Surah An-Nur
بِسْمِ اللّٰهِ الرَّحْمٰنِ الرَّحِيْمِ
سُوْرَةٌ اَنْزَلْنٰهَا وَفَرَضْنٰهَا وَاَنْزَلْنَا فِيْهَآ اٰيٰتٍۢ بَيِّنٰتٍ لَّعَلَّكُمْ تَذَكَّرُوْنَ١
Sūratun anzalnāhā wa faraḍnāhā wa anzalnā fīhā āyātim bayyinātil la‘allakum tażakkarūn(a).
[1]
यह एक महान सूरत है, हमने इसे उतारा तथा हमने इसे अनिवार्य किया और हमने इसमें स्पष्ट आयतें उतारीं हैं; ताकि तुम शिक्षा ग्रहण करो।
اَلزَّانِيَةُ وَالزَّانِيْ فَاجْلِدُوْا كُلَّ وَاحِدٍ مِّنْهُمَا مِائَةَ جَلْدَةٍ ۖوَّلَا تَأْخُذْكُمْ بِهِمَا رَأْفَةٌ فِيْ دِيْنِ اللّٰهِ اِنْ كُنْتُمْ تُؤْمِنُوْنَ بِاللّٰهِ وَالْيَوْمِ الْاٰخِرِۚ وَلْيَشْهَدْ عَذَابَهُمَا طَاۤىِٕفَةٌ مِّنَ الْمُؤْمِنِيْنَ٢
Az-zāniyatu waz-zānī fajlidū kulla wāḥidim minhumā mi'ata jaldah(tan), wa lā ta'khużkum bihimā ra'fatun fī dīnillāhi in kuntum tu'minūna billāhi wal-yaumil-ākhir(i), walyasyhad ‘ażābahumā ṭā'ifatum minal-mu'minīn(a).
[2]
जो व्यभिचार1 करने वाली महिला है और जो व्यभिचार करने वाला पुरुष है, दोनों में से प्रत्येक को सौ कोड़े मारो। और तुम्हें अल्लाह के धर्म के विषय में उन दोनों पर कोई तरस न आए2, यदि तुम अल्लाह तथा अंतिम दिन पर ईमान रखते हो। और आवश्यक है कि उनके दंड के समय ईमानवालों का एक समूह उपस्थित3 हो।
1. व्यभिचार से संबंधित आरंभिक आदेश सूरतुन्-निसा, आयत : 15 में आ चुका है। अब यहाँ निश्चित रूप से उसका दंड निर्धारित कर दिया गया है। आयत में वर्णित सौ कोड़े दंड अविवाहित व्यभिचारी तथा व्याभिचारिणी के लिए हैं। आप (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) अविवाहित व्यभिचारी को सौ कोड़े मारने का और एक वर्ष देश से निकाल देने का आदेश देते थे। (सह़ीह़ बुख़ारी : 6831) किंतु यदि दोनों में कोई विवाहित है, तो उसके लिए रज्म (पत्थरों से मार डालने) का दंड है। आप सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ने फरमाया : मुझसे (शिक्षा) ले लो, मुझसे (शिक्षा) ले लो। अल्लाह ने उनके लिए राह बना दी। अविवाहित के लिए सौ कोड़े और विवाहित के लिए रज्म है। (सह़ीह़ मुस्लिम : 1690, अबूदाऊद : 4418) इत्यादि। आप सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ने अपने युग में रज्म का दंड दिया, जिसके सह़ीह़ ह़दीसों में कई उदाहरण हैं। और ख़ुलफ़ा-ए-राशिदीन के युग में भी यही दंड दिया गया। और इसपर मुस्लिम समुदाय का इज्मा (सर्वसम्मति) है। व्यभिचार ऐसा घोर पाप है, जिससे पारिवारिक व्यवस्था अस्त-व्यस्त हो जाती है। पति-पत्नि को एक-दूसरे पर विश्वास नहीं रह जाता। और यदि कोई शिशु जन्म ले, तो उसके पालन-पोषण की गंभीर समस्या सामने आती है। इसीलिये इस्लाम ने इसका घोर दंड रखा है ताकि समाज और समाज वालों को शांत और सुरक्षित रखा जाए। 2. अर्थात दया भाव के कारण दंड देने से न रुक जाओ। 3. ताकि लोग दंड से शिक्षा लें।
اَلزَّانِيْ لَا يَنْكِحُ اِلَّا زَانِيَةً اَوْ مُشْرِكَةً ۖوَّالزَّانِيَةُ لَا يَنْكِحُهَآ اِلَّا زَانٍ اَوْ مُشْرِكٌ ۚوَحُرِّمَ ذٰلِكَ عَلَى الْمُؤْمِنِيْنَ٣
Az-zānī lā yankiḥu illā zāniyatan au musyrikah(tan), waz-zāniyatu lā yankiḥuhā illā zānin au musyrik(un), wa ḥurrima żālika ‘alal-mu'minīn(a).
[3]
व्यभिचारी नहीं विवाह4 करेगा, परंतु किसी व्यभिचारिणी अथवा बहुदेववादी स्त्री से, तथा व्यभिचारिणी से नहीं विवाह करेगा, परंतु कोई व्यभिचारी अथवा बहुदेववादी। और यह ईमान वालों पर हराम (निषिद्ध) कर दिया गया है।
4. आयत का अर्थ यह है कि साधारणतः कुकर्मी विवाह के लिए अपने ही जैसों की ओर आकर्षित होते हैं। अतः व्यभिचारिणी, व्यभिचारी ही से विवाह करने में रूचि रखती है। इसमें ईमानवालों को सतर्क किया गया है कि जिस प्रकार व्यभिचार महा पाप है उसी प्रकार व्यभिचारियों के साथ विवाह संबंध स्थापित करना भी निषिद्ध है। कुछ भाष्यकारों ने यहाँ विवाह का अर्थ व्यभिचार लिया है।
وَالَّذِيْنَ يَرْمُوْنَ الْمُحْصَنٰتِ ثُمَّ لَمْ يَأْتُوْا بِاَرْبَعَةِ شُهَدَاۤءَ فَاجْلِدُوْهُمْ ثَمٰنِيْنَ جَلْدَةً وَّلَا تَقْبَلُوْا لَهُمْ شَهَادَةً اَبَدًاۚ وَاُولٰۤىِٕكَ هُمُ الْفٰسِقُوْنَ ۙ٤
Wal-lażīna yarmūnal-muḥṣanāti ṡumma lam ya'tū bi'arba‘ati syuhadā'a fajlidūhum ṡamānīna jaldataw wa lā taqbalū lahum syahādatan abadā(n), wa ulā'ika humul-fāsiqūn(a).
[4]
तथा जो लोग सच्चरित्रा स्त्रियों पर व्यभिचार का आरोप5 लगाएँ, फिर चार गवाह न लाएँ, तो उन्हें अस्सी कोड़े मारो और उनकी कोई गवाही कभी स्वीकार न करो और वही अवज्ञाकारी लोग हैं।
5. इसमें किसी पवित्र पुरुष या स्त्री पर व्यभिचार का कलंक लगाने का दंड बताया गया है कि जो पुरुष अथवा स्त्री किसी पर कलंक लगाए, तो वह चार ऐसे साक्षी लाए जिन्होंने उनको व्यभिचार करते अपनी आँखों से देखा हो। और यदि वह प्रमाण स्वरूप चार साक्षी न लाए तो उस के तीन आदेश हैः (क) उसे अस्सी कोड़ लगाये जाएँ। (ख) उसका साक्ष्य कभी स्वीकार न किया जाए। (ग) वह अल्लाह तथा लोगों के समक्ष दुराचारी है।
اِلَّا الَّذِيْنَ تَابُوْا مِنْۢ بَعْدِ ذٰلِكَ وَاَصْلَحُوْاۚ فَاِنَّ اللّٰهَ غَفُوْرٌ رَّحِيْمٌ٥
Illal-lażīna tābū mim ba‘di żālika wa aṣlaḥū, fa innallāha gafūrur raḥīm(un).
[5]
परंतु जो लोग इसके बाद तौबा करें तथा सुधार कर लें, तो निश्चय अल्लाह अत्यंत क्षमाशील, असीम दयावान् है।6
6. सभी विद्वानों की सर्वसम्मति है कि क्षमा याचना से उसे दंड (अस्सी कोड़े) से क्षमा नहीं मिलेगी। बल्कि क्षमा के पश्चात् वह अवज्ञाकारी नहीं रह जाएगा, तथा उसका साक्ष्य स्वीकार किया जाएगा। अधिकतर विद्वानों का यही विचार है।
وَالَّذِيْنَ يَرْمُوْنَ اَزْوَاجَهُمْ وَلَمْ يَكُنْ لَّهُمْ شُهَدَاۤءُ اِلَّآ اَنْفُسُهُمْ فَشَهَادَةُ اَحَدِهِمْ اَرْبَعُ شَهٰدٰتٍۢ بِاللّٰهِ ۙاِنَّهٗ لَمِنَ الصّٰدِقِيْنَ٦
Wal-lażīna yarmūna azwājahum wa lam yakul lahum syuhadā'u illā anfusuhum fa syahādatu aḥadihim arba‘u syahādātim billāh(i), innahū laminaṣ-ṣādiqīn(a).
[6]
और जो लोग अपनी पत्नियों पर व्यभिचार का आरोप लगाएँ और उनके पास स्वयं के अलावा कोई गवाह न हों7, तो उनमें से हर एक की गवाही यह है कि अल्लाह की क़सम खाकर चार बार यह गवाही दे कि निःसंदेह वह सच्चों में से है।8
7. अर्थात चार गवाह। 8. अर्थात आरोप लगाने में।
وَالْخَامِسَةُ اَنَّ لَعْنَتَ اللّٰهِ عَلَيْهِ اِنْ كَانَ مِنَ الْكٰذِبِيْنَ٧
Wal-khāmisatu anna la‘natallāhi ‘alaihi in kāna minal-kāżibīn(a).
[7]
और पाँचवीं बार यह (कहे) कि उसपर अल्लाह की धिक्कार हो, यदि वह झूठों में से हो।
وَيَدْرَؤُا عَنْهَا الْعَذَابَ اَنْ تَشْهَدَ اَرْبَعَ شَهٰدٰتٍۢ بِاللّٰهِ اِنَّهٗ لَمِنَ الْكٰذِبِيْنَ ۙ٨
Wa yadra'u ‘anhal-‘ażāba an tasyhada arba‘a syahādātim billāhi innahū laminal-kāżibīn(a).
[8]
और उस (स्त्री) से दंड9 को यह बात हटाएगी कि वह अल्लाह की क़सम खाकर चार बार गवाही दे कि निःसंदेह वह (व्यक्ति) झूठों में से है।
9. अर्थात व्यभिचार का दंड।
وَالْخَامِسَةَ اَنَّ غَضَبَ اللّٰهِ عَلَيْهَآ اِنْ كَانَ مِنَ الصّٰدِقِيْنَ٩
Wal-khāmisata anna gaḍaballāhi ‘alaihā in kāna minaṣ-ṣādiqīn(a).
[9]
और पाँचवीं बार यह (कहे) कि उसपर अल्लाह का प्रकोप हो, यदि वह (व्यक्ति) सच्चों में से है।10
10. शरीअत की परिभाषा में इसे "लिआन" कहा जाता है। यह लिआन न्यायालय में अथवा न्यायालय के अधिकारी के समक्ष होना चाहिए। लिआन की माँग पुरुष की ओर से भी हो सकती है और स्त्री की ओर से भी। लिआन के पश्चात् दोनों सदा के लिए अलग हो जाएँगे। लिआन का अर्थ होता होता है : धिक्कार। और इसमें पति और पत्नी दोनों अपने को झूठा होने की अवस्था में धिक्कार का पात्र स्वीकार करते हैं। यदि पति अपनी पत्नी के गर्भ का इनकार करे, तब भी लिआन होता है। (बुख़ारी : 4746, 4747, 4748)
وَلَوْلَا فَضْلُ اللّٰهِ عَلَيْكُمْ وَرَحْمَتُهٗ وَاَنَّ اللّٰهَ تَوَّابٌ حَكِيْمٌ ࣖ١٠
Wa lau lā faḍlullāhi ‘alaikum wa raḥmatuhū wa annallāha tawwābun ḥakīm(un).
[10]
और यदि तुमपर अल्लाह का अनुग्रह और उसकी दया न होती और यह कि अल्लाह बहुत तौबा स्वीकार करने वाला, पूर्ण हिकमत वाला है (तो झूठे को दुनिया ही में सज़ा मिल जाती)।
اِنَّ الَّذِيْنَ جَاۤءُوْ بِالْاِفْكِ عُصْبَةٌ مِّنْكُمْۗ لَا تَحْسَبُوْهُ شَرًّا لَّكُمْۗ بَلْ هُوَ خَيْرٌ لَّكُمْۗ لِكُلِّ امْرِئٍ مِّنْهُمْ مَّا اكْتَسَبَ مِنَ الْاِثْمِۚ وَالَّذِيْ تَوَلّٰى كِبْرَهٗ مِنْهُمْ لَهٗ عَذَابٌ عَظِيْمٌ١١
Innal-lażīna jā'ū bil-ifki ‘uṣbatum minkum, lā taḥsabūhu syarral lakum, bal huwa khairul lakum, likullimri'im minhum maktasaba minal-iṡm(i), wal-lażī tawallā kibrahū minhum lahū ‘ażābun ‘aẓīm(un).
[11]
निःसंदेह जो लोग झूठ गढ़11 लाए हैं, वे तुम्हारे ही भीतर के एक समूह हैं। तुम उसे अपने लिए बुरा मत समझो, बल्कि वह तुम्हारे लिए बेहतर12 है। उनमें से प्रत्येक आदमी के लिए गुनाह में से उतना ही भाग है, जितना उसने कमाया। और उनमें से जो उसके बड़े भाग का ज़िम्मेदार13 बना, उसके लिए बहुत बड़ी यातना है।
11. यहाँ से आयत 26 तक उस मिथ्यारोपण का वर्णन किया गया है, जो मुनाफ़िक़ों ने नबी सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम की पत्नी आयशा (रज़ियल्लाहु अन्हा) पर बनी मुस्तलिक़ के युद्ध में वापसी के समय लगाया था। इस युद्ध से वापसी के समय नबी सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ने एक स्थान पर पड़ाव किया। अभी कुछ रात रह गई थी कि यात्रा की तैयारी होने लगी। उस समय आयशा (रज़ियल्लाहु अन्हा) उस स्थान से दूर शौच के लिए गईं और उनका हार टूटकर गिर गया। वह उसकी खोज में रह गईं। सेवकों ने उनकी पालकी को सवारी पर यह समझ कर लाद दिया कि वह उसमें होंगी। वह आईं तो वहीं लेट गईं कि कोई अवश्य खोजने आएगा। थोड़ी देर में सफ़वान पुत्र मुअत्तल (रज़ियल्लाहु अन्हु) जो यात्रियों के पीछे उन की गिरी-पड़ी चीज़ों को संभालने का काम करते थे, वहाँ आ गए। और इन्ना लिल्लाह पढ़ी, जिससे आप जाग गईं और उनको पहचान लिया। क्योंकि उन्होंने पर्दें का आदेश आने से पहले उन्हें देखा था। उन्होंने आपको अपने ऊँट पर सवार किया और स्वयं पैदल चलकर यात्रियों से जा मिले। मुनाफ़िक़ों ने इस अवसर को उचित जाना, और उनके मुखिया अब्दुल्लाह बिन उबय्य ने कहा कि यह एकांत अकारण नहीं था। और आयशा (रज़ियल्लाहु अन्हा) को सफ़वान के साथ कलंकित कर दिया। और उस के षड्यंत्र में कुछ सच्चे मुसलमान भी आ गए। इसका पूरा विवरण ह़दीस में मिलेगा। (देखिए सह़ीह़ बुख़ारी : 4750) 12. अर्थ यह है कि इस दुःख पर तुम्हें प्रतिफल मिलेगा। 13. इससे तात्पर्य अब्दुल्लाह बिन उबय्य मुनाफ़िक़ों का मुखिया है।
لَوْلَآ اِذْ سَمِعْتُمُوْهُ ظَنَّ الْمُؤْمِنُوْنَ وَالْمُؤْمِنٰتُ بِاَنْفُسِهِمْ خَيْرًاۙ وَّقَالُوْا هٰذَآ اِفْكٌ مُّبِيْنٌ١٢
Lau lā iż sami‘tumūhu ẓannal-mu'minūna wal-mu'minātu bi'anfusihim khairā(n), wa qālū hāżā ifkum mubīn(un).
[12]
क्यों न जब तुमने उसे सुना, तो ईमान वाले पुरुषों तथा ईमान वाली स्त्रियों ने अपने बारे में अच्छा गुमान किया और कहा कि यह स्पष्ट मिथ्यारोपण है?
لَوْلَا جَاۤءُوْ عَلَيْهِ بِاَرْبَعَةِ شُهَدَاۤءَۚ فَاِذْ لَمْ يَأْتُوْا بِالشُّهَدَاۤءِ فَاُولٰۤىِٕكَ عِنْدَ اللّٰهِ هُمُ الْكٰذِبُوْنَ١٣
Lau lā jā'ū ‘alaihi bi'arba‘ati syuhadā'(a), fa iż lam ya'tū bisy-syuhadā'i fa ulā'ika ‘indallāhi humul-kāżibūn(a).
[13]
वे इसपर चार गवाह क्यों न लाए? फिर जब वे गवाह नहीं लाए, तो निःसंदेह अल्लाह के निकट वही झूठे हैं।
وَلَوْلَا فَضْلُ اللّٰهِ عَلَيْكُمْ وَرَحْمَتُهٗ فِى الدُّنْيَا وَالْاٰخِرَةِ لَمَسَّكُمْ فِيْ مَآ اَفَضْتُمْ فِيْهِ عَذَابٌ عَظِيْمٌ١٤
Wa lau lā faḍlullāhi ‘alaikum wa raḥmatuhū fid-dun-yā wal-ākhirati lamassakum fīmā afaḍtum fīhi ‘ażābun ‘aẓīm(un).
[14]
और यदि तुमपर दुनिया एवं आख़िरत में अल्लाह का अनुग्रह और उसकी दया न होती, तो निश्चय उस बात के कारण जिसमें तुम पड़ गए, तुमपर बहुत बड़ी यातना आ जाती।
اِذْ تَلَقَّوْنَهٗ بِاَلْسِنَتِكُمْ وَتَقُوْلُوْنَ بِاَفْوَاهِكُمْ مَّا لَيْسَ لَكُمْ بِهٖ عِلْمٌ وَّتَحْسَبُوْنَهٗ هَيِّنًاۙ وَّهُوَ عِنْدَ اللّٰهِ عَظِيْمٌ ۚ١٥
Iż talaqqaunahū bi'alsinatikum wa taqūlūna bi'afwāhikum mā laisa lakum bihī ‘ilmuw wa taḥsabūnahū hayyinā(n), wa huwa ‘indallāhi ‘aẓīm(un).
[15]
जब तुम इसे एक-दूसरे से अपनी ज़बानों के साथ ले रहे थे और अपने मुँहों से वह बात कह रहे थे, जिसका तुम्हें कोई ज्ञान नहीं तथा तुम इसे साधारण समझते थे, हालाँकि वह अल्लाह के निकट बहुत बड़ी थी।
وَلَوْلَآ اِذْ سَمِعْتُمُوْهُ قُلْتُمْ مَّا يَكُوْنُ لَنَآ اَنْ نَّتَكَلَّمَ بِهٰذَاۖ سُبْحٰنَكَ هٰذَا بُهْتَانٌ عَظِيْمٌ١٦
Wa lau lā iż sami‘tumūhu qultum mā yakūnu lanā an natakallama bihāżā, subḥānaka hāżā buhtānun ‘aẓīm(un).
[16]
और जब तुमने इसे सुना, तो क्यों नहीं कहा : हमारे लिए उचित नहीं है कि हम यह बात बोलें? (ऐ अल्लाह!) तू पवित्र है! यह तो बहुत बड़ा आरोप है।
يَعِظُكُمُ اللّٰهُ اَنْ تَعُوْدُوْا لِمِثْلِهٖٓ اَبَدًا اِنْ كُنْتُمْ مُّؤْمِنِيْنَ ۚ١٧
Ya‘iẓukumullāhu an ta‘ūdū limiṡlihī abadan in kuntum mu'minīn(a).
[17]
अल्लाह तुम्हें नसीहत करता है कि पुनः कभी ऐसा न करना, यदि तुम ईमान वाले हो।
وَيُبَيِّنُ اللّٰهُ لَكُمُ الْاٰيٰتِۗ وَاللّٰهُ عَلِيْمٌ حَكِيْمٌ١٨
Wa yubayyinullāhu lakumul-āyāt(i), wallāhu ‘alīmun ḥakīm(un).
[18]
और अल्लाह तुम्हारे लिए आयतें खोलकर बयान करता है तथा अल्लाह सब कुछ जानने वाला, पूर्ण हिकमत वाला है।
اِنَّ الَّذِيْنَ يُحِبُّوْنَ اَنْ تَشِيْعَ الْفَاحِشَةُ فِى الَّذِيْنَ اٰمَنُوْا لَهُمْ عَذَابٌ اَلِيْمٌۙ فِى الدُّنْيَا وَالْاٰخِرَةِۗ وَاللّٰهُ يَعْلَمُ وَاَنْتُمْ لَا تَعْلَمُوْنَ١٩
Innal-lażīna yuḥibbūna an tasyī‘al-fāḥisyatu fil-lażīna āmanū lahum ‘ażābun alīm(un), fid-dun-yā wal-ākhirah(ti), wallāhu ya‘lamu wa antum lā ta‘lamūn(a).
[19]
निःसंदेह जो लोग चाहते हैं कि ईमान वालों के अंदर अश्लीलता14 फैले, उनके लिए दुनिया एवं आख़िरत में दुःखदायी यातना है, तथा अल्लाह जानता15 है और तुम नहीं जानते।
14. अश्लीलता, व्यभिचार और व्यभिचार के निर्मूल आरोप दोनों को कहा गया है। 15. उनके मिथ्यारोपण को।
وَلَوْلَا فَضْلُ اللّٰهِ عَلَيْكُمْ وَرَحْمَتُهٗ وَاَنَّ اللّٰهَ رَءُوْفٌ رَّحِيْمٌ ࣖ٢٠
Wa lau lā faḍlullāhi ‘alaikum wa raḥmatuhū wa annallāha ra'ūfur raḥīm(un).
[20]
और यदि तुमपर अल्लाह का अनुग्रह तथा उसकी दया न होती, और यह कि अल्लाह अत्यंत करुणामय, असीम दयावान् है (तो आरोप लगाने वालों पर तुरंत यातना आ जाती)
۞ يٰٓاَيُّهَا الَّذِيْنَ اٰمَنُوْا لَا تَتَّبِعُوْا خُطُوٰتِ الشَّيْطٰنِۗ وَمَنْ يَّتَّبِعْ خُطُوٰتِ الشَّيْطٰنِ فَاِنَّهٗ يَأْمُرُ بِالْفَحْشَاۤءِ وَالْمُنْكَرِۗ وَلَوْلَا فَضْلُ اللّٰهِ عَلَيْكُمْ وَرَحْمَتُهٗ مَا زَكٰى مِنْكُمْ مِّنْ اَحَدٍ اَبَدًاۙ وَّلٰكِنَّ اللّٰهَ يُزَكِّيْ مَنْ يَّشَاۤءُۗ وَاللّٰهُ سَمِيْعٌ عَلِيْمٌ٢١
Yā ayyuhal-lażīna āmanū lā tattabi‘ū khuṭuwātisy-syaiṭān(i), wa may yattabi‘ khuṭuwātisy-syaiṭāni fa innahū ya'muru bil-faḥsyā'i wal-munkar(i), wa lau lā faḍlullāhi ‘alaikum wa raḥmatuhū mā zakā minkum min aḥadin abadā(n), wa lākinnallāha yuzakkī may yasyā'(u), wallāhu samī‘un ‘alīm(un).
[21]
ऐ ईमान वालो! शैतान के पदचिह्नों पर न चलो और जो शैतान के पदचिह्नों पर चले, तो वह तो अश्लीलता तथा बुराई का आदेश देता है। और यदि तुमपर अल्लाह का अनुग्रह और उसकी दया न होती, तो तुममें से कोई भी कभी पवित्र न होता। परंतु अल्लाह जिसे चाहता है, पवित्र करता है, और अल्लाह सब कुछ सुनने वाला, सब कुछ जानने वाला है।
وَلَا يَأْتَلِ اُولُو الْفَضْلِ مِنْكُمْ وَالسَّعَةِ اَنْ يُّؤْتُوْٓا اُولِى الْقُرْبٰى وَالْمَسٰكِيْنَ وَالْمُهٰجِرِيْنَ فِيْ سَبِيْلِ اللّٰهِ ۖوَلْيَعْفُوْا وَلْيَصْفَحُوْاۗ اَلَا تُحِبُّوْنَ اَنْ يَّغْفِرَ اللّٰهُ لَكُمْ ۗوَاللّٰهُ غَفُوْرٌ رَّحِيْمٌ٢٢
Wa lā ya'tali ulul-faḍli minkum was-sa‘ati ay yu'tū ulil-qurbā wal-masākīna wal-muhājirīna fī sabīlillāh(i), wal ya‘fū wal yaṣfaḥū, alā tuḥibbūna ay yagfirallāhu lakum, wallāhu gafūrur raḥīm(un).
[22]
और तुममें से प्रतिष्ठा और विस्तार वाले (धनी) लोग, नातेदारों और निर्धनों और अल्लाह की राह में हिजरत करने वालों को देने से क़सम न खा लें। और उन्हें चाहिए कि क्षमा कर दें तथा जाने दें! क्या तुम पसंद नहीं करते कि अल्लाह तुम्हें क्षमा कर दे?! और अल्लाह अति क्षमाशील, अत्यंत दयावान् है।
16. आदरणीय मिसतह़ पुत्र उसासा (रज़ियल्लाहु अन्हु) निर्धन और आदरणीय अबू बक्र (रज़ियल्लाहु अन्हु) के समीपवर्ती थे। और वह उनकी सहायता किया करते थे। वह भी आदरणीय आظशा (रज़ियल्लाहु अन्हा) के विरुद्ध आक्षेप में लिप्त हो गए थे। अतः आदरणीय आयशा के निर्दोष होने के बारे में आयतें उतरने के पश्चात् आदरणीय अबू बक्र ने शपथ ली कि अब वह मिसतह़ की कोई सहायता नहीं करेंगे। उसी पर यह आयत उतरी। और उन्होंने कहा : निश्चय मैं चाहता हूँ कि अल्लाह मुझे क्षमा कर दे। और पुनः उनकी सहायता करने लगे। (सह़ीह़ बुख़ारी : 4750)
اِنَّ الَّذِيْنَ يَرْمُوْنَ الْمُحْصَنٰتِ الْغٰفِلٰتِ الْمُؤْمِنٰتِ لُعِنُوْا فِى الدُّنْيَا وَالْاٰخِرَةِۖ وَلَهُمْ عَذَابٌ عَظِيْمٌ ۙ٢٣
Innal-lażīna yarmūnal-muḥṣanātil-gāfilātil-mu'mināti lu‘inū fid-dun-yā wal-ākhirah(ti), wa lahum ‘ażābun ‘aẓīm(un).
[23]
निःसंदेह जो लोग सच्चरित्रा, भोली-भाली ईमान वाली स्त्रियों पर आरोप लगाते हैं, वे दुनिया एवं आख़िरत में धिक्कार दिए गए और उनके लिए बड़ी यातना है।
يَّوْمَ تَشْهَدُ عَلَيْهِمْ اَلْسِنَتُهُمْ وَاَيْدِيْهِمْ وَاَرْجُلُهُمْ بِمَا كَانُوْا يَعْمَلُوْنَ٢٤
Yauma tasyhadu ‘alaihim alsinatuhum wa aidīhim wa arjuluhum bimā kānū ya‘malūn(a).
[24]
जिस दिन उनकी ज़बानें, उनके हाथ और उनके पैर, उनके विरुद्ध उसकी गवाही देंगे, जो वे किया करते थे।
يَوْمَىِٕذٍ يُّوَفِّيْهِمُ اللّٰهُ دِيْنَهُمُ الْحَقَّ وَيَعْلَمُوْنَ اَنَّ اللّٰهَ هُوَ الْحَقُّ الْمُبِيْنُ٢٥
Yauma'iżiy yuwaffīhimullāhu dīnahumul-ḥaqqa wa ya‘lamūna annallāha huwal-ḥaqqul-mubīn(u).
[25]
उस दिन अल्लाह उन्हें उनका न्यायपूर्ण बदला पूरा-पूरा देगा तथा वे जान लेंगे कि अल्लाह ही सत्य, (तथा सच को) उजागर करने वाला है।
اَلْخَبِيْثٰتُ لِلْخَبِيْثِيْنَ وَالْخَبِيْثُوْنَ لِلْخَبِيْثٰتِۚ وَالطَّيِّبٰتُ لِلطَّيِّبِيْنَ وَالطَّيِّبُوْنَ لِلطَّيِّبٰتِۚ اُولٰۤىِٕكَ مُبَرَّءُوْنَ مِمَّا يَقُوْلُوْنَۗ لَهُمْ مَّغْفِرَةٌ وَّرِزْقٌ كَرِيْمٌ ࣖ٢٦
Al-khabīṡātu lil-khabīṡīna wal-khabīṡūna lil-khabīṡāt(i), waṭ-ṭayyibātu liṭ-ṭayyibīna waṭ-ṭayyibūna liṭ-ṭayyibāt(i), ulā'ika mubarra'ūna mimmā yaqūlūn(a), lahum magfiratuw wa rizqun karīm(un).
[26]
अपवित्र स्त्रियाँ, अपवित्र पुरुषों के लिए हैं तथा अपवित्र पुरुष, अपवित्र स्त्रियों के लिए हैं। और पवित्र स्त्रियाँ, पवित्र पुरुषों के लिए हैं तथा पवित्र पुरुष, पवित्र स्त्रियों17 के लिए हैं। ये लोग उससे बरी किए हुए हैं, जो वे कहते हैं। इनके लिए बड़ी क्षमा तथा सम्मान वाली जीविका है।
17. इसमें यह संकेत है कि जिन पुरुषों तथा स्त्रियों ने आदरणीय आयशा (रज़ियल्लाहु अन्हा) पर आरोप लगाया, वे मन के मलिन तथा अपवित्र हैं।
يٰٓاَيُّهَا الَّذِيْنَ اٰمَنُوْا لَا تَدْخُلُوْا بُيُوْتًا غَيْرَ بُيُوْتِكُمْ حَتّٰى تَسْتَأْنِسُوْا وَتُسَلِّمُوْا عَلٰٓى اَهْلِهَاۗ ذٰلِكُمْ خَيْرٌ لَّكُمْ لَعَلَّكُمْ تَذَكَّرُوْنَ٢٧
Yā ayyuhal-lażīna āmanū lā tadkhulū buyūtan gaira buyūtikum ḥattā tasta'nisū wa tusallimū ‘alā ahlihā, żālikum khairul lakum la‘allakum tażakkarūn(a).
[27]
ऐ ईमान वालो!18 अपने घरों के सिवा अन्य घरों में प्रवेश न करो, यहाँ तक कि अनुमति ले लो और उनके रहने वालों को सलाम कर लो।19 यह तुम्हारे लिए उत्तम है, ताकि तुम याद रखो।
18. सूरत के आरंभ में ये आदेश दिए गए थे कि समाज में कोई बुराई हो जाए, तो उसका निवारण कैसे किया जाए? अब वे आदेश दिए जा रहे हैं जिनसे समाज में बुराइयों को जन्म लेने ही से रोक दिया जाए। 19. ह़दीस में इसका नियम यह बताया गया है कि (द्वार पर दाएँ या बाएँ खड़े होकर) सलाम करो। फिर कहो कि क्या भीतर आ जाऊँ? ऐसे तीन बार करो, और अनुमति न मिलने पर वापस हो जाओ। (बुख़ारी : 6245, मुस्लिम : 2153)
فَاِنْ لَّمْ تَجِدُوْا فِيْهَآ اَحَدًا فَلَا تَدْخُلُوْهَا حَتّٰى يُؤْذَنَ لَكُمْ وَاِنْ قِيْلَ لَكُمُ ارْجِعُوْا فَارْجِعُوْا هُوَ اَزْكٰى لَكُمْ ۗوَاللّٰهُ بِمَا تَعْمَلُوْنَ عَلِيْمٌ٢٨
Fa illam tajidū fīhā aḥadan falā tadkhulūhā ḥattā yu'żana lakum wa in qīla lakumurji‘ū farji‘ū huwa azkā lakum, wallāhu bimā ta‘malūna ‘alīm(un).
[28]
फिर यदि तुम उनमें किसी को न पाओ, तो उनमें प्रवेश न करो, यहाँ तक कि तुम्हें अनुमति दे दी जाए। और यदि तुमसे कहा जाए कि वापस हो जाओ, तो वापस हो जाओ। यह तुम्हारे लिए अधिक पवित्र है। तथा अल्लाह जो कुछ तुम करते हो, उसे भली-भाँति जानने वाला है।
لَيْسَ عَلَيْكُمْ جُنَاحٌ اَنْ تَدْخُلُوْا بُيُوْتًا غَيْرَ مَسْكُوْنَةٍ فِيْهَا مَتَاعٌ لَّكُمْۗ وَاللّٰهُ يَعْلَمُ مَا تُبْدُوْنَ وَمَا تَكْتُمُوْنَ٢٩
Laisa ‘alaikum junāḥun an tadkhulū buyūtan gaira maskūnatin fīhā matā‘ul lakum, wallāhu ya‘lamu mā tubdūna wa mā taktumūn(a).
[29]
तुमपर कोई दोष नहीं कि उन घरों में प्रवेश करो, जिनमें कोई न रहता हो, जिनमें तुम्हारे लाभ की कोई चीज़ हो। और अल्लाह जानता है, जो तुम प्रकट करते हो और जो तुम छिपाते हो।
قُلْ لِّلْمُؤْمِنِيْنَ يَغُضُّوْا مِنْ اَبْصَارِهِمْ وَيَحْفَظُوْا فُرُوْجَهُمْۗ ذٰلِكَ اَزْكٰى لَهُمْۗ اِنَّ اللّٰهَ خَبِيْرٌۢ بِمَا يَصْنَعُوْنَ٣٠
Qul lil-mu'minīna yaguḍḍū min abṡārihim wa yaḥfaẓū furūjahum, żālika azkā lahum, innallāha khabīrum bimā yaṣna‘ūn(a).
[30]
(ऐ नबी!) आप ईमान वाले पुरुषों से कह दें कि अपनी निगाहें नीची रखें और अपने गुप्तांगों की रक्षा करें। यह उनके लिए अधिक पवित्र है। निःसंदेह अल्लाह उससे पूरी तरह अवगत है, जो वे करते हैं।
وَقُلْ لِّلْمُؤْمِنٰتِ يَغْضُضْنَ مِنْ اَبْصَارِهِنَّ وَيَحْفَظْنَ فُرُوْجَهُنَّ وَلَا يُبْدِيْنَ زِيْنَتَهُنَّ اِلَّا مَا ظَهَرَ مِنْهَا وَلْيَضْرِبْنَ بِخُمُرِهِنَّ عَلٰى جُيُوْبِهِنَّۖ وَلَا يُبْدِيْنَ زِيْنَتَهُنَّ اِلَّا لِبُعُوْلَتِهِنَّ اَوْ اٰبَاۤىِٕهِنَّ اَوْ اٰبَاۤءِ بُعُوْلَتِهِنَّ اَوْ اَبْنَاۤىِٕهِنَّ اَوْ اَبْنَاۤءِ بُعُوْلَتِهِنَّ اَوْ اِخْوَانِهِنَّ اَوْ بَنِيْٓ اِخْوَانِهِنَّ اَوْ بَنِيْٓ اَخَوٰتِهِنَّ اَوْ نِسَاۤىِٕهِنَّ اَوْ مَا مَلَكَتْ اَيْمَانُهُنَّ اَوِ التّٰبِعِيْنَ غَيْرِ اُولِى الْاِرْبَةِ مِنَ الرِّجَالِ اَوِ الطِّفْلِ الَّذِيْنَ لَمْ يَظْهَرُوْا عَلٰى عَوْرٰتِ النِّسَاۤءِ ۖوَلَا يَضْرِبْنَ بِاَرْجُلِهِنَّ لِيُعْلَمَ مَا يُخْفِيْنَ مِنْ زِيْنَتِهِنَّۗ وَتُوْبُوْٓا اِلَى اللّٰهِ جَمِيْعًا اَيُّهَ الْمُؤْمِنُوْنَ لَعَلَّكُمْ تُفْلِحُوْنَ٣١
Wa qul lil-mu'mināti yagḍuḍna min abṡārihinna wa yaḥfaẓna furūjahunna wa lā yubdīna zīnatahunna illā mā ẓahara minhā walyaḍribna bikhumurihinna ‘alā juyūbihinn(a), wa lā yubdīna zīnatahunna illā libu‘ūlatihinna au ābā'ihinna au abnā'ihinna au abnā'i bu‘ūlatihinna au ikhwānihinna au banī ikhwānihinna au nisā'ihinna au mā malakat aimānuhunna awit-tābi‘īna gairi ulil-irbati minar-rijāli awiṭ-ṭiflil-lażīna lam yaẓharū ‘alā ‘aurātin-nisā'(i), wa lā yaḍribna bi'arjulihinna liyu‘lama mā yukhfīna min zīnatihinn(a), wa tūbū ilallāhi jamī‘an ayyuhal-mu'minūna la‘allakum tufliḥūn(a).
[31]
और ईमान वाली स्त्रियों से कह दें कि अपनी निगाहें नीची रखें और अपने गुप्तांगों की रक्षा करें। और अपने श्रृंगार20 का प्रदर्शन न करें, सिवाय उसके जो उसमें से प्रकट हो जाए। तथा अपनी ओढ़नियाँ अपने सीनों पर डाले रहें। और अपने श्रृंगार को ज़ाहिर न करें, परंतु अपने पतियों के लिए, या अपने पिताओं, या अपने पतियों के पिताओं, या अपने बेटों21, या अपने पतियों के बेटों, या अपने भाइयों23, या अपने भतीजों, या अपने भाँजों24, या अपनी स्त्रियों25, या अपने दास-दासियों, या अधीन रहने वाले पुरुषों26 के लिए जो कामवासना वाले नहीं, या उन लड़कों के लिए जो स्त्रियों की पर्दे की बातों से परिचित नहीं हुए। तथा अपने पैर (धरती पर) न मारें, ताकि उनका वह श्रृंगार मालूम हो जाए, जो वह छिपाती हैं। और ऐ ईमान वालो! तुम सब अल्लाह से तौबा करो, ताकि तुम सफल हो जाओ।
20. शोभा से तात्पर्य वस्त्र तथा आभूषण हैं। 21. पुत्रों में पौत्र तथा नाती परनाती सब सम्मिलित हैं, इसमें सगे सौतीले का कोई अंतर नहीं। 23. भाइयों मे सगे और सौतीले तथा माँ जाए सब भाई आते हैं। 24. भतीजों और भाँजों में उनके पुत्र तथा पौत्र और नाती सभी आते हैं। 25. अपनी स्त्रियों से अभिप्रेत मुस्लिम स्त्रियाँ हैं। 26. अर्थात जो अधीन होने के कारण घर की महिलाओं के साथ कोई अनुचित इच्छा का साहस न कर सकेंगे। कुछ ने इसका अर्थ नपुंसक लिया है। (इब्ने कसीर) इसमें घर के भीतर उन पर शोभा के प्रदर्शन से रोका गया है जिनसे विवाह हो सकता है।
وَاَنْكِحُوا الْاَيَامٰى مِنْكُمْ وَالصّٰلِحِيْنَ مِنْ عِبَادِكُمْ وَاِمَاۤىِٕكُمْۗ اِنْ يَّكُوْنُوْا فُقَرَاۤءَ يُغْنِهِمُ اللّٰهُ مِنْ فَضْلِهٖۗ وَاللّٰهُ وَاسِعٌ عَلِيْمٌ٣٢
Wa ankiḥul-ayāmā minkum waṣ-ṣāliḥīna min ‘ibādikum wa imā'ikum, iy yakūnū fuqarā'a yugnihimullāhu min faḍlih(ī), wallāhu wāsi‘un ‘alīm(un).
[32]
तथा तुम अपने में से अविवाहित पुरुषों तथा स्त्रियों का निकाह कर दो27, और अपने दासों और अपनी दासियों में से जो सदाचारी हैं उनका भी (विवाह कर दो)। यदि वे निर्धन होंगे, तो अल्लाह उन्हें अपने अनुग्रह से धनी बना देगा। और अल्लाह विस्तार वाला, सब कुछ जानने वाला है।
27. निकाह के विषय में नबी (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) का कथन है : "जो मेरी सुन्नत से विमुख होगा, वह मुझ से नहीं है।" (बुख़ारी : 5063 तथा मुस्लिम : 1020)
وَلْيَسْتَعْفِفِ الَّذِيْنَ لَا يَجِدُوْنَ نِكَاحًا حَتّٰى يُغْنِيَهُمُ اللّٰهُ مِنْ فَضْلِهٖ ۗوَالَّذِيْنَ يَبْتَغُوْنَ الْكِتٰبَ مِمَّا مَلَكَتْ اَيْمَانُكُمْ فَكَاتِبُوْهُمْ اِنْ عَلِمْتُمْ فِيْهِمْ خَيْرًا وَّاٰتُوْهُمْ مِّنْ مَّالِ اللّٰهِ الَّذِيْٓ اٰتٰىكُمْ ۗوَلَا تُكْرِهُوْا فَتَيٰتِكُمْ عَلَى الْبِغَاۤءِ اِنْ اَرَدْنَ تَحَصُّنًا لِّتَبْتَغُوْا عَرَضَ الْحَيٰوةِ الدُّنْيَا ۗوَمَنْ يُّكْرِهْهُّنَّ فَاِنَّ اللّٰهَ مِنْۢ بَعْدِ اِكْرَاهِهِنَّ غَفُوْرٌ رَّحِيْمٌ٣٣
Walyasta‘fifil-lażīna lā yajidūna nikāḥan ḥattā yugniyahumullāhu min faḍlih(ī), wal-lażīna yabtagūnal-kitāba mimmā malakat aimānukum fa kātibūhum in ‘alimtum fīhim khairaw wa ātūhum mim mālillāhil-lażī ātākum, wa lā tukrihū fatayātikum ‘alal-bigā'i in aradna taḥaṣṣunal litabtagū ‘araḍal-ḥayātid-dun-yā, wa may yukrihhunna fa innallāha mim ba‘di ikrāhihinna gafūrur raḥīm(un).
[33]
और उन लोगों को (बहुत) पवित्र रहना चाहिए, जो विवाह का सामर्थ्य नहीं रखते, यहाँ तक कि अल्लाह उन्हें अपने अनुग्रह से समृद्ध कर दे। तथा तुम्हारे दास-दासियों में से जो लोग मुक्ति के लिए लेख की माँग करें, तो तुम उन्हें लिख दो, यदि तुम उनमें कुछ भलाई28 जानो। और उन्हें अल्लाह के उस माल में से दो, जो उसने तुम्हें प्रदान किया है। तथा अपनी दासियों को वेश्यावृत्ति के लिए मजबूर न करो, यदि वे पवित्र रहना चाहें29, ताकि तुम सांसारिक जीवन का सामान प्राप्त करो। और जो उन्हें मजबूर करेगा, तो निश्चय अल्लाह उनके मजबूर किए जाने के बाद30, अति क्षमाशील, अत्यंत दयावान् है।
28. इस्लाम ने दास-दासियों की स्वाधीनता के जो नियम बनाए हैं, उनमें यह भी है कि वे कुछ धनराशि देकर स्वाधीनता-लेख की माँग करें, तो यदि उनमें इस धनराशि को चुकाने की योग्यता हो, तो आयत में बल दिया गया है कि उनको स्वाधीलता-लेख दे दो। 29. अज्ञानकाल में स्वामी, धन अर्जित करने के लिए अपनी दासियों को व्यभिचार के लिए बाध्य करते थे। इस्लाम ने इस व्यवसाय को वर्जित कर दिया। ह़दीस में आया है कि रसूल सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ने कुत्ते के मूल्य तथा वैश्या और ज्योतिषी की कमाई को रोक दिया। (बुख़ारी : 2237, मुस्लिम : 1567) 30. अर्थात दासी से बल पूर्वक व्यभिचार कराने का पाप स्वामी पर होगा, दासी पर नहीं।
وَلَقَدْ اَنْزَلْنَآ اِلَيْكُمْ اٰيٰتٍ مُّبَيِّنٰتٍ وَّمَثَلًا مِّنَ الَّذِيْنَ خَلَوْا مِنْ قَبْلِكُمْ وَمَوْعِظَةً لِّلْمُتَّقِيْنَ ࣖ٣٤
Wa laqad anzalnā ilaikum āyātim mubayyinātiw wa maṡalam minal-lażīna khalau min qablikum wa mau‘iẓatal lil-muttaqīn(a).
[34]
तथा निःसंदेह हमने तुम्हारी ओर स्पष्ट आयतें और तुमसे पहले गुज़रे हुए लोगों का उदाहरण और डरने वालों के लिए शिक्षा उतारी है।
۞ اَللّٰهُ نُوْرُ السَّمٰوٰتِ وَالْاَرْضِۗ مَثَلُ نُوْرِهٖ كَمِشْكٰوةٍ فِيْهَا مِصْبَاحٌۗ اَلْمِصْبَاحُ فِيْ زُجَاجَةٍۗ اَلزُّجَاجَةُ كَاَنَّهَا كَوْكَبٌ دُرِّيٌّ يُّوْقَدُ مِنْ شَجَرَةٍ مُّبٰرَكَةٍ زَيْتُوْنَةٍ لَّا شَرْقِيَّةٍ وَّلَا غَرْبِيَّةٍۙ يَّكَادُ زَيْتُهَا يُضِيْۤءُ وَلَوْ لَمْ تَمْسَسْهُ نَارٌۗ نُوْرٌ عَلٰى نُوْرٍۗ يَهْدِى اللّٰهُ لِنُوْرِهٖ مَنْ يَّشَاۤءُۗ وَيَضْرِبُ اللّٰهُ الْاَمْثَالَ لِلنَّاسِۗ وَاللّٰهُ بِكُلِّ شَيْءٍ عَلِيْمٌ ۙ٣٥
Allāhu nūrus-samāwāti wal-arḍ(i), maṡalu nūrihī kamisykātin fīhā miṣbāḥ(un), al-miṣbāḥu fī zujājah(tin), az-zujājatu ka'annahā kaukabun durriyyuy yūqadu min syajaratim mubārakatin zaitūnatil lā syarqiyyatiw wa lā garbiyyah(tin), yakādu zaituhā yuḍī'u wa lau lam tamsashu nār(un), nūrun ‘alā nūr(in), yahdillāhu linūrihī may yasyā'(u), wa yaḍribullāhul-amṡāla lin-nās(i), wallāhu bikulli syai'in ‘alīm(un).
[35]
अल्लाह आकाशों तथा धरती का31 प्रकाश है। उसके प्रकाश की मिसाल एक ताक़ की तरह है, जिसमें एक दीप है। वह दीप (काँच के) एक फानूस में है। वह फानूस गोया चमकता हुआ तारा है। वह (दीप) एक बरकत वाले वृक्ष 'ज़ैतून' (के तेल) से जलाया जाता है, जो न पूर्वी है और न पश्चिमी। उसका तेल निकट है कि (स्वयं) प्रकाश देने लगे, यद्यपि उसे आग ने न छुआ हो। प्रकाश पर प्रकाश है। अल्लाह अपने प्रकाश की ओर जिसका चाहता है, मार्गदर्शन करता है। और अल्लाह लोगों के लिए मिसालें प्रस्तुत करता है। और अल्लाह प्रत्येक चीज़ को भली-भाँति जानने वाला है।
31. अर्थात आकाशों तथा धरती की व्यवस्था करता और उनके वासियों को संमार्ग दर्शाता है। और अल्लाह की पुस्तक और उसका मार्गदर्शन उसका प्रकाश है। यदि उसका प्रकाश न होता, तो यह संसार अँधेरा होता। फिर कहा कि उसकी ज्योति ईमानवालों के दिलों में ऐसे है जैसे किसी ताखा में अति प्रकाशमान दीप रखा हो, जो आगामी वर्णित गुणों से युक्त हो। पूर्वी तथा पश्चिमी न होने का अर्थ यह है कि उसपर पूरे दिन धूप पड़ती हो, जिसके कारण उसका तेल अति शुद्ध तथा साफ़ हो।
فِيْ بُيُوْتٍ اَذِنَ اللّٰهُ اَنْ تُرْفَعَ وَيُذْكَرَ فِيْهَا اسْمُهٗۙ يُسَبِّحُ لَهٗ فِيْهَا بِالْغُدُوِّ وَالْاٰصَالِ ۙ٣٦
Fī buyūtin ażinallāhu an turfa‘a wa yużkara fīhasmuh(ū), yusabbiḥu lahū fīhā bil-guduwwi wal-āṣāl(i).
[36]
(यह चिराग़) उन महान घरों32 में (जलाया जाता है), जिनके बारे में अल्लाह ने आदेश दिया है कि वे ऊँचे किए जाएँ और उनमें उसका नाम याद किया जाए। उनमें सुबह और शाम उसकी महिमा का गान करते हैं।
32. इससे तात्पर्य मस्जिदें हैं।
رِجَالٌ لَّا تُلْهِيْهِمْ تِجَارَةٌ وَّلَا بَيْعٌ عَنْ ذِكْرِ اللّٰهِ وَاِقَامِ الصَّلٰوةِ وَاِيْتَاۤءِ الزَّكٰوةِ ۙيَخَافُوْنَ يَوْمًا تَتَقَلَّبُ فِيْهِ الْقُلُوْبُ وَالْاَبْصَارُ ۙ٣٧
Rijālul lā tulhīhim tijāratuw wa lā bai‘un ‘an żikrillāhi wa iqāmiṣ-ṣalāti wa ītā'iz-zakāh(ti), yakhāfūna yauman tataqallabu fīhil-qulūbu wal-abṣār(u).
[37]
ऐसे लोग, जिन्हें व्यापार तथा क्रय-विक्रय अल्लाह के स्मरण, नमाज़ क़ायम करने और ज़कात देने से ग़ाफ़िल नहीं करता। वे उस दिन33 से डरते हैं, जिसमें दिल तथा आँखें उलट जाएँगी।
33. अर्थात प्रलय के दिन।
لِيَجْزِيَهُمُ اللّٰهُ اَحْسَنَ مَا عَمِلُوْا وَيَزِيْدَهُمْ مِّنْ فَضْلِهٖۗ وَاللّٰهُ يَرْزُقُ مَنْ يَّشَاۤءُ بِغَيْرِ حِسَابٍ٣٨
Liyajziyahumullāhu aḥsana mā ‘amilū wa yazīduhum min faḍlih(ī), wallāhu yarzuqu may yasyā'u bigairi ḥisāb(in).
[38]
ताकि अल्लाह उन्हें उसका सर्वश्रेष्ठ बदला दे जो उन्होंने किया, और उन्हें अपने अनुग्रह से अधिक प्रदान करे और अल्लाह जिसे चाहता है, बेहिसाब जीविका देता है।
وَالَّذِيْنَ كَفَرُوْٓا اَعْمَالُهُمْ كَسَرَابٍۢ بِقِيْعَةٍ يَّحْسَبُهُ الظَّمْاٰنُ مَاۤءًۗ حَتّٰىٓ اِذَا جَاۤءَهٗ لَمْ يَجِدْهُ شَيْـًٔا وَّوَجَدَ اللّٰهَ عِنْدَهٗ فَوَفّٰىهُ حِسَابَهٗ ۗ وَاللّٰهُ سَرِيْعُ الْحِسَابِ ۙ٣٩
Wal-lażīna kafarū a‘māluhum kasarābim biqī‘atiy yaḥsabuhuẓ-ẓam'ānu mā'ā(n), ḥattā iżā jā'ahū lam yajidhu syai'aw wa wajadallāha ‘indahū fa waffāhu ḥisābah(ū), wallāhu sarī‘ul-ḥisāb(i).
[39]
तथा जिन लोगों ने कुफ़्र किया34, उनके कर्म किसी चटियल मैदान में एक सराब (मरीचिका)35 की तरह हैं, जिसे सख़्त प्यासा आदमी पानी समझता है। यहाँ तक कि जब उसके पास आता है, तो उसे कुछ भी नहीं पाता और अल्लाह को अपने पास पाता है, तो वह उसे उसका हिसाब पूरा चुका देता है। और अल्लाह बहुत जल्द हिसाब करने वाला है।
34.आयत का अर्थ यह है कि काफ़िरों के कर्म, अल्लाह पर ईमान न होने के कारण अल्लाह के समक्ष व्यर्थ हो जाएँगे। 35. कड़ी गर्मी के समय रेगिस्तान में जो चमकती हुई रेत पानी जैसी लगती है उसे सराब कहते हैं।
اَوْ كَظُلُمٰتٍ فِيْ بَحْرٍ لُّجِّيٍّ يَّغْشٰىهُ مَوْجٌ مِّنْ فَوْقِهٖ مَوْجٌ مِّنْ فَوْقِهٖ سَحَابٌۗ ظُلُمٰتٌۢ بَعْضُهَا فَوْقَ بَعْضٍۗ اِذَآ اَخْرَجَ يَدَهٗ لَمْ يَكَدْ يَرٰىهَاۗ وَمَنْ لَّمْ يَجْعَلِ اللّٰهُ لَهٗ نُوْرًا فَمَا لَهٗ مِنْ نُّوْرٍ ࣖ٤٠
Au kaẓulumātin fī baḥril lujjiyyiy yagsyāhu maujum min fauqihī maujum min fauqihī saḥāb(un), ẓulumātum ba‘ḍuhā fauqa ba‘ḍ(in), iżā akhraja yadahū lam yakad yarāhā, wa mal lam yaj‘alillāhu lahū nūran famā lahū min nūr(in).
[40]
अथवा (उनके कर्म) उन अँधेरों के समान हैं, जो अत्यंत गहरे सागर में हों, जिसे एक लहर ढाँप रही हो, जिसके ऊपर एक और लहर हो, जिसके ऊपर एक बादल हो, कई अँधेरे हों, जिनमें से कुछ, कुछ के ऊपर हों। जब (इन अँधेरों में फँसा हुआ व्यक्ति) अपना हाथ निकाले, तो क़रीब नहीं कि उसे देख पाए। और वह व्यक्ति जिसके लिए अल्लाह प्रकाश न बनाए, तो उसके लिए कोई भी प्रकाश36 नहीं।
36. अर्थात काफ़िर, अविश्वास और कुकर्मों के अंधकार में घिरा रहता है। और ये अंधकार उसे मार्गदर्शन की ओर नहीं आने देते।
اَلَمْ تَرَ اَنَّ اللّٰهَ يُسَبِّحُ لَهٗ مَنْ فِى السَّمٰوٰتِ وَالْاَرْضِ وَالطَّيْرُ صٰۤفّٰتٍۗ كُلٌّ قَدْ عَلِمَ صَلَاتَهٗ وَتَسْبِيْحَهٗۗ وَاللّٰهُ عَلِيْمٌۢ بِمَا يَفْعَلُوْنَ٤١
Alam tara annallāha yusabbiḥu lahū man fis-samāwāti wal-arḍi waṭ-ṭairu ṣāffāt(in), kullun qad ‘alima ṣalātahū wa tasbīḥah(ū), wallāhu ‘alīmum bimā yaf‘alūn(a).
[41]
क्या आपने नहीं देखा कि अल्लाह ही की पवित्रता का गान करते हैं, जो आकाशों तथा धरती में हैं तथा पंख फैलाए हुए पक्षी (भी)? प्रत्येक ने निश्चय अपनी नमाज़ और पवित्रता गान को जान लिया37 है। और अल्लाह उसे भली-भाँति जानने वाला है, जो वे करते हैं।
37. अर्थात तुम भी उसकी पवित्रता का गान करो और उसकी आज्ञा का पालन करो।
وَلِلّٰهِ مُلْكُ السَّمٰوٰتِ وَالْاَرْضِۚ وَاِلَى اللّٰهِ الْمَصِيْرُ٤٢
Wa lillāhi mulkus-samāwāti wal-arḍ(i), wa ilallāhil-maṣīr(u).
[42]
और अल्लाह ही के लिए आकाशों तथा धरती का राज्य है और अल्लाह ही की ओर लौटकर38 जाना है।
38. अर्थात प्रलय के दिन अपने कर्मों का फल भोगने के लिए।
اَلَمْ تَرَ اَنَّ اللّٰهَ يُزْجِيْ سَحَابًا ثُمَّ يُؤَلِّفُ بَيْنَهٗ ثُمَّ يَجْعَلُهٗ رُكَامًا فَتَرَى الْوَدْقَ يَخْرُجُ مِنْ خِلٰلِهٖۚ وَيُنَزِّلُ مِنَ السَّمَاۤءِ مِنْ جِبَالٍ فِيْهَا مِنْۢ بَرَدٍ فَيُصِيْبُ بِهٖ مَنْ يَّشَاۤءُ وَيَصْرِفُهٗ عَنْ مَّنْ يَّشَاۤءُۗ يَكَادُ سَنَا بَرْقِهٖ يَذْهَبُ بِالْاَبْصَارِ ۗ٤٣
Alam tara annallāha yuzjī saḥāban ṡumma yu'allifu bainahū ṡumma yaj‘aluhū rukāman fa taral-wadqa yakhruju min khilālih(ī), wa yunazzilu minas-samā'i min jibālin fīhā mim baradin fa yuṣību bihī may yasyā'u wa yaṣrifuhū ‘am may yasyā'(u), yakādu sanā barqihī yażhabu bil-abṣār(i).
[43]
क्या आपने नहीं देखा कि अल्लाह बादल को चलाता है। फिर उसे परस्पर मिलाता है। फिर उसे तह-ब-तह कर देता है। फिर आप बारिश को देखते हैं कि उसके बीच से निकल रही है। और वह आकाश से उसमें (मौजूद) पर्वतों जैसे बादलों से ओले बरसाता है। फिर जिसपर चाहता है, उन्हें गिराता है और जिससे चाहता है, उन्हें फेर देता है। निकट है कि उसकी बिजली की चमक आँखों को ले जाए।
يُقَلِّبُ اللّٰهُ الَّيْلَ وَالنَّهَارَۗ اِنَّ فِيْ ذٰلِكَ لَعِبْرَةً لِّاُولِى الْاَبْصَارِ٤٤
Yuqallibullāhul-laila wan-nahār(a), inna fī żālika la‘ibratal li'ulil-abṣār(i).
[44]
अल्लाह ही रात और दिन को बदलता39 रहता है। बेशक इसमें समझ-बूझ वालों के लिए निश्चय बड़ी शिक्षा है।
39. अर्थात रात के पश्चात दिन और दिन के पश्चात रात होती है। इसी प्रकार कभी दिन बड़ा, रात छोटी और कभी रात बड़ी, दिन छोटा हाता है।
وَاللّٰهُ خَلَقَ كُلَّ دَاۤبَّةٍ مِّنْ مَّاۤءٍۚ فَمِنْهُمْ مَّنْ يَّمْشِيْ عَلٰى بَطْنِهٖۚ وَمِنْهُمْ مَّنْ يَّمْشِيْ عَلٰى رِجْلَيْنِۚ وَمِنْهُمْ مَّنْ يَّمْشِيْ عَلٰٓى اَرْبَعٍۗ يَخْلُقُ اللّٰهُ مَا يَشَاۤءُۗ اِنَّ اللّٰهَ عَلٰى كُلِّ شَيْءٍ قَدِيْرٌ٤٥
Wallāhu khalaqa kulla dābbatim mim mā'(in), fa minhum may yamsyī ‘alā baṭinih(ī), wa minhum may yamsyī ‘alā rijlain(i), wa minhum may yamsyī ‘alā arba‘(in), yakhluqullāhu mā yasyā'(u), innallāha ‘alā kulli syai'in qadīr(un).
[45]
अल्लाह ही ने प्रत्येक जीवधारी को पानी से पैदा किया। तो उनमें से कुछ अपने पेट के बल चलते हैं और उनमें से कुछ दो पैरों पर चलते हैं तथा उनमें से कुछ चार (पैरों) पर चलते हैं। अल्लाह जो चाहता है, पैदा करता है। निःसंदेह अल्लाह हर चीज़ पर सर्वशक्तिमान है।
لَقَدْ اَنْزَلْنَآ اٰيٰتٍ مُّبَيِّنٰتٍۗ وَاللّٰهُ يَهْدِيْ مَنْ يَّشَاۤءُ اِلٰى صِرَاطٍ مُّسْتَقِيْمٍ٤٦
Laqad anzalnā āyātim mubayyināt(in), wallāhu yahdī may yasyā'u ilā ṣirāṭim mustaqīm(in).
[46]
निःसंदेह हमने स्पष्ट आयतें (क़ुरआन) अवतरित कर दी हैं और अल्लाह जिसे चाहता है, सीधा मार्ग दिखा देता है।
وَيَقُوْلُوْنَ اٰمَنَّا بِاللّٰهِ وَبِالرَّسُوْلِ وَاَطَعْنَا ثُمَّ يَتَوَلّٰى فَرِيْقٌ مِّنْهُمْ مِّنْۢ بَعْدِ ذٰلِكَۗ وَمَآ اُولٰۤىِٕكَ بِالْمُؤْمِنِيْنَ٤٧
Wa yaqūlūna āmannā billāhi wa bir-rasūli wa aṭa‘nā ṡumma yatawallā farīqum minhum mim ba‘di żālik(a), wa mā ulā'ika bil-mu'minīn(a).
[47]
और वे40 कहते हैं कि हम अल्लाह पर तथा रसूल पर ईमान लाए और हमने आज्ञापालन किया। फिर इसके बाद उनमें से एक गिरोह मुँह फेर लेता है। और ये लोग ईमान वाले नहीं हैं।
40. यहाँ से मुनाफ़िक़ों की दशा का वर्णन किया जा रहा है, तथा यह बताया जा रहा है कि ईमान के लिए अल्लाह के सभी आदेशों तथा नियमों का पालन आवश्यक है। और क़ुरआन तथा सुन्नत के निर्णय का पालन करना ही ईमान है।
وَاِذَا دُعُوْٓا اِلَى اللّٰهِ وَرَسُوْلِهٖ لِيَحْكُمَ بَيْنَهُمْ اِذَا فَرِيْقٌ مِّنْهُمْ مُّعْرِضُوْنَ٤٨
Wa iżā du‘ū ilallāhi wa rasūlihī liyaḥkuma bainahum iżā farīqum minhum mu‘riḍūn(a).
[48]
और जब वे अल्लाह तथा उसके रसूल की ओर बुलाए जाते हैं, ताकि वह (रसूल) उनके बीच (विवाद का) निर्णय करें, तो अचानक उनमें से एक गिरोह मुँह फेरने वाला होता है।
وَاِنْ يَّكُنْ لَّهُمُ الْحَقُّ يَأْتُوْٓا اِلَيْهِ مُذْعِنِيْنَ٤٩
Wa iy yakul lahumul-ḥaqqu ya'tū ilaihi muż‘inīn(a).
[49]
और यदि उन्हीं के लिए अधिकार हो, तो आज्ञाकारी बनकर आपके पास चले आते हैं।
اَفِيْ قُلُوْبِهِمْ مَّرَضٌ اَمِ ارْتَابُوْٓا اَمْ يَخَافُوْنَ اَنْ يَّحِيْفَ اللّٰهُ عَلَيْهِمْ وَرَسُوْلُهٗ ۗبَلْ اُولٰۤىِٕكَ هُمُ الظّٰلِمُوْنَ ࣖ٥٠
Afī qulūbihim maraḍun amirtābū am yakhāfūna ay yaḥīfallāhu ‘alaihim wa rasūluh(ū), bal ulā'ika humuẓ-ẓālimūn(a).
[50]
क्या उनके दिलों में कोई रोग है, अथवा वे संदेह में पड़े हुए हैं, अथवा वे डर रहे हैं कि उनपर अल्लाह और उसका रसूल अत्याचार करेंगे? बल्कि वे लोग स्वयं ही अत्याचारी हैं।
اِنَّمَا كَانَ قَوْلَ الْمُؤْمِنِيْنَ اِذَا دُعُوْٓا اِلَى اللّٰهِ وَرَسُوْلِهٖ لِيَحْكُمَ بَيْنَهُمْ اَنْ يَّقُوْلُوْا سَمِعْنَا وَاَطَعْنَاۗ وَاُولٰۤىِٕكَ هُمُ الْمُفْلِحُوْنَ٥١
Innamā kāna qaulal-mu'minīna iżā du‘ū ilallāhi wa rasūlihī liyaḥkuma bainahum ay yaqūlū sami‘nā wa aṭa‘nā, wa ulā'ika humul-mufliḥūn(a).
[51]
ईमान वालों का कथन तो यह होता है कि जब अल्लाह और उसके रसूल की ओर बुलाए जाएँ, ताकि आप उनके बीच निर्णय कर दें, तो कहें कि हमने सुन लिया तथा मान लिया। और वही सफल होने वाले हैं।
وَمَنْ يُّطِعِ اللّٰهَ وَرَسُوْلَهٗ وَيَخْشَ اللّٰهَ وَيَتَّقْهِ فَاُولٰۤىِٕكَ هُمُ الْفَاۤىِٕزُوْنَ٥٢
Wa may yuṭi‘illāha wa rasūlahū wa yakhsyallāha wa yattaqhi fa ulā'ika humul-fā'izūn(a).
[52]
तथा जो अल्लाह और उसके रसूल की आज्ञा का पालन करे और अल्लाह का भय रखे और उसकी (यातना से) डरे, तो यही लोग सफल होने वाले हैं।
۞ وَاَقْسَمُوْا بِاللّٰهِ جَهْدَ اَيْمَانِهِمْ لَىِٕنْ اَمَرْتَهُمْ لَيَخْرُجُنَّۗ قُلْ لَّا تُقْسِمُوْاۚ طَاعَةٌ مَّعْرُوْفَةٌ ۗاِنَّ اللّٰهَ خَبِيْرٌۢ بِمَا تَعْمَلُوْنَ٥٣
Wa aqsamū billāhi jahda aimānihim la'in amartahum layakhrujunn(a), qul lā tuqsimū, ṭā‘atum ma‘rūfah(tun), innallāha khabīrum bimā ta‘malūn(a).
[53]
और उन (मुनाफ़िक़ों) ने अल्लाह की मज़बूत क़समें खाईं कि यदि आप उन्हें आदेश दें, तो वे अवश्य (जिहाद के लिए) निकलेंगे। आप उनसे कह दें : क़समें न खाओ। तुम्हारे आज्ञापालन की दशा जानी-पहचानी है। निःसंदेह अल्लाह तुम्हारे कर्मों से भली-भाँति अवगत है।
قُلْ اَطِيْعُوا اللّٰهَ وَاَطِيْعُوا الرَّسُوْلَۚ فَاِنْ تَوَلَّوْا فَاِنَّمَا عَلَيْهِ مَا حُمِّلَ وَعَلَيْكُمْ مَّا حُمِّلْتُمْۗ وَاِنْ تُطِيْعُوْهُ تَهْتَدُوْاۗ وَمَا عَلَى الرَّسُوْلِ اِلَّا الْبَلٰغُ الْمُبِيْنُ٥٤
Qul aṭī‘ullāha wa aṭī‘ur-rasūl(a), fa in tawallau fa innamā ‘alaihi mā ḥummila wa ‘alaikum mā ḥummiltum, wa in tuṭī‘ūhu tahtadū, wa mā ‘alar rasūli illal-balāgul-mubīn(u).
[54]
(ऐ नबी!) आप कह दें कि अल्लाह की आज्ञा का पालन करो तथा रसूल की आज्ञा का पालन करो, और यदि तुम विमुख हो जाओ, तो उस (रसूल) का कर्तव्य केवल वही है, जिसका उसपर भार डाला गया है, और तुम्हारे ज़िम्मे वह है, जिसका भार तुमपर डाला गया है, और यदि तुम उसका आज्ञापालन करोगे, तो मार्गदर्शन पा जाओगे। और रसूल का दायित्व केवल स्पष्ट रूप से पहुँचा देना है।
وَعَدَ اللّٰهُ الَّذِيْنَ اٰمَنُوْا مِنْكُمْ وَعَمِلُوا الصّٰلِحٰتِ لَيَسْتَخْلِفَنَّهُمْ فِى الْاَرْضِ كَمَا اسْتَخْلَفَ الَّذِيْنَ مِنْ قَبْلِهِمْۖ وَلَيُمَكِّنَنَّ لَهُمْ دِيْنَهُمُ الَّذِى ارْتَضٰى لَهُمْ وَلَيُبَدِّلَنَّهُمْ مِّنْۢ بَعْدِ خَوْفِهِمْ اَمْنًاۗ يَعْبُدُوْنَنِيْ لَا يُشْرِكُوْنَ بِيْ شَيْـًٔاۗ وَمَنْ كَفَرَ بَعْدَ ذٰلِكَ فَاُولٰۤىِٕكَ هُمُ الْفٰسِقُوْنَ٥٥
Wa‘adallāhul-lażīna āmanū minkum wa ‘amiluṣ-ṣāliḥāti layastakhlifannahum fil-arḍi kamastakhlafal-lażīna min qablihim, wa layumakkinanna lahum dīnahumul-lażirtaḍā lahum wa layubaddilannahum mim ba‘di khaufihim amnā(n), ya‘budūnanī lā yusyrikūna bī syai'ā(n), wa man kafara ba‘da żālika fa ulā'ika humul-fāsiqūn(a).
[55]
अल्लाह ने उन लोगों से, जो तुममें से ईमान लाए तथा उन्होंने सुकर्म किए, वादा41 किया है कि वह उन्हें धरती में अवश्य ही अधिकार प्रदान करेगा, जिस तरह उन लोगों को अधिकार प्रदान किया, जो उनसे पहले थे, तथा उनके लिए उनके उस धर्म को अवश्य ही प्रभुत्व प्रदान करेगा, जिसे उसने उनके लिए पसंद किया है, तथा उन (की दशा) को उनके भय के पश्चात् शांति में बदल देगा। वे मेरी इबादत करेंगे, मेरे साथ किसी चीज़ को साझी नहीं बनाएँगे। और जिसने इसके बाद कुफ़्र किया, तो वही लोग अवज्ञाकारी हैं।
41. इस आयत में अल्लाह ने जो वादा किया है, वह उस समय पूरा हो गया जब नबी सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम और आपके अनुयायियों को, जो काफ़िरों से डर रहे थे, उनकी धरती पर अधिकार दे दिया। और इस्लाम पूरे अरब का धर्म बन गया और यह वादा अब भी है, जो ईमान तथा सत्कर्म के साथ प्रतिबंधित है।
وَاَقِيْمُوا الصَّلٰوةَ وَاٰتُوا الزَّكٰوةَ وَاَطِيْعُوا الرَّسُوْلَ لَعَلَّكُمْ تُرْحَمُوْنَ٥٦
Wa aqīmuṣ-ṣalāta wa ātuz-zakāta wa aṭī‘ur-rasūla la‘allakum turḥamūn(a).
[56]
तथा नमाज़ क़ायम करो और ज़कात दो तथा रसूल की आज्ञा का पालन करो, ताकि तुमपर दया की जाए।
لَا تَحْسَبَنَّ الَّذِيْنَ كَفَرُوْا مُعْجِزِيْنَ فِى الْاَرْضِۚ وَمَأْوٰىهُمُ النَّارُۗ وَلَبِئْسَ الْمَصِيْرُ ࣖ٥٧
Lā taḥsabannal-lażīna kafarū mu‘jizīna fil-arḍ(i), wa ma'wāhumun-nār(u), wa labi'sal-maṣīr(u).
[57]
और (ऐ नबी!) आप उन लोगों को जिन्होंने कुफ़्र किया, कदापि न समझें कि वे (अल्लाह को) धरती में विवश कर देने वाले हैं। और उनका ठिकाना आग (जहन्नम) है और निःसंदेह वह बुरा ठिकाना है।
يٰٓاَيُّهَا الَّذِيْنَ اٰمَنُوْا لِيَسْتَأْذِنْكُمُ الَّذِيْنَ مَلَكَتْ اَيْمَانُكُمْ وَالَّذِيْنَ لَمْ يَبْلُغُوا الْحُلُمَ مِنْكُمْ ثَلٰثَ مَرّٰتٍۗ مِنْ قَبْلِ صَلٰوةِ الْفَجْرِ وَحِيْنَ تَضَعُوْنَ ثِيَابَكُمْ مِّنَ الظَّهِيْرَةِ وَمِنْۢ بَعْدِ صَلٰوةِ الْعِشَاۤءِۗ ثَلٰثُ عَوْرٰتٍ لَّكُمْۗ لَيْسَ عَلَيْكُمْ وَلَا عَلَيْهِمْ جُنَاحٌۢ بَعْدَهُنَّۗ طَوَّافُوْنَ عَلَيْكُمْ بَعْضُكُمْ عَلٰى بَعْضٍۗ كَذٰلِكَ يُبَيِّنُ اللّٰهُ لَكُمُ الْاٰيٰتِۗ وَاللّٰهُ عَلِيْمٌ حَكِيْمٌ٥٨
Yā ayyuhal-lażīna āmanū liyasta'żinkumul-lażīna malakat aimānukum wal-lażīna lam yablugul-ḥuluma minkum ṡalāṡa marrāt(in), min qabli ṣalātil-fajri wa ḥīna taḍa‘ūna ṡiyābakum minaẓ-ẓahīrati wa mim ba‘di ṣalātil-‘isyā'(i), ṡalāṡu ‘aurātil lakum, laisa ‘alaikum wa lā ‘alaihim junāḥum ba‘dahunn(a), ṭawwāfūna ‘alaikum ba‘ḍukum ‘alā ba‘ḍ(in), każālika yubayyinullāhu lakumul-āyāt(i), wallāhu ‘alīmun ḥakīm(un).
[58]
ऐ ईमान वालो! जो (दास-दासी) तुम्हारे स्वामित्व में हों, और तुममें से जो अभी युवावस्था को न पहुँचे हों, उन्हें चाहिए कि तीन समयों में (तुम्हारे पास आने के लिए) तुमसे42 अनुमति लें; फ़ज्र की नमाज़ से पहले, और जिस समय तुम दोपहर को अपने कपड़े उतार देते हो और इशा की नमाज़ के बाद। तुम्हारे लिए ये तीन पर्दे (के समय) हैं। इनके पश्चात न तो तुमपर कोई गुनाह है और न उनपर। तुम अकसर एक-दूसरे के पास आने-जाने वाले हो। इसी प्रकार, अल्लाह तुम्हारे लिए आयतों को स्पष्ट करता है। और अल्लाह सब कुछ जानने वाला, पूर्ण हिकमत वाला है।
42. आयत : 27 में आदेश दिया गया है कि जब किसी दूसरे के यहाँ जाओ तो अनुमति लेकर घर में प्रवेश करो। और यहाँ पर आदेश दिया जा रहा है कि स्वयं अपने घर में एक-दूसरे के पास जाने के लिए भी अनुमति लेना तीन समय में आवश्यक है।
وَاِذَا بَلَغَ الْاَطْفَالُ مِنْكُمُ الْحُلُمَ فَلْيَسْتَأْذِنُوْا كَمَا اسْتَأْذَنَ الَّذِيْنَ مِنْ قَبْلِهِمْۗ كَذٰلِكَ يُبَيِّنُ اللّٰهُ لَكُمْ اٰيٰتِهٖۗ وَاللّٰهُ عَلِيْمٌ حَكِيْمٌ٥٩
Wa iżā balagal-aṭfālu minkumul-ḥuluma falyasta'żinū kamasta'żanal-lażīna min qablihim, każālika yubayyinullāhu lakum āyātih(ī),wallāhu ‘alīmun ḥakīm(un).
[59]
और जब तुममें से बच्चे युवावस्था को पहुँच जाएँ, तो वे उसी तरह अनुमति लें, जिस तरह उनसे पहले के लोग अनुमति लेते रहे हैं। इसी प्रकार अल्लाह तुम्हारे लिए अपनी आयतों को स्पष्ट करता है। तथा अल्लाह भली-भाँति जानने वाला, पूर्ण हिकमत वाला है।
وَالْقَوَاعِدُ مِنَ النِّسَاۤءِ الّٰتِيْ لَا يَرْجُوْنَ نِكَاحًا فَلَيْسَ عَلَيْهِنَّ جُنَاحٌ اَنْ يَّضَعْنَ ثِيَابَهُنَّ غَيْرَ مُتَبَرِّجٰتٍۢ بِزِيْنَةٍۗ وَاَنْ يَّسْتَعْفِفْنَ خَيْرٌ لَّهُنَّۗ وَاللّٰهُ سَمِيْعٌ عَلِيْمٌ٦٠
Wal-qawā‘idu minan-nisā'il-lātī lā yarjūna nikāḥan fa laisa ‘alaihinna junāḥun ay yaḍa‘na ṡiyābahunna gaira mutabarrijātim bizīnah(tin), wa ay yasta‘fifna khairul lahunn(a), wallāhu samī‘un ‘alīm(un).
[60]
तथा जो बूढ़ी स्त्रियाँ विवाह की आशा न रखती हों, उनपर कोई दोष नहीं कि अपनी (पर्दे की) चादरें उतारकर रख दें, प्रतिबंध यह है कि किसी प्रकार की शोभा का प्रदर्शन करने वाली न हों। और यदि (इससे भी) बचें43 तो उनके लिए अधिक अच्छा है। और अल्लाह सब कुछ सुनने वाला, सब कुछ जानने वाला है।
43. अर्थात पर्दे की चादर न उतारें।
لَيْسَ عَلَى الْاَعْمٰى حَرَجٌ وَّلَا عَلَى الْاَعْرَجِ حَرَجٌ وَّلَا عَلَى الْمَرِيْضِ حَرَجٌ وَّلَا عَلٰٓى اَنْفُسِكُمْ اَنْ تَأْكُلُوْا مِنْۢ بُيُوْتِكُمْ اَوْ بُيُوْتِ اٰبَاۤىِٕكُمْ اَوْ بُيُوْتِ اُمَّهٰتِكُمْ اَوْ بُيُوْتِ اِخْوَانِكُمْ اَوْ بُيُوْتِ اَخَوٰتِكُمْ اَوْ بُيُوْتِ اَعْمَامِكُمْ اَوْ بُيُوْتِ عَمّٰتِكُمْ اَوْ بُيُوْتِ اَخْوَالِكُمْ اَوْ بُيُوْتِ خٰلٰتِكُمْ اَوْ مَا مَلَكْتُمْ مَّفَاتِحَهٗٓ اَوْ صَدِيْقِكُمْۗ لَيْسَ عَلَيْكُمْ جُنَاحٌ اَنْ تَأْكُلُوْا جَمِيْعًا اَوْ اَشْتَاتًاۗ فَاِذَا دَخَلْتُمْ بُيُوْتًا فَسَلِّمُوْا عَلٰٓى اَنْفُسِكُمْ تَحِيَّةً مِّنْ عِنْدِ اللّٰهِ مُبٰرَكَةً طَيِّبَةً ۗ كَذٰلِكَ يُبَيِّنُ اللّٰهُ لَكُمُ الْاٰيٰتِ لَعَلَّكُمْ تَعْقِلُوْنَ ࣖ٦١
Laisa ‘alal-a‘mā ḥarajuw wa lā ‘alal-a‘raji ḥarajuw wa lā ‘alal-marīḍi ḥarajuw wa lā ‘alā anfusikum an ta'kulū mim buyūtikum au buyūti ābā'ikum au buyūti ummahātikum au buyūti ikhwānikum au buyūti akhawātikum au buyūti a‘māmikum au buyūti ‘ammātikum au buyūti akhwālikum au buyūti khālātikum au mā malaktum mafātiḥahū au ṣadīqikum, laisa ‘alaikum junāḥun an ta'kulū jamī‘an au asytātā(n), fa iżā dakhaltum buyūtan fa sallimū ‘alā anfusikum taḥiyyatam min ‘indillāhi mubārakatan ṭayyibah(tan), każālika yubayyinullāhu lakumul-āyāti la‘allakum ta‘qilūn(a).
[61]
अंधे पर कोई दोष नहीं है, न लंगड़े पर कोई दोष44 है, न रोगी पर कोई दोष है और न स्वयं तुमपर कोई दोष है कि तुम अपने घरों45 से खाओ, या अपने बापों के घरों से, या अपनी माँओं के घरों से, या अपने भाइयों के घरों से, या अपनी बहनों के घरों से, या अपने चाचाओं के घरों से, या अपनी फूफियों के घरों से, या अपने मामाओं के घरों से, या अपनी मौसियों के घरों से, या (उस घर से) जिसकी चाबियों के तुम स्वामी46 हो, या अपने मित्र (के घर) से। तुमपर कोई दोष नहीं कि एक साथ खाओ या अलग-अलग। फिर जब तुम घरों में प्रवेश करो, तो अपनों को सलाम करो। अल्लाह की ओर से निर्धारित की हुई सुरक्षा एवं शांति की दुआ, जो बरकत वाली, पवित्र है। इसी प्रकार अल्लाह तुम्हारे लिए आयतों को खोलकर बयान करता है, ताकि तुम समझ जाओ।
44. इस्लाम से पहले विकलांगों के साथ खाने-पीने को दोष समझा जाता था, जिसका निवारण इस आयत में किया गया है। 45. अपने घरों से अभिप्राय अपने पुत्रों के घर हैं जो अपने ही घर होते हैं। 46. अर्थात जो अपनी अनुपस्थिति में तुम्हें रक्षा के लिए अपने घरों की चाबियाँ दे जाएँ।
اِنَّمَا الْمُؤْمِنُوْنَ الَّذِيْنَ اٰمَنُوْا بِاللّٰهِ وَرَسُوْلِهٖ وَاِذَا كَانُوْا مَعَهٗ عَلٰٓى اَمْرٍ جَامِعٍ لَّمْ يَذْهَبُوْا حَتّٰى يَسْتَأْذِنُوْهُۗ اِنَّ الَّذِيْنَ يَسْتَأْذِنُوْنَكَ اُولٰۤىِٕكَ الَّذِيْنَ يُؤْمِنُوْنَ بِاللّٰهِ وَرَسُوْلِهٖۚ فَاِذَا اسْتَأْذَنُوْكَ لِبَعْضِ شَأْنِهِمْ فَأْذَنْ لِّمَنْ شِئْتَ مِنْهُمْ وَاسْتَغْفِرْ لَهُمُ اللّٰهَ ۗاِنَّ اللّٰهَ غَفُوْرٌ رَّحِيْمٌ٦٢
Innamal-mu'minūnal-lażīna āmanū billāhi wa rasūlihī wa iżā kānū ma‘ahū ‘alā amrin jāmi‘il lam yażhabū ḥattā yasta'żinūh(u), innal-lażīna yasta'żinūnaka ulā'ikal-lażīna yu'minūna billāhi wa rasūlih(ī), fa iżasta'żanūka liba‘ḍi sya'nihim fa'żal liman syi'ta minhum wastagfir lahumullāh(a), innallāha gafūrur raḥīm(un).
[62]
ईमान वाले तो केवल वे लोग हैं, जो अल्लाह और उसके रसूल पर ईमान लाए और जब वे उसके साथ किसी सामूहिक कार्य पर होते हैं, तो उस समय तक नहीं जाते, जब तक उससे अनुमति न ले लें। निःसंदेह जो लोग आपसे अनुमति माँगते हैं, वही लोग अल्लाह और उसके रसूल पर ईमान रखते हैं। अतः जब वे आपसे अपने किसी कार्य के लिए अनुमति माँगें, तो आप उनमें से जिसे चाहें, अनुमति प्रदान कर दें और उनके लिए अल्लाह से क्षमा की प्रार्थना करें। निःसंदेह अल्लाह अति क्षमाशील, अत्यंत दयावान् है|
لَا تَجْعَلُوْا دُعَاۤءَ الرَّسُوْلِ بَيْنَكُمْ كَدُعَاۤءِ بَعْضِكُمْ بَعْضًاۗ قَدْ يَعْلَمُ اللّٰهُ الَّذِيْنَ يَتَسَلَّلُوْنَ مِنْكُمْ لِوَاذًاۚ فَلْيَحْذَرِ الَّذِيْنَ يُخَالِفُوْنَ عَنْ اَمْرِهٖٓ اَنْ تُصِيْبَهُمْ فِتْنَةٌ اَوْ يُصِيْبَهُمْ عَذَابٌ اَلِيْمٌ٦٣
Lā taj‘alū du‘ā'ar-rasūli bainakum kadu‘ā'i ba‘ḍikum ba‘ḍā(n), qad ya'lamullāhul-lażīna yatasallalūna minkum liwāżā(n), falyaḥżaril-lażīna yukhālifūna ‘an amrihī an tuṣībahum fitnatun au yuṣībahum ‘ażābun alīm(un).
[63]
और तुम रसूल के बुलाने को, परस्पर एक-दूसरे को बुलाने जैसा47 न बना लो। निःसंदेह अल्लाह उन लोगों को जानता है, जो तुममें से एक-दूसरे की आड़ लेते हुए (चुपके से) खिसक जाते हैं। अतः उन लोगों को डरना चाहिए, जो आपके आदेश का विरोध करते हैं कि उनपर कोई आपदा आ पड़े अथवा उनपर कोई दुःखदायी यातना आ जाए।
47. अर्थात् "ऐ मुह़म्मद!" न कहो। बल्कि आपको ऐ अल्लाह के नबी! ऐ अल्लाह के रसूल! कहकर पुकारो। इसका यह अर्थ भी किया गया है कि नबी सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम की प्रार्थना को अपनी प्रार्थना के समान न समझो, क्योंकि आपकी प्रार्थना स्वीकार कर ली जाती है।
اَلَآ اِنَّ لِلّٰهِ مَا فِى السَّمٰوٰتِ وَالْاَرْضِۗ قَدْ يَعْلَمُ مَآ اَنْتُمْ عَلَيْهِۗ وَيَوْمَ يُرْجَعُوْنَ اِلَيْهِ فَيُنَبِّئُهُمْ بِمَا عَمِلُوْاۗ وَاللّٰهُ بِكُلِّ شَيْءٍ عَلِيْمٌ ࣖ٦٤
Alā inna lillāhi mā fis-samāwāti wal-arḍ(i), qad ya‘lamu mā antum ‘alaih(i), wa yauma yurja‘ūna ilaihi fa yunabbi'uhum bimā ‘amilū, wallāhu bikulli syai'in ‘alīm(un).
[64]
सावधान! अल्लाह ही का है, जो कुछ आकाशों तथा धरती में है। निश्चय वह जानता है जिस (दशा) पर तुम हो। और जिस दिन वे उसकी ओर लौटाए जाएँगे, तो वह उन्हें बताएगा48, जो कुछ उन्होंने किया और अल्लाह प्रत्येक चीज़ को भली-भाँति जानने वाला है।
48. अर्थात प्रलय के दिन तुम्हें तुम्हारे कर्मों का फल देगा।