो हो चुका)। वास्तव में, यह निर्लज्जता तथा क्रोध की बात और बुरी रीति है।
17. जैसा कि इस्लाम से पहले लोग किया करते थे। और हो सकता है कि आज भी संसार के किसी कोने में ऐसा होता हो। परंतु यदि भोग करने से पहले बाप ने तलाक़ दे दी हो, तो उस स्त्री से विवाह किया जा सकता है। 18. अर्थात इस आदेश के आने से पहले जो कुछ हो गया, अल्लाह उसे क्षमा करने वाला है।

حُرِّمَتْ عَلَيْكُمْ اُمَّهٰتُكُمْ وَبَنٰتُكُمْ وَاَخَوٰتُكُمْ وَعَمّٰتُكُمْ وَخٰلٰتُكُمْ وَبَنٰتُ الْاَخِ وَبَنٰتُ الْاُخْتِ وَاُمَّهٰتُكُمُ الّٰتِيْٓ اَرْضَعْنَكُمْ وَاَخَوٰتُكُمْ مِّنَ الرَّضَاعَةِ وَاُمَّهٰتُ نِسَاۤىِٕكُمْ وَرَبَاۤىِٕبُكُمُ الّٰتِيْ فِيْ حُجُوْرِكُمْ مِّنْ نِّسَاۤىِٕكُمُ الّٰتِيْ دَخَلْتُمْ بِهِنَّۖ فَاِنْ لَّمْ تَكُوْنُوْا دَخَلْتُمْ بِهِنَّ فَلَا جُنَاحَ عَلَيْكُمْ ۖ وَحَلَاۤىِٕلُ اَبْنَاۤىِٕكُمُ الَّذِيْنَ مِنْ اَصْلَابِكُمْۙ وَاَنْ تَجْمَعُوْا بَيْنَ الْاُخْتَيْنِ اِلَّا مَا قَدْ سَلَفَ ۗ اِنَّ اللّٰهَ كَانَ غَفُوْرًا رَّحِيْمًا ۔٢٣
Ḥurrimat ‘alaikum ummahātukum wa banātukum wa akhawātukum wa ‘ammātukum wa khālātukum wa banātul-akhi wa banātul-ukhti wa ummahātukumul-lātī arḍa‘nakum wa akhawātukum minar-raḍā‘ati wa ummahātu nisā'ikum wa rabā'ibukumul-lātī fī ḥujūrikum min nisā'ikumul-lātī dakhaltum bihinn(a), fa illam takūnū dakhaltum bihinna falā junāḥa ‘alaikum, wa ḥalā'ilu abnā'ikumul-lażīna min aṣlābikum, wa an tajma‘ū bainal-ukhtaini illā mā qad salaf(a), innallāha kāna gafūrar raḥīmā(n).
[23] तुमपर हराम19 (निषिद्ध) कर दी गई हैं; तुम्हारी माताएँ, तुम्हारी बेटियाँ, तुम्हारी बहनें, तुम्हारी फूफियाँ, तुम्हारी मौसियाँ (खालाएँ) और भतीजियाँ, भाँजियाँ, तुम्हारी वे माताएँ जिन्होंने तुम्हें दूध पिलाया है, दूध के रिश्ते से तुम्हारी बहनें, तुम्हारी पत्नियों की माताएँ (सासें) , तुम्हारी गोद में पालित-पोषित तुम्हारी उन पत्नियों की बेटियाँ जिनसे तुम संभोग कर चुके हो। यदि तुमने उनसे संभोग न किया हो, तो तुमपर (उनकी बेटियों से विवाह करने में) कोई गुनाह नहीं, और तुम्हारे सगे बेटों की पत्नियाँ और यह कि तुम दो बहनों को (निकाह में) एकत्रित करो, परंतु जो (अज्ञानता के काल में) बीत चुका20, (सो बीत चुका)। निःसंदेह अल्लाह अत्यंत क्षमाशील, असीम दयावान है।
19. दादियाँ तथा नानियाँ भी इसी में आती हैं। इसी प्रकार पुत्रियों में अपनी संतान की नीचे तक की पुत्रियाँ, और बहनों में सगी हों या पिता अथवा माता से हों, फूफियों में पिता तथा दादा की बहनें, और मोसियों में माताओं और नानियों की बहनें, तथा भतीजी और भाँजी में उन की संतान भी आती हैं। ह़दीस में है कि दूध से वह सभी रिश्ते ह़राम हो जाते हैं, जो गोत्र से ह़राम होते हैं। (सह़ीह़ बुख़ारी : 5099, मुस्लिम : 1444) पत्नी की पुत्री जो दूसरे पति से हो उसी समय ह़राम (वर्जित) होगी जब उसकी माता से संभोग किया हो, केवल विवाह कर लेने से ह़राम नहीं होगी। जैसे दो बहनों को निकाह़ में एकत्र करना वर्जित है, उसी प्रकार किसी स्त्री के साथ उसकी फूफी अथवा मौसी को भी एकत्र करना ह़दीस से वर्जित है। (देखिए : सह़ीह़ बुखारी : 5105, सह़ीह़ मुस्लिम : 1408) 20. अर्थात जाहिलिय्यत के युग में।

۞ وَالْمُحْصَنٰتُ مِنَ النِّسَاۤءِ اِلَّا مَا مَلَكَتْ اَيْمَانُكُمْ ۚ كِتٰبَ اللّٰهِ عَلَيْكُمْ ۚ وَاُحِلَّ لَكُمْ مَّا وَرَاۤءَ ذٰلِكُمْ اَنْ تَبْتَغُوْا بِاَمْوَالِكُمْ مُّحْصِنِيْنَ غَيْرَ مُسٰفِحِيْنَ ۗ فَمَا اسْتَمْتَعْتُمْ بِهٖ مِنْهُنَّ فَاٰتُوْهُنَّ اُجُوْرَهُنَّ فَرِيْضَةً ۗوَلَا جُنَاحَ عَلَيْكُمْ فِيْمَا تَرَاضَيْتُمْ بِهٖ مِنْۢ بَعْدِ الْفَرِيْضَةِۗ اِنَّ اللّٰهَ كَانَ عَلِيْمًا حَكِيْمًا٢٤
Wal-muḥṣanātu minan-nisā'i illā mā malakat aimānukum, kitāballāhi ‘alaikum, wa uḥilla lakum mā warā'a żālikum an tabtagū bi'amwālikum muḥṣinīna gaira musāfiḥīn(a), famastamta‘tum bihī minhunna fa ātūhunna ujūrahunna farīḍah(tan), wa lā junāḥa ‘alaikum fīmā tarāḍaitum bihī mim ba‘dil-farīḍah(ti), innallāha kāna ‘alīman ḥakīmā(n).
[24] तथा उन स्त्रियों से (विवाह करना हराम है), जो दूसरों के निकाह़ में हों, सिवाय तुम्हारी दासियों21 के। यह अल्लाह ने तुम्हारे लिए अनिवार्य कर दिया22 है। और इनके सिवा दूसरी स्त्रियाँ तुम्हारे लिए ह़लाल कर दी गई हैं कि तुम अपना धन (महर) खर्च करके उनसे विवाह कर लो (बशर्ते कि तुम्हारा उद्देश्य) सतीत्व की रक्षा हो, अवैध तरीके से काम वासना की तृप्ति न हो। फिर उन औरतों में से जिनसे तुम लाभ उठाओ, उन्हें उनका महर अवश्य चुका दो। तथा यदि महर निर्धारित करने के बाद आपसी सहमति (से कोई कमी-बेशी) कर लो, तो तुमपर कोई गुनाह नहीं है। निःसंदेह अल्लाह सब कुछ जानने वाला, पूर्ण हिकमत वाला है।
21. दासी वह स्त्री जो युद्ध में बंदी बनाई गई हो। उससे एक बार मासिक धर्म आने के पश्चात् संभोग करना उचित है, और उसे मुक्त करके उससे विवाह कर लेने का बड़ा पुण्य है। (इब्ने कसीर) 22. अर्थात तुम्हारे लिए नियम बना दिया गया है।

وَمَنْ لَّمْ يَسْتَطِعْ مِنْكُمْ طَوْلًا اَنْ يَّنْكِحَ الْمُحْصَنٰتِ الْمُؤْمِنٰتِ فَمِنْ مَّا مَلَكَتْ اَيْمَانُكُمْ مِّنْ فَتَيٰتِكُمُ الْمُؤْمِنٰتِۗ وَاللّٰهُ اَعْلَمُ بِاِيْمَانِكُمْ ۗ بَعْضُكُمْ مِّنْۢ بَعْضٍۚ فَانْكِحُوْهُنَّ بِاِذْنِ اَهْلِهِنَّ وَاٰتُوْهُنَّ اُجُوْرَهُنَّ بِالْمَعْرُوْفِ مُحْصَنٰتٍ غَيْرَ مُسٰفِحٰتٍ وَّلَا مُتَّخِذٰتِ اَخْدَانٍ ۚ فَاِذَآ اُحْصِنَّ فَاِنْ اَتَيْنَ بِفَاحِشَةٍ فَعَلَيْهِنَّ نِصْفُ مَا عَلَى الْمُحْصَنٰتِ مِنَ الْعَذَابِۗ ذٰلِكَ لِمَنْ خَشِيَ الْعَنَتَ مِنْكُمْ ۗ وَاَنْ تَصْبِرُوْا خَيْرٌ لَّكُمْ ۗ وَاللّٰهُ غَفُوْرٌ رَّحِيْمٌ ࣖ٢٥
Wa mal lam yastaṭi‘ minkum ṭaulan ay yankiḥal-muḥṣanātil-mu'mināti fa mim mā malakat aimānukum min fatayātikumul-mu'mināt(i), wallāhu a‘lamu bi'īmānikum, ba‘ḍukum mim ba‘ḍ(in), fankiḥūhunna bi'iżni ahlihinna wa ātūhunna ujūrahunna bil-ma‘rūfi muḥṣanātin gaira musāfiḥātiw wa lā muttakhiżāti akhdān(in), fa iżā uḥṣinna fa in ataina bifāḥisyatin fa ‘alaihinna niṣfu mā ‘alal-muḥṣanāti minal-‘ażāb(i), żālika limay khasyial-‘anata minkum, wa an taṣbirū khairul lakum, wallāhu gafūrur raḥīm(un).
[25] और तुममें से जो व्यक्ति ईमान वाली आज़ाद स्त्रियों से विवाह करने की क्षमता न रखे, वह तुम्हारे हाथों में आई हुई तुम्हारी ईमान वाली दासियों से विवाह कर ले। अल्लाह तुम्हारे ईमान को भली-भाँति जानता है। तुम सब परस्पर एक ही हो।23 अतः तुम उनके मालिकों की अनुमति से उन (दासियों) से विवाह कर लो और नियमानुसार उन्हें उनका महर चुका दो। जबकि वे सतीत्व की रक्षा करने वाली हों, खुल्लम खुल्ला व्यभिचार करने वाली न हों, तथा गुप्त रूप से व्यभिचार के लिए मित्र रखने वाली न हों। फिर यदि वे विवाहित हो जाने के बाद व्यभिचार करें, तो उनपर आज़ाद स्त्रियों का आधा24 दंड है। यह (दासियों से विवाह की अनुमति) तुममें से उसके लिए है, जिसे व्यभिचार में पड़ने का डर हो, और तुम्हारा धैर्य से काम लेना तुम्हारे लिए बेहतर है और अल्लाह अत्यंत क्षमाशील, बड़ा दयावान् है।
23. तुम आपस में एक ही हो, अर्थात मानवता में बराबर हो। ज्ञातव्य है कि इस्लाम से पहले दासिता की परंपरा पूरे विश्व में फैली हुई थी। बलवान जातियाँ निर्बलों को दास बनाकर उनके साथ हिंसक व्यवहार करती थीं। क़ुरआन ने दासिता को केवल युद्ध के बंदियों में सीमित कर दिया। और उन्हें भी अर्थदंड लेकर अथवा उपकार करके मुक्त करने की प्रेरणा दी। फिर उनके साथ अच्छे व्यवहार पर बल दिया। तथा ऐसे आदेश और नियम बना दिए कि दासता, दासता नहीं रह गई। यहाँ इसी बात पर बल दिया गया है कि दासियों से विवाह कर लेने में कोई दोष नहीं। इसलिए कि मानवता में सब बराबर हैं, और प्रधानता का मापदंड ईमान तथा सत्कर्म है। 24. अर्थात पचास कोड़े।

يُرِيْدُ اللّٰهُ لِيُبَيِّنَ لَكُمْ وَيَهْدِيَكُمْ سُنَنَ الَّذِيْنَ مِنْ قَبْلِكُمْ وَيَتُوْبَ عَلَيْكُمْ ۗ وَاللّٰهُ عَلِيْمٌ حَكِيْمٌ٢٦
Yurīdullāhu liyubayyina lakum wa yahdiyakum sunanal-lażīna min qablikum wa yatūba ‘alaikum, wallāhu ‘alīmun ḥakīm(un).
[26] अल्लाह चाहता है कि तुम्हारे लिए स्पष्ट कर दे और तुम्हें उन लोगों के तरीक़ों का मार्गदर्शन करे जो तुमसे पहले हुए हैं और तुम्हारी तौबा क़बूल करे। अल्लाह सब कुछ जानने वाला, हिकमत वाला है।

وَاللّٰهُ يُرِيْدُ اَنْ يَّتُوْبَ عَلَيْكُمْ ۗ وَيُرِيْدُ الَّذِيْنَ يَتَّبِعُوْنَ الشَّهَوٰتِ اَنْ تَمِيْلُوْا مَيْلًا عَظِيْمًا٢٧
Wallāhu yurīdu ay yatūba ‘alaikum, wa yurīdul-lażīna yattabi‘ūnasy-syahawāti an tamīlū mailan ‘aẓīmā(n).
[27] और अल्लाह तो यह चाहता है कि तुम्हारी तौबा क़बूल करे तथा जो लोग इच्छाओं के पीछे पड़े हुए हैं, वे चाहते हैं कि तुम (हिदायत के मार्ग से) बहुत दूर हट25 जाओ।
25. अर्थात सत्धर्म से कतरा जाओ।

يُرِيْدُ اللّٰهُ اَنْ يُّخَفِّفَ عَنْكُمْ ۚ وَخُلِقَ الْاِنْسَانُ ضَعِيْفًا٢٨
Yurīdullāhu ay yukhaffifa ‘ankum, wa khuliqal-insānu ḍa‘īfā(n).
[28] अल्लाह चाहता है कि तुम्हारा बोझ हल्का26 कर दे तथा मानव कमज़ोर पैदा किया गया है।
26. अर्थात अपने धर्म विधान द्वारा।

يٰٓاَيُّهَا الَّذِيْنَ اٰمَنُوْا لَا تَأْكُلُوْٓا اَمْوَالَكُمْ بَيْنَكُمْ بِالْبَاطِلِ اِلَّآ اَنْ تَكُوْنَ تِجَارَةً عَنْ تَرَاضٍ مِّنْكُمْ ۗ وَلَا تَقْتُلُوْٓا اَنْفُسَكُمْ ۗ اِنَّ اللّٰهَ كَانَ بِكُمْ رَحِيْمًا٢٩
Yā ayyuhal-lażīna āmanū lā ta'kulū amwālakum bainakum bil-bāṭili illā an takūna tijāratan ‘an tarāḍim minkum, wa lā taqtulū anfusakum, innallāha kāna bikum raḥīmā(n).
[29] ऐ ईमान वालो! आपस में एक-दूसरे का धन अवैध रूप से न खाओ, सिवाय इसके कि वह तुम्हारी आपसी सहमति से कोई व्यापार हो। तथा अपने आपको क़त्ल27 न करो। निःसंदेह अल्लाह तुमपर अति दयावान् है।
27. इसका अर्थ यह भी किया गया है कि अवैध कर्मों द्वारा अपना विनाश न करो, तथा यह भी कि आपस में रक्तपात न करो, और ये तीनों ही अर्थ सह़ीह़ हैं। (तफ़्सीर क़ुर्तुबी)

وَمَنْ يَّفْعَلْ ذٰلِكَ عُدْوَانًا وَّظُلْمًا فَسَوْفَ نُصْلِيْهِ نَارًا ۗوَكَانَ ذٰلِكَ عَلَى اللّٰهِ يَسِيْرًا٣٠
Wa may yaf‘al żālika ‘udwānaw wa ẓulman fa saufa nuṣlīhi nārā(n), wa kāna żālika ‘alallāhi yasīrā(n).
[30] और जो ज़ुल्म और ज़्यादती से ऐसा करेगा, तो शीघ्र ही हम उसे आग में झोंक देंगे और यह अल्लाह के लिए सरल है।

اِنْ تَجْتَنِبُوْا كَبَاۤىِٕرَ مَا تُنْهَوْنَ عَنْهُ نُكَفِّرْ عَنْكُمْ سَيِّاٰتِكُمْ وَنُدْخِلْكُمْ مُّدْخَلًا كَرِيْمًا٣١
In tajtanibū kabā'ira mā tunhauna ‘anhu nukaffir ‘ankum sayyi'ātikum wa nudkhilkum mudkhalan karīmā(n).
[31] यदि तुम, उन बड़े पापों से बचते रहे, जिनसे तुम्हें रोका जा रहा है, तो हम तुम्हारे (छोटे) गुनाहों को क्षमा कर देंगे और तुम्हें प्रतिष्ठित स्थान में दाख़िल करेंगे।

وَلَا تَتَمَنَّوْا مَا فَضَّلَ اللّٰهُ بِهٖ بَعْضَكُمْ عَلٰى بَعْضٍ ۗ لِلرِّجَالِ نَصِيْبٌ مِّمَّا اكْتَسَبُوْا ۗ وَلِلنِّسَاۤءِ نَصِيْبٌ مِّمَّا اكْتَسَبْنَ ۗوَسْـَٔلُوا اللّٰهَ مِنْ فَضْلِهٖ ۗ اِنَّ اللّٰهَ كَانَ بِكُلِّ شَيْءٍ عَلِيْمًا٣٢
Wa lā tatamannau mā faḍḍalallāhu bihī ba‘ḍakum ‘alā ba‘ḍ(in), lir-rijāli naṣībum mimmaktasabū, wa lin-nisā'i naṣībum mimmaktasabn(a), was'alullāha min faḍlih(ī), innallāha kāna bikulli syai'in ‘alīmā(n).
[32] तथा अल्लाह ने जिस चीज़ के द्वारा तुममें से कुछ को दूसरों पर प्रतिष्ठा प्रदान की है, उसकी कामना न करो। पुरुषों के लिए उसमें से हिस्सा है, जो उन्होंने कमाया27 और स्त्रियों के लिए उसमें से हिस्सा है, जो उन्होंने कमाया है। तथा अल्लाह से उसका अनुग्रह माँगते रहो। निःसंदेह, अल्लाह सब कुछ जानने वाला है।
27. क़ुरआन उतरने से पहले संसार का यह साधारण विश्वव्यापी विचार था कि नारी का कोई स्थायी अस्तित्व नहीं है। उसे केवल पुरुषों की सेवा और काम वासना के लिए बनाया गया है। क़ुरआन इस विचार के विरुद्ध यह कहता है कि अल्लाह ने मानव को नर तथा नारी दो लिंगों में विभाजित कर दिया है। और दोनों ही समान रूप से अपना-अपना अस्तित्व, अपने-अपने कर्तव्य तथा कर्म रखते हैं। और जैसे आर्थिक कार्यालय के लिए एक लिंग की आवश्यक्ता है, वैसे ही दूसरे की भी है। मानव के सामाजिक जीवन के लिए यह दोनों एक दूसरे के सहायक हैं।

وَلِكُلٍّ جَعَلْنَا مَوَالِيَ مِمَّا تَرَكَ الْوَالِدٰنِ وَالْاَقْرَبُوْنَ ۗ وَالَّذِيْنَ عَقَدَتْ اَيْمَانُكُمْ فَاٰتُوْهُمْ نَصِيْبَهُمْ ۗ اِنَّ اللّٰهَ كَانَ عَلٰى كُلِّ شَيْءٍ شَهِيْدًا ࣖ٣٣
Wa likullin ja‘alnā mawāliya mimmā tarakal-wālidāni wal-aqrabūn(a), wal-lażīna ‘aqadat aimānukum fa ātūhum naṣībahum, innallāha kāna ‘alā kulli syai'in syahīdā(n).
[33] और हमने तुममें से हर एक के हक़दार बना दिए हैं, जो माता-पिता और क़रीबी रिश्तेदारों की छोड़ी हुई संपत्ति के वारिस होंगे। तथा जिनसे तुमने समझौता28 किया हो, तो उन्हें उनका हिस्सा दो। निःसंदेह अल्लाह हमेशा प्रत्येक वस्तु से सूचित है।
28. यह संधि इस्लाम के आरंभिक युग में थी, जिसे (मीरास की आयत से) निरस्त कर दिया गया। (इब्ने कसीर)

اَلرِّجَالُ قَوَّامُوْنَ عَلَى النِّسَاۤءِ بِمَا فَضَّلَ اللّٰهُ بَعْضَهُمْ عَلٰى بَعْضٍ وَّبِمَآ اَنْفَقُوْا مِنْ اَمْوَالِهِمْ ۗ فَالصّٰلِحٰتُ قٰنِتٰتٌ حٰفِظٰتٌ لِّلْغَيْبِ بِمَا حَفِظَ اللّٰهُ ۗوَالّٰتِيْ تَخَافُوْنَ نُشُوْزَهُنَّ فَعِظُوْهُنَّ وَاهْجُرُوْهُنَّ فِى الْمَضَاجِعِ وَاضْرِبُوْهُنَّ ۚ فَاِنْ اَطَعْنَكُمْ فَلَا تَبْغُوْا عَلَيْهِنَّ سَبِيْلًا ۗاِنَّ اللّٰهَ كَانَ عَلِيًّا كَبِيْرًا٣٤
Ar-rijālu qawwāmūna ‘alan-nisā'i bimā faḍḍalallāhu ba‘ḍahum ‘alā ba‘ḍiw wa bimā anfaqū min amwālihim, faṣ-ṣāliḥātu qānitātun ḥāfiẓātul lil-gaibi bimā ḥafiẓallāh(u), wal-lātī takhāfūna nusyūzahunna fa ‘iẓūhunna wahjurūhunna fil-maḍāji‘i waḍribūhunn(a), fa in aṭa‘nakum falā tabgū ‘alaihinna sabīlā(n), innallāha kāna ‘aliyyan kabīrā(n).
[34] पुरुष स्त्रियों के संरक्षक29 हैं, इस कारण कि अल्लाह ने उनमें से कुछ को कुछ पर फ़ज़ीलत दी है तथा इस कारण कि पुरुषों ने अपना धन ख़र्च किया है। अतः अच्छी औरतें आज्ञाकारी होती हैं तथा अपने पतियों की अनुपस्थिति में अल्लाह के संरक्षण में उनके अधिकारों की रक्षा करती हैं। फिर तुम्हें जिन औरतों की अवज्ञा का डर हो, उन्हें समझाओ और सोने के स्थानों में उनसे अलग रहो तथा उन्हें मारो। फिर यदि वे तुम्हारी बात मानें, तो उनके विरुद्ध कोई रास्ता न ढूँढो। निःसंदेह अल्लाह सर्वोच्च, सबसे बड़ा है।
29. आयत का भावार्थ यह है कि पारिवारिक जीवन के प्रबंध के लिए एक प्रबंधक होना आवश्यक है। और इस प्रबंध तथा व्यवस्था का भार पुरुष पर रखा गया है। जो कोई विशेषता नहीं, बल्कि एक भार है। इसका यह अर्थ नहीं कि जन्म से पुरुष की स्त्री पर कोई विशेषता है। प्रथम आयत में यह आदेश दिया गया है कि यदि पत्नी, पति की अनुगामी न हो, तो वह उसे समझाए। परंतु यदि दोष पुरुष का हो, तो दोनों के बीच मध्यस्थता द्वारा संधि कराने की प्रेरणा दी गई है।

وَاِنْ خِفْتُمْ شِقَاقَ بَيْنِهِمَا فَابْعَثُوْا حَكَمًا مِّنْ اَهْلِهٖ وَحَكَمًا مِّنْ اَهْلِهَا ۚ اِنْ يُّرِيْدَآ اِصْلَاحًا يُّوَفِّقِ اللّٰهُ بَيْنَهُمَا ۗ اِنَّ اللّٰهَ كَانَ عَلِيْمًا خَبِيْرًا٣٥
Wa in khiftum syiqāqa bainihimā fab‘aṡū ḥakamam min ahlihī wa ḥakamam min ahlihā, iy yurīdā iṣlāḥay yuwaffiqillāhu bainahumā, innallāha kāna ‘alīman khabīrā(n).
[35] और यदि तुम्हें30 दोनों के बीच अलगाव का डर हो, तो एक मध्यस्थ पति के घराने से तथा एक मध्यस्थ पत्नी के घराने से नियुक्त करो, यदि दोनों (मध्यस्थ) सुधार करना चाहेंगे, तो अल्लाह दोनों (पति-पत्नी) के बीच मेल का रास्ता निकाल देगा। निःसंदेह अल्लाह सब कुछ जानने वाला और हर चीज़ की ख़बर रखने वाला है।
30. इसमें पति-पत्नी के संरक्षकों को संबोधित किया गया है।

۞ وَاعْبُدُوا اللّٰهَ وَلَا تُشْرِكُوْا بِهٖ شَيْـًٔا وَّبِالْوَالِدَيْنِ اِحْسَانًا وَّبِذِى الْقُرْبٰى وَالْيَتٰمٰى وَالْمَسٰكِيْنِ وَالْجَارِ ذِى الْقُرْبٰى وَالْجَارِ الْجُنُبِ وَالصَّاحِبِ بِالْجَنْۢبِ وَابْنِ السَّبِيْلِۙ وَمَا مَلَكَتْ اَيْمَانُكُمْ ۗ اِنَّ اللّٰهَ لَا يُحِبُّ مَنْ كَانَ مُخْتَالًا فَخُوْرًاۙ٣٦
Wa‘budullāha wa lā tusyrikū bihī syai'aw wa bil-wālidaini iḥsānaw wa biżil-qurbā wal-yatāmā wal-masākīni wal-jāri żil-qurbā wal-jāril-junubi waṣ-ṣāḥibi bil-jambi wabnis-sabīl(i), wa mā malakat aimānukum, innallāha lā yuḥibbu man kāna mukhtālan fakhūrā(n).
[36] तथा अल्लाह की इबादत करो और किसी चीज़ को उसका साझी न बनाओ तथा माता-पिता, रिश्तेदारों, अनाथों, निर्धनों, नातेदार पड़ोसी, अपरिचित पड़ोसी, साथ रहने वाले साथी, यात्री और अपने दास-दासियों के साथ अच्छा व्यवहार करो। निःसंदेह अल्लाह उससे प्रेम नहीं करता, जो इतराने वाला, डींगें मारने वाला हो।

ۨالَّذِيْنَ يَبْخَلُوْنَ وَيَأْمُرُوْنَ النَّاسَ بِالْبُخْلِ وَيَكْتُمُوْنَ مَآ اٰتٰىهُمُ اللّٰهُ مِنْ فَضْلِهٖۗ وَاَعْتَدْنَا لِلْكٰفِرِيْنَ عَذَابًا مُّهِيْنًاۚ٣٧
Al-lażīna yabkhalūna wa ya'murūnan-nāsa bil-bukhli wa yaktumūna mā ātāhumullāhu min faḍlih(ī), wa a‘tadnā lil-kāfirīna ‘ażābam muhīnā(n).
[37] जो खुद कृपणता करते हैं तथा दूसरों को भी कृपणता का आदेश देते हैं और उस (नेमत) को छिपाते हैं, जो अल्लाह ने उन्हें प्रदान की है। और हमने काफ़िरों के लिए अपमानकारी अज़ाब तैयार कर रखा है।

وَالَّذِيْنَ يُنْفِقُوْنَ اَمْوَالَهُمْ رِئَاۤءَ النَّاسِ وَلَا يُؤْمِنُوْنَ بِاللّٰهِ وَلَا بِالْيَوْمِ الْاٰخِرِ ۗ وَمَنْ يَّكُنِ الشَّيْطٰنُ لَهٗ قَرِيْنًا فَسَاۤءَ قَرِيْنًا٣٨
Wal-lażīna yunfiqūna amwālahum ri'ā'an-nasi wa lā yu'minūna billāhi wa lā bil-yaumil ākhir(i), wa may yakunisy-syaiṭānu lahū qarīnan fasā'a qarīnā(n).
[38] तथा जो लोग अपना धन, लोगों को दिखाने के लिए दान करते हैं और अल्लाह तथा अंतिम दिन पर ईमान नहीं रखते। तथा शैतान जिसका साथी हो, तो वह बहुत बुरा साथी31 है।
31. आयत 36 से 38 तक साधारण सहानुभूति और उपकार का आदेश दिया गया है कि अल्लाह ने जो धन-धान्य तुमको दिया, उससे मानव की सहायता और सेवा करो। जो व्यक्ति अल्लाह पर ईमान रखता हो उसका हाथ अल्लाह की राह में दान करने से कभी नहीं रुक सकता। फिर भी दान करो तो अल्लाह के लिए करो, दिखावे और नाम के लिए न करो। जो नाम के लिए दान करता है, वह अल्लाह तथा आख़िरत पर सच्चा ईमान (विश्वास) नहीं रखता।

وَمَاذَا عَلَيْهِمْ لَوْ اٰمَنُوْا بِاللّٰهِ وَالْيَوْمِ الْاٰخِرِ وَاَنْفَقُوْا مِمَّا رَزَقَهُمُ اللّٰهُ ۗوَكَانَ اللّٰهُ بِهِمْ عَلِيْمًا٣٩
Wa māżā ‘alaihim lau āmanū billāhi wal-yaumil-ākhiri wa anfaqū mimmā razaqahumullāh(u), wa kānallāhu bihim ‘alīmā(n).
[39] और उनका क्या बिगड़ जाता, यदि वे अल्लाह तथा अन्तिम दिन पर ईमान रखते और अल्लाह ने उन्हें जो कुछ दिया है, उसमें से खर्च करते? और अल्लाह उन्हें भली-भाँति जानता है।

اِنَّ اللّٰهَ لَا يَظْلِمُ مِثْقَالَ ذَرَّةٍ ۚوَاِنْ تَكُ حَسَنَةً يُّضٰعِفْهَا وَيُؤْتِ مِنْ لَّدُنْهُ اَجْرًا عَظِيْمًا٤٠
Innallāha lā yaẓlimu miṡqāla żarrah(tin), wa in taku ḥasanatay yuḍā‘ifhā wa yu'ti mil ladunhu ajran ‘aẓīmā(n).
[40] अल्लाह एक कण बराबर भी किसी पर अत्याचार नहीं करता, यदि (किसी ने) कोई नेकी (की) हो, तो उसे कई गुना बढ़ा देता है तथा अपने पास से बड़ा बदला प्रदान करता है।

فَكَيْفَ اِذَا جِئْنَا مِنْ كُلِّ اُمَّةٍۢ بِشَهِيْدٍ وَّجِئْنَا بِكَ عَلٰى هٰٓؤُلَاۤءِ شَهِيْدًاۗ٤١
Fa kaifa iżā ji'nā min kulli ummatim bisyahīdiw wa ji'nā bika ‘alā hā'ulā'i syahīdā(n).
[41] तो उस समय क्या हाल होगा, जब हम प्रत्येक उम्मत (समुदाय) से एक गवाह लाएँगे और (ऐ नबी!) हम आपको इनपर गवाह (बनाकर) लाएँगे?32
32. आयत का भावार्थ यह है कि प्रलय के दिन अल्लाह प्रत्येक समुदाय के रसूल को उनके कर्म का साक्षी बनाएगा। इस प्रकार मुह़म्मद सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम को भी अपने समुदाय पर साक्षी बनाएगा। तथा सब रसूलों पर कि उन्होंने अपने पालनहार का संदेश पहुँचाया है। (इब्ने कसीर)

يَوْمَىِٕذٍ يَّوَدُّ الَّذِيْنَ كَفَرُوْا وَعَصَوُا الرَّسُوْلَ لَوْ تُسَوّٰى بِهِمُ الْاَرْضُۗ وَلَا يَكْتُمُوْنَ اللّٰهَ حَدِيْثًا ࣖ٤٢
Yauma'iżiy yawaddul-lażīna kafarū wa ‘aṣawur-rasūla lau tusawwā bihimul-arḍ(u), wa lā yaktumūnallāha ḥadīṡā(n).
[42] उस दिन, काफ़िर तथा रसूल की अवज्ञा करने वाले यह कामना करेंगे कि काश! उनके सहित धरती बराबर33 कर दी जाती! और वे अल्लाह से कोई बात छिपा नहीं सकेंगे।
33. अर्थात भूमि में धँस जाएँ और उनके ऊपर से भूमि बराबर हो जाए, या वे मिट्टी हो जाएँ।

يٰٓاَيُّهَا الَّذِيْنَ اٰمَنُوْا لَا تَقْرَبُوا الصَّلٰوةَ وَاَنْتُمْ سُكٰرٰى حَتّٰى تَعْلَمُوْا مَا تَقُوْلُوْنَ وَلَا جُنُبًا اِلَّا عَابِرِيْ سَبِيْلٍ حَتّٰى تَغْتَسِلُوْا ۗوَاِنْ كُنْتُمْ مَّرْضٰٓى اَوْ عَلٰى سَفَرٍ اَوْ جَاۤءَ اَحَدٌ مِّنْكُمْ مِّنَ الْغَاۤىِٕطِ اَوْ لٰمَسْتُمُ النِّسَاۤءَ فَلَمْ تَجِدُوْا مَاۤءً فَتَيَمَّمُوْا صَعِيْدًا طَيِّبًا فَامْسَحُوْا بِوُجُوْهِكُمْ وَاَيْدِيْكُمْ ۗ اِنَّ اللّٰهَ كَانَ عَفُوًّا غَفُوْرًا٤٣
Yā ayyuhal-lażīna āmanū lā taqrabuṣ-ṣalāta wa antum sukārā ḥattā ta‘lamū mā taqūlūna wa lā junuban illā ‘ābirī sabīlin ḥattā tagtasilū, wa in kuntum marḍā au ‘alā safarin au jā'a aḥadum minkum minal-gā'iṭi au lāmastumun-nisā'a falam tajidū mā'an fa tayammamū ṣa‘īdan ṭayyiban famsaḥū biwujūhikum wa aidīkum, innnallāha kāna ‘afuwwan gafūrā(n).
[43] ऐ ईमान वालो! जब तुम नशे34 (की हालत) में हो, तो नमाज़ के क़रीब न जाओ, यहाँ तक कि जो कुछ ज़बान से कह रहे हो, उसे (ठीक) से समझने लगो और न जनाबत35 की हालत में, (मस्जिदों के क़रीब जाओ) यहाँ तक कि स्नान कर लो। परंतु रास्ता पार करते हुए (चले जाओ, तो कोई बात नहीं)। यदि तुम बीमार हो अथवा यात्रा में हो या तुममें से कोई शौच से आए या तुमने स्त्रियों से सहवास किया हो, फिर पानी न पा सको, तो पवित्र मिट्टी से तयम्मुम36 कर लो; उसे अपने चेहरे तथा हाथों पर फेर लो। निःसंदेह अल्लाह माफ करने वाला और क्षमा करने वाला है।
34. यह आदेश इस्लाम के आरंभिक युग का है, जब मदिरा को वर्जित नहीं किया गया था। (इब्ने कसीर) 35. जनाबत का अर्थ वीर्यपात के कारण मलिन तथा अपवित्र होना है। 36. अर्थात यदि जल का अभाव हो, अथवा रोग के कारण जल प्रयोग हानिकारक हो, तो वुजू तथा स्नान के स्थान पर तयम्मुम कर लो।

اَلَمْ تَرَ اِلَى الَّذِيْنَ اُوْتُوْا نَصِيْبًا مِّنَ الْكِتٰبِ يَشْتَرُوْنَ الضَّلٰلَةَ وَيُرِيْدُوْنَ اَنْ تَضِلُّوا السَّبِيْلَۗ٤٤
Alam tara ilal-lażīna ūtū naṣībam minal-kitābi yasytarūnaḍ-ḍalālata wa yurīdūna an taḍillus-sabīl(a).
[44] क्या आपने उन लोगों को नहीं देखा, जिन्हें पुस्तक37 का कुछ भाग दिया गया है कि वे गुमराही ख़रीद रहे हैं तथा चाहते हैं कि तुम भी सीधे मार्ग से भटक जाओ।
37. अर्थात अह्ले किताब, जिनको तौरात का ज्ञान दिया गया। भावार्थ यह है कि उनकी दशा से शिक्षा ग्रहण करो। उन्हीं के समान सत्य से विचलित न हो जाओ।

وَاللّٰهُ اَعْلَمُ بِاَعْدَاۤىِٕكُمْ ۗوَكَفٰى بِاللّٰهِ وَلِيًّا ۙوَّكَفٰى بِاللّٰهِ نَصِيْرًا٤٥
Wallāhu a‘lamu bi'a‘dā'ikum, wa kafā billāhi waliyyaw wa kafā billāhi naṣīrā(n).
[45] तथा अल्लाह तुम्हारे शत्रुओं को अच्छी तरह जानता है और (तुम्हारे लिए) अल्लाह की रक्षा तथा उसकी सहायता काफ़ी है।

مِنَ الَّذِيْنَ هَادُوْا يُحَرِّفُوْنَ الْكَلِمَ عَنْ مَّوَاضِعِهٖ وَيَقُوْلُوْنَ سَمِعْنَا وَعَصَيْنَا وَاسْمَعْ غَيْرَ مُسْمَعٍ وَّرَاعِنَا لَيًّاۢ بِاَلْسِنَتِهِمْ وَطَعْنًا فِى الدِّيْنِۗ وَلَوْ اَنَّهُمْ قَالُوْا سَمِعْنَا وَاَطَعْنَا وَاسْمَعْ وَانْظُرْنَا لَكَانَ خَيْرًا لَّهُمْ وَاَقْوَمَۙ وَلٰكِنْ لَّعَنَهُمُ اللّٰهُ بِكُفْرِهِمْ فَلَا يُؤْمِنُوْنَ اِلَّا قَلِيْلًا٤٦
Minal-lażīna hādū yuḥarrifūnal-kalima ‘am mawāḍi‘ihī wa yaqūlūna sami‘nā wa ‘aṣainā wasma‘ gaira musmi‘iw wa rā‘inā layyam bi'alsinatihim wa ṭa‘nan fid-dīn(i), wa lau annahum qālū sami‘nā wa aṭa‘nā wasma‘ wanẓurnā lakāna khairal lahum wa aqwam(a), wa lākil la‘anahumullāhu bikufrihim falā yu'minūna illā qalīlā(n).
[46] (ऐ नबी!) यहूदियों में से कुछ लोग ऐसे हैं, जो शब्दों को उनके (वास्तविक) स्थानों से फेर देते हैं और (आपसे) कहते हैं कि "हमने सुन लिया तथा (आपकी) अवज्ञा की" और "आप सुनिए, आप सुनाए न जाएँ!" तथा अपनी ज़ुबानें मोड़कर और सत्य धर्म पर लांक्षन लगाते हुए "राइना" कहते हैं। हालाँकि, यदि वे "हमने सुन लिया और आज्ञा का पालन किया" तथा "आप सुनिए और हमें देखिए" कहते, तो उनके लिए उत्तम तथा अधिक न्यायसंगत होता। परन्तु, अल्लाह ने उनके कुफ़्र के कारण उन्हें धिक्कार दिया है। अतः वे बहुत कम ईमान लाते हैं।

يٰٓاَيُّهَا الَّذِيْنَ اُوْتُوا الْكِتٰبَ اٰمِنُوْا بِمَا نَزَّلْنَا مُصَدِّقًا لِّمَا مَعَكُمْ مِّنْ قَبْلِ اَنْ نَّطْمِسَ وُجُوْهًا فَنَرُدَّهَا عَلٰٓى اَدْبَارِهَآ اَوْ نَلْعَنَهُمْ كَمَا لَعَنَّآ اَصْحٰبَ السَّبْتِ ۗ وَكَانَ اَمْرُ اللّٰهِ مَفْعُوْلًا٤٧
Yā ayyuhal-lażīna ūtul-kitāba āminū bimā nazzalnā muṣaddiqal limā ma‘akum min qabli an naṭmisa wujūhan fa naruddahā ‘alā adbārihā au nal‘anahum kamā la‘annā aṣḥābas-sabt(i), wa kāna amrullāhi maf‘ūlā(n).
[47] ऐ किताब वालो! उस (क़ुरआन) पर ईमान लाओ, जिसे हमने उन (पुस्तकों) की पुष्टि करने वाला बनाकर उतारा है, जो तुम्हारे पास मौजूद हैं, इससे पहले कि हम (लोगों के) चेहरे बिगाड़कर उलटा कर दें अथवा उन्हें वैसे ही धिक्कारें,38 जैसे शनिवार वालों को धिक्कारा था। और अल्लाह का आदेश पूरा होकर रहने वाला है।
38. मदीने के यहूदियों का यह दुर्भाग्य था कि जब नबी सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम से मिलते, तो द्विअर्थक तथा संदिग्ध शब्द बोलकर दिल की भड़ास निकालते, उसी पर उन्हें यह चेतावनी दी जा रही है। शनिवार वाले, अर्थात जिन को शनिवार के दिन शिकार से रोका गया था। और जब वे नहीं माने, तो उन्हें बंदर बना दिया गया।

اِنَّ اللّٰهَ لَا يَغْفِرُ اَنْ يُّشْرَكَ بِهٖ وَيَغْفِرُ مَا دُوْنَ ذٰلِكَ لِمَنْ يَّشَاۤءُ ۚ وَمَنْ يُّشْرِكْ بِاللّٰهِ فَقَدِ افْتَرٰٓى اِثْمًا عَظِيْمًا٤٨
Innallāha lā yagfiru ay yusyraka bihī wa yagfiru mā dūna żālika limay yasyā'(u), wa may yusyrik billāhi fa qadiftarā iṡman ‘aẓīmā(n).
[48] निःसंदेह, अल्लाह यह क्षमा नहीं करेगा कि उसका साझी बनाया जाए39 और इसके सिवा जिसे चाहेगा, क्षमा कर देगा। और जिसने अल्लाह का साझी बनाया, उसने बहुत बड़ा पाप गढ़ लिया।
39. अर्थात पूजा, अराधना तथा अल्लाह के विशिष्ट गुणों-कर्मों में किसी वस्तु या व्यक्ति को साझी बनाना घोर अक्षम्य पाप है, जो सत्धर्म के मूलाधार एकेश्वरवाद के विरुद्ध, और अल्लाह पर मिथ्यारोप है। यहूदियों ने अपने धर्माचार्यों तथा पादरियों के विषय में यह अंधविश्वास बना लिया था कि उनकी बात को धर्म समझ कर उन्हीं का अनुपालन कर रहे थे। और मूल पुस्तकों को त्याग दिया था, क़ुरआन इसी को शिर्क कहता है, वह कहता है कि सभी पाप क्षमा किए जा सकते हैं, परंतु शिर्क के लिए क्षमा नहीं, क्योंकि इससे मूल धर्म की नींव ही हिल जाती है। और मार्गदर्शन का केंद्र ही बदल जाता है।

اَلَمْ تَرَ اِلَى الَّذِيْنَ يُزَكُّوْنَ اَنْفُسَهُمْ ۗ بَلِ اللّٰهُ يُزَكِّيْ مَنْ يَّشَاۤءُ وَلَا يُظْلَمُوْنَ فَتِيْلًا٤٩
Alam tara ilal-lażīna yuzakkūna anfusahum, balillāhu yuzakkī may yasyā'u wa lā yuẓlamūna fatīlā(n).
[49] क्या आपने उन्हें नहीं देखा, जो अपने आपको पवित्र कहते हैं? बल्कि अल्लाह ही जिसे चाहे, पवित्र बनाता है और उन पर एक धागे के बराबर भी अत्याचार नहीं किया जाएगा।

اُنْظُرْ كَيْفَ يَفْتَرُوْنَ عَلَى اللّٰهِ الْكَذِبَۗ وَكَفٰى بِهٖٓ اِثْمًا مُّبِيْنًا ࣖ٥٠
Unẓur kaifa yaftarūna ‘alallāhil-każib(a), wa kafā bihī iṡmam mubīnā(n).
[50] देखो तो सही, वे लोग कैसे अल्लाह पर मिथ्या आरोप लगा रहे40 हैं! और यह खुला पाप होने के लिए पर्याप्त है।
40. अर्थात अल्लाह का नियम तो यह है कि पवित्रता, ईमान तथा सत्कर्म पर निर्भर है, और ये कहते हैं कि यहूदिय्यत पर है।

اَلَمْ تَرَ اِلَى الَّذِيْنَ اُوْتُوْا نَصِيْبًا مِّنَ الْكِتٰبِ يُؤْمِنُوْنَ بِالْجِبْتِ وَالطَّاغُوْتِ وَيَقُوْلُوْنَ لِلَّذِيْنَ كَفَرُوْا هٰٓؤُلَاۤءِ اَهْدٰى مِنَ الَّذِيْنَ اٰمَنُوْا سَبِيْلًا٥١
Alam tara ilal-lażīna ūtū naṣībam minal-kitābi yu'minūna bil-jibti waṭ-ṭāgūti wa yaqūlūna lil-lażīna kafarū hā'ulā'i ahdā minal-lażīna āmanū sabīlā(n).
[51] (ऐ नबी!) क्या आपने उन लोगों को नहीं देखा, जिन्हें पुस्तक का कुछ भाग दिया गया? वे मूर्तियों तथा शैतान पर ईमान (विश्वास) रखते हैं और काफ़िरों41 के बारे में कहते हैं कि ये ईमान वालों से अधिक सीधी डगर पर हैं।
41. अर्थात मक्का के मूर्ति के पुजारियों के बारे में। मदीना के यहूदियों की यह दशा थी कि वह सदैव मूर्ति पूजा के विरोधी रहे और उसका अपमान करते रहे। परंतु अब मुसलमानों के विरोध में उनकी प्रशंसा करते और कहते कि मूर्ति पूजकों का आचरण और स्वभाव अधिक अच्छा है।

اُولٰۤىِٕكَ الَّذِيْنَ لَعَنَهُمُ اللّٰهُ ۗوَمَنْ يَّلْعَنِ اللّٰهُ فَلَنْ تَجِدَ لَهٗ نَصِيْرًا٥٢
Ulā'ikal-lażīna la‘anahumullāh(u), wa may yal‘anillāhu falan tajida lahū naṣīrā(n).
[52] यही लोग हैं, जिनपर अल्लाह ने लानत की है और जिसपर अल्लाह लानत कर दे, तो आप उसका कदापि कोई सहायक नहीं पाएँगे।

اَمْ لَهُمْ نَصِيْبٌ مِّنَ الْمُلْكِ فَاِذًا لَّا يُؤْتُوْنَ النَّاسَ نَقِيْرًاۙ٥٣
Am lahum naṣībum minal-mulki fa iżal lā yu'tūnan-nāsa naqīrā(n).
[53] क्या उनके पास राज्य का कोई हिस्सा है? यदि ऐसा हो तो वे लोगों को (उसमें से) खजूर की गुठली के ऊपर के गड्ढे के बराबर भी नहीं देंगे।

اَمْ يَحْسُدُوْنَ النَّاسَ عَلٰى مَآ اٰتٰىهُمُ اللّٰهُ مِنْ فَضْلِهٖۚ فَقَدْ اٰتَيْنَآ اٰلَ اِبْرٰهِيْمَ الْكِتٰبَ وَالْحِكْمَةَ وَاٰتَيْنٰهُمْ مُّلْكًا عَظِيْمًا٥٤
Am yaḥsudūnan-nāsa ‘alā mā ātāhumullāhu min faḍlih(ī), faqad ātainā āla ibrāhīmal-kitāba wal-ḥikmata wa ātaināhum mulkan ‘aẓīmā(n).
[54] बल्कि वे लोगों से42 उस पर ईर्ष्या करते हैं जो अल्लाह ने उन्हें अपने अनुग्रह से प्रदान किया है। तो हमने (पहले भी) इबराहीम के वंशज को पुस्तक तथा ह़िकमत दी है और हमने उन्हें विशाल राज्य प्रदान किया है।
42. अर्थात मुह़म्मद सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम और मुसलमानों से इस बात पर ईर्ष्या करते हैं कि अल्लाह ने आप को नबी बना दिया तथा मुसलमानों को ईमान दे दिया।

فَمِنْهُمْ مَّنْ اٰمَنَ بِهٖ وَمِنْهُمْ مَّنْ صَدَّ عَنْهُ ۗ وَكَفٰى بِجَهَنَّمَ سَعِيْرًا٥٥
Fa minhum man āmana bihī wa minhum man ṣadda ‘anh(u), wa kafā bijahannama sa‘īrā(n).
[55] फिर उनमें से कुछ उसपर ईमान लाया और उनमें से कुछ ने उससे मुँह फेर लिया। और (मुँह फेरने वालों के लिए) जहन्नम की दहकती आग काफ़ी है।

اِنَّ الَّذِيْنَ كَفَرُوْا بِاٰيٰتِنَا سَوْفَ نُصْلِيْهِمْ نَارًاۗ كُلَّمَا نَضِجَتْ جُلُوْدُهُمْ بَدَّلْنٰهُمْ جُلُوْدًا غَيْرَهَا لِيَذُوْقُوا الْعَذَابَۗ اِنَّ اللّٰهَ كَانَ عَزِيْزًا حَكِيْمًا٥٦
Innal-lażīna kafarū bi'āyātinā sanuṣlīhim nārā(n), kullamā naḍijat julūduhum baddalnāhum julūdan gairahā liyażūqul-‘ażāb(a), innallāha kāna ‘azīzan ḥakīmā(n).
[56] वास्तव में, जिन लोगों ने हमारी आयतों के साथ कुफ़्र किया, हम उन्हें नरक में झोंक देंगे। जब भी उनकी खालें पक जाएँगी (जल चुकी होंगी), हम उनकी खालें बदल देंगे, ताकि वे यातना चखते रहें। निःसंदेह अल्लाह प्रभुत्वशाली, हिकमत वाला है।

وَالَّذِيْنَ اٰمَنُوْا وَعَمِلُوا الصّٰلِحٰتِ سَنُدْخِلُهُمْ جَنّٰتٍ تَجْرِيْ مِنْ تَحْتِهَا الْاَنْهٰرُ خٰلِدِيْنَ فِيْهَآ اَبَدًاۗ لَهُمْ فِيْهَآ اَزْوَاجٌ مُّطَهَّرَةٌ ۙ وَّنُدْخِلُهُمْ ظِلًّا ظَلِيْلًا٥٧
Wal-lażīna āmanū wa ‘amiluṣ-ṣāliḥāti sanudkhiluhum jannātin tajrī min taḥtihal-anhāru khālidīna fīhā abadā(n), lahum fīhā azwājum muṭahharah(tun), wa nudkhiluhum ẓillan ẓalīlā(n).
[57] और जो लोग ईमान लाए तथा अच्छे कर्म किए, हम उन्हें ऐसी जन्नतों (बागों) में दाख़िल करेंगे, जिनके नीचे नहरें बह रही होंगी, जिनमें वे सदैव रहेंगे। उनके लिए उनमें पवित्र पत्नियाँ होंगी और हम उन्हें घनी छाँव में रखेंगे।

۞ اِنَّ اللّٰهَ يَأْمُرُكُمْ اَنْ تُؤَدُّوا الْاَمٰنٰتِ اِلٰٓى اَهْلِهَاۙ وَاِذَا حَكَمْتُمْ بَيْنَ النَّاسِ اَنْ تَحْكُمُوْا بِالْعَدْلِ ۗ اِنَّ اللّٰهَ نِعِمَّا يَعِظُكُمْ بِهٖ ۗ اِنَّ اللّٰهَ كَانَ سَمِيْعًاۢ بَصِيْرًا٥٨
Innallāha ya'murukum an tu'addul-amānāti ilā ahlihā, wa iżā ḥakamtum bainan-nāsi an taḥkumū bil-‘adl(i), innallāha ni‘immā ya‘iẓukum bih(ī), innallāha kāna samī‘am baṣīrā(n).
[58] अल्लाह43 तुम्हें आदेश देता है कि अमानतों को उनके मालिकों के हवाले कर दो और जब तुम लोगों के बीच फैसला करो, तो न्याय के साथ फैसला करो। निश्चय अल्लाह तुम्हें कितनी अच्छी नसीहत करता है। निःसंदेह अल्लाह सब कुछ सुनने, सब कुछ देखने वाला है।
43. यहाँ से ईमान वालों को संबोधित किया जा रहा है कि सामाजिक जीवन की व्यवस्था के लिए मूल नियम यह है कि जिसका जो भी अधिकार हो, उसे स्वीकार किया जाए और दिया जाए। इसी प्रकार कोई भी निर्णय बिना पक्षपात के, न्याय के साथ किया जाए, किसी प्रकार कोई अन्याय नहीं होना चाहिए।

يٰٓاَيُّهَا الَّذِيْنَ اٰمَنُوْٓا اَطِيْعُوا اللّٰهَ وَاَطِيْعُوا الرَّسُوْلَ وَاُولِى الْاَمْرِ مِنْكُمْۚ فَاِنْ تَنَازَعْتُمْ فِيْ شَيْءٍ فَرُدُّوْهُ اِلَى اللّٰهِ وَالرَّسُوْلِ اِنْ كُنْتُمْ تُؤْمِنُوْنَ بِاللّٰهِ وَالْيَوْمِ الْاٰخِرِۗ ذٰلِكَ خَيْرٌ وَّاَحْسَنُ تَأْوِيْلًا ࣖ٥٩
Yā ayyuhal-lażīna āmanū aṭī‘ullāha wa aṭī‘ur-rasūla wa ulil-amri minkum, fa in tanāza‘tum fī syai'in fa rudd­hu ilallāhi war-rasūli in kuntum tu'minūna billāhi wal-yaumil-ākhir(i), żālika khairuw wa aḥsanu ta'wīlā(n).
[59] ऐ ईमान वालो! अल्लाह का आज्ञापालन करो और रसूल का आज्ञापालन करो और अपने में से अधिकार वालों (शासकों) का। फिर यदि तुम आपस में किसी चीज़ में मतभेद कर बैठो, तो उसे अल्लाह और रसूल की ओर लौटाओ, यदि तुम अल्लाह तथा अंतिम दिन (परलोक) पर ईमान रखते हो। यह (तुम्हारे लिए) बहुत बेहतर है और परिणाम की दृष्टि से बहुत अच्छा है।

اَلَمْ تَرَ اِلَى الَّذِيْنَ يَزْعُمُوْنَ اَنَّهُمْ اٰمَنُوْا بِمَآ اُنْزِلَ اِلَيْكَ وَمَآ اُنْزِلَ مِنْ قَبْلِكَ يُرِيْدُوْنَ اَنْ يَّتَحَاكَمُوْٓا اِلَى الطَّاغُوْتِ وَقَدْ اُمِرُوْٓا اَنْ يَّكْفُرُوْا بِهٖ ۗوَيُرِيْدُ الشَّيْطٰنُ اَنْ يُّضِلَّهُمْ ضَلٰلًا ۢ بَعِيْدًا٦٠
Alam tara ilal-lażīna yaz‘umūna annahum āmanū bimā unzila ilaika wa mā unzila min qablika yurīdūna ay yataḥākamū ilaṭ-ṭāgūti wa qad umirū ay yakfurū bih(ī), wa yurīdusy-syaiṭānu ay yuḍillahum ḍalālam ba‘īdā(n).
[60] (ऐ नबी!) क्या आपने उन लोगों को नहीं देखा, जिनका यह दावा है कि जो कुछ आपकी ओर उतारा गया है और जो कुछ आपसे पहले उतारा गया है उसपर वे ईमान रखते हैं, किंतु वे चाहते हैं कि अपने विवाद के निर्णय के लिए ताग़ूत (अल्लाह की शरीयत के अलावा से फैसला करने वाले) के पास जाएँ, जबकि उन्हें उस (ताग़ूत) का इनकार करने का आदेश दिया गया है? और शैतान चाहता है कि उन्हें सच्चे धर्म से बहुत दूर44 कर दे।
44. आयत का भावार्थ यह है कि जो धर्म विधान क़ुरआन तथा सुन्नत के सिवा किसी अन्य विधान से अपना निर्णय चाहते हों, उनका ईमान का दावा मिथ्या है।

وَاِذَا قِيْلَ لَهُمْ تَعَالَوْا اِلٰى مَآ اَنْزَلَ اللّٰهُ وَاِلَى الرَّسُوْلِ رَاَيْتَ الْمُنٰفِقِيْنَ يَصُدُّوْنَ عَنْكَ صُدُوْدًاۚ٦١
Wa iżā qīla lahum ta‘ālau ilā mā anzalallāhu wa ilar-rasūli ra'aital-munāfiqīna yaṣuddūna ‘anka ṣudūdā(n).
[61] तथा जब उनसे कहा जाता है कि आओ उसकी ओर जो अल्लाह ने उतारा है और (आओ) रसूल की ओर, तो आप मुनाफ़िक़ों को देखेंगे कि वे आप (के पास आने) से कतराते हैं।

فَكَيْفَ اِذَآ اَصَابَتْهُمْ مُّصِيْبَةٌ ۢبِمَا قَدَّمَتْ اَيْدِيْهِمْ ثُمَّ جَاۤءُوْكَ يَحْلِفُوْنَ بِاللّٰهِ ۖاِنْ اَرَدْنَآ اِلَّآ اِحْسَانًا وَّتَوْفِيْقًا٦٢
Fa kaifa iżā aṣābathum muṣībatum bimā qaddamat aidīhim ṡumma jā'ūka yaḥlifūna billāh(i), in aradnā illā iḥsānaw wa taufīqā(n).
[62] फिर उस समय उनका क्या हाल होता है जब उनके करतूतों के कारण उनपर कोई आपदा आ पड़ती है, फिर वे आपके पास आकर अल्लाह की क़समें खाते हैं कि हमारा इरादा45 तो केवल भलाई तथा (आपस में) मेल कराना था।
45. आयत का भावार्थ यह है कि मुनाफ़िक़ ईमान का दावा तो करते थे, परंतु अपने विवाद चुकाने के लिए इस्लाम के विरोधियों के पास जाते, फिर जब कभी उन की दो रंगी पकड़ी जाती तो नबी सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम के पास आ कर मिथ्या शपथ लेते। और यह कहते कि हम केवल विवाद सुलझाने के लिए उनके पास चले गए थे। (इब्ने कसीर)

اُولٰۤىِٕكَ الَّذِيْنَ يَعْلَمُ اللّٰهُ مَا فِيْ قُلُوْبِهِمْ فَاَعْرِضْ عَنْهُمْ وَعِظْهُمْ وَقُلْ لَّهُمْ فِيْٓ اَنْفُسِهِمْ قَوْلًا ۢ بَلِيْغًا٦٣
Ulā'ikal-lażīna ya‘lamullāhu mā fī qulūbihim fa a‘riḍ ‘anhum wa ‘iẓhum wa qul lahum fī anfusihim qaulam balīgā(n).
[63] ये वो लोग हैं जिनके दिलों की बातें अल्लाह भली-भाँति जानता है। अतः आप उनकी उपेक्षा करें और उन्हें नसीहत करते रहें और उनसे ऐसी प्रभावकारी बात कहें जो उनके दिलों में उतर जाए।

وَمَآ اَرْسَلْنَا مِنْ رَّسُوْلٍ اِلَّا لِيُطَاعَ بِاِذْنِ اللّٰهِ ۗوَلَوْ اَنَّهُمْ اِذْ ظَّلَمُوْٓا اَنْفُسَهُمْ جَاۤءُوْكَ فَاسْتَغْفَرُوا اللّٰهَ وَاسْتَغْفَرَ لَهُمُ الرَّسُوْلُ لَوَجَدُوا اللّٰهَ تَوَّابًا رَّحِيْمًا٦٤
Wa mā arsalnā mir rasūlin illā liyuṭā‘a bi'iżnillāh(i), wa lau annahum iẓ ẓalamū anfusahum jā'ūka fastagfarullāha wastagfara lahumur-rasūlu lawajadullāha tawwābar raḥīmā(n).
[64] और हमने जो भी रसूल भेजा, वह इसलिए (भेजा) कि अल्लाह की अनुमति से उसका आज्ञापालन किया जाए। और यदि वे लोग, जब उन्हों ने अपनी जानों पर अत्याचार किया था, आपके पास आते, फिर अल्लाह से क्षमा याचना करते और रसूल भी उनके लिए क्षमा याचना करते, तो वे अवश्य अल्लाह को बहुत तौबा क़बूल करने वाला, अत्यन्त दयावान पाते।

فَلَا وَرَبِّكَ لَا يُؤْمِنُوْنَ حَتّٰى يُحَكِّمُوْكَ فِيْمَا شَجَرَ بَيْنَهُمْ ثُمَّ لَا يَجِدُوْا فِيْٓ اَنْفُسِهِمْ حَرَجًا مِّمَّا قَضَيْتَ وَيُسَلِّمُوْا تَسْلِيْمًا٦٥
Falā wa rabbika lā yu'minūna ḥattā yuḥakkimūka fīmā syajara bainahum ṡumma lā yajidū fī anfusihim ḥarajam mimmā qaḍaita wa yusallimū taslīmā(n).
[65] तो (ऐ नबी!) आपके पालनहार की क़सम! वे कभी ईमान वाले नहीं हो सकते, जब तक अपने आपस के विवाद में आपको निर्णायक46 न बनाएँ, फिर आप जो निर्णय कर दें, उससे अपने दिलों में तनिक भी तंगी महसूस न करें और उसे पूरी तरह से स्वीकार कर लें।
46. यह आदेश आप सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम के जीवन में था। तथा आपके निधन के पश्चात् अब आपकी सुन्नत से निर्णय लेना है।

وَلَوْ اَنَّا كَتَبْنَا عَلَيْهِمْ اَنِ اقْتُلُوْٓا اَنْفُسَكُمْ اَوِ اخْرُجُوْا مِنْ دِيَارِكُمْ مَّا فَعَلُوْهُ اِلَّا قَلِيْلٌ مِّنْهُمْ ۗوَلَوْ اَنَّهُمْ فَعَلُوْا مَا يُوْعَظُوْنَ بِهٖ لَكَانَ خَيْرًا لَّهُمْ وَاَشَدَّ تَثْبِيْتًاۙ٦٦
Wa lau annā katabnā ‘alaihim aniqtulū anfusakum awikhrujū min diyārikum mā fa‘alūhu illā qalīlum minhum, wa lau annahum fa‘alū mā yū‘aẓūna bihī lakāna khairal lahum wa asyadda taṡbītā(n).
[66] और यदि हम उनपर47 अनिवार्य कर देते कि अपने आपको को क़त्ल करो या अपने घरों से निकल जाओ, तो उनमें से कुछ लोगों के सिवा कोई भी ऐसा नहीं करता। और यदि वे लोग उसका पालन करते जिसकी उन्हें नसीहत की जाती है, तो यह उनके लिए बेहतर और (सच्चे रास्ते पर) अधिक दृढ़ता का कारण होता।
47. अर्थात जो दूसरों से निर्णय कराते हैं।

وَّاِذًا لَّاٰتَيْنٰهُمْ مِّنْ لَّدُنَّآ اَجْرًا عَظِيْمًاۙ٦٧
Wa iżal la'ātaināhum mil ladunnā ajran ‘aẓīmā(n).
[67] और तब तो हम अवश्य उन्हें अपने पास से बहुत बड़ा बदला देते।

وَّلَهَدَيْنٰهُمْ صِرَاطًا مُّسْتَقِيْمًا٦٨
Wa lahadaināhum ṣirāṭam mustaqīmā(n).
[68] तथा हम अवश्य उन्हें सीधा रास्ता दिखाते।

وَمَنْ يُّطِعِ اللّٰهَ وَالرَّسُوْلَ فَاُولٰۤىِٕكَ مَعَ الَّذِيْنَ اَنْعَمَ اللّٰهُ عَلَيْهِمْ مِّنَ النَّبِيّٖنَ وَالصِّدِّيْقِيْنَ وَالشُّهَدَاۤءِ وَالصّٰلِحِيْنَ ۚ وَحَسُنَ اُولٰۤىِٕكَ رَفِيْقًا٦٩
Wa may yuṭi‘illāha war-rasūla fa ulā'ika ma‘al-lażīna an‘amallāhu ‘alaihim minan-nabiyyīna waṣ-ṣiddīqīna wasy-syuhadā'i waṣ-ṣāliḥīn(a), wa ḥasuna ulā'ika rafīqā(n).
[69] तथा जो भी अल्लाह और रसूल का आज्ञापालन करेगा, वह उन लोगों के साथ होगा, जिन्हें अल्लाह ने पुरस्कृत किया है, अर्थात नबियों, सिद्दीक़ों (सत्यवादियों), शहीदों और सदाचारियों के साथ। और ये लोग सबसे अच्छे साथी हैं।

ذٰلِكَ الْفَضْلُ مِنَ اللّٰهِ ۗوَكَفٰى بِاللّٰهِ عَلِيْمًا ࣖ٧٠
Żālikal-faḍlu minallāh(i), wa kafā billāhi ‘alīmā(n).
[70] यह अनुग्रह एवं कृपा अल्लाह की ओर से है और अल्लाह काफी48 है जानने वाला।
48. अर्थात अपनी कृपा तथा अनुग्रह के याग्य को जानने के लिए।

يٰٓاَيُّهَا الَّذِيْنَ اٰمَنُوْا خُذُوْا حِذْرَكُمْ فَانْفِرُوْا ثُبَاتٍ اَوِ انْفِرُوْا جَمِيْعًا٧١
Yā ayyuhal-lażīna āmanū khużū ḥiżrakum fanfirū ṡubātin awinfirū jamī‘ā(n).
[71] ऐ ईमान वालो! अपने (शत्रुओं से) बचाव का सामान ले लो, फिर अलग-अलग समूहों में अथवा सब के सब इकट्ठे होकर निकल पड़ो।

وَاِنَّ مِنْكُمْ لَمَنْ لَّيُبَطِّئَنَّۚ فَاِنْ اَصَابَتْكُمْ مُّصِيْبَةٌ قَالَ قَدْ اَنْعَمَ اللّٰهُ عَلَيَّ اِذْ لَمْ اَكُنْ مَّعَهُمْ شَهِيْدًا٧٢
Wa inna minkum lamal layubaṭṭi'ann(a), fa in aṣābatkum muṣībatun qāla qad an‘amallāhu ‘alayya iż lam akum ma‘ahum syahīdā(n).
[72] और निःसंदेह तुममें कोई ऐसा49 भी है, जो (दुश्मन से लड़ाई के लिए निकलने में) निश्चय देर लगाएगा। फिर यदि (युद्ध के दौरान) तुमपर कोई आपदा आ पड़े, तो कहेगा : अल्लाह ने मुझपर बड़ा उपकार किया कि मैं उनके साथ उपस्थित नहीं था।
49. यहाँ युद्ध से संबंधित अब्दुल्लाह बिन उबय्य जैसे मुनाफ़िक़ों की दशा का वर्णन किया जा रहा है। (इब्ने कसीर)

وَلَىِٕنْ اَصَابَكُمْ فَضْلٌ مِّنَ اللّٰهِ لَيَقُوْلَنَّ كَاَنْ لَّمْ تَكُنْۢ بَيْنَكُمْ وَبَيْنَهٗ مَوَدَّةٌ يّٰلَيْتَنِيْ كُنْتُ مَعَهُمْ فَاَفُوْزَ فَوْزًا عَظِيْمًا٧٣
Wa la'in aṣābakum faḍlum minallāhi layaqūlanna ka'allam takum bainakum wa bainahū mawaddattuy yā laitanī kuntu ma‘ahum fa afūza fauzan ‘aẓīmā(n).
[73] और यदि तुम्हें अल्लाह का अनुग्रह प्राप्त हो जाए, तो वह अवश्य इस तरह कहेगा मानो तुम्हारे और उसके बीच कोई मित्रता ही नहीं थी कि ऐ काश! मैं भी उनके साथ होता, तो बड़ी सफलता प्राप्त कर लेता!

۞ فَلْيُقَاتِلْ فِيْ سَبِيْلِ اللّٰهِ الَّذِيْنَ يَشْرُوْنَ الْحَيٰوةَ الدُّنْيَا بِالْاٰخِرَةِ ۗ وَمَنْ يُّقَاتِلْ فِيْ سَبِيْلِ اللّٰهِ فَيُقْتَلْ اَوْ يَغْلِبْ فَسَوْفَ نُؤْتِيْهِ اَجْرًا عَظِيْمًا٧٤
Falyuqātil fī sabīlillāhil-lażīna yasytarūnal-ḥayātad-dun-yā bil-ākhirah(ti), wa may yuqātil fī sabīlillāhi fa yuqtal au yaglib fa saufa nu'tīhi ajran ‘aẓīmā(n).
[74] तो जो लोग आख़िरत के बदले सांसारिक जीवन को बेच चुके हैं, उन्हें अल्लाह के मार्ग50 में लड़ना चाहिए। और जो अल्लाह के मार्ग में युद्ध करेगा, चाहे वह मारा जाए अथवा विजयी हो जाए, तो हम उसे बड़ा बदला प्रदान करेंगे।
50. अल्लाह के धर्म को ऊँचा करने, और उसकी रक्षा के लिए। किसी स्वार्थ अथवा किसी देश और सांसारिक धन-धान्य की प्राप्ति के लिए नहीं।

وَمَا لَكُمْ لَا تُقَاتِلُوْنَ فِيْ سَبِيْلِ اللّٰهِ وَالْمُسْتَضْعَفِيْنَ مِنَ الرِّجَالِ وَالنِّسَاۤءِ وَالْوِلْدَانِ الَّذِيْنَ يَقُوْلُوْنَ رَبَّنَآ اَخْرِجْنَا مِنْ هٰذِهِ الْقَرْيَةِ الظَّالِمِ اَهْلُهَاۚ وَاجْعَلْ لَّنَا مِنْ لَّدُنْكَ وَلِيًّاۚ وَاجْعَلْ لَّنَا مِنْ لَّدُنْكَ نَصِيْرًا٧٥
Wa mā lakum lā tuqātilūna fī sabīlillāhi wal-mustaḍ‘afīna minar-rijāli wan-nisā'i wal-wildānil-lażīna yaqūlūna rabbanā akhrijnā min hāżihil-qaryatiẓ-ẓālimi ahluhā, waj‘al lanā mil ladunka waliyyā(n), waj‘al lanā mil ladunka naṣīrā(n).
[75] और तुम्हें क्या हो गया है कि अल्लाह के मार्ग में तथा उन कमज़ोर पुरुषों, स्त्रियों और बच्चों को छुटकारा दिलाने के लिए युद्ध नहीं करते, जो पुकार रहे हैं कि ऐ हमारे पालनहार! हमें इस नगर51 से निकाल दे, जिसके वासी अत्याचारी हैं और हमारे लिए अपनी ओर से कोई रक्षक बना दे और हमारे लिए अपनी ओर से कोई सहायक बना दे?!
51. अर्थात मक्का नगर से। यहाँ इस तथ्य को उजागर कर दिया गया है कि क़ुरआन ने युद्ध का आदेश इसलिए नहीं दिया है कि दूसरों पर अत्याचार किया जाए। बल्कि नृशंसितों तथा निर्बलों की सहायता के लिए दिया है। इसीलिए वह बार-बार कहता है कि "अल्लाह की राह में युद्ध करो", अपने स्वार्थ और मनोकांक्षाओं के लिए नहीं। न्याय तथा सत्य की स्थापना और सुरक्षा के लिए युद्ध करो।

اَلَّذِيْنَ اٰمَنُوْا يُقَاتِلُوْنَ فِيْ سَبِيْلِ اللّٰهِ ۚ وَالَّذِيْنَ كَفَرُوْا يُقَاتِلُوْنَ فِيْ سَبِيْلِ الطَّاغُوْتِ فَقَاتِلُوْٓا اَوْلِيَاۤءَ الشَّيْطٰنِ ۚ اِنَّ كَيْدَ الشَّيْطٰنِ كَانَ ضَعِيْفًا ۚ ࣖ٧٦
Al-lażīna āmanū yuqātilūna fī sabīlillāh(i), wal-lażīna kafarū yuqātilūna fī sabīliṭ-ṭāgūti fa qātilū auliyā'asy-syaiṭān(i), inna kaidasy-syaiṭāni kāna ḍa‘īfā(n).
[76] जो लोग ईमान लाए, वे अल्लाह के मार्ग में युद्ध करते हैं और जो काफ़िर हैं, वे ताग़ूत (शैतान) के मार्ग में युद्ध करते हैं। अतः तुम शैतान के मित्रों से युद्ध करो। निःसंदेह शैतान की चाल कमज़ोर होती है।

اَلَمْ تَرَ اِلَى الَّذِيْنَ قِيْلَ لَهُمْ كُفُّوْٓا اَيْدِيَكُمْ وَاَقِيْمُوا الصَّلٰوةَ وَاٰتُوا الزَّكٰوةَۚ فَلَمَّا كُتِبَ عَلَيْهِمُ الْقِتَالُ اِذَا فَرِيْقٌ مِّنْهُمْ يَخْشَوْنَ النَّاسَ كَخَشْيَةِ اللّٰهِ اَوْ اَشَدَّ خَشْيَةً ۚ وَقَالُوْا رَبَّنَا لِمَ كَتَبْتَ عَلَيْنَا الْقِتَالَۚ لَوْلَآ اَخَّرْتَنَآ اِلٰٓى اَجَلٍ قَرِيْبٍۗ قُلْ مَتَاعُ الدُّنْيَا قَلِيْلٌۚ وَالْاٰخِرَةُ خَيْرٌ لِّمَنِ اتَّقٰىۗ وَلَا تُظْلَمُوْنَ فَتِيْلًا٧٧
Alam tara ilal-lażīna qīla lahum kuffū aidiyakum wa aqīmuṣ-ṣalāta wa ātuz-zakāt(a), fa lammā kutiba ‘alaihimul-qitālu iżā farīqum minhum yakhsyaunan-nāsa kakhasy-yatillāhi au asyadda khasy-yah(tan), wa qālū rabbanā lima katabta ‘alainal-qitāl(a), lau lā akhkhartanā ilā ajalin qarīb(in), qul matā‘ud-dun-yā qalīl(un), wal-ākhiratu khairul limanittaqā, wa lā tuẓlamūna fatīlā(n).
[77] (ऐ नबी!) क्या आपने उनका हाल नहीं देखा, जिनसे कहा गया था कि अपने हाथों को (युद्ध से) रोके रखो, नमाज़ क़ायम करो और ज़कात दो? परंतु जब उनके ऊपर युद्ध को अनिवार्य कर दिया गया, तो देखा गया कि उनमें से एक समूह लोगों से ऐसे डर रहा है, जैसे अल्लाह से डरता है या उससे भी अधिक। तथा वे कहने लगे कि ऐ हमारे पालनहार! तूने हमारे ऊपर युद्ध को क्यों अनिवार्य कर दिया? क्यों न हमें थोड़े दिनों का और अवसर दिया? कह दें कि सांसारिक सुख बहुत थोड़ा है और परलोक उसके लिए अधिक अच्छा है, जो अल्लाह52 से डरे। और तुमपर खजूर की गुठली के धागे के बराबर भी अत्याचार नहीं किया जाएगा।
52. अर्थात परलोक का सुख उसके लिए है, जिसने अल्लाह के आदेशों का पालन किया।

اَيْنَ مَا تَكُوْنُوْا يُدْرِكْكُّمُ الْمَوْتُ وَلَوْ كُنْتُمْ فِيْ بُرُوْجٍ مُّشَيَّدَةٍ ۗ وَاِنْ تُصِبْهُمْ حَسَنَةٌ يَّقُوْلُوْا هٰذِهٖ مِنْ عِنْدِ اللّٰهِ ۚ وَاِنْ تُصِبْهُمْ سَيِّئَةٌ يَّقُوْلُوْا هٰذِهٖ مِنْ عِنْدِكَ ۗ قُلْ كُلٌّ مِّنْ عِنْدِ اللّٰهِ ۗ فَمَالِ هٰٓؤُلَاۤءِ الْقَوْمِ لَا يَكَادُوْنَ يَفْقَهُوْنَ حَدِيْثًا٧٨
Aina mā takūnū yudrikkumul-mautu wa lau kuntum fī burūjim musyayyadah(tin), wa in tuṣibhum ḥasanatuy yaqūlū hāżihī min ‘indillāh(i), wa in tuṣibhum sayyi'atuy yaqūlū hāżihī min ‘indik(a), qul kullum min ‘indillāh(i), famā lihā'ulā'il-qaumi lā yakādūna yafqahūna ḥadīṡā(n).
[78] तुम जहाँ भी रहो, तुम्हें मौत आ पकड़ेगी, यद्यपि मज़बूत दुर्गों में क्यों न रहो। तथा उन्हें यदि कोई भलाई पहुँचती है, तो कहते हैं कि यह अल्लाह की ओर से है और यदि कोई बुराई पहुँचती है, तो कहते हैं कि यह आपके कारण है। (ऐ नबी!) उनसे कह दें कि सब अल्लाह की ओर से है। इन लोगों को क्या हो गया है कि कोई बात समझने के क़रीब ही नहीं53 आते?!
53. भावार्थ यह है कि जब मुसलमानों को कोई हानि हो जाती, तो मुनाफ़िक़ तथा यहूदी कहते : यह सब नबी सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम के कारण हुआ। क़ुरआन कहता है कि सब कुछ अल्लाह की ओर से होता है। अर्थात उसने प्रत्येक दशा तथा परिणाम के लिए कुछ नियम बना दिए हैं। और जो कुछ भी होता है, वह उन्हीं दशाओं का परिणाम होता है। अतः तुम्हारी ये बातें जो कह रहे हो, बड़ी अज्ञानता की बातें हैं।

مَآ اَصَابَكَ مِنْ حَسَنَةٍ فَمِنَ اللّٰهِ ۖ وَمَآ اَصَابَكَ مِنْ سَيِّئَةٍ فَمِنْ نَّفْسِكَ ۗ وَاَرْسَلْنٰكَ لِلنَّاسِ رَسُوْلًا ۗ وَكَفٰى بِاللّٰهِ شَهِيْدًا٧٩
Mā aṣābaka min ḥasanatin fa minallāh(i), wa mā aṣābaka min sayyi'atin fa min nafsik(a), wa arsalnāka lin-nāsi rasūlā(n), wa kafā billāhi syahīdā(n).
[79] तुझे जो भलाई पहुँचती है, वह अल्लाह की ओर से है तथा जो बुराई पहुँचती है, वह ख़ुद तुम्हारे (बुरे कर्मों के) कारण है और हमने आप को सभी लोगों के लिए रसूल (संदेष्टा) बनाकर भेजा54 है और (इस बात के लिए) अल्लाह की गवाही काफ़ी है।
54. इसका भावार्थ यह है कि तुम्हें जो कुछ हानि होती है, वह तुम्हारे कुकर्मों का दुष्परिणाम होता है। इसका आरोप दूसरे पर न धरो। इस्लाम के नबी तो अल्लाह के रसूल हैं और रसूल का काम यही है कि संदेश पहुँचा दें, और तुम्हारा कर्तव्य है कि उनके सभी आदेशों का अनुपालन करो। फिर यदि तुम अवज्ञा करो, और उसका दुष्परिणाम सामने आए, तो दोष तुम्हारा है, न कि इस्लाम के नबी का।

مَنْ يُّطِعِ الرَّسُوْلَ فَقَدْ اَطَاعَ اللّٰهَ ۚ وَمَنْ تَوَلّٰى فَمَآ اَرْسَلْنٰكَ عَلَيْهِمْ حَفِيْظًا ۗ٨٠
May yuṭi‘ir-rasūla faqad aṭā‘allāh(a), wa man tawallā famā arsalnāka ‘alaihim ḥafīẓā(n).
[80] जिसने रसूल की आज्ञा का पालन किया, (वास्तव में) उसने अल्लाह की आज्ञा का पालन किया तथा जिसने मुँह फेर लिया, तो (ऐ नबी!) हमने आपको उनपर संरक्षक बनाकर नहीं भेजा55 है।
55. अर्थात आपका कर्तव्य अल्लाह का संदेश पहुँचाना है, उनके कर्मों तथा उन्हें सीधी डगर पर लगा देने का दायित्व आप पर नहीं है।

وَيَقُوْلُوْنَ طَاعَةٌ ۖ فَاِذَا بَرَزُوْا مِنْ عِنْدِكَ بَيَّتَ طَاۤىِٕفَةٌ مِّنْهُمْ غَيْرَ الَّذِيْ تَقُوْلُ ۗ وَاللّٰهُ يَكْتُبُ مَا يُبَيِّتُوْنَ ۚ فَاَعْرِضْ عَنْهُمْ وَتَوَكَّلْ عَلَى اللّٰهِ ۗ وَكَفٰى بِاللّٰهِ وَكِيْلًا٨١
Wa yaqūlūna ṭā‘ah(tun), fa iżā barazū min ‘indika bayyata ṭā'ifatum minhum gairal-lażī taqūl(u), wallāhu yaktubu mā yubayyitūn(a), fa a‘riḍ ‘anhum wa tawakkal ‘alallāh(i), wa kafā billāhi wakīlā(n).
[81] तथा वे (आपके सामने) कहते हैं कि हम आज्ञाकारी हैं। परन्तु, जब वे आपके पास से चले जाते हैं, तो उनमें से एक गिरोह, आपकी बात के विरुद्ध रात में षड्यंत्र करता है। जो कुछ वे षड्यंत्र करते है, अल्लाह उसे लिख रहा है। अतः आप उनसे मुँह फेर लें और अल्लाह पर भरोसा रखें, तथा अल्लाह का कार्यसाधक होना काफ़ी है।

اَفَلَا يَتَدَبَّرُوْنَ الْقُرْاٰنَ ۗ وَلَوْ كَانَ مِنْ عِنْدِ غَيْرِ اللّٰهِ لَوَجَدُوْا فِيْهِ اخْتِلَافًا كَثِيْرًا٨٢
Afalā yatadabbarūnal-qur'ān(a), wa lau kāna min ‘indi gairillāhi lawajadū fīhikhtilāfan kaṡīrā(n).
[82] तो क्या वे क़ुरआन पर चिंतन मनन नहीं करते? यदि वह अल्लाह के सिवा किसी और की ओर से होता, तो वे उसमें बहुत-सा अंतर्विरोध (असंगति) पाते।56
56. अर्थात जो व्यक्ति क़ुरआन पर चिंतन करेगा, उसपर यह तथ्य खुल जाएगा कि क़ुरआन अल्लाह की वाणी है।

وَاِذَا جَاۤءَهُمْ اَمْرٌ مِّنَ الْاَمْنِ اَوِ الْخَوْفِ اَذَاعُوْا بِهٖ ۗ وَلَوْ رَدُّوْهُ اِلَى الرَّسُوْلِ وَاِلٰٓى اُولِى الْاَمْرِ مِنْهُمْ لَعَلِمَهُ الَّذِيْنَ يَسْتَنْۢبِطُوْنَهٗ مِنْهُمْ ۗ وَلَوْلَا فَضْلُ اللّٰهِ عَلَيْكُمْ وَرَحْمَتُهٗ لَاتَّبَعْتُمُ الشَّيْطٰنَ اِلَّا قَلِيْلًا٨٣
Wa iżā jā'ahum amrum minal-amni awil-khaufi ażā‘ū bih(ī), wa lau ruddūhu ilar-rasūli wa ilā ulil-amri minhum la‘alimahul-lażīna yastambiṭūnahū minhum, wa lau lā faḍlullāhi ‘alaikum wa raḥmatuhū lattaba‘tumusy-syaiṭāna illā qalīlā(n).
[83] और जब उनके पास सुरक्षा या भय की कोई सूचना आती है, तो उसे चारों ओर फैला देते हैं। हालाँकि, यदि वे उसे अल्लाह के रसूल तथा अपने में से प्राधिकारियों की ओर लौटा देते, तो उनमें से जो लोग उसका सही निष्कर्ष निकाल सकते हैं, उसकी वास्तविकता को अवश्य जान लेते। और यदि तुमपर अल्लाह की अनुकंपा तथा दया न होती, तो तुममें से कुछ को छोड़कर, सब शैतान का अनुसरण करने लगते।57
57. इस आयत द्वारा यह निर्देश दिया जा रहा है कि जब भी साधारण शांति या भय की कोई सूचना मिले तो उसे अधिकारियों तथा शासकों तक पहुँचा दिया जाए।

فَقَاتِلْ فِيْ سَبِيْلِ اللّٰهِ ۚ لَا تُكَلَّفُ اِلَّا نَفْسَكَ وَحَرِّضِ الْمُؤْمِنِيْنَ ۚ عَسَى اللّٰهُ اَنْ يَّكُفَّ بَأْسَ الَّذِيْنَ كَفَرُوْا ۗوَاللّٰهُ اَشَدُّ بَأْسًا وَّاَشَدُّ تَنْكِيْلًا٨٤
Faqātil fī sabīlillāh(i), lā tukallafu illā nafsaka wa ḥarriḍil-mu'minīn(a), ‘asallāhu ay yakuffa ba'sal lażīna kafarū, wallāhu asyaddu ba'saw wa asyaddu tankīlā(n).
[84] अतः (ऐ नबी!) आप अल्लाह के मार्ग में युद्ध करें। आपपर अपने सिवा किसी और की ज़िम्मेदारी नहीं है। तथा ईमान वालों को (युद्ध के लिए) उभारें। संभव है कि अल्लाह काफ़िरों का बल तोड़ दे। अल्लाह बड़ा शक्तिशाली और बहुत कठोर दंड देने वाला है।

مَنْ يَّشْفَعْ شَفَاعَةً حَسَنَةً يَّكُنْ لَّهٗ نَصِيْبٌ مِّنْهَا ۚ وَمَنْ يَّشْفَعْ شَفَاعَةً سَيِّئَةً يَّكُنْ لَّهٗ كِفْلٌ مِّنْهَا ۗ وَكَانَ اللّٰهُ عَلٰى كُلِّ شَيْءٍ مُّقِيْتًا٨٥
May yasyfa‘ syafā‘atan ḥasanatay yakul lahū naṣībum minhā, wa may yasyfa‘ syafā‘atan sayyi'atay yakul lahū kiflum minhā, wa kānallāhu ‘alā kulli syai'im muqītā(n).
[85] जो अच्छी सिफ़ारिश करेगा, उसके लिए उसमें से हिस्सा होगा तथा जो बुरी सिफ़ारिश करेगा, उसके लिए उसमें से हिस्सा58 होगा, और अल्लाह प्रत्येक चीज़ का साक्षी व संरक्षक है।
58. आयत का भावार्थ यह है कि अच्छाई तथा बुराई में किसी की सहायता करने का भी पुण्य और पाप मिलता है।

وَاِذَا حُيِّيْتُمْ بِتَحِيَّةٍ فَحَيُّوْا بِاَحْسَنَ مِنْهَآ اَوْ رُدُّوْهَا ۗ اِنَّ اللّٰهَ كَانَ عَلٰى كُلِّ شَيْءٍ حَسِيْبًا٨٦
Wa iżā ḥuyyītum bitaḥiyyatin fa ḥayyū bi'aḥsana minhā au ruddūhā, innallāha kāna ‘alā kulli syai'in ḥasībā(n).
[86] और जब तुमसे सलाम किया जाए, तो उससे अच्छा उत्तर दो अथवा उसी को दोहरा दो। निःसंदेह अल्लाह प्रत्येक चीज़ का ह़िसाब लेने वाला है।

اَللّٰهُ لَآ اِلٰهَ اِلَّا هُوَۗ لَيَجْمَعَنَّكُمْ اِلٰى يَوْمِ الْقِيٰمَةِ لَا رَيْبَ فِيْهِ ۗ وَمَنْ اَصْدَقُ مِنَ اللّٰهِ حَدِيْثًا ࣖ٨٧
Allāhu lā ilāha illā huw(a), layajma‘annakum ilā yaumil-qiyāmati lā raiba fīh(i), wa man aṣdaqu minallāhi ḥadīṡā(n).
[87] अल्लाह के सिवा कोई सच्चा पूज्य नहीं, वह तुम्हें प्रलय के दिन अवश्य एकत्र करेगा, जिसमें कोई संदेह नहीं, तथा अल्लाह से अधिक सच्ची बात वाला और कौन होगा?

۞ فَمَا لَكُمْ فِى الْمُنٰفِقِيْنَ فِئَتَيْنِ وَاللّٰهُ اَرْكَسَهُمْ بِمَا كَسَبُوْا ۗ اَتُرِيْدُوْنَ اَنْ تَهْدُوْا مَنْ اَضَلَّ اللّٰهُ ۗوَمَنْ يُّضْلِلِ اللّٰهُ فَلَنْ تَجِدَ لَهٗ سَبِيْلًا٨٨
Famā lakum fil-munāfiqīna fi'ataini wallāhu arkasahum bimā kasabū, aturīdūna an tahdū man aḍallallāh(u), wa may yuḍlilillāhu falan tajida lahū sabīlā(n).
[88] तुम्हें क्या हो गया है कि मुनाफ़िक़ों के बारे में दो पक्ष59 बन गए हो, जबकि अल्लाह ने उनकी करतूतों के कारण उन्हें उल्टा फेर दिया है? क्या तुम उसे सही रास्ता दिखाना चाहते हो, जिसे अल्लाह ने पथभ्रष्ट कर दिया है? और जिसे अल्लाह पथभ्रष्ट कर दे, तुम उसके लिए कदापि कोई रास्ता नहीं पाओगे।
59. मक्का वासियों में कुछ अपने स्वार्थ के लिए मौखिक मुसलमान हो गए थे, और जब युद्ध आरंभ हुआ तो उनके बारे में मुसलमानों के दो विचार हो गए। कुछ उन्हें अपना मित्र और कुछ उन्हें अपना शत्रु समझ रहे थे। अल्लाह ने यहाँ बता दिया कि वे लोग मुनाफ़िक़ हैं। जब तक मक्का से हिजरत करके मदीना में न आ जाएँ, और शत्रु ही के साथ रह जाएँ, उन्हें भी शत्रु समझा जाएगा। ये वह मुनाफ़िक़ नहीं हैं जिनकी चर्चा पहले की गई है, ये मक्का के विशेष मुनाफ़िक़ हैं, जिनसे युद्ध की स्थिति में कोई मित्रता की जा सकती थी, और न ही उनसे कोई संबंध रखा जा सकता था।

وَدُّوْا لَوْ تَكْفُرُوْنَ كَمَا كَفَرُوْا فَتَكُوْنُوْنَ سَوَاۤءً فَلَا تَتَّخِذُوْا مِنْهُمْ اَوْلِيَاۤءَ حَتّٰى يُهَاجِرُوْا فِيْ سَبِيْلِ اللّٰهِ ۗ فَاِنْ تَوَلَّوْا فَخُذُوْهُمْ وَاقْتُلُوْهُمْ حَيْثُ وَجَدْتُّمُوْهُمْ ۖ وَلَا تَتَّخِذُوْا مِنْهُمْ وَلِيًّا وَّلَا نَصِيْرًاۙ٨٩
Waddū lau takfurūna kamā kafarū fa takūnūna sawā'an falā tattakhiżū minhum auliyā'a ḥattā yuhājirū fī sabīlillāh(i), fa in tawallau fa khużūhum waqtulūhum ḥaiṡu wajattumūhum, wa lā tattakhiżū minhum waliyyaw wa lā naṣīrā(n).
[89] (ऐ ईमान वालो!) वे चाहते हैं कि जिस तरह वे काफ़िर हो गए, तुम भी काफ़िर हो जाओ ताकि तुम उनके बराबर हो जाओ। अतः तुम उनमें से किसी को मित्र न बनाओ, जब तक वे अल्लाह की राह में हिजरत न करें। यदि वे इससे मुँह फेरें, तो जहाँ भी पाओ, उन्हें पकड़ो और क़त्ल करो और उनमें से किसी को अपना मित्र और सहायक न बनाओ।

اِلَّا الَّذِيْنَ يَصِلُوْنَ اِلٰى قَوْمٍۢ بَيْنَكُمْ وَبَيْنَهُمْ مِّيْثَاقٌ اَوْ جَاۤءُوْكُمْ حَصِرَتْ صُدُوْرُهُمْ اَنْ يُّقَاتِلُوْكُمْ اَوْ يُقَاتِلُوْا قَوْمَهُمْ ۗ وَلَوْ شَاۤءَ اللّٰهُ لَسَلَّطَهُمْ عَلَيْكُمْ فَلَقَاتَلُوْكُمْ ۚ فَاِنِ اعْتَزَلُوْكُمْ فَلَمْ يُقَاتِلُوْكُمْ وَاَلْقَوْا اِلَيْكُمُ السَّلَمَ ۙ فَمَا جَعَلَ اللّٰهُ لَكُمْ عَلَيْهِمْ سَبِيْلًا٩٠
Illal lażīna yaṣilūna ilā qaumim bainakum wa bainahum mīṡāqun au jā'ūkum ḥaṣirat ṣudūruhum ay yuqātilūkum au yuqātilū qaumahum, wa lau syā'allāhu lasallaṭahum ‘alaikum fa laqātalūkum, fa ini‘tazalūkum falam yuqātilūkum wa alqau ilaikumus-salam(a), famā ja‘alallāhu lakum ‘alaihim sabīlā(n).
[90] परंतु उनमें से जो लोग किसी ऐसी क़ौम से जा मिलें, जिनके और तुम्हारे बीच समझौता हो, या वे लोग जो तुम्हारे पास इस अवस्था में आएँ कि उनके दिल इस बात से तंग हो रहे हों कि वे तुमसे युद्ध करें अथवा (तुम्हारे साथ मिलकर) अपनी जाति से युद्ध करें। और यदि अल्लाह चाहता, तो उन्हें तुमपर हावी कर देता, फिर वे तुमसे ज़रूर युद्ध करते। अतः यदि वे तुमसे अलग रहें और तुमसे युद्ध न करें और संधि के लिए तुम्हारी ओर हाथ बढ़ाएँ, तो अल्लाह ने उनके विरुद्ध् तुम्हारे लिए (युद्ध का) कोई रास्ता नहीं बनाया60 है।
60. अर्थात इस्लाम में युद्ध का आदेश उनके विरुद्ध दिया गया है, जो इस्लाम के विरुद्ध युद्ध कर रहे हों। अन्यथा, उनसे युद्ध करने का कोई कारण नहीं रह जाता क्योंकि मूल चीज़ शांति तथा संधि है, युद्ध और हत्या नहीं।

سَتَجِدُوْنَ اٰخَرِيْنَ يُرِيْدُوْنَ اَنْ يَّأْمَنُوْكُمْ وَيَأْمَنُوْا قَوْمَهُمْ ۗ كُلَّ مَا رُدُّوْٓا اِلَى الْفِتْنَةِ اُرْكِسُوْا فِيْهَا ۚ فَاِنْ لَّمْ يَعْتَزِلُوْكُمْ وَيُلْقُوْٓا اِلَيْكُمُ السَّلَمَ وَيَكُفُّوْٓا اَيْدِيَهُمْ فَخُذُوْهُمْ وَاقْتُلُوْهُمْ حَيْثُ ثَقِفْتُمُوْهُمْ ۗ وَاُولٰۤىِٕكُمْ جَعَلْنَا لَكُمْ عَلَيْهِمْ سُلْطٰنًا مُّبِيْنًا ࣖ٩١
Satajidūna akharīna yurīdūna ay ya'manūkum wa ya'manū qaumahum, kullamā ruddū ilal-fitnati urkisū fīhā, fa illam ya‘tazilūkum wa yulqū ilaikumus-salama wa yakuffū aidiyahum fa khużūhum waqtulūhum ḥaiṡu ṡaqiftumūhum, wa ulā'ikum ja‘alnā lakum ‘alaihim sulṭānam mubīnā(n).
[91] तथा तुम कुछ दूसरे लोगों को ऐसा भी पाओगे, जो चाहते हैं कि तुम्हारी ओर से निश्चिन्त रहें और अपनी क़ौम की ओर से भी निश्चिन्त रहें। परन्तु जब भी वे उपद्रव की ओर लौटाए जाते हैं, तो उसमें औंधे मुँह जा गिरते हैं। यदि वे तुमसे अलग-थलग न रहें और तुम्हारी ओर संधि का हाथ न बढ़ाएँ, और अपने हाथ न रोकें, तो तुम उन्हें पकड़ो और क़त्ल करो जहाँ कहीं भी पाओ। यही लोग हैं, जिनके विरुद्ध हमने तुम्हें स्पष्ट तर्क दिया है।

وَمَا كَانَ لِمُؤْمِنٍ اَنْ يَّقْتُلَ مُؤْمِنًا اِلَّا خَطَـًٔا ۚ وَمَنْ قَتَلَ مُؤْمِنًا خَطَـًٔا فَتَحْرِيْرُ رَقَبَةٍ مُّؤْمِنَةٍ وَّدِيَةٌ مُّسَلَّمَةٌ اِلٰٓى اَهْلِهٖٓ اِلَّآ اَنْ يَّصَّدَّقُوْا ۗ فَاِنْ كَانَ مِنْ قَوْمٍ عَدُوٍّ لَّكُمْ وَهُوَ مُؤْمِنٌ فَتَحْرِيْرُ رَقَبَةٍ مُّؤْمِنَةٍ ۗوَاِنْ كَانَ مِنْ قَوْمٍۢ بَيْنَكُمْ وَبَيْنَهُمْ مِّيْثَاقٌ فَدِيَةٌ مُّسَلَّمَةٌ اِلٰٓى اَهْلِهٖ وَتَحْرِيْرُ رَقَبَةٍ مُّؤْمِنَةٍ ۚ فَمَنْ لَّمْ يَجِدْ فَصِيَامُ شَهْرَيْنِ مُتَتَابِعَيْنِۖ تَوْبَةً مِّنَ اللّٰهِ ۗوَكَانَ اللّٰهُ عَلِيْمًا حَكِيْمًا٩٢
Wa mā kāna limu'minin ay yaqtula mu'minan illā khaṭa'ā(n), wa man qatala mu'minan khaṭa'an fa taḥrīru raqabatim mu'minatiw wa diyatum musallamatun ilā ahlihī illā ay yaṣṣaddaqū, fa in kāna min qaumim bainakum wa bainahum mīṡāqun fa diyatum musallamatun ilā ahlihī wa taḥrīru raqabatim mu'minah(tin), famal lam yajid fa ṣiyāmu syahraini mutatābi‘aini taubatam minallāh(i), wa kānallāhu ‘alīman ḥakīmā(n).
[92] किसी ईमान वाले के लिए शोभनीय नहीं कि वह किसी ईमान वाले की हत्या कर दे, परंतु यह कि चूक से61 ऐसा हो जाए। जो व्यक्ति किसी ईमान वाले की गलती से हत्या कर दे, वह एक ईमान वाला दास मुक्त करे और उस (हत) के वारिसों को दियत (हत्या का अर्थदंड)62 पहुँचाए, परंतु यह कि वे क्षमा कर दें। फिर यदि वह (हत) तुम्हारी शत्रु क़ौम से हो और वह (ख़ुद) ईमान वाला हो, तो केवल एक ईमान वाला दास मुक्त करना ज़रूरी है। और यदि वह ऐसी क़ौम से हो, जिसके और तुम्हारे बीच समझौता हो, तो उसके घर वालों को हत्या का अर्थदंड पहुँचाया जाए तथा एक ईमान वाला दास मुक्त करना ज़रूरी है। फिर जो (दास) न पाए, वह निरंतर दो महीने रोज़े रखे। अल्लाह की ओर से (उसके पाप की) यही क्षमा है और अल्लाह सब कुछ जानने वाला, हिकमत वाला है।
61. अर्थात निशाना चूक कर उसे लग जाए। 62. यह अर्थदंड सौ ऊँट अथवा उनका मूल्य है। आयत का भावार्थ यह है कि जिनकी हत्या करने का आदेश दिया गया है, वह केवल इस लिए दिया गया है कि उन्होंने इस्लाम तथा मुसलमानों के विरुद्ध युद्ध आरंभ कर दिया है। अन्यथा, यदि युद्ध की स्थिति न हो, तो हत्या एक महापाप है। और किसी मुसलमान के लिए कदापि यह वैध नहीं कि किसी मुसलमान की, या जिससे समझौता हो, उसकी जान बूझकर हत्या कर दे। संधि मित्र से अभिप्राय वे सभी ग़ैर मुस्लिम हैं, जिनसे मुसलमानों का युद्ध न हो, संधि तथा संविदा हो। फिर यदि चूक से किसी ने किसी की हत्या कर दी, तो उसका यह आदेश है, जो इस आयत में बताया गया है। यह ज्ञातव्य है कि क़ुरआन ने केवल दो ही स्थिति में हत्या को उचित किया है : युद्ध की स्थिति में, अथवा नियमानुसार किसी अपराधी की हत्या की जाए। जैसे हत्यारे को हत्या के बदले हत किया जाए।

وَمَنْ يَّقْتُلْ مُؤْمِنًا مُّتَعَمِّدًا فَجَزَاۤؤُهٗ جَهَنَّمُ خَالِدًا فِيْهَا وَغَضِبَ اللّٰهُ عَلَيْهِ وَلَعَنَهٗ وَاَعَدَّ لَهٗ عَذَابًا عَظِيْمًا٩٣
Wa may yaqtul mu'minam muta‘ammidan fa jazā'uhū jahannamu khālidan fīhā wa gaḍiballāhu ‘alaihi wa la‘anahū wa a‘adda lahū ‘ażāban ‘aẓīmā(n).
[93] और जो किसी ईमान वाले की जानबूझकर हत्या कर दे, उसका बदला नरक है, जिसमें वह हमेशा रहेगा और उसपर अल्लाह का क्रोध तथा धिक्कार है और अल्लाह ने उसके लिए बड़ी यातना तैयार कर रखी है।

يٰٓاَيُّهَا الَّذِيْنَ اٰمَنُوْٓا اِذَا ضَرَبْتُمْ فِيْ سَبِيْلِ اللّٰهِ فَتَبَيَّنُوْا وَلَا تَقُوْلُوْا لِمَنْ اَلْقٰىٓ اِلَيْكُمُ السَّلٰمَ لَسْتَ مُؤْمِنًاۚ تَبْتَغُوْنَ عَرَضَ الْحَيٰوةِ الدُّنْيَا ۖفَعِنْدَ اللّٰهِ مَغَانِمُ كَثِيْرَةٌ ۗ كَذٰلِكَ كُنْتُمْ مِّنْ قَبْلُ فَمَنَّ اللّٰهُ عَلَيْكُمْ فَتَبَيَّنُوْاۗ اِنَّ اللّٰهَ كَانَ بِمَا تَعْمَلُوْنَ خَبِيْرًا٩٤
Yā ayyuhal-lażīna āmanū iżā ḍarabtum fī sabīlillāhi fa tabayyanū wa lā taqūlū liman alqā ilaikumus-salāma lasta mu'minā(n), tabtagūna ‘araḍal-ḥayātid-dun-yā, fa ‘indallāhi magānimu kaṡīrah(tun), każālika kuntum min qablu fa mannallāhu ‘alaikum fa tabayyanū, innallāha kāna bimā ta‘malūna khabīrā(n).
[94] ऐ ईमान वालो! जब तुम अल्लाह के मार्ग में (जिहाद के लिए) निकलो, तो छानबीन63 कर लिया करो। और जो तुम्हें सलाम64 करे, उसे यह न कहो कि तुम ईमान वाले नहीं हो। तुम सांसारिक जीवन का सामान चाहते हो, तो अल्लाह के पास बहुत-सी ग़नीमतें हैं। पहले तुम भी ऐसे65 ही थे, फिर अल्लाह ने तुमपर उपकार किया। अतः ठीक से छानबीन कर लिया करो। निःसंदेह अल्लाह तुम्हारे कर्मों से सूचित है।
63. अर्थात यह कि वह शत्रु हैं या मित्र हैं। 64. सलाम करना मुसलमान होने का एक लक्षण है। 65. अर्थात इस्लाम के शब्द के सिवा तुम्हारे पास इस्लाम का कोई चिह्न नहीं था। इब्ने अब्बास रज़ियल्लाहु अन्हुमा कहते हैं कि रात के समय एक व्यक्ति यात्रा कर रहा था। जब उससे कुछ मुसलमान मिले तो उसने अस्सलामु अलैकुम कहा। फिर भी एक मुसलमान ने उसे झूठा समझकर मार दिया। इसी पर यह आयत उतरी। जब नबी सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम को इसका पता चला, तो आप बहुत नाराज़ हुए। (इब्ने कसीर)

لَا يَسْتَوِى الْقٰعِدُوْنَ مِنَ الْمُؤْمِنِيْنَ غَيْرُ اُولِى الضَّرَرِ وَالْمُجٰهِدُوْنَ فِيْ سَبِيْلِ اللّٰهِ بِاَمْوَالِهِمْ وَاَنْفُسِهِمْۗ فَضَّلَ اللّٰهُ الْمُجٰهِدِيْنَ بِاَمْوَالِهِمْ وَاَنْفُسِهِمْ عَلَى الْقٰعِدِيْنَ دَرَجَةً ۗ وَكُلًّا وَّعَدَ اللّٰهُ الْحُسْنٰىۗ وَفَضَّلَ اللّٰهُ الْمُجٰهِدِيْنَ عَلَى الْقٰعِدِيْنَ اَجْرًا عَظِيْمًاۙ٩٥
Lā yastawil-qā‘idūna minal-mu'minīna gairu uliḍ-ḍarari wal-mujāhidūna fī sabīlillāhi bi'amwālihim wa anfusihim, faḍḍalallāhul-mujāhidīna bi amwālihim wa anfusihim ‘alal-qā‘idīna darajah(tan), wa kullaw wa‘adallāhul-ḥusnā, wa faḍḍalallāhul-mujāhidīna ‘alal-qā‘idīna ajran ‘aẓīmā(n).
[95] बिना किसी उज़्र (कारण) के बैठे रहने वाले मोमिन और अल्लाह की राह में अपने धनों और प्राणों के साथ जिहाद करने वाले, बराबर नहीं हो सकते। अल्लाह ने अपने धनों तथा प्राणों के साथ जिहाद करने वालों को पद के एतिबार से, जिहाद से बैठे रहने वालों पर प्रधानता प्रदान किया है। जबकि अल्लाह ने सब के साथ भलाई का वादा किया है।तथा अल्लाह ने जिहाद करने वालों को महान प्रतिफल देकर, जिहाद से बैठे रहने वालों पर वरीयता प्रदान किया है।

دَرَجٰتٍ مِّنْهُ وَمَغْفِرَةً وَّرَحْمَةً ۗوَكَانَ اللّٰهُ غَفُوْرًا رَّحِيْمًا ࣖ٩٦
Darajātim minhu wa magfirataw wa raḥmah(tan), wa kānallāhu gafūrar raḥīmā(n).
[96] (यह सवाब) अल्लाह की ओर से दर्जे (पद) है, तथा क्षमा और दयालुता है, और अल्लाह बहुत क्षमा करने वाला, अत्यंत दयावान् है।

اِنَّ الَّذِيْنَ تَوَفّٰىهُمُ الْمَلٰۤىِٕكَةُ ظَالِمِيْٓ اَنْفُسِهِمْ قَالُوْا فِيْمَ كُنْتُمْ ۗ قَالُوْا كُنَّا مُسْتَضْعَفِيْنَ فِى الْاَرْضِۗ قَالُوْٓا اَلَمْ تَكُنْ اَرْضُ اللّٰهِ وَاسِعَةً فَتُهَاجِرُوْا فِيْهَا ۗ فَاُولٰۤىِٕكَ مَأْوٰىهُمْ جَهَنَّمُ ۗ وَسَاۤءَتْ مَصِيْرًاۙ٩٧
Innal-lażīna tawaffāhumul-malā'ikatu ẓālimī anfusihim qālū fīma kuntum, qālū kunnā mustaḍ‘afīna fil-arḍ(i), qālū alam takun arḍullāhi wāsi‘atan fa tuhājirū fīhā, fa ulā'ika ma'wāhum jahannam(u), wa sā'at maṣīrā(n).
[97] निःसंदेह फ़रिश्ते जिन लोगों के प्राण इस हाल में निकालते हैं कि वे (कुफ़्र के देश से हिजरत न करके) अपने ऊपर अत्याचार करने वाले होते हैं, तो उनसे पूछते हैं कि तुम किस हाल में थे? वे कहते हैं : हम धरती में कमज़ोर थे। तब फ़रिश्ते कहते हैं : क्या अल्लाह की धरती विशाल न थी कि तुम उसमें हिजरत कर66 जाते? सो यही लोग हैं जिनका ठिकाना जहन्नम है और वह बहुत बुरा ठिकाना है!
66. जब सत्य के विरोधियों के अत्याचार से विवश होकर नबी सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम मदीना हिजरत (प्रस्थान) कर गए, तो अरब में दो प्रकार के देश हो गए : मदीना दारुल-हिजरत (प्रवास गृह) था, जिसमें मुसलमान हिजरत करके एकत्र हो गए। तथा दारुल ह़र्ब। अर्थात् वह क्षेत्र जो शत्रुओं के नियंत्रण में था। जिसका केंद्र मक्का था। यहाँ जो मुसलमान थे वे अपनी आस्था तथा धार्मिक कर्म से वंचित थे। उन्हे शत्रु का अत्याचार सहना पड़ता था। इसलिए उन्हें यह आदेश दिया गया था कि मदीना हिजरत कर जाएँ। और यदि वे शक्ति रखते हुए हिजरत नहीं करेंगे, तो अपने इस आलस्य के लिए उत्तरदायी होंगे। इसके पश्चात् आगामी आयत में उनकी चर्चा की जा रही है, जो हिजरत करने से विवश थे। मक्का से मदीना हिजरत करने का यह आदेश मक्का की विजय सन् 8 हिजरी के पश्चात् निरस्त कर दिया गया। इब्ने अब्बास रज़ियल्लाहु अन्हु कहते हैं कि नबी सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम के युग में कुछ मुसलमान काफ़िरों की संख्या बढ़ाने के लिए उनके साथ हो जाते थे। और तीर या तलवार लगने से मारे जाते थे, उन्हीं के बारे में यह आयत उतरी। (सह़ीह़ बुख़ारी : 4596)

اِلَّا الْمُسْتَضْعَفِيْنَ مِنَ الرِّجَالِ وَالنِّسَاۤءِ وَالْوِلْدَانِ لَا يَسْتَطِيْعُوْنَ حِيْلَةً وَّلَا يَهْتَدُوْنَ سَبِيْلًاۙ٩٨
Illal-mustaḍ‘afīna minar-rijāli wan-nisā'i wal-wildāni lā yastaṭī‘ūna ḥīlataw wa lā yahtadūna sabīlā(n).
[98] सिवाय उन असहाय पुरुषों, स्त्रियों और बच्चों के जो कोई उपाय नहीं कर सकते और न (वहाँ से निकलने का) कोई रास्ता पाते हैं।

فَاُولٰۤىِٕكَ عَسَى اللّٰهُ اَنْ يَّعْفُوَ عَنْهُمْ ۗ وَكَانَ اللّٰهُ عَفُوًّا غَفُوْرًا٩٩
Fa ulā'ika ‘asallāhu ay ya‘fuwa ‘anhum, wa kānallāhu ‘afuwwan gafūrā(n).
[99] तो निश्चय अल्लाह उन्हें क्षमा कर देगा। निःसंदेह अल्लाह बहुत माफ़ करने वाला, क्षमाशील है।

۞ وَمَنْ يُّهَاجِرْ فِيْ سَبِيْلِ اللّٰهِ يَجِدْ فِى الْاَرْضِ مُرٰغَمًا كَثِيْرًا وَّسَعَةً ۗوَمَنْ يَّخْرُجْ مِنْۢ بَيْتِهٖ مُهَاجِرًا اِلَى اللّٰهِ وَرَسُوْلِهٖ ثُمَّ يُدْرِكْهُ الْمَوْتُ فَقَدْ وَقَعَ اَجْرُهٗ عَلَى اللّٰهِ ۗوَكَانَ اللّٰهُ غَفُوْرًا رَّحِيْمًا ࣖ١٠٠
Wa may yuhājir fī sabīlillāhi yajid fil-arḍi murāgaman kaṡīraw wa sa‘ah(tan), wa may yakhruj mim baitihī muhājiran ilallāhi wa rasūlihī ṡumma yudrik-hul-mautu faqad waqa‘a ajruhū ‘alallāh(i), wa kānallāhu gafūrar raḥīmā(n).
[100] तथा जो कोई अल्लाह के मार्ग में हिजरत करेगा, वह धरती में बहुत-से प्रवास स्थान तथा समाई (विस्तार) पाएगा। और जो व्यक्ति अपने घर से अल्लाह और उसके रसूल की ओर हिजरत की खातिर निकले, फिर उसे (रास्ते ही में) मौत आ जाए, तो उसका बदला अल्लाह के पास निश्चित हो गया और अल्लाह अति क्षमाशील, दयावान् है।

وَاِذَا ضَرَبْتُمْ فِى الْاَرْضِ فَلَيْسَ عَلَيْكُمْ جُنَاحٌ اَنْ تَقْصُرُوْا مِنَ الصَّلٰوةِ ۖ اِنْ خِفْتُمْ اَنْ يَّفْتِنَكُمُ الَّذِيْنَ كَفَرُوْاۗ اِنَّ الْكٰفِرِيْنَ كَانُوْا لَكُمْ عَدُوًّا مُّبِيْنًا١٠١
Wa iżā ḍarabtum fil-arḍi fa laisa ‘alaikum junāḥun an taqṣurū minaṣ-ṣalāh(ti), in khiftum ay yaftinakumul-lażīna kafarū, innal-kāfirīna kānū lakum ‘aduwwam mubīnā(n).
[101] और जब तुम धरती में यात्रा करो, तो नमाज़ क़स्र67 (संक्षिप्त) करने में तुमपर कोई गुनाह नहीं है, यदि तुम्हें डर हो कि काफ़िर तुम्हें कष्ट पहुँचाएँगे। वास्तव में, काफ़िर तुम्हारे खुले दुश्मन हैं।
67. क़स्र का अर्थ चार रक्अत वाली नमाज़ को दो रक्अत पढ़ना है। यह अनुमति प्रत्येक यात्रा के लिए है, शत्रु का भय हो, या न हो।

وَاِذَا كُنْتَ فِيْهِمْ فَاَقَمْتَ لَهُمُ الصَّلٰوةَ فَلْتَقُمْ طَاۤىِٕفَةٌ مِّنْهُمْ مَّعَكَ وَلْيَأْخُذُوْٓا اَسْلِحَتَهُمْ ۗ فَاِذَا سَجَدُوْا فَلْيَكُوْنُوْا مِنْ وَّرَاۤىِٕكُمْۖ وَلْتَأْتِ طَاۤىِٕفَةٌ اُخْرٰى لَمْ يُصَلُّوْا فَلْيُصَلُّوْا مَعَكَ وَلْيَأْخُذُوْا حِذْرَهُمْ وَاَسْلِحَتَهُمْ ۚ وَدَّ الَّذِيْنَ كَفَرُوْا لَوْ تَغْفُلُوْنَ عَنْ اَسْلِحَتِكُمْ وَاَمْتِعَتِكُمْ فَيَمِيْلُوْنَ عَلَيْكُمْ مَّيْلَةً وَّاحِدَةً ۗوَلَا جُنَاحَ عَلَيْكُمْ اِنْ كَانَ بِكُمْ اَذًى مِّنْ مَّطَرٍ اَوْ كُنْتُمْ مَّرْضٰٓى اَنْ تَضَعُوْٓا اَسْلِحَتَكُمْ وَخُذُوْا حِذْرَكُمْ ۗ اِنَّ اللّٰهَ اَعَدَّ لِلْكٰفِرِيْنَ عَذَابًا مُّهِيْنًا١٠٢
Wa iżā kunta fīhim fa aqamta lahumuṣ-ṣalāta faltaqum ṭā'ifatum minhum ma‘aka walya'khużū asliḥatahum, fa iżā sajadū falyakūnū miw warā'ikum, walta'ti ṭā'ifatun ukhrā lam yuṣallū falyuṣallū ma‘aka walya'khużū ḥiżrahum wa asliḥatahum, waddal-lażīna kafarū lau tagfulūna ‘an asliḥatakum wa amti‘atikum, fa yamīlūna ‘alaikum mailataw wāḥidah(tan), wa lā junāḥa ‘alaikum in kāna bikum ażam mim maṭarin au kuntum marḍā an taḍa‘ū asliḥatakum wa khużū ḥiżrakum, innallāha a‘adda lil-kāfirīna ‘ażābam muhīnā(n).
[102] तथा (ऐ नबी!) जब आप (युद्ध के मैदान में) उनके साथ मौजूद हों और उनके लिए नमाज़68 क़ायम करें, तो उनका एक गिरोह आपके साथ खड़ा हो जाए और वे अपने हथियार लिए रहें और जब वे सज्दा कर लें, तो तुम्हारे पीछे हो जाएँ तथा दूसरा गिरोह आए, जिसने नमाज़ नहीं पढ़ी है और वे तुम्हारे साथ नमाज़ पढ़ें और अपने हथियार लिए सावधान रहें। काफ़िर चाहते हैं कि तुम अपने हथियारों और अपने सामान से असावधान हो जाओ, तो तुमपर यकायक धावा बोल दें। तथा तुमपर कोई दोष नहीं, यदि वर्षा के कारण तुम्हें कष्ट हो अथवा तुम बीमार हो कि अपने हथियार उतार दो तथा अपने बचाव का ध्यान रखो। निःसंदेह अल्लाह ने काफ़िरों के लिए अपमानकारी अज़ाब तैयार कर रखा है।
68. इसका नाम "सलातुल ख़ौफ़" अर्थात भय के समय की नमाज़ है। जब रणक्षेत्र में प्रत्येक समय भय लगा रहे, तो उस (समय नमाज़ पढ़ने) की विधि यह है कि सेना के दो भाग कर लें। एक भाग को नमाज़ पढ़ाएँ, तथा दूसरा शत्रु के सम्मुख खड़ा रहे, फिर (पहले गिरोह के एक रक्अत पूरी होने के बाद) दूसरा आए और नमाज़ पढ़े। इस प्रकार प्रत्येक गिरोह की एक रक्अत और इमाम की दो रक्अत होंगी। ह़दीसों में इसकी और भी विधियाँ आईं हैं। और यह युद्ध की स्थितियों पर निर्भर है।

فَاِذَا قَضَيْتُمُ الصَّلٰوةَ فَاذْكُرُوا اللّٰهَ قِيَامًا وَّقُعُوْدًا وَّعَلٰى جُنُوْبِكُمْ ۚ فَاِذَا اطْمَأْنَنْتُمْ فَاَقِيْمُوا الصَّلٰوةَ ۚ اِنَّ الصَّلٰوةَ كَانَتْ عَلَى الْمُؤْمِنِيْنَ كِتٰبًا مَّوْقُوْتًا١٠٣
Fa iżā qaḍaitumuṣ-ṣalāta fażkurullāha qiyāmaw wa qu‘ūdaw wa ‘alā junūbikum, fa iżaṭma'nantum fa aqīmuṣ-ṣalāh(ta), innaṣ-ṣalāta kānat ‘alal-mu'minīna kitābam mauqūtā(n).
[103] फिर जब तुम नमाज़ पूरी कर लो, तो खड़े और बैठे और लेटे (प्रत्येक स्थिति में) अल्लाह को याद करते रहो और जब तुम भयमुक्त हो जाओ, तो (पहले की तरह) नमाज़ क़ायम करो। निःसंदेह नमाज़ ईमान वालों पर निर्धारित समय पर फ़र्ज़ की गई है।

وَلَا تَهِنُوْا فِى ابْتِغَاۤءِ الْقَوْمِ ۗ اِنْ تَكُوْنُوْا تَأْلَمُوْنَ فَاِنَّهُمْ يَأْلَمُوْنَ كَمَا تَأْلَمُوْنَ ۚوَتَرْجُوْنَ مِنَ اللّٰهِ مَا لَا يَرْجُوْنَ ۗوَكَانَ اللّٰهُ عَلِيْمًا حَكِيْمًا ࣖ١٠٤
Wa lā tahinū fibtigā'il-qaum(i), in takūnū ta'lamūna fa innahum ya'lamūna kamā ta'lamūn(a), wa tarjūna minallāhi mā lā yarjūn(a), wa kānallāhu ‘alīman ḥakīmā(n).
[104] तथा तुम (दुश्मन) क़ौम का पीछा करने में कमज़ोर न पड़ो, यदि तुम्हें पीड़ा होती है, तो निःसंदेह उन्हें भी पीड़ा होती है जिस तरह तुम्हें पीड़ा होती है और तुम अल्लाह से जिस चीज़ की आशा69 रखते हो, वे उसकी आशा नहीं रखते। तथा अल्लाह सब कुछ जानने वाला, बहुत हिकमत वाला है।
69. अर्थात प्रतिफल तथा सहायता और समर्थन की।

اِنَّآ اَنْزَلْنَآ اِلَيْكَ الْكِتٰبَ بِالْحَقِّ لِتَحْكُمَ بَيْنَ النَّاسِ بِمَآ اَرٰىكَ اللّٰهُ ۗوَلَا تَكُنْ لِّلْخَاۤىِٕنِيْنَ خَصِيْمًا ۙ١٠٥
Innā anzalnā ilaikal-kitāba bil-ḥaqqi litaḥkuma bainan-nāsi bimā arākallāh(u), wa lā takun lil-khā'inīna khaṣīmā(n).
[105] (ऐ नबी!) हमने आपकी ओर सत्य पर आधारित पुस्तक अवतरित की है, ताकि आप लोगों के बीच उसके अनुसार फ़ैसला करें, जो अल्लाह ने आपको दिखाया है और आप ख़यानत करने वालों के तरफ़दार न बनें।70
70. यहाँ से, अर्थात आयत 105 से 113 तक, के विषय में भाष्यकारों ने लिखा है कि एक व्यक्ति ने एक अन्सारी की कवच (ज़िरह) चुरा ली। और जब देखा कि उसका भेद खुल जाएगा, तो उसका आरोप एक यहूदी पर लगा दिया। और उसके क़बीले के लोग भी उसके पक्षधर हो गए। और नबी सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम के पास आए, और कहा कि आप इसे निर्दोष घोषित कर दें। और उनकी बातों के कारण समीप था कि आप उसे निर्दोष घोषित करके यहूदी को अपराधी बना देते कि आपको सावधान करने के लिए ये आयतें उतरीं। (इब्ने जरीर) इन आयतों का साधारण भावार्थ यह है कि मुसलमान न्यायधीश को चाहिए कि किसी पक्ष का इस लिए पक्ष न धरे कि वह मुसलमान है। और दूसरा मुसलमान नहीं है, बल्कि उसे हर ह़ाल में निष्पक्ष होकर न्याय करना चाहिए।

وَّاسْتَغْفِرِ اللّٰهَ ۗاِنَّ اللّٰهَ كَانَ غَفُوْرًا رَّحِيْمًاۚ١٠٦
Wastagfirillāh(a), innallāha kāna gafūrar raḥīmā(n).
[106] तथा अल्लाह से क्षमा याचना करें। निःसंदेह अल्लाह अति क्षमाशील, बड़ा दयावान् है।

وَلَا تُجَادِلْ عَنِ الَّذِيْنَ يَخْتَانُوْنَ اَنْفُسَهُمْ ۗ اِنَّ اللّٰهَ لَا يُحِبُّ مَنْ كَانَ خَوَّانًا اَثِيْمًاۙ١٠٧
Wa lā tujādil ‘anil-lażīna yakhtānūna anfusahum, innallāha lā yuḥibbu man kāna khawwānan aṡīmā(n).
[107] और आप ऐसे लोगों का पक्ष न लें, जो अपने आपसे विश्वासघात करते हैं। निःसंदेह अल्लाह विश्वासघात करने वाले, पापी से प्रेम नहीं करता।71
71. आयत का भावार्थ यह है कि न्यायधीश को ऐसी बात नहीं करनी चाहिए, जिसमें किसी का पक्षपात हो।

يَّسْتَخْفُوْنَ مِنَ النَّاسِ وَلَا يَسْتَخْفُوْنَ مِنَ اللّٰهِ وَهُوَ مَعَهُمْ اِذْ يُبَيِّتُوْنَ مَا لَا يَرْضٰى مِنَ الْقَوْلِ ۗ وَكَانَ اللّٰهُ بِمَا يَعْمَلُوْنَ مُحِيْطًا١٠٨
Yastakhfūna minan-nāsi wa lā yastakhfūna minallāhi wa huwa ma‘ahum iż yubayyitūna mā lā yarḍā minal-qaul(i), wa kānallāhu bimā ya‘malūna muḥīṭā(n).
[108] वे लोगों से छिपते हैं, परंतु अल्लाह से नहीं छिपते। हालाँकि वह उनके साथ होता है, जब वे रात में उस बात की गुप्त योजना बनाते हैं, जिससे वह प्रसन्न नहीं72 होता। तथा वे जो कुछ करते हैं, अल्लाह उसे घेरे हुए है।
72. आयत का भावार्थ यह है कि मुसलमानों को अपना सहधर्मी अथवा अपनी जाति या परिवार का होने के कारण किसी अपराधी का पक्षपात नहीं करना चाहिए। क्योंकि संसार न जाने, परंतु अल्लाह तो जानता है कि कौन अपराधी है, कौन नहीं।

هٰٓاَنْتُمْ هٰٓؤُلَاۤءِ جَادَلْتُمْ عَنْهُمْ فِى الْحَيٰوةِ الدُّنْيَاۗ فَمَنْ يُّجَادِلُ اللّٰهَ عَنْهُمْ يَوْمَ الْقِيٰمَةِ اَمْ مَّنْ يَّكُوْنُ عَلَيْهِمْ وَكِيْلًا١٠٩
Hā'antum hā'ulā'i jādaltum ‘anhum fil-ḥayātid-dun-yā, famay yujādilullāha ‘anhum yaumal-qiyāmati am may yakūnu ‘alaihim wakīlā(n).
[109] सुनो, तुम लोगों ने सांसारिक जीवन में तो उनकी ओर से झगड़ लिया। परंतु क़यामत के दिन उनकी ओर से अल्लाह से कौन झगड़ेगा या कौन उनका वकील होगा?

وَمَنْ يَّعْمَلْ سُوْۤءًا اَوْ يَظْلِمْ نَفْسَهٗ ثُمَّ يَسْتَغْفِرِ اللّٰهَ يَجِدِ اللّٰهَ غَفُوْرًا رَّحِيْمًا١١٠
Wa may ya‘mal sū'an au yaẓlim nafsahū ṡumma yastagfirillāha yajidillāha gafūrar raḥīmā(n).
[110] जो व्यक्ति कोई बुरा काम करे अथवा अपने ऊपर अत्याचार करे, फिर अल्लाह से क्षमा माँगे, तो वह अल्लाह को बहुत क्षमा करने वाला, अत्यंत दयावान् पाएगा।

وَمَنْ يَّكْسِبْ اِثْمًا فَاِنَّمَا يَكْسِبُهٗ عَلٰى نَفْسِهٖ ۗ وَكَانَ اللّٰهُ عَلِيْمًا حَكِيْمًا١١١
Wa may yaksib iṡman fa innamā yaksibuhū ‘alā nafsih(ī),wa kānallāhu ‘alīman ḥakīmā(n).
[111] और जो व्यक्ति कोई पाप करता है, तो निःसंदेह वह उसका भार अपने ऊपर ही लादता73 है, तथा अल्लाह सब कुछ जानने वाला, हिकमत वाला है।
73. भावार्थ यह है कि जो अपराध करता है, उसके अपराध का दुष्परिणाम उसी के ऊपर है। अतः तुम यह न सोचो कि अपराधी के अपने सहधर्मी अथवा संबंधी होने के कारण, उसका अपराध सिद्ध हो गया, तो हमपर भी धब्बा लग जाएगा।

وَمَنْ يَّكْسِبْ خَطِيْۤـَٔةً اَوْ اِثْمًا ثُمَّ يَرْمِ بِهٖ بَرِيْۤـًٔا فَقَدِ احْتَمَلَ بُهْتَانًا وَّاِثْمًا مُّبِيْنًا ࣖ١١٢
Wa may yaksib khaṭī'atan au iṡman ṡumma yarmi bihī barī'an fa qadiḥtamala buhtānaw wa iṡmam mubīnā(n).
[112] और जो व्यक्ति कोई ग़लती अथवा पाप करे, फिर उसका आरोप किसी निर्दोष पर लगा दे, तो उसने मिथ्या दोषारोपण तथा खुले पाप74 का बोझ उठा लिया।
74. अर्थात स्वयं पाप करके दूसरे पर आरोप लगाना दोहरा पाप है।

وَلَوْلَا فَضْلُ اللّٰهِ عَلَيْكَ وَرَحْمَتُهٗ لَهَمَّتْ طَّاۤىِٕفَةٌ مِّنْهُمْ اَنْ يُّضِلُّوْكَۗ وَمَا يُضِلُّوْنَ اِلَّآ اَنْفُسَهُمْ وَمَا يَضُرُّوْنَكَ مِنْ شَيْءٍ ۗ وَاَنْزَلَ اللّٰهُ عَلَيْكَ الْكِتٰبَ وَالْحِكْمَةَ وَعَلَّمَكَ مَا لَمْ تَكُنْ تَعْلَمُۗ وَكَانَ فَضْلُ اللّٰهِ عَلَيْكَ عَظِيْمًا١١٣
Wa lau lā faḍlullāhi ‘alaika wa raḥmatuhū lahammaṭ-ṭā'ifatum minhum ay yuḍillūk(a), wa mā yuḍillūna illā anfusahum wa mā yaḍurrūnaka min syai'(in), wa anzalallāhu ‘alaikal-kitāba wal-ḥikmata wa ‘allamaka mā lam takun ta‘lam(u), wa kāna faḍlullāhi ‘alaika ‘aẓīmā(n).
[113] और (ऐ नबी!) यदि आपपर अल्लाह का अनुग्रह और उसकी दया न होती, तो उनके एक समूह ने निश्चय आपको बहकाने का इरादा75 कर लिया था। हालाँकि वे केवल अपने आप को ही पथभ्रष्ट कर रहे हैं और वे आपको कुछ भी हानि नहीं पहुँचा सकते। और अल्लाह ने आपपर पुस्तक तथा हिकमत अवतरित की है और आपको वह कुछ सिखाया है, जो आप नहीं जानते थे। और आपपर अल्लाह का अनुग्रह बहुत बड़ा है।
75. कि आप निर्दोष को अपराधी समझ लें।

۞ لَا خَيْرَ فِيْ كَثِيْرٍ مِّنْ نَّجْوٰىهُمْ اِلَّا مَنْ اَمَرَ بِصَدَقَةٍ اَوْ مَعْرُوْفٍ اَوْ اِصْلَاحٍۢ بَيْنَ النَّاسِۗ وَمَنْ يَّفْعَلْ ذٰلِكَ ابْتِغَاۤءَ مَرْضَاتِ اللّٰهِ فَسَوْفَ نُؤْتِيْهِ اَجْرًا عَظِيْمًا١١٤
Lā khaira fī kaṡīrim min najwāhum illā man amara biṣadaqatin au ma‘rūfin au iṣlāḥim bainan-nās(i), wa may yaf‘al żālikabtigā'a marḍātillāhi fa saufa nu'tīhi ajran ‘aẓīmā(n).
[114] उनकी अधिकतर कानाफूसियों में कोई भलाई नहीं होती, परन्तु जो दान या नेकी या लोगों के बीच संधि कराने का आदेश दे (तो इसमें भलाई है), और जो कोई ऐसे कर्म अल्लाह की प्रसन्नता प्राप्त करने के लिए करेगा, हम जल्द ही उसे बहुत बड़ा बदला प्रदान करेंगे।

وَمَنْ يُّشَاقِقِ الرَّسُوْلَ مِنْۢ بَعْدِ مَا تَبَيَّنَ لَهُ الْهُدٰى وَيَتَّبِعْ غَيْرَ سَبِيْلِ الْمُؤْمِنِيْنَ نُوَلِّهٖ مَا تَوَلّٰى وَنُصْلِهٖ جَهَنَّمَۗ وَسَاۤءَتْ مَصِيْرًا ࣖ١١٥
Wa may yusyāqiqir-rasūla mim ba‘di mā tabayyana lahul-hudā wa yattabi‘ gaira sabīlil-mu'minīna nuwallihī mā tawallā wa nuṣlihī jahannam(a), wa sā'at maṣīrā(n).
[115] तथा जो व्यक्ति अपने सामने मार्गदर्शन स्पष्ट हो जाने के बाद रसूल का विरोध करे और ईमान वालों76 के मार्ग के अलावा (किसी दूसरे मार्ग) पर चले, हम उसे उधर ही फेर देंगे77, जिधर वह (स्वयं) फिर गया है और उसे नरक में झोंक देंगे। और वह बहुत बुरा ठिकाना है।
76. ईमान वालों से अभिप्राय नबी सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम के सह़ाबा (साथी) हैं। 77. विद्वानों ने लिखा है कि यह आयत भी उसी मुनाफ़िक़ से संबंधित है। क्योंकि जब नबी सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ने उसके विरुद्ध दंड का निर्णय कर दिया, तो वह भागकर मक्का के मिश्रणवादियों से मिल गया। (तफ़्सीरे क़ुर्तुबी) फिर भी इस आयत का आदेश सर्वसामान्य है।

اِنَّ اللّٰهَ لَا يَغْفِرُ اَنْ يُّشْرَكَ بِهٖ وَيَغْفِرُ مَا دُوْنَ ذٰلِكَ لِمَنْ يَّشَاۤءُ ۗ وَمَنْ يُّشْرِكْ بِاللّٰهِ فَقَدْ ضَلَّ ضَلٰلًا ۢ بَعِيْدًا١١٦
Innallāha lā yagfiru ay yusyraka bihī wa yagfiru mā dūna żālika limay yasyā'(u), wa may yusyrik billāhi faqad ḍalla ḍalālam ba‘īdā(n).
[116] निःसंदेह अल्लाह अपने साथ साझी ठहराए जाने को क्षमा78 नहीं करेगा और इससे कमतर पाप जिसके लिए चाहेगा, क्षमा कर देगा। तथा जो अल्लाह का साझी बनाता है, वह यक़ीनन भटककर बहुत दूर जा पड़ा।
78. अर्थात शिर्क (मिश्रणवाद) अक्षम्य पाप है।

اِنْ يَّدْعُوْنَ مِنْ دُوْنِهٖٓ اِلَّآ اِنٰثًاۚ وَاِنْ يَّدْعُوْنَ اِلَّا شَيْطٰنًا مَّرِيْدًاۙ١١٧
Iy yad‘ūna min dūnihī illā ināṡā(n), wa iy yad‘ūna illā syaiṭānam marīdā(n).
[117] ये (बहुदेववादी), अल्लाह को छोड़कर मात्र देवियों को पुकारते हैं और वास्तव में ये केवल उद्दंड शैतान को पुकारते हैं।

لَّعَنَهُ اللّٰهُ ۘ وَقَالَ لَاَتَّخِذَنَّ مِنْ عِبَادِكَ نَصِيْبًا مَّفْرُوْضًاۙ١١٨
La‘anahullāh(u), wa qāla la'attakhiżanna min ‘ibādika naṣībam mafrūḍā(n).
[118] जिसे अल्लाह ने धिक्कार दिया है। तथा उसने कहा था कि मैं तेरे बंदों में से एक निश्चित हिस्सा अवश्य लेकर रहूँगा।

وَّلَاُضِلَّنَّهُمْ وَلَاُمَنِّيَنَّهُمْ وَلَاٰمُرَنَّهُمْ فَلَيُبَتِّكُنَّ اٰذَانَ الْاَنْعَامِ وَلَاٰمُرَنَّهُمْ فَلَيُغَيِّرُنَّ خَلْقَ اللّٰهِ ۗوَمَنْ يَّتَّخِذِ الشَّيْطٰنَ وَلِيًّا مِّنْ دُوْنِ اللّٰهِ فَقَدْ خَسِرَ خُسْرَانًا مُّبِيْنًا١١٩
Wa la'uḍillannahum wa la'umanniyannahum wa la'āmurannahum fa layubattikunna āżānal-an‘āmi wa la'āmurannahum fa layugayyirunna khalqallāh(i), wa may yattakhiżisy-syaiṭāna waliyyam min dūnillāhi faqad khasira khusrānam mubīnā(n).
[119] और मैं उन्हें अवश्य पथभ्रष्ट करूँगा, और उन्हें अवश्य आशाएँ दिलाऊँगा और उन्हें अवश्य आदेश दूँगा तो वे पशुओं के कान चीरेंगे तथा निश्चय उन्हें आदेश दूँगा, तो वे अवश्य अल्लाह की रचना में परिवर्तन79 करेंगे। तथा जो अल्लाह को छोड़कर शैतान को अपना मित्र बना ले, वह निश्चय खुले घाटे में पड़ गया।
79. इसके बहुत से अर्थ हो सकते हैं। जैसे गोदना, गुदवाना, स्त्री का पुरुष का आचरण और स्वभाव बनाना, इसी प्रकार पुरुष का स्त्री का आचरण तथा रूप धारण करना आदि।

يَعِدُهُمْ وَيُمَنِّيْهِمْۗ وَمَا يَعِدُهُمُ الشَّيْطٰنُ اِلَّا غُرُوْرًا١٢٠
Ya‘iduhum wa yumannīhim, wa mā ya‘iduhumusy-syaiṭānu illā gurūrā(n).
[120] वह (शैतान) उनसे वादे करता है और उन्हें आशाएँ दिलाता है। (परंतु) शैतान उनसे जो वादे करता है, वे धोखे के सिवा कुछ नहीं हैं।

اُولٰۤىِٕكَ مَأْوٰىهُمْ جَهَنَّمُۖ وَلَا يَجِدُوْنَ عَنْهَا مَحِيْصًا١٢١
Ulā'ika ma'wāhum jahannam(u), wa lā yajidūna ‘anhā maḥīṣā(n).
[121] वही लोग है जिनका ठिकाना जहन्नम है और वे उससे भागने का कोई रास्ता नहीं पाएंगे।

وَالَّذِيْنَ اٰمَنُوْا وَعَمِلُوا الصّٰلِحٰتِ سَنُدْخِلُهُمْ جَنّٰتٍ تَجْرِيْ مِنْ تَحْتِهَا الْاَنْهٰرُ خٰلِدِيْنَ فِيْهَآ اَبَدًاۗ وَعْدَ اللّٰهِ حَقًّا ۗوَمَنْ اَصْدَقُ مِنَ اللّٰهِ قِيْلًا١٢٢
Wal-lażīna āmanū wa ‘amiluṣ-ṣāliḥāti sanudkhiluhum jannātin tajrī min taḥtihal-anhāru khālidīna fīhā abadā(n), wa‘dallāhi ḥaqqā(n), wa man aṣdaqu minallāhi qīlā(n).
[122] तथा जो लोग ईमान लाए और अच्छे काम किए, हम उन्हें ऐसी जन्नतों में दाख़िल करेंगे, जिनके नीचे नहरें बहती हैं। वे उनमें हमेशा रहेंगे। यह अल्लाह का सच्चा वादा है और अल्लाह से अधिक सच्ची बात किसकी हो सकती है?

لَيْسَ بِاَمَانِيِّكُمْ وَلَآ اَمَانِيِّ اَهْلِ الْكِتٰبِ ۗ مَنْ يَّعْمَلْ سُوْۤءًا يُّجْزَ بِهٖۙ وَلَا يَجِدْ لَهٗ مِنْ دُوْنِ اللّٰهِ وَلِيًّا وَّلَا نَصِيْرًا١٢٣
Laisa bi'amāniyyikum wa lā amāniyyi ahlil-kitāb(i), may ya‘mal sū'ay yujza bih(ī), wa lā yajid lahū min dūnillāhi waliyyaw wa lā naṣīrā(n).
[123] (मोक्ष) न तुम्हारी कामनाओं पर निर्भर है, न अह्ले किताब की कामनाओं पर। जो भी बुरा काम करेगा, उसका बदला पाएगा तथा अल्लाह के सिवा अपना कोई रक्षक और सहायक नहीं पाएगा।

وَمَنْ يَّعْمَلْ مِنَ الصّٰلِحٰتِ مِنْ ذَكَرٍ اَوْ اُنْثٰى وَهُوَ مُؤْمِنٌ فَاُولٰۤىِٕكَ يَدْخُلُوْنَ الْجَنَّةَ وَلَا يُظْلَمُوْنَ نَقِيْرًا١٢٤
Wa may ya‘mal minaṣ-ṣāliḥāti min żakarin au unṡā wa huwa mu'minun fa ulā'ika yadkhulūnal-jannata wa lā yuẓlamūna naqīrā(n).
[124] तथा जो अच्छे कार्य करेगा, चाहे नर हो या नारी, जबकि वह मोमिन80 हो, तो ऐसे लोग जन्नत में प्रवेश पाएँगे और उनका खजूर की गुठली के ऊपरी भाग के गड्ढे के बराबर भी हक़ नहीं मारा जाएगा।
80. अर्थात सत्कर्म का प्रतिफल सत्य आस्था और ईमान पर आधारित है कि अल्लाह तथा उसके नबियों पर ईमान लाया जाए। तथा ह़दीसों से विदित होता है कि एक बार मुसलमानों और अह्ले किताब के बीच विवाद हो गया। यहूदियों ने कहा कि हमारा धर्म सबसे अच्छा है। मुक्ति केवल हमारे ही धर्म में है। मुसलमानों ने कहा कि हमारा धर्म सबसे अच्छा और अंतिम धर्म है। उसी पर यह आयत उतरी। (इब्ने जरीर)

وَمَنْ اَحْسَنُ دِيْنًا مِّمَّنْ اَسْلَمَ وَجْهَهٗ لِلّٰهِ وَهُوَ مُحْسِنٌ وَّاتَّبَعَ مِلَّةَ اِبْرٰهِيْمَ حَنِيْفًا ۗوَاتَّخَذَ اللّٰهُ اِبْرٰهِيْمَ خَلِيْلًا١٢٥
Wa man aḥsanu dīnam mimman aslama wajhahū lillāhi wa huwa muḥsinuw wattaba‘a millata ibrāhīma ḥanīfā(n), wattakhażallāhu ibrāhīma khalīlā(n).
[125] तथा उस व्यक्ति से अच्छा धर्म किसका हो सकता है, जिसने अपना शीश अल्लाह के सामने झुका दिया और वह अच्छे कार्य करने वाला (भी) हो तथा इबराहीम के तरीक़े का अनुसरण करे, जो बहुदेववाद से कटकर एकेश्वरवाद की ओर एकाग्र थे, और अल्लाह ने इबराहीम को अपना मित्र बनाया था।

وَلِلّٰهِ مَا فِى السَّمٰوٰتِ وَمَا فِى الْاَرْضِۗ وَكَانَ اللّٰهُ بِكُلِّ شَيْءٍ مُّحِيْطًا ࣖ١٢٦
Wa lillāhi mā fis-samāwāti wa mā fil-arḍ(i), wa kānallāhu bikulli syai'im muḥīṭā(n).
[126] तथा जो कुछ आकाशों में और जो कुछ धरती में है, सब अल्लाह ही का है और अल्लाह हर चीज़ को घेरे हुए है।

وَيَسْتَفْتُوْنَكَ فِى النِّسَاۤءِۗ قُلِ اللّٰهُ يُفْتِيْكُمْ فِيْهِنَّ ۙوَمَا يُتْلٰى عَلَيْكُمْ فِى الْكِتٰبِ فِيْ يَتٰمَى النِّسَاۤءِ الّٰتِيْ لَا تُؤْتُوْنَهُنَّ مَا كُتِبَ لَهُنَّ وَتَرْغَبُوْنَ اَنْ تَنْكِحُوْهُنَّ وَالْمُسْتَضْعَفِيْنَ مِنَ الْوِلْدَانِۙ وَاَنْ تَقُوْمُوْا لِلْيَتٰمٰى بِالْقِسْطِ ۗوَمَا تَفْعَلُوْا مِنْ خَيْرٍ فَاِنَّ اللّٰهَ كَانَ بِهٖ عَلِيْمًا١٢٧
Wa yastaftūnaka fin-nisā'(i), qulillāhu yuftīkum fīhinn(a), wa mā yutlā ‘alaikum fil-kitābi fī yatāman-nisā'il-lātī lā tu'tūnahunna mā kutiba lahunna wa targabūna an tankiḥūhunna wal-mustaḍ‘afīna minal-wildān(i), wa an taqūmū lil-yatāmā bil-qisṭ(i), wa mā taf‘alū min khairin fa innallāha kāna bihī ‘alīmā(n).
[127] (ऐ नबी!) लोग आपसे स्त्रियों के बारे में फ़तवा (शरई हुक्म) पूछते हैं। आप कह दें कि अल्लाह तुम्हें उनके बारे में फतवा देता है, तथा किताब की वे आयतें भी जो अनाथ स्त्रियों के बारे में तुम्हें पढ़कर सुनाई जाती हैं, जिन्हें तुम उनके निर्धारित अधिकार नहीं देते और तुम चाहते हो कि उनसे विवाह कर लो, तथा कमज़ोर बच्चों के बारे में भी यही हुक्म है, और यह कि तुम अनाथों के मामले में न्याय पर क़ायम रहो।81 तथा तुम जो भी भलाई करते हो, अल्लाह उसे भली-भाँति जानता है।
81. इस्लाम से पहले यदि अनाथ स्त्री सुंदर होती तो उसका संरक्षक, यदि उसका विवाह उससे हो सकता हो, तो उससे विवाह कर लेता। परंतु उसे महर (विवाह उपहार) नहीं देता। और यदि सुंदर न हो, तो दूसरे से उसे विवाह नहीं करने देता था। ताकि उसका धन उसी के पास रह जाए। इसी प्रकार अनाथ बच्चों के साथ भी अत्याचार और अन्याय किया जाता था, जिनसे रोकने के लिए यह आयत उतरी। (इब्ने कसीर)

وَاِنِ امْرَاَةٌ خَافَتْ مِنْۢ بَعْلِهَا نُشُوْزًا اَوْ اِعْرَاضًا فَلَا جُنَاحَ عَلَيْهِمَآ اَنْ يُّصْلِحَا بَيْنَهُمَا صُلْحًا ۗوَالصُّلْحُ خَيْرٌ ۗوَاُحْضِرَتِ الْاَنْفُسُ الشُّحَّۗ وَاِنْ تُحْسِنُوْا وَتَتَّقُوْا فَاِنَّ اللّٰهَ كَانَ بِمَا تَعْمَلُوْنَ خَبِيْرًا١٢٨
Wa inimra'atun khāfat mim ba‘lihā nusyūzan au i‘rāḍan falā junāḥa ‘alaihimā ay yuṣliḥā bainahumā ṣulḥā(n), waṣ-ṣulḥu khair(un), wa uḥḍiratil-anfususy-syuḥḥ(a), wa in tuḥsinū wa tattaqū fa innallāha kāna bimā ta‘malūna khabīrā(n).
[128] और यदि किसी स्त्री को अपने पति की ओर से ज़्यादती या बेरुखी का डर हो, तो उन दोनों पर कोई दोष नहीं कि आपस में समझौता कर लें और समझौता कर लेना ही बेहतर82 है। तथा लोभ एवं कंजूसी तो मानव स्वभाव में शामिल है। परंतु यदि तुम एक-दूसरे के साथ उपकार करो और (अल्लाह से) डरते रहो, तो निःसंदेह अल्लाह तुम्हारे कर्मों से सूचित है।
82. अर्थ यह है कि स्त्री, पुरुष की इच्छा और रूचि पर ध्यान दे, तो यह संधि की रीति अलगाव से अच्छी है।

وَلَنْ تَسْتَطِيْعُوْٓا اَنْ تَعْدِلُوْا بَيْنَ النِّسَاۤءِ وَلَوْ حَرَصْتُمْ فَلَا تَمِيْلُوْا كُلَّ الْمَيْلِ فَتَذَرُوْهَا كَالْمُعَلَّقَةِ ۗوَاِنْ تُصْلِحُوْا وَتَتَّقُوْا فَاِنَّ اللّٰهَ كَانَ غَفُوْرًا رَّحِيْمًا١٢٩
Wa lan tastaṭī‘ū an ta‘dilū bainan-nisā'i wa lau ḥaraṣtum falā tamīlū kullal-maili fa tażarūhā kal-mu‘allaqah(ti), wa in tuṣliḥū wa tattaqū fa innallāha kāna gafūrar raḥīmā(n).
[129] और तुम पत्नियों के बीच पूर्ण न्याय कदापि नहीं कर83 सकते, चाहे तुम इसके कितने ही इच्छुक हो। अतः (अवांछित पत्नी से) पूरी तरह विमुख84 न हो जाओ कि उसे अधर में लटकी हुई छोड़ दो। और यदि तुम आपस में सामंजस्य85 बना लो और (अल्लाह से) डरते रहो, तो निःसंदेह अल्लाह क्षमा करने वाला, अत्यंत दयावान है।
83. क्योंकि यह स्वभाविक है कि मन का आकर्षण किसी एक की ओर होगा। 84. अर्थात जिसमें उसके पति की रूचि न हो, और न व्यवहारिक रूप से बिना पति के हो। 85. अर्थात सब के साथ व्यवहार तथा सहवास संबंध में बराबरी करो।

وَاِنْ يَّتَفَرَّقَا يُغْنِ اللّٰهُ كُلًّا مِّنْ سَعَتِهٖۗ وَكَانَ اللّٰهُ وَاسِعًا حَكِيْمًا١٣٠
Wa iy yatafarraqā yugnillāhu kullam min sa‘atih(ī), wa kānallāhu wāsi‘an ḥakīmā(n).
[130] और यदि दोनों अलग हो जाएँ, तो अल्लाह अपने व्यापक अनुग्रह से हर-एक को (दूसरे से) बेनियाज़86 कर देगा और अल्लाह व्यापक अनुग्रह वाला, पूर्ण हिकमत वाला है।
86. अर्थात यदि निभाव न हो सके तो विवाह बंधन में रहना आवश्यक नहीं। दोनों अलग हो जाएँ, अल्लाह दोनों के लिए पति तथा पत्नी की व्यवस्था बना देगा।

وَلِلّٰهِ مَا فِى السَّمٰوٰتِ وَمَا فِى الْاَرْضِۗ وَلَقَدْ وَصَّيْنَا الَّذِيْنَ اُوْتُوا الْكِتٰبَ مِنْ قَبْلِكُمْ وَاِيَّاكُمْ اَنِ اتَّقُوا اللّٰهَ ۗوَاِنْ تَكْفُرُوْا فَاِنَّ لِلّٰهِ مَا فِى السَّمٰوٰتِ وَمَا فِى الْاَرْضِۗ وَكَانَ اللّٰهُ غَنِيًّا حَمِيْدًا١٣١
Wa lillāhi mā fis-samāwāti wa mā fil-arḍ(i), wa laqad waṣṣainal-lażīna ūtul-kitāba min qablikum wa iyyākum anittaqullāh(a), wa in takfurū fa inna lillāhi mā fis-samāwāti wa mā fil-arḍ(i), wa kānallāhu ganiyyan ḥamīdā(n).
[131] तथा जो कुछ आकाशों और धरती में है, सब अल्लाह ही का है। और हमने तुमसे पूर्व किताब दिए गए लोगों को तथा (खुद) तुम्हें आदेश दिया है कि अल्लाह से डरते रहो। और यदि तुम कुफ़्र करोगे, तो (याद रखो कि) जो कुछ आकाशों तथा धरती में है, वह अल्लाह ही का है तथा अल्लाह बेनियाज़87 और स्तुत्य है।
87. अर्थात उसकी अवज्ञा से तुम्हारा ही बिगड़ेगा।

وَلِلّٰهِ مَا فِى السَّمٰوٰتِ وَمَا فِى الْاَرْضِ ۗوَكَفٰى بِاللّٰهِ وَكِيْلًا١٣٢
Wa lillāhi mā fis-samāwāti wa mā fil-arḍ(i), wa kafā billāhi wakīlā(n).
[132] तथा आकाशों एवं धरती की सारी चीज़ें अल्लाह ही की हैं और अल्लाह कार्यसाधक के रूप में काफ़ी है।

اِنْ يَّشَأْ يُذْهِبْكُمْ اَيُّهَا النَّاسُ وَيَأْتِ بِاٰخَرِيْنَۗ وَكَانَ اللّٰهُ عَلٰى ذٰلِكَ قَدِيْرًا١٣٣
Iy yasya' yużhibkum ayyuhan-nāsu wa ya'ti bi'ākharīn(a), wa kānallāhu ‘alā żālika qadīrā(n).
[133] ऐ लोगो! यदि वह चाहे, तो तुम्हें ले जाए88 और (तुम्हारे स्थान पर) दूसरों को ले आए तथा अल्लाह ऐसा करने पर पूरी शक्ति रखता है।
88. अर्थात तुम्हारी अवज्ञा के कारण तुम्हें ध्वस्त कर दे और दूसरे आज्ञाकारियों को पैदा कर दे।

مَنْ كَانَ يُرِيْدُ ثَوَابَ الدُّنْيَا فَعِنْدَ اللّٰهِ ثَوَابُ الدُّنْيَا وَالْاٰخِرَةِ ۗوَكَانَ اللّٰهُ سَمِيْعًاۢ بَصِيْرًا ࣖ١٣٤
Man kāna yurīdu ṡawābad-dun-yā fa ‘indallāhi ṡawābud-dun-yā wal-ākhirah(ti), wa kānallāhu samī‘am baṣīrā(n).
[134] जो व्यक्ति दुनिया का बदला चाहता है, तो (जान लो कि) अल्लाह के पास दुनिया और आखिरत (दोनों) का बदला है तथा अल्लाह सब कुछ सुनने वाला और सब कुछ देखने वाला है।

۞ يٰٓاَيُّهَا الَّذِيْنَ اٰمَنُوْا كُوْنُوْا قَوَّامِيْنَ بِالْقِسْطِ شُهَدَاۤءَ لِلّٰهِ وَلَوْ عَلٰٓى اَنْفُسِكُمْ اَوِ الْوَالِدَيْنِ وَالْاَقْرَبِيْنَ ۚ اِنْ يَّكُنْ غَنِيًّا اَوْ فَقِيْرًا فَاللّٰهُ اَوْلٰى بِهِمَاۗ فَلَا تَتَّبِعُوا الْهَوٰٓى اَنْ تَعْدِلُوْا ۚ وَاِنْ تَلْوٗٓا اَوْ تُعْرِضُوْا فَاِنَّ اللّٰهَ كَانَ بِمَا تَعْمَلُوْنَ خَبِيْرًا١٣٥
Yā ayyuhal-lażīna āmanū kūnū qawwāmīna bil-qisṭi syuhadā'a lillāhi wa lau ‘alā anfusikum awil-wālidaini wal-aqrabīn(a), iy yakun ganiyyan au faqīran fallāhu aulā bihimā, falā tattabi‘ul-hawā an ta‘dilū, wa in talwū au tu‘riḍū fa innallāha kāna bimā ta‘malūna khabīrā(n).
[135] ऐ ईमान वालो! मज़बूती के साथ न्याय पर जम जाने वाले और अल्लाह की प्रसन्नता के लिए गवाही देने वाले बन जाओ। चाहे वह (गवाही) स्वयं तुम्हारे अपने या माता-पिता और रिश्तेदारों के विरुद्ध ही क्यों न हो। यदि कोई धनवान अथवा निर्धन हो, तो अल्लाह उन दोनों (के हित) का अधिक हक़दार है। अतः तुम मन की इच्छा का पालन न करो कि न्याय छोड़ दो। यदि तुम घुमा फिरा के गवाही दोगे या गवाही देने से कतराओगे, तो निःसंदेह अल्लाह तुम्हारे कार्यों से सूचित है।

يٰٓاَيُّهَا الَّذِيْنَ اٰمَنُوْٓا اٰمِنُوْا بِاللّٰهِ وَرَسُوْلِهٖ وَالْكِتٰبِ الَّذِيْ نَزَّلَ عَلٰى رَسُوْلِهٖ وَالْكِتٰبِ الَّذِيْٓ اَنْزَلَ مِنْ قَبْلُ ۗوَمَنْ يَّكْفُرْ بِاللّٰهِ وَمَلٰۤىِٕكَتِهٖ وَكُتُبِهٖ وَرُسُلِهٖ وَالْيَوْمِ الْاٰخِرِ فَقَدْ ضَلَّ ضَلٰلًا ۢ بَعِيْدًا١٣٦
Yā ayyuhal-lażīna āmanū āminū billāhi wa rasūlihī wal-kitābil-lażī nazzala ‘alā rasūlihī wal-kitābil-lażī anzala min qabl(u), wa may yakfur billāhi wa malā'ikatihī wa kutubihī wa rusulihī wal-yaumil-ākhiri faqad ḍalla ḍalālam ba‘īdā(n).
[136] ऐ ईमान वालो! अल्लाह, उसके रसूल और उस पुस्तक पर ईमान लाओ जो अल्लाह ने अपने रसूल (मुहम्मद) पर उतारी और उस किताब पर भी जो उसने इससे पहले उतारी। और जो व्यक्ति अल्लाह, उसके फ़रिश्तों, उसकी पुस्तकों और अंतिम दिवस (परलोक) का इनकार करे, वह निश्चय बहुत दूर की गुमराही में जा पड़ा।

اِنَّ الَّذِيْنَ اٰمَنُوْا ثُمَّ كَفَرُوْا ثُمَّ اٰمَنُوْا ثُمَّ كَفَرُوْا ثُمَّ ازْدَادُوْا كُفْرًا لَّمْ يَكُنِ اللّٰهُ لِيَغْفِرَ لَهُمْ وَلَا لِيَهْدِيَهُمْ سَبِيْلًاۗ١٣٧
Innal-lażīna āmanū ṡumma kafarū ṡumma āmanū ṡumma kafarū ṡummazdādū kufral lam yakunillāhu liyagfira lahum wa lā liyahdiyahum sabīlā(n).
[137] निःसंदेह जो ईमान लाए, फिर काफ़िर हो गए, फिर ईमान लाए, फिर काफ़िर हो गए, फिर कुफ़्र में बढ़ते चले गए,अल्लाह उन्हें कभी क्षमा नहीं करेगा और न उन्हें सीधा मार्ग दिखाएगा।

بَشِّرِ الْمُنٰفِقِيْنَ بِاَنَّ لَهُمْ عَذَابًا اَلِيْمًاۙ١٣٨
Basysyiril-munāfiqīna bi'anna lahum ‘ażāban alīmā(n).
[138] (ऐ नबी!) मुनाफ़िक़ों (पाखंडियों) को शुभ-सूचना सुना दें कि उनके लिए दुःखदायी यातना है।

ۨالَّذِيْنَ يَتَّخِذُوْنَ الْكٰفِرِيْنَ اَوْلِيَاۤءَ مِنْ دُوْنِ الْمُؤْمِنِيْنَ ۗ اَيَبْتَغُوْنَ عِنْدَهُمُ الْعِزَّةَ فَاِنَّ الْعِزَّةَ لِلّٰهِ جَمِيْعًاۗ١٣٩
Al-lażīna yattakhiżūnal-kāfirīna auliyā'a min dūnil-mu'minīn(a), ayabtagūna ‘indahumul-‘izzata fa innal-‘izzata lillāhi jamī‘ā(n).
[139] जो ईमान वालों को छोड़कर काफ़िरों को अपना मित्र बनाते हैं, क्या वे उनके पास मान-सम्मान ढूँढ़ते हैं? तो निःसंदेह सब मान-सम्मान अल्लाह ही के लिए89 है।
89. अर्थात अल्लाह के अधिकार में है, काफ़िरों के नहीं।

وَقَدْ نَزَّلَ عَلَيْكُمْ فِى الْكِتٰبِ اَنْ اِذَا سَمِعْتُمْ اٰيٰتِ اللّٰهِ يُكْفَرُ بِهَا وَيُسْتَهْزَاُ بِهَا فَلَا تَقْعُدُوْا مَعَهُمْ حَتّٰى يَخُوْضُوْا فِيْ حَدِيْثٍ غَيْرِهٖٓ ۖ اِنَّكُمْ اِذًا مِّثْلُهُمْ ۗ اِنَّ اللّٰهَ جَامِعُ الْمُنٰفِقِيْنَ وَالْكٰفِرِيْنَ فِيْ جَهَنَّمَ جَمِيْعًاۙ١٤٠
Wa qad nazzala ‘alaikum fil-kitābi an iżā sami‘tum āyātillāhi yukfaru bihā wa yustahza'u bihā falā taq‘udū ma‘ahum ḥattā yakhūḍū fī ḥadīṡin gairih(ī), innakum iżam miṡlahum, innallāha jāmi‘ul-munāfiqīna wal-kāfirīna fī jahannama jamī‘ā(n).
[140] और अल्लाह ने तुम्हारे लिए अपनी पुस्तक में (यह आदेश) अवतिरत90 किया है कि जब तुम सुनो कि अल्लाह की आयतों का इनकार किया जा रहा है तथा उनका मज़ाक़ उड़ाया जा रहा है, तो ऐसा करने वालों के साथ न बैठो, यहाँ तक कि वे दूसरी बात में लग जाएँ। अन्यथा तुम भी उन्हीं जैसे हो जाओगे। निश्चय अल्लाह मुनाफ़िक़ों (पाखंडियों) और काफ़िरों को एक साथ जहन्नम में इकट्ठा करने वाला है।
90. अर्थात सूरतुल-अन्आम आयत संख्या : 68 में।

ۨالَّذِيْنَ يَتَرَبَّصُوْنَ بِكُمْۗ فَاِنْ كَانَ لَكُمْ فَتْحٌ مِّنَ اللّٰهِ قَالُوْٓا اَلَمْ نَكُنْ مَّعَكُمْ ۖ وَاِنْ كَانَ لِلْكٰفِرِيْنَ نَصِيْبٌ قَالُوْٓا اَلَمْ نَسْتَحْوِذْ عَلَيْكُمْ وَنَمْنَعْكُمْ مِّنَ الْمُؤْمِنِيْنَ ۗ فَاللّٰهُ يَحْكُمُ بَيْنَكُمْ يَوْمَ الْقِيٰمَةِ ۗ وَلَنْ يَّجْعَلَ اللّٰهُ لِلْكٰفِرِيْنَ عَلَى الْمُؤْمِنِيْنَ سَبِيْلًا ࣖ١٤١
Al-lażīna yatarabbaṣūna bikum, fa in kāna lakum fatḥum minallāhi qālū alam nakum ma‘akum, wa in kāna lil-kāfirīna naṣībun qālū alam nastaḥwiż ‘alaikum wa namna‘kum minal-mu'minīn(a), fallāhu yaḥkumu bainakum yaumal-qiyāmah(ti), wa lay yaj‘alallāhu lil-kāfirīna ‘alal-mu'minīna sabīlā(n).
[141] जो तुम्हारी (अच्छी या बुरी स्थिति की) प्रतीक्षा में रहते हैं; यदि अल्लाह की ओर से तुम्हें विजय प्राप्त हो, तो वे कहते हैं : क्या हम तुम्हारे साथ न थे? और यदि काफ़िरों को कोई भाग प्राप्त हो, तो (उनसे) कहते हैं : क्या हम तुम्हारी मदद के लिए खड़े नहीं हुए थे और तुम्हें ईमान वालों से बचाया नहीं था? अतः अल्लाह क़ियामत के दिन तुम्हारे बीच निर्णय करेगा और अल्लाह काफ़िरों के लिए ईमान वालों पर हरगिज़ कोई रास्ता नहीं बनाएगा।91
91. अर्थात मुनाफ़िक़, काफ़िरों की कितनी ही सहायता करें, उनकी ईमान वालों पर स्थायी विजय नहीं होगी। यहाँ से मुनाफ़िक़ों के आचरण और स्वभाव की चर्चा की जा रही है।

اِنَّ الْمُنٰفِقِيْنَ يُخٰدِعُوْنَ اللّٰهَ وَهُوَ خَادِعُهُمْۚ وَاِذَا قَامُوْٓا اِلَى الصَّلٰوةِ قَامُوْا كُسَالٰىۙ يُرَاۤءُوْنَ النَّاسَ وَلَا يَذْكُرُوْنَ اللّٰهَ اِلَّا قَلِيْلًاۖ١٤٢
Innal-munāfiqīna yukhādi‘ūnallāha wa huwa khādi‘uhum, wa iżā qāmū ilaṣ-ṣalāti qāmū kusālā, yurā'ūnan-nāsa wa lā yażkurūnallāha illā qalīlā(n).
[142] निःसंदेह मुनाफ़िक़ लोग अल्लाह को धोखा दे रहे हैं, हालाँकि उसी ने उन्हें धोखे में डाल रखा92 है। और जब वे नमाज़ के लिए खड़े होते हैं, तो आलसी होकर खड़े होते हैं। वे लोगों के सामने दिखावा करते हैं और अल्लाह को बहुत कम ही याद करते हैं।
92. अर्थात उन्हें अवसर दे रहा है, जिसे वे अपनी सफलता समझते हैं। आयत 139 से यहाँ तक मुनाफ़िक़ों के कर्म और आचरण से संबंधित जो बातें बताई गई हैं, वे चार हैे : 1-वे मुसलमानों की सफलता पर विश्वास नहीं रखते। 2- मुसलमानों को सफलता मिले, तो उनके साथ हो जाते हैं और काफ़िरों को मिले, तो उनके साथ। 3- नमाज़ मन से नहीं, बल्कि केवल दिखाने के लिए पढ़ते हैं। 4- वे ईमान और कुफ़्र के बीच असमंजस में रहते हैं।

مُّذَبْذَبِيْنَ بَيْنَ ذٰلِكَۖ لَآ اِلٰى هٰٓؤُلَاۤءِ وَلَآ اِلٰى هٰٓؤُلَاۤءِ ۗ وَمَنْ يُّضْلِلِ اللّٰهُ فَلَنْ تَجِدَ لَهٗ سَبِيْلًا١٤٣
Mużabżabīna baina żālik(a), lā ilā ha'ulā'i wa lā ilā ha'ulā'(i), wa may yuḍlilillāhu falan tajida lahū sabīlā(n).
[143] वे कुफ़्र और ईमान के बीच असमंजस में पड़े हुए हैं, न इनके साथ और न उनके साथ। दरअसल, जिसे अल्लाह गुमराह कर दे, आप उसके लिए हरगिज़ कोई रास्ता नहीं पाएँगे।

يٰٓاَيُّهَا الَّذِيْنَ اٰمَنُوْا لَا تَتَّخِذُوا الْكٰفِرِيْنَ اَوْلِيَاۤءَ مِنْ دُوْنِ الْمُؤْمِنِيْنَ ۚ اَتُرِيْدُوْنَ اَنْ تَجْعَلُوْا لِلّٰهِ عَلَيْكُمْ سُلْطٰنًا مُّبِيْنًا١٤٤
Yā ayyuhal-lażīna āmanū lā tattakhiżul-kāfirīna auliyā'a min dūnil-mu'minīn(a), aturīdūna an taj‘alū lillāhi ‘alaikum sulṭānam mubīnā(n).
[144] ऐ ईमान वालो! मोमिनों को छोड़कर काफ़िरों को मित्र न बनाओ। क्या तुम अपने विरुद्ध अल्लाह को खुला तर्क देना चाहते हो?

اِنَّ الْمُنٰفِقِيْنَ فِى الدَّرْكِ الْاَسْفَلِ مِنَ النَّارِۚ وَلَنْ تَجِدَ لَهُمْ نَصِيْرًاۙ١٤٥
Innal-munāfiqīna fid-darkil-asfali minan-nār(i), wa lan tajida lahum naṣīrā(n).
[145] निश्चय ही मुनाफ़िक़ लोग नरक के सबसे निचले स्थान में होंगे और तुम उनका हरगिज़ कोई सहायक नहीं पाओगे।

اِلَّا الَّذِيْنَ تَابُوْا وَاَصْلَحُوْا وَاعْتَصَمُوْا بِاللّٰهِ وَاَخْلَصُوْا دِيْنَهُمْ لِلّٰهِ فَاُولٰۤىِٕكَ مَعَ الْمُؤْمِنِيْنَۗ وَسَوْفَ يُؤْتِ اللّٰهُ الْمُؤْمِنِيْنَ اَجْرًا عَظِيْمًا١٤٦
Illal-lażīna tābū wa aṣlaḥū wa‘taṣamū billāhi wa akhlaṣū dīnahum lillāhi fa ulā'ika ma‘al-mu'minīn(a), wa saufa yu'tillāhul mu'minīna ajran ‘aẓīmā(n).
[146] परन्तु जिन लोगों ने पश्चाताप कर लिया, और अपना सुधार कर लिया, और अल्लाह (के धर्म) को मज़बूती से थाम लिया और अपने धर्म को अल्लाह के लिए विशिष्ट कर दिया, तो वही लोग ईमान वालों के साथ होंगे और अल्लाह ईमान वालों को बहुत बड़ा बदला प्रदान करेगा।

مَا يَفْعَلُ اللّٰهُ بِعَذَابِكُمْ اِنْ شَكَرْتُمْ وَاٰمَنْتُمْۗ وَكَانَ اللّٰهُ شَاكِرًا عَلِيْمًا ۔١٤٧
Mā yaf‘alullāhu bi‘ażābikum in syakartum wa āmantum, wa kānallāhu syākiran ‘alīmā(n).
[147] अल्लाह तुम्हें यातना देकर क्या करेगा, यदि तुम आभारी बनो और ईमान लाओ। और अल्लाह बड़ा क़द्रदान (गुणग्राहक) सब कुछ जानने वाला है।93
93. इस आयत में यह संकेत है कि अल्लाह, अच्छा फल या बुरा फल मानव कर्म के परिणाम स्वरूप देता है। जो उसके निर्धारित किए हुए नियम का परिणाम होता है। जिस प्रकार संसार की प्रत्येक चीज़ का एक प्रभाव होता है, ऐसे ही मानव के प्रत्येक कर्म का भी एक प्रभाव होता है।

۞ لَا يُحِبُّ اللّٰهُ الْجَهْرَ بِالسُّوْۤءِ مِنَ الْقَوْلِ اِلَّا مَنْ ظُلِمَ ۗ وَكَانَ اللّٰهُ سَمِيْعًا عَلِيْمًا١٤٨
Lā yuḥibbullāhul-jahra bis-sū'i minal-qauli illā man ẓulim(a), wa kānallāhu samī‘an ‘alīmā(n).
[148] अल्लाह बुरी बात के साथ आवाज़ ऊँची करना पसंद नहीं करता, परंतु जिसपर अत्याचार किया गया94 हो (उसके लिए अनुमेय है)। और अल्लाह हमेशा से सब कुछ सुनने वाला, सब कुछ जानने वाला है।
94. आयत में कहा गया है कि किसी व्यक्ति में कोई बुराई हो, तो उसकी चर्चा न करते फिरो। परंतु उत्पीड़ित व्यक्ति अत्याचारी के अत्याचार की चर्चा कर सकता है।

اِنْ تُبْدُوْا خَيْرًا اَوْ تُخْفُوْهُ اَوْ تَعْفُوْا عَنْ سُوْۤءٍ فَاِنَّ اللّٰهَ كَانَ عَفُوًّا قَدِيْرًا١٤٩
In tubdū khairan au tukhfūhu au ta‘fū ‘an sū'in fa innallāha kāna ‘afuwwan qadīrā(n).
[149] यदि तुम कोई नेकी प्रकट करो या उसे छिपाओ, या किसी बुराई को क्षमा कर दो, तो निःसंदेह अल्लाह हमेशा से बहुत माफ़ करने वाला, सर्वशक्तिमान है।

اِنَّ الَّذِيْنَ يَكْفُرُوْنَ بِاللّٰهِ وَرُسُلِهٖ وَيُرِيْدُوْنَ اَنْ يُّفَرِّقُوْا بَيْنَ اللّٰهِ وَرُسُلِهٖ وَيَقُوْلُوْنَ نُؤْمِنُ بِبَعْضٍ وَّنَكْفُرُ بِبَعْضٍۙ وَّيُرِيْدُوْنَ اَنْ يَّتَّخِذُوْا بَيْنَ ذٰلِكَ سَبِيْلًاۙ١٥٠
Innal-lażīna yakfurūna billāhi wa rusulihī wa yurīdūna ay yufarriqū bainallāhi wa rusulihī wa yaqūlūna nu'minu biba‘ḍin wa nakfuru biba‘ḍ(in), wa yurīdūna ay yattakhiżū baina żālika sabīlā(n).
[150] निःसंदेह जो लोग अल्लाह और उसके रसूलों के साथ कुफ़्र करते हैं और चाहते हैं कि अल्लाह तथा उसके रसूलों के बीच अंतर करें तथा कहते हैं कि हम कुछ पर ईमान रखते हैं और कुछ का इनकार करते हैं और चाहते हैं कि इसके बीच कोई राह95 अपनाएँ।
95. नबी सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम की ह़दीस है कि सब नबी भाई हैं, उनके बाप एक और माएँ अलग-लग हैं। सब का धर्म एक है, और हमारे बीच कोई नबी नहीं है। (सह़ीह़ बुख़ारी : 3443)

اُولٰۤىِٕكَ هُمُ الْكٰفِرُوْنَ حَقًّا ۚوَاَعْتَدْنَا لِلْكٰفِرِيْنَ عَذَابًا مُّهِيْنًا١٥١
Ulā'ika humul-kāfirūna ḥaqqā(n), wa a‘tadnā lil-kāfirīna ‘ażābam muhīnā(n).
[151] यही लोग वास्तविक काफ़िर हैं और हमने काफ़िरों के लिए अपमानकारी यातना तैयार कर रखी है।

وَالَّذِيْنَ اٰمَنُوْا بِاللّٰهِ وَرُسُلِهٖ وَلَمْ يُفَرِّقُوْا بَيْنَ اَحَدٍ مِّنْهُمْ اُولٰۤىِٕكَ سَوْفَ يُؤْتِيْهِمْ اُجُوْرَهُمْ ۗوَكَانَ اللّٰهُ غَفُوْرًا رَّحِيْمًا ࣖ١٥٢
Wal-lażīna āmanū billāhi wa rusulihī wa lam yufarriqū baina aḥadim minhum ulā'ika saufa nu'tīhim ujūrahum, wa kānallāhu gafūrar raḥīmā(n).
[152] तथा वे लोग जो अल्लाह और उसके रसूलों पर ईमान लाए और उन्होंने उनमें से किसी के बीच अंतर नहीं किया, यही लोग हैं जिन्हें वह शीघ्र ही उनका बदला प्रदान करेगा तथा अल्लाह हमेशा से अति क्षमाशील, अत्यंत दयावान् है।

يَسْـَٔلُكَ اَهْلُ الْكِتٰبِ اَنْ تُنَزِّلَ عَلَيْهِمْ كِتٰبًا مِّنَ السَّمَاۤءِ فَقَدْ سَاَلُوْا مُوْسٰٓى اَكْبَرَ مِنْ ذٰلِكَ فَقَالُوْٓا اَرِنَا اللّٰهَ جَهْرَةً فَاَخَذَتْهُمُ الصَّاعِقَةُ بِظُلْمِهِمْۚ ثُمَّ اتَّخَذُوا الْعِجْلَ مِنْۢ بَعْدِ مَا جَاۤءَتْهُمُ الْبَيِّنٰتُ فَعَفَوْنَا عَنْ ذٰلِكَ ۚ وَاٰتَيْنَا مُوْسٰى سُلْطٰنًا مُّبِيْنًا١٥٣
Yas'aluka ahlul-kitābi an tunazzila ‘alaihim kitābam minas-samā'i faqad sa'alū mūsā akbara min żālika fa qālū arinallāha jahratan fa akhażathumuṣ-ṣā‘iqatu bi ẓulmihim, ṡummattakhażul-‘ijla mim ba‘di mā jā'athumul-bayyinātu fa ‘afaunā ‘an żālik(a), wa ātainā mūsā sulṭānam mubīnā(n).
[153] किताब वाले (ऐ नबी!) आपसे माँग करते हैं कि आप उनपर आकाश से कोई पुस्तक उतार लाएँ। तो वे तो मूसा से इससे भी बड़ी माँग कर चुके हैं। चुनाँचे उन्होंने कहा : हमें अल्लाह को खुल्लम-खुल्ला96 दिखा दो। तो उन्हें बिजली ने उनके अत्याचार के कारण पकड़ लिया। फिर उन्होंने अपने पास खुली निशानियाँ आने के बाद बछड़े को पूज्य बना लिया। तो हमने उसे क्षमा कर दिया और हमने मूसा को स्पष्ट प्रमाण प्रदान किया।
96. अर्थात आँखों से दिखा दो।

وَرَفَعْنَا فَوْقَهُمُ الطُّوْرَ بِمِيْثَاقِهِمْ وَقُلْنَا لَهُمُ ادْخُلُوا الْبَابَ سُجَّدًا وَّقُلْنَا لَهُمْ لَا تَعْدُوْا فِى السَّبْتِ وَاَخَذْنَا مِنْهُمْ مِّيْثَاقًا غَلِيْظًا١٥٤
Wa rafa‘nā fauqahumuṭ ṭūra bimīṡāqihim wa qulnā lahumudkhulul-bāba sujjadaw wa qulnā lahum lā ta‘dū fis-sabti wa akhażnā minhum mīṡāqan galīẓā(n).
[154] और हमने उनसे दृढ़ वचन लेने के साथ तूर (पर्वत) को उनके ऊपर उठा लिया और हमने उनसे कहा : दरवाज़े में सजदा करते हुए प्रवेश करो। तथा हमने उनसे कहा कि शनिवार97 के बारे में अति न करो और हमने उनसे एक दृढ़ वचन लिया।
97. देखिए : सूरतुल बक़रह, आयत : 65.

فَبِمَا نَقْضِهِمْ مِّيْثَاقَهُمْ وَكُفْرِهِمْ بِاٰيٰتِ اللّٰهِ وَقَتْلِهِمُ الْاَنْۢبِيَاۤءَ بِغَيْرِ حَقٍّ وَّقَوْلِهِمْ قُلُوْبُنَا غُلْفٌ ۗ بَلْ طَبَعَ اللّٰهُ عَلَيْهَا بِكُفْرِهِمْ فَلَا يُؤْمِنُوْنَ اِلَّا قَلِيْلًاۖ١٥٥
Fabimā naqḍihim mīṡāqahum wa kufrihim bi'āyātillāhi wa qatlihimul-ambiyā'a bigairi ḥaqqiw wa qaulihim qulūbunā gulf(un), bal ṭaba‘allāhu ‘alaihā bikufrihim falā yu'minūna illā qalīlā(n).
[155] फिर उनके अपने वचन को तोड़ देने ही के कारण (हमने उनपर ला'नत की) और उनके अल्लाह की आयतों का इनकार करने और उनके नबियों को बिना किसी अधिकार के क़त्ल करने तथा उनके यह कहने के कारण कि हमारे दिल आवरण में सुरक्षित हैं, बल्कि अल्लाह ने उनपर उनके कुफ़्र की वजह से मुहर लगा दी है। अतः वे बहुत कम ही ईमान लाते हैं।

وَّبِكُفْرِهِمْ وَقَوْلِهِمْ عَلٰى مَرْيَمَ بُهْتَانًا عَظِيْمًاۙ١٥٦
Wa bikufrihim wa qaulihim ‘alā maryama buhtānan ‘aẓīmā(n).
[156] तथा उनके कुफ़्र के कारण और मरयम पर उनके घोर आरोप लगाने के कारण।

وَّقَوْلِهِمْ اِنَّا قَتَلْنَا الْمَسِيْحَ عِيْسَى ابْنَ مَرْيَمَ رَسُوْلَ اللّٰهِۚ وَمَا قَتَلُوْهُ وَمَا صَلَبُوْهُ وَلٰكِنْ شُبِّهَ لَهُمْ ۗوَاِنَّ الَّذِيْنَ اخْتَلَفُوْا فِيْهِ لَفِيْ شَكٍّ مِّنْهُ ۗمَا لَهُمْ بِهٖ مِنْ عِلْمٍ اِلَّا اتِّبَاعَ الظَّنِّ وَمَا قَتَلُوْهُ يَقِيْنًاۢ ۙ١٥٧
Wa qaulihim innā qatalnal-masīḥa ‘īsabna maryama rasūlallāh(i), wa mā qatalūhu wa mā ṣalabūhu wa lākin syubbiha lahum, wa innal-lażīnakhtalafū fīhi lafī syakkim minh(u), mā lahum bihī min ‘ilmin illattibā‘aẓ-ẓanni wa mā qatalūhu yaqīnā(n).
[157] तथा उनके (गर्व से) यह कहने के कारण कि निःसंदेह हमने ही अल्लाह के रसूल मरयम के पुत्र ईसा मसीह को क़त्ल किया। हालाँकि न उन्होंने उसे क़त्ल किया और न उसे सूली पर चढ़ाया, बल्कि उनके लिए (किसी को मसीह का) सदृश बना दिया गया। निःसंदेह जिन लोगों ने इस मामले में मतभेद किया, निश्चय वे इसके संबंध में बड़े संदेह में हैं। उन्हें इसके संबंध में अनुमान का पालन करने के सिवा कोई ज्ञान नहीं, और उन्होंने उसे निश्चित रूप से क़त्ल नहीं किया।

بَلْ رَّفَعَهُ اللّٰهُ اِلَيْهِ ۗوَكَانَ اللّٰهُ عَزِيْزًا حَكِيْمًا١٥٨
Bar rafa‘ahullāhu ilaih(i), wa kānallāhu ‘azīzan ḥakīmā(n).
[158] बल्कि अल्लाह ने उसे अपनी ओर उठा लिया तथा अल्लाह सदा से हर चीज़ पर प्रभुत्वशाली, पूर्ण हिकमत वाला है।

وَاِنْ مِّنْ اَهْلِ الْكِتٰبِ اِلَّا لَيُؤْمِنَنَّ بِهٖ قَبْلَ مَوْتِهٖ ۚوَيَوْمَ الْقِيٰمَةِ يَكُوْنُ عَلَيْهِمْ شَهِيْدًاۚ١٥٩
Wa im min ahlil-kitābi illā layu'minanna bihī qabla mautih(ī), wa yaumal-qiyāmati yakūnu ‘alaihim syahīdā(n).
[159] और किताब वालों में से कोई न होगा, परंतु उसकी मौत से पहले उसपर अवश्य ईमान98 लाएगा और वह क़ियामत के दिन उनपर गवाह99 होगा।
98. अर्थात प्रलय के समीप ईसा अलैहिस्सलाम के आकाश से उतरने पर उस समय के सभी अह्ले किताब उनपर ईमान लाएँगे, और वह उस समय मुह़म्मद सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम के अनुयायी होंगे। सलीब तोड़ देंगे, और सुअरों को मार डालेंगे, तथा इस्लाम के नियमानुसार निर्णय और शासन करेंगे। (सह़ीह़ बुख़ारी : 2222, 3449, मुस्लिम : 155, 156) 99. अर्थात ईसा अलैहिस्सलाम प्रलय के दिन ईसाइयों के बारे में गवाह होंगे। (देखिए : सूरतुल-माइदा, आयत : 117)

فَبِظُلْمٍ مِّنَ الَّذِيْنَ هَادُوْا حَرَّمْنَا عَلَيْهِمْ طَيِّبٰتٍ اُحِلَّتْ لَهُمْ وَبِصَدِّهِمْ عَنْ سَبِيْلِ اللّٰهِ كَثِيْرًاۙ١٦٠
Fa biẓulmim minal-lażīna hādū ḥarramnā ‘alaihim ṭayyibātin uḥillat lahum wa biṣaddihim ‘an sabīlillāhi kaṡīrā(n).
[160] चुनाँचे यहूदी बन जाने वालों के बड़े अत्याचार ही के कारण हमने उनपर कई पाक चीज़ें हराम कर दीं, जो उनके लिए हलाल की गई थीं तथा उनके अल्लाह के रास्ते से बहुत अधिक रोकने का कारण।

وَّاَخْذِهِمُ الرِّبٰوا وَقَدْ نُهُوْا عَنْهُ وَاَكْلِهِمْ اَمْوَالَ النَّاسِ بِالْبَاطِلِ ۗوَاَعْتَدْنَا لِلْكٰفِرِيْنَ مِنْهُمْ عَذَابًا اَلِيْمًا١٦١
Wa akhżihimur-ribā wa qad nuhū ‘anhu wa aklihim amwālan-nāsi bil-bāṭil(i), wa a‘tadnā lil-kāfirīna minhum ‘ażāban alīmā(n).
[161] तथा उनके ब्याज लेने के कारण, जबकि निश्चय उन्हें इससे रोका गया था और उनके लोगों का धन अवैध रूप से खाने के कारण। तथा हमने उनमें से काफ़िरों के लिए दर्दनाक यातना तैयार कर रखी है।

لٰكِنِ الرّٰسِخُوْنَ فِى الْعِلْمِ مِنْهُمْ وَالْمُؤْمِنُوْنَ يُؤْمِنُوْنَ بِمَآ اُنْزِلَ اِلَيْكَ وَمَآ اُنْزِلَ مِنْ قَبْلِكَ وَالْمُقِيْمِيْنَ الصَّلٰوةَ وَالْمُؤْتُوْنَ الزَّكٰوةَ وَالْمُؤْمِنُوْنَ بِاللّٰهِ وَالْيَوْمِ الْاٰخِرِۗ اُولٰۤىِٕكَ سَنُؤْتِيْهِمْ اَجْرًا عَظِيْمًا ࣖ١٦٢
Lākinir-rāsikhūna fil-‘ilmi minhum wal-mu'minūna yu'minūna bimā unzila ilaika wa mā unzila min qablika wal-muqīmīnaṣ-ṣalāta wal-mu'tūnaz-zakāta wal-mu'minūna billāhi wal-yaumil-ākhir(i), ulā'ika sanu'tīhim ajran ‘aẓīmā(n).
[162] परंतु उन (यहूदियों) में से जो लोग ज्ञान में पक्के हैं और जो ईमान वाले हैं, वे उस (क़ुरआन) पर ईमान लाते हैं जो आपपर उतारा गया और जो आपसे पहले उतारा गया, और जो विशेषकर नमाज़ क़ायम करने वाले हैं, और जो ज़कात देने वाले और अल्लाह तथा अंतिम दिन पर ईमान लाने वाले हैं। ये लोग हैं जिन्हें हम बहुत बड़ा प्रतिफल प्रदान करेंगे।

۞ اِنَّآ اَوْحَيْنَآ اِلَيْكَ كَمَآ اَوْحَيْنَآ اِلٰى نُوْحٍ وَّالنَّبِيّٖنَ مِنْۢ بَعْدِهٖۚ وَاَوْحَيْنَآ اِلٰٓى اِبْرٰهِيْمَ وَاِسْمٰعِيْلَ وَاِسْحٰقَ وَيَعْقُوْبَ وَالْاَسْبَاطِ وَعِيْسٰى وَاَيُّوْبَ وَيُوْنُسَ وَهٰرُوْنَ وَسُلَيْمٰنَ ۚوَاٰتَيْنَا دَاوٗدَ زَبُوْرًاۚ١٦٣
Innā auḥainā ilaika kamā auḥainā ilā nūḥiw wan-nabiyyīna mim ba‘dih(ī), wa auḥainā ilā ibrāhīma wa ismā‘īla wa isḥāqa wa ya‘qūba wal-asbāṭi wa ‘īsā wa ayyūba wa yūnusa wa hārūna wa sulaimān(a), wa ātainā dāwūda zabūrā(n).
[163] (ऐ नबी!) निःसंदेह हमने आपकी ओर वह़्य100 भेजी, जैसे हमने नूह़ और उसके बाद (दूसरे) नबियों की ओर वह़्य भेजी। और हमने इबराहीम, इसमाईल, इसहाक़, याक़ूब और उसकी संतान, तथा ईसा, अय्यूब, यूनुस, हारून और सुलैमान की ओर वह़्य भेजी और हमने दाऊद को ज़बूर प्रदान की।
100. वह़्य का अर्थ : संकेत करना, दिल में कोई बात डाल देना, गुप्त रूप से कोई बात कहना तथा संदेश भेजना है। ह़ारिस रज़ियल्लाहु अन्हु ने प्रश्न किया : अल्लाह के रसूल! आप पर वह़्य कैसे आती है? आपने कहा : कभी निरंतर घंटी की ध्वनि जैसे आती है, जो मेरे लिए बहुत भारी होती है। और यह दशा दूर होने पर मुझे सब बात याद रहती है। और कभी फ़रिश्ता मनुष्य के रूप में आकर मुझसे बात करता है, तो मैं उसे याद कर लेता हूँ। (सह़ीह़ बुख़ारी : 2, मुस्लिम : 2333)

وَرُسُلًا قَدْ قَصَصْنٰهُمْ عَلَيْكَ مِنْ قَبْلُ وَرُسُلًا لَّمْ نَقْصُصْهُمْ عَلَيْكَ ۗوَكَلَّمَ اللّٰهُ مُوْسٰى تَكْلِيْمًاۚ١٦٤
Wa rusulan qad qaṣaṣnāhum ‘alaika wa rusulal lam naqṣuṣhum ‘alaik(a), wa kallamallāhu mūsā taklīmā(n).
[164] और (हमने) कुछ रसूल ऐसे (भेजे), जिनके बारे में हम पहले तुम्हें बता चुके हैं, और कुछ रसूल ऐसे (भेजे), जिनके बारे में हमने तुम्हें कुछ नहीं बताया। और अल्लाह ने मूसा से वास्तव में बात की।

رُسُلًا مُّبَشِّرِيْنَ وَمُنْذِرِيْنَ لِئَلَّا يَكُوْنَ لِلنَّاسِ عَلَى اللّٰهِ حُجَّةٌ ۢ بَعْدَ الرُّسُلِ ۗوَكَانَ اللّٰهُ عَزِيْزًا حَكِيْمًا١٦٥
Rusulam mubasysyirīna wa munżirīna li'allā yakūna lin-nāsi ‘alallāhi ḥujjatum ba‘dar-rusul(i), wa kānallāhu ‘azīzan ḥakīmā(n).
[165] ऐसे रसूल जो शुभ सूचना सुनाने वाले और डराने वाले थे। ताकि लोगों के पास रसूलों के बाद अल्लाह के मुक़ाबले में कोई तर्क न रह101 जाए। और अल्लाह सदा से सब पर प्रभुत्वशाली, पूर्ण हिकमत वाला है।
101. अर्थात कोई अल्लाह के सामने यह न कह सके कि हमें मार्गदर्शन देने के लिए कोई नहीं आया।

لٰكِنِ اللّٰهُ يَشْهَدُ بِمَآ اَنْزَلَ اِلَيْكَ اَنْزَلَهٗ بِعِلْمِهٖ ۚوَالْمَلٰۤىِٕكَةُ يَشْهَدُوْنَ ۗوَكَفٰى بِاللّٰهِ شَهِيْدًاۗ١٦٦
Lākinillāhu yasyhadu bimā anzala ilaika anzalahū bi‘ilmih(ī), wal-malā'ikatu yasyhadūn(a), wa kafā billāhi syahīdā(n).
[166] परंतु अल्लाह गवाही देता है उस (क़ुरआन) के संबंध में, जो उसने आपकी ओर उतारा है कि उसने उसे अपने ज्ञान के साथ उतारा है तथा फ़रिश्ते गवाही देते हैं। और अल्लाह गवाही देने वाला काफ़ी है।

اِنَّ الَّذِيْنَ كَفَرُوْا وَصَدُّوْا عَنْ سَبِيْلِ اللّٰهِ قَدْ ضَلُّوْا ضَلٰلًا ۢ بَعِيْدًا١٦٧
Innal-lażīna kafarū wa ṣaddū ‘an sabīlillāhi qad ḍallū ḍalālam ba‘īdā(n).
[167] निःसंदेह जिन लोगों ने कुफ़्र किया और अल्लाह की राह102 से रोका, निश्चय वे गुमराह होकर बहुत दूर जा पड़े।
102. अर्थात इस्लाम से रोका।

اِنَّ الَّذِيْنَ كَفَرُوْا وَظَلَمُوْا لَمْ يَكُنِ اللّٰهُ لِيَغْفِرَ لَهُمْ وَلَا لِيَهْدِيَهُمْ طَرِيْقًاۙ١٦٨
Innal-lażīna kafarū wa ẓalamū lam yakunillāhu liyagfira lahum wa lā liyahdiyahum ṭarīqā(n).
[168] निःसंदेह जिन लोगों ने कुफ़्र किया और अत्याचार किया, अल्लाह कभी ऐसा नहीं कि उन्हें क्षमा कर दे और न यह कि उन्हें कोई राह दिखा दे।

اِلَّا طَرِيْقَ جَهَنَّمَ خٰلِدِيْنَ فِيْهَآ اَبَدًا ۗوَكَانَ ذٰلِكَ عَلَى اللّٰهِ يَسِيْرًا١٦٩
Illā ṭarīqa jahannama khālidīna fīhā abadā(n), wa kāna żālika ‘alallāhi yasīrā(n).
[169] सिवाय जहन्नम के मार्ग के, जिसमें वे सदा-सर्वदा रहने वाले हैं और यह सदा से अल्लाह के लिए बहुत आसान है।

يٰٓاَيُّهَا النَّاسُ قَدْ جَاۤءَكُمُ الرَّسُوْلُ بِالْحَقِّ مِنْ رَّبِّكُمْ فَاٰمِنُوْا خَيْرًا لَّكُمْ ۗوَاِنْ تَكْفُرُوْا فَاِنَّ لِلّٰهِ مَا فِى السَّمٰوٰتِ وَالْاَرْضِۗ وَكَانَ اللّٰهُ عَلِيْمًا حَكِيْمًا١٧٠
Yā ayyuhan-nāsu qad jā'akumur-rasūlu bil-ḥaqqi mir rabbikum fa āminū khairal lakum, wa in takfurū fa inna lillāhi mā fis-samāwāti wal-arḍ(i), wa kānallāhu ‘alīman ḥakīmā(n).
[170] ऐ लोगो! निःसंदेह तुम्हारे पास यह रसूल सत्य के साथ103 तुम्हारे पालनहार की ओर से आए हैं। अतः तुम ईमान ले आओ, तुम्हारे लिए बेहतर होगा। तथा यदि इनकार करो, तो (याद रखो कि) निःसंदेह अल्लाह ही का है जो कुछ आकाशों और धरती में है और अल्लाह सदा से सब कुछ जानने वाला, पूर्ण हिकमत वाला है।
103. अर्थात मुह़म्मद सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम इस्लाम धर्म लेकर आ गए। यहाँ पर यह बात विचारणीय है कि क़ुरआन ने किसी जाति अथवा देशवासी को संबोधित नहीं किया है। वह कहता है कि आप पूरे मानवजाति के नबी हैं। तथा इस्लाम और क़ुरआन पूरे मानवजाति के लिए सत्धर्म है, जो उस अल्लाह का भेजा हुआ सत्धर्म है, जिसकी आज्ञा के अधीन यह पूरा विश्व है। अतः तुम भी उसकी आज्ञा के अधीन हो जाओ।

يٰٓاَهْلَ الْكِتٰبِ لَا تَغْلُوْا فِيْ دِيْنِكُمْ وَلَا تَقُوْلُوْا عَلَى اللّٰهِ اِلَّا الْحَقَّۗ اِنَّمَا الْمَسِيْحُ عِيْسَى ابْنُ مَرْيَمَ رَسُوْلُ اللّٰهِ وَكَلِمَتُهٗ ۚ اَلْقٰىهَآ اِلٰى مَرْيَمَ وَرُوْحٌ مِّنْهُ ۖفَاٰمِنُوْا بِاللّٰهِ وَرُسُلِهٖۗ وَلَا تَقُوْلُوْا ثَلٰثَةٌ ۗاِنْتَهُوْا خَيْرًا لَّكُمْ ۗ اِنَّمَا اللّٰهُ اِلٰهٌ وَّاحِدٌ ۗ سُبْحٰنَهٗٓ اَنْ يَّكُوْنَ لَهٗ وَلَدٌ ۘ لَهٗ مَا فِى السَّمٰوٰتِ وَمَا فِى الْاَرْضِۗ وَكَفٰى بِاللّٰهِ وَكِيْلًا ࣖ١٧١
Yā ahlal-kitābi lā taglū fī dīnikum wa lā taqūlū ‘alallāhi illal-ḥaqq(a), innamal-masīḥu ‘īsabnu maryama rasūlullāhi wa kalimatuh(ū), alqāhā ilā maryama wa rūḥum minh(u), fa āminū billāhi wa rusulih(ī), wa lā taqūlū ṡalāṡah(tun), inntahū khairal lakum innamallāhu ilāhuw wāḥid(un), subḥānahū ay yakūna lahū walad(un), lahū mā fis-samāwāti wa mā fil-arḍ(i), wa kafā billāhi wakīlā(n).
[171] ऐ किताब वालो! अपने धर्म में हद से आगे104 न बढ़ो और अल्लाह के बारे में सत्य के सिवा कुछ न कहो। मरयम का पुत्र ईसा मसीह केवल अल्लाह का रसूल और उसका 'शब्द' है, जिसे (अल्लाह ने) मरयम की ओर भेजा तथा उसकी ओर से एक आत्मा105 है। अतः अल्लाह और उसके रसूलों पर ईमान लाओ और यह न कहो कि (पूज्य) तीन हैं। बाज़ आ जाओ! तुम्हारे लिए बेहतर होगा। अल्लाह केवल एक ही पूज्य है। वह इससे पवित्र है कि उसकी कोई संतान हो। उसी का है जो कुछ आकाशों में हैं और जो कुछ धरती में है और अल्लाह कार्यसाधक106 के रूप में काफ़ी है।
104. अर्थात ईसा अलैहिस्सलाम को रसूल से पूज्य न बनाओ, और यह न कहो कि वह अल्लाह का पुत्र है, और अल्लाह तीन हैं- पिता और पुत्र तथा पवित्रात्मा। 105. अर्थात ईसा अल्लाह का एक भक्त है, जिसे उसने अपने शब्द (कुन) अर्थात "हो जा" से उत्पन्न किया है। इस शब्द के साथ उसने फ़रिश्ते जिब्रील को मरयम के पास भेजा, और उसने उसमें अल्लाह की अनुमति से यह शब्द फूँक दिया, और ईसा अलैहिस्सलाम पैदा हुए। (इब्ने कसीर) 106. अर्थात उसे क्या आवश्यकता है कि संसार में किसी को अपना पुत्र बनाकर भेजे।

لَنْ يَّسْتَنْكِفَ الْمَسِيْحُ اَنْ يَّكُوْنَ عَبْدًا لِّلّٰهِ وَلَا الْمَلٰۤىِٕكَةُ الْمُقَرَّبُوْنَۗ وَمَنْ يَّسْتَنْكِفْ عَنْ عِبَادَتِهٖ وَيَسْتَكْبِرْ فَسَيَحْشُرُهُمْ اِلَيْهِ جَمِيْعًا١٧٢
Lay yastankifal-masīḥu ay yakūna ‘abdal lillāhi wa lal-malā'ikatul-muqarrabūn(a), wa may yastankif ‘an ‘ibādatihī wa yastakbir fa sayaḥsyuruhum ilaihi jamī‘ā(n).
[172] मसीह़ हरगिज़ इससे तिरस्कार महसूस नहीं करेगा कि वह अल्लाह का बंदा हो और न निकटवर्ती फ़रिश्ते ही, और जो भी उसकी बंदगी से तिरस्कार महसूस करे और अभिमान करे, तो वह (अल्लाह) उन सभी को अपने पास एकत्र करेगा।

فَاَمَّا الَّذِيْنَ اٰمَنُوْا وَعَمِلُوا الصّٰلِحٰتِ فَيُوَفِّيْهِمْ اُجُوْرَهُمْ وَيَزِيْدُهُمْ مِّنْ فَضْلِهٖۚ وَاَمَّا الَّذِيْنَ اسْتَنْكَفُوْا وَاسْتَكْبَرُوْا فَيُعَذِّبُهُمْ عَذَابًا اَلِيْمًاۙ وَّلَا يَجِدُوْنَ لَهُمْ مِّنْ دُوْنِ اللّٰهِ وَلِيًّا وَّلَا نَصِيْرًا١٧٣
Fa ammal-lażīna āmanū wa ‘amiluṣ-ṣāliḥāti fa yuwaffīhim ujūrahum wa yazīduhum min faḍlih(ī), wa ammal-lażīnastankafū wastakbarū fa yu‘ażżibuhum ‘ażāban alīmā(n), wa lā yajidūna lahum min dūnillāhi waliyyaw wa lā naṣīrā(n).
[173] फिर जो लोग ईमान लाए और उन्होंने अच्छे कर्म किए, तो वह उन्हें उनका भरपूर बदला देगा और उन्हें अपने अनुग्रह से अधिक107 भी देगा। रहे वे लोग जिन्होंने (अल्लाह की इबादत को) तिरस्कार समझा और अभिमान किया, तो वह उन्हें दर्दनाक यातना देगा। तथा वे अपने लिए अल्लाह के सिवा न कोई मित्र पाएँगे और न कोई सहायक।
107. यहाँ "अधिक" से अभिप्राय स्वर्ग में अल्लाह का दर्शन है। (सह़ीह मुस्लिम :181, तिर्मिज़ी : 2552)

يٰٓاَيُّهَا النَّاسُ قَدْ جَاۤءَكُمْ بُرْهَانٌ مِّنْ رَّبِّكُمْ وَاَنْزَلْنَآ اِلَيْكُمْ نُوْرًا مُّبِيْنًا١٧٤
Yā ayyuhan-nāsu qad jā'akum burhānum mir rabbikum wa anzalnā ilaikum nūram mubīnā(n).
[174] ऐ लोगो! तुम्हारे पास तुम्हारे पालनहार की ओर से एक स्पष्ट प्रमाण108 आया है और हमने तुम्हारी ओर एक स्पष्ट प्रकाश109 उतारा है।
108. अर्थात मुह़म्मद सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम। 109. अर्थात क़ुरआन शरीफ़। (इब्ने जरीर)

فَاَمَّا الَّذِيْنَ اٰمَنُوْا بِاللّٰهِ وَاعْتَصَمُوْا بِهٖ فَسَيُدْخِلُهُمْ فِيْ رَحْمَةٍ مِّنْهُ وَفَضْلٍۙ وَّيَهْدِيْهِمْ اِلَيْهِ صِرَاطًا مُّسْتَقِيْمًاۗ١٧٥
Fa ammal-lażīna āmanū billāhi wa‘taṣamū bihī fa sayudkhiluhum fī raḥmatim minhu wa faḍl(in), wa yahdīhim ilaihi ṣirāṭam mustaqīmā(n).
[175] फिर जो लोग अल्लाह पर ईमान लाए तथा इस (क़ुरआन) को मज़बूती से थाम लिया, तो वह उन्हें अपनी विशेष दया तथा अनुग्रह में दाख़िल करेगा और उन्हें अपनी ओर सीधी राह दिखाएगा।

يَسْتَفْتُوْنَكَۗ قُلِ اللّٰهُ يُفْتِيْكُمْ فِى الْكَلٰلَةِ ۗاِنِ امْرُؤٌا هَلَكَ لَيْسَ لَهٗ وَلَدٌ وَّلَهٗٓ اُخْتٌ فَلَهَا نِصْفُ مَا تَرَكَۚ وَهُوَ يَرِثُهَآ اِنْ لَّمْ يَكُنْ لَّهَا وَلَدٌ ۚ فَاِنْ كَانَتَا اثْنَتَيْنِ فَلَهُمَا الثُّلُثٰنِ مِمَّا تَرَكَ ۗوَاِنْ كَانُوْٓا اِخْوَةً رِّجَالًا وَّنِسَاۤءً فَلِلذَّكَرِ مِثْلُ حَظِّ الْاُنْثَيَيْنِۗ يُبَيِّنُ اللّٰهُ لَكُمْ اَنْ تَضِلُّوْا ۗ وَاللّٰهُ بِكُلِّ شَيْءٍ عَلِيْمٌ ࣖ١٧٦
Yastaftūnak(a), qulillāhu yuftīkum fil-kalālah(ti), inimru'un halaka laisa lahū waladuw wa lahū ukhtun fa lahā niṣfu mā tarak(a), wa huwa yariṡuhā illam yakul lahā walad(un), fa in kānataṡnataini fa lahumaṡ-ṡuluṡāni mimmā tarak(a), wa in kānū ikhwatar rijālaw wa nisā'an fa liż-żakari miṡlu ḥaẓẓil-unṡayain(i), yubayyinullāhu lakum an taḍillū, wallāhu bikulli syai'in ‘alīm(un).
[176] (ऐ नबी!) वे आपसे फतवा (शरई आदेश) पूछते हैं। आप कह दें : अल्लाह तुम्हें 'कलाला'110 के विषय में फतवा देता है। यदि कोई व्यक्ति मर जाए, जिसकी कोई संतान न हो, और उसकी एक बहन हो, तो उसके लिए उस (धन) का आधा है जो उसने छोड़ा और वह (स्वयं) उस (बहन) का वारिस होगा, यदि उस (बहन) की कोई संतान न हो। फिर यदि वे दो (बहनें) हों, तो उनके लिए उसमें से दो तिहाई होगा जो उसने छोड़ा। और यदि वे कई भाई-बहन पुरुष और महिलाएँ हों, तो पुरुष के लिए दो महिलाओं के हिस्से के बराबर होगा। अल्लाह तुम्हारे लिए खोलकर बयान करता है कि तुम गुमराह न हो जाओ। तथा अल्लाह हर चीज़ को ख़ूब जानने वाला है।
110. कलाला की मीरास का नियम आयत संख्या 12 में आ चुका है, जो उसके तीन प्रकार में से एक के लिए था। अब यहाँ शेष दो प्रकारों का आदेश बताया जा रहा है। अर्थात यदि कलाला के सगे भाई-बहन हों अथवा अल्लाती (जो एक पिता तथा कई माता से हों) तो उनके लिए यह आदेश है।