Surah Al-Ahzab
بِسْمِ اللّٰهِ الرَّحْمٰنِ الرَّحِيْمِ
يٰٓاَيُّهَا النَّبِيُّ اتَّقِ اللّٰهَ وَلَا تُطِعِ الْكٰفِرِيْنَ وَالْمُنٰفِقِيْنَ ۗاِنَّ اللّٰهَ كَانَ عَلِيْمًا حَكِيْمًاۙ١
Yā ayyuhan-nabiyyuttaqillāha wa lā tuṭi‘il-kāfirīna wal-munāfiqīn(a), innallāha kāna ‘alīman ḥakīmā(n).
[1]
ऐ नबी! अल्लाह से डरें, और काफ़िरों तथा मुनाफ़िक़ों का कहना न मानें। निश्चय अल्लाह सब कुछ जानने वाला, बड़ी हिकमत वाला है।1
1. अतः उसी की आज्ञा तथा प्रकाशना का अनुसरण और पालन करो।
وَّاتَّبِعْ مَا يُوْحٰىٓ اِلَيْكَ مِنْ رَّبِّكَ ۗاِنَّ اللّٰهَ كَانَ بِمَا تَعْمَلُوْنَ خَبِيْرًاۙ٢
Wattabi‘ mā yūḥā ilaika mir rabbik(a), innallāha kāna bimā ta‘malūna khabīrā(n).
[2]
तथा उसका अनुसरण करें, जो आपके पालनहार की तरफ से आपकी ओर वह़्य की जा रही है। निश्चय अल्लाह उसकी पूरी ख़बर रखने वाला है, जो तुम कर रहे हो।
وَّتَوَكَّلْ عَلَى اللّٰهِ ۗوَكَفٰى بِاللّٰهِ وَكِيْلًا٣
Wa tawakkal ‘alallāh(i), wa kafā billāhi wakīlā(n).
[3]
और अल्लाह पर भरोसा रखें तथा अल्लाह संरक्षक के रूप में काफ़ी है।
مَا جَعَلَ اللّٰهُ لِرَجُلٍ مِّنْ قَلْبَيْنِ فِيْ جَوْفِهٖ ۚوَمَا جَعَلَ اَزْوَاجَكُمُ الّٰـِٕۤيْ تُظٰهِرُوْنَ مِنْهُنَّ اُمَّهٰتِكُمْ ۚوَمَا جَعَلَ اَدْعِيَاۤءَكُمْ اَبْنَاۤءَكُمْۗ ذٰلِكُمْ قَوْلُكُمْ بِاَفْوَاهِكُمْ ۗوَاللّٰهُ يَقُوْلُ الْحَقَّ وَهُوَ يَهْدِى السَّبِيْلَ٤
Mā ja‘alallāhu lirajulim min qalbaini fī jaufih(ī), wa mā ja‘ala azwājakumul-lā'ī tuẓāhirūna minhunna ummahātikum, wa mā ja‘ala ad‘iyā'akum abnā'akum, żālikum qaulukum bi'afwāhikum, wallāhu yaqūlul-ḥaqqa wa huwa yahdis-sabīl(a).
[4]
अल्लाह ने किसी व्यक्ति के लिए उसके सीने में दो दिल नहीं बनाए, और न उसने तुम्हारी उन पत्नियों को जिनसे तुम ज़िहार करते हो, तुम्हारी माएँ बनाया है, और न तुम्हारे मुँह बोले बेटों को तुम्हारे बेटे बनाया है। यह तो तुम्हारा अपने मुँह से कहना है और अल्लाह सच कहता है तथा वही सीधी राह दिखाता है।2
2. इस आयत का भावार्थ यह है कि जिस प्रकार एक व्यक्ति के दो दिल नहीं होते, वैसे ही उसकी पत्नी ज़िहार कर लेने से उसकी माता तथा उसका मुँह बोला पुत्र, उसका पुत्र नहीं हो जाता। नबी (सल्लल्लाहु अलैह व सल्लम) ने नबी होने से पहले अपने मुक्त किए हुए दास ज़ैद बिन ह़ारिसा को अपना पुत्र बनाया था और उनको ह़ारिसा पुत्र मुह़म्मद कहा जाता था। इसी पर यह आयत उतरी। (सह़ीह़ बुख़ारी : 4782) ज़िहार का विवरण सूरतुल मुजादिला में आ रहा है।
اُدْعُوْهُمْ لِاٰبَاۤىِٕهِمْ هُوَ اَقْسَطُ عِنْدَ اللّٰهِ ۚ فَاِنْ لَّمْ تَعْلَمُوْٓا اٰبَاۤءَهُمْ فَاِخْوَانُكُمْ فِى الدِّيْنِ وَمَوَالِيْكُمْ ۗوَلَيْسَ عَلَيْكُمْ جُنَاحٌ فِيْمَآ اَخْطَأْتُمْ بِهٖ وَلٰكِنْ مَّا تَعَمَّدَتْ قُلُوْبُكُمْ ۗوَكَانَ اللّٰهُ غَفُوْرًا رَّحِيْمًا٥
Ud‘ūhum li'ābā'ihim huwa aqsaṭu ‘indallāh(i), fa illam ta‘lamū ābā'ahum fa ikhwānukum fid-dīni wa mawālīkum, wa laisa ‘alaikum junāḥun fīmā akhṭa'tum bihī wa lākim mā ta‘ammadat qulūbukum, wa kānallāhu gafūrar raḥīmā(n).
[5]
उन्हें उनके बापों की ओर मनसूब करके पुकारो। यह अल्लाह के निकट अधिक न्याय की बात है और यदि तुम उनके बापों को न जानो, तो वे तुम्हारे धार्मिक भाई तथा तुम्हारे मित्र हैं। और तुमपर उसमें कोई दोष नहीं है, जो ग़लती से हो जाए, लेकिन (उसमें दोष है) जो दिल के इरादे से करो। तथा अल्लाह अत्यंत क्षमाशील, अति दयावान् है।
اَلنَّبِيُّ اَوْلٰى بِالْمُؤْمِنِيْنَ مِنْ اَنْفُسِهِمْ وَاَزْوَاجُهٗٓ اُمَّهٰتُهُمْ ۗوَاُولُوا الْاَرْحَامِ بَعْضُهُمْ اَوْلٰى بِبَعْضٍ فِيْ كِتٰبِ اللّٰهِ مِنَ الْمُؤْمِنِيْنَ وَالْمُهٰجِرِيْنَ اِلَّآ اَنْ تَفْعَلُوْٓا اِلٰٓى اَوْلِيَاۤىِٕكُمْ مَّعْرُوْفًا ۗ كَانَ ذٰلِكَ فِى الْكِتٰبِ مَسْطُوْرًا٦
An-nabiyyu aulā bil-mu'minīna min anfusihim wa azwājuhū ummahātuhum, wa ulul-arḥāmi ba‘ḍuhum aulā biba‘ḍin fī kitābillāhi minal-mu'minīna wal-muhājirīna illā an taf‘alū ilā auliyā'ikum ma‘rūfā(n), kāna żālika fil-kitābi masṭūrā(n).
[6]
यह नबी3 ईमान वालों पर उनके अपने प्राणों से अधिक हक़ रखने वाले हैं। और नबी की पत्नियाँ उनकी माताएँ4 हैं। और रिश्तेदार, अल्लाह की किताब के अनुसार, (अन्य) ईमान वालों और मुहाजिरों से एक-दूसरे के अधिक हक़दार5 हैं। सिवाय इसके कि तुम अपने मित्रों के साथ कोई भलाई करो। यह पुस्तक में लिखा हुआ है।
3. ह़दीस में है कि नबी (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) ने कहा : मैं मोमिनों का अधिक हक़दार हूँ। चाहो तो यह आयत पढ़ लो। अतः जो मोमिन माल छोड़ जाए, वह उसके वारिस का है और जो क़र्ज़ तथा निर्बल संतान छोड़ जाए, तो मैं उसका रक्षक हूँ। (सह़ीह़ बुख़ारी : 4781) 4. अर्थात उनका सम्मान माताओं के बराबर है और आपके पश्चात् उनसे विवाह निषिद्ध है। 5. अर्थात धर्म विधानानुसार उत्तराधिकार समीपवर्ती संबंधियों का है। इस्लाम के आरंभिक युग में हिजरत तथा ईमान के आधार पर एक-दूसरे के उत्तराधिकारी होते थे जिसे मीरास की आयत द्वारा निरस्त कर दिया गया।
وَاِذْ اَخَذْنَا مِنَ النَّبِيّٖنَ مِيْثَاقَهُمْ وَمِنْكَ وَمِنْ نُّوْحٍ وَّاِبْرٰهِيْمَ وَمُوْسٰى وَعِيْسَى ابْنِ مَرْيَمَ ۖوَاَخَذْنَا مِنْهُمْ مِّيْثَاقًا غَلِيْظًاۙ٧
Wa iż akhażnā minan-nabiyyīna mīṡāqahum wa minka wa min nūḥiw wa ibrāhīma wa mūsā wa ‘īsabni maryam(a), wa akhażnā minhum mīṡāqan galīẓā(n).
[7]
तथा (याद करो) जब हमने नबियों से उनका वचन6 लिया। तथा (विशेष रूप से) आपसे और नूह और इबराहीम और मूसा और मरयम के पुत्र ईसा से। और हमने उनसे दृढ़ वचन लिया।
6. अर्थात अपना उपदेश पहुँचाने का।
لِّيَسْـَٔلَ الصّٰدِقِيْنَ عَنْ صِدْقِهِمْ ۚوَاَعَدَّ لِلْكٰفِرِيْنَ عَذَابًا اَلِيْمًا ࣖ٨
Liyas'alaṣ-ṣādiqīna ‘an ṣidqihim, wa a‘adda lil-kāfirīna ‘ażāban alīmā(n).
[8]
ताकि वह सच्चे लोगों से उनकी सच्चाई के बारे में पूछे7 तथा उसने काफ़िरों के लिए दर्दनाक यातना तैयार कर रखी है।
7. अर्थात प्रलय के दिन। (देखिए : सूरतुल-आराफ़, आयत : 6)
يٰٓاَيُّهَا الَّذِيْنَ اٰمَنُوا اذْكُرُوْا نِعْمَةَ اللّٰهِ عَلَيْكُمْ اِذْ جَاۤءَتْكُمْ جُنُوْدٌ فَاَرْسَلْنَا عَلَيْهِمْ رِيْحًا وَّجُنُوْدًا لَّمْ تَرَوْهَا ۗوَكَانَ اللّٰهُ بِمَا تَعْمَلُوْنَ بَصِيْرًاۚ٩
Yā ayyuhal-lażīna āmanużkurū ni‘matallāhi ‘alaikum iż jā'atkum junūdun fa'arsalnā ‘alaihim rīḥaw wa junūdal lam tarauhā, wa kānallāhu bimā ta‘malūna baṣīrā(n).
[9]
ऐ ईमान वालो! अपने ऊपर अल्लाह के उपकार को याद करो, जब सेनाएँ तुमपर चढ़ आईं, तो हमने उनपर आँधी भेज दी और ऐसी सेनाएँ, जिन्हें तुमने नहीं देखा। और जो कुछ तुम कर रहे थे, अल्लाह उसे खूब देखने वाला था।
اِذْ جَاۤءُوْكُمْ مِّنْ فَوْقِكُمْ وَمِنْ اَسْفَلَ مِنْكُمْ وَاِذْ زَاغَتِ الْاَبْصَارُ وَبَلَغَتِ الْقُلُوْبُ الْحَنَاجِرَ وَتَظُنُّوْنَ بِاللّٰهِ الظُّنُوْنَا۠ ۗ١٠
Iż jā'ūkum min fauqikum wa min asfala minkum wa iż zāgatil-abṣāru wa balagatil-qulūbul-ḥanājira wa taẓunnūna billāhiẓ-ẓunūnā.
[10]
जब वे तुमपर, तुम्हारे ऊपर से तथा तुम्हारे नीचे से चढ़ आए, तथा जब आँखें फिर गईं, और दिल गले तक पहुँच गए, तथा तुम अल्लाह के बारे में तरह-तरह के गुमान करने लगे।8
8. इन आयतों में अह़्ज़ाब के युद्ध की चर्चा की गई है। जिसका दूसरा नाम (खन्दक़ का युद्ध) भी है। क्योंकि इसमें ख़न्दक़ (खाई) खोद कर मदीना की रक्षा की गई। सन् 5 हिजरी में मक्का के काफ़िरों ने अपने पूरे सहयोगी क़बीलों के साथ एक भारी सेना लेकर मदीना को घेर लिया और नीचे वादी और ऊपर पर्वतों से आक्रमण कर दिया। उस समय अल्लाह ने ईमान वालों की रक्षा आँधी तथा फ़रिश्तों की सेना भेजकर की। और शत्रु पराजित होकर भागे। और फिर कभी मदीना पर आक्रमण करने का साहस न कर सके।
هُنَالِكَ ابْتُلِيَ الْمُؤْمِنُوْنَ وَزُلْزِلُوْا زِلْزَالًا شَدِيْدًا١١
Hunālikabtuliyal-mu'minūna wa zulzilū zilzālan syadīdā(n).
[11]
इस जगह ईमान वाले आज़माए गए और वे पूर्ण रूप से झंझोड़ दिए गए।
وَاِذْ يَقُوْلُ الْمُنٰفِقُوْنَ وَالَّذِيْنَ فِيْ قُلُوْبِهِمْ مَّرَضٌ مَّا وَعَدَنَا اللّٰهُ وَرَسُوْلُهٗٓ اِلَّا غُرُوْرًا١٢
Wa iż yaqūlul-munāfiqūna wal-lażīna fī qulūbihim maraḍum mā wa‘adanallāhu wa rasūluhū illā gurūrā(n).
[12]
और जब मुनाफ़िक़ और वे लोग जिनके दिलों में रोग है, कह रहे थे : अल्लाह और उसके रसूल ने हमसे जो वादा किया था, वह मात्र धोखा था।
وَاِذْ قَالَتْ طَّاۤىِٕفَةٌ مِّنْهُمْ يٰٓاَهْلَ يَثْرِبَ لَا مُقَامَ لَكُمْ فَارْجِعُوْا ۚوَيَسْتَأْذِنُ فَرِيْقٌ مِّنْهُمُ النَّبِيَّ يَقُوْلُوْنَ اِنَّ بُيُوْتَنَا عَوْرَةٌ ۗوَمَا هِيَ بِعَوْرَةٍ ۗاِنْ يُّرِيْدُوْنَ اِلَّا فِرَارًا١٣
Wa iż qālat ṭā'ifatum minhum yā ahla yaṡriba lā muqāma lakum farji‘ū, wa yasta'żinu farīqum minhumun-nabiyya yaqūlūna inna buyūtanā ‘aurah(tun), wa mā hiya bi‘aurah(tin), iy yurīdūna illā firārā(n).
[13]
और जब उनके एक गिरोह ने कहा : ऐ यसरिब9 वालो! तुम्हारे लिए ठहरने का कोई अवसर नहीं है। अतः लौट10 चलो। तथा उनमें से एक गिरोह नबी से (वापसी की) अनुमति माँगता था। वे कहते थे : हमारे घर असुरक्षित हैं। हालाँकि वे असुरक्षित नहीं हैं। वे तो केवल भागना चाहते हैं।
9. यह मदीने का प्राचीन नाम है। 10. अर्थात रणक्षेत्र से अपने घरों को।
وَلَوْ دُخِلَتْ عَلَيْهِمْ مِّنْ اَقْطَارِهَا ثُمَّ سُىِٕلُوا الْفِتْنَةَ لَاٰتَوْهَا وَمَا تَلَبَّثُوْا بِهَآ اِلَّا يَسِيْرًا١٤
Wa lau dukhilat ‘alaihim min aqṭārihā ṡumma su'ilul-fitnata la'ātauhā wa mā talabbaṡū bihā illā yasīrā(n).
[14]
और यदि उनपर उस (मदीने) की चारों ओर से सेनाएँ दाखिल की जातीं, फिर उनसे फितने11 का अह्वान किया जाता, तो वे निश्चित रूप से ऐसा कर डालते और उसमें केवल थोड़ा ही संकोच करते।
11. अर्थात इस्लाम से फिर जाने तथा शिर्क करने का।
وَلَقَدْ كَانُوْا عَاهَدُوا اللّٰهَ مِنْ قَبْلُ لَا يُوَلُّوْنَ الْاَدْبَارَ ۗوَكَانَ عَهْدُ اللّٰهِ مَسْـُٔوْلًا١٥
Wa laqad kānū ‘āhadullāha min qablu lā yuwallūnal-adbār(a), wa kāna ‘ahdullāhi mas'ūlā(n).
[15]
जबकि उन्होंने इससे पूर्व अल्लाह से प्रतिज्ञा की थी कि वे पीठ नहीं फेरेंगे। और अल्लाह से की गई प्रतिज्ञा के बारे में तो पूछा ही जाएगा।
قُلْ لَّنْ يَّنْفَعَكُمُ الْفِرَارُ اِنْ فَرَرْتُمْ مِّنَ الْمَوْتِ اَوِ الْقَتْلِ وَاِذًا لَّا تُمَتَّعُوْنَ اِلَّا قَلِيْلًا١٦
Qul lay yanfa‘akumul-firāru in farartum minal-mauti awil-qatli wa iżal lā tumatta‘ūna illā qalīlā(n).
[16]
आप कह दें : यदि तुम मौत से या क़त्ल होने से भागते हो, तो भागना तुम्हें कदापि लाभ नहीं देगा। और उस समय तुम्हें (जीवन का) बहुत थोड़ा12 लाभ दिया जाएगा ।
12. अर्थात अपनी सीमित आयु तक जो परलोक की अपेक्षा बहुत थोड़ी है।
قُلْ مَنْ ذَا الَّذِيْ يَعْصِمُكُمْ مِّنَ اللّٰهِ اِنْ اَرَادَ بِكُمْ سُوْۤءًا اَوْ اَرَادَ بِكُمْ رَحْمَةً ۗوَلَا يَجِدُوْنَ لَهُمْ مِّنْ دُوْنِ اللّٰهِ وَلِيًّا وَّلَا نَصِيْرًا١٧
Qul man żal-lażī ya‘ṣimukum minallāhi in arāda bikum sū'an au arāda bikum raḥmah(tan), wa lā yajidūna lahum min dūnillāhi waliyyaw wa lā naṣīrā(n).
[17]
आप कह दीजिए : वह कौन है, जो तुम्हें अल्लाह से बचाएगा, यदि वह तुम्हारे साथ कोई बुराई चाहे अथवा तुम पर कोई दया करना चाहे? और वे अपने लिए अल्लाह के सिवा न कोई संरक्षक पाएँगे और न कोई सहायक।
۞ قَدْ يَعْلَمُ اللّٰهُ الْمُعَوِّقِيْنَ مِنْكُمْ وَالْقَاۤىِٕلِيْنَ لِاِخْوَانِهِمْ هَلُمَّ اِلَيْنَا ۚوَلَا يَأْتُوْنَ الْبَأْسَ اِلَّا قَلِيْلًاۙ١٨
Qad ya‘lamullāhul-mu‘awwiqīna minkum wal-qā'ilīna li'ikhwānihim halumma ilainā, wa lā ya'tūnal-ba'sa illā qalīlā(n).
[18]
निश्चय अल्लाह तुम में से उन लोगों को भली-भाँति जानता है, जो (जिहाद से) रोकने वाले हैं और जो अपने भाइयों से कहते हैं कि हमारे पास चले आओ और वे युद्ध में बहुत कम आते हैं।
اَشِحَّةً عَلَيْكُمْ ۖ فَاِذَا جَاۤءَ الْخَوْفُ رَاَيْتَهُمْ يَنْظُرُوْنَ اِلَيْكَ تَدُوْرُ اَعْيُنُهُمْ كَالَّذِيْ يُغْشٰى عَلَيْهِ مِنَ الْمَوْتِۚ فَاِذَا ذَهَبَ الْخَوْفُ سَلَقُوْكُمْ بِاَلْسِنَةٍ حِدَادٍ اَشِحَّةً عَلَى الْخَيْرِۗ اُولٰۤىِٕكَ لَمْ يُؤْمِنُوْا فَاَحْبَطَ اللّٰهُ اَعْمَالَهُمْۗ وَكَانَ ذٰلِكَ عَلَى اللّٰهِ يَسِيْرًا١٩
Asyiḥḥatan ‘alaikum, fa iżā jā'al-khaufu ra'aitahum yanẓurūna ilaika tadūru a‘yunuhum kal-lażī yugsyā ‘alaihi minal-maut(i), fa iżā żahabal-khaufu salaqūkum bi'alsinatin ḥidādin asyiḥḥatan ‘alal-khair(i), ulā'ika lam yu'minū fa aḥbaṭallāhu a‘mālahum, wa kāna żālika ‘alallāhi yasīrā(n).
[19]
वे तुम्हारे बारे में बड़े कंजूस हैं। फिर जब भय13 का समय आ जाए, तो आप उन्हें देखेंगे कि वे आपकी ओर ऐसे देखते हैं कि उनकी आँखें उस व्यक्ति की तरह घूमती हैं, जिसपर मौत की बेहोशी छा रही हो। फिर जब भय दूर हो जाए, तो तुम्हें तेज़ ज़बानों14 के साथ कष्ट पहुँचाएँगे, इस हाल में कि धन के बहुत लोभी हैं। ये लोग ईमान लाए ही नहीं हैं। इसलिए अल्लाह ने उनके कार्यों को व्यर्थ कर दिया। तथा यह अल्लाह पर अति सरल है।
13. अर्थात युद्ध का समय। 14. अर्थात मर्म भेदी बातें करेंगे, और विजय में प्राप्त धन के लोभ में बातें बनाएँगे।
يَحْسَبُوْنَ الْاَحْزَابَ لَمْ يَذْهَبُوْا ۚوَاِنْ يَّأْتِ الْاَحْزَابُ يَوَدُّوْا لَوْ اَنَّهُمْ بَادُوْنَ فِى الْاَعْرَابِ يَسْاَلُوْنَ عَنْ اَنْۢبَاۤىِٕكُمْ ۗوَلَوْ كَانُوْا فِيْكُمْ مَّا قٰتَلُوْٓا اِلَّا قَلِيْلًا ࣖ٢٠
Yaḥsabūnal-aḥzāba lam yażhabū, wa iy ya'til aḥzābu yawaddū lau annahum bādūna fil a‘rābi yas'alūna ‘an ambā'ikum, wa lau kānū fīkum mā qātalū illā qalīlā(n).
[20]
वे समझते हैं कि सैन्य दल (अभी) नहीं गए15 हैं। और यदि सेनाएँ (दोबारा) आ जाएँ, तो वे चाहेंगे कि काश! वे देहातियों के साथ देहातों में चले जाते और (वहीं से) तुम्हारे समाचार मालूम करते रहते। और अगर वे तुम्हारे साथ होते भी, तो युद्ध में कम ही भाग लेते।
15. अर्थात ये मुनाफ़िक़ इतने कायर हैं कि अब भी उन्हें सेनाओं का भय है।
لَقَدْ كَانَ لَكُمْ فِيْ رَسُوْلِ اللّٰهِ اُسْوَةٌ حَسَنَةٌ لِّمَنْ كَانَ يَرْجُوا اللّٰهَ وَالْيَوْمَ الْاٰخِرَ وَذَكَرَ اللّٰهَ كَثِيْرًاۗ٢١
Laqad kāna lakum fī rasūlillāhi uswatun ḥasanatul liman kāna yarjullāha wal yaumal ākhira wa żakarallāha kaṡīrā(n).
[21]
निःसंदेह तुम्हारे लिए अल्लाह के रसूल में उत्तम16 आदर्श है। उसके लिए, जो अल्लाह और अंतिम दिन की आशा रखता हो, तथा अल्लाह को अत्यधिक याद करता हो।
16. अर्थात आपके सहन, साहस तथा वीरता में।
وَلَمَّا رَاَ الْمُؤْمِنُوْنَ الْاَحْزَابَۙ قَالُوْا هٰذَا مَا وَعَدَنَا اللّٰهُ وَرَسُوْلُهٗ وَصَدَقَ اللّٰهُ وَرَسُوْلُهٗ ۖوَمَا زَادَهُمْ اِلَّآ اِيْمَانًا وَّتَسْلِيْمًاۗ٢٢
Wa lammā ra'al-mu'minūnal-aḥzāb(a), qālū hāżā mā wa‘adanallāhu wa rasūluhū wa ṣadaqallāhu wa rasūluh(ū), wa mā zādahum illā īmānaw wa taslīmā(n).
[22]
और जब ईमान वालों ने सेनाएँ देखीं, तो पुकार उठे : यह वही चीज़ है, जिसका अल्लाह और उसके रसूल ने हमसे वादा किया था और अल्लाह और उसके रसूल ने सच कहा। और इस चीज़ ने उनके ईमान तथा आज्ञापालन को और बढ़ा दिया।
مِنَ الْمُؤْمِنِيْنَ رِجَالٌ صَدَقُوْا مَا عَاهَدُوا اللّٰهَ عَلَيْهِ ۚ فَمِنْهُمْ مَّنْ قَضٰى نَحْبَهٗۙ وَمِنْهُمْ مَّنْ يَّنْتَظِرُ ۖوَمَا بَدَّلُوْا تَبْدِيْلًاۙ٢٣
Minal-mu'minīna rijālun ṣadaqū mā ‘āhadullāha ‘alaih(i), faminhum man qaḍā naḥbah(ū), wa minhum may yantaẓir(u), wa mā baddalū tabdīlā(n).
[23]
ईमान वालों में से कुछ लोग ऐसे हैं, जिन्होंने अल्लाह से जो प्रतिज्ञा की थी, उसे सच कर दिखाया। फिर उनमें से कुछ तो अपना प्रण17 पूरा कर चुके, और उनमें से कुछ लोग (अभी) प्रतीक्षा कर रहे हैं। और उन्होंने (अपनी प्रतिज्ञा में) तनिक भी परिवर्तन नहीं किया।
17. अर्थात युद्ध में शहीद कर दिए गए।
لِّيَجْزِيَ اللّٰهُ الصّٰدِقِيْنَ بِصِدْقِهِمْ وَيُعَذِّبَ الْمُنٰفِقِيْنَ اِنْ شَاۤءَ اَوْ يَتُوْبَ عَلَيْهِمْ ۗاِنَّ اللّٰهَ كَانَ غَفُوْرًا رَّحِيْمًاۚ٢٤
Liyajziyallāhuṣ-ṣādiqīna biṣidqihim wa yu‘ażżibal-munāfiqīna in syā'a au yatūba ‘alaihim, innallāha kāna gafūrar raḥīmā(n).
[24]
ताकि अल्लाह सच्चे लोगों को उनके सच का बदला प्रदान करे, और मुनाफ़िक़ों को, यदि चाहे तो यातना दे या उनकी तौबा क़बूल कर ले। निःसंदेह अल्लाह अति क्षमाशील, अत्यंत दयावान् है।
وَرَدَّ اللّٰهُ الَّذِيْنَ كَفَرُوْا بِغَيْظِهِمْ لَمْ يَنَالُوْا خَيْرًا ۗوَكَفَى اللّٰهُ الْمُؤْمِنِيْنَ الْقِتَالَ ۗوَكَانَ اللّٰهُ قَوِيًّا عَزِيْزًاۚ٢٥
Wa raddallāhul-lażīna kafarū bigaiẓihim lam yanālū khairā(n), wa kafallāhul-mu'minīnal-qitāl(a), wa kānallāhu qawiyyan ‘azīzā(n).
[25]
तथा अल्लाह ने काफ़िरों को (मदीना से) उनके क्रोध सहित लौटा दिया, उन्होंने कोई भलाई प्राप्त न की। और अल्लाह ईमान वालों को लड़ाई से काफी हो गया। और अल्लाह बड़ा शक्तिशाली, अत्यंत प्रभुत्वशाली है।
وَاَنْزَلَ الَّذِيْنَ ظَاهَرُوْهُمْ مِّنْ اَهْلِ الْكِتٰبِ مِنْ صَيَاصِيْهِمْ وَقَذَفَ فِيْ قُلُوْبِهِمُ الرُّعْبَ فَرِيْقًا تَقْتُلُوْنَ وَتَأْسِرُوْنَ فَرِيْقًاۚ٢٦
Wa anzalal-lażīna ẓāharūhum min ahlil-kitābi min ṣayāṣīhim wa qażafa fī qulūbihimur-ru‘ba farīqan taqtulūna wa ta'sirūna farīqā(n).
[26]
और अल्लाह ने उन किताब वालों को, जिन्होंने उन (काफ़िरों) की सहायता की थी, उनके क़िलों से उतार दिया तथा उनके दिलों में भय18 डाल दिया। तुम उनके एक समूह को क़त्ल करते थे और एक समूह को बंदी बनाते थे।
18. इस आयत में बनी क़ुरैज़ा के युद्ध की ओर संकेत है। इस यहूदी क़बीले की नबी (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) के साथ संधि थी। फिर भी उन्होंने संधि भंग करके खंदक़ के युद्ध में क़ुरैश मक्का का साथ दिया। अतः युद्ध समाप्त होते ही आपने उनसे युद्ध की घोषण कर दी। और उनकी घेराबंदी कर ली गई। पच्चीस दिन के बाद उन्होंने सा'द बिन मुआज़ को अपना मध्यस्थ मान लिया। और उनके निर्णय के अनुसार उनके लड़ाकुओं को वध कर दिया गया। और बच्चों, बूढ़ों तथा स्त्रियों को बंदी बना लिया गया। इस प्रकार मदीना से इस आतंकवादी क़बीले को सदैव के लिए समाप्त कर दिया गया।
وَاَوْرَثَكُمْ اَرْضَهُمْ وَدِيَارَهُمْ وَاَمْوَالَهُمْ وَاَرْضًا لَّمْ تَطَـُٔوْهَا ۗوَكَانَ اللّٰهُ عَلٰى كُلِّ شَيْءٍ قَدِيْرًا ࣖ٢٧
Wa auraṡakum arḍahum wa diyārahum wa amwālahum wa arḍal lam taṭa'ūhā, wa kānallāhu ‘alā kulli syai'in qadīrā(n).
[27]
और तुम्हें उनकी भूमि तथा उनके घरों और उनके धनों का वारिस बना दिया और उस भूमि का भी जिसपर तुमने क़दम नहीं रखा। और अल्लाह हर चीज़ पर सर्वशक्तिमान है।
يٰٓاَيُّهَا النَّبِيُّ قُلْ لِّاَزْوَاجِكَ اِنْ كُنْتُنَّ تُرِدْنَ الْحَيٰوةَ الدُّنْيَا وَزِيْنَتَهَا فَتَعَالَيْنَ اُمَتِّعْكُنَّ وَاُسَرِّحْكُنَّ سَرَاحًا جَمِيْلًا٢٨
Yā ayyuhan-nabiyyu qul li'azwājika in kuntunna turidnal-ḥayātad-dun-yā wa zīnatahā fa ta‘ālaina umatti‘kunna wa usarriḥkunna sarāḥan jamīlā(n).
[28]
ऐ नबी! आप अपनी पत्नियों से कह दें कि यदि तुम सांसारिक जीवन और उसकी शोभा चाहती हो, तो आओ, मैं तुम्हें कुछ सामान दे दूँ और अच्छे तरीक़े से रुख़्सत कर दूँ।
وَاِنْ كُنْتُنَّ تُرِدْنَ اللّٰهَ وَرَسُوْلَهٗ وَالدَّارَ الْاٰخِرَةَ فَاِنَّ اللّٰهَ اَعَدَّ لِلْمُحْسِنٰتِ مِنْكُنَّ اَجْرًا عَظِيْمًا٢٩
Wa in kuntunna turidnallāha wa rasūlahū wad-dāral-ākhirata fa innallāha a‘adda lil-muḥsināti minkunna ajran ‘aẓīmā(n).
[29]
और यदि तुम अल्लाह और उसके रसूल तथा आख़िरत के घर को चाहती हो, तो अल्लाह ने तुममें से अच्छे कार्य करने वालियों के लिए बहुत बड़ा बदला19 तैयार कर रखा है।
19. इस आयत में अल्लाह ने नबी (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) को यह आदेश दिया है कि आपकी पत्नियाँ जो आपसे गुजारा भत्ता बढ़ाने की माँग कर रही हैं, तो आप उन्हें अपने साथ रहने या न रहने का अधिकार दे दें। और जब आपने उन्हें अधिकार दिया, तो सबने आपके साथ रहने का निर्णय किया। इसको इस्लामी विधान में (तख़्यीर) कहा जाता है। अर्थात पत्नी को तलाक़ लेने का अधिकार दे देना। ह़दीस में है कि जब यह आयत उतरी तो आप (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) ने अपनी पत्नी आयशा से पहले कहा कि मैं तुम्हें एक बात बता रहा हूँ। तुम अपने माता-पिता से परामर्श किए बिना जल्दी न करना। फिर आपने यह आयत सुनाई। तो आयशा (रज़ियल्लाहु अन्हा) ने कहा : मैं इसके बारे में भी अपने माता-पिता से परामर्श करूँ? मैं अल्लाह तथा उसके रसूल और आख़िरत के घर को चाहती हूँ। और फिर आपकी दूसरी पत्नियों ने भी ऐसा ही किया। (देखिए : सह़ीह़ बुख़ारी : 4786)
يٰنِسَاۤءَ النَّبِيِّ مَنْ يَّأْتِ مِنْكُنَّ بِفَاحِشَةٍ مُّبَيِّنَةٍ يُّضٰعَفْ لَهَا الْعَذَابُ ضِعْفَيْنِۗ وَكَانَ ذٰلِكَ عَلَى اللّٰهِ يَسِيْرًا ۔٣٠
Yā nisā'an-nabiyyi may ya'ti minkunna bifāḥisyatim mubayyinatiy yuḍā‘af lahal-‘ażābu ḍi‘fain(i), wa kāna żālika ‘alallāhi yasīrā(n).
[30]
ऐ नबी की पत्नियो! तुममें से जो खुला दुराचार करेगी, उसे दुगनी यातना दी जाएगी। और यह अल्लाह पर अति सरल है।
۞ وَمَنْ يَّقْنُتْ مِنْكُنَّ لِلّٰهِ وَرَسُوْلِهٖ وَتَعْمَلْ صَالِحًا نُّؤْتِهَآ اَجْرَهَا مَرَّتَيْنِۙ وَاَعْتَدْنَا لَهَا رِزْقًا كَرِيْمًا٣١
Wa may yaqnut minkunna lillāhi wa rasūlihī wa ta‘mal ṣāliḥan nu'tihā ajrahā marratain(i), wa a‘tadnā lahā rizqan karīmā(n).
[31]
तथा तुममें से जो अल्लाह और उसके रसूल का आज्ञापालन करेगी और सत्कर्म करेगी, हम उसे उसका दोहरा प्रतिफल प्रदान करेंगे, और हमने उसके लिए सम्मानजनक जीविका20 तैयार कर रखी है।
20. और वह जन्नत है।
يٰنِسَاۤءَ النَّبِيِّ لَسْتُنَّ كَاَحَدٍ مِّنَ النِّسَاۤءِ اِنِ اتَّقَيْتُنَّ فَلَا تَخْضَعْنَ بِالْقَوْلِ فَيَطْمَعَ الَّذِيْ فِيْ قَلْبِهٖ مَرَضٌ وَّقُلْنَ قَوْلًا مَّعْرُوْفًاۚ٣٢
Yā nisā'an-nabiyyi lastunna ka'aḥadim minan-nisā'i inittaqaitunna falā takhḍa‘na bil-qauli fa yaṭma‘al-lażī fī qalbihī maraḍuw wa qulna qaulam ma‘rūfā(n).
[32]
ऐ नबी की पत्नियो! तुम अन्य स्त्रियों के समान नहीं हो। यदि तुम अल्लाह से डरती हो, तो कोमल भाव से बात न करो कि वह व्यक्ति लोभ करने लगे, जिसके दिल में रोग हो। और सभ्य बात बोलो।
وَقَرْنَ فِيْ بُيُوْتِكُنَّ وَلَا تَبَرَّجْنَ تَبَرُّجَ الْجَاهِلِيَّةِ الْاُوْلٰى وَاَقِمْنَ الصَّلٰوةَ وَاٰتِيْنَ الزَّكٰوةَ وَاَطِعْنَ اللّٰهَ وَرَسُوْلَهٗ ۗاِنَّمَا يُرِيْدُ اللّٰهُ لِيُذْهِبَ عَنْكُمُ الرِّجْسَ اَهْلَ الْبَيْتِ وَيُطَهِّرَكُمْ تَطْهِيْرًاۚ٣٣
Wa qarna fī buyūtikunna wa lā tabarrajna tabarrujal-jāhiliyyatil-ūlā wa aqimnaṣ-ṣalāta wa ātīnaz-zakāta wa aṭi‘nallāha wa rasūlah(ū), innamā yurīdullāhu liyużhiba ‘ankumur-rijsa ahlal-baiti wa yuṭahhirakum taṭhīrā(n).
[33]
और अपने घरों में ठहरी रहो, और विगत अज्ञानता के युग की तरह श्रृंगार का प्रदर्शन न करो, तथा नमाज़ क़ायम करो, ज़कात दो तथा अल्लाह और उसके रसूल की आज्ञा का पालन करो। ऐ नबी की घर वालियो! अल्लाह चाहता है कि तुमसे मलिनता को दूर कर दे और तुम्हें पूर्ण रूप से पवित्र कर दे।
وَاذْكُرْنَ مَا يُتْلٰى فِيْ بُيُوْتِكُنَّ مِنْ اٰيٰتِ اللّٰهِ وَالْحِكْمَةِۗ اِنَّ اللّٰهَ كَانَ لَطِيْفًا خَبِيْرًا ࣖ٣٤
Ważkurna mā yutlā fī buyūtikunna min āyātillāhi wal-ḥikmah(ti), innallāha kāna laṭīfan khabīrā(n).
[34]
तथा तुम्हारे घरों में जो अल्लाह की आयतें और हिकमत21 पढ़ी जाती हैं, उन्हें याद रखो। निःसंदेह अल्लाह सूक्ष्मदर्शी, हर चीज़ की खबर रखनेवाला है।
21. यहाँ ह़िकमत से अभिप्राय ह़दीस है जो नबी (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) का कथन, कर्म तथा वह काम है जो आपके सामने किया गया हो और आपने उसे स्वीकार किया हो। वैसे तो अल्लाह की आयत भी ह़िकमत है, किंतु जब दोनों का वर्णन एक साथ हो तो आयत का अर्थ अल्लाह की पुस्तक और ह़िकमत का अर्थ नबी (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) की ह़दीस होती है।
اِنَّ الْمُسْلِمِيْنَ وَالْمُسْلِمٰتِ وَالْمُؤْمِنِيْنَ وَالْمُؤْمِنٰتِ وَالْقٰنِتِيْنَ وَالْقٰنِتٰتِ وَالصّٰدِقِيْنَ وَالصّٰدِقٰتِ وَالصّٰبِرِيْنَ وَالصّٰبِرٰتِ وَالْخٰشِعِيْنَ وَالْخٰشِعٰتِ وَالْمُتَصَدِّقِيْنَ وَالْمُتَصَدِّقٰتِ وَالصَّاۤىِٕمِيْنَ وَالصّٰۤىِٕمٰتِ وَالْحٰفِظِيْنَ فُرُوْجَهُمْ وَالْحٰفِظٰتِ وَالذّٰكِرِيْنَ اللّٰهَ كَثِيْرًا وَّالذّٰكِرٰتِ اَعَدَّ اللّٰهُ لَهُمْ مَّغْفِرَةً وَّاَجْرًا عَظِيْمًا٣٥
Innal-muslimīna wal-muslimāti wal-mu'minīna wal-mu'mināti wal-qānitīna wal-qānitāti waṣ-ṣādiqīna waṣ-ṣādiqāti waṣ-ṣābirīna waṣ-ṣābirāti wal-khāsyi‘īna wal-khāsyi‘āti wal-mutaṣaddiqīna wal-mutaṣaddiqāti waṣ-ṣā'imīna waṣ-ṣā'imāti wal-ḥāfiẓīna furūjahum wal-ḥāfiẓāti waż-żākirīnallāha kaṡīraw waż-żākirāti a‘addallāhu lahum magfirataw wa ajran ‘aẓīmā(n).
[35]
निःसंदेह मुसलमान पुरुष और मुसलमान स्त्रियाँ, ईमान वाले पुरुष और ईमान वाली स्त्रियाँ, आज्ञाकारी पुरुष और आज्ञाकारिणी स्त्रियाँ, सच्चे पुरुष और सच्ची स्त्रियाँ, धैर्यवान पुरुष और धैर्यवान स्त्रियाँ, विनम्रता दिखाने वाले पुरुष और विनम्रता दिखाने वाली स्त्रियाँ, सदक़ा (दान) देने वाले पुरुष और सदक़ा देने वाली स्त्रियाँ, रोज़ा रखने वाले पुरुष और रोज़ा रखने वाली स्त्रियाँ, अपने गुप्तांगों की रक्षा करने वाले पुरुष और रक्षा करने वाली स्त्रियाँ तथा अल्लाह को अत्यधिक याद करने वाले पुरुष और याद करने वाली स्त्रियाँ, अल्लाह ने इनके लिए क्षमा तथा महान प्रतिफल तैयार कर रखा है।22
22. इस आयत में मुसलमान पुरुष तथा स्त्री को समान अधिकार दिए गए हैं। विशेष रूप से अल्लाह की उपासना में, तथा दोनों का प्रतिफल भी एक बताया गया है, जो इस्लाम धर्म की विशेषताओं में से एक है।
وَمَا كَانَ لِمُؤْمِنٍ وَّلَا مُؤْمِنَةٍ اِذَا قَضَى اللّٰهُ وَرَسُوْلُهٗٓ اَمْرًا اَنْ يَّكُوْنَ لَهُمُ الْخِيَرَةُ مِنْ اَمْرِهِمْ ۗوَمَنْ يَّعْصِ اللّٰهَ وَرَسُوْلَهٗ فَقَدْ ضَلَّ ضَلٰلًا مُّبِيْنًاۗ٣٦
Wa mā kāna limu'miniw wa lā mu'minatin iżā qaḍallāhu wa rasūluhū amran ay yakūna lahumul-khiyaratu min amrihim, wa may ya‘ṣillāha wa rasūlahū faqad ḍalla ḍalālam mubīnā(n).
[36]
तथा किसी ईमान वाले पुरुष और ईमान वाली स्त्री को यह अधिकार नहीं कि जब अल्लाह और उसका रसूल किसी मामले का निर्णय कर दें, तो उनके लिए अपने मामले में कोई अख़्तियार बाक़ी रहे। और जो अल्लाह और उसके रसूल की अवज्ञा करे, वह खुली गुमराही में पड़ गया।23
23. ह़दीस में है कि आप (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) ने कहा : मेरी पूरी उम्मत स्वर्ग में जाएगी, किंतु जो इनकार करे। कहा गया कि कौन इनकार करेगा, ऐ अल्लाह के रसूल? आपने कहा : जिसने मेरी बात मानी वह स्वर्ग में जाएगा और जिसने नहीं मानी, तो उसने इनकार किया। (सहीह़ बुखारी : 2780)
وَاِذْ تَقُوْلُ لِلَّذِيْٓ اَنْعَمَ اللّٰهُ عَلَيْهِ وَاَنْعَمْتَ عَلَيْهِ اَمْسِكْ عَلَيْكَ زَوْجَكَ وَاتَّقِ اللّٰهَ وَتُخْفِيْ فِيْ نَفْسِكَ مَا اللّٰهُ مُبْدِيْهِ وَتَخْشَى النَّاسَۚ وَاللّٰهُ اَحَقُّ اَنْ تَخْشٰىهُ ۗ فَلَمَّا قَضٰى زَيْدٌ مِّنْهَا وَطَرًاۗ زَوَّجْنٰكَهَا لِكَيْ لَا يَكُوْنَ عَلَى الْمُؤْمِنِيْنَ حَرَجٌ فِيْٓ اَزْوَاجِ اَدْعِيَاۤىِٕهِمْ اِذَا قَضَوْا مِنْهُنَّ وَطَرًاۗ وَكَانَ اَمْرُ اللّٰهِ مَفْعُوْلًا٣٧
Wa iż taqūlu lil-lażī an‘amallāhu ‘alaihi wa an‘amta ‘alaihi amsik ‘alaika zaujaka wattaqillāha wa tukhfī fī nafsika mallāhu mubdīhi wa takhsyan-nās(a), wallāhu aḥaqqu an takhsyāh(u), falammā qaḍā zaidum minhā waṭaran zawwajnākahā likai lā yakūna ‘alal-mu'minīna ḥarajun fī azwāji ad‘iyā'ihim iżā qaḍau minhunna waṭarā(n), wa kāna amrullāhi maf‘ūlā(n).
[37]
तथा (ऐ नबी!) आप (वह समय याद करें) जब आप उस व्यक्ति से, जिसपर अल्लाह ने उपकार किया तथा जिसपर आपने (भी) उपकार किया था, कह रहे थे : अपनी पत्नी को अपने पास रोके रखो तथा अल्लाह से डरो। और आप अपने मन में वह बात छिपा रहे थे, जिसे अल्लाह प्रकट करने वाला24 था। तथा आप लोगों से डर रहे थे, हालाँकि अल्लाह अधिक योग्य है कि आप उससे डरें। फिर जब ज़ैद ने उस (स्त्री) से अपनी आवश्यकता पूरी कर ली, तो हमने आपसे उसका विवाह कर दिया, ताकि ईमान वालों पर अपने मुँह बोले (लेपालक) बेटों की पत्नियों के विषय25 में कोई तंगी न रहे, जब वे उनसे अपनी आवश्यकता पूरी कर लें। तथा अल्लाह का आदेश तो पूरा होकर ही रहता है।
24. हदीस में है कि यह आयत ज़ैनब बिन्त जह्श तथा (उनके पति) ज़ैद बिन ह़ारिसा के बारे में उतरी। (सह़ीह़ बुख़ारी, ह़दीस संख्या : 4787) ज़ैद बिन ह़ारिसा नबी (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) के दास थे। आपने उन्हें मुक्त करके अपना पुत्र बना लिया। और ज़ैनब से विवाह दिया। परंतु दोनों में निभाव न हो सका। और ज़ैद ने अपनी पत्नी को तलाक़ दे दी। और जब मुँह बोले पुत्र की परंपरा को तोड़ दिया गया तो इसे पूर्णतः खंडित करने के लिए आप (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) को ज़ैनब से आकाशीय आदेश द्वारा विवाह दिया गया। इस आयत में उसी की ओर संकेत है। (इब्ने कसीर) 25. अर्थात उनसे विवाह करने में जब वे उन्हें तलाक़ दे दें। क्योंकि जाहिली समय में मुँह बोले पुत्र की पत्नी से विवाह वैसे ही निषेध था जैसे सगे पुत्र की पत्नी से। अल्लाह ने इस नियम को तोड़ने के लिए नबी (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) का विवाह अपने मुँह बोले पुत्र की पत्नी से कराया। ताकि मुसलमानों को इससे शिक्षा मिले कि ऐसा करने में कोई दोष नहीं है।
مَا كَانَ عَلَى النَّبِيِّ مِنْ حَرَجٍ فِيْمَا فَرَضَ اللّٰهُ لَهٗ ۗسُنَّةَ اللّٰهِ فِى الَّذِيْنَ خَلَوْا مِنْ قَبْلُ ۗوَكَانَ اَمْرُ اللّٰهِ قَدَرًا مَّقْدُوْرًاۙ٣٨
Mā kāna ‘alan-nabiyyi min ḥarajin fīmā faraḍallāhu lah(ū), sunnatallāhi fil-lażīna khalau min qabl(u), wa kāna amrullāhi qadaram maqdūrā(n).
[38]
नबी पर उस कार्य में कोई तंगी (पाप) नहीं है, जो अल्लाह ने उसके लिए निर्धारित किया है।26 अल्लाह का यही नियम रहा है उन लोगों के बारे में भी जो पहले गुज़र चुके हैं। तथा अल्लाह का आदेश एक निश्चित निर्णय होता है।
26. अर्थात अपने मुँह बोले पुत्र की पत्नी से उसके तलाक़ देने के पश्चात् विवाह करने में।
ۨالَّذِيْنَ يُبَلِّغُوْنَ رِسٰلٰتِ اللّٰهِ وَيَخْشَوْنَهٗ وَلَا يَخْشَوْنَ اَحَدًا اِلَّا اللّٰهَ ۗوَكَفٰى بِاللّٰهِ حَسِيْبًا٣٩
Allażīna yuballigūna risālātillāhi wa yakhsyaunahū wa lā yakhsyauna aḥadan illallāh(a), wa kafā billāhi ḥasībā(n).
[39]
जो अल्लाह के संदेश पहुँचाते हैं तथा उससे डरते हैं और अल्लाह के सिवा किसी से नहीं डरते, और अल्लाह हिसाब लेने के लिए काफ़ी है।
مَا كَانَ مُحَمَّدٌ اَبَآ اَحَدٍ مِّنْ رِّجَالِكُمْ وَلٰكِنْ رَّسُوْلَ اللّٰهِ وَخَاتَمَ النَّبِيّٖنَۗ وَكَانَ اللّٰهُ بِكُلِّ شَيْءٍ عَلِيْمًا ࣖ٤٠
Mā kāna muḥammadun abā aḥadim mir rijālikum wa lākir rasūlallāhi wa khātaman-nabiyyīn(a), wa kānallāhu bikulli syai'in ‘alīmā(n).
[40]
मुहम्मद तुम्हारे पुरुषों में से किसी के पिता27 नहीं हैं। बल्कि वह अल्लाह के रसूल और नबियों के समापक28 हैं। और अल्लाह प्रत्येक वस्तु को भली-भाँति जानने वाला है।
27. अर्थात आप ज़ैद के पिता नहीं हैं। उसके वास्तविक पिता ह़ारिसा हैं। 28. अर्थात अब आप के पश्चात् प्रलय तक कोई नबी नहीं आएगा। आप ही संसार के अंतिम रसूल हैं। ह़दीस में है कि आप सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ने फ़रमाया : मेरी मिसाल तथा नबियों का उदाहरण ऐसा है जैसे किसी ने एक सुंदर भवन बनाया। और एक ईंट की जगह छोड़ दी। तो उसे देखकर लोग आश्चर्य करने लगे कि इसमें एक ईंट की जगह के सिवा कोई कमी नहीं थी। तो मैं वह ईंट हूँ। मैंने उस ईंट की जगह भर दी। और भवन पूरा हो गया। और मेरे द्वारा नबियों की कड़ी का अंत कर दिया गया। (सह़ीह़ बुख़ारी, ह़दीस संख्या : 3535, सह़ीह़ मुस्लिम : 2286)
يٰٓاَيُّهَا الَّذِيْنَ اٰمَنُوا اذْكُرُوا اللّٰهَ ذِكْرًا كَثِيْرًاۙ٤١
Yā ayyuhal-lażīna āmanużkurullāha żikran kaṡīrā(n),
[41]
ऐ ईमान वालो! अल्लाह को बहुलता से याद करो।29
29. अपने मुखों, कर्मों तथा दिलों से नमाज़ों के पश्चात् तथा अन्य समय में। ह़दीस में है कि जो अल्लाह को याद करता है और जो याद नहीं करता है, दोनों में वही अंतर है, जो जीवित तथा मरे हुए में है। (सह़ीह़ बुख़ारी, ह़दीस संख्या : 6407, मुस्लिम : 779)
وَّسَبِّحُوْهُ بُكْرَةً وَّاَصِيْلًا٤٢
Wa sabbiḥūhu bukrataw wa aṣīlā(n).
[42]
तथा सुबह व शाम उसकी पवित्रता बयान करो।
هُوَ الَّذِيْ يُصَلِّيْ عَلَيْكُمْ وَمَلٰۤىِٕكَتُهٗ لِيُخْرِجَكُمْ مِّنَ الظُّلُمٰتِ اِلَى النُّوْرِۗ وَكَانَ بِالْمُؤْمِنِيْنَ رَحِيْمًا٤٣
Huwal-lażī yuṣallī ‘alaikum wa malā'ikatahū liyukhrijakum minaẓ-ẓulumāti ilan-nūr(i), wa kāna bil-mu'minīna raḥīmā(n).
[43]
वही है, जो तुमपर दया अवतरित करता है और उसके फ़रिश्ते भी (तुम्हारे लिए प्रार्थना करते हैं), ताकि वह तुम्हें अँधेरों से निकाल कर प्रकाश30 की ओर लाए। तथा वह ईमान वालों पर बहुत दयालु है।
30. अर्थात अज्ञानता तथा कुपथ से, इस्लाम के प्रकाश की ओर।
تَحِيَّتُهُمْ يَوْمَ يَلْقَوْنَهٗ سَلٰمٌ ۚوَاَعَدَّ لَهُمْ اَجْرًا كَرِيْمًا٤٤
Taḥiyyatuhum yauma yalqaunahū salām(un), wa a‘adda lahum ajran karīmā(n).
[44]
जिस दिन वे अपने पालनहार से मिलेंगे, उनका अभिवादन सलाम होगा। और उसने उनके लिए सम्मानजनका प्रतिफल तैयार कर रखा है।
يٰٓاَيُّهَا النَّبِيُّ اِنَّآ اَرْسَلْنٰكَ شَاهِدًا وَّمُبَشِّرًا وَّنَذِيْرًاۙ٤٥
Yā ayyuhan-nabiyyu innā arsalnāka syāhidaw wa mubasysyiraw wa nażīrā(n).
[45]
ऐ नबी! हमने आपको गवाही31 देने वाला, शुभ सूचना देने वाला32 और डराने वाला33 बनाकर भेजा है।
31. अर्थात लोगों को अल्लाह का उपदेश पहुँचाने की गवाही देने वाला। (देखिए : सूरतुल-बक़रा, आयत : 143, तथा सूरतुन-निसा, आयत : 41) 32. अल्लाह की दया तथा स्वर्ग का, आज्ञाकारियों के लिए। 33. अल्लाह की यातना तथा नरक से, अवज्ञाकारीयों के लिए।
وَّدَاعِيًا اِلَى اللّٰهِ بِاِذْنِهٖ وَسِرَاجًا مُّنِيْرًا٤٦
Wa dā‘iyan ilallāhi bi'iżnihī wa sirājam munīrā(n).
[46]
तथा अल्लाह की अनुमति से उसकी ओर बुलाने वाला और एक प्रकाशमान दीप (बनाकर भेजा है)।34
34. इस आयत में यह संकेत है कि आप (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) दिव्य प्रदीप के समान पूरे मानव विश्व को सत्य के प्रकाश से, जो एकेश्वरवाद तथा एक अल्लाह की इबादत है, प्रकाशित करने के लिए आए हैं। और यही आपकी विशेषता है कि आप किसी जाति या देश अथवा वर्ण-वर्ग के लिए नहीं आए हैं। और अब प्रलय तक सत्य का प्रकाश आप ही के अनुसरण से प्राप्त हो सकता है।
وَبَشِّرِ الْمُؤْمِنِيْنَ بِاَنَّ لَهُمْ مِّنَ اللّٰهِ فَضْلًا كَبِيْرًا٤٧
Wa basysyiril-mu'minīna bi'anna lahum minallāhi faḍlan kabīrā(n).
[47]
तथा आप ईमान वालों को शुभ सूचना दे दें कि उनके लिए अल्लाह की ओर से बड़ा अनुग्रह है।
وَلَا تُطِعِ الْكٰفِرِيْنَ وَالْمُنٰفِقِيْنَ وَدَعْ اَذٰىهُمْ وَتَوَكَّلْ عَلَى اللّٰهِ ۗوَكَفٰى بِاللّٰهِ وَكِيْلًا٤٨
Wa lā tuṭi‘il-kāfirīna wal-munāfiqīna wa da‘ ażāhum wa tawakkal ‘alallāh(i), wa kafā billāhi wakīlā(n).
[48]
तथा आप काफ़िरों और मुनाफ़िकों की बात न मानें, तथा उनके कष्ट पहुँचाने की परवाह न करें, और अल्लाह ही पर भरोसा रखें, तथा अल्लाह काम बनाने के लिए काफ़ी है।
يٰٓاَيُّهَا الَّذِيْنَ اٰمَنُوْٓا اِذَا نَكَحْتُمُ الْمُؤْمِنٰتِ ثُمَّ طَلَّقْتُمُوْهُنَّ مِنْ قَبْلِ اَنْ تَمَسُّوْهُنَّ فَمَا لَكُمْ عَلَيْهِنَّ مِنْ عِدَّةٍ تَعْتَدُّوْنَهَاۚ فَمَتِّعُوْهُنَّ وَسَرِّحُوْهُنَّ سَرَاحًا جَمِيْلًا٤٩
Yā ayyuhal-lażīna āmanū iżā nakaḥtumul-mu'mināti ṡumma ṭallaqtumūhunna min qabli an tamassūhunna famā lakum ‘alaihinna min ‘iddatin ta‘taddūnahā, fa matti‘ūhunna wa sarriḥūhunna sarāḥan jamīlā(n).
[49]
ऐ ईमान वालो! जब तुम ईमान वाली स्त्रियों से विवाह करो, फिर उन्हें हाथ लगाने से पहले ही तलाक़ दे दो, तो तुम्हारे लिए उनपर कोई इद्दत35 नहीं, जिसकी तुम गिनती करो। अतः तुम उन्हें कुछ सामान दे दो और उन्हें भलाई के साथ विदा कर दो।
35. अर्थात तलाक़ के पश्चात की निर्धारित प्रतीक्षा अवधि, जिसके भीतर दूसरे से विवाह करने की अनुमति नहीं है।
يٰٓاَيُّهَا النَّبِيُّ اِنَّآ اَحْلَلْنَا لَكَ اَزْوَاجَكَ الّٰتِيْٓ اٰتَيْتَ اُجُوْرَهُنَّ وَمَا مَلَكَتْ يَمِيْنُكَ مِمَّآ اَفَاۤءَ اللّٰهُ عَلَيْكَ وَبَنٰتِ عَمِّكَ وَبَنٰتِ عَمّٰتِكَ وَبَنٰتِ خَالِكَ وَبَنٰتِ خٰلٰتِكَ الّٰتِيْ هَاجَرْنَ مَعَكَۗ وَامْرَاَةً مُّؤْمِنَةً اِنْ وَّهَبَتْ نَفْسَهَا لِلنَّبِيِّ اِنْ اَرَادَ النَّبِيُّ اَنْ يَّسْتَنْكِحَهَا خَالِصَةً لَّكَ مِنْ دُوْنِ الْمُؤْمِنِيْنَۗ قَدْ عَلِمْنَا مَا فَرَضْنَا عَلَيْهِمْ فِيْٓ اَزْوَاجِهِمْ وَمَا مَلَكَتْ اَيْمَانُهُمْ لِكَيْلَا يَكُوْنَ عَلَيْكَ حَرَجٌۗ وَكَانَ اللّٰهُ غَفُوْرًا رَّحِيْمًا٥٠
Yā ayyuhan-nabiyyu innā aḥlalnā laka azwājakal-lātī ātaita ujūrahunna wa mā malakat yamīnuka mimmā afā'allāhu ‘alaika wa banāti ‘ammika wa banāti ‘ammātika wa banāti khālika wa banāti khālātikal-lātī hājarna ma‘ak(a), wamra'atam mu'minatan iw wahabat nafsahā lin-nabiyyi in arādan-nabiyyu ay yastankiḥahā, khāliṣatal laka min dūnil-mu'minīn(a), qad ‘alimnā mā faraḍnā ‘alaihim fī azwājihim wa mā malakat aimānuhum likailā yakūna ‘alaika ḥaraj(un), wa kānallāhu gafūrar raḥīmā(n).
[50]
ऐ नबी! निःसंदेह हमने आपके लिए आपकी वे पत्नियाँ हलाल (वैध) कर दी हैं, जिन्हें आपने उनका महर चुका दिया है, तथा वे लौंडियाँ (भी) जो आपके स्वामित्व में हैं, उन लौंडियों में से जो अल्लाह ने ग़नीमत के धन से आपको36 प्रदान की हैं। तथा आपके चाचा की बेटियाँ, आपकी फूफियों की बेटियाँ, आपके मामा की बेटियाँ और आपकी मौसियों की बेटियाँ, जिन्होंने आपके साथ हिजरत की है। तथा वह ईमान वाली महिला भी, जो स्वयं को नबी के लिए दान कर दे, यदि नबी उससे विवाह करना चाहे। यह विशेष रूप से आपके लिए है, अन्य ईमान वालों के लिए नहीं। निश्चय ही हम जानते हैं जो कुछ हमने उनपर उनकी पत्नियों तथा उनके स्वामित्व में आई हुई दासियों के संबंध37 में फ़र्ज़ किया है; ताकि तुमपर कोई तंगी न रहे। और अल्लाह बहुत क्षमा करने वाला, अत्यंत दयालु है।
36. अर्थात वह दासियाँ जो युद्ध में आप के हाथ आई हों। 37. अर्थात यह कि चार पत्नियों से अधिक न रखो तथा महर और विवाह के समय दो साक्षी बनाना और दासियों के लिए चार का प्रतिबंध न होना एवं सबका भरण-पोषण और सबके साथ अच्छा व्यवहार करना इत्यादि।
۞ تُرْجِيْ مَنْ تَشَاۤءُ مِنْهُنَّ وَتُـْٔوِيْٓ اِلَيْكَ مَنْ تَشَاۤءُۗ وَمَنِ ابْتَغَيْتَ مِمَّنْ عَزَلْتَ فَلَا جُنَاحَ عَلَيْكَۗ ذٰلِكَ اَدْنٰٓى اَنْ تَقَرَّ اَعْيُنُهُنَّ وَلَا يَحْزَنَّ وَيَرْضَيْنَ بِمَآ اٰتَيْتَهُنَّ كُلُّهُنَّۗ وَاللّٰهُ يَعْلَمُ مَا فِيْ قُلُوْبِكُمْ ۗوَكَانَ اللّٰهُ عَلِيْمًا حَلِيْمًا٥١
Turjī man tasyā'u wa tu'wī ilaika man tasyā'(u), wa manibtagaita mimman ‘azalta falā junāḥa ‘alaik(a), żālika adnā an taqarra a‘yunuhunna wa lā yaḥzanna wa yarḍaina bimā ātaitahunna kulluhunn(a), wallāhu ya‘lamu mā fī qulūbikum, wa kānallāhu ‘alīman ḥalīmā(n).
[51]
आप अपनी पत्नियों में से जिसे चाहें (उसकी बारी) स्थगित कर दें, और जिसे चाहें अपने साथ रखें, और जिन्हें आपने अलग रखा है, उनमें से जिसकी भी आप (अपने पास रखने की) इच्छा करें, तो इसमें आपपर कोई दोष नहीं है। यह इस बात के अधिक निकट है कि उनकी आँखें ठंडी रहें और वे शोकाकुल न हों, तथा जो कुछ आप उन्हें दें, उससे वे सब संतुष्ट रहें। और जो कुछ तुम्हारे दिलों38 में है, अल्लाह उससे अवगत है। और अल्लाह सब कुछ जानने वाला, बहुत सहनशील39 है।
38. अर्थात किसी एक पत्नी में रूचि। 39. इसीलिए तुरंत यातना नहीं देता।
لَا يَحِلُّ لَكَ النِّسَاۤءُ مِنْۢ بَعْدُ وَلَآ اَنْ تَبَدَّلَ بِهِنَّ مِنْ اَزْوَاجٍ وَّلَوْ اَعْجَبَكَ حُسْنُهُنَّ اِلَّا مَا مَلَكَتْ يَمِيْنُكَۗ وَكَانَ اللّٰهُ عَلٰى كُلِّ شَيْءٍ رَّقِيْبًا ࣖ٥٢
Lā yaḥillu lakan-nisā'u mim ba‘du wa lā an tabaddala bihinna min azwājiw wa lau a‘jabaka ḥusnuhunna illā mā malakat yamīnuk(a), wa kānallāhu ‘alā kulli syai'ir raqībā(n).
[52]
(ऐ नबी!) इसके पश्चात् आपके लिए अन्य स्त्रियाँ हलाल (वैध) नहीं हैं, और न यह कि आप उन्हें दूसरी पत्नियों से बदलें40, यद्यपि उनका सौंदर्य आपको भा जाए, सिवाय उन दासियों के जो आपके स्वामित्व में आ जाएँ। तथा अल्लाह प्रत्येक वस्तु का निरीक्षक है।
40. अर्थात उनमें से किसी को छोड़कर उसके स्थान पर किसी दूसरी स्त्री से विवाह करें।
يٰٓاَيُّهَا الَّذِيْنَ اٰمَنُوْا لَا تَدْخُلُوْا بُيُوْتَ النَّبِيِّ اِلَّآ اَنْ يُّؤْذَنَ لَكُمْ اِلٰى طَعَامٍ غَيْرَ نٰظِرِيْنَ اِنٰىهُ وَلٰكِنْ اِذَا دُعِيْتُمْ فَادْخُلُوْا فَاِذَا طَعِمْتُمْ فَانْتَشِرُوْا وَلَا مُسْتَأْنِسِيْنَ لِحَدِيْثٍۗ اِنَّ ذٰلِكُمْ كَانَ يُؤْذِى النَّبِيَّ فَيَسْتَحْيٖ مِنْكُمْ ۖوَاللّٰهُ لَا يَسْتَحْيٖ مِنَ الْحَقِّۗ وَاِذَا سَاَلْتُمُوْهُنَّ مَتَاعًا فَسْـَٔلُوْهُنَّ مِنْ وَّرَاۤءِ حِجَابٍۗ ذٰلِكُمْ اَطْهَرُ لِقُلُوْبِكُمْ وَقُلُوْبِهِنَّۗ وَمَا كَانَ لَكُمْ اَنْ تُؤْذُوْا رَسُوْلَ اللّٰهِ وَلَآ اَنْ تَنْكِحُوْٓا اَزْوَاجَهٗ مِنْۢ بَعْدِهٖٓ اَبَدًاۗ اِنَّ ذٰلِكُمْ كَانَ عِنْدَ اللّٰهِ عَظِيْمًا٥٣
Yā ayyuhal-lażīna āmanū lā tadkhulū buyūtan-nabiyyi illā ay yu'żana lakum ilā ṭa‘āmin gaira nāẓirīna ināhu wa lākin iżā du‘ītum fadkhulū fa iżā ṭa‘imtum fantasyirū wa lā musta'nisīna liḥadīṡ(in), inna żālikum kāna yu'żin-nabiyya fayastaḥyī minkum, wallāhu lā yastaḥyī minal-ḥaqq(i), wa iżā sa'altumūhunna matā‘an fas'alūhunna miw warā'i ḥijāb(in), żālikum aṭharu liqulūbikum wa qulūbihinn(a), wa mā kāna lakum an tu'żū rasūlallāhi wa lā an tankiḥū azwājahū mim ba‘dihī abadā(n), inna żālikum kāna ‘indallāhi ‘aẓīmā(n).
[53]
ऐ ईमान वालो! नबी के घरों में प्रवेश न करो, सिवाय इसके कि तुम्हें भोजन के लिए अनुमति दी जाए। परंतु भोजन पकने की प्रतीक्षा में (देर तक बैठे) न रहो। बल्कि जब बुलाए जाओ, तो प्रवेश करो। फिर जब भोजन कर लो, तो निकल जाओ। बातों में न लगे रहो। निश्चय ही इससे नबी को कष्ट पहुँचता है। लेकिन उन्हें तुमसे (बाहर जाने को कहने में) शर्म आती है। किंतु अल्लाह सत्य बात से नहीं शरमाता।41 तथा जब तुम नबी की पत्नियों से कुछ माँगो, तो पर्दे के पीछे से माँगो। यह तुम्हारे दिलों तथा उनके दिलों के लिए अधिक पवित्रता का कारण है। और तुम्हारे लिए यह उचित नहीं है कि तुम अल्लाह के रसूल को कष्ट पहुँचाओ, और न यह कि तुम उनके पश्चात् कभी उनकी पत्नियों से विवाह करो। निःसंदेह यह अल्लाह के निकट बहुत बड़ा (पाप) है।
41. इस आयत में नबी (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) के साथ सभ्य व्यवहार करने की शिक्षा दी जा रही है। हुआ यह कि जब आपने ज़ैनब से विवाह किया, तो भोजन बनवाया और कुछ लोगों को आमंत्रित किया। कुछ लोग भोजन करके वहीं बातें करने लगे, जिससे आपको दुःख पहुँचा। इसी पर यह आयत उतरी। फिर पर्दे का आदेश दे दिया गया। (सह़ीह़ बुख़ारी ह़दीस संख्या : 4792)
اِنْ تُبْدُوْا شَيْـًٔا اَوْ تُخْفُوْهُ فَاِنَّ اللّٰهَ كَانَ بِكُلِّ شَيْءٍ عَلِيْمًا٥٤
In tubdū syai'an au tukhfūhu fa'innallāha kāna bikulli syai'in ‘alīmā(n).
[54]
यदि तुम किसी चीज़ को प्रकट करो अथवा उसे गुप्त रखो, अल्लाह प्रत्येक वस्तु को अच्छी तरह जानता है।
لَا جُنَاحَ عَلَيْهِنَّ فِيْٓ اٰبَاۤىِٕهِنَّ وَلَآ اَبْنَاۤىِٕهِنَّ وَلَآ اِخْوَانِهِنَّ وَلَآ اَبْنَاۤءِ اِخْوَانِهِنَّ وَلَآ اَبْنَاۤءِ اَخَوٰتِهِنَّ وَلَا نِسَاۤىِٕهِنَّ وَلَا مَا مَلَكَتْ اَيْمَانُهُنَّۚ وَاتَّقِيْنَ اللّٰهَ ۗاِنَّ اللّٰهَ كَانَ عَلٰى كُلِّ شَيْءٍ شَهِيْدًا٥٥
Lā junāḥa ‘alaihinna fī ābā'ihinna wa lā abnā'ihinna wa lā ikhwānihinna wa lā abnā'i ikhwānihinna wa lā abnā'i akhawātihinna wa lā nisā'ihinna wa lā mā malakat aimānuhunn(a), wattaqīnallāh(a), innallāha kāna ‘alā kulli syai'in syahīdā(n).
[55]
स्त्रियों पर अपने पिताओं, अपने बेटों, अपने भाइयों, अपने भाइयों के बेटों (भतीजों), अपनी बहनों के बेटों (भांजों), अपनी (मेल-जोल की) स्त्रियों और उन (दासों एवं दासियों) से, जो उनके स्वामित्व में हैं, पर्दा न करने में कोई पाप नहीं है। और (ऐ स्त्रियो) तुम अल्लाह से डरती रहो। निःसंदेह अल्लाह प्रत्येक चीज़ का साक्षी है।
اِنَّ اللّٰهَ وَمَلٰۤىِٕكَتَهٗ يُصَلُّوْنَ عَلَى النَّبِيِّۗ يٰٓاَيُّهَا الَّذِيْنَ اٰمَنُوْا صَلُّوْا عَلَيْهِ وَسَلِّمُوْا تَسْلِيْمًا٥٦
Innallāha wa malā'ikatahū yuṣallūna ‘alan-nabiyy(i), yā ayyuhal-lażīna āmanū ṣallū ‘alaihi wa sallimū taslīmā(n).
[56]
निःसंदेह अल्लाह तथा उसके फ़रिश्ते नबी पर दुरूद42 भेजते हैं। ऐ ईमान वालो! तुम (भी) उनपर दुरूद तथा बहुत सलाम भेजा करो।
42. अल्लाह के दुरूद भेजने का अर्थ यह है कि फ़रिश्तों के समक्ष आपकी प्रशंसा करता है। तथा आपपर अपनी दया भेजता है। और फ़रिश्तों के दुरूद भेजने का अर्थ यह है कि वे आपके लिए अल्लाह से दया की प्रार्थना करते हैं। ह़दीस में आता है कि आपसे प्रश्न किया गया कि हम सलाम तो जानते हैं, पर आप पर दुरूद कैसे भेजैं? तो आपने फरमाया : यह कहो : ((अल्लाहुम्मा सल्लि अला मुह़म्मद व अला आलि मुह़म्मद, कमा सल्लैता अला इबराहीम, व अला आलि इबराहीम, इन्नका ह़मीदुम् मजीद। अल्लाहुम्मा बारिक अला मुह़म्मद व अला आलि मुह़म्मद, कमा बारकता अला इबराहीम, व अला आलि इबराहीम, इन्नका ह़मीदुम् मजीद।)) (सह़ीह़ वुख़ारी : 4797) दूसरी ह़दीस में है कि जो मुझपर एक बार दुरूद भेजेगा अल्लाह उस पर दस बार दया भेजता है। (सह़ीह़ मुस्लिम : 408)
اِنَّ الَّذِيْنَ يُؤْذُوْنَ اللّٰهَ وَرَسُوْلَهٗ لَعَنَهُمُ اللّٰهُ فِى الدُّنْيَا وَالْاٰخِرَةِ وَاَعَدَّ لَهُمْ عَذَابًا مُّهِيْنًا٥٧
Innal-lażīna yu'żūnallāha wa rasūlahū la‘anahumullāhu fid-dun-yā wal-ākhirati wa a‘adda lahum ‘ażābam muhīnā(n).
[57]
निःसंदेह जो लोग अल्लाह तथा उसके रसूल को कष्ट पहुँचाते हैं, अल्लाह ने उन्हें दुनिया एवं आखिरत में धिक्कार दिया है और उनके लिए अपमानकारी यातना तैयार की है।
وَالَّذِيْنَ يُؤْذُوْنَ الْمُؤْمِنِيْنَ وَالْمُؤْمِنٰتِ بِغَيْرِ مَا اكْتَسَبُوْا فَقَدِ احْتَمَلُوْا بُهْتَانًا وَّاِثْمًا مُّبِيْنًا ࣖ٥٨
Wal-lażīna yu'żūnal-mu'minīna wal-mu'mināti bigairi maktasabū faqadiḥtamalū buhtānaw wa iṡmam mubīnā(n).
[58]
और जो लोग ईमान वाले पुरुषों तथा ईमान वाली स्त्रियों को कष्ट पहुँचाते हैं, बिना इसके कि उन्होंने कुछ (अपराध) किया हो, तो उन्होंने मिथ्यारोपण और स्पष्ट पाप का बोझ उठाया।
يٰٓاَيُّهَا النَّبِيُّ قُلْ لِّاَزْوَاجِكَ وَبَنٰتِكَ وَنِسَاۤءِ الْمُؤْمِنِيْنَ يُدْنِيْنَ عَلَيْهِنَّ مِنْ جَلَابِيْبِهِنَّۗ ذٰلِكَ اَدْنٰىٓ اَنْ يُّعْرَفْنَ فَلَا يُؤْذَيْنَۗ وَكَانَ اللّٰهُ غَفُوْرًا رَّحِيْمًا٥٩
Yā ayyuhan-nabiyyu qul li'azwājika wa banātika wa nisā'il-mu'minīna yudnīna ‘alaihinna min jalābībihinn(a), żālika adnā ay yu‘rafna falā yu'żain(a), wa kānallāhu gafūrar raḥīmā(n).
[59]
ऐ नबी! अपनी पत्नियों, अपनी बेटियों और ईमान वाले लोगों की स्त्रियों से कह दें कि वे अपने ऊपर अपनी चादरें डाल लिया करें। यह इसके अधिक निकट है कि वे पहचान ली जाएँ, फिर उन्हें कष्ट न पहुँचाया43 जाए। और अल्लाह बहुत क्षमा करने वाला, अत्यंत दयावान् है।
43. इस आयत में नबी (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) की पत्नियों तथा पुत्रियों और साधारण मुस्लिम महिलाओं को यह आदेश दिया गया है कि घर से निकलें तो पर्दे के साथ निकलें। जिसका लाभ यह है कि इससे एक सम्मानित तथा सभ्य महिला की असभ्य तथा कुकर्मी महिला से पहचान होगी और कोई उससे छेड़ छाड़ का साहस नहीं करेगा।
۞ لَىِٕنْ لَّمْ يَنْتَهِ الْمُنٰفِقُوْنَ وَالَّذِيْنَ فِيْ قُلُوْبِهِمْ مَّرَضٌ وَّالْمُرْجِفُوْنَ فِى الْمَدِيْنَةِ لَنُغْرِيَنَّكَ بِهِمْ ثُمَّ لَا يُجَاوِرُوْنَكَ فِيْهَآ اِلَّا قَلِيْلًا٦٠
La'il lam yantahil-munāfiqūna wal-lażīna fī qulūbihim maraḍuw wal-murjifūna fil-madīnati lanugriyannaka bihim ṡumma lā yujāwirūnaka fīhā illā qalīlā(n).
[60]
यदि मुनाफ़िक़44 तथा वे लोग जिनके दिलों में रोग है और मदीना में अफ़वाह फैलाने वाले बाज़ नहीं आए, तो हम आपको उनके पीछे लगा देंगे। फिर वे आपके साथ उसमें थोड़े ही समय के लिए रह सकेंगे।
44. मुनाफ़िक़, मुसलमानों को हताश करने के लिए कभी मुसलमानों की पराजय और कभी किसी भारी सेना के आक्रमण की अफ़वाह मदीना में फैला दिया करते थे। जिसके दुष्परिणाम से उन्हें सावधान किया गया है।
مَلْعُوْنِيْنَۖ اَيْنَمَا ثُقِفُوْٓا اُخِذُوْا وَقُتِّلُوْا تَقْتِيْلًا٦١
Mal‘ūnīn(a), ainamā ṡuqifū ukhiżū wa quttilū taqtīlā(n).
[61]
वे धिक्कारे हुए हैं। जहाँ भी वे पाए जाएँ, पकड़ लिए जाएँगे तथा बुरी तरह वध कर दिए जाएँगे।
سُنَّةَ اللّٰهِ فِى الَّذِيْنَ خَلَوْا مِنْ قَبْلُ ۚوَلَنْ تَجِدَ لِسُنَّةِ اللّٰهِ تَبْدِيْلًا٦٢
Sunnatallāhi fil-lażīna khalau min qabl(u), wa lan tajida lisunnatillāhi tabdīlā(n).
[62]
यही अल्लाह का नियम रहा है उन लोगों के विषय में, जो इनसे पहले गुज़र चुके हैं, तथा आप अल्लाह के नियम में कदापि कोई परिवर्तन नहीं पाएँगे।
يَسْـَٔلُكَ النَّاسُ عَنِ السَّاعَةِۗ قُلْ اِنَّمَا عِلْمُهَا عِنْدَ اللّٰهِ ۗوَمَا يُدْرِيْكَ لَعَلَّ السَّاعَةَ تَكُوْنُ قَرِيْبًا٦٣
Yas'alukan-nāsu ‘anis-sā‘ah(ti), qul innamā ‘ilmuhā ‘indallāh(i), wa mā yudrīka la‘allas-sā‘ata takūnu qarībā(n).
[63]
(ऐ रसूल!) लोग45 आपसे क़ियामत के विषय में पूछते हैं। आप कह दें कि उसका ज्ञान तो मात्र अल्लाह ही के पास है। और आपको क्या मालूम शायद क़ियामत निकट ही हो?
45. यह प्रश्न उपहास स्वरूप किया करते थे। इसलिए उसकी दशा का चित्रण किया गया है।
اِنَّ اللّٰهَ لَعَنَ الْكٰفِرِيْنَ وَاَعَدَّ لَهُمْ سَعِيْرًاۙ٦٤
Innallāha la‘anal-kāfirīna wa a‘adda lahum sa‘īrā(n).
[64]
निःसंदेह अल्लाह ने काफ़िरों को धिक्कार दिया है और उनके लिए भड़कती हुई आग तैयार कर रखी है।
خٰلِدِيْنَ فِيْهَآ اَبَدًاۚ لَا يَجِدُوْنَ وَلِيًّا وَّلَا نَصِيْرًا ۚ٦٥
Khālidīna fīhā abadā(n), lā yajidūna waliyyaw wa lā naṣīrā(n).
[65]
वे उसमें सदैव रहेंगे। वे न कोई दोस्त पाएँगे और न कोई सहायक।
يَوْمَ تُقَلَّبُ وُجُوْهُهُمْ فِى النَّارِ يَقُوْلُوْنَ يٰلَيْتَنَآ اَطَعْنَا اللّٰهَ وَاَطَعْنَا الرَّسُوْلَا۠٦٦
Yauma tuqallabu wujūhuhum fin-nāri yaqūlūna yā laitanā aṭa‘nallāha wa aṭa‘nar-rasūlā.
[66]
जिस दिन उनके चेहरे आग में उलटे-पलटे जाएँगे, तो वे कहेंगे : ऐ काश, हमने अल्लाह का आज्ञापालन किया होता और हमने रसूल का आज्ञापालन किया होता।
وَقَالُوْا رَبَّنَآ اِنَّآ اَطَعْنَا سَادَتَنَا وَكُبَرَاۤءَنَا فَاَضَلُّوْنَا السَّبِيْلَا۠٦٧
Wa qālū rabbanā innā aṭa‘nā sādatanā wa kubarā'anā fa aḍallūnas-sabīlā.
[67]
तथा वे कहेंगे : ऐ हमारे पालनहार! हमने अपने सरदारों और बड़े लोगों का कहा माना, तो उन्होंने हमें सीधे रास्ते से भटका दिया।
رَبَّنَآ اٰتِهِمْ ضِعْفَيْنِ مِنَ الْعَذَابِ وَالْعَنْهُمْ لَعْنًا كَبِيْرًا ࣖ٦٨
Rabbanā ātihim ḍi‘faini minal-‘ażābi wal‘anhum la‘nan kabīrā(n).
[68]
ऐ हमारे पालनहार! उन्हें दोहरी यातना दे और उनपर बड़ी धिक्कार कर।
يٰٓاَيُّهَا الَّذِيْنَ اٰمَنُوْا لَا تَكُوْنُوْا كَالَّذِيْنَ اٰذَوْا مُوْسٰى فَبَرَّاَهُ اللّٰهُ مِمَّا قَالُوْا ۗوَكَانَ عِنْدَ اللّٰهِ وَجِيْهًا ۗ٦٩
Yā ayyuhal-lażīna āmanū lā takūnū kal-lażīna āżau mūsā fa barra'ahullāhu mimmā qālū, wa kāna ‘indallāhi wajīhā(n).
[69]
ऐ ईमान वालो! उन लोगों के समान न हो जाओ, जिन्होंने मूसा को कष्ट पहुँचाया, तो अल्लाह ने उन्हें उनकी कही हुई बातों से बरी46 कर दिया, और वह अल्लाह के यहाँ प्रतिष्ठावान थे।
46. ह़दीस में आया है कि मूसा (अलैहिस्सलाम) बड़े लज्जशील थे। प्रत्येक समय वस्त्र धारण किए रहते थे। जिससे लोग समझने लगे कि संभवतः उनमें कुछ रोग है। परंतु अल्लाह ने एक बार उन्हें नग्न अवस्था में लोगों को दिखा दिया और संदेह दूर हो गया। (सह़ीह़ बुख़ारी : 3404, मुस्लिम : 155)
يٰٓاَيُّهَا الَّذِيْنَ اٰمَنُوا اتَّقُوا اللّٰهَ وَقُوْلُوْا قَوْلًا سَدِيْدًاۙ٧٠
Yā ayyuhal-lażīna āmanuttaqullāha wa qūlū qaulan sadīdā(n).
[70]
ऐ ईमान वालो! अल्लाह से डरो तथा सही और सच्ची बात कहो।
يُّصْلِحْ لَكُمْ اَعْمَالَكُمْ وَيَغْفِرْ لَكُمْ ذُنُوْبَكُمْۗ وَمَنْ يُّطِعِ اللّٰهَ وَرَسُوْلَهٗ فَقَدْ فَازَ فَوْزًا عَظِيْمًا٧١
Yuṣliḥ lakum a‘mālakum wa yagfir lakum żunūbakum, wa may yuṭi‘illāha wa rasūlahū faqad fāza fauzan ‘aẓīmā(n).
[71]
वह तुम्हारे लिए तुम्हारे कर्मों को सुधार देगा, तथा तुम्हारे पापों को क्षमा कर देगा और जो अल्लाह तथा उसके रसूल का आज्ञापालन करे, उसने बड़ी सफलता प्राप्त कर ली।
اِنَّا عَرَضْنَا الْاَمَانَةَ عَلَى السَّمٰوٰتِ وَالْاَرْضِ وَالْجِبَالِ فَاَبَيْنَ اَنْ يَّحْمِلْنَهَا وَاَشْفَقْنَ مِنْهَا وَحَمَلَهَا الْاِنْسَانُۗ اِنَّهٗ كَانَ ظَلُوْمًا جَهُوْلًاۙ٧٢
Innā ‘araḍnal-amānata ‘alas-samāwāti wal-arḍi fa abaina ay yaḥmilnahā wa asyfaqna minhā wa ḥamalahal-insān(u), innahū kāna ẓalūman jahūlā(n).
[72]
हमने अमानत47 को आकाशों और धरती तथा पर्वतों के समक्ष प्रस्तुत किया, लेकिन उन सबने उसका भार उठाने से इनकार कर दिया और वे उससे डर गए। परंतु इनसान ने उसे उठा लिया। निःसंदेह वह बड़ा ही अत्याचारी48 औ बहुत अज्ञानी है।
47. अमानत से अभिप्राय, धार्मिक नियम हैं जिनके पालन का दायित्व तथा भार अल्लाह ने मनुष्य पर रखा है। और उसमें उनका पालन करने की योग्यता रखी है, जो योग्यता आकाशों तथा धरती और पर्वतों को नहीं दी है। 48. अर्थात इस अमानत का भार लेकर भी अपने दायित्व को पूरा न करके स्वयं अपने ऊपर अत्याचार करता है।
لِّيُعَذِّبَ اللّٰهُ الْمُنٰفِقِيْنَ وَالْمُنٰفِقٰتِ وَالْمُشْرِكِيْنَ وَالْمُشْرِكٰتِ وَيَتُوْبَ اللّٰهُ عَلَى الْمُؤْمِنِيْنَ وَالْمُؤْمِنٰتِۗ وَكَانَ اللّٰهُ غَفُوْرًا رَّحِيْمًا ࣖ٧٣
Liyu‘ażżiballāhul-munāfiqīna wal-munāfiqāti wal-musyrikīna wal-musyrikāti wa yatūballāhu ‘alal-mu'minīna wal-mu'mināt(i), wa kānallāhu gafūrar raḥīmā(n).
[73]
ताकि अल्लाह मुनाफ़िक़ पुरुषों तथा मुनाफ़िक़ स्त्रियों और मुश्रिक पुरुषों तथा मुश्रिक स्त्रियों को यातना दे, तथा अल्लाह ईमान वाले पुरुषों तथा ईमान वाली स्त्रियों की तौबा क़बूल करे। और अल्लाह अति क्षमाशील, बड़ा दयावान् है।