Surah Ali `Imran

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بِسْمِ اللّٰهِ الرَّحْمٰنِ الرَّحِيْمِ
الۤمّۤ١
Alif lām mīm.
[1] अलिफ़, लाम, मीम।

اَللّٰهُ لَآ اِلٰهَ اِلَّا هُوَ الْحَيُّ الْقَيُّوْمُۗ٢
Allāhu lā ilāha illā huwal-ḥayyul-qayyūm(u).
[2] अल्लाह (वह है कि) उसके सिवा कोई पूज्य नहीं। (वह) जीवित है, हर चीज़ को सँभालने (क़ायम रखने) वाला है।

نَزَّلَ عَلَيْكَ الْكِتٰبَ بِالْحَقِّ مُصَدِّقًا لِّمَا بَيْنَ يَدَيْهِ وَاَنْزَلَ التَّوْرٰىةَ وَالْاِنْجِيْلَۙ٣
Nazzala ‘alaikal-kitāba bil-ḥaqqi muṣaddiqal limā baina yadaihi wa anzalat-taurāta wal-injīl(a).
[3] उसने आप पर (यह) पुस्तक सत्य के साथ उतारी, जो उसकी पुष्टि करने वाली है जो इससे पूर्व है, और उसने तौरात तथा इंजील उतारी।

مِنْ قَبْلُ هُدًى لِّلنَّاسِ وَاَنْزَلَ الْفُرْقَانَ ەۗ اِنَّ الَّذِيْنَ كَفَرُوْا بِاٰيٰتِ اللّٰهِ لَهُمْ عَذَابٌ شَدِيْدٌ ۗوَاللّٰهُ عَزِيْزٌ ذُو انْتِقَامٍۗ٤
Min qablu hudal lin-nāsi wa anzalal-furqān(a), innal-lażīna kafarū bi āyātillāhi lahum ‘ażābun syadīd(un), wallāhu ‘azīzun żuntiqām(in).
[4] इससे पहले, लोगों के मार्गदर्शन के लिए। और उसने फ़ुरक़ान (सत्य और असत्य में अंतर करने वाला मानदंड) उतारा।1 निःसंदेह जिन लोगों ने अल्लाह की आयतों का इनकार किया, उनके लिए बहुत कड़ी यातना है। और अल्लाह सब पर प्रभुत्वशाली, बदला लेने वाला है।
1. अर्थात तौरात और इंजील अपने समय में लोगों के लिए मार्गदर्शन थे, परंतु फ़ुरक़ान (क़ुरआन) उतरने के पश्चात् अब वह मार्गदर्शन केवल क़ुरआन पाक में है।

اِنَّ اللّٰهَ لَا يَخْفٰى عَلَيْهِ شَيْءٌ فِى الْاَرْضِ وَلَا فِى السَّمَاۤءِ٥
Innallāha lā yakhfā ‘alaihi syai'un fil-arḍi wa lā fis-samā'(i).
[5] निःसंदेह अल्लाह वह है जिससे न धरती में कोई चीज़ छिपी रहती है और न आकाश में।

هُوَ الَّذِيْ يُصَوِّرُكُمْ فِى الْاَرْحَامِ كَيْفَ يَشَاۤءُ ۗ لَآ اِلٰهَ اِلَّا هُوَ الْعَزِيْزُ الْحَكِيْمُ٦
Huwal-lażī yuṣawwirukum fil-arḥāmi kaifa yasyā'(u), lā ilāha illā huwal-‘azīzul-ḥakīm(u).
[6] वही है जो गर्भाशयों में तुम्हारे रूप बनाता है, जिस तरह चाहता है। उसके सिवा कोई इबादत के लायक़ नहीं, (वह) सब पर प्रभुत्वशाली, पूर्ण हिकमत वाला है।

هُوَ الَّذِيْٓ اَنْزَلَ عَلَيْكَ الْكِتٰبَ مِنْهُ اٰيٰتٌ مُّحْكَمٰتٌ هُنَّ اُمُّ الْكِتٰبِ وَاُخَرُ مُتَشٰبِهٰتٌ ۗ فَاَمَّا الَّذِيْنَ فِيْ قُلُوْبِهِمْ زَيْغٌ فَيَتَّبِعُوْنَ مَا تَشَابَهَ مِنْهُ ابْتِغَاۤءَ الْفِتْنَةِ وَابْتِغَاۤءَ تَأْوِيْلِهٖۚ وَمَا يَعْلَمُ تَأْوِيْلَهٗٓ اِلَّا اللّٰهُ ۘوَالرّٰسِخُوْنَ فِى الْعِلْمِ يَقُوْلُوْنَ اٰمَنَّا بِهٖۙ كُلٌّ مِّنْ عِنْدِ رَبِّنَا ۚ وَمَا يَذَّكَّرُ اِلَّآ اُولُوا الْاَلْبَابِ٧
Huwal-lażī anzala ‘alaikal-kitāba minhu āyātum muḥkamātun hunna ummul-kitābi wa ukharu mutasyābihāt(un), fa'ammal-lażīna fī qulūbihim zaigun fayattabi‘ūna mā tasyābaha minhubtigā'al-fitnati wabtigā'a ta'wīlih(ī), wa mā ya‘lamu ta'wīlahū illallāh(u), war-rāsikhūna fil-‘ilmi yaqūlūna āmannā bih(ī), kullum min ‘indi rabbinā, wa mā yażżakkaru illā ulul-albāb(i).
[7] (ऐ नबी!) वही है जिसने आप पर2 (यह) पुस्तक उतारी, जिसमें से कुछ आयतें मोह़कम3 (स्पष्ट तर्क वाली) हैं, वही पुस्तक का मूल हैं, तथा कुछ दूसरी (आयतें) मुतशाबेह4 (छिपे हुए और पोशीदा अर्थ वाली) हैं। फिर जिनके दिलों में टेढ़ है, तो वे फ़ित्ने की तलाश में तथा उसके असल आशय की तलाश के उद्देश्य से, सदृश अर्थों वाली आयतों का अनुसरण करते हैं। हालाँकि उनका वास्तविक अर्थ अल्लाह के सिवा कोई नहीं जानता। तथा जो लोग ज्ञान में पक्के हैं, वे कहते हैं हम उसपर ईमान लाए, सब हमारे पालनहार की और से है। और शिक्षा वही लोग ग्रहण करते हैं, जो बुद्धि वाले हैं।
2. आयत का भावार्थ यह है कि अल्लाह ने मानव का रूप आकार बनाने और उसकी आर्थिक आवश्यकता की व्यवस्था करने के समान, उसकी आत्मिक आवश्यकता के लिए क़ुरआन उतारा है, जो अल्लाह की प्रकाशना तथा मार्गदर्शन और फ़ुरक़ान है। जिसके द्वारा सत्यासत्य में अंतर करके सत्य को स्वीकार करे। 3. मोह़कम (सुदृढ़) से अभिप्राय वे आयतें हैं, जिनके अर्थ स्थिर, खुले हुए हैं। जैसे एकेश्वरवाद, रिसालत तथा आदेशों और निषेधों एवं ह़लाल (वैध) और ह़राम (अवैध) से संबंधित आयतें, यही पुस्तक का मूल आधार हैं। 4. मुतशाबेह (संदिग्ध) से अभिप्राय वह आयतें हैं, जिनमें उन तथ्यों की ओर संकेत किया गया है, जो हमारी ज्ञानेंद्रियों में नहीं आ सकते, जैसे मौत के पश्चात् जीवन, तथा परलोक की बातें। इन आयतों के विषय में अल्लाह ने हमें जो जानकारी दी है, हम उनपर विश्वास करते हैं, क्योंकि इनका विस्तार विवरण हमारी बुद्धि से बाहर है, परंतु जिनके दिलों में खोट है वह इनकी वास्तविकता जानने के पीछे पड़ जाते हैं, जो उनकी शक्ति से बाहर है।

رَبَّنَا لَا تُزِغْ قُلُوْبَنَا بَعْدَ اِذْ هَدَيْتَنَا وَهَبْ لَنَا مِنْ لَّدُنْكَ رَحْمَةً ۚاِنَّكَ اَنْتَ الْوَهَّابُ٨
Rabbanā lā tuzig qulūbanā ba‘da iż hadaitanā wa hab lanā mil ladunka raḥmah(tan), innaka antal-wahhāb(u).
[8] (तथा वे कहते हैं :) ऐ हमारे पालनहार! हमें हिदायत देने के बाद हमारे दिलों को टेढ़ा न कर, और हमें अपनी ओर से दया प्रदान कर। निःसंदेह तू ही बहुत बड़ा दाता है।

رَبَّنَآ اِنَّكَ جَامِعُ النَّاسِ لِيَوْمٍ لَّا رَيْبَ فِيْهِ ۗاِنَّ اللّٰهَ لَا يُخْلِفُ الْمِيْعَادَ ࣖ٩
Rabbanā innaka jāmi‘un-nāsi liyaumil lā raiba fīh(i), innallāha lā yukhliful-mī‘ād(a).
[9] ऐ हमारे पालनहार! निःसंदेह तू सब लोगों को उस दिन के लिए इकट्ठा करने वाला है, जिस (के आने) में कोई शक नहीं। निःसंदेह अल्लाह वादे के विरुद्ध नहीं करता।

اِنَّ الَّذِيْنَ كَفَرُوْا لَنْ تُغْنِيَ عَنْهُمْ اَمْوَالُهُمْ وَلَآ اَوْلَادُهُمْ مِّنَ اللّٰهِ شَيْـًٔا ۗوَاُولٰۤىِٕكَ هُمْ وَقُوْدُ النَّارِۗ١٠
Innal-lażīna kafarū lan tugniya ‘anhum amwāluhum wa lā aulāduhum minallāhi syai'ā(n), wa ulā'ika hum waqūdun-nār(i).
[10] निःसंदेह जिन लोगों ने कुफ़्र किया, उनके धन तथा उनकी संतान उन्हें अल्लाह (की यातना) से (बचाने में) कदापि कुछ काम नहीं आएँगे, तथा वही आग का ईंधन हैं।

كَدَأْبِ اٰلِ فِرْعَوْنَۙ وَالَّذِيْنَ مِنْ قَبْلِهِمْۗ كَذَّبُوْا بِاٰيٰتِنَاۚ فَاَخَذَهُمُ اللّٰهُ بِذُنُوْبِهِمْ ۗ وَاللّٰهُ شَدِيْدُ الْعِقَابِ١١
Kada'bi āli fir‘aun(a), wal-lażīna min qablihim, każżabū bi'āyātinā, fa'akhażahumullāhu biżunūbihim, wallāhu syadīdul-‘iqāb(i).
[11] (इनका हाल) फ़िरऔनियों तथा उन लोगों के हाल की तरह है जो उनसे पहले थे। उन्होंने हमारी आयतों (निशानियों) को झुठलाया, तो अल्लाह ने उन्हें उनके गुनाहों के कारण पकड़ लिया और अल्लाह बहुत सख़्त अज़ाब वाला है।

قُلْ لِّلَّذِيْنَ كَفَرُوْا سَتُغْلَبُوْنَ وَتُحْشَرُوْنَ اِلٰى جَهَنَّمَ ۗ وَبِئْسَ الْمِهَادُ١٢
Qul lil-lażīna kafarū satuglabūna wa tuḥsyarūna ilā jahannam(a), wa bi'sal-mihād(u).
[12] (ऐ नबी!) काफ़िरों से कह दें कि तुम जल्द ही पराजित5 किए जाओगे तथा जहन्नम की ओर इकट्ठे किए जाओगे और वह बहुत बुरा ठिकाना है।
5. इसमें काफ़िरों की मुसलमानों के हाथों पराजय की भविष्यवाणी है।

قَدْ كَانَ لَكُمْ اٰيَةٌ فِيْ فِئَتَيْنِ الْتَقَتَا ۗفِئَةٌ تُقَاتِلُ فِيْ سَبِيْلِ اللّٰهِ وَاُخْرٰى كَافِرَةٌ يَّرَوْنَهُمْ مِّثْلَيْهِمْ رَأْيَ الْعَيْنِ ۗوَاللّٰهُ يُؤَيِّدُ بِنَصْرِهٖ مَنْ يَّشَاۤءُ ۗ اِنَّ فِيْ ذٰلِكَ لَعِبْرَةً لِّاُولِى الْاَبْصَارِ١٣
Qad kāna lakum āyatun fī fi'atainil taqatā, fi'atun tuqātilu fī sabīlillāhi wa ukhrā kāfiratuy yaraunahum miṡlaihim ra'yal-‘ain(i), wallāhu yu'ayyidu binaṣrihī may yasyā'(u), inna fī żālika la‘ibratal li'ulil-abṣār(i).
[13] निश्चय तुम्हारे लिए उन दो दलों में बड़ी निशानी थी, जिनमें (बद्र के मैदान में) मुठभेड़ हुई। एक दल अल्लाह के मार्ग में लड़ता था और दूसरा काफ़िर था। ये (मुसलमान) उन (काफ़िरों) को अपनी आँखों से अपने से दुगना देख रहे थे। और अल्लाह जिसे चाहता है अपनी सहायता से शक्ति प्रदान करता है। निःसंदेह इसमें आँखों वालों के लिए निश्चय बड़ी इबरत (सीख)6 है।
6. अर्थात इस बात की कि विजय अल्लाह के समर्थन से प्राप्त होती है, सेना की संख्या से नहीं।

زُيِّنَ لِلنَّاسِ حُبُّ الشَّهَوٰتِ مِنَ النِّسَاۤءِ وَالْبَنِيْنَ وَالْقَنَاطِيْرِ الْمُقَنْطَرَةِ مِنَ الذَّهَبِ وَالْفِضَّةِ وَالْخَيْلِ الْمُسَوَّمَةِ وَالْاَنْعَامِ وَالْحَرْثِ ۗ ذٰلِكَ مَتَاعُ الْحَيٰوةِ الدُّنْيَا ۗوَاللّٰهُ عِنْدَهٗ حُسْنُ الْمَاٰبِ١٤
Zuyyina lin-nāsi ḥubbusy-syahawāti minan-nisā'i wal-banīna wal-qanāṭīril-muqanṭarati minaż-żahabi wal-fiḍḍati wal-khailil-musawwamati wal-an‘āmi wal-ḥarṡ(i), żālika matā‘ul-ḥayātid-dun-yā, wallāhu ‘indahū ḥusnul-ma'āb(i).
[14] लोगों के लिए भौतिक इच्छाओं का प्यार सुसज्जित कर दिया गया है, जो औरतें, बेटे, सोने और चाँदी के ढेर, निशान लगाए हुए घोड़े, मवेशी तथा खेती हैं। ये सांसारिक जीवन के सामान हैं और उत्तम ठिकाना अल्लाह के पास है।

۞ قُلْ اَؤُنَبِّئُكُمْ بِخَيْرٍ مِّنْ ذٰلِكُمْ ۗ لِلَّذِيْنَ اتَّقَوْا عِنْدَ رَبِّهِمْ جَنّٰتٌ تَجْرِيْ مِنْ تَحْتِهَا الْاَنْهٰرُ خٰلِدِيْنَ فِيْهَا وَاَزْوَاجٌ مُّطَهَّرَةٌ وَّرِضْوَانٌ مِّنَ اللّٰهِ ۗ وَاللّٰهُ بَصِيْرٌۢ بِالْعِبَادِۚ١٥
Qul a'unabbi'ukum bikhairim min żālikum, lil-lażīnattaqau ‘inda rabbihim jannātun tajrī min taḥtihal-anhāru khālidīna fīhā wa azwājum muṭahharatuw wa riḍwānum minallāh(i), wallāhu baṣīrum bil-‘ibād(i).
[15] (ऐ नबी!) कह दें : क्या मैं तुम्हें उससे बेहतर चीज़ बताऊँ? उन लोगों के लिए जो (अल्लाह से) डरने वाले हैं उनके पालनहार के पास ऐसे बाग़ हैं, जिनके नीचे से नहरें बहती हैं, (वे) उनमें हमेशा रहने वाले हैं और (उनके लिए उसमें) पवित्र पत्नियाँ तथा अल्लाह की प्रसन्नता है और अल्लाह बंदों को ख़ूब देखने वाला है।

اَلَّذِيْنَ يَقُوْلُوْنَ رَبَّنَآ اِنَّنَآ اٰمَنَّا فَاغْفِرْ لَنَا ذُنُوْبَنَا وَقِنَا عَذَابَ النَّارِۚ١٦
Allażīna yaqūlūna rabbanā innanā āmannā fagfir lanā żunūbanā wa qinā ‘ażāban-nār(i).
[16] जो कहते हैं : ऐ हमारे पालनहार! निःसंदेह हम ईमान लाए। इसलिए हमारे गुनाह माफ़ कर दे और हमें दोज़ख़ के अज़ाब से बचा।

اَلصّٰبِرِيْنَ وَالصّٰدِقِيْنَ وَالْقٰنِتِيْنَ وَالْمُنْفِقِيْنَ وَالْمُسْتَغْفِرِيْنَ بِالْاَسْحَارِ١٧
Aṣ-ṣābirīna waṣ-ṣādiqīna wal-qāniṭīna wal-munfiqīna wal-mustagfirīna bil-asḥār(i).
[17] जो धैर्य रखने वाले, सत्यवादी, आज्ञाकारी, दानशील और रात की अंतिम घड़ियों में (अल्लाह से) क्षमा याचना करने वाले हैं।

شَهِدَ اللّٰهُ اَنَّهٗ لَآ اِلٰهَ اِلَّا هُوَۙ وَالْمَلٰۤىِٕكَةُ وَاُولُوا الْعِلْمِ قَاۤىِٕمًاۢ بِالْقِسْطِۗ لَآ اِلٰهَ اِلَّا هُوَ الْعَزِيْزُ الْحَكِيْمُ١٨
Syahidallāhu annahū lā ilāha illā huw(a), wal-malā'ikatu wa ulul-‘ilmi qā'imam bil-qisṭ(i), lā ilāha illā huwal-‘azīzul-ḥakīm(u).
[18] अल्लाह ने गवाही दी कि निःसंदेह उसके सिवा कोई पूज्य नहीं, तथा फ़रिश्तों और ज्ञान वालों ने भी, इस हाल में कि वह न्याय को क़ायम करने वाला है। उसके सिवा कोई इबादत के लायक़ नहीं, सब पर प्रभुत्वशाली, पूर्ण हिकमत वाला है।

اِنَّ الدِّيْنَ عِنْدَ اللّٰهِ الْاِسْلَامُ ۗ وَمَا اخْتَلَفَ الَّذِيْنَ اُوْتُوا الْكِتٰبَ اِلَّا مِنْۢ بَعْدِ مَا جَاۤءَهُمُ الْعِلْمُ بَغْيًاۢ بَيْنَهُمْ ۗوَمَنْ يَّكْفُرْ بِاٰيٰتِ اللّٰهِ فَاِنَّ اللّٰهَ سَرِيْعُ الْحِسَابِ١٩
Innad-dīna ‘indallāhil-islām(u), wa makhtalafal-lażīna ūtul-kitāba illā mim ba‘di mā jā'ahumul-‘ilmu bagyam bainahum, wa may yakfur bi'āyātillāhi fa innallāha sarī‘ul-ḥisāb(i).
[19] निःसंदेह दीन (धर्म) अल्लाह के निकट इस्लाम ही है और किताब वालों ने अपने पास ज्ञान आ जाने के पश्चात आपस में ईर्ष्या के कारण ही मतभेद किया। तथा जो अल्लाह की आयतों का इनकार करे, तो निःसंदेह अल्लाह बहुत जल्द ह़िसाब लेने वाला है।

فَاِنْ حَاۤجُّوْكَ فَقُلْ اَسْلَمْتُ وَجْهِيَ لِلّٰهِ وَمَنِ اتَّبَعَنِ ۗوَقُلْ لِّلَّذِيْنَ اُوْتُوا الْكِتٰبَ وَالْاُمِّيّٖنَ ءَاَسْلَمْتُمْ ۗ فَاِنْ اَسْلَمُوْا فَقَدِ اهْتَدَوْا ۚ وَاِنْ تَوَلَّوْا فَاِنَّمَا عَلَيْكَ الْبَلٰغُ ۗ وَاللّٰهُ بَصِيْرٌۢ بِالْعِبَادِ ࣖ٢٠
Fa'in ḥājjūka fa qul aslamtu wajhiya lillāhi wa manittaba‘an(i), wa qul lil-lażīna ūtul-kitāba wal-ummiyyīna a'aslamtum, fa'in aslamū faqadihtadau, wa in tawallau fa'innamā ‘alaikal-balāg(u), wallāhu baṣīrum bil-‘ibād(i).
[20] फिर यदि वे आपसे झगड़ा करें, तो कह दीजिए कि मैंने अपना चेहरा अल्लाह के अधीन कर दिया और उसने भी जिसने मेरा अनुसरण किया, तथा उन लोगों से जिन्हें किताब दी गई और अनपढ़ लोगों से कह दो कि क्या तुम आज्ञाकारी हो गए? यदि वे आज्ञाकारी हो जाएँ, तो निःसंदेह मार्गदर्शन पा गए और यदि वे मुँह फेर लें, तो आपका दायित्व केवल (संदेश) पहुँचा देना7 है तथा अल्लाह बंदों को ख़ूब देखने वाला है।
7. अर्थात उनसे वाद-विवाद करना व्यर्थ है।

اِنَّ الَّذِيْنَ يَكْفُرُوْنَ بِاٰيٰتِ اللّٰهِ وَيَقْتُلُوْنَ النَّبِيّٖنَ بِغَيْرِحَقٍّۖ وَّيَقْتُلُوْنَ الَّذِيْنَ يَأْمُرُوْنَ بِالْقِسْطِ مِنَ النَّاسِۙ فَبَشِّرْهُمْ بِعَذَابٍ اَلِيْمٍ٢١
Innal-lażīna yakfurūna bi'āyātillāhi wa yaqtulūnan nabiyyīna bigairi ḥaqq(in), wa yaqtulūnal-lażīna ya'murūna bil-qisṭi minan-nās(i), fabasysyirhum bi‘ażābin alīm(in).
[21] निःसंदेह जो लोग अल्लाह की आयतों का इनकार करते हैं तथा नबियों को नाह़क़ क़त्ल करते हैं और उन लोगों को क़त्ल करते हैं, जो लोगों में से न्याय करने का आदेश देते हैं, उन्हें एक दर्दनाक अज़ाब8 की शुभ सूचना सुना दीजिए।
8. इसमें यहूद की आस्था तथा कार्य संबंधी पथभ्रष्टता की ओर संकेत है।

اُولٰۤىِٕكَ الَّذِيْنَ حَبِطَتْ اَعْمَالُهُمْ فِى الدُّنْيَا وَالْاٰخِرَةِ ۖ وَمَا لَهُمْ مِّنْ نّٰصِرِيْنَ٢٢
Ulā'ikal-lażīna ḥabiṭat a‘māluhum fid-dun-yā wal-ākhirah(ti), wa mā lahum min nāṣirīn(a).
[22] यही वे लोग हैं, जिनके कर्म दुनिया तथा आख़िरत में बर्बाद हो गए और उनकी मदद करने वाले कोई नहीं।

اَلَمْ تَرَ اِلَى الَّذِيْنَ اُوْتُوْا نَصِيْبًا مِّنَ الْكِتٰبِ يُدْعَوْنَ اِلٰى كِتٰبِ اللّٰهِ لِيَحْكُمَ بَيْنَهُمْ ثُمَّ يَتَوَلّٰى فَرِيْقٌ مِّنْهُمْ وَهُمْ مُّعْرِضُوْنَ٢٣
Alam tara ilal-lażīna ūtū naṣībam minal-kitābi yud‘auna ilā kitābillāhi liyaḥkuma bainahum ṡumma yatawallā farīqum minhum wa hum mu‘riḍūn(a).
[23] (ऐ नबी!) क्या आपने उनका हाल9 नहीं देखा, जिन्हें पुस्तक का एक भाग दिया गया, वे अल्लाह की पुस्तक की ओर बुलाए जाते हैं, ताकि वह उनके बीच निर्णय10 करे। फिर उनमें से एक समूह मुँह फेर लेता है, इस हाल में कि वे उपेक्षा करने वाले होते हैं।
9. इससे अभिप्राय यहूदी विद्वान हैं। 10. अर्थात विभेद का निर्णय कर दे। इस आयत में अल्लाह की पुस्तक से अभिप्राय तौरात और इंजील हैं। और अर्थ यह है कि जब उन्हें उनकी पुस्तकों की ओर बुलाया जाता है कि अपनी पुस्तकों ही को निर्णायक मान लो, तथा बताओ कि उनमें अंतिम नबी पर ईमान लाने का आदेश दिया गया है या नहीं? तो वे कतरा जाते हैं, जैसे कि उन्हें कोई ज्ञान ही न हो।

ذٰلِكَ بِاَنَّهُمْ قَالُوْا لَنْ تَمَسَّنَا النَّارُ اِلَّآ اَيَّامًا مَّعْدُوْدٰتٍ ۖ وَّغَرَّهُمْ فِيْ دِيْنِهِمْ مَّا كَانُوْا يَفْتَرُوْنَ٢٤
Żālika bi'annahum qālū lan tamassanan nāru illā ayyāmam ma‘dūdāt(in), wa garrahum fī dīnihim mā kānū yaftarūn(a).
[24] उनका यह हाल इसलिए है कि उन्होंने कहा कि दोज़ख़ की आग हमें गिनती के कुछ दिन ही छुएगी! तथा उन्हें उनके धर्म (के बारे) में उन बातों ने धोखा दिया, जो वे गढ़ा करते थे।

فَكَيْفَ اِذَا جَمَعْنٰهُمْ لِيَوْمٍ لَّا رَيْبَ فِيْهِۗ وَوُفِّيَتْ كُلُّ نَفْسٍ مَّا كَسَبَتْ وَهُمْ لَا يُظْلَمُوْنَ٢٥
Fakaifa iżā jama‘nāhum liyaumil lā raiba fīh(i), wa wuffiyat kullu nafsim mā kasabat wa hum lā yuẓlamūn(a).
[25] फिर उस समय (उनका) क्या हाल होगा, जब हम उन्हें उस दिन के लिए एकत्र करेंगे, जिसमें कोई संदेह नहीं तथा प्रत्येक प्राणी को उसके किए का भरपूर बदला दिया जाएगा और उनपर अत्याचार नहीं किया जाएगा?

قُلِ اللّٰهُمَّ مٰلِكَ الْمُلْكِ تُؤْتِى الْمُلْكَ مَنْ تَشَاۤءُ وَتَنْزِعُ الْمُلْكَ مِمَّنْ تَشَاۤءُۖ وَتُعِزُّ مَنْ تَشَاۤءُ وَتُذِلُّ مَنْ تَشَاۤءُ ۗ بِيَدِكَ الْخَيْرُ ۗ اِنَّكَ عَلٰى كُلِّ شَيْءٍ قَدِيْرٌ٢٦
Qulillāhumma mālikal-mulki tu'til-mulka man tasyā'u wa tanzi‘ul-mulka mim man tasyā'(u), wa tu‘izzu man tasyā'u wa tużillu man tasyā'(u), biyadikal-khair(u), innaka ‘alā kulli syai'in qadīr(un).
[26] (ऐ नबी!) कह दें : ऐ अल्लाह! राज्य के स्वामी! तू जिसे चाहे, राज्य देता है और जिससे चाहे, राज्य छीन लेता है तथा जिसे चाहे, सम्मान देता है और जिसे चाहे, अपमानित कर देता है। तेरे ही हाथ में सारी भलाई है। निःसंदेह तू हर चीज़ पर सर्वशक्तिमान है।11
11. इस आयत में अल्लाह की अपार शक्ति का वर्णन है।

تُوْلِجُ الَّيْلَ فِى النَّهَارِ وَتُوْلِجُ النَّهَارَ فِى الَّيْلِ وَتُخْرِجُ الْحَيَّ مِنَ الْمَيِّتِ وَتُخْرِجُ الْمَيِّتَ مِنَ الْحَيِّ وَتَرْزُقُ مَنْ تَشَاۤءُ بِغَيْرِ حِسَابٍ٢٧
Tūlijul-laila fin-nahāri wa tūlijun-nahāra fil-laili wa tukhrijul-ḥayya minal-mayyiti wa tukhrijul-mayyita minal-ḥayyi wa tarzuqu man tasyā'u bigairi ḥisāb(in).
[27] तू रात को दिन में दाख़िल करता है तथा दिन को रात में दाख़िल12 करता है। और तू जीवित को मृत से निकालता है तथा मृत को जीवित से निकालता है और तू जिसे चाहे असंख्य जीविका देता है।
12. इसमें दिन-रात के परिवर्तन की ओर संकेत है।

لَا يَتَّخِذِ الْمُؤْمِنُوْنَ الْكٰفِرِيْنَ اَوْلِيَاۤءَ مِنْ دُوْنِ الْمُؤْمِنِيْنَۚ وَمَنْ يَّفْعَلْ ذٰلِكَ فَلَيْسَ مِنَ اللّٰهِ فِيْ شَيْءٍ اِلَّآ اَنْ تَتَّقُوْا مِنْهُمْ تُقٰىةً ۗ وَيُحَذِّرُكُمُ اللّٰهُ نَفْسَهٗ ۗ وَاِلَى اللّٰهِ الْمَصِيْرُ٢٨
Lā yattakhiżil-mu'minūnal-kāfirīna auliyā'a min dūnil-mu'minīn(a), wa may yaf‘al żālika falaisa minallāhi fī syai'(in), illā an tattaqū minhum tuqāh(tan), wa yuḥażżirukumullāhu nafsah(ū), wa ilallāhil-maṣīr(u).
[28] ईमान वालों को चाहिए कि वे मोमिनों को छोड़कर काफ़िरों को मित्र न बनाएँ और जो ऐसा करेगा, उसका अल्लाह से कोई संबंध नहीं। परंतु यह कि तुम उनसे अपना बचाव13 करो, और अल्लाह तुम्हें अपने आपसे डराता है और अल्लाह ही की ओर लौटकर जाना है।
13.अर्थात संधि मित्र बना सकते हो।

قُلْ اِنْ تُخْفُوْا مَا فِيْ صُدُوْرِكُمْ اَوْ تُبْدُوْهُ يَعْلَمْهُ اللّٰهُ ۗوَيَعْلَمُ مَا فِى السَّمٰوٰتِ وَمَا فِى الْاَرْضِۗ وَاللّٰهُ عَلٰى كُلِّ شَيْءٍ قَدِيْرٌ٢٩
Qul in tukhfū mā fī ṣudūrikum au tubdūhu ya‘lamhullāh(u), wa ya‘lamu mā fis-samāwāti wa mā fil-arḍ(i), wallāhu ‘alā kulli syai'in qadīr(un).
[29] (ऐ नबी!) कह दीजिए : यदि तुम उसे छिपाओ जो तुम्हारे सीनों में है, या उसे प्रकट करो, अल्लाह उसे जान लेगा तथा वह जानता है जो कुछ आकाशों में है और जो धरती में है, और अल्लाह हर चीज़ पर सर्वशक्तिमान है।

يَوْمَ تَجِدُ كُلُّ نَفْسٍ مَّا عَمِلَتْ مِنْ خَيْرٍ مُّحْضَرًا ۛوَمَا عَمِلَتْ مِنْ سُوْۤءٍ ۛ تَوَدُّ لَوْ اَنَّ بَيْنَهَا وَبَيْنَهٗٓ اَمَدًاۢ بَعِيْدًا ۗوَيُحَذِّرُكُمُ اللّٰهُ نَفْسَهٗ ۗوَاللّٰهُ رَءُوْفٌۢ بِالْعِبَادِ ࣖ٣٠
Yauma tajidu kullu nafsim mā ‘amilat min khairim muḥḍarā(n), wa mā ‘amilat min sū'(in), tawaddu lau anna bainahā wa bainahū amadam ba‘īdā(n), wa yuḥażżirukumullāhu nafsah(ū), wallāhu ra'ūfum bil-‘ibād(i).
[30] जिस दिन प्रत्येक व्यक्ति अपनी की हुई नेकी को हाज़िर किया हुआ पाएगा, तथा जिसने बुराई की होगी, वह कामना करेगा कि उसके तथा उसकी बुराई के बीच बहुत दूर का फ़ासला होता। तथा अल्लाह तुम्हें अपने आपसे14 डराता है और अल्लाह अपने बंदों के प्रति अत्यंत करुणामय है।
14. अर्थात अपनी अवज्ञा से।

قُلْ اِنْ كُنْتُمْ تُحِبُّوْنَ اللّٰهَ فَاتَّبِعُوْنِيْ يُحْبِبْكُمُ اللّٰهُ وَيَغْفِرْ لَكُمْ ذُنُوْبَكُمْ ۗ وَاللّٰهُ غَفُوْرٌ رَّحِيْمٌ٣١
Qul in kuntum tuḥibbūnallāha fattabi‘ūnī yuḥbibkumullāhu wa yagfir lakum żunūbakum, wallāhu gafūrur raḥīm(un).
[31] (ऐ नबी!) कह दीजिए : यदि तुम अल्लाह से प्रेम करते हो, तो मेरा अनुसरण करो, अल्लाह तुमसे प्रेम15 करेगा तथा तुम्हें तुम्हारे पाप क्षमा कर देगा और अल्लाह बहुत क्षमा करने वाला, अत्यंत दयावान् है।
15. इसमें यह संकेत है कि जो अल्लाह से प्रेम का दावा करता हो और मुह़म्मद (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) का अनुसरण न करता हो, तो वह अल्लाह से प्रेम करने वाला नहीं हो सकता।

قُلْ اَطِيْعُوا اللّٰهَ وَالرَّسُوْلَ ۚ فَاِنْ تَوَلَّوْا فَاِنَّ اللّٰهَ لَا يُحِبُّ الْكٰفِرِيْنَ٣٢
Qul aṭī‘ullāha war-rasūl(a), fa'in tawallau fa innallāha lā yuḥibbul-kāfirīn(a).
[32] (ऐ नबी!) आप कह दें : अल्लाह और रसूल की आज्ञा का अनुपालन करो। फिर यदि वे मुँह फेर लें, तो निःसंदेह अल्लाह काफ़िरों से प्रेम नहीं करता।

۞ اِنَّ اللّٰهَ اصْطَفٰىٓ اٰدَمَ وَنُوْحًا وَّاٰلَ اِبْرٰهِيْمَ وَاٰلَ عِمْرٰنَ عَلَى الْعٰلَمِيْنَۙ٣٣
Innallāhaṣṭafā ādama wa nūḥaw wa āla ibrāhīma wa āla ‘imrāna ‘alal-‘ālamīn(a).
[33] निःसंदेह अल्लाह ने आदम और नूह़ को तथा इबराहीम के घराने और इमरान के घराने को संसार वासियों में से चुन लिया।

ذُرِّيَّةً ۢ بَعْضُهَا مِنْۢ بَعْضٍۗ وَاللّٰهُ سَمِيْعٌ عَلِيْمٌۚ٣٤
Żurriyyatam ba‘ḍuhā mim ba‘ḍ(in), wallāhu samī‘un ‘alīm(un).
[34] ये एक-दूसरे की संतान हैं और अल्लाह सब कुछ सुनने वाला और सब कुछ जानने वाला है।

اِذْ قَالَتِ امْرَاَتُ عِمْرٰنَ رَبِّ اِنِّيْ نَذَرْتُ لَكَ مَا فِيْ بَطْنِيْ مُحَرَّرًا فَتَقَبَّلْ مِنِّيْ ۚ اِنَّكَ اَنْتَ السَّمِيْعُ الْعَلِيْمُ٣٥
Iż qālatimra'atu ‘imrāna rabbi innī nażartu laka mā fī baṭnī muḥarraran fataqabbal minnī, innaka antas-samī‘ul-‘alīm(u).
[35] जब इमरान की पत्नी16 ने कहा : ऐ मेरे पालनहार! निःसंदेह मैंने तेरे17 लिए उसकी मन्नत मानी है, जो मेरे पेट में है कि आज़ाद छोड़ा हुआ होगा। सो मुझसे स्वीकार कर। निःसंदेह तू ही सब कुछ सुनने वाला, सब कुछ जानने वाला है।
16. अर्थात मरयम की माँ। 17. अर्थात बैतुल मक़दिस की सेवा के लिए।

فَلَمَّا وَضَعَتْهَا قَالَتْ رَبِّ اِنِّيْ وَضَعْتُهَآ اُنْثٰىۗ وَاللّٰهُ اَعْلَمُ بِمَا وَضَعَتْۗ وَلَيْسَ الذَّكَرُ كَالْاُنْثٰى ۚ وَاِنِّيْ سَمَّيْتُهَا مَرْيَمَ وَاِنِّيْٓ اُعِيْذُهَا بِكَ وَذُرِّيَّتَهَا مِنَ الشَّيْطٰنِ الرَّجِيْمِ٣٦
Falammā waḍa‘athā qālat rabbi innī waḍa‘tuhā unṡā, wallāhu a‘lamu bimā waḍa‘at, wa laisaż-żakaru kal-unṡā, wa innī sammaituhā maryama wa innī u‘īżuhā bika wa żurriyyatahā minasy-syaiṭānir-rajīm(i).
[36] फिर जब उसने उसे जना, तो कहा : ऐ मेरे पालनहार! यह तो मैंने लड़की जनी है! और अल्लाह अधिक जानने वाला है जो उसने जना और लड़का इस लड़की जैसा नहीं, निःसंदेह मैंने उसका नाम मरयम रखा है और निःसंदेह मैं उसे तथा उसकी संतान को धिक्कारे हुए शैतान से तेरी पनाह में देती हूँ।18
18. हदीस में है कि जब कोई शिशु जन्म लेता है, तो शैतान उसे स्पर्श करता है, जिसके कारण वह चीख कर रोता है, परंतु मरयम और उसके पुत्र को स्पर्श नहीं किया था। (सह़ीह़ बुख़ारी : 4548)

فَتَقَبَّلَهَا رَبُّهَا بِقَبُوْلٍ حَسَنٍ وَّاَنْۢبَتَهَا نَبَاتًا حَسَنًاۖ وَّكَفَّلَهَا زَكَرِيَّا ۗ كُلَّمَا دَخَلَ عَلَيْهَا زَكَرِيَّا الْمِحْرَابَۙ وَجَدَ عِنْدَهَا رِزْقًا ۚ قَالَ يٰمَرْيَمُ اَنّٰى لَكِ هٰذَا ۗ قَالَتْ هُوَ مِنْ عِنْدِ اللّٰهِ ۗ اِنَّ اللّٰهَ يَرْزُقُ مَنْ يَّشَاۤءُ بِغَيْرِ حِسَابٍ٣٧
Fataqabbalahā rabbuhā biqabūlin ḥasaniw wa ambatahā nabātan ḥasanā(n), wa kaffalahā zakariyyā, kullamā dakhala ‘alaihā zakariyyal-miḥrāba wajada ‘indahā rizqā(n), qāla yā maryama annā laki hāżā, qālat huwa min ‘indillāh(i), innallāha yarzuqu may yasyā'u bigairi ḥisāb(in).
[37] तो उसके पालनहार ने उसे अच्छी स्वीकृति के साथ स्वीकार किया और उसका अच्छी तरह पालन-पोषण किया और उसका अभिभावक ज़करिय्या को बना दिया। जब कभी ज़करिय्या उसके पास मेह़राब (उपासना की जगह) में जाता, उसके पास कोई न कोई खाने की चीज़ पाता। उसने कहा : ऐ मरयम! यह तेरे लिए कहाँ से है? उसने कहा : यह अल्लाह के पास से है। निःसंदेह अल्लाह जिसे चाहता है, बेहिसाब रोज़ी प्रदान करता है।

هُنَالِكَ دَعَا زَكَرِيَّا رَبَّهٗ ۚ قَالَ رَبِّ هَبْ لِيْ مِنْ لَّدُنْكَ ذُرِّيَّةً طَيِّبَةً ۚ اِنَّكَ سَمِيْعُ الدُّعَاۤءِ٣٨
Hunālika da‘ā zakariyyā rabbahū qāla rabbi hab lī mil ladunka żurriyyatan ṭayyibah(tan), innaka samī‘ud-du‘ā'(i).
[38] वहीं ज़करिय्या ने अपने पालनहार से प्रार्थना की, कहा : ऐ मेरे पालनहार! मुझे अपनी ओर से एक पवित्र संतान प्रदान कर। निःसंदेह तू ही प्रार्थना को बहुत सुनने वाला है।

فَنَادَتْهُ الْمَلٰۤىِٕكَةُ وَهُوَ قَاۤىِٕمٌ يُّصَلِّيْ فِى الْمِحْرَابِۙ اَنَّ اللّٰهَ يُبَشِّرُكَ بِيَحْيٰى مُصَدِّقًاۢ بِكَلِمَةٍ مِّنَ اللّٰهِ وَسَيِّدًا وَّحَصُوْرًا وَّنَبِيًّا مِّنَ الصّٰلِحِيْنَ٣٩
Fanādathul-malā'ikatu wa huwa qā'imuy yuṣallī fil-miḥrāb(i), annallāha yubasysyiruka biyaḥyā muṣaddiqam bikalimatim minallāhi wa sayyidaw wa ḥaṣūraw wa nabiyyam minaṣ-ṣāliḥīn(a).
[39] तो फ़रिश्तों ने उन्हें आवाज़ दी, जबकि वह मेह़राब (इबादतगाह) में खड़े नमाज़ पढ़ रहे थे कि निःसंदेह अल्लाह आपको 'यह़या' की ख़ुशख़बरी देता है, जो अल्लाह के एक कलिमे (ईसा अलैहिस्सलाम) की पुष्टि करने वाला, सरदार तथा संयमी और सदाचारियों में से नबी होगा।

قَالَ رَبِّ اَنّٰى يَكُوْنُ لِيْ غُلٰمٌ وَّقَدْ بَلَغَنِيَ الْكِبَرُ وَامْرَاَتِيْ عَاقِرٌ ۗ قَالَ كَذٰلِكَ اللّٰهُ يَفْعَلُ مَا يَشَاۤءُ٤٠
Qāla rabbi annā yakūnu lī gulāmuw wa qad balaganīyal-kibaru wamra'atī ‘āqir(un), qāla każālikallāhu yaf‘alu mā yasyā'(u).
[40] उन्होंने कहा : ऐ मेरे पालनहार! मेरे हाँ पुत्र कैसे होगा, जबकि मुझे बुढ़ापा आ पहुँचा है और मेरी पत्नी बाँझ19 है? (अल्लाह ने) कहा : इसी प्रकार अल्लाह करता है जो चाहता है।
19. यह प्रश्न ज़करिया अलैहिस्सलाम ने प्रसन्न होकर आश्चर्य से किया।

قَالَ رَبِّ اجْعَلْ لِّيْٓ اٰيَةً ۗ قَالَ اٰيَتُكَ اَلَّا تُكَلِّمَ النَّاسَ ثَلٰثَةَ اَيَّامٍ اِلَّا رَمْزًا ۗ وَاذْكُرْ رَّبَّكَ كَثِيْرًا وَّسَبِّحْ بِالْعَشِيِّ وَالْاِبْكَارِ ࣖ٤١
Qāla rabbij‘al lī āyah(tan), qāla āyatuka allā tukalliman-nāsa ṡalāṡata ayyāmin illā ramzā(n), ważkur rabbaka kaṡīraw wa sabbiḥ bil-‘asyiyyi wal-ibkār(i).
[41] उन्होंने कहा : ऐ मेरे पालनहार! मेरे लिए कोई निशानी बना दे। (अल्लाह ने) फरमाया : तुम्हारी निशानी यह है कि तुम तीन दिन लोगों से बात नहीं करोगे परंतु इशारे से। तथा तुम अपने पालनहार को बहुत अधिक याद करो और शाम एवं सुबह उसकी पवित्रता का वर्णन करो।

وَاِذْ قَالَتِ الْمَلٰۤىِٕكَةُ يٰمَرْيَمُ اِنَّ اللّٰهَ اصْطَفٰىكِ وَطَهَّرَكِ وَاصْطَفٰىكِ عَلٰى نِسَاۤءِ الْعٰلَمِيْنَ٤٢
Wa iż qālatil-malā'ikatu yā maryama innallāhaṣṭafāki wa ṭahharaki waṣṭafāki ‘alā nisā'il-‘ālamīn(a).
[42] और (याद करो) जब फ़रिश्तों ने कहा : ऐ मरयम! निःसंदेह अल्लाह ने तुम्हारा चयन कर लिया तथा तुम्हें पवित्र कर दिया और सर्व संसार की स्त्रियों पर तुम्हें चुन लिया है।

يٰمَرْيَمُ اقْنُتِيْ لِرَبِّكِ وَاسْجُدِيْ وَارْكَعِيْ مَعَ الرّٰكِعِيْنَ٤٣
Yā maryamuqnutī lirabbiki wasjudī warka‘ī ma‘ar-rāki‘īn(a).
[43] ऐ मरयम! अपने पालनहार का आज्ञापालन करती रहो और सजदा करो तथा रुकू करने वालों के साथ रुकू करती रहो।

ذٰلِكَ مِنْ اَنْۢبَاۤءِ الْغَيْبِ نُوْحِيْهِ اِلَيْكَ ۗوَمَا كُنْتَ لَدَيْهِمْ اِذْ يُلْقُوْنَ اَقْلَامَهُمْ اَيُّهُمْ يَكْفُلُ مَرْيَمَۖ وَمَا كُنْتَ لَدَيْهِمْ اِذْ يَخْتَصِمُوْنَ٤٤
Żālika min ambā'il-gaibi nūḥīhi ilaik(a), wa mā kunta ladaihim iż yulqūna aqlāmahum ayyuhum yakfulu maryam(a), wa mā kunta ladaihim iż yakhtaṣimūn(a).
[44] (ऐ नबी!) ये ग़ैब (परोक्ष) की कुछ सूचनाएँ हैं, जो हम आपकी ओर वह़्य कर रहे हैं और आप उस समय उनके पास मौजूद न थे, जब वे अपनी क़लमों20 को फेंक रहे थे कि उनमें से कौन मरयम की किफ़ालत करे और न आप उस समय उनके पास थे, जब वे झगड़ रहे थे।
20. अर्थात यह निर्णय करने के लिए कि मरयम का संरक्षक कौन हो?

اِذْ قَالَتِ الْمَلٰۤىِٕكَةُ يٰمَرْيَمُ اِنَّ اللّٰهَ يُبَشِّرُكِ بِكَلِمَةٍ مِّنْهُۖ اسْمُهُ الْمَسِيْحُ عِيْسَى ابْنُ مَرْيَمَ وَجِيْهًا فِى الدُّنْيَا وَالْاٰخِرَةِ وَمِنَ الْمُقَرَّبِيْنَۙ٤٥
Iż qālatil-malā'ikatu yā maryama innallāha yubasysyiruki bikalimatim minhusmuhul-masīḥu ‘īsabnu maryama wajīhan fid-dun-yā wal-ākhirati wa minal-muqarrabīn(a).
[45] (ऐ नबी! उस समय को याद करें) जब फ़रिश्तों ने कहा : ऐ मरयम! निःसंदेह अल्लाह तुम्हें अपनी ओर से एक शब्द21 की शुभ सूचना देता है, जिसका नाम 'मसीह़ ईसा बिन मरयम' है। वह दुनिया तथा आख़िरत में महान स्थान वाला और निकटवर्ती लोगों में से होगा।
21. अर्थात वह अल्लाह के शब्द "कुन" से पैदा होगा, जिस का अर्थ है "हो जा"।

وَيُكَلِّمُ النَّاسَ فِى الْمَهْدِ وَكَهْلًا وَّمِنَ الصّٰلِحِيْنَ٤٦
Wa yukallimun nāsa fil-mahdi wa kahlaw wa minaṣ-ṣāliḥīn(a).
[46] और वह लोगों से पालने में बात करेगा तथा अधेड़ आयु में भी और नेक लोगों में से होगा।

قَالَتْ رَبِّ اَنّٰى يَكُوْنُ لِيْ وَلَدٌ وَّلَمْ يَمْسَسْنِيْ بَشَرٌ ۗ قَالَ كَذٰلِكِ اللّٰهُ يَخْلُقُ مَا يَشَاۤءُ ۗاِذَا قَضٰٓى اَمْرًا فَاِنَّمَا يَقُوْلُ لَهٗ كُنْ فَيَكُوْنُ٤٧
Qālat rabbi annā yakūnu lī waladuw wa lam yamsasnī basyar(un), qāla każālikillāhu yakhluqu mā yasyā'(u), iżā qaḍā amran fa'innamā yaqūlu lahū kun fayakūn(u).
[47] उस (मरयम) ने (आश्चर्य से) कहा : ऐ मेरे पालनहार! मेरे हाँ पुत्र कैसे होगा, हालाँकि किसी पुरुष ने मुझे हाथ नहीं लगाया? उसने22 कहा : इसी तरह अल्लाह पैदा करता है जो चाहता है। जब वह किसी काम का निर्णय कर लेता है, तो उससे यही कहता है : "हो जा", तो वह हो जाता है।
22. अर्थात फ़रिश्ते ने।

وَيُعَلِّمُهُ الْكِتٰبَ وَالْحِكْمَةَ وَالتَّوْرٰىةَ وَالْاِنْجِيْلَۚ٤٨
Wa ya‘allimuhul-kitāba wal-ḥikmata wat-taurāta wal-injīl(a).
[48] और अल्लाह उसे लेखन, ह़िकमत, तौरात और इंजील की शिक्षा देगा।

وَرَسُوْلًا اِلٰى بَنِيْٓ اِسْرَاۤءِيْلَ ەۙ اَنِّيْ قَدْ جِئْتُكُمْ بِاٰيَةٍ مِّنْ رَّبِّكُمْ ۙاَنِّيْٓ اَخْلُقُ لَكُمْ مِّنَ الطِّيْنِ كَهَيْـَٔةِ الطَّيْرِ فَاَنْفُخُ فِيْهِ فَيَكُوْنُ طَيْرًاۢ بِاِذْنِ اللّٰهِ ۚوَاُبْرِئُ الْاَكْمَهَ وَالْاَبْرَصَ وَاُحْيِ الْمَوْتٰى بِاِذْنِ اللّٰهِ ۚوَاُنَبِّئُكُمْ بِمَا تَأْكُلُوْنَ وَمَا تَدَّخِرُوْنَ ۙفِيْ بُيُوْتِكُمْ ۗاِنَّ فِيْ ذٰلِكَ لَاٰيَةً لَّكُمْ اِنْ كُنْتُمْ مُّؤْمِنِيْنَۚ٤٩
Wa rasūlan ilā banī isrā'īl(a), annī qad ji'tukum bi'āyatim mir rabbikum, annī akhluqu lakum minaṭ-ṭīni kahai'atiṭ-ṭairi fa'anfukhu fihi fayakūnu ṭairam bi'iżnillāh(i), wa ubarri'ul-akmaha wal-abraṣa wa uḥyil-mautā bi'iżnillāh(i), wa unabbi'ukum bimā ta'kulūna wa mā taddakhirūna fī buyūtikum, inna fī żālika la'āyatal lakum in kuntum mu'minīn(a).
[49] और (वह) बनी इसराईल की ओर रसूल होगा। (वह कहेगा :) निःसंदेह मैं तुम्हारे पास तुम्हारे पालनहार की ओर से बड़ी निशानी लेकर आया हूँ कि निःसंदेह मैं तुम्हारे लिए मिट्टी से पक्षी के रूप जैसी आकृति बनाता हूँ, फिर उसमें फूँक मारता हूँ, तो वह अल्लाह की अनुमति से पक्षी बन जाती है और मैं अल्लाह की अनुमति से जन्म से अंधे तथा कोढ़ी को स्वस्थ कर देता हूँ और मुर्दों को जीवित कर देता हूँ। तथा तुम्हें बता देता हूँ जो कुछ तुम अपने घरों में खाते हो और जो संग्रह करते हो। निःसंदेह इसमें तुम्हारे लिए एक निशानी है, यदि तुम ईमान वाले हो।

وَمُصَدِّقًا لِّمَا بَيْنَ يَدَيَّ مِنَ التَّوْرٰىةِ وَلِاُحِلَّ لَكُمْ بَعْضَ الَّذِيْ حُرِّمَ عَلَيْكُمْ وَجِئْتُكُمْ بِاٰيَةٍ مِّنْ رَّبِّكُمْۗ فَاتَّقُوا اللّٰهَ وَاَطِيْعُوْنِ٥٠
Wa muṣaddiqal limā baina yadayya minat-taurāti wa li'uḥilla lakum ba‘ḍal-lażī ḥurrima ‘alaikum wa ji'tukum bi'āyatim mir rabbikum, fattaqullāha wa aṭī‘ūn(i).
[50] तथा अपने से पहले की किताब तौरात की पुष्टि करने वाला हूँ और ताकि मैं तुम्हारे लिए कुछ वे चीज़ें हलाल कर दूँ, जो तुम पर हराम कर दी गई थीं तथा मैं तुम्हारे पास तुम्हारे पालनहार की ओर से बड़ी निशानी लेकर आया हूँ। अतः तुम अल्लाह से डरो और मेरा कहना मानो।

اِنَّ اللّٰهَ رَبِّيْ وَرَبُّكُمْ فَاعْبُدُوْهُ ۗهٰذَا صِرَاطٌ مُّسْتَقِيْمٌ٥١
Innallāha rabbī wa rabbukum fa‘budūh(u), hāżā ṣirāṭum mustaqīm(un).
[51] निःसंदेह अल्लाह ही मेरा पालनहार और तुम्हारा पालनहार है। अतः उसी की इबादत करो। यही सीधा मार्ग है।

۞ فَلَمَّآ اَحَسَّ عِيْسٰى مِنْهُمُ الْكُفْرَ قَالَ مَنْ اَنْصَارِيْٓ اِلَى اللّٰهِ ۗ قَالَ الْحَوَارِيُّوْنَ نَحْنُ اَنْصَارُ اللّٰهِ ۚ اٰمَنَّا بِاللّٰهِ ۚ وَاشْهَدْ بِاَنَّا مُسْلِمُوْنَ٥٢
Falammā aḥassa ‘īsā minhumul-kufra qāla man anṣārī ilallāh(i), qālal-ḥawāriyyūna naḥnu anṣārullāh(i), āmannā billāh(i), wasyhad bi'annā muslimūn(a).
[52] फिर जब ईसा ने उनसे कुफ़्र महसूस किया, तो कहा : कौन हैं जो अल्लाह की ओर (बुलाने में) मेरे सहायक हैं? ह़वारियों (साथियों) ने कहा : हम अल्लाह के सहायक हैं। हम अल्लाह पर ईमान लाए और तुम गवाह रहो कि निःसंदेह हम आज्ञाकारी हैं।

رَبَّنَآ اٰمَنَّا بِمَآ اَنْزَلْتَ وَاتَّبَعْنَا الرَّسُوْلَ فَاكْتُبْنَا مَعَ الشّٰهِدِيْنَ٥٣
Rabbanā āmannā bimā anzalta wattaba‘nar-rasūla faktubnā ma‘asy-syāhidīn(a).
[53] ऐ हमारे पालनहार! हम उसपर ईमान लाए, जो तूने उतारा और हमने रसूल का अनुसरण किया, अतः तू हमें गवाही देने वालों के साथ लिख ले।

وَمَكَرُوْا وَمَكَرَ اللّٰهُ ۗوَاللّٰهُ خَيْرُ الْمٰكِرِيْنَ ࣖ٥٤
Wa makarū wa makarallāh(u), wallāhu khairul-mākirīn(a).
[54] तथा उन्होंने गुप्त योजना23 बनाई और अल्लाह ने (भी) गुप्त योजना बनाई और अल्लाह सब गुप्त योजना बनाने वालों से बेहतर है।
23.अर्थात ईसा (अलैहिस्सलाम) को हत करने की। तो अल्लाह ने उन्हें विफल कर दिया। (देखिए : सूरतुन्-निसा, आयत :157)

اِذْ قَالَ اللّٰهُ يٰعِيْسٰٓى اِنِّيْ مُتَوَفِّيْكَ وَرَافِعُكَ اِلَيَّ وَمُطَهِّرُكَ مِنَ الَّذِيْنَ كَفَرُوْا وَجَاعِلُ الَّذِيْنَ اتَّبَعُوْكَ فَوْقَ الَّذِيْنَ كَفَرُوْٓا اِلٰى يَوْمِ الْقِيٰمَةِ ۚ ثُمَّ اِلَيَّ مَرْجِعُكُمْ فَاَحْكُمُ بَيْنَكُمْ فِيْمَا كُنْتُمْ فِيْهِ تَخْتَلِفُوْنَ٥٥
Iż qālallāhu yā ‘īsā innī mutawaffīka wa rāfi‘uka ilayya wa muṭahhiruka minal-lażīna kafarū wa jā‘ilul-lażīnattaba‘ūka fauqal-lażīna kafarū ilā yaumil-qiyāmah(ti), ṡumma ilayya marji‘ukum fa aḥkumu bainakum fīmā kuntum fīhi takhtalifūn(a).
[55] जब अल्लाह ने कहा : ऐ ईसा! मैं तुझे क़ब्ज़ करने वाला हूँ और तुझे अपनी ओर उठाने वाला हूँ, तथा तुझे उन लोगों से पवित्र करने वाला हूँ जिन्होंने कुफ़्र किया और तेरे अनुयायियों को क़ियामत के दिन तक काफ़िरों के ऊपर24 करने वाला हूँ। फिर मेरी ही ओर तुम्हारा लौटकर आना है। तो मैं तुम्हारे बीच उस चीज़ के बारे में निर्णय करूँगा, जिसमें तुम मतभेद किया करते थे।
24. अर्थात यहूदियों तथा मुश्रिकों के ऊपर।

فَاَمَّا الَّذِيْنَ كَفَرُوْا فَاُعَذِّبُهُمْ عَذَابًا شَدِيْدًا فِى الدُّنْيَا وَالْاٰخِرَةِۖ وَمَا لَهُمْ مِّنْ نّٰصِرِيْنَ٥٦
Fa ammal-lażīna kafarū fa u‘ażżibuhum ‘ażāban syadīdan fid-dun-yā wal-ākhirah(ti), wa mā lahum min nāṣirīn(a).
[56] फिर जिन लोगों ने कुफ़्र किया, तो मैं उन्हें दुनिया एवं आख़िरत में बहुत कड़ी यातना दूँगा और कोई उनके सहायक न होंगे।

وَاَمَّا الَّذِيْنَ اٰمَنُوْا وَعَمِلُوا الصّٰلِحٰتِ فَيُوَفِّيْهِمْ اُجُوْرَهُمْ ۗ وَاللّٰهُ لَا يُحِبُّ الظّٰلِمِيْنَ٥٧
Wa ammal-lażīna āmanū wa ‘amiluṣ-ṣāliḥāti fa yuwaffīhim ujūrahum, wallāhu lā yuḥibbuẓ-ẓālimīn(a).
[57] तथा रहे वे लोग जो ईमान लाए और उन्होंने अच्छे कर्म किए, तो वह उन्हें उनका बदला पूरा-पूरा देगा तथा अल्लाह अत्याचारियों से प्रेम नहीं करता।

ذٰلِكَ نَتْلُوْهُ عَلَيْكَ مِنَ الْاٰيٰتِ وَالذِّكْرِ الْحَكِيْمِ٥٨
Żālika natlūhu ‘alaika minal-āyāti waż-żikril-ḥakīm(i).
[58] (ऐ नबी!) यह है जिसे हम आयतों (निशानियों) और हिकमत से परिपूर्ण (दृढ़) उपदेश में से आपको पढ़कर सुनाते हैं।

اِنَّ مَثَلَ عِيْسٰى عِنْدَ اللّٰهِ كَمَثَلِ اٰدَمَ ۗ خَلَقَهٗ مِنْ تُرَابٍ ثُمَّ قَالَ لَهٗ كُنْ فَيَكُوْنُ٥٩
Inna maṡala ‘īsā ‘indallāhi kamaṡali ādam(a), khalaqahū min turābin ṡumma qāla lahū kun fayakūn(u).
[59] निःसंदेह ईसा का उदाहरण अल्लाह के निकट आदम के उदाहरण की तरह25 है कि उसे थोड़ी-सी मिट्टी से बनाया, फिर उसे कहा : "हो जा", तो वह हो जाता है।
25. अर्थात जैसे प्रथम पुरुष आदम (अलैहिस्सलाम) को बिना माता-पिता के उत्पन्न किया, उसी प्रकार ईसा (अलैहिस्सलाम) को बिना पिता के उत्पन्न कर दिया, अतः वह भी मानव पुरुष हैं।

اَلْحَقُّ مِنْ رَّبِّكَ فَلَا تَكُنْ مِّنَ الْمُمْتَرِيْنَ٦٠
Al-ḥaqqu mir rabbika falā takum minal-mumtarīn(a).
[60] यह सत्य26 आपके पालनहार की ओर से है। अतः आप संदेह करने वालों में से न हों।
26. अर्थात ईसा अलैहिस्सलाम का मानव पुरुष होना। अतः आप उनके विषय में किसी संदेह में न पड़ें।

فَمَنْ حَاۤجَّكَ فِيْهِ مِنْۢ بَعْدِ مَا جَاۤءَكَ مِنَ الْعِلْمِ فَقُلْ تَعَالَوْا نَدْعُ اَبْنَاۤءَنَا وَاَبْنَاۤءَكُمْ وَنِسَاۤءَنَا وَنِسَاۤءَكُمْ وَاَنْفُسَنَا وَاَنْفُسَكُمْۗ ثُمَّ نَبْتَهِلْ فَنَجْعَلْ لَّعْنَتَ اللّٰهِ عَلَى الْكٰذِبِيْنَ٦١
Faman ḥājjaka fīhi mim ba‘di mā jā'aka minal-‘ilmi faqul ta‘ālau nad‘u abnā'anā wa abnā'akum wa nisā'anā wa nisā'akum wa anfusanā wa anfusakum, ṡumma nabtahil fanaj‘al la‘natallāhi ‘alal-kāżibīn(a).
[61] फिर जो व्यक्ति आपसे उसके बारे में झगड़ा करे, इसके बाद कि आपके पास ज्ञान आ चुका, तो कह दें : आओ! हम अपने पुत्रों तथा तुम्हारे पुत्रों और अपनी स्त्रियों तथा तुम्हारी स्त्रियों को बुला लें और अपने आपको और तुम्हें भी, फिर गिड़गिड़ाकर प्रार्थना करें और झूठों पर अल्लाह की ला'नत27 भेजें।
27. अर्थात् अल्लाह से यह प्रार्थना करें कि वह हममें से मिथ्यावादियों को अपनी दया से दूर कर दे।

اِنَّ هٰذَا لَهُوَ الْقَصَصُ الْحَقُّ ۚ وَمَا مِنْ اِلٰهٍ اِلَّا اللّٰهُ ۗوَاِنَّ اللّٰهَ لَهُوَ الْعَزِيْزُ الْحَكِيْمُ٦٢
Inna hāżā lahuwal-qaṣaṣul-ḥaqq(u), wa mā min ilāhin illallāh(u), wa innallāha lahuwal-‘azīzul-ḥakīm(u).
[62] निःसंदेह यही निश्चय सत्य वर्णन है तथा अल्लाह के सिवा कोई भी पूज्य नहीं। और निःसंदेह अल्लाह, निश्चय वही सब पर प्रभुत्वशाली, पूर्ण हिकमत वाला है।

فَاِنْ تَوَلَّوْا فَاِنَّ اللّٰهَ عَلِيْمٌ ۢبِالْمُفْسِدِيْنَ ࣖ٦٣
Fa in tawallau fa innallāha ‘alīmum bil-mufsidīn(a).
[63] फिर यदि वे मुँह फेरें28, तो निःसंदेह अल्लाह फ़साद करने वालों को भली-भाँति जानने वाला है।
28. अर्थात् सत्य को जानने की इस विधि को स्वीकार न करें।

قُلْ يٰٓاَهْلَ الْكِتٰبِ تَعَالَوْا اِلٰى كَلِمَةٍ سَوَاۤءٍۢ بَيْنَنَا وَبَيْنَكُمْ اَلَّا نَعْبُدَ اِلَّا اللّٰهَ وَلَا نُشْرِكَ بِهٖ شَيْـًٔا وَّلَا يَتَّخِذَ بَعْضُنَا بَعْضًا اَرْبَابًا مِّنْ دُوْنِ اللّٰهِ ۗ فَاِنْ تَوَلَّوْا فَقُوْلُوا اشْهَدُوْا بِاَنَّا مُسْلِمُوْنَ٦٤
Qul yā ahlal-kitābi ta‘ālau ilā kalimatin sawā'im bainanā wa bainakum allā na‘buda illallāha wa lā nusyrika bihī syai'aw wa lā yattakhiża ba‘ḍunā ba‘ḍan arbābam min dūnillāh(i), fa in tawallau fa qūlusyhadū bi'annā muslimūn(a).
[64] (ऐ नबी!) कह दीजिए : ऐ किताब वालो! आओ एक ऐसी बात की ओर जो हमारे बीच और तुम्हारे बीच समान (बराबर) है; यह कि हम अल्लाह के सिवा किसी की इबादत न करें और उसके साथ किसी चीज़ को साझी न बनाएँ तथा हममें से कोई किसी को अल्लाह के सिवा रब न बनाए। फिर यदि वे मुँह फेर लें, तो कह दो कि तुम गवाह रहो कि हम (अल्लाह के) आज्ञाकारी29 हैं।
29. इस आयत में ईसा अलैहिस्सलाम से संबंधित विवाद के निवारण के लिए एक दूसरी विधि बताई गई है।

يٰٓاَهْلَ الْكِتٰبِ لِمَ تُحَاۤجُّوْنَ فِيْٓ اِبْرٰهِيْمَ وَمَآ اُنْزِلَتِ التَّوْرٰىةُ وَالْاِنْجِيْلُ اِلَّا مِنْۢ بَعْدِهٖۗ اَفَلَا تَعْقِلُوْنَ٦٥
Yā ahlal-kitābi lima tuḥājjūna fī ibrāhīma wa mā unzilatit-taurātu wal-injīlu illā mim ba‘dih(ī), afalā ta‘qilūn(a).
[65] ऐ किताब वालो! तुम इबराहीम के (धर्म के) बारे में क्यों झगड़ते30 हो? जबकि तौरात और इंजील तो उसके पश्चात ही उतारे गए हैं, तो क्या तुम समझते नहीं?
30. अर्थात यह क्यों कहते हो कि इबराहीम अलैहिस्सलाम हमारे धर्म पर थे। तौरात और इंजील तो उनके हज़ारों वर्ष पश्चात् अवतरित हुए। तो वह इन धर्मों पर कैसे हो सकते हैं।

هٰٓاَنْتُمْ هٰٓؤُلَاۤءِ حَاجَجْتُمْ فِيْمَا لَكُمْ بِهٖ عِلْمٌ فَلِمَ تُحَاۤجُّوْنَ فِيْمَا لَيْسَ لَكُمْ بِهٖ عِلْمٌ ۗ وَاللّٰهُ يَعْلَمُ وَاَنْتُمْ لَا تَعْلَمُوْنَ٦٦
Hā antum hā'ulā'i ḥājajtum fīmā lakum bihī ‘ilmun falima tuḥājjūna fīmā laisa lakum bihī ‘ilm(un), wallāhu ya‘lamu wa antum lā ta‘lamūn(a).
[66] देखो, तुम वे लोग हो कि तुमने उस विषय में वाद-विवाद किया, जिसके बारे में तुम्हें कुछ ज्ञान31 था, तो उस विषय में क्यों वाद-विवाद करते हो, जिसका तुम्हें कुछ ज्ञान32 नहीं? तथा अल्लाह जानता है और तुम नहीं जानते।
31. अर्थात अपने धर्म के विषय में। 32. अर्थात इबराहीम अलैहिस्सलाम के धर्म के बारे में।

مَاكَانَ اِبْرٰهِيْمُ يَهُوْدِيًّا وَّلَا نَصْرَانِيًّا وَّلٰكِنْ كَانَ حَنِيْفًا مُّسْلِمًاۗ وَمَا كَانَ مِنَ الْمُشْرِكِيْنَ٦٧
Wa mā kāna ibrāhīmu yahūdiyyaw wa lā naṣrāniyyaw wa lākin kāna ḥanīfam muslimā(n), wa mā kāna minal-musyrikīn(a).
[67] इबराहीम न यहूदी थे और न ईसाई, बल्कि वह एकाग्रचित आज्ञाकारी थे। तथा वह बहुदेववादियों में से न थे।

اِنَّ اَوْلَى النَّاسِ بِاِبْرٰهِيْمَ لَلَّذِيْنَ اتَّبَعُوْهُ وَهٰذَا النَّبِيُّ وَالَّذِيْنَ اٰمَنُوْا ۗ وَاللّٰهُ وَلِيُّ الْمُؤْمِنِيْنَ٦٨
Inna aulan-nāsi bi'ibrāhīma lal-lażīnattaba‘ūhu wa hāżan-nabiyyu wal-lażīna āmanū, wallāhu waliyyul-mu'minīn(a).
[68] निःसंदेह लोगों में इबराहीम से सबसे अधिक निकट निश्चय वही लोग हैं, जिन्होंने उनका अनुसरण किया तथा यह नबी33 और वे लोग जो ईमान लाए। और अल्लाह ही ईमान वालों का दोस्त (संरक्षक) है।
33. अर्थात मुह़म्मद सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम और आपके अनुयायी।

وَدَّتْ طَّاۤىِٕفَةٌ مِّنْ اَهْلِ الْكِتٰبِ لَوْ يُضِلُّوْنَكُمْۗ وَمَا يُضِلُّوْنَ اِلَّآ اَنْفُسَهُمْ وَمَا يَشْعُرُوْنَ٦٩
Waddaṭ-ṭā'ifatum min ahlil-kitābi lau yuḍillūnakum, wa mā yuḍillūna illā anfusahum wa mā yasy‘urūn(a).
[69] अह्ले किताब के एक समूह ने चाहा काश! वे तुम्हें पथभ्रष्ट कर दें। हालाँकि वे अपने सिवा किसी को पथभ्रष्ट नहीं कर रहे हैं। और उन्हें इसका एहसास नहीं।

يٰٓاَهْلَ الْكِتٰبِ لِمَ تَكْفُرُوْنَ بِاٰيٰتِ اللّٰهِ وَاَنْتُمْ تَشْهَدُوْنَ٧٠
Yā ahlal-kitābi lima takfurūna bi'āyātillāhi wa antum tasyhadūn(a).
[70] ऐ अह्ले किताब! तुम क्यों अल्लाह की आयतों34 का इनकार करते हो, जबकि तुम खुद गवाही देते35 हो?
34. जो तुम्हारी किताब में अंतिम नबी से संबंधित हैं। 35. अर्थात उन आयतों के सत्य होने के साक्षी हो।

يٰٓاَهْلَ الْكِتٰبِ لِمَ تَلْبِسُوْنَ الْحَقَّ بِالْبَاطِلِ وَتَكْتُمُوْنَ الْحَقَّ وَاَنْتُمْ تَعْلَمُوْنَ ࣖ٧١
Yā ahlal-kitābi lima talbisūnal-ḥaqqa bil-bāṭili wa taktumūnal-ḥaqqa wa antum ta‘lamūn.
[71] ऐ किताब वालो! तुम क्यों सत्य को असत्य के साथ गड्डमड्ड करते हो और सत्य को छिपाते हो, हालाँकि तुम जानते हो?

وَقَالَتْ طَّاۤىِٕفَةٌ مِّنْ اَهْلِ الْكِتٰبِ اٰمِنُوْا بِالَّذِيْٓ اُنْزِلَ عَلَى الَّذِيْنَ اٰمَنُوْا وَجْهَ النَّهَارِ وَاكْفُرُوْٓا اٰخِرَهٗ لَعَلَّهُمْ يَرْجِعُوْنَۚ٧٢
Wa qālaṭ-ṭā'ifatum min ahlil-kitābi āminū bil-lażī unzila ‘alal-lażīna āmanū wajhan-nahāri wakfurū ākhirahū la‘allahum yarji‘ūn(a).
[72] और किताब वालों में से एक समूह ने कहा तुम दिन के आरंभ में उसपर ईमान ले आओ, जो उन लोगों पर उतारा गया है जो ईमान लाए हैं और उसके अंत में इनकार कर दो, ताकि वे (भी) वापस लौट आएँ।36
36. अर्थात मुसलमान इस्लाम से फिर जाएँ।

وَلَا تُؤْمِنُوْٓا اِلَّا لِمَنْ تَبِعَ دِيْنَكُمْ ۗ قُلْ اِنَّ الْهُدٰى هُدَى اللّٰهِ ۙ اَنْ يُّؤْتٰىٓ اَحَدٌ مِّثْلَ مَآ اُوْتِيْتُمْ اَوْ يُحَاۤجُّوْكُمْ عِنْدَ رَبِّكُمْ ۗ قُلْ اِنَّ الْفَضْلَ بِيَدِ اللّٰهِ ۚ يُؤْتِيْهِ مَنْ يَّشَاۤءُ ۗوَاللّٰهُ وَاسِعٌ عَلِيْمٌ ۚ٧٣
Wa lā tu'minū illā liman tabi‘a dīnakum, qul innal-hudā hudallāh(i), ay yu'tā aḥadum miṡla mā ūtītum au yuḥājjūkum ‘inda rabbikum, qul innal-faḍla biyadillāh(i), yu'tīhi may yasyā'(u), wallāhu wāsi‘un ‘alīm(un).
[73] और केवल उसी की मानो, जो तुम्हारे (धर्म) का अनुसरण करे। (ऐ नबी!) कह दो कि वास्तविक मार्गदर्शन तो अल्लाह का मार्गदर्शन है। (यह मत मानो) कि जो कुछ तुम्हें दिया गया है, वैसा किसी और को भी दिया जाएगा, अथवा वे तुमसे तुम्हारे पालनहार के पास झगड़ा करेंगे। कह दो निःसंदेह सब अनुग्रह अल्लाह के हाथ में है, वह उसे जिसको चाहता है, देता है और अल्लाह विस्तार वाला, सब कुछ जानने वाला है।

يَخْتَصُّ بِرَحْمَتِهٖ مَنْ يَّشَاۤءُ ۗوَاللّٰهُ ذُو الْفَضْلِ الْعَظِيْمِ٧٤
Yakhtaṣṣu biraḥmatihī may yasyā'(u), wallāhu żul-faḍlil-‘aẓīm(i).
[74] वह जिसे चाहता है अपनी रहमत (दया) के लिए विशिष्ट कर लेता है तथा अल्लाह बहुत बड़े अनुग्रह वाला है।

۞ وَمِنْ اَهْلِ الْكِتٰبِ مَنْ اِنْ تَأْمَنْهُ بِقِنْطَارٍ يُّؤَدِّهٖٓ اِلَيْكَۚ وَمِنْهُمْ مَّنْ اِنْ تَأْمَنْهُ بِدِيْنَارٍ لَّا يُؤَدِّهٖٓ اِلَيْكَ اِلَّا مَا دُمْتَ عَلَيْهِ قَاۤىِٕمًا ۗ ذٰلِكَ بِاَنَّهُمْ قَالُوْا لَيْسَ عَلَيْنَا فِى الْاُمِّيّٖنَ سَبِيْلٌۚ وَيَقُوْلُوْنَ عَلَى اللّٰهِ الْكَذِبَ وَهُمْ يَعْلَمُوْنَ٧٥
Wa min ahlil-kitābi man in ta'manhu bi qinṭārin yu'addīhi ilaik(a), wa minhum man in ta'manhu bidīnāril lā yu'addīhi ilaika illā mā dumta ‘alaihi qā'imā(n), żālika bi'annahum qālū laisa ‘alainā fil-ummiyyīna sabīl(un), wa yaqūlūna ‘alallāhil-każiba wa hum ya‘lamūn(a).
[75] तथा किताब वालों में से कोई तो ऐसा है कि यदि तुम उसके पास ढेर सारा धन अमानत रख दो, तो वह तुम्हें उसे लौटा देगा तथा उनमें से कोई ऐसा है कि यदि तुम उसके पास एक दीनार37 अमानत रखो, वह उसे तुम्हें अदा नहीं करेगा जब तक तुम उसके सिर पर खड़े न रहो। यह इसलिए कि उन्होंने कहा कि हमपर उन उम्मियों (अनपढ़ों) के बारे में (पकड़ का) कोई रास्ता38 नहीं तथा वे अल्लाह पर झूठ बोलते हैं, हालाँकि वे जानते हैं।
37. दीनार सोने के सिक्के को कहा जाता है। 38. अर्थात उनके धन का उपभोग करने पर कोई पाप नहीं। क्योंकि यहूदियों ने अपने अतिरिक्त सब का धन ह़लाल समझ रखा था। और दूसरों को वह "उम्मी" कहा करते थे। अर्थात वे लोग जिनके पास कोई आसमानी किताब नहीं है।

بَلٰى مَنْ اَوْفٰى بِعَهْدِهٖ وَاتَّقٰى فَاِنَّ اللّٰهَ يُحِبُّ الْمُتَّقِيْنَ٧٦
Balā man aufā bi‘ahdihī wattaqā fa innallāha yuḥibbul-muttaqīn(a).
[76] क्यों नहीं! जो व्यक्ति अपना वचन पूरा करे और (अल्लाह से) डरे, तो निश्चय अल्लाह डरने वालों से प्रेम करता है।

اِنَّ الَّذِيْنَ يَشْتَرُوْنَ بِعَهْدِ اللّٰهِ وَاَيْمَانِهِمْ ثَمَنًا قَلِيْلًا اُولٰۤىِٕكَ لَا خَلَاقَ لَهُمْ فِى الْاٰخِرَةِ وَلَا يُكَلِّمُهُمُ اللّٰهُ وَلَا يَنْظُرُ اِلَيْهِمْ يَوْمَ الْقِيٰمَةِ وَلَا يُزَكِّيْهِمْ ۖ وَلَهُمْ عَذَابٌ اَلِيْمٌ٧٧
Innal-lażīna yasytarūna bi‘ahdillāhi wa aimānihim ṡamanan qalīlan ulā'ika lā khalāqa lahum fil-ākhirati wa lā yukallimuhumullāhu wa lā yanẓuru ilaihim yaumal-qiyāmati wa lā yuzakkīhim, wa lahum ‘ażābun alīm(un).
[77] निःसंदेह जो लोग अल्लाह के वचन39 तथा अपनी क़समों के बदले तनिक मूल्य प्राप्त करते हैं, उनका आख़िरत (परलोक) में कोई हिस्सा नहीं। अल्लाह क़ियामत के दिन न उनसे बात करेगा और न उनकी ओर देखेगा और न उन्हें पवित्र करेगा। तथा उनके लिए दर्दनाक यातना है।
39. अल्लाह के वचन से अभिप्राय वह वचन है, जो उनसे धर्म पुस्तकों द्वारा लिया गया है।

وَاِنَّ مِنْهُمْ لَفَرِيْقًا يَّلْوٗنَ اَلْسِنَتَهُمْ بِالْكِتٰبِ لِتَحْسَبُوْهُ مِنَ الْكِتٰبِ وَمَا هُوَ مِنَ الْكِتٰبِۚ وَيَقُوْلُوْنَ هُوَ مِنْ عِنْدِ اللّٰهِ وَمَا هُوَ مِنْ عِنْدِ اللّٰهِ ۚ وَيَقُوْلُوْنَ عَلَى اللّٰهِ الْكَذِبَ وَهُمْ يَعْلَمُوْنَ٧٨
Wa inna minhum lafarīqay yalwūna alsinatahum bil-kitābi litaḥsabūhu minal-kitābi wa mā huwa minal-kitāb(i), wa yaqūlūna huwa min ‘indillāhi wa mā huwa min ‘indillāh(i), wa yaqūlūna ‘alallāhil-każiba wa hum ya‘lamūn(a).
[78] और निःसंदेह उनमें से निश्चय कुछ लोग40 ऐसे हैं, जो किताब (पढ़ने) के साथ अपनी ज़बानें मरोड़ते हैं, ताकि तुम उसे पुस्तक में से समझो, हालाँकि वह पुस्तक में से नहीं और कहते हैं, यह अल्लाह की ओर से है। हालाँकि वह अल्लाह की ओर से नहीं और अल्लाह पर झूठ कहते हैं, हालाँकि वे जानते हैं।
40. इससे अभिप्राय यहूदी विद्वान हैं। और पुस्तक से अभिप्राय तौरात है।

مَا كَانَ لِبَشَرٍ اَنْ يُّؤْتِيَهُ اللّٰهُ الْكِتٰبَ وَالْحُكْمَ وَالنُّبُوَّةَ ثُمَّ يَقُوْلَ لِلنَّاسِ كُوْنُوْا عِبَادًا لِّيْ مِنْ دُوْنِ اللّٰهِ وَلٰكِنْ كُوْنُوْا رَبَّانِيّٖنَ بِمَا كُنْتُمْ تُعَلِّمُوْنَ الْكِتٰبَ وَبِمَا كُنْتُمْ تَدْرُسُوْنَ ۙ٧٩
Mā kāna libasyarin ay yu'tiyahullāhul-kitāba wal-ḥukma wan-nubuwwata ṡumma yaqūla lin-nāsi kūnū ‘ibādal lī min dūnillāhi wa lākin kūnū rabbāniyyīna bimā kuntum tu‘allimūnal-kitāba wa bimā kuntum tadrusūn(a).
[79] किसी मनुष्य का यह अधिकार नहीं कि अल्लाह उसे पुस्तक, निर्णय शक्ति और नुबुव्वत (पैग़ंबरी) प्रदान करे, फिर वह लोगों से कहे कि अल्लाह को छोड़कर मेरे बंदे बन जाओ41, बल्कि (वह तो यही कहेगा कि) तुम रब वाले बनो, इसलिए कि तुम पुस्तक की शिक्षा दिया करते थे और इसलिए कि तुम पढ़ा करते थे।
41. भावार्थ यह है कि जब नबी के लिए योग्य नहीं कि लोगों से कहे कि मेरी इबादत करो, तो किसी अन्य के लिए कैसे योग्य हो सकता है?

وَلَا يَأْمُرَكُمْ اَنْ تَتَّخِذُوا الْمَلٰۤىِٕكَةَ وَالنَّبِيّٖنَ اَرْبَابًا ۗ اَيَأْمُرُكُمْ بِالْكُفْرِ بَعْدَ اِذْ اَنْتُمْ مُّسْلِمُوْنَ ࣖ٨٠
Wa lā ya'murakum an tattakhiżul-malā'ikata wan-nabiyyīna arbābā(n), aya'murukum bil-kufri ba‘da iż antum muslimūn(a).
[80] तथा न यह (अधिकार है) कि तुम्हें आदेश दे कि फ़रिश्तों और नबियों को रब (पूज्य)42 बना लो। क्या वह तुम्हें कुफ़्र का आदेश देगा, इसके बाद कि तुम मुसलमान (अल्लाह के आज्ञाकारी) हो?
42. जैसे अपने पालनहार के आगे झुकते हो, उसी प्रकार उनके आगे भी झुको।

وَاِذْ اَخَذَ اللّٰهُ مِيْثَاقَ النَّبِيّٖنَ لَمَآ اٰتَيْتُكُمْ مِّنْ كِتٰبٍ وَّحِكْمَةٍ ثُمَّ جَاۤءَكُمْ رَسُوْلٌ مُّصَدِّقٌ لِّمَا مَعَكُمْ لَتُؤْمِنُنَّ بِهٖ وَلَتَنْصُرُنَّهٗ ۗ قَالَ ءَاَقْرَرْتُمْ وَاَخَذْتُمْ عَلٰى ذٰلِكُمْ اِصْرِيْ ۗ قَالُوْٓا اَقْرَرْنَا ۗ قَالَ فَاشْهَدُوْا وَاَنَا۠ مَعَكُمْ مِّنَ الشّٰهِدِيْنَ٨١
Wa iż akhażallāhu mīṡāqan-nabiyyīna lamā ātaitukum min kitābiw wa ḥikmatin ṡumma jā'akum rasūlum muṣaddiqul limā ma‘akum latu'minunna bihī wa latanṣurunnah(ū), qāla a'aqrartum wa akhażtum ‘alā żālikum iṣrī, qālū aqrarnā, qāla fasyhadū wa ana ma‘akum minasy-syāhidīn(a).
[81] तथा (याद करो) जब अल्लाह ने सब नबियों से दृढ़ वचन लिया कि मैं किताब और हिकमत में से जो कुछ तुम्हें दूँ, फिर तुम्हारे पास कोई रसूल आए जो उसकी पुष्टि करने वाला हो जो तुम्हारे पास है, तो तुम उसपर अवश्य ईमान लाओगे और अवश्य उसका समर्थन करोगे। (अल्लाह ने) कहा : क्या तुमने स्वीकार किया और उसपर मेरी प्रतिज्ञा क़बूल की? उन्होंने कहा : हमने स्वीकार कर लिया। (अल्लाह ने) कहा : तो तुम गवाह रहो और मैं भी तुम्हारे साथ गवाहों में से हूँ।43
43. भावार्थ यह है कि जब आगामी नबियों को ईमान लाना आवश्यक है, तो उनके अनुयायियों को भी ईमान लाना आवश्यक होगा। अतः अंतिम नबी मुह़म्मद (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) पर ईमान लाना सभी के लिए अनिवार्य है।

فَمَنْ تَوَلّٰى بَعْدَ ذٰلِكَ فَاُولٰۤىِٕكَ هُمُ الْفٰسِقُوْنَ٨٢
Faman tawallā ba‘da żālika fa ulā'ika humul-fāsiqūn(a).
[82] फिर जो इसके बाद44 फिर जाए, तो यही लोग अवज्ञाकारी हैं।
44. अर्थात इस वचन और प्रण के बाद।

اَفَغَيْرَ دِيْنِ اللّٰهِ يَبْغُوْنَ وَلَهٗ ٓ اَسْلَمَ مَنْ فِى السَّمٰوٰتِ وَالْاَرْضِ طَوْعًا وَّكَرْهًا وَّاِلَيْهِ يُرْجَعُوْنَ٨٣
Afagaira dīnillāhi yabgūna wa lahū aslama man fis-samāwāti wal-arḍi ṭau‘aw wa ilaihi yurja‘ūn(a).
[83] तो क्या वे अल्लाह के धर्म (इस्लाम) के अलावा कुछ और तलाश करते हैं? जबकि आकाशों और धरती में जो भी है स्वेच्छा से और अनिच्छा से उसी का आज्ञाकारी45 है तथा वे उसी की ओर लौटाए46 जाएँगे।
45. अर्थात उसी की आज्ञा तथा व्यवस्था के अधीन हैं। फिर तुम्हें इस स्वभाविक धर्म से इनकार क्यों है? 46. अर्थात प्रलय के दिन अपने कर्मों के प्रतिफल के लिए।

قُلْ اٰمَنَّا بِاللّٰهِ وَمَآ اُنْزِلَ عَلَيْنَا وَمَآ اُنْزِلَ عَلٰٓى اِبْرٰهِيْمَ وَاِسْمٰعِيْلَ وَاِسْحٰقَ وَيَعْقُوْبَ وَالْاَسْبَاطِ وَمَآ اُوْتِيَ مُوْسٰى وَعِيْسٰى وَالنَّبِيُّوْنَ مِنْ رَّبِّهِمْۖ لَا نُفَرِّقُ بَيْنَ اَحَدٍ مِّنْهُمْۖ وَنَحْنُ لَهٗ مُسْلِمُوْنَ٨٤
Qul āmannā billāhi wa mā unzila ‘alainā wa mā unzila ‘alā ibrāhīma wa ismā‘īla wa isḥāqa wa ya‘qūba wal-asbāṭi wa mā ūtiya mūsā wa ‘īsā wan-nabiyyūna mir rabbihim, lā nufarriqu baina aḥadim minhum, wa naḥnu lahū muslimūn(a).
[84] (ऐ रसूल!) कह दो : हम अल्लाह पर ईमान लाए और उसपर जो हमपर उतारा गया, और जो इबराहीम, इसमाईल, इसह़ाक़, याक़ूब तथा उनकी संतान पर उतारा गया, और जो मूसा तथा ईसा और दूसरे नबियों को उनके पालनहार की ओर से दिया गया, हम इनमें से किसी एक के बीच अंतर नहीं करते47 और हम उसी (अल्लाह) के आज्ञाकारी हैं।
47. अर्थात मूल धर्म अल्लाह की आज्ञाकारिता है, और अल्लाह की पुस्तकों तथा उसके नबियों के बीच अंतर करना, किसी को मानना और किसी को न मानना अल्लाह पर ईमान और उसकी आज्ञाकारिता के विपरीत है।

وَمَنْ يَّبْتَغِ غَيْرَ الْاِسْلَامِ دِيْنًا فَلَنْ يُّقْبَلَ مِنْهُۚ وَهُوَ فِى الْاٰخِرَةِ مِنَ الْخٰسِرِيْنَ٨٥
Wa may yabtagi gairal-islāmi dīnan falay yuqbala minh(u), wa huwa fil-ākhirati minal khāsirīn(a).
[85] और जो इस्लाम के अलावा कोई और धर्म तलाश करे, तो वह उससे हरगिज़ स्वीकार नहीं किया जाएगा और वह आख़िरत में घाटा उठाने वालों में से होगा।

كَيْفَ يَهْدِى اللّٰهُ قَوْمًا كَفَرُوْا بَعْدَ اِيْمَانِهِمْ وَشَهِدُوْٓا اَنَّ الرَّسُوْلَ حَقٌّ وَّجَاۤءَهُمُ الْبَيِّنٰتُ ۗ وَاللّٰهُ لَا يَهْدِى الْقَوْمَ الظّٰلِمِيْنَ٨٦
Kaifa yahdillāhu qauman kafarū ba‘da īmānihim wa syahidū annar-rasūla ḥaqquw wa jā'ahumul-bayyināt(u), wallāhu lā yahdil-qaumaẓ-ẓālimīn(a).
[86] अल्लाह उन लोगों को कैसे हिदायत देगा, जिन्होंने अपने ईमान के बाद कुफ़्र किया और (इसके बाद कि) उन्होंने गवाही दी कि निश्चय यह रसूल सच्चा है तथा उनके पास स्पष्ट प्रमाण आ चुके?! और अल्लाह अत्याचारियों को हिदायत नहीं देता।

اُولٰۤىِٕكَ جَزَاۤؤُهُمْ اَنَّ عَلَيْهِمْ لَعْنَةَ اللّٰهِ وَالْمَلٰۤىِٕكَةِ وَالنَّاسِ اَجْمَعِيْنَۙ٨٧
Ulā'ika jazā'uhum anna ‘alaihim la‘natallāhi wal-malā'ikati wan-nāsi ajma‘īn(a).
[87] ऐसे लोगों का बदला यह है कि उनपर अल्लाह की, फ़रिश्तों की और समस्त लोगों की ला'नत (धिक्कार) है।

خٰلِدِيْنَ فِيْهَا ۚ لَا يُخَفَّفُ عَنْهُمُ الْعَذَابُ وَلَا هُمْ يُنْظَرُوْنَۙ٨٨
Khālidīna fihā, lā yukhaffafu ‘anhumul-‘ażābu wa lā hum yunẓarūn(a).
[88] हमेशा उसमें रहने वाले हैं, न उनका अज़ाब हल्का किया जाएगा और न उन्हें मोहलत दी जाएगी।

اِلَّا الَّذِيْنَ تَابُوْا مِنْۢ بَعْدِ ذٰلِكَ وَاَصْلَحُوْاۗ فَاِنَّ اللّٰهَ غَفُوْرٌ رَّحِيْمٌ٨٩
Illal-lażīna tābū mim ba‘di żālika wa aṣlaḥū, fa'innallāha gafūrur raḥīm(un).
[89] परंतु जिन लोगों ने इसके बाद तौबा कर ली तथा सुधार कर लिया, तो निश्चय अल्लाह अति क्षमाशील, अत्यंत दयावान् है।

اِنَّ الَّذِيْنَ كَفَرُوْا بَعْدَ اِيْمَانِهِمْ ثُمَّ ازْدَادُوْا كُفْرًا لَّنْ تُقْبَلَ تَوْبَتُهُمْ ۚ وَاُولٰۤىِٕكَ هُمُ الضَّاۤلُّوْنَ٩٠
Innal-lażīna kafarū ba‘da īmānihim ṡummazdādū kufral lan tuqbala taubatuhum, wa ulā'ika humuḍ-ḍāllūn(a).
[90] निःसंदेह जिन लोगों ने अपने ईमान के बाद कुफ़्र किया, फिर कुफ़्र में बढ़ गए, उनकी तौबा कदापि48 स्वीकार न की जाएगी तथा वही लोग पथभ्रष्ट हैं।
48. अर्थात यदि मौत के समय क्षमा याचना करें।

اِنَّ الَّذِيْنَ كَفَرُوْا وَمَاتُوْا وَهُمْ كُفَّارٌ فَلَنْ يُّقْبَلَ مِنْ اَحَدِهِمْ مِّلْءُ الْاَرْضِ ذَهَبًا وَّلَوِ افْتَدٰى بِهٖۗ اُولٰۤىِٕكَ لَهُمْ عَذَابٌ اَلِيْمٌ وَّمَا لَهُمْ مِّنْ نّٰصِرِيْنَ ࣖ ۔٩١
Innal-lażīna kafarū wa mātū wa hum kuffārun falay yuqbala min aḥadihim mil'ul-arḍi żahabaw wa lawiftadā bih(ī), ulā'ika lahum ‘ażābun alīmuw wa mā lahum min nāṣirīn(a).
[91] निःसंदेह जिन लोगों ने कुफ़्र किया और इस हाल में मर गए कि वे काफ़िर थे, तो उनके किसी एक से धरती के बराबर सोना भी हरगिज़ स्वीकार नहीं किया जाएगा, चाहे वह उसे फ़िदया (छुड़ौती) में दे दे। ये लोग हैं जिनके लिए दर्दनाक यातना है और उनके लिए कोई मदद करने वाले नहीं।

لَنْ تَنَالُوا الْبِرَّ حَتّٰى تُنْفِقُوْا مِمَّا تُحِبُّوْنَ ۗوَمَا تُنْفِقُوْا مِنْ شَيْءٍ فَاِنَّ اللّٰهَ بِهٖ عَلِيْمٌ٩٢
Lan tanālul-birra ḥattā tunfiqū mimmā tuḥibbūn(a), wa mā tunfiqū min syai'in fa innallāha bihī ‘alīm(un).
[92] तुम नेकी49 को कदापि नहीं प्राप्त कर सकते, जब तक तुम उन चीज़ों में से (अल्लाह के मार्ग में) खर्च न करो, जो तुम्हें प्रिय हैं। तथा तुम जो चीज़ भी खर्च करोगे, निःसंदेह अल्लाह उसे भली-भांति जानता है।
49. अर्थात नेकी का फल स्वर्ग।

۞ كُلُّ الطَّعَامِ كَانَ حِلًّا لِّبَنِيْٓ اِسْرَاۤءِيْلَ اِلَّا مَا حَرَّمَ اِسْرَاۤءِيْلُ عَلٰى نَفْسِهٖ مِنْ قَبْلِ اَنْ تُنَزَّلَ التَّوْرٰىةُ ۗ قُلْ فَأْتُوْا بِالتَّوْرٰىةِ فَاتْلُوْهَآ اِنْ كُنْتُمْ صٰدِقِيْنَ٩٣
Kulluṭ-ṭa‘āmi kāna ḥillal libanī isrā'īla illā mā ḥarrama isrā'īlu ‘alā nafsihī min qabli an tunazzalat-taurāh(tu), qul fa'tū bit-taurāti fatlūhā in kuntum ṣādiqīn(a).
[93] खाने की समस्त चीज़ें बनी इसराईल के लिए हलाल (वैध) थीं, सिवाय उसके जिसे इसराईल (याक़ूब अलैहिस्सलाम)50 ने तौरात उतरने से पहले अपने ऊपर हराम (अवैध) कर लिया था। (ऐ नबी!) आप कह दीजिए कि यदि तुम सच्चे हो, तो तौरात लाओ और उसे पढ़ो।
50. जब क़ुरआन ने यह कहा कि यहूद पर बहुत से स्वच्छ खाद्य पदार्थ उनके अत्याचार के कारण अवैध कर दिए गए। (देखिए : सूरतुन-निसा आयत : 160, सूरतुल- अन्आम, आयत : 146)। अन्यथा यह सभी इबराहीम (अलैहिस्सलाम) के युग में वैध थे। तो यहूद ने इसे झुठलाया तथा कहने लगे कि यह सब तो इबराहीम अलैहिस्सलाम के युग ही से अवैथ चले आ रहे हैं। इसी पर ये आयतें उतरीं कि तौरात से इसका प्रमाण प्रस्तुत करो कि ये इबराहीम (अलैहिस्सलाम) ही के युग से अवैध हैं। यह और बात है कि इसराईल ने कुछ चीज़ों जैसे ऊँट का मांस रोग अथवा मनौती के कारण अपने लिए स्वयं अवैध कर लिया था। यहाँ यह याद रखें कि इस्लाम में किसी उचित चीज़ को अनुचित करने की अनुमति किसी को नहीं है। (देखिए : शौकानी)

فَمَنِ افْتَرٰى عَلَى اللّٰهِ الْكَذِبَ مِنْۢ بَعْدِ ذٰلِكَ فَاُولٰۤىِٕكَ هُمُ الظّٰلِمُوْنَ٩٤
Fa maniftarā ‘alallāhil-każiba mim ba‘di żālika fa ulā'ika humuẓ-ẓālimūn(a).
[94] अब इसके बाद भी जो व्यक्ति अल्लाह पर मिथ्या आरोप लगाए, तो ऐसे ही लोग अत्याचारी हैं।

قُلْ صَدَقَ اللّٰهُ ۗ فَاتَّبِعُوْا مِلَّةَ اِبْرٰهِيْمَ حَنِيْفًاۗ وَمَا كَانَ مِنَ الْمُشْرِكِيْنَ٩٥
Qul ṣadaqallāh(u), fattabi‘ū millata ibrāhīma ḥanīfā(n), wa mā kāna minal-musyrikīn(a).
[95] (ऐ नबी!) आप कह दीजिए कि अल्लाह ने सच कहा है। अतः तुम इबराहीम (अलैहिस्सलाम) के धर्म का अनुसरण करो, जो एकेश्वरवादी थे और वह बहुदेववादियों में से नहीं थे।

اِنَّ اَوَّلَ بَيْتٍ وُّضِعَ لِلنَّاسِ لَلَّذِيْ بِبَكَّةَ مُبٰرَكًا وَّهُدًى لِّلْعٰلَمِيْنَۚ٩٦
Inna awwala baitiw wuḍi‘a lin-nāsi lal-lażī bibakkata mubārakaw wa hudal lil-‘ālamīn(a).
[96] निःसंदेह पहला घर जो मानव के लिए बनाया गया, वह वही है जो मक्का में है, जो बरकत वाला तथा समस्त संसार के लिए मार्गदर्शन है।

فِيْهِ اٰيٰتٌۢ بَيِّنٰتٌ مَّقَامُ اِبْرٰهِيْمَ ەۚ وَمَنْ دَخَلَهٗ كَانَ اٰمِنًا ۗ وَلِلّٰهِ عَلَى النَّاسِ حِجُّ الْبَيْتِ مَنِ اسْتَطَاعَ اِلَيْهِ سَبِيْلًا ۗ وَمَنْ كَفَرَ فَاِنَّ اللّٰهَ غَنِيٌّ عَنِ الْعٰلَمِيْنَ٩٧
Fīhi āyātum bayyinātum maqāmu ibrāhīm(a), wa man dakhalahū kāna āminā(n), wa lillāhi ‘alan-nāsi ḥijjul-baiti manistaṭā‘a ilaihi sabīlā(n), wa man kafara fa innallāha ganiyyun ‘anil-‘ālamīn(a).
[97] उसमें खुली निशानियाँ हैं, (जिनमें) मक़ामे इबराहीम51 है, तथा जो उसमें प्रवेश कर गया, वह सुरक्षित हो गया। तथा अल्लाह के लिए लोगों पर इस घर का हज्ज अनिवार्य है, जो वहाँ तक पहुँचने का सामर्थ्य रखता हो, और जिसने इनकार किया तो निःसंदेह अल्लाह (उससे, बल्कि) समस्त संसार से निस्पृह (बेनियाज़) है।
51. अर्थात वह पत्थर जिसपर खड़े होकर इबराहीम (अलैहिस्सलाम) ने काबा का निर्माण किया, जिसपर उनके पैरों के निशान आज तक हैं।

قُلْ يٰٓاَهْلَ الْكِتٰبِ لِمَ تَكْفُرُوْنَ بِاٰيٰتِ اللّٰهِ وَاللّٰهُ شَهِيْدٌ عَلٰى مَا تَعْمَلُوْنَ٩٨
Qul yā ahlal-kitābi lima takfurūna bi'āyātillāh(i), wallāhu syahīdun ‘alā mā ta‘malūn(a).
[98] (ऐ नबी!) आप कह दीजिए कि ऐ किताब वालो! तुम अल्लाह की आयतों का क्यों इनकार करते हो, हालाँकि जो कुछ तुम करते हो अल्लाह उससे अवगत हैॽ

قُلْ يٰٓاَهْلَ الْكِتٰبِ لِمَ تَصُدُّوْنَ عَنْ سَبِيْلِ اللّٰهِ مَنْ اٰمَنَ تَبْغُوْنَهَا عِوَجًا وَّاَنْتُمْ شُهَدَاۤءُ ۗ وَمَا اللّٰهُ بِغَافِلٍ عَمَّا تَعْمَلُوْنَ٩٩
Qul yā ahlal-kitābi lima taṣuddūna ‘an sabīlillāhi man āmana tabgūnahā ‘iwajaw wa antum syuhadā'(u), wa mallāhu bigāfilin ‘ammā ta‘malūn(a).
[99] (ऐ नबी) आप कह दीजिए : ऐ किताब वालो! तुम ईमान लाने वालों को अल्लाह के रास्ते से क्यों रोकते होॽ तुम्हें उसमें कुटिलता की तलाश रहती है। जबकि तुम (उसके सच्चे होने के) गवाह52 होॽ और अल्लाह तुम्हारे कर्मों से अनभिज्ञ नहीं है।
52. अर्थात इस्लाम के सत्धर्म होने को जानते हो।

يٰٓاَيُّهَا الَّذِيْنَ اٰمَنُوْٓا اِنْ تُطِيْعُوْا فَرِيْقًا مِّنَ الَّذِيْنَ اُوْتُوا الْكِتٰبَ يَرُدُّوْكُمْ بَعْدَ اِيْمَانِكُمْ كٰفِرِيْنَ١٠٠
Yā ayyuhal-lażīna āmanū in tuṭī‘ū farīqam minal-lażīna ūtul-kitāba yaruddūkum ba‘da īmānikum kāfirīn(a).
[100] ऐ ईमान वालो! यदि तुम किताब वालों के किसी समूह की बात मानोगे, तो वे तुम्हारे ईमान लाने के बाद फिर तुम्हें काफ़िर बना देंगे।

وَكَيْفَ تَكْفُرُوْنَ وَاَنْتُمْ تُتْلٰى عَلَيْكُمْ اٰيٰتُ اللّٰهِ وَفِيْكُمْ رَسُوْلُهٗ ۗ وَمَنْ يَّعْتَصِمْ بِاللّٰهِ فَقَدْ هُدِيَ اِلٰى صِرَاطٍ مُّسْتَقِيْمٍ ࣖ١٠١
Wa kaifa takfurūna wa antum tutlā ‘alaikum āyātullāhi wa fīkum rasūluh(ū), wa may ya‘taṣim billāhi faqad hudiya ilā ṣirāṭim mustaqīm(in).
[101] तथा यह कैसे हो सकता है कि तुम (फिर से) कुफ़्र को स्वीकार कर लो, जबकि तुम्हारे सामने अल्लाह की आयतें पढ़ी जा रही हैं और तुम्हारे बीच उसका रसूल53 मौजूद हैॽ और जो अल्लाह को54 मज़बूत थाम ले, तो वास्तव में उसे सीधा मार्ग दिखा दिया गया।
53. अर्थात मुह़म्मद (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम)। 54. अर्थात अल्लाह का आज्ञाकारी हो जाए।

يٰٓاَيُّهَا الَّذِيْنَ اٰمَنُوا اتَّقُوا اللّٰهَ حَقَّ تُقٰىتِهٖ وَلَا تَمُوْتُنَّ اِلَّا وَاَنْتُمْ مُّسْلِمُوْنَ١٠٢
Yā ayyuhal-lażīna āmanuttaqullāha ḥaqqa tuqātihī wa lā tamūtunna illā wa antum muslimūn(a).
[102] ऐ ईमान वालो! अल्लाह से डरो, जैसा कि उससे डरना चाहिए तथा तुम्हारी मृत्यु न आए परंतु इस स्थिति में कि तुम मुसलमान हो।

وَاعْتَصِمُوْا بِحَبْلِ اللّٰهِ جَمِيْعًا وَّلَا تَفَرَّقُوْا ۖوَاذْكُرُوْا نِعْمَتَ اللّٰهِ عَلَيْكُمْ اِذْ كُنْتُمْ اَعْدَاۤءً فَاَلَّفَ بَيْنَ قُلُوْبِكُمْ فَاَصْبَحْتُمْ بِنِعْمَتِهٖٓ اِخْوَانًاۚ وَكُنْتُمْ عَلٰى شَفَا حُفْرَةٍ مِّنَ النَّارِ فَاَنْقَذَكُمْ مِّنْهَا ۗ كَذٰلِكَ يُبَيِّنُ اللّٰهُ لَكُمْ اٰيٰتِهٖ لَعَلَّكُمْ تَهْتَدُوْنَ١٠٣
Wa‘taṣimū biḥablillāhi jamī‘aw wa lā tafarraqū, ważkurū ni‘matallāhi ‘alaikum iż kuntum a‘dā'an fa allafa baina qulūbikum fa aṣbaḥtum bi ni‘matihī ikhwānā(n), wa kuntum ‘alā syafā ḥufratim minan-nāri fa anqażakum minhā, każālika yubayyinullāhu lakum āyātihī la‘allakum tahtadūn(a).
[103] तथा अल्लाह की रस्सी55 को सब मिलकर मज़बूती से पकड़ लो और विभेद में न पड़ो तथा अपने ऊपर अल्लाह की नेमत को याद करो कि तुम एक-दूसरे के शत्रु थे, फिर उसने तुम्हारे दिलों को जोड़ दिया और तुम उसकी कृपा से भाई-भाई हो गए। तथा तुम आग के गड्ढे के किनारे खड़े थे, तो उसने तुम्हें उससे बचा लिया। इसी प्रकार अल्लाह तुम्हारे लिए अपनी आयतों को खोल-खोलकर बयान करता है, ताकि तुम मार्गदर्शन पा जाओ।
55. अल्लाह की रस्सी से अभिप्राय क़ुरआन और नबी (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) की सुन्नत है। यही दोनों मुसलमानों की एकता और परस्पर प्रेम का सूत्र हैं।

وَلْتَكُنْ مِّنْكُمْ اُمَّةٌ يَّدْعُوْنَ اِلَى الْخَيْرِ وَيَأْمُرُوْنَ بِالْمَعْرُوْفِ وَيَنْهَوْنَ عَنِ الْمُنْكَرِ ۗ وَاُولٰۤىِٕكَ هُمُ الْمُفْلِحُوْنَ١٠٤
Waltakum minkum ummatuy yad‘ūna ilal-khairi wa ya'murūna bil-ma‘rūfi wa yanhauna ‘anil-munkar(i), wa ulā'ika humul-mufliḥūn(a).
[104] तथा तुममें एक समूह ऐसा होना चाहिए, जो भलाई की ओर बुलाए, अच्छे कामों56 का आदेश दे और बुरे कामों57 से रोके और वही सफलता प्राप्त करने वाले लोग हैं।
56. अर्थात धर्मानुसार बातों का। 57.अर्थात धर्म विरोधी बातों से।

وَلَا تَكُوْنُوْا كَالَّذِيْنَ تَفَرَّقُوْا وَاخْتَلَفُوْا مِنْۢ بَعْدِ مَا جَاۤءَهُمُ الْبَيِّنٰتُ ۗ وَاُولٰۤىِٕكَ لَهُمْ عَذَابٌ عَظِيْمٌ ۙ١٠٥
Wa lā takūnū kal-lażīna tafarraqū wakhtalafū mim ba‘di mā jā'ahumul-bayyināt(u), wa ulā'ika lahum ‘ażābun ‘aẓīm(un).
[105] तथा उनके58 समान न हो जाओ, जो संप्रदायों में बट गए, और उनके पास स्पष्ट निशानियाँ आ जाने के पश्चात आपस में मतभेद कर बैठे, और उन्हीं के लिए बड़ी यातना है।
58. अर्थात अह्ले किताब (यहूदी व ईसाई)।

يَّوْمَ تَبْيَضُّ وُجُوْهٌ وَّتَسْوَدُّ وُجُوْهٌ ۚ فَاَمَّا الَّذِيْنَ اسْوَدَّتْ وُجُوْهُهُمْۗ اَ كَفَرْتُمْ بَعْدَ اِيْمَانِكُمْ فَذُوْقُوا الْعَذَابَ بِمَا كُنْتُمْ تَكْفُرُوْنَ١٠٦
Yauma tabyaḍḍu wujūhuw wa taswaddu wujūh(un), fa ammal-lażīnaswaddat wujūhuhum, akafartum ba‘da īmānikum fa żūqul-‘ażāba bimā kuntum takfurūn(a).
[106] जिस दिन कुछ चेहरे उज्जवल होंगे और कुछ चेहरे काले होंगे। फिर जिनके चेहरे काले होंगे (उनसे कहा जाएगा :) क्या तुमने अपने ईमान के बाद कुफ़्र कर लिया थाॽ तो अब अपने कुफ़्र करने के कारण यातना का स्वाद चखो।

وَاَمَّا الَّذِيْنَ ابْيَضَّتْ وُجُوْهُهُمْ فَفِيْ رَحْمَةِ اللّٰهِ ۗ هُمْ فِيْهَا خٰلِدُوْنَ١٠٧
Wa ammal lażīnabyaḍḍat wujūhuhum fafī raḥmatillāh(i), hum fīhā khālidūn(a).
[107] तथा जिनके चेहरे चमक रहे होंगे, वे अल्लाह की दया (जन्नत) में होंगे, वे सदैव उसी में रहेंगे।

تِلْكَ اٰيٰتُ اللّٰهِ نَتْلُوْهَا عَلَيْكَ بِالْحَقِّ ۗ وَمَا اللّٰهُ يُرِيْدُ ظُلْمًا لِّلْعٰلَمِيْنَ١٠٨
Tilka āyātullāhi natlūhā ‘alaika bil-ḥaqq(i), wa mallāhu yurīdu ẓulmal lil-‘ālamīn(a).
[108] ये अल्लाह की आयतें हैं, जो हम आपको हक़ के साथ सुना रहे हैं और अल्लाह संसार वालों पर अत्याचार नहीं करना चाहता।

وَلِلّٰهِ مَا فِى السَّمٰوٰتِ وَمَا فِى الْاَرْضِ ۗوَاِلَى اللّٰهِ تُرْجَعُ الْاُمُوْرُ ࣖ١٠٩
Wa lillāhi mā fis-samāwāti wa mā fil-arḍ(i), wa ilallāhi turja‘ul-umūr(u).
[109] तथा जो कुछ आकाशों में और जो कुछ धरती में है सब अल्लाह ही के लिए है और सारे मामले अल्लाह ही की ओर लौटाए जाते हैं।

كُنْتُمْ خَيْرَ اُمَّةٍ اُخْرِجَتْ لِلنَّاسِ تَأْمُرُوْنَ بِالْمَعْرُوْفِ وَتَنْهَوْنَ عَنِ الْمُنْكَرِ وَتُؤْمِنُوْنَ بِاللّٰهِ ۗ وَلَوْ اٰمَنَ اَهْلُ الْكِتٰبِ لَكَانَ خَيْرًا لَّهُمْ ۗ مِنْهُمُ الْمُؤْمِنُوْنَ وَاَكْثَرُهُمُ الْفٰسِقُوْنَ١١٠
Kuntum khaira ummatin ukhrijat lin-nāsi ta'murūna bil-ma‘rūfi wa tanhauna ‘anil-munkari wa tu'minūna billāh(i), wa lau āmana ahlul-kitābi lakāna khairal lahum, minhumul-mu'minūna wa akṡaruhumul-fāsiqūn(a).
[110] तुम सर्वश्रेष्ठ समुदाय हो, जिसे लोगों के लिए निकाला गया है। तुम भलाई का आदेश देते हो और बुराई से रोकते हो और अल्लाह पर ईमान (विश्वास) रखते58 हो। और यदि किताब वाले ईमान लाते, तो उनके लिए बेहतर होता। उनमें कुछ ईमान वाले भी हैं, लेकिन उनमें अधिकतर लोग अवज्ञाकारी ही हैं।
58. इस आयत में मुसलमानों को संबोधित किया गया है, तथा उन्हें उम्मत कहा गया है। किसी जाति अथवा वर्ग और वर्ण के नाम से संबोधित नहीं किया गया है। और इसमें यह संकेत है कि मुसलमान उनका नाम है जो सत्धर्म के अनुयायी हों। तथा उनके अस्तित्व का लक्ष्य यह बताया गया है कि वह संपूर्ण मानव विश्व को सत्धर्म इस्लाम की ओर बुलाएँ, जो सर्व मानव जाति का धर्म है। किसी विशेष जाति, क्षेत्र अथवा देश का धर्म नहीं है।

لَنْ يَّضُرُّوْكُمْ اِلَّآ اَذًىۗ وَاِنْ يُّقَاتِلُوْكُمْ يُوَلُّوْكُمُ الْاَدْبَارَۗ ثُمَّ لَا يُنْصَرُوْنَ١١١
Lay yaḍurrūkum illā ażā(n), wa iy yuqātilūkum yuwallūkumul-adbār(a), ṡumma lā yunṣarūn(a).
[111] वे तुम्हें थोड़ा कष्ट पहुँचाने के सिवा कदापि कोई हानि नहीं पहुँचा सकेंगे और यदि वे तुमसे युद्ध करेंगे, तो तुम्हारे सामने पीठ फेरकर भाग खड़े होंगे। फिर उनकी कोई सहायता (भी) नहीं की जाएगी।

ضُرِبَتْ عَلَيْهِمُ الذِّلَّةُ اَيْنَ مَا ثُقِفُوْٓا اِلَّا بِحَبْلٍ مِّنَ اللّٰهِ وَحَبْلٍ مِّنَ النَّاسِ وَبَاۤءُوْ بِغَضَبٍ مِّنَ اللّٰهِ وَضُرِبَتْ عَلَيْهِمُ الْمَسْكَنَةُ ۗ ذٰلِكَ بِاَنَّهُمْ كَانُوْا يَكْفُرُوْنَ بِاٰيٰتِ اللّٰهِ وَيَقْتُلُوْنَ الْاَنْبِۢيَاۤءَ بِغَيْرِ حَقٍّۗ ذٰلِكَ بِمَا عَصَوْا وَّكَانُوْا يَعْتَدُوْنَ١١٢
Ḍuribat ‘alaihimuż-żillatu aina mā ṡuqifū illā biḥablim minallāhi wa ḥablim minan-nāsi wa bā'ū bigaḍabim minallāhi wa ḍuribat ‘alaihimul-maskanah(tu), żālika bi'annahum kānū yakfurūna bi'āyātillāhi wa yaqtulūnal-ambiyā'a bigairi ḥaqq(in), żālika bimā ‘aṣaw wa kānū ya‘tadūn(a).
[112] इन (यहूदियों) पर हर जगह, अपमान थोप दिया गया है, (यह और बात है कि) अल्लाह की शरण59 अथवा लोगों की शरण60 में आ जाएँ, और ये अल्लाह के प्रकोप के पात्र हुए तथा इनपर दरिद्रता थोप दी गई। यह इस कारण हुआ कि ये अल्लाह की आयतों का इनकार करते थे और नबियों की अनाधिकार हत्या करते थे। यह इस कारण (भी) है कि इन्होंने अवज्ञा की और (धर्म की) सीमा का उल्लंघन करते थे।
59. अल्लाह की शरण से अभिप्राय इस्लाम धर्म है। 60. दूसरा बचाव का तरीक़ा यह है कि किसी ग़ैर मुस्लिम शक्ति की उन्हें सहायता प्राप्त हो जाए।

۞ لَيْسُوْا سَوَاۤءً ۗ مِنْ اَهْلِ الْكِتٰبِ اُمَّةٌ قَاۤىِٕمَةٌ يَّتْلُوْنَ اٰيٰتِ اللّٰهِ اٰنَاۤءَ الَّيْلِ وَهُمْ يَسْجُدُوْنَ١١٣
Laisū sawā'ā(n), min ahlil-kitābi ummatun qā'imatuy yatlūna āyātillāhi ānā'al-laili wa hum yasjudūn(a).
[113] वे सभी समान नहीं हैं; किताब वालों में एक समूह (सत्य पर) स्थापित61 है, जो रात की घड़ियों में अल्लाह की आयतें पढ़ते हैं और वे सजदे करते हैं।
61. अर्थात जो नबी (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) पर ईमान लाए। जैसे अब्दुल्लाह बिन सलाम (रज़ियल्लाहु अन्हु) आदि।

يُؤْمِنُوْنَ بِاللّٰهِ وَالْيَوْمِ الْاٰخِرِ وَيَأْمُرُوْنَ بِالْمَعْرُوْفِ وَيَنْهَوْنَ عَنِ الْمُنْكَرِ وَيُسَارِعُوْنَ فِى الْخَيْرٰتِۗ وَاُولٰۤىِٕكَ مِنَ الصّٰلِحِيْنَ١١٤
Yu'minūna billāhi wal-yaumil-ākhiri wa ya'murūna bil-ma‘rūfi wa yanhauna ‘anil-munkari wa yusāri‘ūna fil-khairāt(i), wa ulā'ika minaṣ-ṣāliḥīn(a).
[114] वे अल्लाह तथा अंतिम दिन (क़यामत) पर ईमान रखते हैं और भलाई का आदेश देते हैं और बुराई से रोकते हैं और भलाई के कामों में जल्दी करते हैं और वही अच्छे लोगों में से हैं।

وَمَا يَفْعَلُوْا مِنْ خَيْرٍ فَلَنْ يُّكْفَرُوْهُ ۗ وَاللّٰهُ عَلِيْمٌ ۢبِالْمُتَّقِيْنَ١١٥
Wa mā yaf‘alūna min khairin falay yukfarūh(u), wallāhu ‘alīmum bil-muttaqīn(a).
[115] वे जो भी भलाई करेंगे, उसकी उपेक्षा नहीं की जाएगी और अल्लाह परहेज़गारों को भली-भाँति जानता है।

اِنَّ الَّذِيْنَ كَفَرُوْا لَنْ تُغْنِيَ عَنْهُمْ اَمْوَالُهُمْ وَلَآ اَوْلَادُهُمْ مِّنَ اللّٰهِ شَيْـًٔا ۗ وَاُولٰۤىِٕكَ اَصْحٰبُ النَّارِ ۚ هُمْ فِيْهَا خٰلِدُوْنَ١١٦
Innal-lażīna kafarū lan tugniya ‘anhum amwāluhum wa lā aulāduhum minallāhi syai'ā(n), wa ulā'ika aṣḥābun-nār(i), hum fīhā khālidūn(a).
[116] निःसंदेह जिन्होंने कुफ़्र62 किया, उन्हें अल्लाह (के अज़ाब) से (बचाने में) न उनके धन कुछ काम आएँगे, न उनकी संतान। तथा वही लोग नरकवासी हैं जो उसमें हमेशा रहेंगे।
62. अर्थात अल्लाह की आयतों (क़ुरआन) को नकार दिया।

مَثَلُ مَا يُنْفِقُوْنَ فِيْ هٰذِهِ الْحَيٰوةِ الدُّنْيَا كَمَثَلِ رِيْحٍ فِيْهَا صِرٌّ اَصَابَتْ حَرْثَ قَوْمٍ ظَلَمُوْٓا اَنْفُسَهُمْ فَاَهْلَكَتْهُ ۗ وَمَا ظَلَمَهُمُ اللّٰهُ وَلٰكِنْ اَنْفُسَهُمْ يَظْلِمُوْنَ١١٧
Maṡalu mā yunfiqūna fī hāżihil-ḥayātid-dun-yā kamaṡali rīḥin fihā ṣirrun aṣābat ḥarṡa qaumin ẓalamū anfusahum fa ahlakath(u), wa mā ẓalamahumullāhu wa lākin anfusahum yaẓlimūn(a).
[117] वे इस सांसारिक जीवन में जो कुछ भी ख़र्च करते हैं, वह उस हवा के समान है, जिसमें पाला (अत्यधिक ठंड) हो, जो किसी ऐसी क़ौम की खेती को लग जाए, जिन्होंने अपने ऊपर अत्याचार63 किया हो और उसको नष्ट कर दे। तथा अल्लाह ने उनपर अत्याचार नहीं किया, बल्कि वे स्वयं अपने आप पर अत्याचार करते थे।
63. अवज्ञा तथा अस्वीकार करते रहे थे। इसमें यह संकेत है कि अल्लाह पर ईमान के बिना दान का प्रतिफल परलोक में नहीं मिलेगा।

يٰٓاَيُّهَا الَّذِيْنَ اٰمَنُوْا لَا تَتَّخِذُوْا بِطَانَةً مِّنْ دُوْنِكُمْ لَا يَأْلُوْنَكُمْ خَبَالًاۗ وَدُّوْا مَا عَنِتُّمْۚ قَدْ بَدَتِ الْبَغْضَاۤءُ مِنْ اَفْوَاهِهِمْۖ وَمَا تُخْفِيْ صُدُوْرُهُمْ اَكْبَرُ ۗ قَدْ بَيَّنَّا لَكُمُ الْاٰيٰتِ اِنْ كُنْتُمْ تَعْقِلُوْنَ١١٨
Yā ayyuhal-lażīna āmanū lā tattakhiżū biṭānatam min dūnikum lā ya'lūnakum khabālā(n), waddū mā ‘anittum, qad badatil-bagḍā'u min afwāhihim, wa mā tukhfī ṣudūruhum akbar(u), qad bayyannā lakumul-āyāti in kuntum ta‘qilūn(a).
[118] ऐ ईमान वालो! तुम अपनों के सिवा किसी दूसरे को अपना अंतरंग मित्र न बनाओ,64 वे तुम्हें बर्बाद करने में कोई कमी नहीं करते। उन्हें वही बात भाती है, जिससे तुम्हें कष्ट पहुँचे। उनके मुखों से शत्रुता प्रकट हो चुकी है तथा जो उनके दिल छुपा रखे हैं, वह इससे बढ़कर है। हमने तुम्हारे लिए आयतों का वर्णन कर दिया है, यदि तुम समझबूझ रखते हो।
64. अर्थात वे ग़ैर मुस्लिम जिनपर तुम को विश्वास नहीं कि वे तुम्हारे लिए किसी प्रकार की अच्छी भावना रखते हों।

هٰٓاَنْتُمْ اُولَاۤءِ تُحِبُّوْنَهُمْ وَلَا يُحِبُّوْنَكُمْ وَتُؤْمِنُوْنَ بِالْكِتٰبِ كُلِّهٖۚ وَاِذَا لَقُوْكُمْ قَالُوْٓا اٰمَنَّاۖ وَاِذَا خَلَوْا عَضُّوْا عَلَيْكُمُ الْاَنَامِلَ مِنَ الْغَيْظِ ۗ قُلْ مُوْتُوْا بِغَيْظِكُمْ ۗ اِنَّ اللّٰهَ عَلِيْمٌ ۢبِذَاتِ الصُّدُوْرِ١١٩
Hā antum ulā'i tuḥibbūnahum wa lā yuḥibbūnakum wa tu'minūna bil-kitābi kullih(ī), wa iżā laqūkum qālū āmannā, wa iżā khalau ‘aḍḍū ‘alaikumul-anāmila minal-gaiẓ(i), qul mūtū bigaiẓikum, innallāha ‘alīmum biżātiṣ-ṣudūr(i).
[119] देखो तुम तो उनसे प्रेम करते हो, परंतु वे तुमसे प्रेम नहीं करते और तुम सभी पुस्तकों पर ईमान रखते हो, औ (उनका हाल यह है कि) वे जब तुमसे मिलते हैं, तो कहते हैं कि हम ईमान लाए हैं और जब वे अकेले में होते हैं, तो तुमपर क्रोध के मारे उंगलियां चबाते हैं। कह दो कि अपने क्रोध में मर जाओ। निःसंदेह अल्लाह सीनों के भेद को जानता है।

اِنْ تَمْسَسْكُمْ حَسَنَةٌ تَسُؤْهُمْۖ وَاِنْ تُصِبْكُمْ سَيِّئَةٌ يَّفْرَحُوْا بِهَا ۗ وَاِنْ تَصْبِرُوْا وَتَتَّقُوْا لَا يَضُرُّكُمْ كَيْدُهُمْ شَيْـًٔا ۗ اِنَّ اللّٰهَ بِمَا يَعْمَلُوْنَ مُحِيْطٌ ࣖ١٢٠
In tamsaskum ḥasanatun tasu'hum, wa in tuṣibkum sayyi'atuy yafraḥū bihā, wa in taṣbirū wa tattaqū lā yaḍurrukum kaiduhum syai'ā(n), innallāha bimā ya‘malūna muḥīṭ(un).
[120] यदि तुम्हारा कुछ भला हो, तो उन्हें बुरा लगता है और यदि तुम्हारा कुछ बुरा हो जाए, तो वे उससे प्रसन्न होते हैं। और यदि तुम धैर्य करते रहे और अल्लाह से डरते रहे, तो उनका छल तुम्हें कोई हानि नहीं पहुँचाएगा। निःसंदेह अल्लाह उनके सभी कार्यों से अवगत है।

وَاِذْ غَدَوْتَ مِنْ اَهْلِكَ تُبَوِّئُ الْمُؤْمِنِيْنَ مَقَاعِدَ لِلْقِتَالِ ۗ وَاللّٰهُ سَمِيْعٌ عَلِيْمٌۙ١٢١
Wa iż gadauka min ahlika tubawwi'ul-mu'minīna maqā‘ida lil-qitāl(i), wallāhu samī‘un ‘alīm(un).
[121] तथा (ऐ नबी! वह समय याद करो) जब आप अपने घर से निकले, ईमान वालों को युद्ध65 के मोर्चों पर नियुक्त कर रहे थे तथा अल्लाह सब कुछ सुनने वाला, जानने वाला है।
65. साधारण भाष्यकारों ने इसे उह़ुद के युद्ध से संबंधित माना है। जो बद्र के युद्ध के पश्चात् सन् 3 हिज्री में हुआ। जिसमें क़ुरैश ने बद्र की पराजय का बदला लेने के लिए तीन हज़ार की सेना के साथ उह़ुद पर्वत के समीप पड़ाव डाल दिया। जब आपको इसकी सूचना मिली तो मुसलमानों से परामर्श किया। अधिकांश की राय हुई कि मदीना नगर से बाहर निकल कर युद्ध किया जाए। और आप सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम एक हज़ार मुसलमानों को लेकर निकले। जिसमें से अब्दुल्लाह बिन उबय्य मुनाफ़िक़ों का प्रमुख अपने तीन सौ साथियों के साथ वापस हो गया। आपने रणक्षेत्र में अपने पीछे से शत्रु के आक्रमण से बचाव के लिए 70 धनुर्धरों को नियुक्त कर दिया। और उनका सेनापति अब्दुल्लाह बिन जुबैर को बना दिया। तथा यह आदेश दिया कि कदापि इस स्थान को न छोड़ना। युद्ध आरंभ होते ही क़ुरैश पराजित हो कर भाग खड़े हुए। यह देखकर धनुर्धरों में से अधिकांश ने अपना स्थान छोड़ दिया। क़ुरैश के सेनापति ख़ालिद पुत्र वलीद ने अपने सवारों के साथ फिर कर धनुर्धरों के स्थान पर आक्रमण कर दिया। फिर आकस्मात् मुसलमानों पर पीछे से आक्रमण करके उनकी विजय को पराजय में बदल दिया। जिसमें आप सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम को भी आघात पहुँचा। (तफ़्सीर इब्ने कसीर।)

اِذْ هَمَّتْ طَّۤاىِٕفَتٰنِ مِنْكُمْ اَنْ تَفْشَلَاۙ وَاللّٰهُ وَلِيُّهُمَا ۗ وَعَلَى اللّٰهِ فَلْيَتَوَكَّلِ الْمُؤْمِنُوْنَ١٢٢
Iż hammat-ṭā'ifatāni minkum an tafsyalā, wallāhu waliyyuhumā, wa ‘alallāhi falyatawakkalil-mu'minūn(a).
[122] तथा (याद करो) जब तुम्हारे दो समूहों66 ने साहसहीनता दिखाने (पीछे हटने) का इरादा किया और अल्लाह उनका समर्थक व सहायक था, तथा ईमान वालों को अल्लाह ही पर भरोसा करना चाहिए।
66. अर्थात दो क़बीले बनू सलमा तथा बनू हारिसा ने भी अब्दुल्लाह बिन उबय्य के साथ वापस हो जाना चाहा। (सह़ीह़ बुख़ारी ह़दीस : 4558)

وَلَقَدْ نَصَرَكُمُ اللّٰهُ بِبَدْرٍ وَّاَنْتُمْ اَذِلَّةٌ ۚ فَاتَّقُوا اللّٰهَ لَعَلَّكُمْ تَشْكُرُوْنَ١٢٣
Wa laqad naṣarakumullāhu bibadriw wa antum ażillah(tun), fattaqullāha la‘allakum tasykurūn(a).
[123] और अल्लाह बद्र (के युद्ध) में तुम्हारी सहायता कर चुका है, जबकि तुम कमज़ोर थे। अतः अल्लाह से डरो, ताकि तुम उसके प्रति आभारी हो सको।

اِذْ تَقُوْلُ لِلْمُؤْمِنِيْنَ اَلَنْ يَّكْفِيَكُمْ اَنْ يُّمِدَّكُمْ رَبُّكُمْ بِثَلٰثَةِ اٰلَافٍ مِّنَ الْمَلٰۤىِٕكَةِ مُنْزَلِيْنَۗ١٢٤
Iż taqūlu lil-mu'minīna alay yakfiyakum ay yumiddakum rabbukum biṡalāṡati ālāfim minal-malā'ikati munzalīn(a).
[124] (ऐ नबी! वह समय भी याद करें) जब आप ईमान वालों से कह रहे थे : क्या तुम्हारे लिए यह काफ़ी नहीं है कि तुम्हारा पालनहार (आकाश से) तीन हज़ार फ़रिश्ते उतारकर तुम्हारी सहायता करेॽ

بَلٰٓى ۙاِنْ تَصْبِرُوْا وَتَتَّقُوْا وَيَأْتُوْكُمْ مِّنْ فَوْرِهِمْ هٰذَا يُمْدِدْكُمْ رَبُّكُمْ بِخَمْسَةِ اٰلَافٍ مِّنَ الْمَلٰۤىِٕكَةِ مُسَوِّمِيْنَ١٢٥
Balā, in taṣbirū wa tattaqū wa ya'tūkum min faurihim hāżā yumdidkum rabbukum bikhamsati ālāfim minal-malā'ikati musawwimīn(a).
[125] क्यों67 नहीं, यदि तुम धैर्य से काम लो और अल्लाह से डरो और फिर ऐसा हो कि वे (दुश्मन) उसी घड़ी तुमपर चढ़ आएँ, तो तुम्हारा पालनहार (तीन नहीं, बल्कि) पाँच हज़ार चिह्न68 लगे फ़रिश्तों द्वारा तुम्हारी मदद करेगा।
67. अर्थात इतना समर्थन बहुत है। 68. अर्थात उनपर तथा उनके घोड़ों पर चिह्न लगे होंगे।

وَمَا جَعَلَهُ اللّٰهُ اِلَّا بُشْرٰى لَكُمْ وَلِتَطْمَىِٕنَّ قُلُوْبُكُمْ بِهٖ ۗ وَمَا النَّصْرُ اِلَّا مِنْ عِنْدِ اللّٰهِ الْعَزِيْزِ الْحَكِيْمِۙ١٢٦
Wa mā ja‘alahullāhu illā busyrā lakum wa litaṭma'inna qulūbukum bih(ī), wa man-naṣru illā min ‘indillāhil-‘azīzil-ḥakīm(i).
[126] और अल्लाह ने इस (मदद) को तुम्हारे लिए केवल शुभ सूचना बनाया है और ताकि तुम्हारे दिल उससे संतुष्ट हो जाएँ और सहायता तो केवल अल्लाह ही के पास से आती है, जो प्रभुत्वशाली, हिकमत वाला (तत्वदर्शी) है।

لِيَقْطَعَ طَرَفًا مِّنَ الَّذِيْنَ كَفَرُوْٓا اَوْ يَكْبِتَهُمْ فَيَنْقَلِبُوْا خَاۤىِٕبِيْنَ١٢٧
Liyaqṭa‘a ṭarafam minal-lażīna kafarū au yakbitahum fa yanqalibū khā'ibīn(a).
[127] ताकि69 वह काफ़िरों के एक हिस्से को काट दे या उन्हें अपमानित कर दे, फिर वे विफल होकर वापस हो जाएँ।
69. अर्थात अल्लाह तुम्हें फ़रिश्तों द्वारा समर्थन इसलिए देगा, ताकि काफ़िरों का कुछ बल तोड़ दे, और उन्हें निष्फल वापिस कर दे।

لَيْسَ لَكَ مِنَ الْاَمْرِ شَيْءٌ اَوْ يَتُوْبَ عَلَيْهِمْ اَوْ يُعَذِّبَهُمْ فَاِنَّهُمْ ظٰلِمُوْنَ١٢٨
Laisa laka minal-amri syai'un au yatūba ‘alaihim au yu‘ażżibahum fa innahum ẓālimūn(a).
[128] (ऐ नबी!) इस70 मामले में आपको कोई अधिकार नहीं, अल्लाह चाहे तो उनकी तौबा क़बूल71 करे या उन्हें दंड72 दे, क्योंकि वे अत्याचारी हैं।
70. नबी सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम फ़ज्र की नमाज़ में रुकूअ के पश्चात यह प्रार्थना करते थे कि हे अल्लाह! अमुक को अपनी दया से दूर कर दे। इसी पर यह आयत उतरी। (सह़ीह़ बुखारी : 4559) 71. अर्थात उन्हें मार्गदर्शन दे। 72. यदि वे काफ़िर ही रह जाएँ।

وَلِلّٰهِ مَا فِى السَّمٰوٰتِ وَمَا فِى الْاَرْضِۗ يَغْفِرُ لِمَنْ يَّشَاۤءُ وَيُعَذِّبُ مَنْ يَّشَاۤءُ ۗ وَاللّٰهُ غَفُوْرٌ رَّحِيْمٌ ࣖ١٢٩
Wa lillāhi mā fis-samāwāti wa mā fil-arḍ(i), yagfiru limay yasyā'u wa yu‘ażżibu may yasyā'(u), wallāhu gafūrur raḥīm(un).
[129] तथा जो कुछ आकाशों में और जो कुछ धरती में है, सब अल्लाह ही का है। वह जिसे चाहे क्षमा कर दे और जिसे चाहे यातना दे, तथा अल्लाह अति क्षमाशील, अत्यंत दयावान् है।

يٰٓاَيُّهَا الَّذِيْنَ اٰمَنُوْا لَا تَأْكُلُوا الرِّبٰوٓا اَضْعَافًا مُّضٰعَفَةً ۖوَّاتَّقُوا اللّٰهَ لَعَلَّكُمْ تُفْلِحُوْنَۚ١٣٠
Yā ayyuhal-lażīna āmanū lā ta'kulur-ribā aḍ‘āfam muḍā‘afah(tan), wattaqullāha la‘allakum tufliḥūn(a).
[130] ऐ ईमान वालो! कई-कई गुणा करके ब्याज73 न खाओ। तथा अल्लाह से डरो, ताकि तुम सफल हो।
73. उह़ुद की पराजय का कारण धन का लोभ बना था। इसलिए यहाँ ब्याज से सावधान किया जा रहा है, जो धन के लोभ का अति भयावह साधन है। तथा आज्ञाकारिता की प्रेरणा दी जा रही है। कई-कई गुणा ब्याज न खाने का अर्थ यह नहीं कि इस प्रकार ब्याज न खाओ, बल्कि ब्याज अधिक हो या थोड़ा सर्वथा ह़राम (वर्जित) है। यहाँ जाहिलिय्यत के युग में ब्याज की जो रीति थी, उसका वर्णन किया गया है। जैसा कि आधुनिक युग में ब्याज पर ब्याज लेने की रीति है।

وَاتَّقُوا النَّارَ الَّتِيْٓ اُعِدَّتْ لِلْكٰفِرِيْنَ ۚ١٣١
Wattaqun-nāral latī u‘iddat lil-kāfirīn(a).
[131] तथा उस आग से डरो (बचो), जो काफ़िरों के लिए तैयार की गई है।

وَاَطِيْعُوا اللّٰهَ وَالرَّسُوْلَ لَعَلَّكُمْ تُرْحَمُوْنَۚ١٣٢
Wa aṭī‘ullāha war-rasūla la‘allakum turḥamūn(a).
[132] तथा अल्लाह और रसूल का आज्ञापालन करो, ताकि तुमपर दया की जाए।

۞ وَسَارِعُوْٓا اِلٰى مَغْفِرَةٍ مِّنْ رَّبِّكُمْ وَجَنَّةٍ عَرْضُهَا السَّمٰوٰتُ وَالْاَرْضُۙ اُعِدَّتْ لِلْمُتَّقِيْنَۙ١٣٣
Wa sāri‘ū ilā magfiratim mir rabbikum wa jannatin ‘arḍuhas-samāwātu wal-arḍ(u), u‘iddat lil-muttaqīn(a).
[133] और अपने पालनहार की क्षमा और उस स्वर्ग की ओर तेज़ी से बढ़ो, जिसकी चौड़ाई आकाशों तथा धरती के बराबर है। वह अल्लाह से डरने वालों के लिए तैयार किया गया है।

الَّذِيْنَ يُنْفِقُوْنَ فِى السَّرَّۤاءِ وَالضَّرَّۤاءِ وَالْكٰظِمِيْنَ الْغَيْظَ وَالْعَافِيْنَ عَنِ النَّاسِۗ وَاللّٰهُ يُحِبُّ الْمُحْسِنِيْنَۚ١٣٤
Al-lażīna yunfiqūna fis-sarrā'i waḍ-ḍarrā'i wal-kāẓimīnal gaiẓa wal-‘āfīna ‘anin-nās(i), wallāhu yuḥibbul-muḥsinīn(a).
[134] जो कठिनाई और आसानी की प्रत्येक स्थिति में (अल्लाह के मार्ग में) खर्च करते हैं, तथा ग़ुस्सा पी जाते हैं और लोगों को क्षमा कर देते हैं। और अल्लाह ऐसे अच्छे कार्य करने वालों से प्रेम करता है।

وَالَّذِيْنَ اِذَا فَعَلُوْا فَاحِشَةً اَوْ ظَلَمُوْٓا اَنْفُسَهُمْ ذَكَرُوا اللّٰهَ فَاسْتَغْفَرُوْا لِذُنُوْبِهِمْۗ وَمَنْ يَّغْفِرُ الذُّنُوْبَ اِلَّا اللّٰهُ ۗ وَلَمْ يُصِرُّوْا عَلٰى مَا فَعَلُوْا وَهُمْ يَعْلَمُوْنَ١٣٥
Wal-lażīna iżā fa‘alū fāḥisyatan au ẓalamū anfusahum żakarullāha fastagfarū liżunūbihim, wa may yagfiruż-żunūba illallāh(u), wa lam yuṣirrū ‘alā mā fa‘alū wa hum ya‘lamūn(a).
[135] और वे ऐसे लोग हैं कि जब उनसे कोई जघन्य पाप हो जाता है या वे अपने ऊपर अत्याचार कर कर बैठते हैं, तो उन्हें अल्लाह याद आ जाता है। फिर वे अपने पापों के लिए क्षमा माँगते हैं, और अल्लाह के सिवा कौन है जो पापों का क्षमा करने वाला होॽ और वे अपने किए पर जान बूझकर अड़े नहीं रहते।

اُولٰۤىِٕكَ جَزَاۤؤُهُمْ مَّغْفِرَةٌ مِّنْ رَّبِّهِمْ وَجَنّٰتٌ تَجْرِيْ مِنْ تَحْتِهَا الْاَنْهٰرُ خٰلِدِيْنَ فِيْهَا ۗ وَنِعْمَ اَجْرُ الْعٰمِلِيْنَۗ١٣٦
Ulā'ika jazā'uhum magfiratum mir rabbihim wa jannātun tajrī min taḥtihal-anhāru khālidīna fīhā, wa ni‘ma ajrul-‘āmilīn(a).
[136] वही लोग हैं जिनका बदला उनके पालनहार की ओर से क्षमा तथा ऐसे बाग़ हैं जिनके नीचे से नहरें बहती होंगी। उनमें वे सदैव रहेंगे। औ क्या ही अच्छा बदला है नेक काम करने वालों का।

قَدْ خَلَتْ مِنْ قَبْلِكُمْ سُنَنٌۙ فَسِيْرُوْا فِى الْاَرْضِ فَانْظُرُوْا كَيْفَ كَانَ عَاقِبَةُ الْمُكَذِّبِيْنَ١٣٧
Qad khalat min qablikum sunan(un), fa sīrū fil-arḍi fanẓurū kaifa kāna ‘āqibatul-mukażżibīn(a).
[137] तुमसे पहले भी समान परंपराएं (परिस्थितियाँ) गुज़र चुकी74 हैं। इसलिए तुम धरती में चलो-फिरो और देखो कि झुठलाने वालों का अंत कैसे हुआॽ
74. उहुद की पराजय पर मुसलमानों को दिलासा दिया जा रहा है, जिसमें उनके 70 व्यक्ति शहीद हुए। (तफ़्सीर इब्ने कसीर)

هٰذَا بَيَانٌ لِّلنَّاسِ وَهُدًى وَّمَوْعِظَةٌ لِّلْمُتَّقِيْنَ١٣٨
Hāżā bayānul lin-nāsi wa hudaw wa mau‘iẓatul lil-muttaqīn(a).
[138] यह (क़ुरआन) लोगों के लिए (सत्य का) वर्णन और (अल्लाह का) भय रखने वालों के लिए मार्गदर्शन और उपदेश है।

وَلَا تَهِنُوْا وَلَا تَحْزَنُوْا وَاَنْتُمُ الْاَعْلَوْنَ اِنْ كُنْتُمْ مُّؤْمِنِيْنَ١٣٩
Wa lā tahinū wa lā taḥzanū wa antumul-a‘launa in kuntum mu'minīn(a).
[139] और तुम कमज़ोर न बनो और न ही शोक करो। और तुम ही सर्वोच्च रहोगे, यदि तुम ईमान वाले हो।

اِنْ يَّمْسَسْكُمْ قَرْحٌ فَقَدْ مَسَّ الْقَوْمَ قَرْحٌ مِّثْلُهٗ ۗوَتِلْكَ الْاَيَّامُ نُدَاوِلُهَا بَيْنَ النَّاسِۚ وَلِيَعْلَمَ اللّٰهُ الَّذِيْنَ اٰمَنُوْا وَيَتَّخِذَ مِنْكُمْ شُهَدَاۤءَ ۗوَاللّٰهُ لَا يُحِبُّ الظّٰلِمِيْنَۙ١٤٠
Iy yamsaskum qarḥun faqad massal-qauma qarḥum miṡluh(ū), wa tilkal-ayyāmu nudāwiluhā binan-nās(i), wa liya‘lamallāhul-lażīna āmanū wa yattakhiża minkum syuhadā'(u), wallāhu lā yuḥibbuẓ-ẓālimīn(a).
[140] यदि तुम्हें आघात पहुँचा है, तो उन लोगों75 को भी इसी के समान आघात पहुँच चुका है। तथा इन दिनों को हम लोगों के बीच फेरते रहते76 हैं। और ताकि अल्लाह उन लोगों को जान ले77 जो ईमान वाले हैं, और तुममें से कुछ लोगों को शहादत नसीब करे। और अल्लाह अत्याचार करने वालों को पसंद नहीं करता।
75. इसमें क़ुरैश की बद्र में पराजय और उनके 70 व्यक्तियों के मारे जाने की ओर संकेत है। 76. अर्थात कभी किसी की जीत होती है, कभी किसी की। 77. अर्थात अच्छे बुरे में अंतर कर दे।

وَلِيُمَحِّصَ اللّٰهُ الَّذِيْنَ اٰمَنُوْا وَيَمْحَقَ الْكٰفِرِيْنَ١٤١
Wa liyumaḥḥiṣallāhul-lażīna āmanū wa yamḥaqal-kāfirīn(a).
[141] तथा ताकि अल्लाह ईमान वालों को विशुद्ध कर दे और काफ़िरों को विनष्ट कर दे।

اَمْ حَسِبْتُمْ اَنْ تَدْخُلُوا الْجَنَّةَ وَلَمَّا يَعْلَمِ اللّٰهُ الَّذِيْنَ جَاهَدُوْا مِنْكُمْ وَيَعْلَمَ الصّٰبِرِيْنَ١٤٢
Am ḥasibtum an tadkhulul-jannata wa lammā ya‘lamillāhul-lażīna jāhadū minkum wa ya‘lamaṣ-ṣābirīn(a).
[142] क्या तुमने समझ रखा है कि जन्नत में प्रवेश कर जाओगे, जबकि अल्लाह ने अभी (परीक्षाकर) यह नहीं परखा है कि तुममें से कौन जिहाद करने वाले हैं और कौन (संकट के समय) डटे रहने वाले हैं?

وَلَقَدْ كُنْتُمْ تَمَنَّوْنَ الْمَوْتَ مِنْ قَبْلِ اَنْ تَلْقَوْهُۖ فَقَدْ رَاَيْتُمُوْهُ وَاَنْتُمْ تَنْظُرُوْنَ ࣖ١٤٣
Wa laqad kuntum tamannaunal-mauta min qabli an talqauh(u), faqad ra'aitumūhu wa antum tanẓurūn(a).
[143] तथा तुम तो मौत की कामनाएँ कर78 रहे थे, जब तक वह तुम्हारे सामने नहीं आई थी। लो, अब वह तुम्हारे सामने है, और तुम उसे देख रहे हो।
78. अर्थात अल्लाह की राह में शहीद हो जाने की।

وَمَا مُحَمَّدٌ اِلَّا رَسُوْلٌۚ قَدْ خَلَتْ مِنْ قَبْلِهِ الرُّسُلُ ۗ اَفَا۟ىِٕنْ مَّاتَ اَوْ قُتِلَ انْقَلَبْتُمْ عَلٰٓى اَعْقَابِكُمْ ۗ وَمَنْ يَّنْقَلِبْ عَلٰى عَقِبَيْهِ فَلَنْ يَّضُرَّ اللّٰهَ شَيْـًٔا ۗوَسَيَجْزِى اللّٰهُ الشّٰكِرِيْنَ١٤٤
Wa mā muḥammadun illā rasūl(un), qad khalat min qablihir-rusul(u), afa'im māta au qutilanqalabtum ‘alā a‘qābikum, wa may yanqalib ‘alā ‘aqibaihi falay yaḍurrallāha syai'ā(n), wa sayajzillāhusy-syākirīn(a).
[144] और मुह़म्मद केवल एक रसूल हैं। उनसे पहले बहुत-से रसूल गुज़र चुके हैं। तो क्या यदि वह मर जाएँ अथवा मार दिए जाएँ, तो तुम अपनी एड़ियों के बल79 फिर जाओगे? तथा जो अपनी एड़ियों के बल फिर जाएगा, वह अल्लाह का कुछ नहीं बिगाड़ेगा और अल्लाह शीघ्र ही आभारियों को बदला प्रदान करेगा।
79. अर्थात इस्लाम से फिर जाओगे। भावार्थ यह है कि सत्धर्म इस्लाम स्थायी है, नबी (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) के न रहने से समाप्त नहीं हो जाएगा। उह़ुद में जब किसी विरोधी ने यह बात उड़ाई कि नबी (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) मार दिए गए, तो यह सुन कर बहुत से मुसलमान हताश हो गए। कुछ ने कहा कि अब लड़ने से क्या लाभ? तथा मुनाफ़िक़ों ने कहा कि मुह़म्मद (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) नबी होते तो मार नहीं खाते। इस आयत में यह संकेत है कि दूसरे नबियों के समान आपको भी एक दिन संसार से जाना है। तो क्या तुम उन्हीं के लिए इस्लास को मानते हो और आप नहीं रहेंगे तो इस्लाम नहीं रहेगा?

وَمَا كَانَ لِنَفْسٍ اَنْ تَمُوْتَ اِلَّا بِاِذْنِ اللّٰهِ كِتٰبًا مُّؤَجَّلًا ۗ وَمَنْ يُّرِدْ ثَوَابَ الدُّنْيَا نُؤْتِهٖ مِنْهَاۚ وَمَنْ يُّرِدْ ثَوَابَ الْاٰخِرَةِ نُؤْتِهٖ مِنْهَا ۗ وَسَنَجْزِى الشّٰكِرِيْنَ١٤٥
Wa mā kāna linafsin an tamūta illā bi'iżnillāhi kitābam mu'ajjalā(n), wa may yurid ṡawābad-dun-yā nu'tihī minhā, wa may yurid ṡawābal-ākhirati nu'tihī minhā, wa sanajzisy-syākirīn(a).
[145] किसी प्राणी के लिए यह संभव नहीं है कि अल्लाह की अनुमति के बिना मर जाए। मृत्यु का एक निर्धारित समय लिखा हुआ है। जो दुनिया का बदला चाहेगा, हम उसे इस दुनिया में से कुछ देंगे, तथा जो आख़िरत का बदला चाहेगा, हम उसे उसमें से देंगे, और हम शुक्र करने वालों को जल्द ही बदला देंगे।

وَكَاَيِّنْ مِّنْ نَّبِيٍّ قٰتَلَۙ مَعَهٗ رِبِّيُّوْنَ كَثِيْرٌۚ فَمَا وَهَنُوْا لِمَآ اَصَابَهُمْ فِيْ سَبِيْلِ اللّٰهِ وَمَا ضَعُفُوْا وَمَا اسْتَكَانُوْا ۗ وَاللّٰهُ يُحِبُّ الصّٰبِرِيْنَ١٤٦
Wa ka'ayyim min nabiyyin qātal(a), ma‘ahū ribbiyyūna kaṡīr(un), famā wahanū limā aṣābahum fī sabīlillāhi wa mā ḍa‘ufū wa mastakānū, wallāhu yuḥibbuṣ-ṣābirīn(a).
[146] और कितने ही नबी थे, जिनके साथ होकर बहुत-से अल्लाह वालों ने युद्ध किया, तो उन्होंने अल्लाह के मार्ग में पहुँचने वाली मुसीबतों के कारण न हिम्मत हारी और न कमज़ोरी दिखाई और न वे (दुश्मन के सामने) झुके, तथा अल्लाह धैर्य रखने वालों से प्रेम करता है।

وَمَا كَانَ قَوْلَهُمْ اِلَّآ اَنْ قَالُوْا رَبَّنَا اغْفِرْ لَنَا ذُنُوْبَنَا وَاِسْرَافَنَا فِيْٓ اَمْرِنَا وَثَبِّتْ اَقْدَامَنَا وَانْصُرْنَا عَلَى الْقَوْمِ الْكٰفِرِيْنَ١٤٧
Wa mā kāna qauluhum illā an qālū rabbanagfir lanā żunūbanā wa isrāfanā fī amrinā wa ṡabbit aqdāmanā wanṣurnā ‘alal-qaumil-kāfirīn(a).
[147] और उन्होंने इससे अधिक कुछ नहीं कहा कि : ऐ हमारे पालनहार! हमारे पापों को और हमारे मामले में हमसे होने वाली अति (ज़्यादती) को क्षमा कर दे। तथा हमारे पैरों को जमाए रख और काफ़िर क़ौम पर हमें विजय प्रदान कर।

فَاٰتٰىهُمُ اللّٰهُ ثَوَابَ الدُّنْيَا وَحُسْنَ ثَوَابِ الْاٰخِرَةِ ۗ وَاللّٰهُ يُحِبُّ الْمُحْسِنِيْنَ ࣖ١٤٨
Fa ātāhumullāhu ṡawābad-dun-yā wa ḥusna ṡawābil-ākhirah(ti), wallāhu yuḥibbul-muḥsinīn(a).
[148] तो अल्लाह ने उन्हें दुनिया का बदला तथा आख़िरत का अच्छा बदला प्रदान किया। तथा अल्लाह अच्छे काम करने वाले लोगों से प्रेम करता है।

يٰٓاَيُّهَا الَّذِيْنَ اٰمَنُوْٓا اِنْ تُطِيْعُوا الَّذِيْنَ كَفَرُوْا يَرُدُّوْكُمْ عَلٰٓى اَعْقَابِكُمْ فَتَنْقَلِبُوْا خٰسِرِيْنَ١٤٩
Yā ayyuhal-lażīna āmanū in tuṭī‘ul-lażīna kafarū yaruddūkum ‘alā a‘qābikum fa tanqalibū khāsirīn(a).
[149] ऐ ईमान वालो! यदि तुम काफ़िरों के कहने पर चलोगे, तो वे तुम्हें तुम्हारी एड़ियों के बल फेर देंगे, फिर तुम घाटे में पड़ जाओगे।

بَلِ اللّٰهُ مَوْلٰىكُمْ ۚ وَهُوَ خَيْرُ النّٰصِرِيْنَ١٥٠
Balillāhu maulākum, wa huwa khairun-nāṣirīn(a).
[150] बल्कि अल्लाह ही तुम्हारा संरक्षक है तथा वह सबसे अच्छा सहायक है।

سَنُلْقِيْ فِيْ قُلُوْبِ الَّذِيْنَ كَفَرُوا الرُّعْبَ بِمَٓا اَشْرَكُوْا بِاللّٰهِ مَا لَمْ يُنَزِّلْ بِهٖ سُلْطٰنًا ۚ وَمَأْوٰىهُمُ النَّارُ ۗ وَبِئْسَ مَثْوَى الظّٰلِمِيْنَ١٥١
Sanulqī fī qulūbil-lażīna kafarur-ru‘ba bimā asyrakū billāhi mā lam yunazzil bihī sulṭānā(n), wa ma'wāhumun nār(u), wa bi'sa maṡwaẓ-ẓālimīn(a).
[151] हम जल्द ही काफ़िरों के दिलों में धाक बिठा देंगे, इस कारण कि उन्होंने ऐसी चीज़ों को अल्लाह का साझी बनाया है, जिन (के साझी होने) का कोई प्रमाण अल्लाह ने नहीं उतारा है। और इनका ठिकाना जहन्नम है और वह ज़ालिमों का क्या ही बुरा ठिकाना है?

وَلَقَدْ صَدَقَكُمُ اللّٰهُ وَعْدَهٗٓ اِذْ تَحُسُّوْنَهُمْ بِاِذْنِهٖ ۚ حَتّٰىٓ اِذَا فَشِلْتُمْ وَتَنَازَعْتُمْ فِى الْاَمْرِ وَعَصَيْتُمْ مِّنْۢ بَعْدِ مَآ اَرٰىكُمْ مَّا تُحِبُّوْنَ ۗ مِنْكُمْ مَّنْ يُّرِيْدُ الدُّنْيَا وَمِنْكُمْ مَّنْ يُّرِيْدُ الْاٰخِرَةَ ۚ ثُمَّ صَرَفَكُمْ عَنْهُمْ لِيَبْتَلِيَكُمْ ۚ وَلَقَدْ عَفَا عَنْكُمْ ۗ وَاللّٰهُ ذُوْ فَضْلٍ عَلَى الْمُؤْمِنِيْنَ١٥٢
Wa laqad ṣadaqakumullāhu wa‘dahū iż taḥussūnahum bi'iżnih(ī), ḥattā iżā fasyiltum wa tanāza‘tum fil-amri wa ‘aṣaitum mim ba‘di mā arākum mā tuḥibbūn(a), minkum may yurīdud-dun-yā wa minkum may yurīdul-ākhirah(ta), ṡumma ṣarafakum ‘anhum liyabtaliyakum, wa laqad ‘afā ‘ankum, wallāhu żū faḍlin ‘alal-mu'minīn(a).
[152] तथा अल्लाह ने तुम्हें अपना वचन सच कर दिखाया, जब तुम उसकी अनुमति से उन्हें काट80 रहे थे। यहाँ तक कि जब तुमने कायरता दिखाई, तथा (रसूल के) आदेश81 (के अनुपालन) में विवाद कर लिया और अवज्ञा की। (यह सब कुछ) इसके बाद (हुआ) कि अल्लाह ने तुम्हें वह चीज़ दिखा दी थी, जिसे तुम पसंद करते थे। तुममें से कुछ लोग दुनिया चाहते थे तथा कुछ लोग आख़िरत के इच्छुक थे। फिर उसने तुम्हें उनके मुक़ाबले से हटा दिया, ताकि तुम्हारी परीक्षा ले। निश्चय ही उसने तुम्हें क्षमा कर दिया और अल्लाह ईमान वालों के लिए अनुग्रहशील है।
80. अर्थात उह़ुद के आरंभिक क्षणों में। 81. अर्थात कुछ धनुर्धरों ने आपके आदेश का पालन नहीं किया, और गनीमत का धन संचित करने के लिए अपना स्थान छोड़ दिया, जो पराजय का कारण बन गया। और शत्रु को उस दिशा से आक्रमण करने का अवसर मिल गया।

۞ اِذْ تُصْعِدُوْنَ وَلَا تَلْوٗنَ عَلٰٓى اَحَدٍ وَّالرَّسُوْلُ يَدْعُوْكُمْ فِيْٓ اُخْرٰىكُمْ فَاَثَابَكُمْ غَمًّا ۢبِغَمٍّ لِّكَيْلَا تَحْزَنُوْا عَلٰى مَا فَاتَكُمْ وَلَا مَآ اَصَابَكُمْ ۗ وَاللّٰهُ خَبِيْرٌ ۢبِمَا تَعْمَلُوْنَ١٥٣
Iż tuṣ‘idūna wa lā talwūna ‘alā aḥadiw war-rasūlu yad‘ūkum fī ukhrākum fa aṡābakum gammam bigammil likailā taḥzanū ‘alā mā fātakum wa lā mā aṣābakum, wallāhu khabīrum bimā ta‘malūn(a).
[153] (और याद करो) जब तुम चढ़े (भागे) जा रहे थे और किसी को मुड़कर नहीं देख रहे थे और रसूल तुम्हें तुम्हारे पीछे से पुकार82 रहे थे। अतः इसके बदले में (अल्लाह ने) तुम्हें शोक पर शोक दिया ताकि जो तुम्हारे हाथ से निकल गया और जो मुसीबत तुम्हें पहुँची, उसपर शोकाकुल न हो। तथा अल्लाह उससे सूचित है, जो तुम कर रहे हो।
82. बरा बिन आज़िब कहते हैं कि नबी सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ने उह़ुद के दिन अब्दुल्लाह बिन जुबैर को पैदल सेना पर रखा। और वह पराजित हो कर आ गए, इसी के बारे में यह आयत है। उस समय नबी के साथ बारह व्यक्ति ही रह गए। (सह़ीह़ बुख़ारी : 4561)

ثُمَّ اَنْزَلَ عَلَيْكُمْ مِّنْۢ بَعْدِ الْغَمِّ اَمَنَةً نُّعَاسًا يَّغْشٰى طَۤاىِٕفَةً مِّنْكُمْ ۙ وَطَۤاىِٕفَةٌ قَدْ اَهَمَّتْهُمْ اَنْفُسُهُمْ يَظُنُّوْنَ بِاللّٰهِ غَيْرَ الْحَقِّ ظَنَّ الْجَاهِلِيَّةِ ۗ يَقُوْلُوْنَ هَلْ لَّنَا مِنَ الْاَمْرِ مِنْ شَيْءٍ ۗ قُلْ اِنَّ الْاَمْرَ كُلَّهٗ لِلّٰهِ ۗ يُخْفُوْنَ فِيْٓ اَنْفُسِهِمْ مَّا لَا يُبْدُوْنَ لَكَ ۗ يَقُوْلُوْنَ لَوْ كَانَ لَنَا مِنَ الْاَمْرِ شَيْءٌ مَّا قُتِلْنَا هٰهُنَا ۗ قُلْ لَّوْ كُنْتُمْ فِيْ بُيُوْتِكُمْ لَبَرَزَ الَّذِيْنَ كُتِبَ عَلَيْهِمُ الْقَتْلُ اِلٰى مَضَاجِعِهِمْ ۚ وَلِيَبْتَلِيَ اللّٰهُ مَا فِيْ صُدُوْرِكُمْ وَلِيُمَحِّصَ مَا فِيْ قُلُوْبِكُمْ ۗ وَاللّٰهُ عَلِيْمٌ ۢبِذَاتِ الصُّدُوْرِ١٥٤
Ṡumma anzala ‘alaikum mim ba‘dil-gammi amanatan nu‘āsay yagsyā ṭā'ifatam minkum, wa ṭā'ifatun qad ahammathum anfusuhum yaẓunnūna billāhi gairal-ḥaqqi ẓanal-jāhiliyyah(ti), yaqūlūna hal lanā minal-amri min syai'(in), qul innal-amra kullahū lillāh(i), yukhfūna fī anfusihim mā lā yubdūna lak(a), yaqūlūna lau kāna lanā minal-amri syai'um mā qutilnā hāhunā, qul lau kuntum fī buyūtikum labarazal-lażīna kutiba ‘alaihimul-qatlu ilā maḍāji‘ihim, wa liyabtaliyallāhu mā fī ṣudūrikum wa liyumaḥḥiṣa mā fī qulūbikum, wallāhu ‘alīmum biżātiṣ-ṣudūr(i).
[154] फिर इस शोक के बाद उसने तुमपर शांति उतारी (यानी) ऊँघ जो तुम्हारे एक समूह83 को घेर रही थी और एक समूह को केवल अपने प्राणों84 की चिंता थी। वे अल्लाह के बारे में अनुचित अज्ञानता काल का गुमान कर रहे थे। वे कहते थे कि क्या (इस) मामले में हमारा भी कोई अधिकार है? (ऐ नबी!) कह दें कि सब अधिकार अल्लाह को है। वे अपने दिलों में वह (बात) छिपाते हैं जो आपके सामने प्रकट नहीं करते हैं। वे कहते हैं कि यदि (इस) मामले में हमारा भी कुछ अधिकार होता, तो हम यहाँ मारे न जाते। आप कह दें : यदि तुम अपने घरों में भी होते, तब भी जिनके (भाग्य में) मारा जाना लिख दिया गया था, वे अवश्य अपने मरने के स्थानों की ओर निकल आते। और ताकि अल्लाह जो कुछ तुम्हारे सीनों में है, उसे आज़माए और जो कुछ तुम्हारे दिलों में है, उसे विशुद्ध कर दे। और अल्लाह दिलों के भेदों से अवगत है।
83. अबु तल्हा रज़ियल्लाहु अन्हु ने कहा : हम उह़ुद में ऊँघने लगे। मेरी तलवार मेरे हाथ से गिरने लगती और मैं पकड़ लेता, फिर गिरने लगती और पकड़ लेता।(सह़ीह़ बुख़ारी : 4562) 84. ये मुनाफ़िक़ लोग थे।

اِنَّ الَّذِيْنَ تَوَلَّوْا مِنْكُمْ يَوْمَ الْتَقَى الْجَمْعٰنِۙ اِنَّمَا اسْتَزَلَّهُمُ الشَّيْطٰنُ بِبَعْضِ مَا كَسَبُوْا ۚ وَلَقَدْ عَفَا اللّٰهُ عَنْهُمْ ۗ اِنَّ اللّٰهَ غَفُوْرٌ حَلِيْمٌ ࣖ١٥٥
Innal-lażīna tawallau minkum yaumal-taqal-jam‘ān(i), innamastazallahumusy-syaiṭānu biba‘ḍi mā kasabū, wa laqad ‘afallāhu ‘anhum, innallāha gafūrun ḥalīm(un).
[155] वस्तुतः तुममें से जिन लोगों ने दो गिरोहों के आमने सामने होने के दिन पीठ दिखाई, उन्हें शैतान ने उनके कुछ कर्मों के कारण फिसला दिया था। और अल्लाह उन्हें क्षमा कर चुका है। वास्तव में, अल्लाह अति क्षमावान्, सहनशील है।

يٰٓاَيُّهَا الَّذِيْنَ اٰمَنُوْا لَا تَكُوْنُوْا كَالَّذِيْنَ كَفَرُوْا وَقَالُوْا لِاِخْوَانِهِمْ اِذَا ضَرَبُوْا فِى الْاَرْضِ اَوْ كَانُوْا غُزًّى لَّوْ كَانُوْا عِنْدَنَا مَا مَاتُوْا وَمَا قُتِلُوْاۚ لِيَجْعَلَ اللّٰهُ ذٰلِكَ حَسْرَةً فِيْ قُلُوْبِهِمْ ۗ وَاللّٰهُ يُحْيٖ وَيُمِيْتُ ۗ وَاللّٰهُ بِمَا تَعْمَلُوْنَ بَصِيْرٌ١٥٦
Yā ayyuhal-lażīna āmanū lā takūnū kal-lażīna kafarū wa qālū li'ikhwānihim iżā ḍarabū fil-arḍi au kānū guzzal lau kānū ‘indanā mā mātū wa mā qutilū, liyaj‘alallāhu żālika ḥasratan fī qulūbihim, wallāhu yuḥyī wa yumīt(u), wallāhu bimā ta‘malūna baṣīr(un).
[156] ऐ ईमान वालो! तुम उन लोगों के समान न हो जाओ, जिन्होंने कुफ़्र किया और अपने भाइयों के बारे में जबकि वे यात्रा पर गए हों या जिहाद के लिए निकले यह कहने लगे कि : यदि वे हमारे पास रहते तो न मरते और न क़त्ल किए जाते। (ऐसी बात उनके दिल में इसलिए आती है) ताकि अल्लाह इसे उनके दिलों में संताप का कारण बना दे। तथा अल्लाह ही जीवित करता और मृत्यु देता है। और तुम जो कुछ करते हो, अल्लाह उसे देख रहा है।

وَلَىِٕنْ قُتِلْتُمْ فِيْ سَبِيْلِ اللّٰهِ اَوْ مُتُّمْ لَمَغْفِرَةٌ مِّنَ اللّٰهِ وَرَحْمَةٌ خَيْرٌ مِّمَّا يَجْمَعُوْنَ١٥٧
Wa la'in qutiltum fī sabīlillāhi au muttum lamagfiratum minallāhi wa raḥmatun khairum mimmā yajma‘ūn(a).
[157] और यदि तुम अल्लाह के मार्ग में क़त्ल कर दिए जाओ या मर जाओ, तो अल्लाह की क्षमा और दया उससे बेहतर है, जो वे लोग बटोर रहे हैं।

وَلَىِٕنْ مُّتُّمْ اَوْ قُتِلْتُمْ لَاِلَى اللّٰهِ تُحْشَرُوْنَ١٥٨
Wa la'im muttum au qutiltum la'ilallāhi tuḥsyarūn(a).
[158] तथा यदि तुम मर गए या मार दिए गए, तो निश्चित रूप से तुम अल्लाह ही के पास इकट्ठे किए जाओगे।

فَبِمَا رَحْمَةٍ مِّنَ اللّٰهِ لِنْتَ لَهُمْ ۚ وَلَوْ كُنْتَ فَظًّا غَلِيْظَ الْقَلْبِ لَانْفَضُّوْا مِنْ حَوْلِكَ ۖ فَاعْفُ عَنْهُمْ وَاسْتَغْفِرْ لَهُمْ وَشَاوِرْهُمْ فِى الْاَمْرِۚ فَاِذَا عَزَمْتَ فَتَوَكَّلْ عَلَى اللّٰهِ ۗ اِنَّ اللّٰهَ يُحِبُّ الْمُتَوَكِّلِيْنَ١٥٩
Fabimā raḥmatim minallāhi linta lahum, wa lau kunta faẓẓan galīẓal-qalbi lanfaḍḍū min ḥaulik(a), fa‘fu ‘anhum wastagfir lahum wa syāwirhum fil-amr(i), fa iżā ‘azamta fa tawakkal ‘alallāh(i), innallāha yuḥibbul-mutawakkilīn(a).
[159] अल्लाह की दया के कारण (ऐ नबी!) आप उनके85 लिए सरल स्वभाव के हैं। और यदि आप प्रखर स्वभाव और कठोर हृदय के होते, तो वे आपके पास से छट जाते। अतः आप उन्हें माफ़ कर दें और उनके लिए क्षमा याचना करें। तथा उनसे मामलों में परामर्श करें। फिर जब आप दृढ़ संकल्प कर लें, तो अल्लाह पर भरोसा करें। निःसंदेह अल्लाह भरोसा करने वालों को पसंद करता है।
85. अर्थात अपने साथियों के लिए, जो उह़ुद की लड़ाई में रणक्षेत्र से भाग गए।

اِنْ يَّنْصُرْكُمُ اللّٰهُ فَلَا غَالِبَ لَكُمْ ۚ وَاِنْ يَّخْذُلْكُمْ فَمَنْ ذَا الَّذِيْ يَنْصُرُكُمْ مِّنْۢ بَعْدِهٖ ۗ وَعَلَى اللّٰهِ فَلْيَتَوَكَّلِ الْمُؤْمِنُوْنَ١٦٠
Iy yanṣurkumullāhu falā gāliba lakum, wa iy yakhżulkum faman żal-lażī yanṣurukum mim ba‘dih(ī), wa ‘alallāhi falyatawakkalil-mu'minūn(a).
[160] यदि अल्लाह तुम्हारी सहायता करे, तो कोई तुमपर प्रभावी नहीं हो सकता। और यदि वह तुम्हें असहाय छोड़ दे, तो फिर कौन है जो उसके बाद तुम्हारी सहायता कर सकेॽ अतः ईमान वालों को अल्लाह ही पर भरोसा करना चाहिए।

وَمَا كَانَ لِنَبِيٍّ اَنْ يَّغُلَّ ۗوَمَنْ يَّغْلُلْ يَأْتِ بِمَا غَلَّ يَوْمَ الْقِيٰمَةِ ۚ ثُمَّ تُوَفّٰى كُلُّ نَفْسٍ مَّا كَسَبَتْ وَهُمْ لَا يُظْلَمُوْنَ١٦١
Wa mā kāna linabiyyin ay yagull(a), wa may yaglul ya'ti bimā galla yaumal-qiyāmah(ti), ṡumma tuwaffā kullu nafsim mā kasabat wa hum lā yuẓlamūn(a).
[161] यह किसी नबी के लिए संभव नहीं है कि ग़नीमत के धन में ख़यानत86 करे, और जो ख़यानत करेगा तो जो उसने ख़यानत की होगी उसके साथ क़ियामत के दिन उपस्थित होगा। फिर प्रत्येक प्राणी को उसके किए का पूरा-पूरा बदला दिया जाएगा और उनपर अत्याचार नहीं किया जाएगा।
86. उह़ुद के दिन जो अपना स्थान छोड़ कर इस विचार से आ गए कि यदि हम न पहुँचे, तो दूसरे लोग ग़नीमत का सब धन ले जाएँगे, उन्हें यह चेतावनी दी जा रही है कि तुमने यह कैसे सोच लिया कि इस धन में से तुम्हारा भाग नहीं मिलेगा, क्या तुम्हें नबी सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम की अमानत पर भरोसा नहीं है? सुन लो! नबी से किसी प्रकार की ख़यानत असम्भव है। यह घोर पाप है जो कोई नबी कभी नहीं कर सकता।

اَفَمَنِ اتَّبَعَ رِضْوَانَ اللّٰهِ كَمَنْۢ بَاۤءَ بِسَخَطٍ مِّنَ اللّٰهِ وَمَأْوٰىهُ جَهَنَّمُ ۗ وَبِئْسَ الْمَصِيْرُ١٦٢
Afamanittaba‘a riḍwānallāhi kamam bā'a bisakhaṭim minallāhi wa ma'wāhu jahannam(u), wa bi'sal-maṣīr(u),
[162] तो क्या जिसने अल्लाह की प्रसन्नता का अनुसरण किया, उस व्यक्ति के समान हो सकता है जो अल्लाह का क्रोध87 लेकर वापस हुआ और जिसका आवास नरक हैॽ और वह बहुत बुरा ठिकाना है।
87. अर्थात् पापों में लीन रहा।

هُمْ دَرَجٰتٌ عِنْدَ اللّٰهِ ۗ وَاللّٰهُ بَصِيْرٌ ۢبِمَا يَعْمَلُوْنَ١٦٣
Hum darajātun ‘indallāh(i), wallāhu baṣīrum bimā ya‘malūn(a).
[163] अल्लाह के पास उनके (विभिन्न) दर्जे88 हैं, तथा वे जो कुछ कर रहे हैं अल्लाह उसे देख रहा है।
88. अर्थात लोगों के कर्मों के अनुसार उनकी अलग-अलग श्रेणियाँ हैं।

لَقَدْ مَنَّ اللّٰهُ عَلَى الْمُؤْمِنِيْنَ اِذْ بَعَثَ فِيْهِمْ رَسُوْلًا مِّنْ اَنْفُسِهِمْ يَتْلُوْا عَلَيْهِمْ اٰيٰتِهٖ وَيُزَكِّيْهِمْ وَيُعَلِّمُهُمُ الْكِتٰبَ وَالْحِكْمَةَۚ وَاِنْ كَانُوْا مِنْ قَبْلُ لَفِيْ ضَلٰلٍ مُّبِيْنٍ١٦٤
Laqad mannallāhu ‘alal-mu'minīna iż ba‘aṡa fīhim rasūlam min anfusihim yatlū ‘alaihim āyātihī wa yuzakkīhim wa yu‘allimuhumul-kitāba wal-ḥikmah(ta), wa in kānū min qablu lafī ḍalālim mubīn(in).
[164] निःसंदेह अल्लाह ने ईमान वालों पर बड़ा उपकार किया कि उनके अंदर उन्हीं में से एक रसूल भेजा, जो उन्हें (अल्लाह) की आयतें पढ़कर सुनाता है और उन्हें पवित्र करता है तथा उन्हें किताब (क़ुरआन) और ह़िकमत (सुन्नत) की शिक्षा देता है। निःसंदेह वे इससे पहले खुली गुमराही में थे।

اَوَلَمَّآ اَصَابَتْكُمْ مُّصِيْبَةٌ قَدْ اَصَبْتُمْ مِّثْلَيْهَاۙ قُلْتُمْ اَنّٰى هٰذَا ۗ قُلْ هُوَ مِنْ عِنْدِ اَنْفُسِكُمْ ۗ اِنَّ اللّٰهَ عَلٰى كُلِّ شَيْءٍ قَدِيْرٌ١٦٥
Awa lammā aṣābatkum muṣībatun qad aṣabtum miṡlaihā, qultum annā hāżā, qul huwa min ‘indi anfusikum, innallāha ‘alā kulli syai'in qadīr(un).
[165] क्या जब तुम्हें एक ऐसी विपत्ति89 पहुँची, जिसकी दोगुनी विपत्ति तुम (काफ़िरों को) पहुँचा90 चुके थे, तो तुम कहने लगे कि : यह कहाँ से आ गई? (ऐ नबी!) कह दीजिए : यह तुम्हारे ही पास से91 आई है। निःसंदेह अल्लाह हर चीज़ पर सर्वशक्तिमान है।
89. अर्थात उह़ुद के दिन। 90. अर्थात बद्र के दिन। 91. अर्थात तुम्हारे नबी सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम के उस आदेश का विरोध करने के कारण आई, जो धनुर्धरों को दिया गया था।

وَمَآ اَصَابَكُمْ يَوْمَ الْتَقَى الْجَمْعٰنِ فَبِاِذْنِ اللّٰهِ وَلِيَعْلَمَ الْمُؤْمِنِيْنَۙ١٦٦
Wa mā aṣābakum yaumal-taqal-jam‘āni fa bi'iżnillāhi wa liya‘lamal-mu'minīn(a).
[166] और दोनों गिरोहों के मुठभेड़ के दिन जो विपत्ति तुम्हें पहुँची है, वह अल्लाह के आदेश से पहुँची है। और ताकि वह (अल्लाह) ईमान वालों को (अच्छी तरह) जान ले।

وَلِيَعْلَمَ الَّذِيْنَ نَافَقُوْا ۖوَقِيْلَ لَهُمْ تَعَالَوْا قَاتِلُوْا فِيْ سَبِيْلِ اللّٰهِ اَوِ ادْفَعُوْا ۗ قَالُوْا لَوْ نَعْلَمُ قِتَالًا لَّاتَّبَعْنٰكُمْ ۗ هُمْ لِلْكُفْرِ يَوْمَىِٕذٍ اَقْرَبُ مِنْهُمْ لِلْاِيْمَانِ ۚ يَقُوْلُوْنَ بِاَفْوَاهِهِمْ مَّا لَيْسَ فِيْ قُلُوْبِهِمْ ۗ وَاللّٰهُ اَعْلَمُ بِمَا يَكْتُمُوْنَۚ١٦٧
Wa liya‘lamal-lażīna nāfaqū, wa qīla lahum ta‘ālau qātilū fī sabīlillāhi awidfa‘ū, qālū lau na‘lamu qitālal lattaba‘nākum, hum lil-kufri yauma'iżin aqrabu minhum lil-īmān(i), yaqūlūna bi'afwāhihim mā laisa fī qulūbihim, walllāhu a‘lamu bimā yaktumūn(a).
[167] और ताकि उन लगों को भी जान ले, जो मुनाफ़िक़ हैं, जिनसे कहा गया कि आओ अल्लाह की राह में युद्ध करो अथवा (आम मुसलमानों की) रक्षा करो, तो उन्होंने कहा कि यदि हम जानते कि युद्ध होगा, तो अवश्य तुम्हारा साथ देते। वे उस दिन ईमान की अपेक्षा कुफ़्र के अधिक निकट थे। वे अपने मुँह से ऐसी बातें बोलते हैं, जो उनके दिलों में नहीं होती। तथा अल्लाह उसे भली-भाँति जानता है जो वे छिपाते हैं।

اَلَّذِيْنَ قَالُوْا لِاِخْوَانِهِمْ وَقَعَدُوْا لَوْ اَطَاعُوْنَا مَا قُتِلُوْا ۗ قُلْ فَادْرَءُوْا عَنْ اَنْفُسِكُمُ الْمَوْتَ اِنْ كُنْتُمْ صٰدِقِيْنَ١٦٨
Al-lażīna qālū li'ikhwānihim wa qa‘adū lau aṭā‘ūnā mā qutilū, qul fadra'ū ‘an anfusikumul-mauta in kuntum ṣādiqīn(a).
[168] ये वही लोग हैं जो स्वयं तो (लड़ाई से) पीछे बैठे रहे और अपने भाइयों के बारे में कहने लगे : यदि वे हमारी बात मानते, तो मारे न जाते! (ऐ नबी!) कह दीजिए : फिर तो मौत92 से अपनी रक्षा कर लो, यदि तुम सच्चे हो।
92. अर्थात अपने उपाय से सदाजीवी हो जाओ।

وَلَا تَحْسَبَنَّ الَّذِيْنَ قُتِلُوْا فِيْ سَبِيْلِ اللّٰهِ اَمْوَاتًا ۗ بَلْ اَحْيَاۤءٌ عِنْدَ رَبِّهِمْ يُرْزَقُوْنَۙ١٦٩
Wa lā taḥsabannal-lażīna qutilū fī sabīlillāhi amwātā(n), bal aḥyā'un 'inda rabbihim yurzaqūn(a).
[169] जो लोग अल्लाह के मार्ग में मारे गए हैं, उन्हें कदापि मृत न समझो, बल्कि वे जीवित93 हैं, अपने पालनहार के पास रोज़ी दिए जाते हैं।
93. शहीदों का जीवन कैसा होता है? ह़दीस में है कि उनकी आत्माएँ हरे पक्षियों के भीतर रख दी जाती हैं और वे स्वर्ग में चुगते तथा आनंद लेते फिरते हैं। (सह़ीह़ मुस्लिम, ह़दीस : 1887)

فَرِحِيْنَ بِمَآ اٰتٰىهُمُ اللّٰهُ مِنْ فَضْلِهٖۙ وَيَسْتَبْشِرُوْنَ بِالَّذِيْنَ لَمْ يَلْحَقُوْا بِهِمْ مِّنْ خَلْفِهِمْ ۙ اَلَّا خَوْفٌ عَلَيْهِمْ وَلَا هُمْ يَحْزَنُوْنَۘ١٧٠
Fariḥīna bimā ātāhumullāhu min faḍlih(ī), wa yastabsyirūna bil-lażīna lam yalḥaqū bihim min khalfihim, allā khaufun ‘alaihim wa lā hum yaḥzanūn(a).
[170] वे उससे प्रसन्न हैं, जो अल्लाह ने अपनी कृपा से उन्हें प्रदान किया है, और उन लोगों के लिए भी खुश हो रहे हैं, जो उनके पीछे94 रह गए हैं, अभी उनसे मिले नहीं हैं कि उन्हें भी न कोई भय होगा और न वे दुःखी होंगे।
94. अर्थात उन मुजाहिदीन के लिए जो अभी संसार में जीवित रह गए हैं।

۞ يَسْتَبْشِرُوْنَ بِنِعْمَةٍ مِّنَ اللّٰهِ وَفَضْلٍۗ وَاَنَّ اللّٰهَ لَا يُضِيْعُ اَجْرَ الْمُؤْمِنِيْنَ ࣖ١٧١
Yastabsyirūna bini‘matim minallāhi wa faḍl(in), wa annallāha lā yuḍī‘u ajral-mu'minīn(a).
[171] वे अल्लाह के अनुग्रह और उसकी कृपा से खुश हो रहे हैं और इससे कि अल्लाह ईमान वालों का बदला नष्ट नहीं करता।

اَلَّذِيْنَ اسْتَجَابُوْا لِلّٰهِ وَالرَّسُوْلِ مِنْۢ بَعْدِ مَآ اَصَابَهُمُ الْقَرْحُ ۖ لِلَّذِيْنَ اَحْسَنُوْا مِنْهُمْ وَاتَّقَوْا اَجْرٌ عَظِيْمٌۚ١٧٢
Al-lażīnastajābū lillāhi war-rasūli mim ba‘di mā aṣābahumul-qarḥ(u), lil-lażīna aḥsanū minhum wattaqau ajrun ‘aẓīm(un).
[172] जिन लोगों ने अल्लाह और रसूल की पुकार को स्वीकार95 किया, इसके पश्चात् कि उन्हें आघात पहुँच चुका था। उनमें से सत्कर्म करने वालों और (अल्लाह से) डरने वालों के लिए महान प्रतिफल है।
95. जब काफ़िर उह़ुद से मक्का वापस हुए, तो मदीने से 30 मील दूर "रौह़ाअ" से फिर मदीना वापस आने का निश्चय किया। जब आप सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम को सूचना मिली, तो सेना ले कर "ह़मराउल असद" तक पहुँचे जिसे सुनकर वे भाग गए। इधर मुसलमान सफल वापस आए। इस आयत में रसूलुल्लाह सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम के साथियों की सराहना की गई है जिन्होंने उह़ुद में घाव खाने के पश्चात भी नबी सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम का साथ दिया। ये आयतें इसी से संबंधित हैं।

اَلَّذِيْنَ قَالَ لَهُمُ النَّاسُ اِنَّ النَّاسَ قَدْ جَمَعُوْا لَكُمْ فَاخْشَوْهُمْ فَزَادَهُمْ اِيْمَانًاۖ وَّقَالُوْا حَسْبُنَا اللّٰهُ وَنِعْمَ الْوَكِيْلُ١٧٣
Al-lażīna qāla lahumun-nāsu innan-nāsa qad jama‘ū lakum fakhsyauhum fa zādahum īmānā(n), wa qālū ḥasbunallāhu wa ni‘mal-wakīl(u).
[173] ये वही लोग हैं जिनसे लोगों ने कहा कि दुश्मनों ने तुम्हारे विरुद्ध सेना इकट्ठा कर ली है।96 अतः उनसे डरो। तो इस (सूचना) ने उनके ईमान को और बढ़ा दिया और उन्होंने कहा : हमारे लिए अल्लाह काफ़ी है और वह बहुत अच्छा कार्यसाधक (काम बनाने वाला) है।
96. अर्थात शत्रु ने मक्का जाते हुए राह में सोचा कि मुसलमानों के परास्त हो जाने पर यह अच्छा अवसर था कि मदीने पर आक्रमण करके उनका उन्मू222लन कर दिया जाए, तथा वापस आने का निश्चय किया। (तफ़्सीर क़ुर्तुबी)

فَانْقَلَبُوْا بِنِعْمَةٍ مِّنَ اللّٰهِ وَفَضْلٍ لَّمْ يَمْسَسْهُمْ سُوْۤءٌۙ وَّاتَّبَعُوْا رِضْوَانَ اللّٰهِ ۗ وَاللّٰهُ ذُوْ فَضْلٍ عَظِيْمٍ١٧٤
Fanqalabū bi ni‘matim minallāhi wa faḍlil lam yamsashum sū'(un), wattaba‘ū riḍwānallāh(i), wallahu żū faḍlin ‘aẓīm(in).
[174] चुनांचे वे अल्लाह की ओर से प्राप्त होने वाली नेमत और अनुग्रह के साथ97 लौटे। उन्हें कोई तकलीफ़ नहीं पहुँची। तथा वे अल्लाह की प्रसन्नता के मार्ग पर चले। और अल्लाह बड़े अनुग्रह वाला है।
97. अर्थात "ह़मराउल असद" से मदीन वापस हुए।

اِنَّمَا ذٰلِكُمُ الشَّيْطٰنُ يُخَوِّفُ اَوْلِيَاۤءَهٗۖ فَلَا تَخَافُوْهُمْ وَخَافُوْنِ اِنْ كُنْتُمْ مُّؤْمِنِيْنَ١٧٥
Innamā żālikumusy-syaiṭānu yukhawwifu auliyā'ah(ū), falā takhāfūhum wa khāfūni in kuntum mu'minīn(a).
[175] वह तो शैतान है, जो तुम्हें अपने सहयोगियों से डरा रहा है। अतः तुम उनसे98 न डरो और केवल मुझसे डरो, यदि तुम ईमान वाले हो।
98. अर्थात मिश्रणवादियों से।

وَلَا يَحْزُنْكَ الَّذِيْنَ يُسَارِعُوْنَ فِى الْكُفْرِۚ اِنَّهُمْ لَنْ يَّضُرُّوا اللّٰهَ شَيْـًٔا ۗ يُرِيْدُ اللّٰهُ اَلَّا يَجْعَلَ لَهُمْ حَظًّا فِى الْاٰخِرَةِ وَلَهُمْ عَذَابٌ عَظِيْمٌۚ١٧٦
Wa lā yaḥzunkal-lażīna yusāri‘ūna fil-kufr(i), innahum lay yaḍurrullāha syai'ā(n), yurīdullāhu allā yaj‘ala lahum ḥaẓẓan fil-ākhirati wa lahum ‘ażābun ‘aẓīm(un).
[176] (ऐ नबी!) वे लोग आपको दुःखी न करें, जो कुफ़्र में तेज़ी दिखा रहे हैं। वे अल्लाह को कदापि कोई हानि नहीं पहुँचा सकेंगे। अल्लाह चाहता है कि आख़िरत (परलोक) में उनका कोई हिस्सा न रखे तथा उनके लिए बड़ी यातना है।

اِنَّ الَّذِيْنَ اشْتَرَوُا الْكُفْرَ بِالْاِيْمَانِ لَنْ يَّضُرُّوا اللّٰهَ شَيْـًٔاۚ وَلَهُمْ عَذَابٌ اَلِيْمٌ١٧٧
Innal-lażīnasytarawul-kufra bil-īmāni lay yaḍurrullāha syai'ā(n), wa lahum ‘ażābun alīm(un).
[177] निःसंदेह जिन लोगों ने ईमान के बदले कुफ़्र का सौदा किया, वे अल्लाह का कुछ नहीं बिगाड़ेंगे। तथा उनके लिए दुःखदायी यातना है।

وَلَا يَحْسَبَنَّ الَّذِيْنَ كَفَرُوْٓا اَنَّمَا نُمْلِيْ لَهُمْ خَيْرٌ لِّاَنْفُسِهِمْ ۗ اِنَّمَا نُمْلِيْ لَهُمْ لِيَزْدَادُوْٓا اِثْمًا ۚ وَلَهُمْ عَذَابٌ مُّهِيْنٌ١٧٨
Wa lā yaḥsabannal-lażīna kafarū annamā numlī lahum khairul li'anfusihim, innamā numlī lahum liyazdādū iṡmā(n), wa lahum ‘ażābum muhīn(un).
[178] जो लोग काफ़िर हो गए, वे हरगिज़ यह न समझें कि हमारा उन्हें ढील99 देना, उनके लिए अच्छा है। वास्तव में, हम उन्हें इसलिए ढील दे रहे हैं, ताकि उनके पाप100 और बढ़ जाएँ। तथा उनके लिए अपमानजनक यातना है।
99. अर्थात उन्हें सांसारिक सुःख-सुविधा देना। भावार्थ यह है कि इस संसार में अल्लाह, सत्यासत्य, न्याय तथा अत्याचार सब के लिए अवसर देता है। परंतु इससे धोखा नहीं खाना चाहिए, यह देखना चाहिए कि परलोक की सफलता किस में है। सत्य ही स्थायी है तथा असत्य को ध्वस्त हो जाना है। 100. यह स्वभाविक नियम है कि पाप करने से पापाचारी में पाप करने की भावना अधिक हो जाती है।

مَا كَانَ اللّٰهُ لِيَذَرَ الْمُؤْمِنِيْنَ عَلٰى مَآ اَنْتُمْ عَلَيْهِ حَتّٰى يَمِيْزَ الْخَبِيْثَ مِنَ الطَّيِّبِ ۗ وَمَا كَانَ اللّٰهُ لِيُطْلِعَكُمْ عَلَى الْغَيْبِ وَلٰكِنَّ اللّٰهَ يَجْتَبِيْ مِنْ رُّسُلِهٖ مَنْ يَّشَاۤءُ ۖ فَاٰمِنُوْا بِاللّٰهِ وَرُسُلِهٖ ۚ وَاِنْ تُؤْمِنُوْا وَتَتَّقُوْا فَلَكُمْ اَجْرٌ عَظِيْمٌ١٧٩
Mā kānallāhu liyażaral-mu'minīna ‘alā mā antum ‘alaihi ḥattā yamīzal-khabīṡa minaṭ-ṭayyib(i), wa mā kānallāhu liyuṭli‘akum ‘alal-gaibi wa lākinnallāha yajtabī mir rusulihī may yasyā'(u), fa āminū billāhi wa rusulih(ī), wa in tu'minū wa tattaqū fa lakum ajrun ‘aẓīm(un).
[179] ऐसा नहीं है कि अल्लाह ईमान वालों को उसी (हाल) पर छोड़ दे, जिसपर तुम (इस समय) हो, जब तक कि बुरे को अच्छे से अलग न कर दे। और ऐसा भी नहीं है कि अल्लाह तुम्हें ग़ैब (परोक्ष) से सूचित101 कर दे। परंतु अल्लाह अपने रसूलों में से जिसे चाहता है (ग़ैब की कुछ बातें बताने के लिए) चुन लेता है। अतः तुम अल्लाह और उसके रसूलों पर ईमान लाओ। यदि तुम ईमान लाओ और अल्लाह से डरते रहो, तो तुम्हारे लिए बड़ा प्रतिफल है।
101. अर्थात तुम्हें बता दे कि कौन ईमान वाला और कौन मुनाफ़िक़ (पाखंडी) है।

وَلَا يَحْسَبَنَّ الَّذِيْنَ يَبْخَلُوْنَ بِمَآ اٰتٰىهُمُ اللّٰهُ مِنْ فَضْلِهٖ هُوَ خَيْرًا لَّهُمْ ۗ بَلْ هُوَ شَرٌّ لَّهُمْ ۗ سَيُطَوَّقُوْنَ مَا بَخِلُوْا بِهٖ يَوْمَ الْقِيٰمَةِ ۗ وَلِلّٰهِ مِيْرَاثُ السَّمٰوٰتِ وَالْاَرْضِۗ وَاللّٰهُ بِمَا تَعْمَلُوْنَ خَبِيْرٌ ࣖ١٨٠
Wa lā yaḥsabannal-lażīna yabkhalūna bimā ātāhumullāhu min faḍlihī huwa khairal lahum, bal huwa syarrul lahum, sayuṭawwaqūna mā bakhilū bihī yaumal-qiyāmah(ti), wa lillāhi mīrāṡus-samāwāti wal-arḍ(i), wallāhu bimā ta‘malūna khabīr(un).
[180] जो लोग उस चीज़ में कंजूसी करते हैं, जो अल्लाह ने उन्हें अपने अनुग्रह से प्रदान किया102 है, वे कदापि यह न समझें कि (उनका) यह (कृत्य) उनके लिए अच्छा है। बल्कि यह उनके लिए बुरा है। उन्होंने जिस चीज़ में कंजूसी की होगी, उसे क़ियामत के दिन उनके गले का तौक़103 बना दिया जाएगा। और आकाशों तथा धरती का उत्तराधिकार (विरासत) अल्लाह के लिए104 है और जो कुछ तुम करते हो अल्लाह उससे सूचित है।
102. अर्थात धन-धान्य की ज़कात नहीं देते। 103. सह़ीह़ बुखारी में अबू हुरैरा रज़ियल्लाहु अन्हु से रिवायत है कि नबी सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ने कहा : जिसे अल्लाह ने धन दिया है, और वह उस की ज़कात नहीं देता, तो प्रलय के दिन उसका धन गंजा सर्प बना दिया जाएगा, जो उसके गले का हार बन जाएगा। और उसे अपने जबड़ों से पकड़ेगा, तथा कहेगा कि मैं तुम्हारा कोष हुँ! मैं तुम्हारा धन हूँ। (सह़ीह़ बुख़ारी : 4565) 104. अर्थात प्रलय के दिन वही अकेला सब का स्वामी होगा।

لَقَدْ سَمِعَ اللّٰهُ قَوْلَ الَّذِيْنَ قَالُوْٓا اِنَّ اللّٰهَ فَقِيْرٌ وَّنَحْنُ اَغْنِيَاۤءُ ۘ سَنَكْتُبُ مَا قَالُوْا وَقَتْلَهُمُ الْاَنْۢبِيَاۤءَ بِغَيْرِ حَقٍّۙ وَّنَقُوْلُ ذُوْقُوْا عَذَابَ الْحَرِيْقِ١٨١
Laqad sami‘allāhu qaulal-lażīna qālū innallāha faqīruw wa naḥnu agniyā'(u), sanaktubu mā qālū wa qatlahumul-ambiyā'a bigairi ḥaqq(in), wa naqūlu żūqū ‘ażābal-ḥarīq(i).
[181] निःसंदेह अल्लाह ने उन लोगों की बात सुन ली है, जिन्होंने कहा कि "अल्लाह निर्धन है और हम धनवान105 हैं!" उन्होंने जो कुछ कहा है, हम उसे लिख लेंगे और उनके नबियों को अनाधिकार क़त्ल करने को भी। तथा हम (उनसे) कहेंगे कि (अब तुम) जलाने वाली यातना का मज़ा चखो।
105. यह बात यहूदियों ने कही थी। (देखिए : सूरतुल बक़रा, आयत : 254)

ذٰلِكَ بِمَا قَدَّمَتْ اَيْدِيْكُمْ وَاَنَّ اللّٰهَ لَيْسَ بِظَلَّامٍ لِّلْعَبِيْدِۚ١٨٢
Żālika bimā qaddamat aidīkum wa annallāha laisa biẓallāmil lil-‘abīd(i).
[182] यह तुम्हारे हाथों की कमाई का बदला है और निःसंदेह अल्लाह अपने बंदों पर तनिक भी अत्याचार करने वाला नहीं।

اَلَّذِيْنَ قَالُوْٓا اِنَّ اللّٰهَ عَهِدَ اِلَيْنَآ اَلَّا نُؤْمِنَ لِرَسُوْلٍ حَتّٰى يَأْتِيَنَا بِقُرْبَانٍ تَأْكُلُهُ النَّارُ ۗ قُلْ قَدْ جَاۤءَكُمْ رُسُلٌ مِّنْ قَبْلِيْ بِالْبَيِّنٰتِ وَبِالَّذِيْ قُلْتُمْ فَلِمَ قَتَلْتُمُوْهُمْ اِنْ كُنْتُمْ صٰدِقِيْنَ١٨٣
Al-lażīna qālū innallāha ‘ahida ilainā allā nu'mina lirasūlin ḥattā ya'tiyanā biqurbānin ta'kuluhun-nār(u), qul qad jā'akum rusulum min qablī bil-bayyināti wa bil-lażī qultum falima qataltumūhum in kuntum ṣādiqīn(a).
[183] ये वही लोग हैं जिन्होंने कहा : अल्लाह ने हमें वसीयत की है कि हम किसी रसूल पर ईमान न लाएँ यहाँ तक कि वह हमारे सामने ऐसी क़ुरबानी पेश करे, जिसे आग खा106 जाए। (ऐ नबी!) आप कह दें कि मुझसे पहले तुम्हारे पास कई रसूल खुली निशानियाँ और वह (चमत्कार) भी लेकर आए जो तुम कहते हो, तो फिर तुमने उनकी हत्या क्यों की, यदि तुम सच्चे हो?
106. अर्थात आकाश से अग्नि आ कर उसे जला दे, जो उसके स्वीकार्य होने का लक्षण है।

فَاِنْ كَذَّبُوْكَ فَقَدْ كُذِّبَ رُسُلٌ مِّنْ قَبْلِكَ جَاۤءُوْ بِالْبَيِّنٰتِ وَالزُّبُرِ وَالْكِتٰبِ الْمُنِيْرِ١٨٤
Fa in każżabūka faqad kużżiba rusulum min qablika jā'ū bil-bayyināti waz-zuburi wal-kitābil-munīr(i).
[184] फिर यदि वे107 आपको झुठलाते हैं, तो आपसे पहले बहुत-से रसूल झुठलाए जा चुके हैं, जो खुली निशानियाँ, तथा (आकाशीय) ग्रंथ और प्रकाशक108 पुस्तक लाए।
107. अर्थात यहूद आदि। 108. प्रकाशक जो सत्य को उजागर कर दे।

كُلُّ نَفْسٍ ذَاۤىِٕقَةُ الْمَوْتِۗ وَاِنَّمَا تُوَفَّوْنَ اُجُوْرَكُمْ يَوْمَ الْقِيٰمَةِ ۗ فَمَنْ زُحْزِحَ عَنِ النَّارِ وَاُدْخِلَ الْجَنَّةَ فَقَدْ فَازَ ۗ وَمَا الْحَيٰوةُ الدُّنْيَآ اِلَّا مَتَاعُ الْغُرُوْرِ١٨٥
Kullu nafsin żā'iqatul-maut(i), wa innamā tuwaffauna ujūrakum yaumal-qiyāmah(ti), faman zuḥziḥa ‘anin-nāri wa udkhilal-jannata faqad fāz(a), wa mal-ḥayātud-dun-yā illā matā‘ul-gurūr(i).
[185] प्रत्येक प्राणी को मौत का स्वाद चखना है और तुम्हें क़ियामत के दिन तुम्हारे कर्मों का भरपूर प्रतिफल दिया जाएगा। (उस दिन) जो व्यक्ति जहन्नम से बचा लिया गया और जन्नत में प्रवेश पा गया109, वह वास्तव में सफल हो गया। तथा दुनिया की ज़िंदगी धोखे की पूंजी के सिवा कुछ नहीं है।
109. अर्थात सत्य आस्था और सत्कर्मों के द्वारा इस्लाम के नियमों का पालन करके।

۞ لَتُبْلَوُنَّ فِيْٓ اَمْوَالِكُمْ وَاَنْفُسِكُمْۗ وَلَتَسْمَعُنَّ مِنَ الَّذِيْنَ اُوْتُوا الْكِتٰبَ مِنْ قَبْلِكُمْ وَمِنَ الَّذِيْنَ اَشْرَكُوْٓا اَذًى كَثِيْرًا ۗ وَاِنْ تَصْبِرُوْا وَتَتَّقُوْا فَاِنَّ ذٰلِكَ مِنْ عَزْمِ الْاُمُوْرِ١٨٦
Latublawunna fī amwālikum wa anfusikum, wa latasma‘unna minal-lażīna ūtul-kitāba min qablikum wa minal-lażīna asyrakū ażan kaṡīrā(n), wa in taṣbirū wa tattaqū fa inna żālika min ‘azmil-umūr(i).
[186] (ऐ ईमान वालो!) तुम अपने धनों और प्राणों के बारे में ज़रूर परीक्षा में डाले जाओगे और तुम अवश्य ही उन लोगों से जो तुमसे पहले किताब दिए गए थे तथा उन लोगों से जो शिर्क में पड़े हुए हैं110, बहुत-सी दुःखद बातें सुनोगे। लेकिन यदि तुम धैर्य से काम लो और (अल्लाह से) डरते रहो, तो यह बड़े साहस का काम है।
110. अर्थात मूर्तियों के पुजारी, जो पूजा अर्चना तथा अल्लाह के विशेष गुणों में अन्य को उसका साझी बनाते हैं।

وَاِذْ اَخَذَ اللّٰهُ مِيْثَاقَ الَّذِيْنَ اُوْتُوا الْكِتٰبَ لَتُبَيِّنُنَّهٗ لِلنَّاسِ وَلَا تَكْتُمُوْنَهٗۖ فَنَبَذُوْهُ وَرَاۤءَ ظُهُوْرِهِمْ وَاشْتَرَوْا بِهٖ ثَمَنًا قَلِيْلًا ۗ فَبِئْسَ مَا يَشْتَرُوْنَ١٨٧
Wa iż akhażallāhu mīṡāqal-lażīna ūtul-kitāba latubayyinunnahū lin-nāsi wa lā taktumūnah(ū), fa nabażūhu warā'a ẓuhūrihim wasytarau bihī ṡamanan qalīlā(n), fa bi'sa mā yasytarūn(a).
[187] तथा (ऐ नबी! याद करो) जब अल्लाह ने किताब वालों111 से पक्का वचन लिया था कि तुम अवश्य इसे लोगों के सामने बयान करते रहोगे और इसे छुपाओगे नहीं, तो उन्होंने इस वचन को पीठ पीछे डाल दिया और उसके बदले तनिक मूल्य प्राप्त112 कर लिया। तो वे कितनी बुरी चीज़ खरीद रहे हैं?
111. किताब वाले अर्थातः यहूद और नसारा (ईसाई) जिन्हें तौरात और इंजील दिया गया। 112. अर्थात तुच्छ सांसारिक लाभ के लिए सत्य का सौदा करने लगे।

لَا تَحْسَبَنَّ الَّذِيْنَ يَفْرَحُوْنَ بِمَآ اَتَوْا وَّيُحِبُّوْنَ اَنْ يُّحْمَدُوْا بِمَا لَمْ يَفْعَلُوْا فَلَا تَحْسَبَنَّهُمْ بِمَفَازَةٍ مِّنَ الْعَذَابِۚ وَلَهُمْ عَذَابٌ اَلِيْمٌ١٨٨
Lā taḥsabannal-lażīna yafraḥūna bimā atau wa yuḥibbūna ay yuḥmadū bimā lam yaf‘alū falā taḥsabannahum bimafāzatim minal-‘ażāb(i), wa lahum ‘ażābun alīm(un).
[188] (ऐ नबी!) जो लोग113 अपने कृत्यों पर प्रसन्न हो रहे हैं और चाहते हैं कि उन्हें उन कामों के लिए (भी) सराहा जाए, जो उन्होंने नहीं किए हैं, तो आप हरगिज़ यह न समझें कि वे यातना से बच जाएँगे। उनके लिए तो दुःखदायी यातना है।
113. अबू सईद रज़ियल्लाहु अन्हु कहते हैं कि कुछ मुनाफ़िक़ रसूलुल्लाह सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम के युग में, आप युद्ध के लिए निकलते तो आपका साथ नहीं देते थे। और इसपर प्रसन्न होते थे और जब आप वापस होते, तो बहाने बनाते और शपथ लेते थे। और जो नहीं किया है, उसकी सराहना चाहते थे। इसी पर यह आयत उतरी। (सह़ीह़ बुख़ारी : 4567)

وَلِلّٰهِ مُلْكُ السَّمٰوٰتِ وَالْاَرْضِۗ وَاللّٰهُ عَلٰى كُلِّ شَيْءٍ قَدِيْرٌ ࣖ١٨٩
Wa lillāhi mulkus-samāwāti wal-arḍ(i), wallāhu ‘alā kulli syai'in qadīr(un).
[189] तथा आकाशों और धरती का राज्य अल्लाह ही का है तथा अल्लाह हर चीज़ पर सर्वशक्तिमान है।

اِنَّ فِيْ خَلْقِ السَّمٰوٰتِ وَالْاَرْضِ وَاخْتِلَافِ الَّيْلِ وَالنَّهَارِ لَاٰيٰتٍ لِّاُولِى الْاَلْبَابِۙ١٩٠
Inna fī khalqis-samāwāti wal-arḍi wakhtilāfil-laili wan-nahāri la'āyātil li'ulil-albāb(i).
[190] निःसंदेह आसमानों और ज़मीन की रचना तथा रात और दिन के आने-जाने में, बुद्धिमानों के लिए निशानियाँ हैं।114
114. अर्थात अल्लाह के राज्य, स्वामित्व तथा एकमात्र पूज्य होने की।

الَّذِيْنَ يَذْكُرُوْنَ اللّٰهَ قِيَامًا وَّقُعُوْدًا وَّعَلٰى جُنُوْبِهِمْ وَيَتَفَكَّرُوْنَ فِيْ خَلْقِ السَّمٰوٰتِ وَالْاَرْضِۚ رَبَّنَا مَا خَلَقْتَ هٰذَا بَاطِلًاۚ سُبْحٰنَكَ فَقِنَا عَذَابَ النَّارِ١٩١
Al-lażīna yażkurūnallāha qiyāmaw wa qu‘ūdaw wa ‘alā junūbihim wa yatafakkarūna fi khalqis-samāwāti wal-arḍ(i), rabbanā mā khalaqta hāżā bāṭilā(n), subḥānaka fa qinā ‘ażāban-nār(i).
[191] जो खड़े और बैठे और अपनी करवटों पर लेटे हुए अल्लाह को याद करते हैं तथा आसमानों और ज़मीन की रचना में सोच-विचार करते हैं। (वे कहते हैं :) ऐ हमारे पालनहार! तूने यह सब कुछ बेकार115 नहीं रचा है। अतः हमें आग के अज़ाब से बचा ले।
115. अर्थात यह विचित्र रचना तथा व्यवस्था अकारण नहीं, तथा आवश्यक है कि इस जीवन के पश्चात भी कोई जीवन हो जिसमें इस जीवन के कर्मों के परिणाम सामने आएँ।

رَبَّنَآ اِنَّكَ مَنْ تُدْخِلِ النَّارَ فَقَدْ اَخْزَيْتَهٗ ۗ وَمَا لِلظّٰلِمِيْنَ مِنْ اَنْصَارٍ١٩٢
Rabbanā innaka man tudkhilin-nāra faqad akhzaitah(ū), wa mā liẓ-ẓālimīna min anṣār(in).
[192] ऐ हमारे पालनहार! तूने जिसे नरक में डाल दिया, तो वास्तव में तूने उसे अपमानित कर दिया। और ज़ालिमों का कोई सहायक नहीं।

رَبَّنَآ اِنَّنَا سَمِعْنَا مُنَادِيًا يُّنَادِيْ لِلْاِيْمَانِ اَنْ اٰمِنُوْا بِرَبِّكُمْ فَاٰمَنَّا ۖرَبَّنَا فَاغْفِرْ لَنَا ذُنُوْبَنَا وَكَفِّرْ عَنَّا سَيِّاٰتِنَا وَتَوَفَّنَا مَعَ الْاَبْرَارِۚ١٩٣
Rabbanā innanā sami‘nā munādiyay yunādī lil-īmāni an āminū birabbikum fa āmannā, rabbanā fagfir lanā żunūbanā wa kaffir ‘annā sayyi'ātinā wa tawaffanā ma‘al-abrār(i).
[193] ऐ हमारे पालनहार! हमने एक पुकारने वाले116 को ईमान की ओर बुलाते हुए सुना कि अपने पालनहार पर ईमान लाओ, तो हम ईमान ले आए। ऐ हमारे पालनहार! तो अब तू हमारे पापों को क्षमा कर दे तथा हमारी बुराइयों को हमसे दूर कर दे और हमें सदाचारियों के साथ मृत्यु दे।
116. अर्थात अंतिम नबी मुह़म्मद सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम को।

رَبَّنَا وَاٰتِنَا مَا وَعَدْتَّنَا عَلٰى رُسُلِكَ وَلَا تُخْزِنَا يَوْمَ الْقِيٰمَةِ ۗ اِنَّكَ لَا تُخْلِفُ الْمِيْعَادَ١٩٤
Rabbanā wa ātinā mā wa‘attanā ‘alā rusulika wa lā tukhzinā yaumal-qiyāmah(ti), innaka lā tukhliful-mī‘ād(a).
[194] ऐ हमारे पालनहार! और हमें वह चीज़ प्रदान कर जिसका तूने अपने रसूलों के द्वारा हमसे वादा किया है तथा क़यामत के दिन हमें अपमानित न कर। वास्तव में तू अपने वादे के विरुद्ध नहीं करता है।

فَاسْتَجَابَ لَهُمْ رَبُّهُمْ اَنِّيْ لَآ اُضِيْعُ عَمَلَ عَامِلٍ مِّنْكُمْ مِّنْ ذَكَرٍ اَوْ اُنْثٰى ۚ بَعْضُكُمْ مِّنْۢ بَعْضٍ ۚ فَالَّذِيْنَ هَاجَرُوْا وَاُخْرِجُوْا مِنْ دِيَارِهِمْ وَاُوْذُوْا فِيْ سَبِيْلِيْ وَقٰتَلُوْا وَقُتِلُوْا لَاُكَفِّرَنَّ عَنْهُمْ سَيِّاٰتِهِمْ وَلَاُدْخِلَنَّهُمْ جَنّٰتٍ تَجْرِيْ مِنْ تَحْتِهَا الْاَنْهٰرُۚ ثَوَابًا مِّنْ عِنْدِ اللّٰهِ ۗ وَاللّٰهُ عِنْدَهٗ حُسْنُ الثَّوَابِ١٩٥
Fastajāba lahum rabbuhum annī lā uḍī‘u ‘amala ‘āmilim minkum min żakarin au unṡā, ba‘ḍukum mim ba‘ḍ(in), fal-lażīna hājarū wa ukhrijū min diyārihim wa ūżū fī sabīlī wa qātalū wa qutilū la'ukaffiranna ‘anhum sayyi'ātihim wa la udkhilannahum jannātin tajrī min taḥtihal-anhār(u), ṡawābam min ‘indillāh(i), wallāhu ‘indahū ḥusnuṡ-ṡawāb(i).
[195] तो उनके पालनहार ने उनकी प्रार्थना स्वीकार कर ली (और फरमाया) कि मैं किसी नेकी करने वाले की नेकी को नष्ट नहीं करता117, चाहे वह नर हो या नारी। तुम सब आपस में एक-दूसरे से हो। अतः जिन लोगों ने हिजरत की और अपने घरों से निकाले गए और मेरे मार्ग में सताए गए और उन्होंने जिहाद किया और शहीद किए गए, मैं अवश्य उनकी बुराइयाँ उनसे दूर कर दूँगा और अवश्य ही उन्हें ऐसे बागों में दाख़िल करूँगा, जिनके नीचे नहरें बह रही हैं। यह अल्लाह के पास से उनका बदला होगा और अल्लाह ही के पास सबसे अच्छा बदला है।
117. अर्थात अल्लाह का यह नियम है कि वह सत्कर्म अकारथ नहीं करता, उसका प्रतिफल अवश्य देता है।

لَا يَغُرَّنَّكَ تَقَلُّبُ الَّذِيْنَ كَفَرُوْا فِى الْبِلَادِۗ١٩٦
Lā yagurrannaka taqallubul-lażīna kafarū fil-bilād(i).
[196] (ऐ नबी!) नगरों में काफ़िरों का (सुविधा के साथ) चलना-फिरना आपको धोखे में न डाले।

مَتَاعٌ قَلِيْلٌ ۗ ثُمَّ مَأْوٰىهُمْ جَهَنَّمُ ۗوَبِئْسَ الْمِهَادُ١٩٧
Matā‘un qalīl(un), ṡumma ma'wāhum jahannam(u), wa bi'sal-mihād(u).
[197] यह थोड़ी-सी सुख-सामग्री118 है, फिर उनका ठिकाना जहन्नम है और वह बहुत बुरा ठिकाना है!
118. अर्थात सामयिक सांसारिक आनंद है।

لٰكِنِ الَّذِيْنَ اتَّقَوْا رَبَّهُمْ لَهُمْ جَنّٰتٌ تَجْرِيْ مِنْ تَحْتِهَا الْاَنْهٰرُ خٰلِدِيْنَ فِيْهَا نُزُلًا مِّنْ عِنْدِ اللّٰهِ ۗ وَمَا عِنْدَ اللّٰهِ خَيْرٌ لِّلْاَبْرَارِ١٩٨
Lākinil-lażīnattaqau rabbahum lahum jannātun tajrī min taḥtihal-anhāru khālidīna fīhā nuzulam min ‘indillāh(i), wa mā ‘indallāhi khairul lil-abrār(i).
[198] परन्तु जो लोग अपने पालनहार से डरते रहे, उनके लिए ऐसी जन्नतें हैं, जिनके नीचे नहरें बह रही हैं। वे उनमें हमेशा रहेंगे। यह अल्लाह के पास से अतिथि सत्कार होगा। तथा जो कुछ अल्लाह के पास है, वह नेक लोगों के लिए सबसे अच्छा है।

وَاِنَّ مِنْ اَهْلِ الْكِتٰبِ لَمَنْ يُّؤْمِنُ بِاللّٰهِ وَمَآ اُنْزِلَ اِلَيْكُمْ وَمَآ اُنْزِلَ اِلَيْهِمْ خٰشِعِيْنَ لِلّٰهِ ۙ لَا يَشْتَرُوْنَ بِاٰيٰتِ اللّٰهِ ثَمَنًا قَلِيْلًا ۗ اُولٰۤىِٕكَ لَهُمْ اَجْرُهُمْ عِنْدَ رَبِّهِمْ ۗ اِنَّ اللّٰهَ سَرِيْعُ الْحِسَابِ١٩٩
Wa inna min ahlil-kitābi lamay yu'minu billāhi wa mā unzila ilaikum wa mā unzila ilaihim khāsyi‘īna lillāh(i), lā yasytarūna bi'āyātillāhi ṡamanan qalīlā(n), ulā'ika lahum ajruhum ‘inda rabbihim, innallāha sarī‘ul-ḥisāb(i).
[199] और निःसंदेह किताब वालों (यहूदियों और ईसाइयों) में से कुछ लोग ऐसे भी हैं, जो अल्लाह पर ईमान रखते हैं, तथा जो कुछ तुम्हारी ओर उतारा गया और जो स्वयं उनकी ओर उतारा गया है, उसपर भी ईमान रखते हैं। वे अल्लाह के सामने विनम्र रहने वाले हैं। और उसकी आयतों को थोड़ी क़ीमत पर बेचते नहीं हैं।119 उनका बदला उनके रब के पास है। निःसंदेह अल्लाह जल्द ही हिसाब लेने वाला है।
119. अर्थात यह यहूदियों और ईसाइयों का दूसरा समुदाय है, जो अल्लाह पर और उसकी किताबों पर सह़ीह़ प्रकार से ईमान रखता था। और सत्य को स्वीकार करता था। तथा इस्लाम और रसूल तथा मुसलमानों के विरुद्ध साज़िशें नहीं करता था। और चंद टकों के कारण अल्लाह के आदेशों में हेर-फेर नहीं करता था।

يٰٓاَيُّهَا الَّذِيْنَ اٰمَنُوا اصْبِرُوْا وَصَابِرُوْا وَرَابِطُوْاۗ وَاتَّقُوا اللّٰهَ لَعَلَّكُمْ تُفْلِحُوْنَ ࣖ٢٠٠
Yā ayyuhal-lażīna āmanuṣbirū wa ṣābirū wa rabiṭū, wattaqullāha la‘allakum tufliḥūn(a).
[200] ऐ ईमान वालो! तुम धैर्य से काम लो120 और (अपने दुश्मन की तुलना में) अधिक धैर्य दिखाओ, तथा जिहाद के लिए तैयार रहो और अल्लाह से डरते रहो, ताकि तुम सफल हो सको।
120. अर्थात अल्लाह और उसके रसूल की फ़रमाँबरदारी करके और अपनी मनमानी छोड़कर धैर्य करो। और यदि शत्रु से लड़ाई हो जाए तो उसमें सामने आने वाली परेशानियों पर डटे रहना बहुत बड़ा धैर्य है। इसी प्रकार शत्रु के बारे में सदैव चौकन्ना रहना भी बहुत बड़े साहस का काम है। इसीलिए ह़दीस में आया है कि अल्लाह के रास्ते में एक दिन मोर्चे बंद रहना इस दुनिया और इसकी तमाम चीज़ों से उत्तम है। (सह़ीह़ बुख़ारी)