Surah Al-`Ankabut

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بِسْمِ اللّٰهِ الرَّحْمٰنِ الرَّحِيْمِ
الۤمّۤ ۗ١
Alif lām mīm.
[1] अलिफ़, लाम, मीम।

اَحَسِبَ النَّاسُ اَنْ يُّتْرَكُوْٓا اَنْ يَّقُوْلُوْٓا اٰمَنَّا وَهُمْ لَا يُفْتَنُوْنَ٢
Aḥasiban-nāsu ay yutrakū ay yaqūlū āmannā wa hum lā yuftanūn(a).
[2] क्या लोगों ने यह समझ लिया है कि वे केवल यह कहने पर छोड़ दिए जाएँगे कि "हम ईमान लाए" और उनकी परीक्षा न ली जाएगी?

وَلَقَدْ فَتَنَّا الَّذِيْنَ مِنْ قَبْلِهِمْ فَلَيَعْلَمَنَّ اللّٰهُ الَّذِيْنَ صَدَقُوْا وَلَيَعْلَمَنَّ الْكٰذِبِيْنَ٣
Wa laqad fatannal-lażīna min qablihim falaya‘lamannallāhul-lażīna ṣadaqū wa laya‘lamannal-kāżibīn(a).
[3] हालाँकि निःसंदेह हमने उन लोगों की परीक्षा ली जो इनसे पहले थे। अतः अल्लाह उन लोगों को अवश्य जान लेगा जिन्होंने सच कहा, तथा वह उन लोगों को (भी) अवश्य जान लेगा जो झूठे हैं।

اَمْ حَسِبَ الَّذِيْنَ يَعْمَلُوْنَ السَّيِّاٰتِ اَنْ يَّسْبِقُوْنَا ۗسَاۤءَ مَا يَحْكُمُوْنَ٤
Am ḥasibal-lażīna ya‘malūnas-sayyi'āti ay yasbiqūnā, sā'a mā yaḥkumūn(a).
[4] या उन लोगों ने जो बुरे काम करते हैं, यह समझ लिया है कि वे हमसे बचकर निकल जाएँगे?1 बुरा है जो वे निर्णय कर रहे हैं।
1. अर्थात हमें विवश कर देंगे और हमारे नियंत्रण में नहीं आएँगे।

مَنْ كَانَ يَرْجُوْا لِقَاۤءَ اللّٰهِ فَاِنَّ اَجَلَ اللّٰهِ لَاٰتٍ ۗوَهُوَ السَّمِيْعُ الْعَلِيْمُ٥
Man kāna yarjū liqā'allāhi fa'inna ajalallāhi la'āt(in), wa huwas-samī‘ul-‘alīm(u).
[5] जो अल्लाह से मिलने2 की आशा रखता हो, तो निःसंदेह अल्लाह का नियत समय3 अवश्य आने वाला है। और वही सब कुछ सुनने वाला, सब कुछ जानने4 वाला है।
2. अर्थात प्रलय के दिन। 3. अर्थात प्रलय का दिन। 4. अर्थात प्रत्येक के कथन और कर्म को उसका प्रतिकार देने के लिए।

وَمَنْ جَاهَدَ فَاِنَّمَا يُجَاهِدُ لِنَفْسِهٖ ۗاِنَّ اللّٰهَ لَغَنِيٌّ عَنِ الْعٰلَمِيْنَ٦
Wa man jāhada fa'innamā yujāhidu linafsih(ī), innallāha laganiyyun ‘anil-‘ālamīn(a).
[6] और जो व्यक्ति संघर्ष करता है, तो वह अपने ही लिए संघर्ष करता है। निश्चय अल्लाह सारे संसार से बड़ा बेपरवाह है।

وَالَّذِيْنَ اٰمَنُوْا وَعَمِلُوا الصّٰلِحٰتِ لَنُكَفِّرَنَّ عَنْهُمْ سَيِّاٰتِهِمْ وَلَنَجْزِيَنَّهُمْ اَحْسَنَ الَّذِيْ كَانُوْا يَعْمَلُوْنَ٧
Wal-lażīna āmanū wa ‘amiluṣ-ṣāliḥāti lanukaffiranna ‘anhum sayyi'ātihim wa lanajziyannahum aḥsanal-lażī kānū ya‘malūn(a).
[7] तथा जो लोग ईमान लाए और उन्होंने अच्छे कर्म किए, निश्चय हम उनसे उनकी बुराइयाँ अवश्य दूर कर देंगे तथा निश्चय उन्हें उस कार्य का उत्तम बदला अवश्य देंगे जो वे किया करते थे।

وَوَصَّيْنَا الْاِنْسَانَ بِوَالِدَيْهِ حُسْنًا ۗوَاِنْ جَاهَدٰكَ لِتُشْرِكَ بِيْ مَا لَيْسَ لَكَ بِهٖ عِلْمٌ فَلَا تُطِعْهُمَا ۗاِلَيَّ مَرْجِعُكُمْ فَاُنَبِّئُكُمْ بِمَا كُنْتُمْ تَعْمَلُوْنَ٨
Wa waṣṣainal-insāna biwālidaihi ḥusnā(n), wa in jāhadāka litusyrika bī mā laisa laka bihī ‘ilmun falā tuṭi‘humā, ilayya marji‘ukum fa'unabbi'ukum bimā kuntum ta‘malūn(a).
[8] और हमने मनुष्य को अपने माँ-बाप के साथ भलाई करने की ताकीद5 की है और यदि वे तुझपर ज़ोर डालें कि तू मेरे साथ उस चीज़ को साझी ठहराए, जिसका तुझको कोई ज्ञान नहीं, तो उनकी बात न मान।6 तुम्हें मेरी ओर ही लौटकर आना है। फिर मैं तुम्हें बताऊँगा जो तुम किया करते थे।
5. ह़दीस में है कि जब सा'द बिन अबी वक़्क़ास इस्लाम लाए, तो उनकी माँ ने दबाव डाला और शपथ ली कि जब तक इस्लाम न छोड़ दें, वह न उनसे बात करेगी और न खाएगी न पिएगी, इसी पर यह आयत उतरी। (सह़ीह़ मुस्लिम : 1748) 6. इस्लाम का यह नियम है, जैसा कि नबी (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) का कथन है कि "किसी के आदेश का पालन अल्लाह की अवज्ञा में नहीं है।" (मुसनद अह़्मद : 1/66, सिलसिला सह़ीह़ा - अल्बानी : 179)

وَالَّذِيْنَ اٰمَنُوْا وَعَمِلُوا الصّٰلِحٰتِ لَنُدْخِلَنَّهُمْ فِى الصّٰلِحِيْنَ٩
Wal-lażīna āmanū wa ‘amiluṣ-ṣāliḥāti lanudkhilannahum fiṣ-ṣāliḥīn(a).
[9] और जो लोग ईमान लाए तथा अच्छे कर्म किए, हम उन्हें अवश्य सदाचारियों में सम्मिलित करेंगे।

وَمِنَ النَّاسِ مَنْ يَّقُوْلُ اٰمَنَّا بِاللّٰهِ فَاِذَآ اُوْذِيَ فِى اللّٰهِ جَعَلَ فِتْنَةَ النَّاسِ كَعَذَابِ اللّٰهِ ۗوَلَىِٕنْ جَاۤءَ نَصْرٌ مِّنْ رَّبِّكَ لَيَقُوْلُنَّ اِنَّا كُنَّا مَعَكُمْۗ اَوَلَيْسَ اللّٰهُ بِاَعْلَمَ بِمَا فِيْ صُدُوْرِ الْعٰلَمِيْنَ١٠
Wa minan-nāsi may yaqūlu āmannā billāhi fa'iżā ūżiya fillāhi ja‘ala fitnatan-nāsi ka‘ażābillāh(i), wa la'in jā'a naṣrum mir rabbika layaqūlunna innā kunnā ma‘akum, awa laisallāhu bi'a‘lama bimā fī ṣudūril-‘ālamīn(a).
[10] और लोगों में से कुछ ऐसे हैं, जो कहते हैं : हम अल्लाह पर ईमान लाए। फिर जब अल्लाह के मामले में उसे सताया जए, तो लोगों के सताने को अल्लाह की यातना के समान समझ लेता है। और निश्चय यदि आपके पालनहार की ओर से कोई सहायता आ जाए, तो निश्चय ज़रूर कहेंगे : हम तो तुम्हारे साथ थे। और क्या अल्लाह उसे अधिक जानने वाला नहीं, जो सारे संसार के दिलों में है?

وَلَيَعْلَمَنَّ اللّٰهُ الَّذِيْنَ اٰمَنُوْا وَلَيَعْلَمَنَّ الْمُنٰفِقِيْنَ١١
Wa laya‘lamannallāhul-lażīna āmanū wa laya‘lamannal-munāfiqīn(a).
[11] और निश्चय अल्लाह उन लोगों को अवश्य जान लेगा, जो ईमान लाए तथा निश्चय उन्हें भी अवश्य जान लेगा, जो मुनाफ़िक़ हैं।

وَقَالَ الَّذِيْنَ كَفَرُوْا لِلَّذِيْنَ اٰمَنُوا اتَّبِعُوْا سَبِيْلَنَا وَلْنَحْمِلْ خَطٰيٰكُمْۗ وَمَا هُمْ بِحٰمِلِيْنَ مِنْ خَطٰيٰهُمْ مِّنْ شَيْءٍۗ اِنَّهُمْ لَكٰذِبُوْنَ١٢
Wa qālal-lażīna kafarū lil-lażīna āmanuttabi‘ū sabīlanā walnaḥmil khaṭāyākum, wa mā hum biḥāmilīna min khaṭāyāhum min syai'(in), innahum lakāżibūn(a).
[12] और काफ़िरों ने उन लोगों से कहा जो ईमान लाए कि तुम हमारे पथ पर चलो और हम तुम्हारे पापों का बोझ उठा लेंगे। हालाँकि वे कदापि उनके पापों में से कुछ भी उठाने वाले नहीं हैं। बेशक वे निश्चय झूठे हैं।

وَلَيَحْمِلُنَّ اَثْقَالَهُمْ وَاَثْقَالًا مَّعَ اَثْقَالِهِمْ وَلَيُسْـَٔلُنَّ يَوْمَ الْقِيٰمَةِ عَمَّا كَانُوْا يَفْتَرُوْنَ ࣖ١٣
Wa layaḥmilunna aṡqālahum wa aṡqālam ma‘a aṡqālihim wa layus'alunna yaumal-qiyāmati ‘ammā kānū yaftarūn(a).
[13] और निश्चय वे अवश्य अपने बोझ उठाएँगे और अपने बोझों के साथ कई और7 बोझ भी। और निश्चय वे क़ियामत के दिन उसके बारे में अवश्य पूछे जाएँगे, जो वे झूठ गढ़ा करते थे।
7. अर्थात दूसरों को कुपथ करने के पापों का।

وَلَقَدْ اَرْسَلْنَا نُوْحًا اِلٰى قَوْمِهٖ فَلَبِثَ فِيْهِمْ اَلْفَ سَنَةٍ اِلَّا خَمْسِيْنَ عَامًا ۗفَاَخَذَهُمُ الطُّوْفَانُ وَهُمْ ظٰلِمُوْنَ١٤
Wa laqad arsalnā nūḥan ilā qaumihī falabiṡa fīhim alfa sanatin illā khamsīna ‘āmā(n), fa'akhażahumuṭ-ṭūfānu wa hum ẓālimūn(a).
[14] और निःसंदेह हमने8 नूह़ को उसकी जाति की ओर भेजा, तो वह उनके बीच पचास वर्ष कम हज़ार वर्ष9 रहा। फिर उन्हें तूफ़ान ने पकड़ लिया इस स्थिति में कि वे अत्याचारी थे।
8. यहाँ से कुछ नबियों की चर्चा की जा रही है जिन्होंने धैर्य से काम लिया। 9. अर्थात नूह़ (अलैहिस्सलाम) (950) वर्ष तक अपनी जाति में धर्म का प्रचार करते रहे।

فَاَنْجَيْنٰهُ وَاَصْحٰبَ السَّفِيْنَةِ وَجَعَلْنٰهَآ اٰيَةً لِّلْعٰلَمِيْنَ١٥
Fa'anjaināhu wa aṣḥābas-safīnati wa ja‘alnāhā āyatal lil-‘ālamīn(a).
[15] फिर हमने उसे और नाव वालों को बचा लिया और उस (नाव) को सारे संसार के लिए एक निशानी बना दिया।

وَاِبْرٰهِيْمَ اِذْ قَالَ لِقَوْمِهِ اعْبُدُوا اللّٰهَ وَاتَّقُوْهُ ۗذٰلِكُمْ خَيْرٌ لَّكُمْ اِنْ كُنْتُمْ تَعْلَمُوْنَ١٦
Wa ibrāhīma iż qāla liqaumihi‘budullāha wattaqūh(u), żālikum khairul lakum in kuntum ta‘lamūn(a).
[16] तथा इबराहीम को (याद करो) जब उसने अपनी जाति से कहा : अल्लाह की इबादत करो तथा उससे डरो। यह तुम्हारे लिए उत्तम है, यदि तुम जानते हो।

اِنَّمَا تَعْبُدُوْنَ مِنْ دُوْنِ اللّٰهِ اَوْثَانًا وَّتَخْلُقُوْنَ اِفْكًا ۗاِنَّ الَّذِيْنَ تَعْبُدُوْنَ مِنْ دُوْنِ اللّٰهِ لَا يَمْلِكُوْنَ لَكُمْ رِزْقًا فَابْتَغُوْا عِنْدَ اللّٰهِ الرِّزْقَ وَاعْبُدُوْهُ وَاشْكُرُوْا لَهٗ ۗاِلَيْهِ تُرْجَعُوْنَ١٧
Innamā ta‘budūna min dūnillāhi auṡānaw wa takhluqūna ifkā(n), innal-lażīna ta‘budūna min dūnillāhi lā yamlikūna lakum rizqan fabtagū ‘indallāhir-rizqa wa‘budūhu wasykurū lah(ū), ilaihi turja‘ūn(a).
[17] तुम अल्लाह के सिवा कुछ मूर्तियों ही की तो पूजा करते हो और तुम घोर झूठ गढ़ते हो। निःसंदेह अल्लाह के सिवा जिनकी तुम पूजा करते हो, वे तुम्हारे लिए किसी रोज़ी के मालिक नहीं हैं। अतः तुम अल्लाह के पास ही रोज़ी तलाश करो और उसकी इबादत करो और उसका शुक्र करो। तुम उसी की तरफ़ लौटाए जाओगे।

وَاِنْ تُكَذِّبُوْا فَقَدْ كَذَّبَ اُمَمٌ مِّنْ قَبْلِكُمْ ۗوَمَا عَلَى الرَّسُوْلِ اِلَّا الْبَلٰغُ الْمُبِيْنُ١٨
Wa in tukażżibū faqad każżaba umamum min qablikum, wa mā ‘alar-rasūli illal-balāgul-mubīn(u).
[18] और यदि तुम झुठलाते हो, तो तुमसे पहले (भी) बहुत-से समुदायों ने झुठलाया है और रसूल का दायित्व10 स्पष्ट रूप से पहुँचा देने के सिवा कुछ नहीं है।
10. अर्थात् अल्लाह का उपदेश मनवा देना रसूल का कर्तव्य नहीं है।

اَوَلَمْ يَرَوْا كَيْفَ يُبْدِئُ اللّٰهُ الْخَلْقَ ثُمَّ يُعِيْدُهٗ ۗاِنَّ ذٰلِكَ عَلَى اللّٰهِ يَسِيْرٌ١٩
Awalam yarau kaifa yubdi'ullāhul-khalqa ṡumma yu‘īduh(ū), inna żālika ‘alallāhi yasīr(un).
[19] क्या उन्होंने नहीं देखा कि अल्लाह किस प्रकार सृष्टि का आरंभ करता है, फिर उसे दोहराएगा? निश्चय ही यह अल्लाह के लिए अत्यंत सरल है।

قُلْ سِيْرُوْا فِى الْاَرْضِ فَانْظُرُوْا كَيْفَ بَدَاَ الْخَلْقَ ثُمَّ اللّٰهُ يُنْشِئُ النَّشْاَةَ الْاٰخِرَةَ ۗاِنَّ اللّٰهَ عَلٰى كُلِّ شَيْءٍ قَدِيْرٌ ۚ٢٠
Qul sīrū fil-arḍi fanẓurū kaifa bada'al-khalqa ṡummallāhu yunsyi'un-nasy'atal-ākhirah(ta), innallāha ‘alā kulli syai'in qadīr(un).
[20] कह दें : धरती में चलो-फिरो, फिर देखो कि उसने किस प्रकार सृष्टि का आरंभ किया? फिर अल्लाह ही दूसरी बार पैदा11 करेगा। निःसंदेह अल्लाह प्रत्येक वस्तु पर सर्वशक्तिमान है।
11. अर्थात प्रलय के दिन कर्मों का प्रतिफल देने के लिए।

يُعَذِّبُ مَنْ يَّشَاۤءُ وَيَرْحَمُ مَنْ يَّشَاۤءُ ۚوَاِلَيْهِ تُقْلَبُوْنَ٢١
Yu‘ażżibu may yasyā'u wa yarḥamu may yasyā'(u), wa ilaihi tuqlabūn(a).
[21] वह जिसे चाहता है, दंड देता है और जिसपर चाहता है दया करता है, और तुम उसी की ओर लौटाए जाओगे।

وَمَآ اَنْتُمْ بِمُعْجِزِيْنَ فِى الْاَرْضِ وَلَا فِى السَّمَاۤءِ ۖوَمَا لَكُمْ مِّنْ دُوْنِ اللّٰهِ مِنْ وَّلِيٍّ وَّلَا نَصِيْرٍ ࣖ٢٢
Wa mā antum bimu‘jizīna fil-arḍi wa lā fis-samā'(i), wa mā lakum min dūnillāhi miw waliyyiw wa lā naṣīr(in).
[22] और न तुम किसी भी तरह धरती में विवश करने वाले हो और न आकाश में, और न अल्लाह के अलावा तुम्हारा कोई दोस्त है और न कोई मददगार।

وَالَّذِيْنَ كَفَرُوْا بِاٰيٰتِ اللّٰهِ وَلِقَاۤىِٕهٖٓ اُولٰۤىِٕكَ يَىِٕسُوْا مِنْ رَّحْمَتِيْ وَاُولٰۤىِٕكَ لَهُمْ عَذَابٌ اَلِيْمٌ٢٣
Wal-lażīna kafarū bi'āyātillāhi wa liqā'ihī ulā'ika ya'isū mir raḥmatī wa ulā'ika lahum ‘ażābun alīm(un).
[23] तथा जिन लोगों ने अल्लाह की आयतों और उससे मिलने का इनकार किया, वे मेरी दया से निराश हो गए हैं और वही लोग हैं जिनके लिए दर्दनाक यातना है।

فَمَا كَانَ جَوَابَ قَوْمِهٖٓ اِلَّآ اَنْ قَالُوا اقْتُلُوْهُ اَوْ حَرِّقُوْهُ فَاَنْجٰىهُ اللّٰهُ مِنَ النَّارِۗ اِنَّ فِيْ ذٰلِكَ لَاٰيٰتٍ لِّقَوْمٍ يُّؤْمِنُوْنَ٢٤
Famā kāna jawāba qaumihī illā an qaluqtulūhu au ḥarriqūhu fa anjāhullāhu minan-nār(i), inna fī żālika la'āyātil liqaumiy yu'minūn(a).
[24] फिर उस (इबराहीम) की जाति का उत्तर बस यही था कि उन्होंने कहा कि इसे क़त्ल कर दो, या इसे जला दो। तो अल्लाह ने उसे आग से बचा लिया। निःसंदेह इसमें उन लोगों के लिए बहुत-सी निशानियाँ हैं जो ईमान रखते हैं।

وَقَالَ اِنَّمَا اتَّخَذْتُمْ مِّنْ دُوْنِ اللّٰهِ اَوْثَانًاۙ مَّوَدَّةَ بَيْنِكُمْ فِى الْحَيٰوةِ الدُّنْيَا ۚ ثُمَّ يَوْمَ الْقِيٰمَةِ يَكْفُرُ بَعْضُكُمْ بِبَعْضٍ وَّيَلْعَنُ بَعْضُكُمْ بَعْضًا ۖوَّمَأْوٰىكُمُ النَّارُ وَمَا لَكُمْ مِّنْ نّٰصِرِيْنَۖ٢٥
Wa qāla innamattakhażtum min dūnillāhi auṡānam mawaddata bainikum fil-ḥayātid-dun-yā, ṡumma yaumal-qiyāmati yakfuru ba‘ḍukum biba‘ḍiw wa yal‘anu ba‘ḍukum ba‘ḍā(n), wa ma'wākumun nāru wa mā lakum min nāṣirīn(a).
[25] और उसने कहा : बात यही है कि तुमने अल्लाह के सिवा मूर्तियाँ बना रखी हैं, दुनिया के जीवन में पारस्परिक दोस्ती के कारण। फिर क़ियामत के दिन तुम एक-दूसरे का इनकार करोगे तथा तुम एक-दूसरे पर ला'नत करोगे। और तुम्हारा ठिकाना आग ही है और तुम्हारे लिए कोई मदद करने वाले नहीं।

۞ فَاٰمَنَ لَهٗ لُوْطٌۘ وَقَالَ اِنِّيْ مُهَاجِرٌ اِلٰى رَبِّيْ ۗاِنَّهٗ هُوَ الْعَزِيْزُ الْحَكِيْمُ٢٦
Fa āmana lahū lūṭ(un), wa qāla innī muhājirun ilā rabbī, innahū huwal-‘azīzul-ḥakīm(u).
[26] तो लूत12 उसपर ईमान ले आया। और उस (इबराहीम) ने कहा : निःसंदेह मैं अपने रब13 की ओर हिजरत करने वाला हूँ। निश्चय वही सब पर प्रभुत्वशाली, पूर्ण हिकमत वाला है।
12. लूत अलैहिस्सलाम इब्राहीम अलैहिस्सलाम के भतीजे थे, जो उनपर ईमान लाए। 13. अर्थात अल्लाह के आदेशानुसार शाम जा रहा हूँ।

وَوَهَبْنَا لَهٗٓ اِسْحٰقَ وَيَعْقُوْبَ وَجَعَلْنَا فِيْ ذُرِّيَّتِهِ النُّبُوَّةَ وَالْكِتٰبَ وَاٰتَيْنٰهُ اَجْرَهٗ فِى الدُّنْيَا ۚوَاِنَّهٗ فِى الْاٰخِرَةِ لَمِنَ الصّٰلِحِيْنَ٢٧
Wa wahabnā lahū isḥāqa wa ya‘qūba wa ja‘alnā fī żurriyyatihin nubuwwata wal-kitāba wa ātaināhu ajrahū fid-dun-yā, wa innahū fil-ākhirati laminaṣ-ṣāliḥīn(a).
[27] और हमने उसे इसह़ाक़ तथा याक़ूब प्रदान किया। तथा हमने उसकी संतान में नुबुव्वत तथा किताब रख दी। और हमने उसे दुनिया में उसका बदला दिया और निःसंदेह वह आख़िरत में निश्चय नेक लोगों में से है।

وَلُوْطًا اِذْ قَالَ لِقَوْمِهٖٓ اِنَّكُمْ لَتَأْتُوْنَ الْفَاحِشَةَ ۖمَا سَبَقَكُمْ بِهَا مِنْ اَحَدٍ مِّنَ الْعٰلَمِيْنَ٢٨
Wa lūṭan iż qāla liqaumihī innakum lata'tūnal-fāḥisyata mā sabaqakum bihā min aḥadim minal-‘ālamīn(a).
[28] तथा लूत को (याद करो) जब उसने अपनी जाति से कहा : तुम तो वह निर्लज्जता का कार्य करते हो, जो तुमसे पहले दुनिया वालों में से किसी ने नहीं किया।

اَىِٕنَّكُمْ لَتَأْتُوْنَ الرِّجَالَ وَتَقْطَعُوْنَ السَّبِيْلَ ەۙ وَتَأْتُوْنَ فِيْ نَادِيْكُمُ الْمُنْكَرَ ۗفَمَا كَانَ جَوَابَ قَوْمِهٖٓ اِلَّآ اَنْ قَالُوا ائْتِنَا بِعَذَابِ اللّٰهِ اِنْ كُنْتَ مِنَ الصّٰدِقِيْنَ٢٩
A'innakum lata'tūnar-rijāla wa taqṭa‘ūnas-sabīl(a), wa ta'tūna fī nādīkumul-munkar(a), famā kāna jawāba qaumihī illā an qālu'tinā bi‘ażābillāhi in kunta minaṣ-ṣādiqīn(a).
[29] क्या तुम सचमुच पुरुषों के पास जाते हो और (यात्रियों का) रास्ता काटते हो तथा अपनी सभा में बुरे काम करते हो? तो उसकी जाति का उत्तर इसके सिवा कुछ न था कि उन्होंने कहा : हम पर अल्लाह की यातना ले आ, यदि तू सच्चा है।

قَالَ رَبِّ انْصُرْنِيْ عَلَى الْقَوْمِ الْمُفْسِدِيْنَ ࣖ٣٠
Qāla rabbinṣurnī ‘alal-qaumil-mufsidīn(a).
[30] उसने कहा : ऐ मेरे पालनहार! इन बिगाड़ पैदा करने वाले लोगों के विरुद्ध मेरी सहायता कर।

وَلَمَّا جَاۤءَتْ رُسُلُنَآ اِبْرٰهِيْمَ بِالْبُشْرٰىۙ قَالُوْٓا اِنَّا مُهْلِكُوْٓا اَهْلِ هٰذِهِ الْقَرْيَةِ ۚاِنَّ اَهْلَهَا كَانُوْا ظٰلِمِيْنَ ۚ٣١
Wa lammā jā'at rusulunā ibrāhīma bil-busyrā, qālū innā muhlikū ahli hāżihil-qaryah(ti), inna ahlahā kānū ẓālimīn(a).
[31] और जब हमारे भेजे हुए (फ़रिश्ते) इबराहीम के पास शुभ-सूचना लेकर आए, तो उन्होंने कहा : निश्चय हम इस बस्ती के वासियों को विनष्ट करने वाले हैं। निःसंदेह इसके निवासी अत्याचारी रहे हैं।

قَالَ اِنَّ فِيْهَا لُوْطًا ۗقَالُوْا نَحْنُ اَعْلَمُ بِمَنْ فِيْهَا ۖ لَنُنَجِّيَنَّهٗ وَاَهْلَهٗٓ اِلَّا امْرَاَتَهٗ كَانَتْ مِنَ الْغٰبِرِيْنَ٣٢
Qāla inna fīhā lūṭā(n), qālū naḥnu a‘lamu biman fīhā, lanunajjiyannahū wa ahlahū illamra'atahū kānat minal-gābirīn(a).
[32] उसने कहा : उसमें तो लूत है। उन्होंने कहा : हम उसे अधिक जानने वाले हैं, जो उसमें है। निश्चय हम उसे और उसके घर वालों को अवश्य बचा लेंगे, सिवाय उसकी पत्नी के। वह पीछे रहने वालों में से है।

وَلَمَّآ اَنْ جَاۤءَتْ رُسُلُنَا لُوْطًا سِيْۤءَ بِهِمْ وَضَاقَ بِهِمْ ذَرْعًا وَّقَالُوْا لَا تَخَفْ وَلَا تَحْزَنْ ۗاِنَّا مُنَجُّوْكَ وَاَهْلَكَ اِلَّا امْرَاَتَكَ كَانَتْ مِنَ الْغٰبِرِيْنَ٣٣
Wa lammā an jā'at rusulunā lūṭan sī'a bihim wa ḍāqa bihim żar‘aw wa qālū lā takhaf wa lā taḥzan, innā munajjūka wa ahlaka illamra'ataka kānat minal-gābirīn(a).
[33] और जब हमारे भेजे हुए (फ़रिश्ते) लूत के पास आए, तो वह उनके आने से उदास हुआ और उनके कारण उसका मन व्याकुल14 हो गया। और उन्होंने कहा : न डरो और न शोक करो। निःसंदेह हम तुम्हें और तुम्हारे घर वालों को बचाने वाले हैं, सिवाय तुम्हारी पत्नी के, वह पीछो रह जाने वालों में से है।
14. क्योंकि लूत (अलैहिस्सलाम) को अपनी जाति की निर्लज्जता का ज्ञान था।

اِنَّا مُنْزِلُوْنَ عَلٰٓى اَهْلِ هٰذِهِ الْقَرْيَةِ رِجْزًا مِّنَ السَّمَاۤءِ بِمَا كَانُوْا يَفْسُقُوْنَ٣٤
Innā munzilūna ‘alā ahli hāżihil-qaryati rijzam minas-samā'i bimā kānū yafsuqūn(a).
[34] निःसंदेह हम इस बस्ती वालों पर आकाश से एक यातना उतारने वाले हैं, इस कारण कि वे अवज्ञा किया करते थे।

وَلَقَدْ تَّرَكْنَا مِنْهَآ اٰيَةً ۢ بَيِّنَةً لِّقَوْمٍ يَّعْقِلُوْنَ٣٥
Wa laqad taraknā minhā āyatam bayyinatal liqaumiy ya‘qilūn(a).
[35] तथा निःसंदेह हमने उससे उन लोगों के लिए एक स्पष्ट निशानी छोड़ दी, जो समझ-बूझ रखते हैं।

وَاِلٰى مَدْيَنَ اَخَاهُمْ شُعَيْبًاۙ فَقَالَ يٰقَوْمِ اعْبُدُوا اللّٰهَ وَارْجُوا الْيَوْمَ الْاٰخِرَ وَلَا تَعْثَوْا فِى الْاَرْضِ مُفْسِدِيْنَ ۖ٣٦
Wa ilā madyana akhāhum syu‘aibā(n), faqāla yā qaumi‘budullāha warjul-yaumal-ākhira wa lā ta‘ṡau fil-arḍi mufsidīn(a).
[36] तथा मदयन की ओर उनके भाई शुऐब को (भेजा), तो उसने कहा : ऐ मेरी जाति के लोगो! अल्लाह की इबादत करो तथा आख़िरत के दिन15 की आशा रखो और धरती में बिगाड़ पैदा करने वाले बनकर उपद्रव न मचाओ।
15. अर्थात सांसारिक जीवन ही को सब कुछ न समझो, परलोक के अच्छे परिणाम की भी आशा रखो और सत्कर्म करो।

فَكَذَّبُوْهُ فَاَخَذَتْهُمُ الرَّجْفَةُ فَاَصْبَحُوْا فِيْ دَارِهِمْ جٰثِمِيْنَ ۙ٣٧
Fa każżabūhu fa'akhażathumur-rajfatu fa'aṣbaḥū fī dārihim jāṡimīn(a).
[37] तो उन्होंने उसे झुठला दिया। अंततः उन्हें भूकंप ने पकड़ लिया, फिर वे अपने घरों में औंधे मुँह पड़े रह गए।

وَعَادًا وَّثَمُوْدَا۟ وَقَدْ تَّبَيَّنَ لَكُمْ مِّنْ مَّسٰكِنِهِمْۗ وَزَيَّنَ لَهُمُ الشَّيْطٰنُ اَعْمَالَهُمْ فَصَدَّهُمْ عَنِ السَّبِيْلِ وَكَانُوْا مُسْتَبْصِرِيْنَ ۙ٣٨
Wa ‘ādaw wa ṡamūda wa qat tabayyana lakum mim masākinihim, wa zayyana lahumusy-syaiṭānu a‘mālahum faṣaddahum ‘anis-sabīli wa kānū mustabṣirīn(a).
[38] तथा हमने आद और समूद को भी विनष्ट कर दिया और उनके आवासों से तुम्हारे लिए (उनका विनाश) स्पष्ट हो चुका है। और शैतान ने उनके लिए उनके कर्मों को शोभनीय बना दिया था। अतः उसने उन्हें सीधे रास्ते से रोक दिया था, हालाँकि वे बहुत समझ-बूझ वाले थे।

وَقَارُوْنَ وَفِرْعَوْنَ وَهَامٰنَۗ وَلَقَدْ جَاۤءَهُمْ مُّوْسٰى بِالْبَيِّنٰتِ فَاسْتَكْبَرُوْا فِى الْاَرْضِ وَمَا كَانُوْا سٰبِقِيْنَ ۚ٣٩
Wa qārūna wa fir‘auna wa hāmān(a), wa laqad jā'ahum mūsā bil-bayyināti fastakbarū fil-arḍi wa mā kānū sābiqīn(a).
[39] तथा क़ारून और फ़िरऔन और हामान को (विनष्ट किया) और निःसंदेह उनके पास मूसा खुली निशानियाँ लेकर आए, तो उन्होंने धरती में अभिमान किया और वे बच निकलने16 वाले न थे।
16. अर्थात हमारी पकड़ से नहीं बच सकते थे।

فَكُلًّا اَخَذْنَا بِذَنْۢبِهٖۙ فَمِنْهُمْ مَّنْ اَرْسَلْنَا عَلَيْهِ حَاصِبًا ۚوَمِنْهُمْ مَّنْ اَخَذَتْهُ الصَّيْحَةُ ۚوَمِنْهُمْ مَّنْ خَسَفْنَا بِهِ الْاَرْضَۚ وَمِنْهُمْ مَّنْ اَغْرَقْنَاۚ وَمَا كَانَ اللّٰهُ لِيَظْلِمَهُمْ وَلٰكِنْ كَانُوْٓا اَنْفُسَهُمْ يَظْلِمُوْنَ٤٠
Fakullan akhażnā biżambih(ī), faminhum man arsalnā ‘alaihi ḥāṣibā(n), wa minhum man akhażathuṣ-ṣaiḥah(tu), wa minhum man khasafnā bihil-arḍ(a), wa minhum man agraqnā, wa mā kānallāhu liyaẓlimahum wa lākin kānū anfusahum yaẓlimūn(a).
[40] तो हमने हर एक को उसके पाप के कारण पकड़ लिया। फिर उनमें से कुछ पर हमने पथराव करने वाली हवा17 भेजी, और उनमें से कुछ को चीख18 ने पकड़ लिया, और उनमें से कुछ को हमने धरती में धँसा19 दिया और उनमें से कुछ को हमने डुबो20 दिया। तथा अल्लाह ऐसा नहीं था कि उनपर अत्याचार करे, परंतु वे स्वयं अपने आपपर अत्याचार करते थे।
17. अर्थात लूत की जाति पर। 18. अर्थात सालेह़ और शुऐब (अलैहिमस्सलाम) की जाति को। 19. जैसे क़ारून को। 20. अर्थात नूह़ तथा मूसा (अलैहिमस्सलाम) की जातियों को।

مَثَلُ الَّذِيْنَ اتَّخَذُوْا مِنْ دُوْنِ اللّٰهِ اَوْلِيَاۤءَ كَمَثَلِ الْعَنْكَبُوْتِۚ اِتَّخَذَتْ بَيْتًاۗ وَاِنَّ اَوْهَنَ الْبُيُوْتِ لَبَيْتُ الْعَنْكَبُوْتِۘ لَوْ كَانُوْا يَعْلَمُوْنَ٤١
Maṡalul-lażīnattakhażū min dūnillāhi auliyā'a kamaṡalil-‘ankabūt(i), ittakhażat baitā(n), wa inna auhanal-buyūti labaitul-‘ankabūt(i), lau kānū ya‘lamūn(a).
[41] उन लोगों का उदाहरण जिन्होंने अल्लाह के सिवा अन्य संरक्षक बना रखे हैं, मकड़ी के उदाहरण जैसा है, जिसने एक घर बनाया। हालाँकि, निःसंदेह सब घरों से कमज़ोर21 तो मकड़ी का घर है, अगर वे जानते होते।
21. जिस प्रकार मकड़ी का घर उसकी रक्षा नहीं करता, वैसे ही अल्लाह की यातना के समय इन जातियों के पूज्य उनकी रक्षा नहीं कर सके।

اِنَّ اللّٰهَ يَعْلَمُ مَا يَدْعُوْنَ مِنْ دُوْنِهٖ مِنْ شَيْءٍۗ وَهُوَ الْعَزِيْزُ الْحَكِيْمُ٤٢
Innallāha ya‘lamu mā yad‘ūna min dūnihī min syai'(in), wa huwal-‘azīzul-ḥakīm(u).
[42] निश्चय ही अल्लाह जानता है जिसे वे उसे छोड़कर पुकारते हैं कोई भी चीज़ हो, और वही सबपर प्रभुत्वशाली, पूर्ण हिकमत वाला है।

وَتِلْكَ الْاَمْثَالُ نَضْرِبُهَا لِلنَّاسِۚ وَمَا يَعْقِلُهَآ اِلَّا الْعٰلِمُوْنَ٤٣
Wa tilkal-amṡālu naḍribuhā lin-nās(i), wa mā ya‘qiluhā illal-‘ālimūn(a).
[43] और ये उदाहरण हैं, जो हम लोगों के लिए प्रस्तुत करते हैं और इन्हें केवल जानने वाले ही समझते हैं।

خَلَقَ اللّٰهُ السَّمٰوٰتِ وَالْاَرْضَ بِالْحَقِّۗ اِنَّ فِيْ ذٰلِكَ لَاٰيَةً لِّلْمُؤْمِنِيْنَ ࣖ ۔٤٤
Khalaqallāhus-samāwāti wal-arḍa bil-ḥaqq(i), inna fī żālika la'āyatal lil-mu'minīn(a).
[44] अल्लाह ने आकाशों तथा धरती को सत्य के साथ पैदा किया। निःसंदेह इसमें ईमान वालों के लिए निश्चय बड़ी निशानी है।22
22. अर्थात इस संसार की उत्पत्ति तथा व्यवस्था ही इसका प्रमाण है कि अल्लाह के सिवा कोई सत्य पूज्य नहीं है।

اُتْلُ مَآ اُوْحِيَ اِلَيْكَ مِنَ الْكِتٰبِ وَاَقِمِ الصَّلٰوةَۗ اِنَّ الصَّلٰوةَ تَنْهٰى عَنِ الْفَحْشَاۤءِ وَالْمُنْكَرِ ۗوَلَذِكْرُ اللّٰهِ اَكْبَرُ ۗوَاللّٰهُ يَعْلَمُ مَا تَصْنَعُوْنَ٤٥
Utlu mā ūḥiya ilaika minal-kitābi wa aqimiṣ-ṣalāh(ta), innaṣ-ṣalāta tanhā ‘anil-faḥsyā'i wal-munkar(i), wa lażikrullāhi akbar(u), wallāhu ya‘lamu mā taṣna‘ūn(a).
[45] आप उस पुस्तक को पढ़ें, जो आपकी ओर वह़्य (प्रकाशना) की गई है तथा नमाज़ क़ायम करें। निःसंदेह नमाज़ निर्लज्जता और बुराई से रोकती है। और निश्चय अल्लाह का स्मरण सबसे बड़ा है और अल्लाह जानता है23, जो कुछ तुम करते हो।
23. अर्थात जो भला-बुरा तुम करते हो, उसका तुम्हें प्रतिफल देगा।

۞ وَلَا تُجَادِلُوْٓا اَهْلَ الْكِتٰبِ اِلَّا بِالَّتِيْ هِيَ اَحْسَنُۖ اِلَّا الَّذِيْنَ ظَلَمُوْا مِنْهُمْ وَقُوْلُوْٓا اٰمَنَّا بِالَّذِيْٓ اُنْزِلَ اِلَيْنَا وَاُنْزِلَ اِلَيْكُمْ وَاِلٰهُنَا وَاِلٰهُكُمْ وَاحِدٌ وَّنَحْنُ لَهٗ مُسْلِمُوْنَ٤٦
Wa lā tujādilū ahlal-kitābi illā bil-latī hiya aḥsan(u), illal-lażīna ẓalamū minhum wa qūlū āmannā bil-lażī unzila ilainā wa unzila ilaikum wa ilāhunā wa ilāhukum wāḥiduw wa naḥnu lahū muslimūn(a).
[46] और तुम किताब वालों24 से केवल ऐसे तरीक़े से वाद-विवाद करो, जो सबसे उत्तम हो, सिवाय उन लोगों के जिन्होंने उनमें से ज़ुल्म किया। तथा तुम कहो : हम ईमान लाए उसपर, जो हमारी ओर उतारा गया और तुम्हारी ओर उतारा गया, तथा हमारा पूज्य और तुम्हारा पूज्य एक ही है25 और हम उसी के आज्ञाकारी हैं।26
24. किताब वालों से अभिप्रेत यहूदी तथा ईसाई हैं। 25. अर्थात उसका कोई साझी नहीं। 26. अतः तुम भी उसकी आज्ञा के आधीन हो जाओ और सभी आकाशीय पुस्तकों को क़ुरआन सहित स्वीकार करो।

وَكَذٰلِكَ اَنْزَلْنَآ اِلَيْكَ الْكِتٰبَۗ فَالَّذِيْنَ اٰتَيْنٰهُمُ الْكِتٰبَ يُؤْمِنُوْنَ بِهٖۚ وَمِنْ هٰٓؤُلَاۤءِ مَنْ يُّؤْمِنُ بِهٖۗ وَمَا يَجْحَدُ بِاٰيٰتِنَآ اِلَّا الْكٰفِرُوْنَ٤٧
Wa każālika anzalnā ilaikal-kitāb(a), fal-lażīna ātaināhumul-kitāba yu'minūna bih(ī), wa min hā'ulā'i may yu'minu bih(ī), wa mā yajḥadu bi'āyātinā illal-kāfirūn(a).
[47] और इसी प्रकार, हमने आपकी ओर यह पुस्तक उतारी है। तो जिन लोगों को हमने (आपसे पहले) पुस्तक प्रदान की है, वे इसपर ईमान लाते हैं।27 और इन (मुश्रिकों) में से भी कुछ28 ऐसे हैं, जो इस (क़ुरआन) पर ईमान लाते हैं। और हमारी आयतों का इनकार वही लोग करते हैं, जो काफ़िर हैं।
27. अर्थात अह्ले किताब में से जो अपनी पुस्तकों के सच्चे अनुयायी हैं। 28.अर्थात मक्का वासियों में से।

وَمَا كُنْتَ تَتْلُوْا مِنْ قَبْلِهٖ مِنْ كِتٰبٍ وَّلَا تَخُطُّهٗ بِيَمِيْنِكَ اِذًا لَّارْتَابَ الْمُبْطِلُوْنَ٤٨
Wa mā kunta tatlū min qablihī min kitābiw wa lā takhuṭṭuhū biyamīnika iżal lartābal-mubṭilūn(a).
[48] और आप इससे पहले न कोई पुस्तक पढ़ते थे और न उसे अपने दाहिने हाथ से लिखते थे। (यदि ऐसा होता) तो असत्यवादी अवश्य संदेह करते।29
29. अर्थात यह संदेह करते कि आप (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) ने ये बातें आदि ग्रंथों से सीख लीं या लिख ली हैं। आप तो निरक्षर थे लिखना पढ़ना जानते ही नहीं थे, तो फिर आपके नबी होने और क़ुरआन के अल्लाह की ओर से अवतरित किए जाने में क्या संदेह हो सकता है।

بَلْ هُوَ اٰيٰتٌۢ بَيِّنٰتٌ فِيْ صُدُوْرِ الَّذِيْنَ اُوْتُوا الْعِلْمَۗ وَمَا يَجْحَدُ بِاٰيٰتِنَآ اِلَّا الظّٰلِمُوْنَ٤٩
Bal huwa āyātum bayyinātun fī ṣudūril-lażīna ūtul-‘ilm(a), wa mā yajḥadu bi'āyātinā illaẓ-ẓālimūn(a).
[49] बल्कि यह (क़ुरआन) स्पष्ट आयतें हैं, उन लोगों के सीनों में जिन्हें ज्ञान दिया गया है तथा हमारी आयतों का इनकार वही लोग करते हैं, जो अत्याचारी हैं।

وَقَالُوْا لَوْلَآ اُنْزِلَ عَلَيْهِ اٰيٰتٌ مِّنْ رَّبِّهٖ ۗ قُلْ اِنَّمَا الْاٰيٰتُ عِنْدَ اللّٰهِ ۗوَاِنَّمَآ اَنَا۠ نَذِيْرٌ مُّبِيْنٌ٥٠
Wa qālū lau lā unzila ‘alaihi āyātum mir rabbih(ī), qul innamal-āyātu ‘indallāh(i), wa innamā ana nażīrum mubīn(un).
[50] तथा उन्होंने कहा : उसपर उसके पालनहार की ओर से निशानियाँ क्यों नहीं उतारी गईं? आप कह दें : निशानियाँ तो अल्लाह ही के पास30 हैं और मैं तो केवल स्पष्ट रूप से सावधान करने वाला हूँ।
30. अर्थात उसे उतारना न उतारना मेरे अधिकार में नहीं, मैं तो अपने कर्तव्य का पालन कर रहा हूँ।

اَوَلَمْ يَكْفِهِمْ اَنَّآ اَنْزَلْنَا عَلَيْكَ الْكِتٰبَ يُتْلٰى عَلَيْهِمْ ۗاِنَّ فِيْ ذٰلِكَ لَرَحْمَةً وَّذِكْرٰى لِقَوْمٍ يُّؤْمِنُوْنَ ࣖ٥١
Awalam yakfihim annā anzalnā ‘alaikal-kitāba yutlā ‘alaihim, inna fī żālika laraḥmataw wa żikrā liqaumiy yu'minūn(a).
[51] क्या उनके लिए यह पर्याप्त नहीं है कि हमने आपपर यह पुस्तक (क़ुरआन) उतारी, जो उनके सामने पढ़ी जाती है। निःसंदेह इसमें उन लोगों के लिए बड़ी दया और उपदेश है, जो ईमान रखते हैं।

قُلْ كَفٰى بِاللّٰهِ بَيْنِيْ وَبَيْنَكُمْ شَهِيْدًاۚ يَعْلَمُ مَا فِى السَّمٰوٰتِ وَالْاَرْضِۗ وَالَّذِيْنَ اٰمَنُوْا بِالْبَاطِلِ وَكَفَرُوْا بِاللّٰهِ اُولٰۤىِٕكَ هُمُ الْخٰسِرُوْنَ٥٢
Qul kafā billāhi bainī wa bainakum syahīdā(n), ya‘lamu mā fis-samāwāti wal-arḍ(i), wal-lażīna āmanū bil-bāṭili wa kafarū billāhi ulā'ika humul-khāsirūn(a).
[52] आप कह दें : अल्लाह मेरे और तुम्हारे बीच गवाह के रूप में काफ़ी31 है। वह जानता है, जो कुछ आकाशों और धरती में है। तथा जो लोग असत्य पर ईमान लाए और उन्होंने अल्लाह का इनकार किया, वही घाटा उठाने वाले हैं।
31. अर्थात मेरे नबी होने पर।

وَيَسْتَعْجِلُوْنَكَ بِالْعَذَابِۗ وَلَوْلَآ اَجَلٌ مُّسَمًّى لَّجَاۤءَهُمُ الْعَذَابُۗ وَلَيَأْتِيَنَّهُمْ بَغْتَةً وَّهُمْ لَا يَشْعُرُوْنَ٥٣
Wa yasta‘jilūnaka bil-‘ażāb(i), wa lau lā ajalum musammal lajā'ahumul-‘ażāb(u), wa laya'tiyannahum bagtataw wa hum lā yasy‘urūn(a).
[53] और वे32 आपसे यातना के लिए जल्दी मचा रहे हैं। और यदि (उसका) एक नियत समय न होता, तो उनपर यातना अवश्य आ जाती। और निश्चय वह उनपर अचानक आएगी और उन्हें ख़बर तक न होगी।
32. अर्थात मक्का के काफ़िर।

يَسْتَعْجِلُوْنَكَ بِالْعَذَابِۗ وَاِنَّ جَهَنَّمَ لَمُحِيْطَةٌ ۢبِالْكٰفِرِيْنَۙ٥٤
Yasta‘jilūnaka bil-‘ażāb(i), wa inna jahannama lamuḥīṭatum bil-kāfirīn(a).
[54] वे आपसे यातना के लिए जल्दी मचा33 रहे है, हालाँकि निःसंदेह जहन्नम निश्चय काफ़िरों को घेरने वाला34 है।
33. अर्थात संसार ही में उपहास स्वरूप यातना की माँग कर रहे हैं। 34. अर्थात परलोक में।

يَوْمَ يَغْشٰىهُمُ الْعَذَابُ مِنْ فَوْقِهِمْ وَمِنْ تَحْتِ اَرْجُلِهِمْ وَيَقُوْلُ ذُوْقُوْا مَا كُنْتُمْ تَعْمَلُوْنَ٥٥
Yauma yagsyāhumul-‘ażābu min fauqihim wa min taḥti arjulihim wa yaqūlu żūqū mā kuntum ta‘malūn(a).
[55] जिस दिन यातना उन्हें उनके ऊपर से और उनके पाँव के नीचे से ढाँप लेगी और अल्लाह कहेगा : चखो उसका मज़ा जो तुम किया करते थे।

يٰعِبَادِيَ الَّذِيْنَ اٰمَنُوْٓا اِنَّ اَرْضِيْ وَاسِعَةٌ فَاِيَّايَ فَاعْبُدُوْنِ٥٦
Yā ‘ibādiyal-lażīna āmanū inna arḍī wāsi‘atun fa iyyāya fa‘budūn(i).
[56] ऐ मेरे बंदो जो ईमान लाए हो! निःसंदेह मेरी धरती विशाल है। अतः तुम मेरी ही इबादत35 करो।
35. अर्थात किसी धरती में अल्लाह की इबादत न कर सको, तो वहाँ से निकल जाओ जैसा कि आरंभिक युग में मक्का के काफ़िरों ने अल्लाह की इबादत से रोक दिया, तो मुसलमान ह़ब्शा और फिर मदीना चले गए।

كُلُّ نَفْسٍ ذَاۤىِٕقَةُ الْمَوْتِۗ ثُمَّ اِلَيْنَا تُرْجَعُوْنَ٥٧
Kullu nafsin żā'iqatul-maut(i), ṡumma ilainā turja‘ūn(a).
[57] प्रत्येक प्राणी मौत का स्वाद चखने वाला है, फिर तुम हमारी ही ओर लौटाए36 जाओगे।
36. अर्थात अपने कर्मों का फल भोगन के लिए।

وَالَّذِيْنَ اٰمَنُوْا وَعَمِلُوا الصّٰلِحٰتِ لَنُبَوِّئَنَّهُمْ مِّنَ الْجَنَّةِ غُرَفًا تَجْرِيْ مِنْ تَحْتِهَا الْاَنْهٰرُ خٰلِدِيْنَ فِيْهَاۗ نِعْمَ اَجْرُ الْعٰمِلِيْنَۖ٥٨
Wal-lażīna āmanū wa ‘amiluṣ-ṣāliḥāti lanubawwi'annahum minal-jannati gurafan tajrī min taḥtihal-anhāru khālidīna fīhā, ni‘ma ajrul-‘āmilīn(a).
[58] तथा जो लोग ईमान लाए और उन्होंने अच्छे कार्य किए, हम उन्हें अवश्य ही जन्नत के ऊँचे भवनों में जगह देंगे, जिनके नीचे से नहरें बहती हैं, वे उनमें सदावासी होंगे। यह उन कर्म करने वालों का क्या ही अच्छा बदला है!

الَّذِيْنَ صَبَرُوْا وَعَلٰى رَبِّهِمْ يَتَوَكَّلُوْنَ٥٩
Al-lażīna ṣabarū wa ‘alā rabbihim yatawakkalūn(a).
[59] जिन्होंने धैर्य से काम लिया तथा अपने पालनहार ही पर भरोसा रखते हैं।

وَكَاَيِّنْ مِّنْ دَاۤبَّةٍ لَّا تَحْمِلُ رِزْقَهَاۖ اللّٰهُ يَرْزُقُهَا وَاِيَّاكُمْ وَهُوَ السَّمِيْعُ الْعَلِيْمُ٦٠
Wa ka'ayyim min dābbatil lā taḥmilu rizqahā, allāhu yarzuquhā wa iyyākum, wa huwas-samī‘ul-‘alīm(u).
[60] कितने ही जीव हैं, जो अपनी रोज़ी नहीं उठा सकते।37 अल्लाह ही उन्हें रोज़ी देता है और तुम्हें भी! और वह सब कुछ सुनने वाला, सब कुछ जानने वाला है।
37. ह़दीस में है कि यदि तुम अल्लाह पर पूरा भरोसा करो, तो वह तुम्हें पक्षियों के समान जीविका देगा जो सवेरे भूखा जाते हैं और शाम को अघा कर आते हैं। (तिर्मिज़ी : 2344, यह ह़दीस ह़सन सह़ीह़ है।)

وَلَىِٕنْ سَاَلْتَهُمْ مَّنْ خَلَقَ السَّمٰوٰتِ وَالْاَرْضَ وَسَخَّرَ الشَّمْسَ وَالْقَمَرَ لَيَقُوْلُنَّ اللّٰهُ ۗفَاَنّٰى يُؤْفَكُوْنَ٦١
Wa la'in sa'altahum man khalaqas-samāwāti wal-arḍa wa sakhkharasy-syamsa wal-qamara layaqūlunnallāh(u), fa'annā yu'fakūn(a).
[61] और निश्चय यदि आप उनसे पूछें कि आकाशों और धरती को किसने पैदा किया और (किसने) सूर्य और चाँद को वशीभूत किया? तो वे अवश्य कहेंगे कि अल्लाह ने। तो फिर वे कहाँ बहकाए जा रहे हैं?

اَللّٰهُ يَبْسُطُ الرِّزْقَ لِمَنْ يَّشَاۤءُ مِنْ عِبَادِهٖ وَيَقْدِرُ لَهٗ ۗاِنَّ اللّٰهَ بِكُلِّ شَيْءٍ عَلِيْمٌ٦٢
Allāhu yabsuṭur-rizqa limay yasyā'u min ‘ibādihī wa yaqdiru lah(ū), innallāha bikulli syai'in ‘alīm(un).
[62] अल्लाह अपने बंदों में से जिसके लिए चाहता है जीविका विस्तृत कर देता है और जिसके लिए चाहता है तंग कर देता है। निःसंदेह अल्लाह हर चीज़ को अच्छी तरह जानने वाला है।

وَلَىِٕنْ سَاَلْتَهُمْ مَّنْ نَّزَّلَ مِنَ السَّمَاۤءِ مَاۤءً فَاَحْيَا بِهِ الْاَرْضَ مِنْۢ بَعْدِ مَوْتِهَا لَيَقُوْلُنَّ اللّٰهُ ۙقُلِ الْحَمْدُ لِلّٰهِ ۗبَلْ اَكْثَرُهُمْ لَا يَعْقِلُوْنَ ࣖ٦٣
Wa la'in sa'altahum man nazzala minas-samā'i mā'an fa'aḥyā bihil-arḍa mim ba‘di mautihā layaqūlunnallāh(u), qulil-ḥamdu lillāh(i), bal akṡaruhum lā ya‘qilūn(a).
[63] और निश्चय यदि आप उनसे पूछें कि किसने आकाश से पानी उतारा, फिर उसके द्वारा धरती को, उसके मुर्दा हो जाने के बाद जीवित किया? तो वे अवश्य कहेंगे कि अल्लाह ने। आप कह दें कि सब प्रशंसा अल्लाह के लिए है। बल्कि उनमें से अधिकतर लोग नहीं समझते।38
38. अर्थात उन्हें जब यह स्वीकार है कि रचयिता अल्लाह है और जीवन के साधन की व्यवस्था भी वही करता है, तो फिर इबादत (पूजा) भी उसी की करनी चाहिए और उसकी इबादत तथा उसके शुभ गुणों में किसी को उसका साझी नहीं बनाना चाहिए। यह तो मूर्खता की बात है कि रचयिता तथा जीवन के साधनों की व्यवस्था तो अल्लाह करे और उसकी इबादत में अन्य को साझी बनाया जाए।

وَمَا هٰذِهِ الْحَيٰوةُ الدُّنْيَآ اِلَّا لَهْوٌ وَّلَعِبٌۗ وَاِنَّ الدَّارَ الْاٰخِرَةَ لَهِيَ الْحَيَوَانُۘ لَوْ كَانُوْا يَعْلَمُوْنَ٦٤
Wa mā hāżihil-ḥayātud-dun-yā illā lahwuw wa la‘ib(un), wa innad-dāral-ākhirata lahiyal-ḥayawān(u), lau kānū ya‘lamūn(a).
[64] और दुनिया का यह जीवन39 केवल मनोरंजन और खेल है। और निःसंदेह आखिरत का घर ही निश्चय वास्तविक जीवन है, यदि वे जानते होते।
39. अर्थात जिस सांसारिक जीवन का संबंध अल्लाह से न हो, तो उसका सुख सामयिक है। वास्तविक तथा स्थायी जीवन तो परलोक का है। अतः उसके लिए प्रयास करना चाहिए।

فَاِذَا رَكِبُوْا فِى الْفُلْكِ دَعَوُا اللّٰهَ مُخْلِصِيْنَ لَهُ الدِّيْنَ ەۚ فَلَمَّا نَجّٰىهُمْ اِلَى الْبَرِّ اِذَا هُمْ يُشْرِكُوْنَۙ٦٥
Fa'iżā rakibū fil-fulki da‘awullāha mukhliṣīna lahud-dīn(a), falammā najjāhum ilal-barri iżā hum yusyrikūn(a).
[65] फिर जब वे नाव पर सवार होते हैं, तो अल्लाह को, उसके लिए धर्म को विशुद्ध करते हुए, पुकारते हैं। फिर जब वह उन्हें बचाकर थल तक ले आता है, तो शिर्क करने लगते हैं।

لِيَكْفُرُوْا بِمَآ اٰتَيْنٰهُمْۙ وَلِيَتَمَتَّعُوْاۗ فَسَوْفَ يَعْلَمُوْنَ٦٦
Liyakfurū bimā ātaināhum wa liyatamatta‘ū, fasaufa ya‘lamūn(a).
[66] ताकि जो कुछ हमने उन्हें प्रदान किया है, उसकी नाशुक्री करें, और ताकि वे (जीवन का) लाभ उठाएँ। तो शीघ्र ही उन्हें पता चल जाएगा।

اَوَلَمْ يَرَوْا اَنَّا جَعَلْنَا حَرَمًا اٰمِنًا وَّيُتَخَطَّفُ النَّاسُ مِنْ حَوْلِهِمْۗ اَفَبِالْبَاطِلِ يُؤْمِنُوْنَ وَبِنِعْمَةِ اللّٰهِ يَكْفُرُوْنَ٦٧
Awalam yarau annā ja‘alnā ḥaraman āminaw wa yutakhaṭṭafun-nāsu min ḥaulihim, afabil-bāṭili yu'minūna wa bini‘matillāhi yakfurūn(a).
[67] क्या उन्होंने नहीं देखा कि हमने (उनके लिए) एक सुरक्षित व शांतिमय हरम बनाया है, जबकि उनके आस-पास से लोग उचक लिए जाते हैं? तो क्या वे असत्य पर ईमान लाते हैं और अल्लाह की नेमत की नाशुक्री करते हैं?

وَمَنْ اَظْلَمُ مِمَّنِ افْتَرٰى عَلَى اللّٰهِ كَذِبًا اَوْ كَذَّبَ بِالْحَقِّ لَمَّا جَاۤءَهٗ ۗ اَلَيْسَ فِيْ جَهَنَّمَ مَثْوًى لِّلْكٰفِرِيْنَ٦٨
Wa man aẓlamu mimmaniftarā ‘alallāhi każiban au każżaba bil-ḥaqqi lammā jā'ah(ū), alaisa fī jahannama maṡwal lil-kāfirīn(a).
[68] तथा उससे अधिक अत्याचारी कौन है, जो अल्लाह पर झूठ गढ़े या जब सच उसके पास आ जाए, तो उसे झुठला दे? क्या (ऐसे) काफ़िरों का ठिकाना जहन्नम में नहीं है?

وَالَّذِيْنَ جَاهَدُوْا فِيْنَا لَنَهْدِيَنَّهُمْ سُبُلَنَاۗ وَاِنَّ اللّٰهَ لَمَعَ الْمُحْسِنِيْنَ ࣖ٦٩
Wal-lażīna jāhadū fīnā lanahdiyannahum subulanā, wa innallāha lama‘al-muḥsinīn(a).
[69] तथा जिन लोगों ने हमारी ख़ातिर भरपूर प्रयास किया, हम अवश्य ही उन्हें अपने मार्ग दिखा देंगे40 और निःसंदेह अल्लाह सदाचारियों के साथ है।
40. अर्थात अपनी राह पर चलने की अधिक क्षमता प्रदान करेंगे।