Surah Al-Baqarah
بِسْمِ اللّٰهِ الرَّحْمٰنِ الرَّحِيْمِ
الۤمّۤ ۚ١
Alif lām mīm.
[1]
अलिफ़, लाम, मीम।
ذٰلِكَ الْكِتٰبُ لَا رَيْبَ ۛ فِيْهِ ۛ هُدًى لِّلْمُتَّقِيْنَۙ٢
Żālikal-kitābu lā raiba fīh(i), hudal lil-muttaqīn(a).
[2]
यह (क़ुरआन) वह पुस्तक है, जिसमें कोई संदेह नहीं, परहेज़गारों के लिए सर्वथा मार्गदर्शन है।
الَّذِيْنَ يُؤْمِنُوْنَ بِالْغَيْبِ وَيُقِيْمُوْنَ الصَّلٰوةَ وَمِمَّا رَزَقْنٰهُمْ يُنْفِقُوْنَ ۙ٣
Al-lażīna yu'minūna bil-gaibi wa yuqīmūnaṣ-ṣalāta wa mimmā razaqnāhum yunfiqūn(a).
[3]
वे लोग जो ग़ैब (परोक्ष)1 पर ईमान लाते हैं, और नमाज़ की स्थापना करते हैं और जो कुछ हमने उन्हें दिया है, उसमें से ख़र्च करते हैं।
1. इस्लाम की परिभाषा में, अल्लाह, उसके फ़रिश्तों, उसकी पुस्तकों, उसके रसूलों तथा अंतिम दिन (प्रलय) और अच्छे-बुरे भाग्य पर ईमान (विश्वास) को 'ईमान बिल ग़ैब' कहा गया है। (इब्ने कसीर)
وَالَّذِيْنَ يُؤْمِنُوْنَ بِمَآ اُنْزِلَ اِلَيْكَ وَمَآ اُنْزِلَ مِنْ قَبْلِكَ ۚ وَبِالْاٰخِرَةِ هُمْ يُوْقِنُوْنَۗ٤
Wal-lażīna yu'minūna bimā unzila ilaika wa mā unzila min qablik(a), wabil-ākhirati hum yūqinūn(a).
[4]
तथा जो उसपर ईमान लाते हैं जो तुम्हारी ओर उतारा गया और जो तुमसे पहले उतारा गया2 और आख़िरत3 पर वही लोग विश्वास रखते हैं।
2. अर्थात तौरात, इंजील तथा अन्य आकाशीय पुस्तकें। 3.आख़िरत पर ईमान का अर्थ है : प्रलय तथा उसके पश्चात् फिर जीवित किये जाने तथा कर्मों के ह़िसाब एवं स्वर्ग तथा नरक पर विश्वास करना।
اُولٰۤىِٕكَ عَلٰى هُدًى مِّنْ رَّبِّهِمْ ۙ وَاُولٰۤىِٕكَ هُمُ الْمُفْلِحُوْنَ٥
Ulā'ika ‘alā hudam mir rabbihim wa ulā'ika humul-mufliḥūn(a).
[5]
यही लोग अपने पालनहार के बताए हुए मार्ग पर हैं तथा यही लोग सफल हैं।
اِنَّ الَّذِيْنَ كَفَرُوْا سَوَاۤءٌ عَلَيْهِمْ ءَاَنْذَرْتَهُمْ اَمْ لَمْ تُنْذِرْهُمْ لَا يُؤْمِنُوْنَ٦
Innal-lażīna kafarū sawā'un ‘alaihim a'anżartahum am lam tunżirhum lā yu'minūn(a).
[6]
निःसंदेह4 जिन लोगों ने कुफ़्र किया, उनपर बराबर है, चाहे आपने उन्हें डराया हो या उन्हें न डराया हो, वे ईमान नहीं लाएँगे।
4. इससे अभिप्राय वे लोग हैं, जो सत्य को जानते हुए उसे अभिमान के कारण नकार देते हैं।
خَتَمَ اللّٰهُ عَلٰى قُلُوْبِهِمْ وَعَلٰى سَمْعِهِمْ ۗ وَعَلٰٓى اَبْصَارِهِمْ غِشَاوَةٌ وَّلَهُمْ عَذَابٌ عَظِيْمٌ ࣖ٧
Khatamallāhu ‘alā qulūbihim wa ‘alā sam‘ihim wa ‘alā abṣārihim gisyāwatuw wa lahum ‘ażābun ‘aẓīm(un).
[7]
अल्लाह ने उनके दिलों पर तथा उनके कानों पर मुहर लगा दी और उनकी आँखों पर भारी पर्दा है तथा उनके लिए बहुत बड़ी यातना है।
وَمِنَ النَّاسِ مَنْ يَّقُوْلُ اٰمَنَّا بِاللّٰهِ وَبِالْيَوْمِ الْاٰخِرِ وَمَا هُمْ بِمُؤْمِنِيْنَۘ٨
Wa minan-nāsi may yaqūlu āmannā billāhi wa bil-yaumil-ākhiri wa mā hum bimu'minīn(a).
[8]
और5 कुछ लोग ऐसे हैं, जो कहते हैं कि हम अल्लाह पर तथा आख़िरत के दिन पर ईमान लाए, हालाँकि वे हरगिज़ मोमिन नहीं।
5. प्रथम आयतों में अल्लाह ने ईमान वालों की स्थिति की चर्चा करने के पश्चात् दो आयतों में काफ़िरों की दशा का वर्णन किया है। और अब उन मुनाफ़िक़ों (पाखंडियों) की दशा बता रहा है, जो मुख से तो ईमान की बात कहते हैं, लेकिन दिल में अविश्वास रखते हैं।
يُخٰدِعُوْنَ اللّٰهَ وَالَّذِيْنَ اٰمَنُوْا ۚ وَمَا يَخْدَعُوْنَ اِلَّآ اَنْفُسَهُمْ وَمَا يَشْعُرُوْنَۗ٩
Yukhādi‘ūnallāha wal-lażīna āmanū wa mā yakhda‘ūna illā anfusahum wa mā yasy‘urūn(a).
[9]
वे अल्लाह तथा ईमान वालों से धोखाबाज़ी करते हैं। हालाँकि वे अपनी जानों के सिवा किसी को धोखा नहीं दे रहे, परंतु वे समझते नहीं।
فِيْ قُلُوْبِهِمْ مَّرَضٌۙ فَزَادَهُمُ اللّٰهُ مَرَضًاۚ وَلَهُمْ عَذَابٌ اَلِيْمٌ ۢ ەۙ بِمَا كَانُوْا يَكْذِبُوْنَ١٠
Fī qulūbihim maraḍun fa zādahumullāhu maraḍā(n), wa lahum ‘ażābun alīmum bimā kānū yakżibūn(a).
[10]
उनके दिलों ही में एक रोग है, तो अल्लाह ने उन्हें रोग में और बढ़ा दिया और उनके लिए दर्दनाक यातना है, इस कारण कि वे झूठ बोलते थे।
وَاِذَا قِيْلَ لَهُمْ لَا تُفْسِدُوْا فِى الْاَرْضِۙ قَالُوْٓا اِنَّمَا نَحْنُ مُصْلِحُوْنَ١١
Wa iżā qīla lahum lā tufsidū fil-arḍ(i), qālū innamā naḥnu muṣliḥūn(a).
[11]
और जब उनसे कहा जाता है कि धरती में उपद्रव न करो, तो कहते हैं कि हम तो केवल सुधार करने वाले हैं।
اَلَآ اِنَّهُمْ هُمُ الْمُفْسِدُوْنَ وَلٰكِنْ لَّا يَشْعُرُوْنَ١٢
Alā innahum humul-mufsidūna wa lākil lā yasy‘urūn(a).
[12]
सावधान! निश्चय वही तो उपद्रव करने वाले हैं, परंतु वे नहीं समझते।
وَاِذَا قِيْلَ لَهُمْ اٰمِنُوْا كَمَآ اٰمَنَ النَّاسُ قَالُوْٓا اَنُؤْمِنُ كَمَآ اٰمَنَ السُّفَهَاۤءُ ۗ اَلَآ اِنَّهُمْ هُمُ السُّفَهَاۤءُ وَلٰكِنْ لَّا يَعْلَمُوْنَ١٣
Wa iżā qīla lahum āminū kamā āmanan nāsu qālū anu'minu kamā āmanas-sufahā'(u), alā innahum humus-sufahā'u wa lākil lā ya‘lamūn(a).
[13]
तथा6 जब उनसे कहा जाता है : ईमान लाओ जिस तरह लोग ईमान लाए हैं, तो कहते हैं : क्या हम ईमान लाएँ, जैसे मूर्ख ईमान लाए हैं? सुन लो! निःसंदेह वे स्वयं ही मूर्ख हैं, परंतु वे नहीं जानते।
6. यह दशा उन मुनाफ़िक़ों की है, जो अपने स्वार्थ के लिए मुसलमान हो गए, परंतु दिल से इनकार करते रहे।
وَاِذَا لَقُوا الَّذِيْنَ اٰمَنُوْا قَالُوْٓا اٰمَنَّا ۚ وَاِذَا خَلَوْا اِلٰى شَيٰطِيْنِهِمْ ۙ قَالُوْٓا اِنَّا مَعَكُمْ ۙاِنَّمَا نَحْنُ مُسْتَهْزِءُوْنَ١٤
Wa iżā laqul-lażīna āmanū qālū āmannā, wa iżā khalau ilā syayāṭīnihim qālū innā ma‘akum, innamā naḥnu mustahzi'ūn(a).
[14]
तथा जब वे ईमान लाने वालों से मिलते हैं, तो कहते हैं कि हम ईमान ले आए और जब अकेले में अपने शैतानों (प्रमुखों) के साथ होते हैं, तो कहते हैं कि निःसंदेह हम तुम्हारे साथ हैं। हम तो केवल उपहास करने वाले हैं।
اَللّٰهُ يَسْتَهْزِئُ بِهِمْ وَيَمُدُّهُمْ فِيْ طُغْيَانِهِمْ يَعْمَهُوْنَ١٥
Allāhu yastahzi'u bihim wa yamudduhum fī ṭugyānihim ya‘mahūn(a).
[15]
अल्लाह उनका मज़ाक़ उड़ाता है और उन्हें ढील दे रहा है, अपनी सरकशी में भटकते फिरते हैं।
اُولٰۤىِٕكَ الَّذِيْنَ اشْتَرَوُا الضَّلٰلَةَ بِالْهُدٰىۖ فَمَا رَبِحَتْ تِّجَارَتُهُمْ وَمَا كَانُوْا مُهْتَدِيْنَ١٦
Ulā'ikal-lażīnasytarawuḍ-ḍalālata bil-hudā, famā rabiḥat tijāratuhum wa mā kānū muhtadīn(a).
[16]
यही लोग हैं, जिन्होंने हिदायत (मार्गदर्शन) के बदले गुमराही खरीद ली। तो न उनके व्यापार ने लाभ दिया और न वे हिदायत पाने वाले बने।
مَثَلُهُمْ كَمَثَلِ الَّذِى اسْتَوْقَدَ نَارًا ۚ فَلَمَّآ اَضَاۤءَتْ مَا حَوْلَهٗ ذَهَبَ اللّٰهُ بِنُوْرِهِمْ وَتَرَكَهُمْ فِيْ ظُلُمٰتٍ لَّا يُبْصِرُوْنَ١٧
Maṡaluhum kamaṡalil-lażistauqada nārā(n), falammā aḍā'at mā ḥaulahūū żahaballāhu binūrihim wa tarakahum fī ẓulumātil lā yubṣirūn(a).
[17]
उनका7 उदाहरण उस व्यक्ति के उदाहरण जैसा है, जिसने एक आग भड़काई, फिर जब उसने उसके आस-पास की चीज़ों को प्रकाशित कर दिया, तो अल्लाह ने उनका प्रकाश छीन लिया और उन्हें कई तरह के अँधेरों में छोड़ दिया कि वे नहीं देखते।
7. यह उदाहरण उनका है जो संदेह तथा दुविधा में पड़े रह गए। कुछ सत्य को उन्हों ने स्वीकार भी किया, फिर भी अविश्वास के अँधेरों ही में रह गए।
صُمٌّ ۢ بُكْمٌ عُمْيٌ فَهُمْ لَا يَرْجِعُوْنَۙ١٨
Ṣummum bukmun ‘umyun fahum lā yarji‘ūn(a).
[18]
(वे) बहरे हैं, गूँगे हैं, अंधे हैं। अतः वे नहीं लौटते।
اَوْ كَصَيِّبٍ مِّنَ السَّمَاۤءِ فِيْهِ ظُلُمٰتٌ وَّرَعْدٌ وَّبَرْقٌۚ يَجْعَلُوْنَ اَصَابِعَهُمْ فِيْٓ اٰذَانِهِمْ مِّنَ الصَّوَاعِقِ حَذَرَ الْمَوْتِۗ وَاللّٰهُ مُحِيْطٌۢ بِالْكٰفِرِيْنَ١٩
Au kaṣayyibim minas-samā'i fīhi ẓulumātuw wa ra‘duw wa barq(un), yaj‘alūna aṣābi‘ahum fī āżānihim minaṣ-ṣawā‘iqi ḥażaral-maut(i), wallāhu muḥīṭum bil- kāfirīn(a).
[19]
या8 आकाश से होने वाली वर्षा के समान, जिसमें कई अँधेरे हैं, तथा गरज और चमक है। वे कड़कने वाली बिजलियों के कारण मृत्यु के भय से अपनी उंगलियाँ अपने कानों में डाल लेते हैं और अल्लाह काफ़िरों को घेरे हुए है।
8. यह दूसरा उदाहरण भी दूसरे प्रकार के मुनाफ़िक़ों की दशा का है।
يَكَادُ الْبَرْقُ يَخْطَفُ اَبْصَارَهُمْ ۗ كُلَّمَآ اَضَاۤءَ لَهُمْ مَّشَوْا فِيْهِ ۙ وَاِذَآ اَظْلَمَ عَلَيْهِمْ قَامُوْا ۗوَلَوْ شَاۤءَ اللّٰهُ لَذَهَبَ بِسَمْعِهِمْ وَاَبْصَارِهِمْ ۗ اِنَّ اللّٰهَ عَلٰى كُلِّ شَيْءٍ قَدِيْرٌ ࣖ٢٠
Yakādul-barqu yakhṭafu abṣārahum, kullamā aḍā'a lahum masyau fīh(i), wa iżā aẓlama ‘alaihim qāmū, wa lau syā'allāhu lażahaba bisam‘ihim wa abṣārihim, innallāha ‘alā kulli syai'in qadīr(un).
[20]
निकट है कि बिजली उनकी आँखों को उचक ले जाए। जब भी वह उनके लिए रोशनी करती है, तो उसमें चल पड़ते हैं और जब वह उनपर अँधेरा कर देती है, तो खड़े हो जाते हैं। और यदि अल्लाह चाहता, तो अवश्य उनके कान और उनकी आँखों को ले जाता। निःसंदेह अल्लाह हर चीज़ पर सर्वशक्तिमान है।
يٰٓاَيُّهَا النَّاسُ اعْبُدُوْا رَبَّكُمُ الَّذِيْ خَلَقَكُمْ وَالَّذِيْنَ مِنْ قَبْلِكُمْ لَعَلَّكُمْ تَتَّقُوْنَۙ٢١
Yā ayyuhan-nāsu‘budū rabbakumul-lażī khalaqakum wal-lażīna min qablikum la‘allakum tattaqūn(a).
[21]
ऐ लोगो! अपने उस पालनहार की इबादत करो, जिसने तुम्हें तथा तुमसे पहले के लोगों को पैदा किया, ताकि तुम बच9 जाओ।
9. अर्थात संसार में कुकर्मों तथा प्रलोक की यातना से।
الَّذِيْ جَعَلَ لَكُمُ الْاَرْضَ فِرَاشًا وَّالسَّمَاۤءَ بِنَاۤءً ۖوَّاَنْزَلَ مِنَ السَّمَاۤءِ مَاۤءً فَاَخْرَجَ بِهٖ مِنَ الثَّمَرٰتِ رِزْقًا لَّكُمْ ۚ فَلَا تَجْعَلُوْا لِلّٰهِ اَنْدَادًا وَّاَنْتُمْ تَعْلَمُوْنَ٢٢
Allażī ja‘ala lakumul-arḍa firāsyaw was-samā'a binā'ā(n), wa anzala minas-samā'i mā'an fa akhraja bihī minaṡ-ṡamarāti rizqal lakum, falā taj‘alū lillāhi andādaw wa antum ta‘lamūn(a).
[22]
जिसने तुम्हारे लिए धरती को एक बिछौना तथा आकाश को एक छत बनाया और आकाश से कुछ पानी उतारा, फिर उससे कई प्रकार के फल तुम्हारी जीविका के लिए पैदा किए। अतः अल्लाह के लिए किसी प्रकार के साझी न बनाओ, जबकि तुम जानते हो।10
10. अर्थात जब यह जानते हो कि तुम्हारा उत्पत्तिकर्ता तथा पालनहार अल्लाह के सिवा कोई नहीं, तो उपासना भी उसी एक की करो, जो उत्पत्तिकर्ता तथा सारे संसार का व्यवस्थापक है।
وَاِنْ كُنْتُمْ فِيْ رَيْبٍ مِّمَّا نَزَّلْنَا عَلٰى عَبْدِنَا فَأْتُوْا بِسُوْرَةٍ مِّنْ مِّثْلِهٖ ۖ وَادْعُوْا شُهَدَاۤءَكُمْ مِّنْ دُوْنِ اللّٰهِ اِنْ كُنْتُمْ صٰدِقِيْنَ٢٣
Wa in kuntum fī raibim mimmā nazzalnā ‘alā ‘abdinā fa'tū bisūratim mim miṡlih(ī), wad‘ū syuhadā'akum min dūnillāhi in kuntum ṣādiqīn(a).
[23]
और यदि तुम उस (पुस्तक) के बारे में किसी संदेह में हो, जो हमने अपने बंदे पर उतारा है, तो उसके समान एक सूरत ले आओ और अल्लाह के सिवा अपने समर्थकों को भी बुला लो, यदि तुम सच्चे11 हो।
11. आयत का भावार्थ यह है कि नबी के सत्य होने का प्रमाण आप पर उतारा गया क़ुरआन है। यह उनकी अपनी बनाई बात नहीं है। क़ुरआन ने ऐसी चुनौती अन्य आयतों में भी दी है। (देखिए : सूरतुल-क़सस, आयत : 49, इसरा, आयत : 88, हूद, आयत :13 और यूनुस, आयत : 38)
فَاِنْ لَّمْ تَفْعَلُوْا وَلَنْ تَفْعَلُوْا فَاتَّقُوا النَّارَ الَّتِيْ وَقُوْدُهَا النَّاسُ وَالْحِجَارَةُ ۖ اُعِدَّتْ لِلْكٰفِرِيْنَ٢٤
Fa'illam taf‘alū wa lan taf‘alū fattaqun-nāral-latī waqūduhan-nāsu wal-ḥijārah(tu), u‘iddat lil-kāfirīn(a).
[24]
फिर यदि तुमने ऐसा न किया और तुम ऐसा कभी नहीं कर पाओगे, तो उस आग से बचो, जिसका ईंधन मानव तथा पत्थर हैं, जो काफ़िरों के लिए तैयार की गई है।
وَبَشِّرِ الَّذِيْنَ اٰمَنُوْا وَعَمِلُوا الصّٰلِحٰتِ اَنَّ لَهُمْ جَنّٰتٍ تَجْرِيْ مِنْ تَحْتِهَا الْاَنْهٰرُ ۗ كُلَّمَا رُزِقُوْا مِنْهَا مِنْ ثَمَرَةٍ رِّزْقًا ۙ قَالُوْا هٰذَا الَّذِيْ رُزِقْنَا مِنْ قَبْلُ وَاُتُوْا بِهٖ مُتَشَابِهًا ۗوَلَهُمْ فِيْهَآ اَزْوَاجٌ مُّطَهَّرَةٌ وَّهُمْ فِيْهَا خٰلِدُوْنَ٢٥
Wa basysyiril-lażīna āmanū wa ‘amiluṣ-ṣāliḥāti anna lahum jannātin tajrī min taḥtihal- anhār(u), kullamā ruziqū minhā min ṡamaratir rizqā(n), qālū hāżal-lażī ruziqnā min qablu wa utū bihī mutasyābihā(n), wa lahum fīhā azwājum muṭahharatuw wa hum fīhā khālidūn(a).
[25]
और (ऐ नबी!) उन लोगों को शुभ सूचना दे दो, जो ईमान लाए तथा उन्होंने अच्छे काम किए कि निःसंदेह उनके लिए ऐसे स्वर्ग हैं, जिनके नीचे से नहरें बहती हैं। जब कभी उनमें से कोई फल उन्हें खाने के लिए दिया जाएगा, तो कहेंगे : यह तो वही है, जो इससे पहले हमें दिया गया था, तथा उन्हें एक-दूसरे से मिलता-जुलता फल दिया जाएगा तथा उनके लिए उनमें पवित्र पत्नियाँ होंगी और वे उनमें हमेशा रहने वाले हैं।
۞ اِنَّ اللّٰهَ لَا يَسْتَحْيٖٓ اَنْ يَّضْرِبَ مَثَلًا مَّا بَعُوْضَةً فَمَا فَوْقَهَا ۗ فَاَمَّا الَّذِيْنَ اٰمَنُوْا فَيَعْلَمُوْنَ اَنَّهُ الْحَقُّ مِنْ رَّبِّهِمْ ۚ وَاَمَّا الَّذِيْنَ كَفَرُوْا فَيَقُوْلُوْنَ مَاذَآ اَرَادَ اللّٰهُ بِهٰذَا مَثَلًا ۘ يُضِلُّ بِهٖ كَثِيْرًا وَّيَهْدِيْ بِهٖ كَثِيْرًا ۗ وَمَا يُضِلُّ بِهٖٓ اِلَّا الْفٰسِقِيْنَۙ٢٦
Innallāha lā yastaḥyī ay yaḍriba maṡalam mā ba‘ūḍatan famā fauqahā, fa'ammal- lażīna āmanū faya‘lamūna annahul-ḥaqqu mir rabbihim, wa ammal-lażīna kafarū fayaqūlūna māżā arādallāhu bihāżā maṡalā(n), yuḍillu bihī kaṡīraw wa yahdī bihī kaṡīrā(n), wa mā yuḍillu bihī illal-fāsiqīn(a).
[26]
निःसंदेह अल्लाह12 मच्छर अथवा उससे तुच्छ चीज़ की मिसाल देने से नहीं शरमाता। फिर जो ईमान लाए, वे जानते हैं कि यह उनके पालनहार की ओर से सत्य है और रहे वे जिन्होंने कुफ़्र किया, तो वे कहते हैं : अल्लाह ने इसके साथ उदाहरण देकर क्या इरादा किया है? वह इसके साथ बहुतों को गुमराह करता है और इसके साथ बहुतों को हिदायत देता है तथा वह इसके साथ केवल अवज्ञाकारियों को गुमराह करता है।
12. जब अल्लाह ने मुनाफ़िक़ों के दो उदाहरण दिए, तो उन्होंने कहा कि अल्लाह ऐसे तुच्छ उदाहरण कैसे दे सकता है? इसी पर यह आयत उतरी। (देखिये तफ़्सीर इब्ने कसीर)
الَّذِيْنَ يَنْقُضُوْنَ عَهْدَ اللّٰهِ مِنْۢ بَعْدِ مِيْثَاقِهٖۖ وَيَقْطَعُوْنَ مَآ اَمَرَ اللّٰهُ بِهٖٓ اَنْ يُّوْصَلَ وَيُفْسِدُوْنَ فِى الْاَرْضِۗ اُولٰۤىِٕكَ هُمُ الْخٰسِرُوْنَ٢٧
Allażīna yanquḍūna ‘ahdallāhi mim ba‘di mīṡāqih(ī), wa yaqṭa‘ūna mā amarallāhu bihī ay yūṣala wa yufsidūna fil-arḍ(i), ulā'ika humul-khāsirūn(a).
[27]
जो अल्लाह से पक्का वचन करने के बाद उसे भंग कर देते हैं तथा जिसे अल्लाह ने जोड़ने का आदेश दिया है, उसे तोड़ते हैं और धरती में उपद्रव करते हैं, यही लोग घाटा उठाने वाले हैं।
كَيْفَ تَكْفُرُوْنَ بِاللّٰهِ وَكُنْتُمْ اَمْوَاتًا فَاَحْيَاكُمْۚ ثُمَّ يُمِيْتُكُمْ ثُمَّ يُحْيِيْكُمْ ثُمَّ اِلَيْهِ تُرْجَعُوْنَ٢٨
Kaifa takfurūna billāhi wa kuntum amwātan fa'aḥyākum, ṡumma yumītukum ṡumma yuḥyīkum ṡumma ilaihi turja‘ūn(a).
[28]
तुम अल्लाह का इनकार कैसे करते हो? जबकि तुम निर्जीव थे, तो उसने तुम्हें जीवन दिया, फिर वह तुम्हें मौत देगा, फिर तुम्हें (परलोक में) जीवित करेगा, फिर तुम उसी की ओर लौटाए13 जाओगे।
13. अर्थात परलोक में अपने कर्मों का फल भोगने के लिए।
هُوَ الَّذِيْ خَلَقَ لَكُمْ مَّا فِى الْاَرْضِ جَمِيْعًا ثُمَّ اسْتَوٰٓى اِلَى السَّمَاۤءِ فَسَوّٰىهُنَّ سَبْعَ سَمٰوٰتٍ ۗ وَهُوَ بِكُلِّ شَيْءٍ عَلِيْمٌ ࣖ٢٩
Huwal-lażī khalaqa lakum mā fil-arḍi jamī‘ā(n), ṡummastawā ilas-samā'i fasawwāhunna sab‘a samāwāt(in), wa huwa bikulli syai'in ‘alīm(un).
[29]
वही है, जिसने धरती में जो कुछ है, सब तुम्हारे लिए पैदा किया, फिर आकाश की ओर रुख़ किया, तो उन्हें ठीक करके सात आकाश बना दिया और वह प्रत्येक चीज़ को ख़ूब जानने वाला है।
وَاِذْ قَالَ رَبُّكَ لِلْمَلٰۤىِٕكَةِ اِنِّيْ جَاعِلٌ فِى الْاَرْضِ خَلِيْفَةً ۗ قَالُوْٓا اَتَجْعَلُ فِيْهَا مَنْ يُّفْسِدُ فِيْهَا وَيَسْفِكُ الدِّمَاۤءَۚ وَنَحْنُ نُسَبِّحُ بِحَمْدِكَ وَنُقَدِّسُ لَكَ ۗ قَالَ اِنِّيْٓ اَعْلَمُ مَا لَا تَعْلَمُوْنَ٣٠
Wa iż qāla rabbuka lil-malā'ikati innī jā‘ilun fil-arḍi khalīfah(tan), qālū ataj‘alu fīhā may yufsidu fīhā wa yasfikud-dimā'(a), wa naḥnu nusabbiḥu biḥamdika wa nuqaddisu lak(a), qāla innī a‘lamu mā lā ta‘lamūn(a).
[30]
और (ऐ नबी! याद कीजिए) जब आपके पालनहार ने फ़रिश्तों से कहा कि मैं धरती में एक ख़लीफ़ा14 बनाने वाला हूँ। उन्होंने कहा : क्या तू उसमें उसको बनाएगा, जो उसमें उपद्रव करेगा तथा बहुत रक्तपात करेगा, जबकि हम तेरी प्रशंसा के साथ तेरा गुणगान करते और तेरी पवित्रता का वर्णन करते हैं। (अल्लाह ने) फरमाया : निःसंदेह मैं जानता हूँ जो तुम नहीं जानते।
14. इब्ने कसीर के अनुसार, ख़लीफ़ा का अर्थ है : वे लोग जो पीढ़ी दर पीढ़ी एक-दूसरे के उत्तराधिकारी होंगे।
وَعَلَّمَ اٰدَمَ الْاَسْمَاۤءَ كُلَّهَا ثُمَّ عَرَضَهُمْ عَلَى الْمَلٰۤىِٕكَةِ فَقَالَ اَنْۢبِـُٔوْنِيْ بِاَسْمَاۤءِ هٰٓؤُلَاۤءِ اِنْ كُنْتُمْ صٰدِقِيْنَ٣١
Wa ‘allama ādamal-asmā'a kullahā ṡumma ‘araḍahum ‘alal-malā'ikati faqāla ambi'ūnī bi'asmā'i hā'ulā'i in kuntum ṣādiqīn(a).
[31]
और उस (अल्लाह) ने आदम15 को सभी नाम सिखा दिए, फिर उन्हें फ़रिश्तों के समक्ष प्रस्तुत किया, फिर फरमाया : मुझे इनके नाम बताओ, यदि तुम सच्चे हो।
15. आदम प्रथम मनु का नाम।
قَالُوْا سُبْحٰنَكَ لَا عِلْمَ لَنَآ اِلَّا مَا عَلَّمْتَنَا ۗاِنَّكَ اَنْتَ الْعَلِيْمُ الْحَكِيْمُ٣٢
Qālū subḥānaka lā ‘ilma lanā illā mā ‘allamtanā, innaka antal-‘alīmul-ḥakīm(u).
[32]
उन्होंने कहा : तू पवित्र है। हमें कुछ ज्ञान नहीं परंतु जो तूने हमें सिखाया। निःसंदेह तू ही सब कुछ जानने वाला, पूर्ण हिकमत16 वाला है।
16. हिकमत वाला : अर्थात जो भेद तथा रहस्य को जानता हो।
قَالَ يٰٓاٰدَمُ اَنْۢبِئْهُمْ بِاَسْمَاۤىِٕهِمْ ۚ فَلَمَّآ اَنْۢبَاَهُمْ بِاَسْمَاۤىِٕهِمْۙ قَالَ اَلَمْ اَقُلْ لَّكُمْ اِنِّيْٓ اَعْلَمُ غَيْبَ السَّمٰوٰتِ وَالْاَرْضِۙ وَاَعْلَمُ مَا تُبْدُوْنَ وَمَا كُنْتُمْ تَكْتُمُوْنَ٣٣
Qāla yā ādamu ambi'hum bi'asmā'ihim, falammā amba'ahum bi'asmā'ihim, qāla alam aqul lakum innī a‘lamu gaibas-samāwāti wal-arḍ(i), wa a‘lamu mā tubdūna wa mā kuntum taktumūn(a).
[33]
(अल्लाह ने) फरमाया : ऐ आदम! उन्हें इनके नाम बताओ। तो जब उस (आदम) ने उन्हें उनके नाम बता दिए, तो अल्लाह ने कहा : क्या मैंने तुमसे नहीं कहा था कि निःसंदेह मैं ही आकाशों तथा धरती की छिपी बातों को जानता हूँ तथा जानता हूँ जो कुछ तुम ज़ाहिर करते हो और जो कुछ तुम छिपाते हो।
وَاِذْ قُلْنَا لِلْمَلٰۤىِٕكَةِ اسْجُدُوْا لِاٰدَمَ فَسَجَدُوْٓا اِلَّآ اِبْلِيْسَۗ اَبٰى وَاسْتَكْبَرَۖ وَكَانَ مِنَ الْكٰفِرِيْنَ٣٤
Wa iż qulnā lil-malā'ikatisjudū li ādama fasajadū illā iblīs(a), abā wastakbara wa kāna minal-kāfirīn(a).
[34]
और जब हमने फ़रिश्तों से कहा : आदम को सजदा करो, तो उन्होंने सजदा किया सिवाय इबलीस के। उसने इनकार किया और अभिमान किया और काफ़िरों में से हो गया।
وَقُلْنَا يٰٓاٰدَمُ اسْكُنْ اَنْتَ وَزَوْجُكَ الْجَنَّةَ وَكُلَا مِنْهَا رَغَدًا حَيْثُ شِئْتُمَاۖ وَلَا تَقْرَبَا هٰذِهِ الشَّجَرَةَ فَتَكُوْنَا مِنَ الظّٰلِمِيْنَ٣٥
Wa qulnā yā ādamuskun anta wa zaujukal-jannata wa kulā minhā ragadan ḥaiṡu syi'tumā, wa lā taqrabā hāżihisy-syajarata fa takūnā minaẓ-ẓālimīn(a).
[35]
और हमने कहा : ऐ आदम! तुम और तुम्हारी पत्नी जन्नत में निवास करो और दोनों उसमें से जहाँ से चाहो वहाँ से (आराम और) बहुतायत से खाओ। और तुम दोनों इस वृक्ष के क़रीब न जाना, अन्यथा तुम दोनों अत्याचारियों में से हो जाओगे।
فَاَزَلَّهُمَا الشَّيْطٰنُ عَنْهَا فَاَخْرَجَهُمَا مِمَّا كَانَا فِيْهِ ۖ وَقُلْنَا اهْبِطُوْا بَعْضُكُمْ لِبَعْضٍ عَدُوٌّ ۚ وَلَكُمْ فِى الْاَرْضِ مُسْتَقَرٌّ وَّمَتَاعٌ اِلٰى حِيْنٍ٣٦
Fa'azallahumasy-syaiṭānu ‘anhā fa akhrajahumā mimmā kānā fīh(i), wa qulnahbiṭū ba‘ḍukum liba‘ḍin ‘aduww(un), wa lakum fil-arḍi mustaqarruw wa matā‘un ilā ḥīn(in).
[36]
तो शैतान ने दोनों को उससे फिसला दिया, चुनाँचे उन्हें उससे निकाल दिया, जिसमें वे दोनों थे और हमने कहा : उतर जाओ, तुम एक-दूसरे के शत्रु हो और तुम्हारे लिए धरती में एक समय17 तक ठहरना तथा लाभ उठाना है।
17. अर्थात अपनी निश्चित आयु तक सांसारिक जीवन के संसाधन से लाभान्वित होना है।
فَتَلَقّٰٓى اٰدَمُ مِنْ رَّبِّهٖ كَلِمٰتٍ فَتَابَ عَلَيْهِ ۗ اِنَّهٗ هُوَ التَّوَّابُ الرَّحِيْمُ٣٧
Fatalaqqā ādamu mir rabbihī kalimātin fatāba ‘alaih(i), innahū huwat-tawwābur- raḥīm(u).
[37]
फिर आदम ने अपने पालनहार से कुछ शब्द सीख लिए, तो उसने उसकी तौबा क़बूल कर ली। निश्चय वही है जो बहुत तौबा क़बूल करने वाला, अत्यंत दयावान्18 है।
18. आयत का भावार्थ यह है कि आदम ने कुछ शब्द सीखे और उनके द्वारा क्षमा याचना की, तो अल्लाह ने उसे क्षमा कर दिया। आदम के उन शब्दों की व्याख्या भाष्यकारों ने इन शब्दों से की है : "आदम तथा ह़व्वा दोनों ने कहा : हे हमारे पालनहार! हमने अपने प्राणों पर अत्याचार कर लिया और यदि तूने हमें क्षमा और हम पर दया नहीं की, तो हम क्षतिग्रस्तों में हो जाएँगे।" (सूरतुल आराफ, आयत :23)
قُلْنَا اهْبِطُوْا مِنْهَا جَمِيْعًا ۚ فَاِمَّا يَأْتِيَنَّكُمْ مِّنِّيْ هُدًى فَمَنْ تَبِعَ هُدَايَ فَلَا خَوْفٌ عَلَيْهِمْ وَلَا هُمْ يَحْزَنُوْنَ٣٨
Qulnahbiṭū minhā jamī‘ā(n), fa'immā ya'tiyannakum minnī hudan faman tabi‘a hudāya falā khaufun ‘alaihim wa lā hum yaḥzanūn(a).
[38]
हमने कहा : सब के सब इससे उतर जाओ। फिर यदि तुम्हारे पास मेरी ओर से कोई मार्गदर्शन आए, तो जिसने मेरे मार्गदर्शन का पालन किया, तो उनपर न कोई डर है और न वे शोकाकुल होंगे।
وَالَّذِيْنَ كَفَرُوْا وَكَذَّبُوْا بِاٰيٰتِنَآ اُولٰۤىِٕكَ اَصْحٰبُ النَّارِ ۚ هُمْ فِيْهَا خٰلِدُوْنَ ࣖ٣٩
Wal-lażīna kafarū wa każżabū bi'āyātinā ulā'ika aṣḥābun-nār(i), hum fīhā khālidūn(a).
[39]
तथा जिन्होंने कुफ़्र किया और हमारी आयतों को झुठलाया, वही लोग आग (नरक) वाले हैं, वे उसमें हमेशा रहने वाले हैं।
يٰبَنِيْٓ اِسْرَاۤءِيْلَ اذْكُرُوْا نِعْمَتِيَ الَّتِيْٓ اَنْعَمْتُ عَلَيْكُمْ وَاَوْفُوْا بِعَهْدِيْٓ اُوْفِ بِعَهْدِكُمْۚ وَاِيَّايَ فَارْهَبُوْنِ٤٠
Yā banī isrā'īlażkurū ni‘matiyal-latī an‘amtu ‘alaikum wa aufū bi‘ahdī ūfi bi‘ahdikum, wa iyyāya farhabūn(i).
[40]
ऐ बनी इसराईल!19 मेरी वह नेमत याद करो, जो मैंने तुम्हें प्रदान की, तथा तुम मेरी प्रतिज्ञा को पूरा करो, मैं तुम्हारी प्रतिज्ञा को पूरा करूँगा, तथा केवल मुझी से डरो।20
19. इसराईल आदरणीय इबराहीम अलैहिस्सलाम के पौत्र याक़ूब अलैहिस्सलाम की उपाधि है। इसलिए उनकी संतान को बनी इसराईल कहा गया है। यहाँ उन्हें यह प्रेरणा दी जा रही है कि क़ुरआन तथा अंतिम नबी को मान लें, जिसका वचन उनकी पुस्तक "तौरात" में लिया गया है। यहाँ यह ज्ञातव्य है कि इबराहीम अलैहिस्सलाम के दो पुत्र इसमाईल तथा इसह़ाक़ हैं। इसह़ाक़ की संतान से बहुत से नबी आए, परंतु इसमाईल अलैहिस्सलाम के गोत्र से केवल अंतिम नबी मुह़म्मद सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम आए। 20. अर्थात वचन भंग करने से।
وَاٰمِنُوْا بِمَآ اَنْزَلْتُ مُصَدِّقًا لِّمَا مَعَكُمْ وَلَا تَكُوْنُوْٓا اَوَّلَ كَافِرٍۢ بِهٖ ۖ وَلَا تَشْتَرُوْا بِاٰيٰتِيْ ثَمَنًا قَلِيْلًا ۖوَّاِيَّايَ فَاتَّقُوْنِ٤١
Wa āminū bimā anzaltu muṣaddiqal limā ma‘akum wa lā takūnū awwala kāfirim bih(ī), wa lā tasytarū bi'āyātī ṡamanan qalīlā(n), wa iyyāya fattaqūn(i).
[41]
तथा उस (क़ुरआन) पर ईमान लाओ, जो मैंने उतारा है, उसकी पुष्टि करने वाला है जो तुम्हारे पास21 है और तुम सबसे पहले इससे कुफ़्र करने वाले न बनो तथा मेरी आयतों के बदले थोड़ा मूल्य न लो और केवल मुझी से डरो।
21. अर्थात धर्म-पुस्तक तौरात।
وَلَا تَلْبِسُوا الْحَقَّ بِالْبَاطِلِ وَتَكْتُمُوا الْحَقَّ وَاَنْتُمْ تَعْلَمُوْنَ٤٢
Wa lā talbisul-ḥaqqa bil-bāṭili wa taktumul-ḥaqqa wa antum ta‘lamūn(a).
[42]
तथा सत्य को असत्य से न मिलाओ और न सत्य को जानते हुए छिपाओ।22
22. अर्थात अंतिम नबी के गुणों को, जो तुम्हारी पुस्तकों में वर्णित किए गए हैं।
وَاَقِيْمُوا الصَّلٰوةَ وَاٰتُوا الزَّكٰوةَ وَارْكَعُوْا مَعَ الرّٰكِعِيْنَ٤٣
Wa aqīmuṣ-ṣalāta wa ātuz-zakāta warka‘ū ma‘ar-rāki‘īn(a).
[43]
तथा नमाज़ क़ायम करो और ज़कात दो और झुकने वालों के साथ झुक जाओ।
۞ اَتَأْمُرُوْنَ النَّاسَ بِالْبِرِّ وَتَنْسَوْنَ اَنْفُسَكُمْ وَاَنْتُمْ تَتْلُوْنَ الْكِتٰبَ ۗ اَفَلَا تَعْقِلُوْنَ٤٤
Ata'murūnan-nāsa bil-birri wa tansauna anfusakum wa antum tatlūnal-kitāb(a), afalā ta‘qilūn(a).
[44]
क्या तुम लोगों को सत्कर्म का आदेश देते हो और अपने आपको भूल जाते हो, हालाँकि तुम पुस्तक पढ़ते हो! तो क्या तुम नहीं समझते?23
23. नबी सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम की एक ह़दीस (कथन) में इसका दुष्परिणाम यह बताया गया है कि प्रलय के दिन एक व्यक्ति को लाया जाएगा, और नरक में फेंक दिया जाएगा। उसकी अंतड़ियाँ निकल जाएँगी, और वह उनको लेकर नरक में ऐसे फिरेगा, जैसे गधा चक्की के साथ फिरता है। तो नारकी उसके पास जाएँगे और कहेंगे कि तुम पर यह क्या आपदा आ पड़ी है? तुम तो हमें सदाचार का आदेश देते, तथा दुराचार से रोकते थे! वह कहेगा कि मैं तुम्हें सदाचार का आदेश देता था, परंतु स्वयं नहीं करता था। तथा दुराचार से रोकता था और स्वयं नहीं रुकता था। (सह़ीह़ बुखारी, ह़दीस संख्या : 3267)
وَاسْتَعِيْنُوْا بِالصَّبْرِ وَالصَّلٰوةِ ۗ وَاِنَّهَا لَكَبِيْرَةٌ اِلَّا عَلَى الْخٰشِعِيْنَۙ٤٥
Wasta‘īnū biṣ-ṣabri waṣ-ṣalāh(ti), wa innahā lakabīratun illā ‘alal-khāsyi‘īn(a).
[45]
तथा सब्र और नमाज़ से मदद माँगो और निःसंदेह वह (नमाज़) निश्चय बहुत भारी है, परंतु अल्लाह के प्रति पूर्ण समर्पण करने वालों पर (नहीं)।24
24. भावार्थ यह है कि धैर्य तथा नमाज़ से अल्लाह की आज्ञा के अनुपालन तथा सदाचार की भावना उत्पन्न होती है।
الَّذِيْنَ يَظُنُّوْنَ اَنَّهُمْ مُّلٰقُوْا رَبِّهِمْ وَاَنَّهُمْ اِلَيْهِ رٰجِعُوْنَ ࣖ٤٦
Allażīna yaẓunnūna annahum mulāqū rabbihim wa annahum ilaihi rāji‘ūn(a).
[46]
जो विश्वास रखते हैं कि निःसंदेह वे अपने पालनहार से मिलने वाले हैं और यह कि निःसंदेह वे उसी की ओर लौटने वाले हैं।
يٰبَنِيْٓ اِسْرَاۤءِيْلَ اذْكُرُوْا نِعْمَتِيَ الَّتِيْٓ اَنْعَمْتُ عَلَيْكُمْ وَاَنِّيْ فَضَّلْتُكُمْ عَلَى الْعٰلَمِيْنَ٤٧
Yā banī isrā'īlażkurū ni‘matiyal-latī an‘amtu ‘alaikum wa annī faḍḍaltukum ‘alal- ‘ālamīn(a).
[47]
ऐ इसराईल की संतान! मेरे उस अनुग्रह को याद करो, जो मैंने तुमपर किया और यह कि निःसंदेह मैंने ही तुम्हें संसार वालों पर श्रेष्ठता प्रदान की।
وَاتَّقُوْا يَوْمًا لَّا تَجْزِيْ نَفْسٌ عَنْ نَّفْسٍ شَيْـًٔا وَّلَا يُقْبَلُ مِنْهَا شَفَاعَةٌ وَّلَا يُؤْخَذُ مِنْهَا عَدْلٌ وَّلَا هُمْ يُنْصَرُوْنَ٤٨
Wattaqū yaumal lā tajzī nafsun ‘an nafsin syai'aw wa lā yuqbalu minhā syafā‘atuw wa lā yu'khażu minhā ‘adluw wa lā hum yunṣarūn(a).
[48]
तथा उस दिन से डरो, जब कोई किसी के कुछ काम न आएगा, और न उससे कोई अनुशंसा (सिफ़ारिश) स्वीकार की जाएगी, और न उससे कोई फ़िदया (दंड राशि) लिया जाएगा और न उनकी मदद की जाएगी।
وَاِذْ نَجَّيْنٰكُمْ مِّنْ اٰلِ فِرْعَوْنَ يَسُوْمُوْنَكُمْ سُوْۤءَ الْعَذَابِ يُذَبِّحُوْنَ اَبْنَاۤءَكُمْ وَيَسْتَحْيُوْنَ نِسَاۤءَكُمْ ۗ وَفِيْ ذٰلِكُمْ بَلَاۤءٌ مِّنْ رَّبِّكُمْ عَظِيْمٌ٤٩
Wa iż najjainākum min āli fir‘auna yasūmūnakum sū'al-‘ażābi yużabbiḥūna abnā'akum wa yastaḥyūna nisā'akum, wa fī żālikum balā'um mir rabbikum ‘aẓīm(un).
[49]
तथा (वह समय याद करो) जब हमने तुम्हें फ़िरऔनियों25 से मुक्ति दिलाई, जो तुम्हें बुरी यातना देते थे; तुम्हारे बेटों को बुरी तरह ज़बह कर देते थे तथा तुम्हारी स्त्रियों को जीवित छोड़ देते थे। इसमें तुम्हारे पालनहार की ओर से बड़ी परीक्षा थी।
25. फ़िरऔन मिस्र के शासकों की उपाधि होती थी।
وَاِذْ فَرَقْنَا بِكُمُ الْبَحْرَ فَاَنْجَيْنٰكُمْ وَاَغْرَقْنَآ اٰلَ فِرْعَوْنَ وَاَنْتُمْ تَنْظُرُوْنَ٥٠
Wa iż faraqnā bikumul-baḥra fa'anjainākum wa agraqnā āla fir‘auna wa antum tanẓurūn(a).
[50]
तथा (उस समय को याद करो) जब हमने तुम्हारे लिए सागर को फाड़ दिया, फिर हमने तुम्हें बचा लिया और फ़िरऔनियों को डुबो दिया और तुम देख रहे थे।
وَاِذْ وٰعَدْنَا مُوْسٰىٓ اَرْبَعِيْنَ لَيْلَةً ثُمَّ اتَّخَذْتُمُ الْعِجْلَ مِنْۢ بَعْدِهٖ وَاَنْتُمْ ظٰلِمُوْنَ٥١
Wa iż wā‘adnā mūsā arba‘īna lailatan ṡummattakhażtumul-‘ijla mim ba‘dihī wa antum ẓālimūn(a).
[51]
तथा (याद करो) जब हमने मूसा को (तौरात प्रदान करने के लिए) चालीस रातों का वादा किया, फिर उसके बाद तुमने बछड़े को (पूज्य) बना लिया और तुम अत्याचारी थे।
ثُمَّ عَفَوْنَا عَنْكُمْ مِّنْۢ بَعْدِ ذٰلِكَ لَعَلَّكُمْ تَشْكُرُوْنَ٥٢
Ṡumma ‘afaunā ‘ankum mim ba‘di żālika la‘allakum tasykurūn(a).
[52]
फिर हमने इसके बाद तुम्हें क्षमा कर दिया, ताकि तुम शुक्रगुज़ार बनो।
وَاِذْ اٰتَيْنَا مُوْسَى الْكِتٰبَ وَالْفُرْقَانَ لَعَلَّكُمْ تَهْتَدُوْنَ٥٣
Wa iż ātainā mūsal-kitāba wal-furqāna la‘allakum tahtadūn(a).
[53]
तथा (हमारी वह अनुग्रह भी याद करो) जब हमने मूसा को पुस्तक (तौरात) और (सत्य एवं असत्य के बीच) अंतर करने वाली चीज़26 प्रदान की, ताकि तुम मार्गदर्शन पा सको।
26. फ़ुरक़ान का अर्थ है भेदकारी, अर्थात सत्य और असत्य, सही और गलत के बीच भेद या अंतर करने वाला।
وَاِذْ قَالَ مُوْسٰى لِقَوْمِهٖ يٰقَوْمِ اِنَّكُمْ ظَلَمْتُمْ اَنْفُسَكُمْ بِاتِّخَاذِكُمُ الْعِجْلَ فَتُوْبُوْٓا اِلٰى بَارِىِٕكُمْ فَاقْتُلُوْٓا اَنْفُسَكُمْۗ ذٰلِكُمْ خَيْرٌ لَّكُمْ عِنْدَ بَارِىِٕكُمْۗ فَتَابَ عَلَيْكُمْ ۗ اِنَّهٗ هُوَ التَّوَّابُ الرَّحِيْمُ٥٤
Wa iż qāla mūsā liqaumihī yā qaumi innakum ẓalamtum anfusakum bittikhāżikumul- ‘ijla fatūbū ilā bāri'ikum faqtulū anfusakum, żālikum khairul lakum ‘inda bāri'ikum, fatāba ‘alaikum, innahū huwat-tawwābur-raḥīm(u).
[54]
तथा (वह समय याद करो) जब मूसा ने अपनी जाति से कहा : ऐ मेरी जाति के लोगो! निःसंदेह तुमने बछड़े को पूज्य बनाकर अपने आपपर अत्याचार किया है। अतः तुम अपने पैदा करने वाले के समक्ष तौबा करो और आपस में एक-दूसरे27 को क़त्ल करो। यही तुम्हारे लिए तुम्हारे पैदा करने वाले के निकट बेहतर है। फिर उसने तुम्हारी तौबा क़बूल कर ली। निःसंदेह वही बहुत तौबा क़बूल करने वाला, अत्यंत दयावान् है।
27. अर्थात जिसने बछड़े की पूजा की है, उसे, जो निर्दोष हो वह हत करे। यही दोषी के लिए क्षमा है। (तफ़्सीर इब्ने कसीर)
وَاِذْ قُلْتُمْ يٰمُوْسٰى لَنْ نُّؤْمِنَ لَكَ حَتّٰى نَرَى اللّٰهَ جَهْرَةً فَاَخَذَتْكُمُ الصّٰعِقَةُ وَاَنْتُمْ تَنْظُرُوْنَ٥٥
Wa iż qultum yā mūsā lan nu'mina laka ḥattā narallāha jahratan fa'akhażatkumuṣ-ṣā‘iqatu wa antum tanẓurūn(a).
[55]
तथा (वह समय याद करो) जब तुमने कहा : ऐ मूसा! हम कदापि तुम्हारा विश्वास नहीं करेंगे, यहाँ तक कि हम अल्लाह को खुल्लम-खुल्ला देख लें! तो तुम्हें बिजली की कड़क ने पकड़ लिया और तुम देख रहे थे।
ثُمَّ بَعَثْنٰكُمْ مِّنْۢ بَعْدِ مَوْتِكُمْ لَعَلَّكُمْ تَشْكُرُوْنَ٥٦
Ṡumma ba‘aṡnākum mim ba‘di mautikum la‘allakum tasykurūn(a).
[56]
फिर हमने तुम्हें तुम्हारे मरने के बाद जीवित किया, ताकि तुम आभार प्रकट करो।
وَظَلَّلْنَا عَلَيْكُمُ الْغَمَامَ وَاَنْزَلْنَا عَلَيْكُمُ الْمَنَّ وَالسَّلْوٰى ۗ كُلُوْا مِنْ طَيِّبٰتِ مَا رَزَقْنٰكُمْ ۗ وَمَا ظَلَمُوْنَا وَلٰكِنْ كَانُوْٓا اَنْفُسَهُمْ يَظْلِمُوْنَ٥٧
Wa ẓallalnā ‘alaikumul-gamāma wa anzalnā ‘alaikumul-manna was-salwā, kulū min ṭayyibāti mā razaqnākum, wa mā ẓalamūnā wa lākin kānū anfusahum yaẓlimūn(a).
[57]
और हमने तुमपर बादलों की छाया28 की, तथा हमने तुमपर 'मन्न'29 और 'सलवा' उतारा, (और तुमसे कहा :) उन अच्छी पाक चीज़ों में से खाओ, जो हमने तुम्हें प्रदान की हैं। और उन्होंने हमपर अत्याचार नहीं किया, परंतु वे अपने आप ही पर अत्याचार किया करते थे।
28. अधिकांश भाष्यकारों ने इसे "तीह" के क्षेत्र से संबंधित माना है। (देखिए : तफ़्सीर क़ुर्तुबी) 29.भाष्यकारों ने लिखा है कि "मन्न" एक प्रकार का अति मीठा स्वादिष्ट गोंद था, जो ओस के समान रात्रि के समय आकाश से गिरता था। तथा "सलवा" एक प्रकार के पक्षी थे, जो संध्या के समय सीनै के पास हज़ारों की संख्या में एकत्र हो जाते, जिन्हें बनी इसराईल पकड़ कर खाते थे।
وَاِذْ قُلْنَا ادْخُلُوْا هٰذِهِ الْقَرْيَةَ فَكُلُوْا مِنْهَا حَيْثُ شِئْتُمْ رَغَدًا وَّادْخُلُوا الْبَابَ سُجَّدًا وَّقُوْلُوْا حِطَّةٌ نَّغْفِرْ لَكُمْ خَطٰيٰكُمْ ۗ وَسَنَزِيْدُ الْمُحْسِنِيْنَ٥٨
Wa iż qulnadkhulū hāżihil-qaryata fakulū minhā ḥaiṡu syi'tum ragadaw wadkhulul- bāba sujjadaw wa qūlū ḥiṭṭatun nagfir lakum khaṭāyākum, wa sanazīdul-muḥsinīn(a).
[58]
और (याद करो) जब हमने कहा : इस बस्ती30 में प्रवेश कर जाओ, फिर इसमें से जहाँ से चाहो, (आराम और) बहुतायत से खाओ, और इसके द्वार से सिर झुकाए हुए प्रवेश करो, और कहो क्षमा कर दे, तो हम तुम्हारे पापों को क्षमा कर देंगे तथा हम नेकी करने वालों को शीघ्र ही अधिक प्रदान करेंगे।
30. साधारण भाष्यकारों ने इस बस्ती को "बैतुल मुक़द्दस" माना है।
فَبَدَّلَ الَّذِيْنَ ظَلَمُوْا قَوْلًا غَيْرَ الَّذِيْ قِيْلَ لَهُمْ فَاَنْزَلْنَا عَلَى الَّذِيْنَ ظَلَمُوْا رِجْزًا مِّنَ السَّمَاۤءِ بِمَا كَانُوْا يَفْسُقُوْنَ ࣖ٥٩
Fabaddalal-lażīna ẓalamū qaulan gairal-lażī qīla lahum fa anzalnā ‘alal-lażīna ẓalamū rijzam minas-samā'i bimā kānū yafsuqūn(a).
[59]
फिर इन अत्याचारियों ने बात को उसके विपरीत बदल दिया, जो उनसे कही गई थी। तो हमने इन अत्याचारियों पर आकाश से एक यातना उतारी, इस कारण कि वे अवज्ञा करते थे।
۞ وَاِذِ اسْتَسْقٰى مُوْسٰى لِقَوْمِهٖ فَقُلْنَا اضْرِبْ بِّعَصَاكَ الْحَجَرَۗ فَانْفَجَرَتْ مِنْهُ اثْنَتَا عَشْرَةَ عَيْنًا ۗ قَدْ عَلِمَ كُلُّ اُنَاسٍ مَّشْرَبَهُمْ ۗ كُلُوْا وَاشْرَبُوْا مِنْ رِّزْقِ اللّٰهِ وَلَا تَعْثَوْا فِى الْاَرْضِ مُفْسِدِيْنَ٦٠
Wa iżistasqā mūsā liqaumihī faqulnaḍrib bi‘aṣākal-ḥajar(a), fanfajarat minhuṡnatā ‘asyrata ‘ainā(n), qad ‘alima kullu unāsim masyrabahum, kulū wasyrabū mir rizqillāhi wa lā ta‘ṡau fil-arḍi mufsidīn(a).
[60]
तथा (वह समय याद करो) जब मूसा ने अपनी जाति के लिए पानी माँगा, तो हमने कहा : अपनी लाठी पत्थर पर मारो। तो उससे बारह31 सोते फूट निकले। निःसंदेह सब लोगों ने अपने पीने के स्थान को जान लिया। अल्लाह के दिए हुए में से खाओ और पियो और धरती में बिगाड़ फैलाते न फिरो।
31. इसराईली वंश के बारह क़बीले थे। अल्लाह ने प्रत्येक क़बीले के लिए अलग-अलग सोते निकाल दिए, ताकि उनके बीच पानी के लिए झगड़ा न हो। (देखिए : तफ़्सीर क़ुर्तुबी)।
وَاِذْ قُلْتُمْ يٰمُوْسٰى لَنْ نَّصْبِرَ عَلٰى طَعَامٍ وَّاحِدٍ فَادْعُ لَنَا رَبَّكَ يُخْرِجْ لَنَا مِمَّا تُنْۢبِتُ الْاَرْضُ مِنْۢ بَقْلِهَا وَقِثَّاۤىِٕهَا وَفُوْمِهَا وَعَدَسِهَا وَبَصَلِهَا ۗ قَالَ اَتَسْتَبْدِلُوْنَ الَّذِيْ هُوَ اَدْنٰى بِالَّذِيْ هُوَ خَيْرٌ ۗ اِهْبِطُوْا مِصْرًا فَاِنَّ لَكُمْ مَّا سَاَلْتُمْ ۗ وَضُرِبَتْ عَلَيْهِمُ الذِّلَّةُ وَالْمَسْكَنَةُ وَبَاۤءُوْ بِغَضَبٍ مِّنَ اللّٰهِ ۗ ذٰلِكَ بِاَنَّهُمْ كَانُوْا يَكْفُرُوْنَ بِاٰيٰتِ اللّٰهِ وَيَقْتُلُوْنَ النَّبِيّٖنَ بِغَيْرِ الْحَقِّ ۗ ذٰلِكَ بِمَا عَصَوْا وَّكَانُوْا يَعْتَدُوْنَ ࣖ٦١
Wa iż qultum yā mūsā lan naṣbira ‘alā ṭa‘āmiw wāḥidin fad‘u lanā rabbaka yukhrij lanā mimmā tumbitul-arḍu mim baqlihā wa qiṡṡā'ihā wa fūmihā wa ‘adasihā wa baṣalihā, qāla atastabdilūnal-lażī huwa adnā bil-lażī huwa khair(un), ihbiṭū miṣran fa inna lakum mā sa'altum, wa ḍuribat ‘alaihimuż-żillatu wal-maskanatu wa bā'ū bigaḍabim minallāh(i), żālika bi'annahum kānū yakfurūna bi'āyātillāhi wa yaqtulūnan- nabiyyīna bi gairil-ḥaqq(i), żālika bimā ‘aṣaw wa kānū ya‘tadūn(a).
[61]
तथा (उस समय को याद करो) जब तुमने कहा : ऐ मूसा! हम एक (ही प्रकार के) खाने पर कदापि संतोष नहीं करेंगे। अतः हमारे लिए अपने पालनहार से प्रार्थना करो, वह हमारे लिए कुछ ऐसी चीज़ें निकाले जो धरती अपनी तरकारी, और अपनी ककड़ी, और अपने गेहूँ, और अपने मसूर और अपने प्याज़ में से उगाती है। (मूसा ने) कहा : क्या तुम उत्तम वस्तु के बदले कमतर वस्तु माँग रहे हो? किसी नगर में जा उतरो, तो निश्चय तुम्हारे लिए वह कुछ होगा, जो तुमने माँगा। तथा उनपर अपमान और निर्धनता थोप दी गई और वे अल्लाह की ओर से भारी प्रकोप के साथ लौटे। यह इसलिए कि वे अल्लाह की आयतों का इनकार करते और नबियों की अकारण हत्या करते थे। यह इसलिए कि उन्होंने अवज्ञा की तथा वे (धर्म की) सीमा का उल्लंघन करते थे।
اِنَّ الَّذِيْنَ اٰمَنُوْا وَالَّذِيْنَ هَادُوْا وَالنَّصٰرٰى وَالصَّابِــِٕيْنَ مَنْ اٰمَنَ بِاللّٰهِ وَالْيَوْمِ الْاٰخِرِ وَعَمِلَ صَالِحًا فَلَهُمْ اَجْرُهُمْ عِنْدَ رَبِّهِمْۚ وَلَا خَوْفٌ عَلَيْهِمْ وَلَا هُمْ يَحْزَنُوْنَ٦٢
Innal-lażīna āmanū wal-lażīna hādū wan-naṣārā waṣ-ṣābi'īna man āmana billāhi wal- yaumil-ākhiri wa ‘amila ṣāliḥan fa lahum ajruhum ‘inda rabbihim, wa lā khaufun ‘alaihim wa lā hum yaḥzanūn(a).
[62]
निःसंदेह जो लोग ईमान लाए, और जो यहूदी बने, तथा ईसाई और साबी, जो भी अल्लाह तथा अंतिम दिन पर ईमान लाएगा और अच्छे कर्म करेगा, तो उनके लिए उनका प्रतिफल उनके पालनहार के पास है और उनपर न कोई डर है और न वे शोकाकुल होंगे।32
32. इस आयत में यहूदियों के इस भ्रम का खंडन किया गया है कि मुक्ति केवल उन्हीं के गिरोह के लिए है। आयत का भावार्थ यह है कि इन सभी धर्मों के अनुयायी अपने समय में सत्य आस्था एवं सत्कर्म के कारण मुक्ति के योग्य थे, परंतु अब नबी सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम के आगमन के पश्चात् आपपर ईमान लाना तथा आपकी शिक्षाओं को मानना मुक्ति के लिए अनिवार्य है।
وَاِذْ اَخَذْنَا مِيْثَاقَكُمْ وَرَفَعْنَا فَوْقَكُمُ الطُّوْرَۗ خُذُوْا مَآ اٰتَيْنٰكُمْ بِقُوَّةٍ وَّاذْكُرُوْا مَا فِيْهِ لَعَلَّكُمْ تَتَّقُوْنَ٦٣
Wa iż akhażnā mīṡāqakum wa rafa‘nā fauqakumuṭ-ṭūr(a), khużū mā ātainākum biquwwatiw ważkurū mā fīhi la‘allakum tattaqūn(a).
[63]
और (उस समय को याद करो) जब हमने तुमसे दृढ़ वचन लिया और तूर (पर्वत) को तुम्हारे ऊपर उठाया। हमने जो (पुस्तक) तुम्हें दी है, उसे मज़बूती से पकड़ो और जो उसमें (आदेश-निर्देश) है, उसे याद करो; ताकि तुम (अज़ाब से) बच जाओ।
ثُمَّ تَوَلَّيْتُمْ مِّنْۢ بَعْدِ ذٰلِكَ فَلَوْلَا فَضْلُ اللّٰهِ عَلَيْكُمْ وَرَحْمَتُهٗ لَكُنْتُمْ مِّنَ الْخٰسِرِيْنَ٦٤
Ṡumma tawallaitum mim ba‘di żālika falau lā faḍlullāhi ‘alaikum wa raḥmatuhū lakuntum minal-khāsirīn(a).
[64]
फिर तुम उसके बाद फिर गए। तो यदि तुमपर अल्लाह का अनुग्रह और उसकी दया न होती, तो निश्चय तुम नुक़सान उठाने वालों में से होते।
وَلَقَدْ عَلِمْتُمُ الَّذِيْنَ اعْتَدَوْا مِنْكُمْ فِى السَّبْتِ فَقُلْنَا لَهُمْ كُوْنُوْا قِرَدَةً خٰسِـِٕيْنَ٦٥
Wa laqad ‘alimtumul-lażīna‘tadau minkum fis-sabti faqulnā lahum kūnū qiradatan khāsi'īn(a).
[65]
और निःसंदेह तुम उन लोगों को जान चुके हो, जो तुममें से शनिवार (के दिन) में सीमा से बढ़ गए। तो हमने उनसे कहा कि तुम अपमानित बंदर33 बन जाओ।
33. यहूदियों के लिए यह नियम था कि वे शनिवार का आदर करें और इस दिन कोई सांसारिक कार्य न करें। परंतु उन्होंने इसका उल्लंघन किया, तो उनपर यह प्रकोप आया।
فَجَعَلْنٰهَا نَكَالًا لِّمَا بَيْنَ يَدَيْهَا وَمَا خَلْفَهَا وَمَوْعِظَةً لِّلْمُتَّقِيْنَ٦٦
Faja‘alnāhā nakālal limā baina yadaihā wa mā khalfahā wa mau‘iẓatal lil-muttaqīn(a).
[66]
फिर हमने इसे उन लोगों के लिए जो इसके सामने थे और जो इसके पीछे थे, एक इबरत और (अल्लाह से) डरने वालों के लिए एक उपदेश बना दिया।
وَاِذْ قَالَ مُوْسٰى لِقَوْمِهٖٓ اِنَّ اللّٰهَ يَأْمُرُكُمْ اَنْ تَذْبَحُوْا بَقَرَةً ۗ قَالُوْٓا اَتَتَّخِذُنَا هُزُوًا ۗ قَالَ اَعُوْذُ بِاللّٰهِ اَنْ اَكُوْنَ مِنَ الْجٰهِلِيْنَ٦٧
Wa iż qāla mūsā liqaumihī innallāha ya'murukum an tażbaḥū baqarah(tan), qālū atattakhiżunā huzuwā(n), qāla a‘ūżu billāhi an akūna minal-jāhilīn(a).
[67]
तथा (याद करो) जब मूसा ने अपनी जाति से कहा : निःसंदेह अल्लाह तुम्हें एक गाय ज़बह करने का आदेश देता है। उन्होंने कहा : क्या आप हमें मज़ाक़ बनाते हैं? (मूसा ने) कहा : मैं अल्लाह की पनाह माँगता हूँ कि मैं मूर्खों में से हो जाऊँ।
قَالُوا ادْعُ لَنَا رَبَّكَ يُبَيِّنْ لَّنَا مَا هِيَ ۗ قَالَ اِنَّهٗ يَقُوْلُ اِنَّهَا بَقَرَةٌ لَّا فَارِضٌ وَّلَا بِكْرٌۗ عَوَانٌۢ بَيْنَ ذٰلِكَ ۗ فَافْعَلُوْا مَا تُؤْمَرُوْنَ٦٨
Qālud‘u lanā rabbaka yubayyil lanā mā hiy(a), qāla innahū yaqūlu innahā baqaratul lā fāriḍuw wa lā bikr(un), ‘awānum baina żālik(a), faf‘alū mā tu'marūn(a).
[68]
उन्होंने कहा : हमारे लिए अपने पालनहार से प्रार्थना करो, वह हमारे लिए स्पष्ट कर दे वह (गाय) क्या है? (मूसा ने) कहा : निःसंदेह वह कहता है : निःसंदेह वह ऐसी गाय है, जो न बूढ़ी है और न बछड़ी, इसके बीच आयु की है। अतः तुम्हें जो आदेश दिया जा रहा है, उसका पालन करो।
قَالُوا ادْعُ لَنَا رَبَّكَ يُبَيِّنْ لَّنَا مَا لَوْنُهَا ۗ قَالَ اِنَّهٗ يَقُوْلُ اِنَّهَا بَقَرَةٌ صَفْرَاۤءُ فَاقِعٌ لَّوْنُهَا تَسُرُّ النّٰظِرِيْنَ٦٩
Qālud‘u lanā rabbaka yubayyil lanā mā launuhā, qāla innahū yaqūlu innahā baqaratun ṣafrā'u fāqi‘ul launuhā tasurrun-nāẓirīn(a).
[69]
उन्होंने कहा : हमारे लिए अपने पालनहार से प्रार्थना करो, वह हमारे लिए स्पष्ट कर दे उसका रंग क्या है? (मूसा ने) कहा : निःसंदेह वह कहता है कि निःसंदेह वह गाय पीले रंग की है, उसका रंग ख़ूब गहरा है, देखने वालों को प्रसन्न करती है।
قَالُوا ادْعُ لَنَا رَبَّكَ يُبَيِّنْ لَّنَا مَا هِيَۙ اِنَّ الْبَقَرَ تَشٰبَهَ عَلَيْنَاۗ وَاِنَّآ اِنْ شَاۤءَ اللّٰهُ لَمُهْتَدُوْنَ٧٠
Qālud‘u lanā rabbaka yubayyil lanā mā hiy(a), innal-baqara tasyābaha ‘alainā, wa innā in syā'allāhu lamuhtadūn(a).
[70]
उन्होंने कहा : हमारे लिए अपने पालनहार से प्रार्थना करो, वह हमारे लिए स्पष्ट कर दे वह (गाय) क्या है? निःसंदेह गायें हमपर एक-दूसरे से मिलती-जुलती हो गई हैं। और निश्चय हम यदि अल्लाह ने चाहा, तो उद्देश्य तक पहुँचने ही वाले हैं।
قَالَ اِنَّهٗ يَقُوْلُ اِنَّهَا بَقَرَةٌ لَّا ذَلُوْلٌ تُثِيْرُ الْاَرْضَ وَلَا تَسْقِى الْحَرْثَۚ مُسَلَّمَةٌ لَّاشِيَةَ فِيْهَا ۗ قَالُوا الْـٰٔنَ جِئْتَ بِالْحَقِّ فَذَبَحُوْهَا وَمَا كَادُوْا يَفْعَلُوْنَ ࣖ٧١
Qāla innahū yaqūlu innahā baqaratul lā żalūlun tuṡīrul-arḍa wa lā tasqil-ḥarṡ(a), musallamatul lā syiyata fīhā, qālul-'āna ji'ta bil-ḥaqqi fażabaḥūhā wa mā kādū yaf‘alūn(a).
[71]
(मूसा ने) कहा : निःसंदेह वह कहता है कि निःसंदेह वह ऐसी गाय है जो न (जोतने हेतु) सधाई हुई है कि भूमि जोतती हो, और न खेती को पानी देती है। सही-सालिम (दोष रहित) है, उसमें किसी और रंग का निशान नहीं। उन्होंने कहा : अब तू सही बात लाया है। फिर उन्होंने उसे ज़बह़ किया, और वे क़रीब न थे कि करते।
وَاِذْ قَتَلْتُمْ نَفْسًا فَادّٰرَءْتُمْ فِيْهَا ۗ وَاللّٰهُ مُخْرِجٌ مَّا كُنْتُمْ تَكْتُمُوْنَ ۚ٧٢
Wa iż qultum nafsan faddāra'tum fīhā, wallāhu mukhrijum mā kuntum taktumūn(a).
[72]
और (वह समय याद करो) जब तुमने एक व्यक्ति की हत्या कर दी, फिर तुमने उसके बारे में झगड़ा किया और अल्लाह उस बात को निकालने वाला था, जो तुम छिपा रहे थे।
فَقُلْنَا اضْرِبُوْهُ بِبَعْضِهَاۗ كَذٰلِكَ يُحْيِ اللّٰهُ الْمَوْتٰى وَيُرِيْكُمْ اٰيٰتِهٖ لَعَلَّكُمْ تَعْقِلُوْنَ٧٣
Faqulnaḍribūhu biba‘ḍihā, każālika yuḥyillāhul-mautā wa yurīkum āyātihī la‘allakum ta‘qilūn(a).
[73]
अतः हमने कहा इस (मक़्तूल) पर उस (गाय) का कोई टुकड़ा मारो।34 इसी प्रकार अल्लाह मुर्दों को जीवित करता है और तुम्हें अपनी निशानियाँ दिखाता है; ताकि तुम समझो।
34. भाष्यकारों ने लिखा है कि इस प्रकार निहत व्यक्ति जीवित हो गया। और उसने अपने हत्यारे को बताया, और फिर मर गया। इस हत्या के कारण ही बनी इसराईल को गाय की बलि देने हा आदेश दिया गया था। अगर वे चाहते, तो किसी भी गाय की बलि दे देते, परंतु उन्होंने टाल-मटोल से काम लिया। इसलिए अल्लाह ने उस गाय के विषय में कठोर आदेश दिया।
ثُمَّ قَسَتْ قُلُوْبُكُمْ مِّنْۢ بَعْدِ ذٰلِكَ فَهِيَ كَالْحِجَارَةِ اَوْ اَشَدُّ قَسْوَةً ۗ وَاِنَّ مِنَ الْحِجَارَةِ لَمَا يَتَفَجَّرُ مِنْهُ الْاَنْهٰرُ ۗ وَاِنَّ مِنْهَا لَمَا يَشَّقَّقُ فَيَخْرُجُ مِنْهُ الْمَاۤءُ ۗوَاِنَّ مِنْهَا لَمَا يَهْبِطُ مِنْ خَشْيَةِ اللّٰهِ ۗوَمَا اللّٰهُ بِغَافِلٍ عَمَّا تَعْمَلُوْنَ٧٤
Ṡumma qasat qulūbukum mim ba‘di żālika fahiya kal-ḥijārati au asyaddu qaswah(tan), wa inna minal-ḥijārati lamā yatafajjaru minhul-anhār(u), wa inna minhā lamā yasysyaqqaqu fayakhruju minhul-mā'(u), wa inna minhā lamā yahbiṭu min khasy-yatillāh(i), wa mallāhu bigāfilin ‘ammā ta‘malūn(a).
[74]
फिर इन (निशानियों को देखने) के बाद तुम्हारे दिल कठोर हो गए, तो वे पत्थरों के समान हैं, या कठोरता में (उनसे भी) बढ़कर हैं; और निःसंदेह पत्थरों में से कुछ ऐसे हैं, जिनसे नहरें फूट निकलती हैं, और निःसंदेह उनमें से कुछ वे हैं जो फट जाते हैं, तो उनसे पानी निकलता है, और निःसंदेह उनमें से कुछ वे हैं जो अल्लाह के डर से गिर पड़ते हैं और अल्लाह उससे बिल्कुल ग़ाफ़िल नहीं जो तुम कर रहे हो।
۞ اَفَتَطْمَعُوْنَ اَنْ يُّؤْمِنُوْا لَكُمْ وَقَدْ كَانَ فَرِيْقٌ مِّنْهُمْ يَسْمَعُوْنَ كَلَامَ اللّٰهِ ثُمَّ يُحَرِّفُوْنَهٗ مِنْۢ بَعْدِ مَا عَقَلُوْهُ وَهُمْ يَعْلَمُوْنَ٧٥
Afa taṭma‘ūna ay yu'minū lakum wa qad kāna farīqum minhum yasma‘ūna kalāmallāhi ṡumma yuḥarrifūnahū mim ba‘di mā ‘aqalūhu wa hum ya‘lamūn(a).
[75]
तो क्या तुम आशा रखते हो कि वे तुम्हारी बात मान लेंगे, जबकि उनमें से कुछ लोग ऐसे रहे हैं, जो अल्लाह की वाणी (तौरात) को सुनते हैं, फिर उसे बदल डालते हैं, इसके बाद कि उसे समझ चुके होते हैं और वे जानते हैं।
وَاِذَا لَقُوا الَّذِيْنَ اٰمَنُوْا قَالُوْٓا اٰمَنَّاۚ وَاِذَا خَلَا بَعْضُهُمْ اِلٰى بَعْضٍ قَالُوْٓا اَتُحَدِّثُوْنَهُمْ بِمَا فَتَحَ اللّٰهُ عَلَيْكُمْ لِيُحَاۤجُّوْكُمْ بِهٖ عِنْدَ رَبِّكُمْ ۗ اَفَلَا تَعْقِلُوْنَ٧٦
Wa iżā laqul-lażīna āmanū qālū āmannā, wa iżā khalā ba‘ḍuhum ilā ba‘ḍin qālū atuḥaddiṡūnahum bimā fataḥallāhu ‘alaikum liyuḥājjūkum bihī ‘inda rabbikum, afalā ta‘qilūn(a).
[76]
तथा जब वे ईमान लाने वालों से मिलते हैं, तो कहते हैं कि हम ईमान35 ले आए और जब वे आपस में एक-दूसरे के साथ एकांत में होते हैं, तो कहते हैं क्या तुम उन्हें वे बातें बताते हो, जो अल्लाह ने तुमपर खोली36 हैं, ताकि वे उनके साथ तुम्हारे पालनहार के पास तुमसे झगड़ा करें, तो क्या तुम नहीं समझते?
35. अर्थात मुह़म्मद सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम पर। 36. अर्थात अंतिम नबी के विषय में तौरात में बताई है।
اَوَلَا يَعْلَمُوْنَ اَنَّ اللّٰهَ يَعْلَمُ مَا يُسِرُّوْنَ وَمَا يُعْلِنُوْنَ٧٧
Awalā ya‘lamūna annallāha ya‘lamu mā yusirrūna wa mā yu‘linūn(a).
[77]
और क्या वे नहीं जानते कि निःसंदेह अल्लाह जानता है, जो कुछ वे छिपाते हैं और जो कुछ ज़ाहिर करते हैं?
وَمِنْهُمْ اُمِّيُّوْنَ لَا يَعْلَمُوْنَ الْكِتٰبَ اِلَّآ اَمَانِيَّ وَاِنْ هُمْ اِلَّا يَظُنُّوْنَ٧٨
Wa minhum umiyyūna lā ya‘lamūnal-kitāba illā amāniyya wa in hum illā yaẓunnūn(a).
[78]
तथा उनमें से कुछ अनपढ़ हैं, जो पुस्तक का ज्ञान नहीं रखते सिवाय कुछ कामनाओं के, तथा वे केवल अनुमान लगाते हैं।
فَوَيْلٌ لِّلَّذِيْنَ يَكْتُبُوْنَ الْكِتٰبَ بِاَيْدِيْهِمْ ثُمَّ يَقُوْلُوْنَ هٰذَا مِنْ عِنْدِ اللّٰهِ لِيَشْتَرُوْا بِهٖ ثَمَنًا قَلِيْلًا ۗفَوَيْلٌ لَّهُمْ مِّمَّا كَتَبَتْ اَيْدِيْهِمْ وَوَيْلٌ لَّهُمْ مِّمَّا يَكْسِبُوْنَ٧٩
Fawailul lil-lażīna yaktubūnal-kitāba bi'aidīhim ṡumma yaqūlūna hāżā min ‘indillāhi liyasytarū bihī ṡamanan qalīlā(n), fawailul lahum mimmā katabat aidīhim wa wailul lahum mimmā yaksibūn(a).
[79]
तो उन लोगों के लिए37 बड़ा विनाश है, जो अपने हाथों से पुस्तक लिखते हैं, फिर कहते हैं कि यह अल्लाह की ओर से है, ताकि उसके द्वारा थोड़ा मूल्य हासिल करें! तो उनके लिए बड़ा विनाश उसके कारण है, जो उनके हाथों ने लिखा और उनके लिए बड़ा विनाश उसके कारण है जो वे कमाते हैं।
37. इसमें यहूदी विद्वानों के कुकर्मों को बताया गया है।
وَقَالُوْا لَنْ تَمَسَّنَا النَّارُ اِلَّآ اَيَّامًا مَّعْدُوْدَةً ۗ قُلْ اَتَّخَذْتُمْ عِنْدَ اللّٰهِ عَهْدًا فَلَنْ يُّخْلِفَ اللّٰهُ عَهْدَهٗٓ اَمْ تَقُوْلُوْنَ عَلَى اللّٰهِ مَا لَا تَعْلَمُوْنَ٨٠
Wa qālū lan tamassanan-nāru illā ayyāmam ma‘dūdah (tan), qul attakhażtum ‘indallāhi ‘ahdan falay yukhlifallāhu ‘ahdahū am taqūlūna ‘alallāhi mā lā ta‘lamūn(a).
[80]
तथा उन्होंने कहा कि हमें जहन्नम की आग गिनती के कुछ दिनों के सिवा हरगिज़ नहीं छुएगी। (ऐ नबी!) कह दीजिए कि क्या तुमने अल्लाह से कोई वचन ले रखा है, तो अल्लाह कदापि अपने वचन के विरुद्ध नहीं करेगा, या तुम अल्लाह पर वह बात कहते हो, जिसका तुम्हें ज्ञान नहीं।
بَلٰى مَنْ كَسَبَ سَيِّئَةً وَّاَحَاطَتْ بِهٖ خَطِيْۤـَٔتُهٗ فَاُولٰۤىِٕكَ اَصْحٰبُ النَّارِ ۚ هُمْ فِيْهَا خٰلِدُوْنَ٨١
Balā man kasaba sayyi'ataw wa aḥāṭat bihī khaṭī'atuhū fa ulā'ika aṣḥābun-nār(i), hum fīhā khālidūn(a).
[81]
क्यों38 नहीं! जिसने बड़ी बुराई कमाई और उसके पाप ने उसे घेर लिया, तो वही लोग आग (जहन्नम) वाले हैं, वे उसमें हमेशा रहने वाले हैं।
38. यहाँ यहूदियों के दावे का खंडन तथा नरक और स्वर्ग में प्रवेश के नियम का वर्णन है।
وَالَّذِيْنَ اٰمَنُوْا وَعَمِلُوا الصّٰلِحٰتِ اُولٰۤىِٕكَ اَصْحٰبُ الْجَنَّةِ ۚ هُمْ فِيْهَا خٰلِدُوْنَ ࣖ٨٢
Wal-lażīna āmanū wa ‘amiluṣ-ṣāliḥāti ulā'ika aṣḥābul-jannah(ti), hum fīhā khālidūn(a).
[82]
तथा जो लोग ईमान लाए और उन्होंने अच्छे कार्य किए, वही जन्नत वाले हैं, वे उसमें हमेशा रहने वाले हैं।
وَاِذْ اَخَذْنَا مِيْثَاقَ بَنِيْٓ اِسْرَاۤءِيْلَ لَا تَعْبُدُوْنَ اِلَّا اللّٰهَ وَبِالْوَالِدَيْنِ اِحْسَانًا وَّذِى الْقُرْبٰى وَالْيَتٰمٰى وَالْمَسٰكِيْنِ وَقُوْلُوْا لِلنَّاسِ حُسْنًا وَّاَقِيْمُوا الصَّلٰوةَ وَاٰتُوا الزَّكٰوةَۗ ثُمَّ تَوَلَّيْتُمْ اِلَّا قَلِيْلًا مِّنْكُمْ وَاَنْتُمْ مُّعْرِضُوْنَ٨٣
Wa iż akhażnā mīṡāqa banī isrā'īla lā ta‘budūna illallāha wa bil-wālidaini iḥsānaw wa żil-qurbā wal-yatāmā wal-masākīni wa qūlū lin-nāsi ḥusnaw wa aqīmuṣ-ṣalāta wa ātuz-zakāh(ta), ṡumma tawallaitum illā qalīlam minkum wa antum mu‘riḍūn(a).
[83]
और (उस समय को याद करो) जब हमने बनी इसराईल से पक्का वचन लिया कि तुम अल्लाह के सिवा किसी की इबादत नहीं करोगे, तथा माता-पिता, रिश्तेदारों, अनाथों और निर्धनों के साथ अच्छा व्यवहार करोगे। और लोगों से भली बात कहो, तथा नमाज़ क़ायम करो और ज़कात दो। फिर तुम में से थोड़े लोगों के सिवा सब फिर गए और तुम मुँह फेरने वाले थे।
وَاِذْ اَخَذْنَا مِيْثَاقَكُمْ لَا تَسْفِكُوْنَ دِمَاۤءَكُمْ وَلَا تُخْرِجُوْنَ اَنْفُسَكُمْ مِّنْ دِيَارِكُمْ ۖ ثُمَّ اَقْرَرْتُمْ وَاَنْتُمْ تَشْهَدُوْنَ٨٤
Wa iż akhażnā mīṡāqakum lā tasfikūna dimā'akum wa lā tukhrijūna anfusakum min diyārikum ṡumma aqrartum wa antum tasyhadūn(a).
[84]
तथा (याद करो) जब हमने तुमसे पक्का वचन लिया कि तुम अपने ख़ून नहीं बहाओगे और न अपने आपको अपने घरों से निकालोगे। फिर तुमने स्वीकार किया और तुम स्वयं गवाही देते हो।
ثُمَّ اَنْتُمْ هٰٓؤُلَاۤءِ تَقْتُلُوْنَ اَنْفُسَكُمْ وَتُخْرِجُوْنَ فَرِيْقًا مِّنْكُمْ مِّنْ دِيَارِهِمْۖ تَظٰهَرُوْنَ عَلَيْهِمْ بِالْاِثْمِ وَالْعُدْوَانِۗ وَاِنْ يَّأْتُوْكُمْ اُسٰرٰى تُفٰدُوْهُمْ وَهُوَ مُحَرَّمٌ عَلَيْكُمْ اِخْرَاجُهُمْ ۗ اَفَتُؤْمِنُوْنَ بِبَعْضِ الْكِتٰبِ وَتَكْفُرُوْنَ بِبَعْضٍۚ فَمَا جَزَاۤءُ مَنْ يَّفْعَلُ ذٰلِكَ مِنْكُمْ اِلَّا خِزْيٌ فِى الْحَيٰوةِ الدُّنْيَا ۚوَيَوْمَ الْقِيٰمَةِ يُرَدُّوْنَ اِلٰٓى اَشَدِّ الْعَذَابِۗ وَمَا اللّٰهُ بِغَافِلٍ عَمَّا تَعْمَلُوْنَ٨٥
Ṡumma antum hā'ulā'i taqtulūna anfusakum wa tukhrijūna farīqam minkum min diyārihim taẓāharūna ‘alaihim bil-iṡmi wal-‘udwān(i), wa iy ya'tūkum usārā tufādūhum wa huwa muḥarramun ‘alaikum ikhrājuhum, afa tu'minūna biba‘ḍil-kitābi wa takfurūna bi ba‘ḍ(in), famā jazā'u may yaf‘alu żālika minkum illā khizyun fil-ḥayātid-dun-yā, wa yaumal-qiyāmati yuraddūna ilā asyaddil-‘ażāb(i), wa mallāhu bigāfilin ‘ammā ta‘malūn(a).
[85]
फिर39 तुम ही वे लोग हो कि अपने आपकी हत्या करते हो और अपने में से एक गिरोह को उनके घरों से निकालते हो, उनके विरुद्ध पाप तथा अत्याचार के साथ एक-दूसरे की मदद करते हो और यदि वे बंदी होकर तुम्हारे पास आएँ, तो उनका फ़िदया देते हो, हालाँकि उन्हें निकालना ही तुमपर ह़राम (निषिद्ध) है। तो क्या तुम पुस्तक के कुछ भाग पर ईमान रखते हो और कुछ का इनकार करते हो? फिर तुममें से जो ऐसा करे, उसका प्रतिफल इसके सिवा क्या है कि सांसारिक जीवन में अपमान हो तथा क़ियामत के दिन वे अत्यंत कठोर यातना (अज़ाब) की ओर लौटाए जाएँगे? और अल्लाह बिलकुल उससे असावधान नहीं जो तुम करते हो!
39. मदीने में यहूदियों के तीन क़बीलों में से बनी क़ैनुक़ाअ और बनी नज़ीर मदीने के अरब क़बीले ख़ज़रज के सहयोगी थे। और बनी क़ुरैज़ा औस क़बीले के सहयोगी थे। जब इन दोनों क़बीलों में युद्ध होता, तो यहूदी क़बीले अपने पक्ष के साथ दूसरे पक्ष के साथी यहूदी की हत्या करते। और उसे बेघर कर देते थे। और युद्ध विराम के बाद पराजित पक्ष के बंदी यहूदी का अर्थदंड दे कर, यह कहते हुए मुक्त करा देते कि हमारी पुस्तक तौरात का यही आदेश है। इसी का वर्णन अल्लाह ने इस आयत में किया है। (तफ़्सीर इब्ने कसीर)
اُولٰۤىِٕكَ الَّذِيْنَ اشْتَرَوُا الْحَيٰوةَ الدُّنْيَا بِالْاٰخِرَةِ ۖ فَلَا يُخَفَّفُ عَنْهُمُ الْعَذَابُ وَلَا هُمْ يُنْصَرُوْنَ ࣖ٨٦
Ulā'ikal-lażīnasytarawul-ḥayātad-dun-yā bil-ākhirah(ti), falā yukhaffafu ‘anhumul-‘ażābu wa lā hum yunṣarūn(a).
[86]
यही वे लोग हैं, जिन्होंने आख़िरत (परलोक) के बदले सांसारिक जीवन ख़रीद लिया। अतः न उनसे अज़ाब हल्का किया जाएगा और न उनकी सहायता की जाएगी।
وَلَقَدْ اٰتَيْنَا مُوْسَى الْكِتٰبَ وَقَفَّيْنَا مِنْۢ بَعْدِهٖ بِالرُّسُلِ ۖ وَاٰتَيْنَا عِيْسَى ابْنَ مَرْيَمَ الْبَيِّنٰتِ وَاَيَّدْنٰهُ بِرُوْحِ الْقُدُسِۗ اَفَكُلَّمَا جَاۤءَكُمْ رَسُوْلٌۢ بِمَا لَا تَهْوٰىٓ اَنْفُسُكُمُ اسْتَكْبَرْتُمْ ۚ فَفَرِيْقًا كَذَّبْتُمْ وَفَرِيْقًا تَقْتُلُوْنَ٨٧
Wa laqad ātainā mūsal-kitāba wa qaffainā mim ba‘dihī bir-rusul(i), wa ātainā ‘īsabna maryamal-bayyināti wa ayyadnāhu birūḥil-qudus(i), afakullamā jā'akum rasūlum bimā lā tahwā anfusukumustakbartum, fafarīqan każżabtum wa farīqan taqtulūn(a).
[87]
तथा निःसंदेह हमने मूसा को पुस्तक (तौरात) प्रदान की और उसके बाद लगातार रसूल भेजे, और हमने मरयम के पुत्र ईसा को खुली निशानियाँ दीं और रूह़ुल-क़ुदुस40 (पवित्र-आत्मा) द्वारा उन्हें शक्ति प्रदान की। फिर क्या जब कभी कोई रसूल तुम्हारे पास वह चीज़ लेकर आया जिसे तुम्हारे दिल न चाहते थे, तो तुमने अभिमान किया, चुनाँचे एक समूह को झुठला दिया और एक समूह की हत्या करते रहे।
40. रूह़ुल क़ुदुस से अभिप्रेत फ़रिश्ता जिब्रील अलैहिस्सलाम हैं।
وَقَالُوْا قُلُوْبُنَا غُلْفٌ ۗ بَلْ لَّعَنَهُمُ اللّٰهُ بِكُفْرِهِمْ فَقَلِيْلًا مَّا يُؤْمِنُوْنَ٨٨
Wa qālū qulūbunā gulf(un), bal la‘anahumullāhu bikufrihim faqalīlam mā yu'minūn(a).
[88]
तथा उन्होंने कहा कि हमारे दिल तो बंद41 हैं। बल्कि अल्लाह ने उनके कुफ़्र (इनकार) के कारण उन्हें धिक्कार दिया है। इसलिए वे बहुत कम ईमान लाते हैं।
41. अर्थात नबी की बातों का हमारे दिलों पर कोई प्रभाव नहीं पड़ सकता।
وَلَمَّا جَاۤءَهُمْ كِتٰبٌ مِّنْ عِنْدِ اللّٰهِ مُصَدِّقٌ لِّمَا مَعَهُمْۙ وَكَانُوْا مِنْ قَبْلُ يَسْتَفْتِحُوْنَ عَلَى الَّذِيْنَ كَفَرُوْاۚ فَلَمَّا جَاۤءَهُمْ مَّا عَرَفُوْا كَفَرُوْا بِهٖ ۖ فَلَعْنَةُ اللّٰهِ عَلَى الْكٰفِرِيْنَ٨٩
Wa lammā jā'akum kitābum min ‘indillāhi muṣaddiqul limā ma‘ahum, wa kānū min qablu yastaftiḥūna ‘alal-lażīna kafarū, falammā jā'ahum mā ‘arafū kafarū bih(ī), fala‘natullāhi ‘alal-kāfirīn(a).
[89]
और जब उनके पास अल्लाह की ओर से एक पुस्तक (क़ुरआन) आई, जो उसकी पुष्टि करने वाली है, जो उनके पास है, हालाँकि वे इससे पूर्व काफ़िरों पर विजय की प्रार्थना किया करते थे, फिर जब उनके पास वह चीज़ आ गई, जिसे उन्होंने पहचान लिया, तो उन्होंने उसका इनकार42 कर दिया। तो काफ़िरों पर अल्लाह की लानत है।
42. आयत का भावार्थ यह है कि मुह़म्मद सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम के इस पुस्तक (क़ुरआन) के साथ आने से पहले वह काफ़िरों से युद्ध करते थे, तो उनपर विजय की प्रार्थना करते और बड़ी व्याकुलता के साथ आपके आगमन की प्रतीक्षा कर रहे थे। जिसकी भविष्यवाणि उन के नबियों ने की थी, और प्रार्थनाएँ किया करते थे कि आप शीघ्र आएँ, ताकि काफ़िरों का प्रभुत्व समाप्त हो, और हमारे उत्थान के युग का शुभारंभ हो। परंतु जब आप आ गए, तो उन्होंने आपके नबी होने का इनकार कर दिया, क्योंकि आप बनी इसराईल में नहीं पैदा हुए। फिर भी आप इबराहीम अलैहिस्सलाम ही के पुत्र इसमाईल अलैहिस्सलाम के वंश से हैं, जैसे बनी इसराईल उनके पुत्र इसहाक़ अलैहिस्सलाम के वंश से हैं।
بِئْسَمَا اشْتَرَوْا بِهٖٓ اَنْفُسَهُمْ اَنْ يَّكْفُرُوْا بِمَآ اَنْزَلَ اللّٰهُ بَغْيًا اَنْ يُّنَزِّلَ اللّٰهُ مِنْ فَضْلِهٖ عَلٰى مَنْ يَّشَاۤءُ مِنْ عِبَادِهٖ ۚ فَبَاۤءُوْ بِغَضَبٍ عَلٰى غَضَبٍۗ وَلِلْكٰفِرِيْنَ عَذَابٌ مُّهِيْنٌ٩٠
Bi'samasytarau bihī anfusahum ay yakfurū bimā anzalallāhu bagyan ay yunazzilallāhu min faḍlihī ‘alā may yasyā'u min ‘ibādih(ī), fabā'ū bigaḍabin ‘alā gaḍab(in), wa lil-kāfirīna ‘ażābum muhīn(un).
[90]
बहुत बुरी है वह चीज़ जिसके बदले उन्होंने अपने आपको बेच डाला, कि उस चीज़ का इनकार कर दें, जो अल्लाह ने उतारी43 है, इस द्वेष (हठ) के कारण कि अल्लाह अपना कुछ अनुग्रह अपने बंदों में से जिसपर44 चाहता है, उतारता है। अतः वे प्रकोप पर प्रकोप लेकर लौटे और (ऐसे) काफ़िरों के लिए अपमानजनक यातना है।
43. अर्थात क़ुरआन। 44. अर्थात मुह़म्मद सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम को नबी बना दिया।
وَاِذَا قِيْلَ لَهُمْ اٰمِنُوْا بِمَآ اَنْزَلَ اللّٰهُ قَالُوْا نُؤْمِنُ بِمَآ اُنْزِلَ عَلَيْنَا وَيَكْفُرُوْنَ بِمَا وَرَاۤءَهٗ وَهُوَ الْحَقُّ مُصَدِّقًا لِّمَا مَعَهُمْ ۗ قُلْ فَلِمَ تَقْتُلُوْنَ اَنْۢبِيَاۤءَ اللّٰهِ مِنْ قَبْلُ اِنْ كُنْتُمْ مُّؤْمِنِيْنَ٩١
Wa iżā qīla lahum āminū bimā anzalallāhu qālū nu'minu bimā unzila ‘alainā wa yakfurūna bimā warā'ah(ū), wa huwal-ḥaqqu muṣaddiqal limā ma‘ahum, qul falima taqtulūna ambiyā'allāhi min qablu in kuntum mu'minīn(a).
[91]
और जब उनसे कहा जाता है उस पर ईमान लाओ जो अल्लाह ने उतारा45 है, तो कहते हैं : हम उसपर ईमान रखते हैं जो हमपर उतारा गया है, और जो उसके अलावा है, उसका वे इनकार करते हैं! जबकि वही सत्य है, उनके पास जो कुछ है उसकी पुष्टि करने वाला है। आप (उनसे) कह दीजिए कि अगर तुम ईमान वाले थे, तो फिर इससे पहले अल्लाह के नबियों की हत्या क्यों किया करते थे?
45. अर्थात क़ुरआन पर।
۞ وَلَقَدْ جَاۤءَكُمْ مُّوْسٰى بِالْبَيِّنٰتِ ثُمَّ اتَّخَذْتُمُ الْعِجْلَ مِنْۢ بَعْدِهٖ وَاَنْتُمْ ظٰلِمُوْنَ٩٢
Wa laqad jā'akum mūsā bil-bayyināti ṡummattakhażtumul-‘ijla mim ba‘dihī wa antum ẓālimūn(a).
[92]
और निःसंदेह मूसा तुम्हारे पास खुली निशानियाँ लेकर आए, फिर तुमने उसके बाद बछड़े को (पूज्य) बना लिया और तुम अत्याचारी थे।
وَاِذْ اَخَذْنَا مِيْثَاقَكُمْ وَرَفَعْنَا فَوْقَكُمُ الطُّوْرَۗ خُذُوْا مَآ اٰتَيْنٰكُمْ بِقُوَّةٍ وَّاسْمَعُوْا ۗ قَالُوْا سَمِعْنَا وَعَصَيْنَا وَاُشْرِبُوْا فِيْ قُلُوْبِهِمُ الْعِجْلَ بِكُفْرِهِمْ ۗ قُلْ بِئْسَمَا يَأْمُرُكُمْ بِهٖٓ اِيْمَانُكُمْ اِنْ كُنْتُمْ مُّؤْمِنِيْنَ٩٣
Wa iż akhażnā mīṡāqakum wa rafa‘nā fauqakumuṭ-ṭūr(a), khużū mā ātainākum biquwwatiw wasma‘ū, qālū sami‘nā wa ‘aṣainā, wa usyribū fī qulūbihimul-‘ijla bikufrihim, qul bi'samā ya'murukum bihī īmānukum in kuntum mu'minīn(a).
[93]
और (याद करो) जब हमने तुमसे पक्का वचन लिया और तुम्हारे ऊपर तूर पर्वत उठा लिया। (हमने कहा :) हमने तुम्हें जो दिया है, उसे मज़बूती से पकड़ो और सुनो। उन्होंने कहा : हमने सुना और नहीं माना। और उनके कुफ़्र के कारण उनके दिलों में बछड़े की मुहब्बत पिला दी गई। (ऐ नबी!) आप कह दीजिए : बुरी है वह चीज़, जिसका आदेश तुम्हें तुम्हारा ईमान देता है, यदि तुम ईमान वाले हो।
قُلْ اِنْ كَانَتْ لَكُمُ الدَّارُ الْاٰخِرَةُ عِنْدَ اللّٰهِ خَالِصَةً مِّنْ دُوْنِ النَّاسِ فَتَمَنَّوُا الْمَوْتَ اِنْ كُنْتُمْ صٰدِقِيْنَ٩٤
Qul in kānat lakumud-dārul-ākhiratu ‘indallāhi khāliṣatam min dūnin-nāsi fatamannawul-mauta in kuntum ṣādiqīn(a).
[94]
(ऐ नबी!) आप कह दीजिए : यदि आख़िरत का घर अल्लाह के पास सब लोगों को छोड़कर विशेष रूप से तुम्हारे ही लिए है, तो तुम मौत की कामना करो, यदि तुम सच्चे हो।
وَلَنْ يَّتَمَنَّوْهُ اَبَدًاۢ بِمَا قَدَّمَتْ اَيْدِيْهِمْ ۗ وَاللّٰهُ عَلِيْمٌ ۢ بِالظّٰلِمِيْنَ٩٥
Wa lay yatamannauhu abadam bima qaddamat aidīhim, wallāhu ‘alīmum biẓ-ẓālimīn(a).
[95]
और वे हरगिज़ उसकी कामना कभी नहीं करेंगे, उसके कारण जो उनके हाथों ने आगे भेजा और अल्लाह अत्याचारियों को ख़ूब जानने वाला है।
وَلَتَجِدَنَّهُمْ اَحْرَصَ النَّاسِ عَلٰى حَيٰوةٍ ۛوَمِنَ الَّذِيْنَ اَشْرَكُوْا ۛيَوَدُّ اَحَدُهُمْ لَوْ يُعَمَّرُ اَلْفَ سَنَةٍۚ وَمَا هُوَ بِمُزَحْزِحِهٖ مِنَ الْعَذَابِ اَنْ يُّعَمَّرَۗ وَاللّٰهُ بَصِيْرٌۢ بِمَا يَعْمَلُوْنَ ࣖ٩٦
Wa latajidannahum aḥraṣan-nāsi ‘alā ḥayāh(tin), wa minal-lażīna asyrakū, yawaddu aḥaduhum lau yu‘ammaru alfa sanah(tin), wa mā huwa bi muzaḥziḥihī minal-‘ażābi ay yu‘ammar(a), wallāhu baṣīrum bimā ya‘malūn(a).
[96]
और निःसंदेह तुम उन्हें सब लोगों से बढ़कर किसी भी तरह जीने का लोभी पाओगे और उनसे भी जिन्होंने शिर्क किया। उनका (हर) एक व्यक्ति चाहता है काश! उसे हज़ार वर्ष की आयु दी जाए। हालाँकि यह उसे अज़ाब से बचाने वाला नहीं कि उसे लंबी आयु दी जाए और अल्लाह ख़ूब देखने वाला है, जो कुछ वे कर रहे हैं।
قُلْ مَنْ كَانَ عَدُوًّا لِّجِبْرِيْلَ فَاِنَّهٗ نَزَّلَهٗ عَلٰى قَلْبِكَ بِاِذْنِ اللّٰهِ مُصَدِّقًا لِّمَا بَيْنَ يَدَيْهِ وَهُدًى وَّبُشْرٰى لِلْمُؤْمِنِيْنَ٩٧
Qul man kāna ‘aduwwal lijibrīla fa'innahū nazzalahū ‘alā qalbika bi iżnillāhi muṣaddiqal limā baina yadaihi wa hudaw wa busyrā lil-mu'minīn(a).
[97]
(ऐ नबी!)46 कह दीजिए कि जो व्यक्ति जिबरील का शत्रु हो, तो निःसंदेह उसने इसे आपके दिल पर अल्लाह के आदेश से उतारा है, उसकी पुष्टि करने वाला है, जो इससे पूर्व है तथा ईमान वालों के लिए मार्गदर्शन एवं शुभ समाचार है।
46. यहूदी केवल रसूलुल्लाह सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम और आपके अनुयायियों ही को बुरा नहीं कहते थे, वे अल्लाह के फ़रिश्ते जिबरील को भी गालियाँ देते थे कि वह दया का नहीं, प्रकोप का फ़रिश्ता है। और कहते थे कि हमारा मित्र मीकाईल है।
مَنْ كَانَ عَدُوًّا لِّلّٰهِ وَمَلٰۤىِٕكَتِهٖ وَرُسُلِهٖ وَجِبْرِيْلَ وَمِيْكٰىلَ فَاِنَّ اللّٰهَ عَدُوٌّ لِّلْكٰفِرِيْنَ٩٨
Man kāna ‘aduwwal lillāhi wa malā'ikatihī wa rusulihī wa jibrīla wa mīkāla fa innallāha ‘aduwwul lil-kāfirīn(a).
[98]
जो कोई अल्लाह और उसके फ़रिश्तों और उसके रसूलों और जिबरील तथा मीकाल का शत्रु हो, तो निःसंदेह अल्लाह सब काफ़िरों का शत्रु है।47
47. आयत का भावार्थ यह है कि जिसने अल्लाह के किसी रसूल - चाहे वह फ़रिश्ता हो या इनसान - से बैर रखा, तो वह सभी रसूलों का शत्रु तथा कुकर्मी है। (इब्ने कसीर)
وَلَقَدْ اَنْزَلْنَآ اِلَيْكَ اٰيٰتٍۢ بَيِّنٰتٍۚ وَمَا يَكْفُرُ بِهَآ اِلَّا الْفٰسِقُوْنَ٩٩
Wa laqad anzalnā ilaika āyātim bayyināt(in), wa mā yakfuru bihā illal-fāsiqūn(a).
[99]
और निःसंदेह हमने (ऐ नबी!) आपकी ओर खुली आयतें उतारी हैं और उनका इनकार केवल वही लोग48 करते हैं, जो फ़ासिक़ (अवज्ञा करने वाले) हैं।
48. इब्ने अब्बास रज़ियल्लाहु अन्हुमा कहते हैं कि यहूदियों के विद्वान इब्ने सूरिया ने कहा : ऐ मुह़म्मद! (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) आप हमारे पास कोई ऐसी चीज़ नहीं लाए जिसे हम पहचानते हों, और न आपपर कोई खुली आयत उतारी गई कि हम आपका अनुसरण करें। इसपर यह आयत उतरी। (इब्ने जरीर)
اَوَكُلَّمَا عٰهَدُوْا عَهْدًا نَّبَذَهٗ فَرِيْقٌ مِّنْهُمْ ۗ بَلْ اَكْثَرُهُمْ لَا يُؤْمِنُوْنَ١٠٠
Awa kullamā ‘āhadū ‘ahdan nabażahū farīqum minhum, bal akṡaruhum lā yu'minūn(a).
[100]
और क्या जब कभी उन्होंने कोई वचन दिया, तो उनके एक समूह ने उसे तोड़ दिया? बल्कि उनमें अधिकतर ईमान नहीं रखते।
وَلَمَّا جَاۤءَهُمْ رَسُوْلٌ مِّنْ عِنْدِ اللّٰهِ مُصَدِّقٌ لِّمَا مَعَهُمْ نَبَذَ فَرِيْقٌ مِّنَ الَّذِيْنَ اُوْتُوا الْكِتٰبَۙ كِتٰبَ اللّٰهِ وَرَاۤءَ ظُهُوْرِهِمْ كَاَنَّهُمْ لَا يَعْلَمُوْنَۖ١٠١
Wa lammā jā'ahum rasūlum min ‘indillāhi muṣaddiqul limā ma‘ahum nabaża farīqum minal-lażīna ūtul-kitāb(a), kitāballāhi warā'a ẓuhūrihim ka'annahum lā ya‘lamūn(a).
[101]
तथा जब उनके पास अल्लाह की ओर से एक रसूल उसकी पुष्टि करने वाला आया,49 जो उनके पास है, तो उन लोगों में से एक समूह ने, जिन्हें पुस्तक दी गई थी, अल्लाह की पुस्तक को अपनी पीठों के पीछे ऐसे फेंक दिया, जैसे वे नहीं जानते।
49. अर्थात मुह़म्मद सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम क़ुरआन के साथ आ गए।
وَاتَّبَعُوْا مَا تَتْلُوا الشَّيٰطِيْنُ عَلٰى مُلْكِ سُلَيْمٰنَ ۚ وَمَا كَفَرَ سُلَيْمٰنُ وَلٰكِنَّ الشَّيٰطِيْنَ كَفَرُوْا يُعَلِّمُوْنَ النَّاسَ السِّحْرَ وَمَآ اُنْزِلَ عَلَى الْمَلَكَيْنِ بِبَابِلَ هَارُوْتَ وَمَارُوْتَ ۗ وَمَا يُعَلِّمٰنِ مِنْ اَحَدٍ حَتّٰى يَقُوْلَآ اِنَّمَا نَحْنُ فِتْنَةٌ فَلَا تَكْفُرْ ۗ فَيَتَعَلَّمُوْنَ مِنْهُمَا مَا يُفَرِّقُوْنَ بِهٖ بَيْنَ الْمَرْءِ وَزَوْجِهٖ ۗ وَمَا هُمْ بِضَاۤرِّيْنَ بِهٖ مِنْ اَحَدٍ اِلَّا بِاِذْنِ اللّٰهِ ۗ وَيَتَعَلَّمُوْنَ مَا يَضُرُّهُمْ وَلَا يَنْفَعُهُمْ ۗ وَلَقَدْ عَلِمُوْا لَمَنِ اشْتَرٰىهُ مَا لَهٗ فِى الْاٰخِرَةِ مِنْ خَلَاقٍ ۗ وَلَبِئْسَ مَاشَرَوْا بِهٖٓ اَنْفُسَهُمْ ۗ لَوْ كَانُوْا يَعْلَمُوْنَ١٠٢
Wattaba‘ū mā tatlusy-syayāṭīnu ‘alā mulki sulaimān(a), wa mā kafara sulaimānu wa lākinnnasy-syayāṭīna kafarū yu‘allimūnan-nāsas siḥr(a), wa mā unzila ‘alal-malakaini bibābila hārūta wa mārūt(a), wa mā yu‘allimāni min aḥadin ḥattā yaqūlā innamā naḥnu fitnatun falā takfur, fayata‘allamūna minhumā mā yufarriqūna bihī bainal-mar'i wa zaujih(ī), wa mā hum biḍarrīna bihī min aḥadin illā bi'iżnillāh(i), wa yata‘allamūna mā yaḍurruhum wa lā yanfa‘uhum, wa laqad ‘alimū lamanisytarāhu mā lahū fil-ākhirati min khalāq(in), wa labi'sa mā syarau bihī anfusahum, lau kānū ya‘lamūn(a).
[102]
तथा वे उस चीज़ के पीछे लग गए जो शैतान सुलैमान के शासन काल में पढ़ते थे। तथा सुलैमान ने कुफ़्र नहीं किया, लेकिन शैतानों ने कुफ़्र किया कि लोगों को जादू सिखाते थे, (और वे उस चीज़ के पीछे लग गए) जो बाबिल में दो फ़रिश्तों; हारूत और मारूत पर उतारी गई। हालाँकि वे दोनों किसी को भी नहीं सिखाते थे, यहाँ तक कि कह देते कि हम केवल एक आज़माइश हैं, इसलिए तू कुफ़्र न कर। फिर वे उन दोनों से वह चीज़ सीखते, जिसके द्वारा वे आदमी और उसकी पत्नी के बीच जुदाई डाल देते। और वे अल्लाह की अनुमति के बिना उसके द्वारा किसी को हानि पहुँचाने वाले न थे। और वे ऐसी चीज़ सीखते थे, जो उन्हें हानि पहुँचाती और उन्हें लाभ न देती थी। हालाँकि निःसंदेह वे भली-भाँति जान चुके थे कि जिसने इसे ख़रीदा, आख़िरत में उसका कोई भाग नहीं। और निःसंदेह बुरी है वह चीज़ जिसके बदले उन्होंने अपने आपको बेच डाला।50 काश! वे जानते होते।
50. इस आयत का दूसरा अर्थ यह भी किया गया है कि सुलैमान ने कुफ़्र नहीं किया, परंतु शैतानों ने कुफ़्र किया, वे मानव को जादू सिखाते थे। और न दो फ़रिशतों पर जादू उतारा गया, उन शैतानों या मानव में से हारूत तथा मारूत जादू सिखाते थे। (तफ़्सीर क़ुर्तुबी)। जिस ने प्रथम अनुवाद किया है, उसका यह विचार है कि मानव के रूप में दो फ़रिश्तों को उनकी परीक्षा के लिए भेजा गया था। सुलैमान अलैहिस्सलाम एक नबी और राजा हुए हैं। आप दाऊद अलैहिस्सलाम के पुत्र थे।
وَلَوْ اَنَّهُمْ اٰمَنُوْا وَاتَّقَوْا لَمَثُوْبَةٌ مِّنْ عِنْدِ اللّٰهِ خَيْرٌ ۗ لَوْ كَانُوْا يَعْلَمُوْنَ ࣖ١٠٣
Wa lau annahum āmanū wattaqau lamaṡūbatum min ‘indillāhi khair(un), lau kānū ya‘lamūn(a).
[103]
और यदि वे सचमुच ईमान लाते और अल्लाह से डरते, तो निश्चय अल्लाह के पास से थोड़ा बदला भी बहुत बेहतर था, काश! वे जानते होते।
يٰٓاَيُّهَا الَّذِيْنَ اٰمَنُوْا لَا تَقُوْلُوْا رَاعِنَا وَقُوْلُوا انْظُرْنَا وَاسْمَعُوْا وَلِلْكٰفِرِيْنَ عَذَابٌ اَلِيْمٌ١٠٤
Yā ayyuhal-lażīna āmanū lā taqūlū rā‘inā wa qūlunẓurnā wasma‘ū wa lil-kāfirīna ‘ażābun alīm(un).
[104]
ऐ ईमान वालो! तुम 'राइना'51 (हमारा ध्यान रखिए) न कहो, और 'उन्ज़ुरना' (हमारी ओर देखिए) कहो और सुनो तथा काफ़िरों के लिए दुखदायी यातना है।
51. इब्ने अब्बास रज़ियल्लाहु अन्हुमा कहते हैं कि नबी सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम की सभा में यहूदी भी आ जाते थे। और मुसलमानों को आपसे कोई बात समझनी होती तो "राइना" कहते, अर्थात हम पर ध्यान दीजिए, या हमारी बात सुनिए। इब्रानी भाषा में इसका बुरा अर्थ भी निकलता था, जिससे यहूदी प्रसन्न होते थे। इसलिए मुसलमानों को आदेश दिया गया कि इसके स्थान पर तुम "उन्ज़ुरना" कहा करो। अर्थात हमारी ओर देखिए। (तफ़्सीर क़ुर्तुबी)
مَا يَوَدُّ الَّذِيْنَ كَفَرُوْا مِنْ اَهْلِ الْكِتٰبِ وَلَا الْمُشْرِكِيْنَ اَنْ يُّنَزَّلَ عَلَيْكُمْ مِّنْ خَيْرٍ مِّنْ رَّبِّكُمْ ۗ وَاللّٰهُ يَخْتَصُّ بِرَحْمَتِهٖ مَنْ يَّشَاۤءُ ۗ وَاللّٰهُ ذُو الْفَضْلِ الْعَظِيْمِ١٠٥
Mā yawaddul-lażīna kafarū min ahlil-kitābi wa lal-musyrikīna ay yunazzila ‘alaikum min khairim mir rabbikum, wallāhu yakhtaṣṣu biraḥmatihī may yasyā'(u), wallāhu żul faḍlil-‘aẓīm(i).
[105]
काफ़िर लोग, अह्ले किताब में से हों या मुश्रिकों (अनेकेश्वरवादियों) में से, नहीं चाहते कि तुम पर तुम्हारे पालनहार की ओर से कोई भलाई उतारी जाए और अल्लाह जिसे चाहता है, अपनी दया के साथ खास कर लेता है और अल्लाह बहुत बड़े अनुग्रह वाला है।
۞ مَا نَنْسَخْ مِنْ اٰيَةٍ اَوْ نُنْسِهَا نَأْتِ بِخَيْرٍ مِّنْهَآ اَوْ مِثْلِهَا ۗ اَلَمْ تَعْلَمْ اَنَّ اللّٰهَ عَلٰى كُلِّ شَيْءٍ قَدِيْرٌ١٠٦
Mā nansakh min āyatin au nunsihā na'ti bi khairim minhā au miṡlihā, alam ta‘lam annallāha ‘alā kulli syai'in qadīr(un).
[106]
हम जो भी आयत मन्सूख़ (निरस्त) करते हैं, या उसे भुला देते हैं, तो उससे बेहतर, या उसके समान (और) ले आते हैं। क्या तुमने नहीं जाना कि निःसंदेह अल्लाह हर चीज़52 पर सर्वशक्तिमान है।
52. इस आयत में यहूदियों के तौरात के आदेशों के निरस्त किए जाने तथा ईसा अलैहिस्सलाम और मुह़म्मद सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम की नुबुव्वत के इनकार का खंडन किया गया है।
اَلَمْ تَعْلَمْ اَنَّ اللّٰهَ لَهٗ مُلْكُ السَّمٰوٰتِ وَالْاَرْضِ ۗ وَمَا لَكُمْ مِّنْ دُوْنِ اللّٰهِ مِنْ وَّلِيٍّ وَّلَا نَصِيْرٍ١٠٧
Alam ta‘lam annallāha lahū mulkus-samāwāti wal arḍ(i), wa mā lakum min dūnillāhi miw waliyyiw wa lā naṣīr(in).
[107]
क्या तुमने नहीं जाना कि आकाशों एवं धरती का राज्य अल्लाह ही के लिए है और अल्लाह के सिवा तुम्हारा न कोई दोस्त है और न कोई सहायक।
اَمْ تُرِيْدُوْنَ اَنْ تَسْـَٔلُوْا رَسُوْلَكُمْ كَمَا سُىِٕلَ مُوْسٰى مِنْ قَبْلُ ۗوَمَنْ يَّتَبَدَّلِ الْكُفْرَ بِالْاِيْمَانِ فَقَدْ ضَلَّ سَوَاۤءَ السَّبِيْلِ١٠٨
Am turīdūna an tas'alū rasūlakum kamā su'ila mūsā min qabl(u), wa may yatabaddalil-kufra bil-īmāni faqad ḍalla sawā'as-sabīl(i).
[108]
या तुम चाहते हो कि अपने रसूल से सवाल करो, जैसे इससे पहले मूसा से सवाल किए गए? और जो कोई ईमान के बदले कुफ़्र को अपना ले, तो निःसंदे वह सीधे मार्ग से भटक गया।
وَدَّ كَثِيْرٌ مِّنْ اَهْلِ الْكِتٰبِ لَوْ يَرُدُّوْنَكُمْ مِّنْۢ بَعْدِ اِيْمَانِكُمْ كُفَّارًاۚ حَسَدًا مِّنْ عِنْدِ اَنْفُسِهِمْ مِّنْۢ بَعْدِ مَا تَبَيَّنَ لَهُمُ الْحَقُّ ۚ فَاعْفُوْا وَاصْفَحُوْا حَتّٰى يَأْتِيَ اللّٰهُ بِاَمْرِهٖ ۗ اِنَّ اللّٰهَ عَلٰى كُلِّ شَيْءٍ قَدِيْرٌ١٠٩
Wadda kaṡīrum min ahlil-kitābi lau yaruddūnakum mim ba‘di īmānikum kuffārā(n), ḥasadam min ‘indi anfusihim mim ba‘di mā tabayyana lahumul-ḥaqq(u), fa‘fū waṣfaḥū ḥattā ya'tiyallāhu bi amrih(ī), innallāha ‘alā kulli syai'in qadīr(un).
[109]
बहुत-से अह्ले किताब चाहते हैं काश! वे तुम्हें तुम्हारे ईमान के बाद फिर काफ़िर बना दें, अपने दिलों की ईर्ष्या के कारण, इसके बाद कि उनके लिए सत्य ख़ूब स्पष्ट हो चुका। तो तुम क्षमा करो और माफ़ कर दो, यहाँ तक कि अल्लाह अपना हुक्म ले आए। निःसंदेह अल्लाह हर चीज़ पर सर्वशक्तिमान है।
وَاَقِيْمُوا الصَّلٰوةَ وَاٰتُوا الزَّكٰوةَ ۗ وَمَا تُقَدِّمُوْا لِاَنْفُسِكُمْ مِّنْ خَيْرٍ تَجِدُوْهُ عِنْدَ اللّٰهِ ۗ اِنَّ اللّٰهَ بِمَا تَعْمَلُوْنَ بَصِيْرٌ١١٠
Wa aqīmuṣ-ṣalāta wa ātuz-zakāh(ta), wa mā tuqaddimū li'anfusikum min khairin tajidūhu ‘indallāh(i), innallāha bimā ta‘malūna baṣīr(un).
[110]
तथा नमाज़ क़ायम करो और ज़कात दो और जो भी भलाई तुम अपने लिए आगे भेजोगे, उसे अल्लाह के पास पा लोगे। निःसंदेह अल्लाह जो कुछ तुम करते हो, उसे ख़ूब देखने वाला है।
وَقَالُوْا لَنْ يَّدْخُلَ الْجَنَّةَ اِلَّا مَنْ كَانَ هُوْدًا اَوْ نَصٰرٰى ۗ تِلْكَ اَمَانِيُّهُمْ ۗ قُلْ هَاتُوْا بُرْهَانَكُمْ اِنْ كُنْتُمْ صٰدِقِيْنَ١١١
Wa qālū lay yadkhulal-jannata illā man kāna hūdan au naṣārā, tilka amāniyyuhum, qul hātū burhānakum in kuntum ṣādiqīn(a).
[111]
तथा उन्होंने कहा जन्नत में हरगिज़ नहीं जाएँगे, परंतु जो यहूदी होंगे या ईसाई।53 ये उनकी कामनाएँ ही हैं। (उनसे) कहो : लाओ अपने प्रमाण, यदि तुम सच्चे हो।
53. अर्थात यहूदियों ने कहा कि केवल यहूदी जाएँगे और ईसाईयों ने कहा कि केवल ईसाई जाएँगे।
بَلٰى مَنْ اَسْلَمَ وَجْهَهٗ لِلّٰهِ وَهُوَ مُحْسِنٌ فَلَهٗٓ اَجْرُهٗ عِنْدَ رَبِّهٖۖ وَلَا خَوْفٌ عَلَيْهِمْ وَلَا هُمْ يَحْزَنُوْنَ ࣖ١١٢
Balā man aslama wajhahū lillāhi wa huwa muḥsinun falahū ajruhū ‘inda rabbih(i), wa lā khaufun ‘alaihim wa lā hum yaḥzanūn(a).
[112]
क्यों नहीं,54 जिसने अपना चेहरा अल्लाह के अधीन कर दिया और वह अच्छा कार्या करने वाला हो, तो उसके लिए उसका बदला उसके पालनहार के पास है और न उनपर कोई भय है और न वे शोकाकुल होंगे।
54. स्वर्ग में प्रवेश का साधारण नियम अर्थात मुक्ति एकेश्वरवाद तथा सत्कर्म पर आधारित है, किसी जाति अथवा गिरोह पर नहीं।
وَقَالَتِ الْيَهُوْدُ لَيْسَتِ النَّصٰرٰى عَلٰى شَيْءٍۖ وَّقَالَتِ النَّصٰرٰى لَيْسَتِ الْيَهُوْدُ عَلٰى شَيْءٍۙ وَّهُمْ يَتْلُوْنَ الْكِتٰبَۗ كَذٰلِكَ قَالَ الَّذِيْنَ لَا يَعْلَمُوْنَ مِثْلَ قَوْلِهِمْ ۚ فَاللّٰهُ يَحْكُمُ بَيْنَهُمْ يَوْمَ الْقِيٰمَةِ فِيْمَا كَانُوْا فِيْهِ يَخْتَلِفُوْنَ١١٣
Wa qālatil-yahūdu laisatin-naṣārā ‘alā syai'(in), wa qālatin-naṣārā laisatil-yahūdu ‘alā syai'(in), wa hum yatlūnal-kitāb(a), każālika qālal-lażīna lā ya‘lamūna miṡla qaulihim, fallāhu yaḥkumu bainahum yaumal-qiyāmati fīmā kānū fīhi yakhtalifūn(a).
[113]
तथा यहूदियों ने कहा कि ईसाई किसी चीज़ पर नहीं हैं और ईसाइयों ने कहा कि यहूदी किसी चीज़ पर नहीं हैं। हालाँकि वे पुस्तक55 पढ़ते हैं। इसी तरह उन लोगों ने भी जो कुछ ज्ञान नहीं रखते,56 उनकी बात जैसी बात कही। अब अल्लाह उनके बीच क़ियामत के दिन उस बारे में फैसला करेगा, जिसमें वे मतभेद किया करते थे।
55. अर्थात तौरात तथा इंजील जिसमें सब नबियों पर ईमान लाने का आदेश दिया गया है। 56. धर्म पुस्तक से अज्ञान अरब थे, जो यह कहते थे कि मुह़म्मद (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) के पास कुछ नहीं है।
وَمَنْ اَظْلَمُ مِمَّنْ مَّنَعَ مَسٰجِدَ اللّٰهِ اَنْ يُّذْكَرَ فِيْهَا اسْمُهٗ وَسَعٰى فِيْ خَرَابِهَاۗ اُولٰۤىِٕكَ مَا كَانَ لَهُمْ اَنْ يَّدْخُلُوْهَآ اِلَّا خَاۤىِٕفِيْنَ ەۗ لَهُمْ فِى الدُّنْيَا خِزْيٌ وَّلَهُمْ فِى الْاٰخِرَةِ عَذَابٌ عَظِيْمٌ١١٤
Wa man aẓlamu mim mam mana‘a masājidallāhi ay yużkara fīhasmuhū wa sa‘ā fī kharābihā, ulā'ika mā kāna lahum ay yadkhulūhā illā khā'ifīn(a), lahum fid-dun-yā khizyuw wa lahum fil-ākhirati ‘ażābun ‘aẓīm(un).
[114]
और उससे बड़ा अत्याचारी कौन है, जो अल्लाह की मस्जिदों में उसके नाम का स्मरण करने से रोके और उन्हें उजाड़ने का प्रयास करे?57 ऐसे लोगों का हक़ नहीं कि उनमें प्रवेश करते परंतु डरते हुए। उनके लिए संसार ही में अपमान है और उनके लिए आख़िरत में बड़ी यातना है।
57. जैसे मक्का वासियों ने आप सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम और आपके साथियों को सन् 6 हिजरी में काबा में आने से रोक दिया। या ईसाइयों ने बैतुल मुक़द्दस को ढाने में बुख़्त नस्सर (राजा) की सहायता की।
وَلِلّٰهِ الْمَشْرِقُ وَالْمَغْرِبُ فَاَيْنَمَا تُوَلُّوْا فَثَمَّ وَجْهُ اللّٰهِ ۗ اِنَّ اللّٰهَ وَاسِعٌ عَلِيْمٌ١١٥
Wa lillāhil-masyriqu wal-magrib(u), fa'ainamā tuwallū faṡamma wajhullāh(i), innallāha wāsi‘un ‘alīm(un).
[115]
तथा पूर्व और पश्चिम अल्लाह ही के हैं, तो तुम जिस ओर रुख करो,58 सो वहीं अल्लाह का चेहरा है। निःसंदेह अल्लाह विस्तार वाला, सब कुछ जानने वाला है।
58. अर्थात अल्लाह के आदेशानुसार तुम जिधर भी रुख करोगे, तुम्हें अल्लाह की प्रसन्नता प्राप्त होगी।
وَقَالُوا اتَّخَذَ اللّٰهُ وَلَدًا ۙسُبْحٰنَهٗ ۗ بَلْ لَّهٗ مَا فِى السَّمٰوٰتِ وَالْاَرْضِۗ كُلٌّ لَّهٗ قٰنِتُوْنَ١١٦
Wa qāluttakhażallāhu waladan subḥānah(ū), bal lahū mā fis-samāwāti wal-arḍ(i), kullul lahū qānitūn(a).
[116]
तथा उन्होंने कहा59 कि अल्लाह ने कोई संतान बना रखी है, वह पवित्र है। बल्कि उसी का है जो कुछ आकाशों तथा धरती में है, सब उसी के आज्ञाकारी हैं।
59. अर्थात यहूद और नसारा तथा मिश्रणवादियों ने।
بَدِيْعُ السَّمٰوٰتِ وَالْاَرْضِۗ وَاِذَا قَضٰٓى اَمْرًا فَاِنَّمَا يَقُوْلُ لَهٗ كُنْ فَيَكُوْنُ١١٧
Badī‘us-samāwāti wal-arḍ(i), wa iżā qaḍā amran fa'innamā yaqūlu lahū kun fayakūn(u).
[117]
वह आकाशों तथा धरती का आविष्कारक है और जब किसी काम का निर्णय करता है, तो उससे मात्र यही कहता है कि "हो जा" तो वह हो जाता है।
وَقَالَ الَّذِيْنَ لَا يَعْلَمُوْنَ لَوْلَا يُكَلِّمُنَا اللّٰهُ اَوْ تَأْتِيْنَآ اٰيَةٌ ۗ كَذٰلِكَ قَالَ الَّذِيْنَ مِنْ قَبْلِهِمْ مِّثْلَ قَوْلِهِمْ ۗ تَشَابَهَتْ قُلُوْبُهُمْ ۗ قَدْ بَيَّنَّا الْاٰيٰتِ لِقَوْمٍ يُّوْقِنُوْنَ١١٨
Wa qālal-lażīna lā ya‘lamūna lau lā yukallimunallāhu au ta'tīnā āyah(tun), każālika qālal-lażīna min qablihim miṡla qaulihim, tasyābahat qulūbuhum, qad bayyannal-āyāti liqaumiy yūqinūn(a).
[118]
तथा उन लोगों ने कहा जो ज्ञान60 नहीं रखते : अल्लाह हमसे बात क्यों नहीं करता? या हमारे पास कोई निशानी क्यों नहीं आती? इसी प्रकार उन लोगों ने जो इनसे पूर्व थे, इनकी बात जैसी बात कही। इनके दिल एक-दूसरे जैसे हो गए हैं। निःसंदेह हमने उन लोगों के लिए निशानियाँ खोलकर बयान कर दी हैं, जो विश्वास करते हैं।
60. अर्थात अरब के मिश्रणवादियों ने।
اِنَّآ اَرْسَلْنٰكَ بِالْحَقِّ بَشِيْرًا وَّنَذِيْرًاۙ وَّلَا تُسْـَٔلُ عَنْ اَصْحٰبِ الْجَحِيْمِ١١٩
Innā arsalnāka bil-ḥaqqi basyīraw wa nażīrā(n), wa lā tus'alu ‘an aṣḥābil-jaḥīm(i).
[119]
निःसंदेह (ऐ नबी!) हमने आपको सत्य के साथ खुशख़बरी देने वाला तथा डराने वाला61 बनाकर भेजा है। और आपसे दोज़ख़ियों के बारे में नहीं पूछा जाएगा।
61. अर्थात सत्य ज्ञान के अनुपालन पर स्वर्ग की शुभ सूचना देने वाला, तथा इनकार पर नरक से डराने वाला। इसके पश्चात् भी कोई न माने, तो आप उसके उत्तरदायी नहीं हैं।
وَلَنْ تَرْضٰى عَنْكَ الْيَهُوْدُ وَلَا النَّصٰرٰى حَتّٰى تَتَّبِعَ مِلَّتَهُمْ ۗ قُلْ اِنَّ هُدَى اللّٰهِ هُوَ الْهُدٰى ۗ وَلَىِٕنِ اتَّبَعْتَ اَهْوَاۤءَهُمْ بَعْدَ الَّذِيْ جَاۤءَكَ مِنَ الْعِلْمِ ۙ مَا لَكَ مِنَ اللّٰهِ مِنْ وَّلِيٍّ وَّلَا نَصِيْرٍ١٢٠
Wa lan tarḍā ‘ankal-yahūdu wa lan-naṣārā ḥattā tattabi‘a millatahum, qul inna hudallāhi huwal-hudā, wa la'inittaba‘ta ahwā'ahum ba‘dal-lażī jā'aka minal-‘ilm(i), mā laka minallāhi miw waliyyiw wa lā naṣīr(in).
[120]
(ऐ नबी!) यहूदी तथा ईसाई आपसे हरगिज़ राज़ी न होंगे, यहाँ तक कि आप उनके धर्म की पैरवी करें। आप कह दीजिए कि निःसंदेह अल्लाह का मार्गदर्शन ही असल मार्गदर्शन है, और यदि आपने उनकी इच्छाओं का अनुसरण किया, उस ज्ञान के बाद जो आपके पास आया है, तो अल्लाह से (बचाने में) आपका न कोई मित्र होगा और न कोई सहायक।
اَلَّذِيْنَ اٰتَيْنٰهُمُ الْكِتٰبَ يَتْلُوْنَهٗ حَقَّ تِلَاوَتِهٖۗ اُولٰۤىِٕكَ يُؤْمِنُوْنَ بِهٖ ۗ وَمَنْ يَّكْفُرْ بِهٖ فَاُولٰۤىِٕكَ هُمُ الْخٰسِرُوْنَ ࣖ١٢١
Allażīna ātaināhumul-kitāba yatlūnahū ḥaqqa tilāwatih(ī), ulā'ika yu'minūna bih(ī), wa may yakfur bihī fa ulā'ika humul-khāsirūn(a).
[121]
वे लोग जिन्हें हमने किताब दी है, उसे पढ़ते हैं जैसे उसे पढ़ने का हक़ है, ये लोग उसपर ईमान रखते हैं और जो कोई उसका इनकार करे, तो वही लोग घाटा उठाने वाले हैं।
يٰبَنِيْٓ اِسْرَاۤءِيْلَ اذْكُرُوْا نِعْمَتِيَ الَّتِيْٓ اَنْعَمْتُ عَلَيْكُمْ وَاَنِّيْ فَضَّلْتُكُمْ عَلَى الْعٰلَمِيْنَ١٢٢
Yā banī isrā'īlażkurū ni‘matiyal-latī an‘amtu ‘alaikum wa annī faḍḍaltukum ‘alal-‘ālamīn(a).
[122]
ऐ इसराईल की संतान! मेरे उस अनुग्रह को याद करो, जो मैंने तुमपर किया और यह कि निःसंदेह मैंने ही तुम्हें संसार वालों पर श्रेष्ठता प्रदान की।
وَاتَّقُوْا يَوْمًا لَّا تَجْزِيْ نَفْسٌ عَنْ نَّفْسٍ شَيْـًٔا وَّلَا يُقْبَلُ مِنْهَا عَدْلٌ وَّلَا تَنْفَعُهَا شَفَاعَةٌ وَّلَا هُمْ يُنْصَرُوْنَ١٢٣
Wattaqū yaumal lā tajzī nafsun ‘an nafsin syai'aw wa lā yuqbalu minhā ‘adluw wa lā tanfa‘uhā syafā‘atuw wa lā hum yunṣarūn(a).
[123]
तथा उस दिन से डरो, जब कोई किसी के कुछ काम न आएगा, और न उससे कोई फ़िदया (दंड राशि) स्वीकार किया जाएगा और न उसे कोई अनुशंसा (सिफ़ारिश) लाभ देगी, और न उनकी मदद की जाएगी।
۞ وَاِذِ ابْتَلٰٓى اِبْرٰهٖمَ رَبُّهٗ بِكَلِمٰتٍ فَاَتَمَّهُنَّ ۗ قَالَ اِنِّيْ جَاعِلُكَ لِلنَّاسِ اِمَامًا ۗ قَالَ وَمِنْ ذُرِّيَّتِيْ ۗ قَالَ لَا يَنَالُ عَهْدِى الظّٰلِمِيْنَ١٢٤
Wa iżibtalā ibrāhīma rabbuhū bikalimātin fa atammahunn(a), qāla innī jā‘iluka lin-nāsi imāmā(n), qāla wa min żurriyyatī, qāla lā yanālu ‘ahdiẓ-ẓālimīn(a).
[124]
और (उस समय को याद करो) जब इबराहीम को उसके पालनहार ने कुछ बातों के साथ आज़माया, तो उसने उन्हें पूरा कर दिया। उसने कहा : निःसंदेह मैं तुम्हें लोगों का इमाम (पेशवा) बनाने वाला हूँ। (इबराहीम ने) कहा : तथा मेरी संतान में से भी? (अल्लाह ने) फरमाया : मेरा वचन अत्याचारियों62 को नहीं पहुँचता।
62. आयत में अत्याचार से अभिप्रेत केवल मानव पर अत्याचार नहीं, बल्कि सत्य को नकारना तथा शिर्क करना भी अत्याचार में शामिल है।
وَاِذْ جَعَلْنَا الْبَيْتَ مَثَابَةً لِّلنَّاسِ وَاَمْنًاۗ وَاتَّخِذُوْا مِنْ مَّقَامِ اِبْرٰهٖمَ مُصَلًّىۗ وَعَهِدْنَآ اِلٰٓى اِبْرٰهٖمَ وَاِسْمٰعِيْلَ اَنْ طَهِّرَا بَيْتِيَ لِلطَّاۤىِٕفِيْنَ وَالْعٰكِفِيْنَ وَالرُّكَّعِ السُّجُوْدِ١٢٥
Wa iż ja‘alnal-baita maṡābatal lin-nāsi wa amnā(n), wattakhiżū mim maqāmi ibrāhīma muṣallā(n), wa ‘ahidnā ilā ibrāhīma wa ismā‘īla an ṭahhirā baitiya liṭ-ṭā'ifīna wal-‘ākifīna war-rukka‘is-sujūd(i).
[125]
और (उस समय को याद करो) जब हमने इस घर (काबा) को लोगों के लिए लौट कर आने की जगह तथा सर्वथा शांति बनाया, तथा (आदेश दिया) तुम 'मक़ामे इबराहीम' (इबराहीम के खड़े होने की जगह) को नमाज़ का स्थान63 बनाओ। तथा हमने इबराहीम और इसमाईल को ताकीदी हुक्म दिया कि तुम दोनों मेरे घर को तवाफ़ (परिक्रमा) करने वालों तथा एतिकाफ़64 करने वालों और रुकू' एवं सजदा करने वालों के लिए पवित्र (साफ़) रखो।
63. "मक़ामे इबराहीम" से तात्पर्य वह पत्थर है, जिसपर खड़े होकर उन्होंने काबा का निर्माण किया। जिसपर उनके पदचिह्न आज भी सुरक्षित हैं। तथा तवाफ़ के पश्चात् वहाँ दो रकअत नमाज़ पढ़नी सुन्नत है। 64. "एतिकाफ़" का अर्थ किसी मस्जिद में एकांत में होकर अल्लाह की इबादत करना है।
وَاِذْ قَالَ اِبْرٰهٖمُ رَبِّ اجْعَلْ هٰذَا بَلَدًا اٰمِنًا وَّارْزُقْ اَهْلَهٗ مِنَ الثَّمَرٰتِ مَنْ اٰمَنَ مِنْهُمْ بِاللّٰهِ وَالْيَوْمِ الْاٰخِرِۗ قَالَ وَمَنْ كَفَرَ فَاُمَتِّعُهٗ قَلِيْلًا ثُمَّ اَضْطَرُّهٗٓ اِلٰى عَذَابِ النَّارِ ۗ وَبِئْسَ الْمَصِيْرُ١٢٦
Wa iż qāla ibrāhīmu rabbij‘al hāżā baladan āminaw warzuq ahlahū minaṡ-ṡamarāti man āmana minhum billāhi wal-yaumil-ākhir(i), qāla wa man kafara fa umatti‘uhū qalīlan ṡumma aḍṭarruhū ilā ‘ażābin-nār(i), wa bi'sal-maṣīr(u).
[126]
और (उस समय को याद करो) जब इबराहीम ने कहा : ऐ मेरे पालनहार! इस (जगह) को शांति वाला नगर बना दे और इसके वासियों को फलों से रोज़ी दे, जो उनमें से अल्लाह और अंतिम दिन पर ईमान लाए। (अल्लाह ने) फरमाया : और जिसने कुफ़्र किया, तो मैं उसे भी थोड़ा-सा लाभ दूँगा, फिर उसे आग की यातना की ओर विवश करूँगा और वह लौटने का बुरा स्थान है।
وَاِذْ يَرْفَعُ اِبْرٰهٖمُ الْقَوَاعِدَ مِنَ الْبَيْتِ وَاِسْمٰعِيْلُۗ رَبَّنَا تَقَبَّلْ مِنَّا ۗ اِنَّكَ اَنْتَ السَّمِيْعُ الْعَلِيْمُ١٢٧
Wa iż yarfa‘u ibrāhīmul-qawā‘ida minal-baiti wa ismā‘īl(u), rabbanā taqabbal minnā, innaka antas-samī‘ul-‘alīm(u).
[127]
और (याद करो) जब इबराहीम और इसमाईल इस घर की बुनियादें उठा रहे थे (और कह रहे थे :) ऐ हमारे पालनहार! हमसे स्वीकार कर ले। निःसंदेह तू ही सब कुछ सुनने वाला, सब कुछ जानने वाला है।
رَبَّنَا وَاجْعَلْنَا مُسْلِمَيْنِ لَكَ وَمِنْ ذُرِّيَّتِنَآ اُمَّةً مُّسْلِمَةً لَّكَۖ وَاَرِنَا مَنَاسِكَنَا وَتُبْ عَلَيْنَا ۚ اِنَّكَ اَنْتَ التَّوَّابُ الرَّحِيْمُ١٢٨
Rabbanā waj‘alnā muslimaini laka wa min żurriyyatinā ummatam muslimatal lak(a), wa arinā manāsikanā wa tub ‘alainā, innaka antat-tawwābur-raḥīm(u).
[128]
ऐ हमारे पालनहार! और हमें अपना आज्ञाकारी बना और हमारी संतान में से भी एक समुदाय अपना आज्ञाकारी बना और हमें अपनी इबादत के तरीक़े दिखा तथा हमारी तौबा क़बूल फरमा। निःसंदेह तू ही बहुत तौबा क़बूल करने वाला, अत्यंत दयावान् है।
رَبَّنَا وَابْعَثْ فِيْهِمْ رَسُوْلًا مِّنْهُمْ يَتْلُوْا عَلَيْهِمْ اٰيٰتِكَ وَيُعَلِّمُهُمُ الْكِتٰبَ وَالْحِكْمَةَ وَيُزَكِّيْهِمْ ۗ اِنَّكَ اَنْتَ الْعَزِيْزُ الْحَكِيْمُ ࣖ١٢٩
Rabbanā wab‘aṡ fīhim rasūlam minhum yatlū ‘alaihim āyātika wa yu‘allimuhumul-kitāba wal-ḥikmata wa yuzakkīhim, innaka antal-‘azīzul-ḥakīm(u).
[129]
ऐ हमारे पालनहार! और उनमें उन्हीं में से एक रसूल भेज, जो उनपर तेरी आयतें पढ़े, और उन्हें पुस्तक (क़ुरआन) तथा ह़िकमत (सुन्नत) की शिक्षा दे और उन्हें पाक करे। निःसंदेह तू ही सब पर प्रभुत्वशाली, पूर्ण हिकमत वाला है।65
65. यह इबराहीम तथा इसमाईल अलैहिमस्सलाम की प्रार्थना का अंत है। एक रसूल से अभिप्रेत मुह़म्मद सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम हैं। क्योंकि इसमाईल अलैहिस्सलाम की संतान में आपके सिवा कोई दूसरा रसूल नहीं हुआ। ह़दीस में है कि आप सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ने फ़रमाया : मैं अपने पिता इबराहीम की प्रार्थना, ईसा की शुभ सूचना, तथा अपनी माता का स्वप्न हूँ। आप की माता आमिना ने गर्भ की अवस्था में एक स्वप्न देखा कि मुझसे एक प्रकाश निकला, जिससे शाम (देश) के भवन प्रकाशमान हो गए। (देखिए : ह़ाकिम : 2600) इसको उन्होंने सह़ीह़ कहा है। और इमान ज़हबी ने इसकी पुष्टि की है।
وَمَنْ يَّرْغَبُ عَنْ مِّلَّةِ اِبْرٰهٖمَ اِلَّا مَنْ سَفِهَ نَفْسَهٗ ۗوَلَقَدِ اصْطَفَيْنٰهُ فِى الدُّنْيَا ۚوَاِنَّهٗ فِى الْاٰخِرَةِ لَمِنَ الصّٰلِحِيْنَ١٣٠
Wa may yargabu ‘an millati ibrāhīma illā man safiha nafsah(ū), wa laqad-iṣṭafaināhu fid-dun-yā, wa innahū fil-ākhirati laminaṣ-ṣāliḥīn(a).
[130]
तथा कौन है जो इबराहीम के धर्म से विमुख होगा, सिवाय उसके जिसने अपने आपको मूर्ख बना लिया। निःसंदेह हमने उसे संसार में चुन लिया66 तथा निःसंदेह वह आख़िरत (परलोक) में निश्चय सदाचारियों में से है।
66. अर्थात मार्गदर्शन देने तथा नबी बनाने के लिए निर्वाचित कर लिया।
اِذْ قَالَ لَهٗ رَبُّهٗٓ اَسْلِمْۙ قَالَ اَسْلَمْتُ لِرَبِّ الْعٰلَمِيْنَ١٣١
Iż qāla lahū rabbuhū aslim, qāla aslamtu lirabbil-‘ālamīn(a).
[131]
जब उसके पालनहार ने उससे कहा : (मेरा) आज्ञाकारी हो जा। उसने कहा : मैं सर्व संसार के पालनहार का आज्ञाकारी हो गया।
وَوَصّٰى بِهَآ اِبْرٰهٖمُ بَنِيْهِ وَيَعْقُوْبُۗ يٰبَنِيَّ اِنَّ اللّٰهَ اصْطَفٰى لَكُمُ الدِّيْنَ فَلَا تَمُوْتُنَّ اِلَّا وَاَنْتُمْ مُّسْلِمُوْنَ ۗ١٣٢
Wa waṣṣā bihā ibrāhīmu banīhi wa ya‘qūb(u), yā baniyya innallāhaṣṭafā lakumud-dīna falā tamūtunna illā wa antum muslimūn(a).
[132]
तथा इसी की वसीयत इबराहीम ने अपने बेटों को की और याक़ूब ने भी। ऐ मेरे बेटो! निःसंदेह अल्लाह ने तुम्हारे लिए यह धर्म (इस्लाम) चुन लिया है। सो, तुम हरगिज़ न मरना परंतु इस हाल में कि तुम मुसलमान (आज्ञाकारी) हो।
اَمْ كُنْتُمْ شُهَدَاۤءَ اِذْ حَضَرَ يَعْقُوْبَ الْمَوْتُۙ اِذْ قَالَ لِبَنِيْهِ مَا تَعْبُدُوْنَ مِنْۢ بَعْدِيْۗ قَالُوْا نَعْبُدُ اِلٰهَكَ وَاِلٰهَ اٰبَاۤىِٕكَ اِبْرٰهٖمَ وَاِسْمٰعِيْلَ وَاِسْحٰقَ اِلٰهًا وَّاحِدًاۚ وَنَحْنُ لَهٗ مُسْلِمُوْنَ١٣٣
Am kuntum syuhadā'a iż ḥaḍara ya‘qūbal-maut(u), iż qāla libanīhi mā ta‘budūna mim ba‘dī, qālū na‘budu ilāhaka wa ilāha ābā'ika ibrāhīma wa ismā‘īla wa isḥāqa ilāhaw wāḥidā(n), wa naḥnu lahū muslimūn(a).
[133]
या तुम मौजूद थे, जब याक़ूब की मृत्यु का समय आया, जब उसने अपने बेटों से कहा : तुम मेरे बाद किसकी इबादत करोगे? उन्होंने उत्तर दिया : हम तेरे पूज्य और तेरे बाप-दादा इबराहीम और इसमाईल और इसहाक़ के पूज्य की इबादत करेंगे, जो एक ही पूज्य है, और हम उसी के आज्ञाकारी हैं।
تِلْكَ اُمَّةٌ قَدْ خَلَتْ ۚ لَهَا مَا كَسَبَتْ وَلَكُمْ مَّا كَسَبْتُمْ ۚ وَلَا تُسْـَٔلُوْنَ عَمَّا كَانُوْا يَعْمَلُوْنَ١٣٤
Tilka ummatun qad khalat, lahā mā kasabat wa lakum mā kasabtum, wa lā tus'alūna ‘ammā kānū ya‘malūn(a).
[134]
यह एक समुदाय था, जो गुज़र चुका। उसके लिए वह है जो उसने कमाया, और तुम्हारे लिए वह है जो तुमने कमाया। और तुमसे उसके बारे में नहीं पूछा जाएगा, जो वे किया करते थे।
وَقَالُوْا كُوْنُوْا هُوْدًا اَوْ نَصٰرٰى تَهْتَدُوْا ۗ قُلْ بَلْ مِلَّةَ اِبْرٰهٖمَ حَنِيْفًا ۗوَمَا كَانَ مِنَ الْمُشْرِكِيْنَ١٣٥
Wa qālū kūnū hūdan au naṣārā tahtadū, qul bal millata ibrāhīma ḥanīfā(n), wa mā kāna minal-musyrikīn(a).
[135]
और उन्होंने कहा : यहूदी अथवा ईसाई हो जाओ, मार्गदर्शन पा जाओगे। आप कह दें : बल्कि (हम) इबराहीम के धर्म (का अनुसरण करेंगे), जो एक अल्लाह का होने वाला था और अनेकेश्वरवादियों में से नहीं था।
قُوْلُوْٓا اٰمَنَّا بِاللّٰهِ وَمَآ اُنْزِلَ اِلَيْنَا وَمَآ اُنْزِلَ اِلٰٓى اِبْرٰهٖمَ وَاِسْمٰعِيْلَ وَاِسْحٰقَ وَيَعْقُوْبَ وَالْاَسْبَاطِ وَمَآ اُوْتِيَ مُوْسٰى وَعِيْسٰى وَمَآ اُوْتِيَ النَّبِيُّوْنَ مِنْ رَّبِّهِمْۚ لَا نُفَرِّقُ بَيْنَ اَحَدٍ مِّنْهُمْۖ وَنَحْنُ لَهٗ مُسْلِمُوْنَ١٣٦
Qūlū āmannā billāhi wa mā unzila ilainā wa mā unzila ilā ibrāhīma wa ismā‘īla wa isḥāqa wa ya‘qūba wal-asbāṭi wa mā ūtiya mūsā wa ‘īsā wa mā ūtiyan-nabiyyūna mir rabbihim, lā nufarriqu baina aḥadim minhum wa naḥnu lahū muslimūn(a).
[136]
(ऐ मुसलमानो!) तुम कह दो : हम अल्लाह पर ईमान लाए और उसपर जो हमारी ओर उतारा गया, और जो इबराहीम और इसमाईल और इसह़ाक़ और याक़ूब तथा उसकी संतान की ओर उतारा गया, और जो मूसा एवं ईसा को दिया गया तथा जो समस्त नबियों को उनके पालनहार की ओर से दिया गया। हम उनमें से किसी एक के बीच अंतर नहीं करते और हम उसी (अल्लाह) के आज्ञाकारी हैं।
فَاِنْ اٰمَنُوْا بِمِثْلِ مَآ اٰمَنْتُمْ بِهٖ فَقَدِ اهْتَدَوْا ۚوَاِنْ تَوَلَّوْا فَاِنَّمَا هُمْ فِيْ شِقَاقٍۚ فَسَيَكْفِيْكَهُمُ اللّٰهُ ۚوَهُوَ السَّمِيْعُ الْعَلِيْمُ ۗ١٣٧
Fa'in āmanū bimiṡli mā āmantum bihī faqadihtadau, wa in tawallau fa'innamā hum fī syiqāq(in), fasayakfīkahumullāh(u), wa huwas-samī‘ul-‘alīm(u).
[137]
फिर यदि वे उस जैसी चीज़ पर ईमान लाएँ, जिसपर तुम ईमान लाए हो, तो निश्चय वे मार्गदर्शन पा गए और यदि वे फिर जाएँ, तो वे मात्र विरोध में पड़े हुए हैं। अतः निकट ही अल्लाह तुझे उनके मुक़ाबले में काफ़ी हो जाएगा और वही सब कुछ सुनने वाला, सब कुछ जानने वाला है।
صِبْغَةَ اللّٰهِ ۚ وَمَنْ اَحْسَنُ مِنَ اللّٰهِ صِبْغَةً ۖ وَّنَحْنُ لَهٗ عٰبِدُوْنَ١٣٨
Ṣibgatallāh(i), wa man aḥsanu minallāhi ṣibgataw wa naḥnu lahū ‘ābidūn(a).
[138]
अल्लाह का रंग67 ग्रहण करो और रंग में अल्लाह से बेहतर कौन है? और हम उसी की इबादत करने वाले हैं।
67. इसमें ईसाई धर्म की (बपतिस्मा) की परंपरा का खंडन है। ईसाइयों ने पीले रंग का जल बना रखा था। जब कोई ईसाई होता या उनके यहाँ कोई शिशु जन्म लेता तो उसमें स्नान करा के ईसाई बनाते थे। अल्लाह के रंग से अभिप्राय एकेश्वरवाद पर आधारित स्वभाविक धर्म इस्लाम है। (तफ़्सीर क़ुर्तुबी)
قُلْ اَتُحَاۤجُّوْنَنَا فِى اللّٰهِ وَهُوَ رَبُّنَا وَرَبُّكُمْۚ وَلَنَآ اَعْمَالُنَا وَلَكُمْ اَعْمَالُكُمْۚ وَنَحْنُ لَهٗ مُخْلِصُوْنَ ۙ١٣٩
Qul atuḥājjūnanā fillāhi wa huwa rabbunā wa rabbukum, wa lanā a‘mālunā wa lakum a‘mālukum, wa naḥnu lahū mukhliṣūn(a).
[139]
(ऐ नबी!) कह दो : क्या तुम हमसे अल्लाह के बारे में झगड़ते हो? हालाँकि वही हमारा पालनहार तथा तुम्हारा पालनहार है68 और हमारे लिए हमारे कर्म हैं और तुम्हारे लिए तुम्हारे कर्म, और हम उसी के लिए मुख़्लिस (निष्ठावान) हैं।
68. फिर वंदनीय भी केवल वही है।
اَمْ تَقُوْلُوْنَ اِنَّ اِبْرٰهٖمَ وَاِسْمٰعِيْلَ وَاِسْحٰقَ وَيَعْقُوْبَ وَالْاَسْبَاطَ كَانُوْا هُوْدًا اَوْ نَصٰرٰى ۗ قُلْ ءَاَنْتُمْ اَعْلَمُ اَمِ اللّٰهُ ۗ وَمَنْ اَظْلَمُ مِمَّنْ كَتَمَ شَهَادَةً عِنْدَهٗ مِنَ اللّٰهِ ۗ وَمَا اللّٰهُ بِغَافِلٍ عَمَّا تَعْمَلُوْنَ١٤٠
Am taqūlūna inna ibrāhīma wa ismā‘īla wa isḥāqa wa ya‘qūba wal-asbāṭa kānū hūdan au naṣārā, qul a'antum a‘lamu amillāh(u), wa man aẓlamu mimman katama syahādatan ‘indahū minallāh(i), wa mallāhu bigāfilin ‘ammā ta‘malūn(a).
[140]
(ऐ अह्ले किताब!) या तुम कहते हो कि इबराहीम और इसमाईल और इसह़ाक़ और याक़ूब तथा उनकी औलाद यहूदी या ईसाई थे? (ऐ नबी! उनसे) कह दो : क्या तुम अधिक जानते हो अथवा अल्लाह? और उससे बड़ा अत्याचारी कौन है, जिसने वह गवाही छिपा ली, जो उसके पास अल्लाह की ओर से थी। और अल्लाह हरगिज़ उससे ग़ाफ़िल नहीं जो तुम करते हो।69
69. इसमें यहूदियों तथा ईसाइयों के इस दावे का खंडन किया गया है कि इबराहीम अलैहिस्सलाम आदि नबी यहूदी अथवा ईसाई थे।
تِلْكَ اُمَّةٌ قَدْ خَلَتْ ۚ لَهَا مَا كَسَبَتْ وَلَكُمْ مَّا كَسَبْتُمْ ۚ وَلَا تُسْـَٔلُوْنَ عَمَّا كَانُوْا يَعْمَلُوْنَ ࣖ ۔١٤١
Tilka ummatun qad khalat, lahā mā kasabat wa lakum mā kasabtum, wa lā tus'alūna ‘ammā kānū ya‘malūn(a).
[141]
यह एक समुदाय था, जो गुज़र चुका। उसके लिए वह है जो उसने कमाया, और तुम्हारे लिए वह है जो तुमने कमाया। और तुमसे उसके बारे में नहीं पूछा जाएगा, जो वे किया करते थे।70
70. अर्थात तुम्हारे पूर्वजों के सत्कर्मों से तुम्हें कोई लाभ नहीं होगा, और न उनके पापों के विषय में तुमसे प्रश्न किया जाएगा। अतः अपने कर्मों पर ध्यान दो।
۞ سَيَقُوْلُ السُّفَهَاۤءُ مِنَ النَّاسِ مَا وَلّٰىهُمْ عَنْ قِبْلَتِهِمُ الَّتِيْ كَانُوْا عَلَيْهَا ۗ قُلْ لِّلّٰهِ الْمَشْرِقُ وَالْمَغْرِبُۗ يَهْدِيْ مَنْ يَّشَاۤءُ اِلٰى صِرَاطٍ مُّسْتَقِيْمٍ١٤٢
Sayāqūlus-sufahā'u minan-nāsi mā wallāhum ‘an qiblatihimul-latī kānū ‘alaihā, qul lillāhil-masyriqu wal-magrib(u), yahdī may yasyā'u ilā ṣirāṭim mustaqīm(in).
[142]
शीघ्र ही मूर्ख लोग कहेंगे कि उन्हें उनके उस क़िबले71 से, जिस पर वे थे किस चीज़ ने फेर दिया? (ऐ नबी!) कह दीजिए कि पूर्व और पश्चिम अल्लाह ही के हैं। वह जिसे चाहता है, सीधी राह पर लगा देता है।
71. नमाज़ में मुख करने की दिशा।
وَكَذٰلِكَ جَعَلْنٰكُمْ اُمَّةً وَّسَطًا لِّتَكُوْنُوْا شُهَدَاۤءَ عَلَى النَّاسِ وَيَكُوْنَ الرَّسُوْلُ عَلَيْكُمْ شَهِيْدًا ۗ وَمَا جَعَلْنَا الْقِبْلَةَ الَّتِيْ كُنْتَ عَلَيْهَآ اِلَّا لِنَعْلَمَ مَنْ يَّتَّبِعُ الرَّسُوْلَ مِمَّنْ يَّنْقَلِبُ عَلٰى عَقِبَيْهِۗ وَاِنْ كَانَتْ لَكَبِيْرَةً اِلَّا عَلَى الَّذِيْنَ هَدَى اللّٰهُ ۗوَمَا كَانَ اللّٰهُ لِيُضِيْعَ اِيْمَانَكُمْ ۗ اِنَّ اللّٰهَ بِالنَّاسِ لَرَءُوْفٌ رَّحِيْمٌ١٤٣
Wa każālika ja‘alnākum ummataw wasaṭal litakūnū syuhadā'a ‘alan-nāsi wa yakūnar-rasūlu ‘alaikum syahīdā(n), wa mā ja‘alnal-qiblatal-latī kunta ‘alaihā illā lina‘lama may yattabi‘ur-rasūla mimmay yanqalibu ‘alā ‘aqibaih(i), wa in kānat lakabīratan illā ‘alal-lażīna hadallāh(u), wa mā kānallāhu liyuḍī‘a īmānakum, innallāha bin-nāsi lara'ūfur raḥīm(un).
[143]
और इसी प्रकार हमने तुम्हें सबसे बेहतर उम्मत (समुदाय) बनाया; ताकि तुम लोगों पर गवाही देने72 वाले बनो और रसूल तुमपर गवाही देने वाला बने। और हमने वह क़िबला जिसपर तुम थे, इसलिए निर्धारित किया था, ताकि हम जान लें कि कौन (इस) रसूल का अनुसरण करता है, उससे (अलग करके) जो अपनी ऐड़ियों पर फिर जाता है। और निःसंदेह यह बात निश्चय बहुत बड़ी थी, परंतु उन लोगों पर (नहीं) जिन्हें अल्लाह ने हिदायत दी और अल्लाह कभी ऐसा नहीं कि तुम्हारा ईमान (अर्थात् क़िबला बदलने से पहले पढ़ी गई नमाज़ों) को व्यर्थ कर दे।73 निःसंदेह अल्लाह लोगों पर अत्यंत करुणा करने वाला, अत्यंत दयावान् है।
72. गवाही देने का अर्थ जैसा कि ह़दीस में आया है यह है कि प्रलय के दिन नूह़ अलैहिस्सलाम को बुलाया जाएगा और उनसे प्रश्न किया जायेगा कि क्या तुमने अपनी जाति को संदेश पहुँचाया? वह कहेंगे : हाँ। फिर उनकी जाति से प्रश्न किया जाएगा, तो वे कहेंगे कि हमारे पास सावधान करने के लिए कोई नहीं आया। तो अल्लाह तआला नूह़ अलैहिस्सलाम से कहेगा कि तुम्हारा गवाह कौन है? वह कहेंगे : मुह़म्मद सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम और उनकी उम्मत। फिर आपकी उम्मत गवाही देगी कि नूह़ ने अल्लाह का संदेश पहुँचाया है। और आप सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम तुमपर अर्थात मुसलमानों पर गवाह होंगे। (सह़ीह़ बुख़ारी : 4486) 73.अर्थात उसका फल प्रदान करेगा।
قَدْ نَرٰى تَقَلُّبَ وَجْهِكَ فِى السَّمَاۤءِۚ فَلَنُوَلِّيَنَّكَ قِبْلَةً تَرْضٰىهَا ۖ فَوَلِّ وَجْهَكَ شَطْرَ الْمَسْجِدِ الْحَرَامِ ۗ وَحَيْثُ مَا كُنْتُمْ فَوَلُّوْا وُجُوْهَكُمْ شَطْرَهٗ ۗ وَاِنَّ الَّذِيْنَ اُوْتُوا الْكِتٰبَ لَيَعْلَمُوْنَ اَنَّهُ الْحَقُّ مِنْ رَّبِّهِمْ ۗ وَمَا اللّٰهُ بِغَافِلٍ عَمَّا يَعْمَلُوْنَ١٤٤
Qad narā taqallubaka wajhika fis-samā'(i), fa lanuwalliyannaka qiblatan tarḍāhā, fawalli wajhaka syaṭral-masjidil-ḥarām(i), wa ḥaiṡumā kuntum fawallū wujūhakum syaṭrah(ū), wa innal-lażīna ūtul-kitāba laya‘lamūna annahul-ḥaqqu mir rabbihim, wa mallāhu bigāfilin ‘ammā ya‘malūn(a).
[144]
निश्चय (ऐ नबी!) हम आपके चेहरे का बार-बार आकाश की ओर उठना देख रहे हैं। तो निश्चय हम आपको उस क़िबले की ओर अवश्य फेर देंगे, जिसे आप पसंद करते हैं। तो (अब) अपना चेहरा मस्जिदे ह़राम की ओर फेर लें,74 तथा तुम जहाँ भी हो, तो अपने चेहरे उसी की ओर फेर लो। निःसंदेह वे लोग जिन्हें किताब दी गई है निश्चय जानते हैं कि निःसंदेह उनके पालनहार की ओर से यही सत्य है75 और अल्लाह उससे हरगिज़ ग़ाफ़िल नहीं जो वे कर रहे हैं।
74. नबी सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम मक्का से मदीना प्रस्थान करने के पश्चात्, बैतुल मक़्दिस की ओर मुख करके नमाज़ पढ़ते रहे। फिर आपको काबा की ओर मुख करके नमाज़ पढ़ने का आदेश दिया गया। 75. क्योंकि अंतिम नबी के गुणों में उनकी पुस्तकों में बताया गया है कि वह क़िबला बदल देंगे।
وَلَىِٕنْ اَتَيْتَ الَّذِيْنَ اُوْتُوا الْكِتٰبَ بِكُلِّ اٰيَةٍ مَّا تَبِعُوْا قِبْلَتَكَ ۚ وَمَآ اَنْتَ بِتَابِعٍ قِبْلَتَهُمْ ۚ وَمَا بَعْضُهُمْ بِتَابِعٍ قِبْلَةَ بَعْضٍۗ وَلَىِٕنِ اتَّبَعْتَ اَهْوَاۤءَهُمْ مِّنْۢ بَعْدِ مَاجَاۤءَكَ مِنَ الْعِلْمِ ۙ اِنَّكَ اِذًا لَّمِنَ الظّٰلِمِيْنَ ۘ١٤٥
Wa la'in ataital-lażīna ūtul-kitāba bikulli āyatim mā tabi‘ū qiblatak(a), wa mā anta bitābi‘in qiblatahum, wa mā ba‘ḍuhum bitābi‘in qiblata ba‘ḍ(in), wa la'inittaba‘ta ahwā'ahum mim ba‘di mā jā'aka minal-‘ilm(i), innaka iżal laminaẓ-ẓālimīn(a).
[145]
और निश्चय यदि आप उन लोगों के पास जिन्हें किताब दी गई है, हर निशानी भी ले आएँ, वे आपके क़िबले का अनुसरण नहीं करेंगे और न आप उनके क़िबले का अनुसरण करने वाले हैं। और न उनमें से कोई दूसरे के क़िबले का अनुसरण करने वाला है। और निश्चय यदि आपने उनकी इच्छाओं का पालन किया, उस ज्ञान के बाद जो आपके पास आया है, तो निःसंदेह उस समय आप अवश्य अत्याचारियों में से हो जाएँगे।
اَلَّذِيْنَ اٰتَيْنٰهُمُ الْكِتٰبَ يَعْرِفُوْنَهٗ كَمَا يَعْرِفُوْنَ اَبْنَاۤءَهُمْ ۗ وَاِنَّ فَرِيْقًا مِّنْهُمْ لَيَكْتُمُوْنَ الْحَقَّ وَهُمْ يَعْلَمُوْنَ١٤٦
Allażīna ātaināhumul-kitāba ya‘rifūnahū kamā ya‘rifūna abnā'ahum, wa inna farīqam minhum layaktumūnal-ḥaqqa wa hum ya‘lamūn(a).
[146]
जिन्हें हमने पुस्तक दी है, वे उसे वैसे ही76 जानते हैं, जैसे अपने बेटों को पहचानते हैं, और निःसंदेह उनमें से एक समूह जानते हुए भी सत्य को छिपाता है।
76. आपके उन गुणों के कारण जो उनकी पुस्तकों में अंतिम नबी के विषय में वर्णित किए गए हैं।
اَلْحَقُّ مِنْ رَّبِّكَ فَلَا تَكُوْنَنَّ مِنَ الْمُمْتَرِيْنَ ࣖ١٤٧
Al-ḥaqqu mir rabbika falā takūnanna minal-mumtarīn(a).
[147]
यह सत्य आपके पालनहार की ओर से है। अतः आप कदापि संदेह करने वालों में से न हों।
وَلِكُلٍّ وِّجْهَةٌ هُوَ مُوَلِّيْهَا فَاسْتَبِقُوا الْخَيْرٰتِۗ اَيْنَ مَا تَكُوْنُوْا يَأْتِ بِكُمُ اللّٰهُ جَمِيْعًا ۗاِنَّ اللّٰهَ عَلٰى كُلِّ شَيْءٍ قَدِيْرٌ١٤٨
Wa likulliw wijhatun huwa muwallīhā fastabiqul-khairāt(i), aina mā takūnū ya'ti bikumullāhu jamī‘ā(n), innallāha ‘alā kulli syai'in qadīr(un).
[148]
प्रत्येक के लिए एक दिशा है, जिसकी ओर वह मुख करने वाला है। अतः तुम भलाइयों में एक-दूसरे आगे बढ़ो। तुम जहाँ कही भी होगे, अल्लाह तुम्हें इकट्ठा करके लाएगा। निःसंदेह अल्लाह हर चीज़ पर सर्वशक्तिमान है।
وَمِنْ حَيْثُ خَرَجْتَ فَوَلِّ وَجْهَكَ شَطْرَ الْمَسْجِدِ الْحَرَامِ ۗ وَاِنَّهٗ لَلْحَقُّ مِنْ رَّبِّكَ ۗ وَمَا اللّٰهُ بِغَافِلٍ عَمَّا تَعْمَلُوْنَ١٤٩
Wa min ḥaiṡu kharajta fawalli wajhaka syaṭral-masjidil-ḥarām(i), wa innahū lal-ḥaqqu mir rabbik(a), wa mallāhu bigāfilin ‘ammā ta‘malūn(a).
[149]
और आप जहाँ से भी निकलें, तो अपना चेहरा मस्जिदे-ह़राम की ओर फेर लें। और निःसंदेह यही आपके पालनहार की ओर से सत्य है और अल्लाह उससे हरगिज़ ग़ाफ़िल नहीं जो तुम करते हो।
وَمِنْ حَيْثُ خَرَجْتَ فَوَلِّ وَجْهَكَ شَطْرَ الْمَسْجِدِ الْحَرَامِ ۗ وَحَيْثُ مَا كُنْتُمْ فَوَلُّوْا وُجُوْهَكُمْ شَطْرَهٗ ۙ لِئَلَّا يَكُوْنَ لِلنَّاسِ عَلَيْكُمْ حُجَّةٌ اِلَّا الَّذِيْنَ ظَلَمُوْا مِنْهُمْ فَلَا تَخْشَوْهُمْ وَاخْشَوْنِيْ وَلِاُتِمَّ نِعْمَتِيْ عَلَيْكُمْ وَلَعَلَّكُمْ تَهْتَدُوْنَۙ١٥٠
Wa min ḥaiṡu kharajta fa walli wajhaka syaṭral-masjidil-ḥarām(i), wa ḥaiṡumā kuntum fawallū wujūhakum syaṭrah(ū), li'allā yakūna lin-nāsi ‘alaikum ḥujjatun illal-lażīna ẓalamū minhum, falā takhsyauhum wakhsyaunī, wa li'utimma ni‘matī ‘alaikum wa la‘allakum tahtadūn(a).
[150]
और आप जहाँ से भी निकलें, अपना चेहरा मस्जिदे-ह़राम की ओर फेर लें। और (ऐ मुसलमानों!) तुम जहाँ भी हो, अपने चेहरे उसी की ओर फेर लो। ताकि लोगों के पास तुम्हारे विरुद्ध कोई हुज्जत (तर्क) न रहे, सिवाय उनके जिन्होंने उनमें से अत्याचार किया। अतः उनसे मत डरो, (बल्कि) मुझसे डरो, और ताकि मैं अपनी नेमत तुमपर पूरी करूँ और ताकि तुम मार्गदर्शन पाओ।
كَمَآ اَرْسَلْنَا فِيْكُمْ رَسُوْلًا مِّنْكُمْ يَتْلُوْا عَلَيْكُمْ اٰيٰتِنَا وَيُزَكِّيْكُمْ وَيُعَلِّمُكُمُ الْكِتٰبَ وَالْحِكْمَةَ وَيُعَلِّمُكُمْ مَّا لَمْ تَكُوْنُوْا تَعْلَمُوْنَۗ١٥١
Kamā arsalnā fīkum rasūlam minkum yatlū ‘alaikum āyātinā wa yuzakkīkum wa yu‘allimukumul-kitāba wal-ḥikmata wa yu‘allimukum mā lam takūnū ta‘lamūn(a).
[151]
जिस तरह हमने तुम्हारे बीच एक रसूल तुम्हीं में से भेजा, जो तुमपर हमारी आयतें पढ़ता और तुम्हें पाक करता और तुम्हें किताब (क़ुरआन) तथा ह़िकमत (सुन्नत) सिखाता है और तुम्हें वह कुछ सिखाता है, जो तुम नहीं जानते थे।
فَاذْكُرُوْنِيْٓ اَذْكُرْكُمْ وَاشْكُرُوْا لِيْ وَلَا تَكْفُرُوْنِ ࣖ١٥٢
Fażkurūnī ażkurkum wasykurū lī wa lā takfurūn(i).
[152]
अतः तुम मुझे याद करो,77 मैं तुम्हें याद करूँगा।78 और मेरा शुक्र अदा करो तथा मेरी नाशुक्री न करो।
77. अर्थात मेरी आज्ञा का अनुपालन और मेरी आराधना करो। 78. अर्थात अपनी क्षमा और पुरस्कार द्वारा।
يٰٓاَيُّهَا الَّذِيْنَ اٰمَنُوا اسْتَعِيْنُوْا بِالصَّبْرِ وَالصَّلٰوةِ ۗ اِنَّ اللّٰهَ مَعَ الصّٰبِرِيْنَ١٥٣
Yā ayyuhal-lażīna āmanusta‘īnū biṣ-ṣabri waṣ-ṣalāh(ti), innallāha ma‘aṣ-ṣābirīn(a).
[153]
ऐ ईमान वालो! धैर्य तथा नमाज़ के साथ मदद प्राप्त करो। निःसंदेह अल्लाह धैर्य रखने वालों के साथ है।
وَلَا تَقُوْلُوْا لِمَنْ يُّقْتَلُ فِيْ سَبِيْلِ اللّٰهِ اَمْوَاتٌ ۗ بَلْ اَحْيَاۤءٌ وَّلٰكِنْ لَّا تَشْعُرُوْنَ١٥٤
Wa lā taqūlū limay yuqtalu fī sabīlillāhi amwāt(un), bal aḥyā'uw wa lākil lā tasy‘urūn(a).
[154]
तथा जो अल्लाह की राह में मारे जाएँ, उन्हें मुर्दा न कहो, बल्कि (वे) ज़िंदा हैं, परंतु तुम नहीं समझते।
وَلَنَبْلُوَنَّكُمْ بِشَيْءٍ مِّنَ الْخَوْفِ وَالْجُوْعِ وَنَقْصٍ مِّنَ الْاَمْوَالِ وَالْاَنْفُسِ وَالثَّمَرٰتِۗ وَبَشِّرِ الصّٰبِرِيْنَ١٥٥
Wa lanabluwannakum bisyai'im minal-khaufi wal-jū‘i wa naqaṣim minal-amwāli wal-anfusi waṡ-ṡamarāt(i), wa basysyiriṣ-ṣābirīn(a).
[155]
तथा निश्चय हम तुम्हें भय और भूख तथा धनों, प्राणों और फलों की कमी में से किसी न किसी चीज़ के साथ अवश्य आज़माएँगे। और (ऐ नबी!) सब्र करने वालों को शुभ समाचार सुना दें।
اَلَّذِيْنَ اِذَآ اَصَابَتْهُمْ مُّصِيْبَةٌ ۗ قَالُوْٓا اِنَّا لِلّٰهِ وَاِنَّآ اِلَيْهِ رٰجِعُوْنَۗ١٥٦
Allażīna iżā aṣābathum muṣībah(tun), qālū innā lillāhi wa innā ilaihi rāji‘ūn(a).
[156]
वे लोग कि जब उन्हें कोई मुसीबत पहुँचती है, तो कहते हैं : निःसंदेह हम अल्लाह के हैं और निःसंदेह हम उसी की ओर लौटने वाले हैं।
اُولٰۤىِٕكَ عَلَيْهِمْ صَلَوٰتٌ مِّنْ رَّبِّهِمْ وَرَحْمَةٌ ۗوَاُولٰۤىِٕكَ هُمُ الْمُهْتَدُوْنَ١٥٧
Ulā'ika ‘alaihim ṣalawātum mir rabbihim wa raḥmah(tun), wa ulā'ika humul-muhtadūn(a).
[157]
यही लोग हैं जिनपर उनके रब की ओर से कई कृपाएँ तथा बड़ी दया है, और यही लोग मार्गदर्शन पाने वाले हैं।
۞ اِنَّ الصَّفَا وَالْمَرْوَةَ مِنْ شَعَاۤىِٕرِ اللّٰهِ ۚ فَمَنْ حَجَّ الْبَيْتَ اَوِ اعْتَمَرَ فَلَا جُنَاحَ عَلَيْهِ اَنْ يَّطَّوَّفَ بِهِمَا ۗ وَمَنْ تَطَوَّعَ خَيْرًاۙ فَاِنَّ اللّٰهَ شَاكِرٌ عَلِيْمٌ١٥٨
Innaṣ-ṣafā wal-marwata min sya‘ā'irillāh(i), faman ḥajjal-baita awi‘tamara falā junāḥa ‘alaihi ay yaṭṭawwafa bihimā, wa man taṭawwa‘a khairan fa innallāha syākirun ‘alīm(un).
[158]
निःसंदेह सफ़ा और मरवा79 अल्लाह की निशानियों में से हैं। अतः जो कोई इस घर का हज्ज करे या उम्रा करे, तो उसपर कोई दोष नहीं कि इन दोनों का तवाफ़ करे। और जो कोई स्वेच्छा से भलाई का कार्य करे, तो निःसंदेह अल्लाह (उसकी) क़द्र करने वाला, सब कुछ जानने वाला है।
79. यह दो पर्वत हैं जो काबा की पूर्वी दिशा में स्थित हैं। जिनके बीच सात फेरे लगाना ह़ज्ज तथा उमरे का अनिवार्य कर्म है। जिसका आरंभ सफ़ा पर्वत से किया जाता है।
اِنَّ الَّذِيْنَ يَكْتُمُوْنَ مَآ اَنْزَلْنَا مِنَ الْبَيِّنٰتِ وَالْهُدٰى مِنْۢ بَعْدِ مَا بَيَّنّٰهُ لِلنَّاسِ فِى الْكِتٰبِۙ اُولٰۤىِٕكَ يَلْعَنُهُمُ اللّٰهُ وَيَلْعَنُهُمُ اللّٰعِنُوْنَۙ١٥٩
Innal-lażīna yaktumūna mā anzalnā minal-bayyināti wal-hudā mim ba‘di mā bayyannāhu lin-nāsi fil-kitāb(i), ulā'ika yal‘anuhumullāhu wa yal‘anuhumul-lā‘inūn(a).
[159]
निःसंदेह जो लोग उसको छिपाते हैं जो हमने स्पष्ट प्रमाणों और मार्गदर्शन में से उतारा है, इसके बाद कि हमने उसे लोगों के लिए किताब80 में स्पष्ट कर दिया है, उनपर अल्लाह लानत करता है81 और सब लानत करने वाले उनपर लानत करते हैं।
80. अर्थात तौरात, इंजील आदि पुस्तकों में। 81. अल्लाह के लानत करने का अर्थ अपनी दया से दूर करना है।
اِلَّا الَّذِيْنَ تَابُوْا وَاَصْلَحُوْا وَبَيَّنُوْا فَاُولٰۤىِٕكَ اَتُوْبُ عَلَيْهِمْ ۚ وَاَنَا التَّوَّابُ الرَّحِيْمُ١٦٠
Illal-lażīna tābū wa aṣlaḥū wa bayyanū fa'ulā'ika atūbu ‘alaihim, wa anat-tawwābur-raḥīm(u).
[160]
परंतु वे लोग जिन्होंने तौबा कर ली और सुधार कर लिया और खोलकर बयान कर दिया, तो ये लोग हैं जिनकी मैं तौबा स्वीकार करता हूँ और मैं ही बहुत तौबा क़बूल करने वाला, अत्यंत दयावान् हूँ।
اِنَّ الَّذِيْنَ كَفَرُوْا وَمَاتُوْا وَهُمْ كُفَّارٌ اُولٰۤىِٕكَ عَلَيْهِمْ لَعْنَةُ اللّٰهِ وَالْمَلٰۤىِٕكَةِ وَالنَّاسِ اَجْمَعِيْنَۙ١٦١
Innal-lażīna kafarū wa mātū wa hum kuffārun ulā'ika ‘alaihim la‘natullāhi wal-malā'ikati wan-nāsi ajma‘īn(a).
[161]
निःसंदेह वे लोग जिन्होंने कुफ़्र किया और इस हाल में मर गए कि वे काफ़िर थे, ऐसे लोग हैं जिनपर अल्लाह की और फ़रिश्तों तथा लोगों की, सब की लानत है।
خٰلِدِيْنَ فِيْهَا ۚ لَا يُخَفَّفُ عَنْهُمُ الْعَذَابُ وَلَا هُمْ يُنْظَرُوْنَ١٦٢
Khālidīna fīhā, lā yukhaffafu ‘anhumul-‘ażābu wa lā hum yunẓarūn(a).
[162]
वे हमेशा इसी (दशा) में रहने वाले हैं, न उनसे यातना हल्की की जाएगी और न उन्हें मोहलत दी जाएगी।
وَاِلٰهُكُمْ اِلٰهٌ وَّاحِدٌۚ لَآاِلٰهَ اِلَّا هُوَ الرَّحْمٰنُ الرَّحِيْمُ ࣖ١٦٣
Wa ilāhukum ilāhuw wāḥid(un), lā ilāha illā huwar-raḥmānur-raḥīm(u).
[163]
और तुम्हारा पूज्य (मा'बूद) एक ही82 पूज्य (मा'बूद) है, उसके सिवा कोई पूज्य (मा'बूद) नहीं, अत्यंत दयावान्, असीम दयालु है।
82. अर्थात जो अपने अस्तित्व तथा नामों और गुणों तथा कर्मों में अकेला है।
اِنَّ فِيْ خَلْقِ السَّمٰوٰتِ وَالْاَرْضِ وَاخْتِلَافِ الَّيْلِ وَالنَّهَارِ وَالْفُلْكِ الَّتِيْ تَجْرِيْ فِى الْبَحْرِ بِمَا يَنْفَعُ النَّاسَ وَمَآ اَنْزَلَ اللّٰهُ مِنَ السَّمَاۤءِ مِنْ مَّاۤءٍ فَاَحْيَا بِهِ الْاَرْضَ بَعْدَ مَوْتِهَا وَبَثَّ فِيْهَا مِنْ كُلِّ دَاۤبَّةٍ ۖ وَّتَصْرِيْفِ الرِّيٰحِ وَالسَّحَابِ الْمُسَخَّرِ بَيْنَ السَّمَاۤءِ وَالْاَرْضِ لَاٰيٰتٍ لِّقَوْمٍ يَّعْقِلُوْنَ١٦٤
Inna fī khalqis-samāwāti wal-arḍi wakhtilāfil-laili wan-nahāri wal-fulkil-latī tajrī fil-baḥri bimā yanfa‘un-nāsa wa mā anzalallāhu minas-samā'i mim mā'in fa aḥyā bihil-arḍa ba‘da mautihā wa baṡṡa fīhā min kulli dābbah(tin), wa taṣrīfir-riyāḥi was-saḥābil-musakhkhari bainas-samā'i wal-arḍi la'āyātil liqaumiy ya‘qilūn(a).
[164]
निःसंदेह आकाशों और धरती की रचना तथा रात और दिन के बदलने में, तथा उन नावों में जो लोगों को लाभ देने वाली चीज़ें लेकर सागरों में चलती हैं, और उस पानी में जो जो अल्लाह ने आकाश से उतारा, फिर उसके द्वारा धरती को उसकी मृत्यु के पश्चात् जीवित कर दिया और उसमें हर प्रकार के जानवर फैला दिए, तथा हवाओं को फेरने (बदलने) में और उस बादल में, जो आकाश और धरती के बीच वशीभूत83 किया हुआ है, (इन सब चीज़ों में) उन लोगों के लिए बहुत-सी निशानियाँ हैं, जो समझ-बूझ रखते हैं।
83. अर्थात इस विश्व की पूरी व्यवस्था इस बात का तर्क और प्रमाण है कि इसका व्यवस्थापक अल्लाह ही एक मात्र पूज्य तथा अपने गुणों एवं कर्मों में अकेला है। अतः उपासना भी उसी एक की होनी चाहिए। यही समझ-बूझ का निर्णय है।
وَمِنَ النَّاسِ مَنْ يَّتَّخِذُ مِنْ دُوْنِ اللّٰهِ اَنْدَادًا يُّحِبُّوْنَهُمْ كَحُبِّ اللّٰهِ ۗ وَالَّذِيْنَ اٰمَنُوْٓا اَشَدُّ حُبًّا لِّلّٰهِ ۙوَلَوْ يَرَى الَّذِيْنَ ظَلَمُوْٓا اِذْ يَرَوْنَ الْعَذَابَۙ اَنَّ الْقُوَّةَ لِلّٰهِ جَمِيْعًا ۙوَّاَنَّ اللّٰهَ شَدِيْدُ الْعَذَابِ١٦٥
Wa minan-nāsi may yattakhiżu min dūnillāhi andāday yuḥibbūnahum kaḥubbillāh(i), wal-lażīna āmanū asyaddu ḥubbal lillāh(i), wa lau yaral-lażīna ẓalamū iż yaraunal-‘ażāb(a), annal-quwwata lillāhi jamī‘ā(n), wa annallāha syadīdul-‘ażāb(i).
[165]
कुछ लोग ऐसे भी हैं, जो अल्लाह के सिवा कुछ साझी बना लेते हैं, जिनसे वे अल्लाह के प्रेम जैसा प्रेम करते हैं। तथा वे लोग जो ईमान लाए, अल्लाह से प्रेम में सबसे बढ़कर होते हैं। और काश! वे लोग जिन्होंने अत्याचार किया उस समय को देख लें84 जब वे यातना को देखेंगे,85 (तो जान लें) कि निःसंदेह शक्ति सब की सब अल्लाह ही के लिए है और यह कि निःसंदेह अल्लाह बहुत सख़्त अज़ाब वाला है।
84. अर्थात संसार ही में। 85. अर्थात प्रलय के दिन।
اِذْ تَبَرَّاَ الَّذِيْنَ اتُّبِعُوْا مِنَ الَّذِيْنَ اتَّبَعُوْا وَرَاَوُا الْعَذَابَ وَتَقَطَّعَتْ بِهِمُ الْاَسْبَابُ١٦٦
Iż tabarra'al-lażīnattubi‘ū minal-lażīnattaba‘ū wa ra'awul-‘ażāba wa taqaṭṭa‘at bihimul-asbāb(u).
[166]
जब86 वे लोग जिनका अनुसरण किया गया87 था, उन लोगों से बिल्कुल अलग हो जाएँगे जिन्होंने (उनकी) पैरवी की और वे यातना को देख लेंगे और उनके आपस के संबंध पूर्णतया समाप्त हो जाएँगे।
86. अर्थात प्रलय के दिन। 87. अर्थात संसार में जिन प्रमुखों का अनुसरण किया गया।
وَقَالَ الَّذِيْنَ اتَّبَعُوْا لَوْ اَنَّ لَنَا كَرَّةً فَنَتَبَرَّاَ مِنْهُمْ ۗ كَمَا تَبَرَّءُوْا مِنَّا ۗ كَذٰلِكَ يُرِيْهِمُ اللّٰهُ اَعْمَالَهُمْ حَسَرٰتٍ عَلَيْهِمْ ۗ وَمَا هُمْ بِخٰرِجِيْنَ مِنَ النَّارِ ࣖ١٦٧
Wa qālal-lażīnattaba‘ū lau anna lanā karratan fa natabarra'a minhum, kamā tabarra'ū minnā, każālika yurīhimullāhu a‘mālahum ḥasarātin ‘alaihim, wa mā hum bikhārijīna minan-nār(i).
[167]
तथा जिन लोगों ने अनुसरण किया था, कहेंगे : काश! हमारे लिए एक बार पुनः (संसार में) जाना होता, तो हम इनसे वैसे ही बिल्कुल अलग हो जाते, जैसे ये हमसे बिल्कुल अलग हो गए। ऐसे ही अल्लाह उनके कर्मों को उनके लिए अफ़सोस बनाकर दिखाएगा और वे किसी भी तरह आग से निकलने वाले नहीं हैं।
يٰٓاَيُّهَا النَّاسُ كُلُوْا مِمَّا فِى الْاَرْضِ حَلٰلًا طَيِّبًا ۖوَّلَا تَتَّبِعُوْا خُطُوٰتِ الشَّيْطٰنِۗ اِنَّهٗ لَكُمْ عَدُوٌّ مُّبِيْنٌ١٦٨
Yā ayyuhan-nāsu kulū mimmā fil-arḍi ḥalālan ṭayyibā(n), wa lā tattabi‘ū khuṭuwātisy-syaiṭān(i), innahū lakum ‘aduwwum mubīn(un).
[168]
ऐ लोगो! उन चीज़ों में से खाओ जो धरती में ह़लाल, पाकीज़ा हैं और शैतान के पदचिह्नों का अनुसरण न करो।88 निःसंदेह वह तुम्हारा खुला शत्रु है।
88. अर्थात उसकी बताई बातों को न मानो।
اِنَّمَا يَأْمُرُكُمْ بِالسُّوْۤءِ وَالْفَحْشَاۤءِ وَاَنْ تَقُوْلُوْا عَلَى اللّٰهِ مَا لَا تَعْلَمُوْنَ١٦٩
Innamā ya'murukum bis-sū'i wal-faḥsyā'i wa an taqūlū ‘alallāhi mā lā ta‘lamūn(a).
[169]
वह तो तुम्हें बुराई और निर्लज्जता ही का आदेश देता है और यह कि तुम अल्लाह पर वह बात कहो,89 जो तुम नहीं जानते।
89. अर्थात वैध को अवैध करने आदि का।
وَاِذَا قِيْلَ لَهُمُ اتَّبِعُوْا مَآ اَنْزَلَ اللّٰهُ قَالُوْا بَلْ نَتَّبِعُ مَآ اَلْفَيْنَا عَلَيْهِ اٰبَاۤءَنَا ۗ اَوَلَوْ كَانَ اٰبَاۤؤُهُمْ لَا يَعْقِلُوْنَ شَيْـًٔا وَّلَا يَهْتَدُوْنَ١٧٠
Wa iżā qīla lahumuttabi‘ū mā anzalallāhu qālū bal nattabi‘u mā alfainā ‘alaihi ābā'anā, awalau kāna ābā'uhum lā ya‘qilūna syai'aw wa lā yahtadūn(a).
[170]
और जब उनसे90 कहा जाता है कि उसका अनुसरण करो जो अल्लाह ने (क़ुरआन) उतारा है, तो कहते हैं : बल्कि हम तो उसका अनुसरण करेंगे जिसपर हमने अपने बाप-दादा को पाया है। क्या अगरचे उनके बाप-दादा न कुछ समझते हों और न मार्गदर्शन पाते हों?
90. अर्थात अह्ले किताब तथा मिश्रणवादियों से।
وَمَثَلُ الَّذِيْنَ كَفَرُوْا كَمَثَلِ الَّذِيْ يَنْعِقُ بِمَا لَا يَسْمَعُ اِلَّا دُعَاۤءً وَّنِدَاۤءً ۗ صُمٌّ ۢ بُكْمٌ عُمْيٌ فَهُمْ لَا يَعْقِلُوْنَ١٧١
Wa maṡalul-lażīna kafarū kamaṡalil-lażī yan‘iqu bimā lā yasma‘u illā du‘ā'aw wa nidā'ā(n), ṣummum bukmun ‘umyun fahum lā ya‘qilūn(a).
[171]
उन लोगों का उदाहरण जिन्होंने कुफ़्र किया, उस व्यक्ति के उदाहरण जैसा है, जो उन जानवरों को पुकारता है, जो पुकार और आवाज़ के सिवा कुछ91 नहीं सुनते। वे बहरे हैं, गूँगे हैं, अंधे हैं, इसलिए वे नहीं समझते।
91. अर्थात ध्वनि सुनता है परंतु बात का अर्ध नहीं समझता।
يٰٓاَيُّهَا الَّذِيْنَ اٰمَنُوْا كُلُوْا مِنْ طَيِّبٰتِ مَا رَزَقْنٰكُمْ وَاشْكُرُوْا لِلّٰهِ اِنْ كُنْتُمْ اِيَّاهُ تَعْبُدُوْنَ١٧٢
Yā ayyuhal-lażīna āmanū kulū min ṭayyibāti mā razaqnākum wasykurū lillāhi in kuntum iyyāhu ta‘budūn(a).
[172]
ऐ ईमान वालो! उन पवित्र चीज़ों में से खाओ, जो हमने तुम्हें प्रदान की हैं तथा अल्लाह का शुक्र अदा करो, यदि तुम केवल उसी की इबादत करते हो।
اِنَّمَا حَرَّمَ عَلَيْكُمُ الْمَيْتَةَ وَالدَّمَ وَلَحْمَ الْخِنْزِيْرِ وَمَآ اُهِلَّ بِهٖ لِغَيْرِ اللّٰهِ ۚ فَمَنِ اضْطُرَّ غَيْرَ بَاغٍ وَّلَا عَادٍ فَلَآ اِثْمَ عَلَيْهِ ۗ اِنَّ اللّٰهَ غَفُوْرٌ رَّحِيْمٌ١٧٣
Innamā ḥarrama ‘alaikumul-maitata wad-dama wa laḥmal-khinzīri wa mā uhilla bihī ligairillāh(i), fa maniḍṭurra gaira bāgiw wa lā ‘ādin falā iṡma ‘alaih(i), innallāha gafūrur raḥīm(un).
[173]
उस (अल्लाह) ने तो तुमपर केवल मुर्दार92 और ख़ून और सूअर का माँस और हर वह चीज़ हराम की है, जिसपर ग़ैरुल्लाह (अल्लाह के अलावा) का नाम पुकारा जाए। फिर जो (इनमें से कोई चीज़ खाने पर) विवश हो जाए, इस हाल में कि वह न अवज्ञा करने वाला हो और न सीमा से आगे बढ़ने वाला, तो उसपर कोई दोष नहीं। निःसंदेह अल्लाह अति क्षमाशील, अत्यंत दयावान् है।93
92. जिसे धर्म विधान के अनुसार वध न किया गया हो, अधिक विवरण सूरतुल माइदह में आ रहा है। 93.अर्थात ऐसा विवश व्यक्ति जो ह़लाल जीविका न पा सके उसके लिए निषेध नहीं कि वह अपनी आवश्यकतानुसार ह़राम चीज़ें खा ले। परंतु उसपर अनिवार्य है कि वह उसकी सीमा का उल्लंघन न करे और जहाँ उसे ह़लाल जीविका मिल जाए वहाँ ह़राम खाने से रुक जाए।
اِنَّ الَّذِيْنَ يَكْتُمُوْنَ مَآ اَنْزَلَ اللّٰهُ مِنَ الْكِتٰبِ وَيَشْتَرُوْنَ بِهٖ ثَمَنًا قَلِيْلًاۙ اُولٰۤىِٕكَ مَا يَأْكُلُوْنَ فِيْ بُطُوْنِهِمْ اِلَّا النَّارَ وَلَا يُكَلِّمُهُمُ اللّٰهُ يَوْمَ الْقِيٰمَةِ وَلَا يُزَكِّيْهِمْ ۚوَلَهُمْ عَذَابٌ اَلِيْمٌ١٧٤
Innal-lażīna yaktumūna mā anzalallāhu minal-kitābi wa yasytarūna bihī ṡamanan qalīlā(n), ulā'ika mā ya'kulūna fī buṭūnihim illan-nāra wa lā yukallimuhumullāhu yaumal-qiyāmati wa lā yuzakkīhim, wa lahum ‘ażābun alīm(un).
[174]
निःसंदेह जो लोग छिपाते हैं जो अल्लाह ने किताब में से उतारा है और उसके बदले थोड़ा मूल्य प्राप्त करते हैं, वे लोग अपने पेटों में आग के सिवा कुछ नहीं खा रहे। तथा न अल्लाह क़ियामत के दिन उनसे बात करेगा और न उन्हें पाक करेगा और उनके लिए दुःखदायी यातना है।
اُولٰۤىِٕكَ الَّذِيْنَ اشْتَرَوُا الضَّلٰلَةَ بِالْهُدٰى وَالْعَذَابَ بِالْمَغْفِرَةِ ۚ فَمَآ اَصْبَرَهُمْ عَلَى النَّارِ١٧٥
Ulā'ikal-lażīnasytarawuḍ-ḍalālata bil-hudā wal-‘ażāba bil-magfirah(ti), famā aṣbarahum ‘alan-nār(i).
[175]
यही लोग हैं, जिन्होंने हिदायत के बदले गुमराही तथा क्षमा के बदले यातना ख़रीद ली। तो वे आग पर कितना अधिक सब्र करने वाले हैं?
ذٰلِكَ بِاَنَّ اللّٰهَ نَزَّلَ الْكِتٰبَ بِالْحَقِّ ۗ وَاِنَّ الَّذِيْنَ اخْتَلَفُوْا فِى الْكِتٰبِ لَفِيْ شِقَاقٍۢ بَعِيْدٍ ࣖ١٧٦
Żālika bi'annallāha nazzalal-kitāba bil-ḥaqq(i), wa innal-lażīnakhtalafū fil-kitābi lafī syiqāqim ba‘īd(in).
[176]
यह (यातना) इस कारण है कि निःसंदेह अल्लाह ने यह पुस्तक सत्य के साथ उतारी है, और निःसंदेह जिन लोगों ने पुस्तक में मतभेद किया है, निश्चय वे बहुत दूर के विरोध में (पड़े) हैं।
۞ لَيْسَ الْبِرَّاَنْ تُوَلُّوْا وُجُوْهَكُمْ قِبَلَ الْمَشْرِقِ وَالْمَغْرِبِ وَلٰكِنَّ الْبِرَّ مَنْ اٰمَنَ بِاللّٰهِ وَالْيَوْمِ الْاٰخِرِ وَالْمَلٰۤىِٕكَةِ وَالْكِتٰبِ وَالنَّبِيّٖنَ ۚ وَاٰتَى الْمَالَ عَلٰى حُبِّهٖ ذَوِى الْقُرْبٰى وَالْيَتٰمٰى وَالْمَسٰكِيْنَ وَابْنَ السَّبِيْلِۙ وَالسَّاۤىِٕلِيْنَ وَفِى الرِّقَابِۚ وَاَقَامَ الصَّلٰوةَ وَاٰتَى الزَّكٰوةَ ۚ وَالْمُوْفُوْنَ بِعَهْدِهِمْ اِذَا عَاهَدُوْا ۚ وَالصّٰبِرِيْنَ فِى الْبَأْسَاۤءِ وَالضَّرَّاۤءِ وَحِيْنَ الْبَأْسِۗ اُولٰۤىِٕكَ الَّذِيْنَ صَدَقُوْا ۗوَاُولٰۤىِٕكَ هُمُ الْمُتَّقُوْنَ١٧٧
Laisal-birra an tuwallū wujūhakum qibalal-masyriqi wal-magribi wa lākinnal-birra man āmana billāhi wal-yaumil ākhiri wal-malā'ikati wal-kitābi wan-nabiyyīn(a), wa ātal-māla ‘alā ḥubbihī żawil-qurbā wal-yatāmā wal-masākīna wabnas-sabīl(i), was-sā'ilīna wa fir-riqāb(i), wa aqāmaṣ-ṣalāta wa ātaz-zakāh(ta), wal mūfūna bi‘ahdihim iżā ‘āhadū, waṣ-ṣābirīna fil-ba'sā'i waḍ-ḍarrā'i wa ḥīnal-ba's(i), ulā'ikal-lażīna ṣadaqū, wa ulā'ika humul-muttaqūn(a).
[177]
नेकी केवल यही नहीं कि तुम अपने मुँह पूर्व और पश्चिम की ओर फेर लो! बल्कि असल नेकी तो उसकी है, जो अल्लाह और अंतिम दिन (आख़िरत) और फ़रिश्तों और पुस्तकों और नबियों पर ईमान लाए, और धन दे उसके मोह के बावजूद रिशतेदारों और अनाथों और निर्धनों और यात्री तथा माँगने वालों को और गर्दनें छुड़ाने में, और नमाज़ क़ायम करे और ज़कात दे, और जो अपनी प्रतिज्ञा पूरी करने वाले हैं जब प्रतिज्ञा करें, और जो तंगी और कष्ट में और लड़ाई के समय धैर्य रखने वाले हैं। यही लोग हैं जो सच्चे सिद्ध हुए तथा यही (अल्लाह से) डरने वाले हैं।94
94. इस आयत का भावार्थ यह है कि नमाज़ में क़िब्ले की ओर मुख करना अनिवार्य है, फिर भी सत्धर्म इतना ही नहीं कि धर्म की किसी एक बात को अपना लिया जाए। सत्धर्म तो सत्य आस्था, सत्कर्म और पूरे जीवन को अल्लाह की आज्ञा के अधीन कर देने का नाम है।
يٰٓاَيُّهَا الَّذِيْنَ اٰمَنُوْا كُتِبَ عَلَيْكُمُ الْقِصَاصُ فِى الْقَتْلٰىۗ اَلْحُرُّ بِالْحُرِّ وَالْعَبْدُ بِالْعَبْدِ وَالْاُنْثٰى بِالْاُنْثٰىۗ فَمَنْ عُفِيَ لَهٗ مِنْ اَخِيْهِ شَيْءٌ فَاتِّبَاعٌ ۢبِالْمَعْرُوْفِ وَاَدَاۤءٌ اِلَيْهِ بِاِحْسَانٍ ۗ ذٰلِكَ تَخْفِيْفٌ مِّنْ رَّبِّكُمْ وَرَحْمَةٌ ۗفَمَنِ اعْتَدٰى بَعْدَ ذٰلِكَ فَلَهٗ عَذَابٌ اَلِيْمٌ١٧٨
Yā ayyuhal-lażīna āmanū kutiba ‘alaikumul-qiṣāṣu fil-qatlā, al-ḥurru bil-ḥurri wal-‘abdu bil-‘abdi wal-unṡā bil-unṡā, faman ‘ufiya lahū min akhīhi syai'un fattibā‘um bil-ma‘rūfi wa adā'un ilaihi bi iḥsān(in), żālika takhfīfum mir rabbikum wa raḥmah(tun), fa mani‘tadā ba‘da żālika fa lahū ‘ażābun alīm(un).
[178]
ऐ ईमान वालो! तुमपर क़त्ल किए गए व्यक्तियों के बारे में क़िसास (बदला लेना) फ़र्ज़ (अनिवार्य)95 कर दिया गया है। आज़ाद के बदले आज़ाद, ग़ुलाम के बदले ग़ुलाम और औरत के बदले औरत (को क़त्ल किया जाएगा)। फिर जिसे उसके भाई की ओर से कुछ भी क्षमा96 कर दिया जाए, तो ऐसे में सामान्य रीति के अनुसार (क़ातिल का) अनुसरण करना चाहिए और भले तरीक़े से उसके पास पहुँचा देना चाहिए। यह तुम्हारे पालनहार की ओर से एक प्रकार की सुविधा तथा एक दया है। फिर जो इसके बाद अत्याचार97 करे, तो उसके लिए दर्दनाक यातना है।
95. अर्थात यह नहीं हो सकता कि निहत की प्रधानता अथवा उच्च वंश का होने के कारण कई व्यक्ति मार दिए जाएँ, जैसा कि इस्लाम से पूर्व जाहिलिय्यत की रीति थी कि एक के बदले कई को ही नहीं, यदि निर्बल क़बीला हो तो, पूरे क़बीले ही को मार दिया जाता था। इस्लाम ने यह नियम बना दिया कि स्वतंत्र तथा दास और नर-नारी सब मानवता में बराबर हैं। अतः बदले में केवल उसी को मारा जाए जो अपराधी है। वह स्वतंत्र हो या दास, नर हो या नारी। (संक्षिप्त, इब्ने कसीर) 96. क्षमा दो प्रकार से हो सकता है : एक तो यह कि निहत के लोग अपराधी को क्षमा कर दें। दूसरा यह कि क़िसास को क्षमा करके दियत (खून की क़ीमत) लेना स्वीकार कर लें। इसी स्थिति में कहा गया है कि नियमानुसार दियत चुका दे। 97. अर्थात क्षमा कर देने या दियत लेने के पश्चात् भी अपराधी को मार डाले, तो उसे क़िसास में हत किया जायेगा।
وَلَكُمْ فِى الْقِصَاصِ حَيٰوةٌ يّٰٓاُولِى الْاَلْبَابِ لَعَلَّكُمْ تَتَّقُوْنَ١٧٩
Wa lakum fil-qiṣāṣi ḥayātuy yā ulil-albābi la‘allakum tattaqūn(a).
[179]
और ऐ बुद्धि वालो! तुम्हारे लिए क़िसास (बदला) लेने में जीवन है, ताकि तुम तक़वा अपनाओ।98
98. क्योंकि इस नियम के कारण कोई किसी को हत करने का साहस नहीं करेगा। इस लिए इसके कारण समाज शांतिमय हो जाएगा। अर्थात एक क़िसास से लोगों के जीवन की रक्षा होगी। जैसा कि उन देशों में जहाँ क़िसास का नियम है देखा जा सकता है। क़ुरआन इसी ओर संकेत करते हुए कहता है कि क़िसास के नियम के अंदर वास्तव में जीवन है।
كُتِبَ عَلَيْكُمْ اِذَا حَضَرَ اَحَدَكُمُ الْمَوْتُ اِنْ تَرَكَ خَيْرًا ۖ ۨالْوَصِيَّةُ لِلْوَالِدَيْنِ وَالْاَقْرَبِيْنَ بِالْمَعْرُوْفِۚ حَقًّا عَلَى الْمُتَّقِيْنَ ۗ١٨٠
Kutiba ‘alaikum iżā ḥaḍara aḥadakumul-mautu in taraka kahirā(n), al-waṣiyyatu lil-wālidaini wal-aqrabīna bil-ma‘rūf(i), ḥaqqan ‘alal-muttaqīn(a).
[180]
और जब तुममें से किसी की मृत्यु का समय आ पहुँचे और वह धन छोड़ रहा हो, तो उसपर माता-पिता और रिश्तेदारों के लिए अच्छे तरीक़े से वसिय्यत करना ज़रूरी कर दिया गया है। यह अल्लाह से डरने वालों पर सुनिश्चित (आवश्यक)99 है।
99. यह वसिय्यत मीरास की आयत उतरने से पहले अनिवार्य थी, जिसे मीरास की आयत से निरस्त कर दिया गया। आप सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम का कथन है कि अल्लाह ने प्रत्येक अधिकारी को उसका अधिकार दे दिया है, अतः अब वारिस के लिए कोई वसिय्यत नहीं है। फिर जो वारिस न हो, तो उसे भी तिहाई धन से अधिक की वसिय्यत जायज़ नहीं है। (सह़ीह़ बुख़ारी :4577, सुनन अबू दावूद : 2870, इब्ने माजा : 2210)
فَمَنْۢ بَدَّلَهٗ بَعْدَمَا سَمِعَهٗ فَاِنَّمَآ اِثْمُهٗ عَلَى الَّذِيْنَ يُبَدِّلُوْنَهٗ ۗ اِنَّ اللّٰهَ سَمِيْعٌ عَلِيْمٌ ۗ١٨١
Famam baddalahū ba‘da mā sami‘ahū fa innamā iṡmuhū ‘alal-lażīna yubaddilūnah(ū), innallāha samī‘un ‘alīm(un).
[181]
फिर जो व्यक्ति उसे उसके सुनने के बाद बदल दे, तो उसका पाप उन्हीं लोगों पर है, जो उसे बदल दें। निश्चय अल्लाह सब कुछ सुनने वाला, सब कुछ जानने वाला है।
فَمَنْ خَافَ مِنْ مُّوْصٍ جَنَفًا اَوْ اِثْمًا فَاَصْلَحَ بَيْنَهُمْ فَلَآ اِثْمَ عَلَيْهِ ۗ اِنَّ اللّٰهَ غَفُوْرٌ رَّحِيْمٌ ࣖ١٨٢
Faman khāfa mim mūṣin janafan au iṡman fa aṣlaḥa bainahum falā iṡma ‘alaih(i), innallāha gafūrur raḥīm(un).
[182]
परंतु जिस व्यक्ति को किसी वसीयत करने वाले से किसी प्रकार के पक्षपात या पाप का डर हो, फिर वह उनके बीच सुधार कर दे, तो उसपर कोई पाप नहीं। निश्चय अल्लाह अति क्षमाशील, अत्यंत दयावान् है।
يٰٓاَيُّهَا الَّذِيْنَ اٰمَنُوْا كُتِبَ عَلَيْكُمُ الصِّيَامُ كَمَا كُتِبَ عَلَى الَّذِيْنَ مِنْ قَبْلِكُمْ لَعَلَّكُمْ تَتَّقُوْنَۙ١٨٣
Yā ayyuhal-lażīna āmanū kutiba ‘alaikumuṣ-ṣiyāmu kamā kutiba ‘alal-lażīna min qablikum la‘allakum tattaqūn(a).
[183]
ऐ ईमान वालो! तुमपर रोज़ा100 रखना फ़र्ज़ (अनिवार्य) कर दिया गया है, जैसे उन लोगों पर फ़र्ज़ (अनिवार्य) किया गया जो तुमसे पहले थे, ताकि तुम परहेज़गार बन जाओ।
100. रोज़ा को अरबी भाषा में "सौम" कहा जाता है, जिसका अर्थ रुकना तथा त्याग देना है। इस्लाम में रोज़ा सन् 2 हिजरी में अनिवार्य किया गया। जिसका अर्थ है प्रत्यूष (भोर) से सूर्यास्त तक रोज़े की नीयत से खाने पीन तथा संभोग आदि चीजों से रुक जाना।
اَيَّامًا مَّعْدُوْدٰتٍۗ فَمَنْ كَانَ مِنْكُمْ مَّرِيْضًا اَوْ عَلٰى سَفَرٍ فَعِدَّةٌ مِّنْ اَيَّامٍ اُخَرَ ۗوَعَلَى الَّذِيْنَ يُطِيْقُوْنَهٗ فِدْيَةٌ طَعَامُ مِسْكِيْنٍۗ فَمَنْ تَطَوَّعَ خَيْرًا فَهُوَ خَيْرٌ لَّهٗ ۗوَاَنْ تَصُوْمُوْا خَيْرٌ لَّكُمْ اِنْ كُنْتُمْ تَعْلَمُوْنَ١٨٤
Ayyāmam ma‘dūdāt(in), faman kāna minkum marīḍan au ‘alā safarin fa ‘iddatum min ayyāmin ukhar(a), wa ‘alal-lażīna yuṭīqūnahū fidyatun ṭa‘āmu miskīn(in), faman taṭawwa‘a khairan fahuwa khairul lah(ū), wa an taṣūmū khairul lakum in kuntum ta‘lamūn(a).
[184]
गिने हुए चंद दिनों में। फिर तुममें से जो बीमार हो, अथवा किसी यात्रा पर हो, तो दूसरे दिनों से गिनती पूरी करना है। और जो लोग इसकी शक्ति रखते हों (परंतु रोज़ा न रखें), उनपर फ़िदया एक निर्धन का खाना है।101 फिर जो व्यक्ति स्वेच्छा से नेकी करे, तो वह उसके लिए बेहतर है। और तुम्हारा रोज़ा रखना तुम्हारे लिए बेहतर है, यदि तुम जानते हो।
101. यदि कोई अधिक बुढ़ापे अथवा ऐसे रोग के कारण जिससे आरोग्य होने की आशा न हो, रोज़ा रखने में अक्षम हो, तो प्रत्येक रोज़े के बदले एक निर्धन को खाना खिला दिया करे।
شَهْرُ رَمَضَانَ الَّذِيْٓ اُنْزِلَ فِيْهِ الْقُرْاٰنُ هُدًى لِّلنَّاسِ وَبَيِّنٰتٍ مِّنَ الْهُدٰى وَالْفُرْقَانِۚ فَمَنْ شَهِدَ مِنْكُمُ الشَّهْرَ فَلْيَصُمْهُ ۗوَمَنْ كَانَ مَرِيْضًا اَوْ عَلٰى سَفَرٍ فَعِدَّةٌ مِّنْ اَيَّامٍ اُخَرَ ۗيُرِيْدُ اللّٰهُ بِكُمُ الْيُسْرَ وَلَا يُرِيْدُ بِكُمُ الْعُسْرَ ۖوَلِتُكْمِلُوا الْعِدَّةَ وَلِتُكَبِّرُوا اللّٰهَ عَلٰى مَا هَدٰىكُمْ وَلَعَلَّكُمْ تَشْكُرُوْنَ١٨٥
Syahru ramaḍānal-lażī unzila fīhil-qur'ānu hudal lin-nāsi wa bayyinātim minal-hudā wal-furqān(i), faman syahida minkumusy-syahra falyaṣumh(u) wa man kāna marīḍan au ‘alā safarin fa ‘iddatum min ayyāmin ukhar(a), yurīdullāhu bikumul-yusra wa lā yurīdu bikumul-‘usr(a), wa litukmilul-‘iddata wa litukabbirullāha ‘alā mā hadākum wa la‘allakum tasykurūn(a).
[185]
रमज़ान का महीना वह है, जिसमें क़ुरआन उतारा गया, जो लोगों के लिए मार्गदर्शन है तथा मार्गदर्शन और (सत्य एवं असत्य के बीच) अंतर करने के स्पष्ट प्रमाण हैं। अतः तुममें से जो व्यक्ति इस महीने में उपस्थित102 हो, तो वह इसका रोज़ा रखे। तथा जो बीमार103 हो अथवा किसी यात्रा104 पर हो, तो दूसरे दिनों से गिनती पूरी करना है। अल्लाह तुम्हारे साथ आसानी चाहता है, तुम्हारे साथ तंगी नहीं चाहता। और ताकि तुम गिनती पूरी करो और ताकि तुम इस बात पर अल्लाह की महिमा का वर्णन करो कि उसने तुम्हें मार्गदर्शन प्रदान किया और ताकि तुम उसका शुक्र अदा करो।105
102. अर्थात अपने नगर में उपस्थित हो। 103. अर्थात रोग के कारण रोज़े न रख सकता हो। 104. अर्थात इतनी दूर की यात्रा पर हो जिसमें रोज़ा न रखने की अनुमति हो। 105. इस आयत में रोज़े की दशा तथा गिनती पूरी करने पर प्रार्थना करने की प्रेरणा दी गयी है।
وَاِذَا سَاَلَكَ عِبَادِيْ عَنِّيْ فَاِنِّيْ قَرِيْبٌ ۗ اُجِيْبُ دَعْوَةَ الدَّاعِ اِذَا دَعَانِۙ فَلْيَسْتَجِيْبُوْا لِيْ وَلْيُؤْمِنُوْا بِيْ لَعَلَّهُمْ يَرْشُدُوْنَ١٨٦
Wa iżā sa'alaka ‘ibādī ‘annī fa innī qarīb(un), ujību da‘watad-dā‘i iżā da‘ān(i), falyastajībū lī walyu'minū bī la‘allahum yarsyudūn(a).
[186]
और (ऐ नबी!) जब मेरे बंदे आपसे मेरे बारे में पूछें, तो निश्चय मैं (उनसे) क़रीब हूँ। मैं पुकारने वाले की दुआ क़बूल करता हूँ जब वह मुझे पुकारता है। तो उन्हें चाहिए कि वे मेरी बात मानें तथा मुझपर ईमान लाएँ, ताकि वे मार्गदर्शन पाएँ।
اُحِلَّ لَكُمْ لَيْلَةَ الصِّيَامِ الرَّفَثُ اِلٰى نِسَاۤىِٕكُمْ ۗ هُنَّ لِبَاسٌ لَّكُمْ وَاَنْتُمْ لِبَاسٌ لَّهُنَّ ۗ عَلِمَ اللّٰهُ اَنَّكُمْ كُنْتُمْ تَخْتَانُوْنَ اَنْفُسَكُمْ فَتَابَ عَلَيْكُمْ وَعَفَا عَنْكُمْ ۚ فَالْـٰٔنَ بَاشِرُوْهُنَّ وَابْتَغُوْا مَا كَتَبَ اللّٰهُ لَكُمْ ۗ وَكُلُوْا وَاشْرَبُوْا حَتّٰى يَتَبَيَّنَ لَكُمُ الْخَيْطُ الْاَبْيَضُ مِنَ الْخَيْطِ الْاَسْوَدِ مِنَ الْفَجْرِۖ ثُمَّ اَتِمُّوا الصِّيَامَ اِلَى الَّيْلِۚ وَلَا تُبَاشِرُوْهُنَّ وَاَنْتُمْ عٰكِفُوْنَۙ فِى الْمَسٰجِدِ ۗ تِلْكَ حُدُوْدُ اللّٰهِ فَلَا تَقْرَبُوْهَاۗ كَذٰلِكَ يُبَيِّنُ اللّٰهُ اٰيٰتِهٖ لِلنَّاسِ لَعَلَّهُمْ يَتَّقُوْنَ١٨٧
Uḥilla lakum lailataṣ-ṣiyāmir-rafaṡu ilā nisā'ikum, hunna libāsul lakum wa antum libāsul lahunn(a), ‘alimallāhu annakum kuntum takhtānūna anfusakum fatāba ‘alaikum wa ‘afā ‘ankum, fal-āna bāsyirūhunna wabtagū mā kataballāhu lakum, wa kulū wasyrabū ḥattā yatabayyana lakumul-khaiṭul-abyaḍu minal-khaiṭil-aswadi minal-fajr(i), ṡumma atimmuṣ-ṣiyāma ilal-lail(i), wa lā tubāsyirūhunna wa antum ‘ākifūna fil-masājid(i) tilka ḥudūdullāhi falā taqrabūhā, każālika yubayyinullāhu āyātihī lin-nāsi la‘allahum yattaqūn(a).
[187]
तुम्हारे लिए रोज़े की रात में अपनी स्त्रियों से सहवास करना ह़लाल कर दिया गया है। वे तुम्हारे लिए वस्त्र106 हैं तथा तुम उनके लिए वस्त्र हो। अल्लाह ने जान लिया कि तुम अपने आपसे ख़यानत107 करते थे। तो उसने तुमपर दया करते हुए तुम्हारी तौबा स्वीकार कर ली तथा तुम्हें क्षमा कर दिया। तो अब तुम उनसे (रात में) सहवास करो और जो अल्लाह ने तुम्हारे लिए लिखा है उसे तलब करो, तथा खाओ और पियो, यहाँ तक कि तुम्हारे लिए भोर की सफेद धारी रात की काली धारी से स्पष्ट हो जाए,108 फिर रोज़े को रात (सूर्य डूबने) तक पूरा करो। और उनसे सहवास न करो, जबकि तुम मस्जिदों में ऐतिकाफ़ में हो। ये अल्लाह की सीमाएँ हैं, अतः इनके क़रीब न जाओ। इसी प्रकार अल्लाह लोगों के लिए अपनी आयतों को स्पष्ट करता है, ताकि वे बच जाएँ।
106. इससे पति-पत्नि के जीवन साथी, तथा एक की दूसरे के लिए आवश्यकता को दर्शाया गया है। 107. अर्थात पत्नि से सहवास करते थे। 108. इस्लाम के आरंभिक युग में रात्रि में सो जाने के पश्चात् रमज़ान में खाने पीने तथा स्त्री से सहवास की अनुमति नहीं थी। इस आयत में इन सब की अनुमति दी गई है।
وَلَا تَأْكُلُوْٓا اَمْوَالَكُمْ بَيْنَكُمْ بِالْبَاطِلِ وَتُدْلُوْا بِهَآ اِلَى الْحُكَّامِ لِتَأْكُلُوْا فَرِيْقًا مِّنْ اَمْوَالِ النَّاسِ بِالْاِثْمِ وَاَنْتُمْ تَعْلَمُوْنَ ࣖ١٨٨
Wa lā ta'kulū amwālakum bainakum bil-bāṭili wa tudlū bihā ilal-ḥukkāmi lita'kulū farīqam min amwālin-nāsi bil-iṡmi wa antum ta‘lamūn(a).
[188]
तथा आपस में एक-दूसरे का धन अवैध रूप से न खाओ और न उन्हें अधिकारियों के पास ले जाओ, ताकि लोगों के धन का कुछ भाग गुनाह109 के साथ खा जाओ, हालाँकि तुम जानते हो।
109. इस आयत में यह संकेत है कि यदि कोई व्यक्ति दूसरों के स्वत्व और धन से तथा अवैध धन उपार्जन से स्वयं को रोक न सकता हो, तो इबादत का कोई लाभ नहीं।
۞ يَسْـَٔلُوْنَكَ عَنِ الْاَهِلَّةِ ۗ قُلْ هِيَ مَوَاقِيْتُ لِلنَّاسِ وَالْحَجِّ ۗ وَلَيْسَ الْبِرُّ بِاَنْ تَأْتُوا الْبُيُوْتَ مِنْ ظُهُوْرِهَا وَلٰكِنَّ الْبِرَّ مَنِ اتَّقٰىۚ وَأْتُوا الْبُيُوْتَ مِنْ اَبْوَابِهَا ۖ وَاتَّقُوا اللّٰهَ لَعَلَّكُمْ تُفْلِحُوْنَ١٨٩
Yas'alūnaka ‘anil-ahillah(ti), qul hiya mawāqītu lin-nāsi wal-ḥajj(i), wa laisal-birru bi'an ta'tul-buyūta min ẓuhūrihā wa lākinnal-birra manittaqā, wa'tul-buyūta min abwābihā, wattaqullāha la‘allakum tufliḥūn(a).
[189]
(ऐ नबी!) लोग आपसे नये चाँदों के बारे में पूछते हैं। आप कह दें, वे लोगों के लिए और हज्ज के लिए समय जानने के माध्यम हैं। और नेकी हरगिज़ यह नहीं कि घरों में उनके पीछे से आओ। बल्कि नेकी उसकी है जो (अल्लाह की अवज्ञा से) बचे। तथा घरों में उनके द्वारों से आओ और अल्लाह से डरो, ताकि तुम सफल हो जाओ।110
110. इस्लाम से पूर्व अरब में यह प्रथा थी कि जब ह़ज्ज का एह़राम बाँध लेते, तो अपने घरों में द्वार से प्रवेश न करके पीछे से प्रवेश करते थे। इस अंधविश्वास के खंडन के लिए यह आयत उतरी कि भलाई इन रीतियों में नहीं बल्कि अल्लाह से डरने और उसके आदेशों के उल्लंघन से बचने में है।
وَقَاتِلُوْا فِيْ سَبِيْلِ اللّٰهِ الَّذِيْنَ يُقَاتِلُوْنَكُمْ وَلَا تَعْتَدُوْا ۗ اِنَّ اللّٰهَ لَا يُحِبُّ الْمُعْتَدِيْنَ١٩٠
Wa qātilū fī sabīlillāhil-lażīna yuqātilūnakum wa lā ta‘tadū, innallāha lā yuḥibbul-mu‘tadīn(a).
[190]
तथा अल्लाह की राह में, उनसे युद्ध करो, जो तुमसे युद्ध करते हैं, और अत्याचार न करो, निःसंदेह अल्लाह अत्याचार करने वालों से प्रेम नहीं करता।
وَاقْتُلُوْهُمْ حَيْثُ ثَقِفْتُمُوْهُمْ وَاَخْرِجُوْهُمْ مِّنْ حَيْثُ اَخْرَجُوْكُمْ وَالْفِتْنَةُ اَشَدُّ مِنَ الْقَتْلِ ۚ وَلَا تُقٰتِلُوْهُمْ عِنْدَ الْمَسْجِدِ الْحَرَامِ حَتّٰى يُقٰتِلُوْكُمْ فِيْهِۚ فَاِنْ قٰتَلُوْكُمْ فَاقْتُلُوْهُمْۗ كَذٰلِكَ جَزَاۤءُ الْكٰفِرِيْنَ١٩١
Waqtulūhum ḥaiṡu ṡaqiftumūhum wa akhrijūhum min ḥaiṡu akhrajūkum wal-fitnatu asyaddu minal-qatl(i), wa lā tuqātilūhum ‘indal-masjidil-ḥarāmi ḥattā yuqātilūkum fīh(i), fa'in qātalūkum faqtulūhum, każālika jazā'ul-kāfirīn(a).
[191]
और उन्हें क़त्ल करो जहाँ उन्हें पाओ, और उन्हें वहाँ से निकालो जहाँ से उन्होंने तुम्हें निकाला है, और फ़ितना111, क़त्ल करने से अधिक सख़्त है। और उनसे मस्जिदे ह़राम के पास युद्ध न करो, जब तक वे तुमसे वहाँ युद्ध न करें।112 फिर यदि वे तुमसे युद्ध करें, तो उन्हें क़त्ल करो, ऐसे ही काफ़िरों का बदला है।
111. अर्थात अधर्म, मिश्रणवाद और सत्धर्म इस्लाम से रोकना। 112. अर्थात स्वयं युद्ध का आरंभ न करो।
فَاِنِ انْتَهَوْا فَاِنَّ اللّٰهَ غَفُوْرٌ رَّحِيْمٌ١٩٢
Fa'inintahau fa'innallāha gafūrur raḥīm(un).
[192]
फिर यदि वे (युद्ध से) रुक जाएँ, तो निःसंदेह अल्लाह बेहद क्षमा करनेवाला, अत्यंत दयावान् है।
وَقٰتِلُوْهُمْ حَتّٰى لَا تَكُوْنَ فِتْنَةٌ وَّيَكُوْنَ الدِّيْنُ لِلّٰهِ ۗ فَاِنِ انْتَهَوْا فَلَا عُدْوَانَ اِلَّا عَلَى الظّٰلِمِيْنَ١٩٣
Wa qātilūhum ḥattā lā takūna fitnatuw wa yakūnad-dīnu lillāh(i), fa inintahau falā ‘udwāna illā ‘alaẓ-ẓālimīn(a).
[193]
तथा उनसे युद्ध करो, यहाँ तक कि कोई फ़ितना शेष न रहे और धर्म अल्लाह के लिए हो जाए। फिर यदि वे बाज़ आ जाएँ, तो अत्याचारियों के सिवा किसी पर कोई ज़्यादती (जायज़) नहीं।
اَلشَّهْرُ الْحَرَامُ بِالشَّهْرِ الْحَرَامِ وَالْحُرُمٰتُ قِصَاصٌۗ فَمَنِ اعْتَدٰى عَلَيْكُمْ فَاعْتَدُوْا عَلَيْهِ بِمِثْلِ مَا اعْتَدٰى عَلَيْكُمْ ۖ وَاتَّقُوا اللّٰهَ وَاعْلَمُوْٓا اَنَّ اللّٰهَ مَعَ الْمُتَّقِيْنَ١٩٤
Asy-syahrul-ḥarāmu bisy-syahril-ḥarāmi wal-ḥurumātu qiṣāṣ(un), famani‘tadā ‘alaikum fa‘tadū ‘alaihi bimiṡli ma‘tadā ‘alaikum, wattaqullāha wa‘lamū annallāha ma‘al-muttaqīn(a).
[194]
हुरमत वाला113 महीना, हुरमत वाले महीने के बदले है और सब हुरमतों में क़िसास (बराबरी का बदला) है। अतः जो तुमपर ज़्यादती करे, तो तुम उसपर उसी के समान ज़्यादती करो, जैसी उसने तुमपर ज़्यादती की है तथा अल्लाह से डरो और जान लो कि अल्लाह डरने वालों के साथ है।
113. हुरमत वाले महीनों से अभिप्रेत चार अरबी महीने : ज़ुल-क़ादह, ज़ुल-हिज्जह, मुह़र्रम तथा रजब हैं। इबराहीम अलैहिस्सलाम के युग से इन मासों का आदर सम्मान होता आ रहा है। आयत का अर्थ यह है कि कोई हुरमत वाले स्थान अथवा युग में अतिक्रमण करे, तो उसे बराबरी का बदला दिया जाए।
وَاَنْفِقُوْا فِيْ سَبِيْلِ اللّٰهِ وَلَا تُلْقُوْا بِاَيْدِيْكُمْ اِلَى التَّهْلُكَةِ ۛ وَاَحْسِنُوْا ۛ اِنَّ اللّٰهَ يُحِبُّ الْمُحْسِنِيْنَ١٩٥
Wa anfiqū fī sabīlillāhi wa lā tulqū bi'aidīkum ilat-tahlukah(ti), wa aḥsinū, innallāha yuḥibbul-muḥsinīn(a).
[195]
तथा अल्लाह के मार्ग में (धन) ख़र्च करो और अपने आपको विनाश में न डालो तथा नेकी करो, निःसंदेह अल्लाह नेकी करने वालों से प्रेम करता है।
وَاَتِمُّوا الْحَجَّ وَالْعُمْرَةَ لِلّٰهِ ۗ فَاِنْ اُحْصِرْتُمْ فَمَا اسْتَيْسَرَ مِنَ الْهَدْيِۚ وَلَا تَحْلِقُوْا رُءُوْسَكُمْ حَتّٰى يَبْلُغَ الْهَدْيُ مَحِلَّهٗ ۗ فَمَنْ كَانَ مِنْكُمْ مَّرِيْضًا اَوْ بِهٖٓ اَذًى مِّنْ رَّأْسِهٖ فَفِدْيَةٌ مِّنْ صِيَامٍ اَوْ صَدَقَةٍ اَوْ نُسُكٍ ۚ فَاِذَآ اَمِنْتُمْ ۗ فَمَنْ تَمَتَّعَ بِالْعُمْرَةِ اِلَى الْحَجِّ فَمَا اسْتَيْسَرَ مِنَ الْهَدْيِۚ فَمَنْ لَّمْ يَجِدْ فَصِيَامُ ثَلٰثَةِ اَيَّامٍ فِى الْحَجِّ وَسَبْعَةٍ اِذَا رَجَعْتُمْ ۗ تِلْكَ عَشَرَةٌ كَامِلَةٌ ۗذٰلِكَ لِمَنْ لَّمْ يَكُنْ اَهْلُهٗ حَاضِرِى الْمَسْجِدِ الْحَرَامِ ۗ وَاتَّقُوا اللّٰهَ وَاعْلَمُوْٓا اَنَّ اللّٰهَ شَدِيْدُ الْعِقَابِ ࣖ١٩٦
Wa atimmul-ḥajja wal-‘umrata lillāh(i), fa'in uḥṣirtum famastaisara minal-hady(i), wa lā taḥliqū ru'ūsakum ḥattā yablugal-hadyu maḥillah(ū), faman kāna minkum marīḍan au bihī ażam mir ra'sihī fafidyatum min ṣiyāmin au ṣadaqatin au nusuk(in), fa'iżā amintum, faman tamatta‘a bil-‘umrati ilal-ḥajji famastaisara minal-hady(i), famal lam yajid faṣiyāmu ṡalāṡati ayyāmin fil-ḥajji wa sab‘atin iżā raja‘tum, tilka ‘asyaratun kāmilah(tun), żālika limal lam yakun ahluhū ḥāḍiril-masjidil-ḥarām(i), wattaqullāha wa‘lamū annallāha syadīdul-‘iqāb(i).
[196]
तथा ह़ज्ज और उमरा अल्लाह के लिए पूरा करो। फिर यदि तुम रोक दिए जाओ,114 तो क़ुर्बानी में से जो उपलब्ध हो (कर दो)। और अपने सिर न मुँडाओ, जब तक कि क़ुर्बानी अपने ज़बह के स्थान तक न पहुँच जाए।115 फिर तुममें से जो व्यक्ति बीमार हो या उसके सिर में कोई तकलीफ़ हो (और उसके कारण सिर मुँडा ले), तो रोज़े या सदक़ा या क़ुर्बानी में से कोई एक फ़िदया116 है। फिर जब तुम निश्चिंत हो जाओ, तो (ऐसे में) जो व्यक्ति ह़ज्ज (के एहराम बाँधने) तक उमरे से लाभ117 उठाए, तो क़ुर्बानी में से जो उपलब्ध हो, करे। फिर जिसके पास (क़ुर्बानी) उपलब्ध न हो, तो वह तीन रोज़े ह़ज्ज के दौरान रखे और सात दिन के उस समय रखे, जब तुम (घर) वापस जाओ। ये पूरे दस हैं। ये उसके लिए हैं, जिसके घर वाले मस्जिदे-ह़राम के निवासी न हों। और अल्लाह से डरो तथा जान लो कि निःसंदेह अल्लाह बहुत सख़्त अज़ाब वाला है।
114. अर्थात शत्रु अथवा रोग के कारण। 115. अर्थात क़ुर्बानी न करो। 116. जो तीन रोज़े अथवा तीन निर्धनों को खिलाना या एक बकरे की क़ुर्बानी देना है। (तफ्सीर क़ुर्तुबी) 117. लाभान्वित होने का अर्थ यह है कि उमरे का एह़राम बाँधे, और उसके कार्यक्रम पूरे करके एह़राम खोल दे, और जो चीजें एह़राम की स्थिति में अवैध थीं, उनसे लाभान्वित हो। फिर ह़ज्ज के समय उसका एह़राम बाँधे, इसे (ह़ज्ज तमत्तुअ) कहा जाता है। (तफ़्सीर क़ुर्तुबी)
اَلْحَجُّ اَشْهُرٌ مَّعْلُوْمٰتٌ ۚ فَمَنْ فَرَضَ فِيْهِنَّ الْحَجَّ فَلَا رَفَثَ وَلَا فُسُوْقَ وَلَا جِدَالَ فِى الْحَجِّ ۗ وَمَا تَفْعَلُوْا مِنْ خَيْرٍ يَّعْلَمْهُ اللّٰهُ ۗ وَتَزَوَّدُوْا فَاِنَّ خَيْرَ الزَّادِ التَّقْوٰىۖ وَاتَّقُوْنِ يٰٓاُولِى الْاَلْبَابِ١٩٧
Al-ḥajju asyhurum ma‘lūmāt(un), faman faraḍa fīhinnal-ḥajja falā rafaṡa wa lā fusūqa wa lā jidāla fil-ḥajj(i), wa mā taf‘alū min khairiy ya‘lamhullāh(u), wa tazawwadū fa'inna khairaz-zādit-taqwā, wattaqūni yā ulil-albāb(i).
[197]
ह़ज्ज चंद जाने-माने महीने हैं। फिर जो व्यक्ति इनमें ह़ज्ज अनिवार्य कर ले, तो ह़ज्ज के दौरान न कोई काम-वासना की बात हो और न कोई अवज्ञा और न कोई झगड़ा। तथा तुम जो भी नेकी का काम करोगे, अल्लाह उसे जान लेगा। और पाथेय ले लो, (और जान लो कि) सबसे अच्छा पाथेय परहेज़गारी है तथा ऐ बुद्धि वालो! मुझसे डरो।
لَيْسَ عَلَيْكُمْ جُنَاحٌ اَنْ تَبْتَغُوْا فَضْلًا مِّنْ رَّبِّكُمْ ۗ فَاِذَآ اَفَضْتُمْ مِّنْ عَرَفٰتٍ فَاذْكُرُوا اللّٰهَ عِنْدَ الْمَشْعَرِ الْحَرَامِ ۖ وَاذْكُرُوْهُ كَمَا هَدٰىكُمْ ۚ وَاِنْ كُنْتُمْ مِّنْ قَبْلِهٖ لَمِنَ الضَّاۤلِّيْنَ١٩٨
Laisa ‘alaikum junāḥun an tabtagū faḍlam mir rabbikum, fa'iżā afaḍtum min ‘arafātin fażkurullāha ‘indal-masy‘aril-ḥarām(i), ważkurūhu kamā hadākum, wa in kuntum min qablihī laminaḍ-ḍāllīn(a).
[198]
तथा तुमपर कोई दोष118 नहीं कि अपने पालनहार का अनुग्रह (फ़ज़्ल) तलाश करो। फिर जब तुम अरफ़ात119 से प्रस्थान करो, तो मश्अरे ह़राम (मुज़दलिफ़ा) के पास अल्लाह को याद करो और उसको उसी तरह याद करो, जैसे उसने तुम्हारा मार्गदर्शन किया है। और निःसंदेह इससे पहले तुम गुमराह लोगों में से थे।
118. अर्थात व्यापार करने में कोई दोष नहीं है। 119. अरफ़ात उस स्थान का नाम है जिस में ह़ाजी 9 ज़ुलह़िज्जा को विराम करते तथा सूर्यास्त के पश्चात् वहाँ से वापिस होते हैं।
ثُمَّ اَفِيْضُوْا مِنْ حَيْثُ اَفَاضَ النَّاسُ وَاسْتَغْفِرُوا اللّٰهَ ۗ اِنَّ اللّٰهَ غَفُوْرٌ رَّحِيْمٌ١٩٩
Ṡumma afīḍū min ḥaiṡu afāḍan-nāsu wastagfirullāh(a), innallāha gafūrur raḥīm(un).
[199]
फिर तुम120 उस जगह से वापस आओ, जहाँ से सब लोग वापस आएँ तथा अल्लाह से क्षमा माँगो। निश्चय अल्लाह अति क्षमाशील, अत्यंत दयावान् है।
120. यह आदेश क़ुरैश के उन लोगों को दिया गया है, जो मुज़दलिफ़ह ही से वापस चले आते थे, और अरफ़ात नहीं जाते थे। (तफ़्सीर क़ुर्तुबी)
فَاِذَا قَضَيْتُمْ مَّنَاسِكَكُمْ فَاذْكُرُوا اللّٰهَ كَذِكْرِكُمْ اٰبَاۤءَكُمْ اَوْ اَشَدَّ ذِكْرًا ۗ فَمِنَ النَّاسِ مَنْ يَّقُوْلُ رَبَّنَآ اٰتِنَا فِى الدُّنْيَا وَمَا لَهٗ فِى الْاٰخِرَةِ مِنْ خَلَاقٍ٢٠٠
Fa iżā qaḍaitum manāsikakum fażkurullāha każikrikum ābā'akum au asyadda żikrā(n), faminan-nāsi may yaqūlu rabbanā ātinā fid-dun-yā wa mā lahū fil-ākhirati min khalāq(in).
[200]
और जब तुम अपने ह़ज्ज के कार्य पूरे कर लो, तो अल्लाह को याद करो, जैसे अपने बाप-दादा को याद किया करते थे, बल्कि उससे भी बढ़कर याद121 करो। फिर लोगों में से कोई तो ऐसा है जो कहता है : ऐ हमारे पालनहार! हमें दुनिया में दे दे। और आख़िरत में उसका कोई हिस्सा नहीं।
121. जाहिलिय्यत में अरबों की यह रीति थी कि ह़ज्ज पूरा करने के पश्चात् अपने पूर्वजों के कर्मों की चर्चा करके उनपर गर्व किया करते थे। तथा इब्ने अब्बास रज़ियल्लाहु अन्हुमा ने इसका अर्थ यह किया है कि जिस प्रकार शिशु अपने माता पिता को गुहारता, पुकारता है, उसी प्रकार तुम अल्लाह को गुहारो और पुकारो। (तफ़्सीर क़ुर्तुबी)
وَمِنْهُمْ مَّنْ يَّقُوْلُ رَبَّنَآ اٰتِنَا فِى الدُّنْيَا حَسَنَةً وَّفِى الْاٰخِرَةِ حَسَنَةً وَّقِنَا عَذَابَ النَّارِ٢٠١
Wa minhum may yaqūlu rabbanā ātinā fid-dun-yā ḥasanataw wa fil-ākhirati ḥasanataw wa qinā ‘ażāban-nār(i).
[201]
तथा उनमें से कोई ऐसा है, जो कहता है : ऐ हमारे पालनहार! हमें दुनिया में भलाई तथा आख़िरत में भी भलाई दे और हमें आग के अज़ाब से बचा।
اُولٰۤىِٕكَ لَهُمْ نَصِيْبٌ مِّمَّا كَسَبُوْا ۗ وَاللّٰهُ سَرِيْعُ الْحِسَابِ٢٠٢
Ulā'ika lahum naṣībum mimmā kasabū, wallāhu sarī‘ul-ḥisāb(i).
[202]
यही लोग हैं, जिनके लिए उसमें से एक हिस्सा है, जो उन्होंने कमाया और अल्लाह बहुत जल्द ह़िसाब लेने वाला है।
۞ وَاذْكُرُوا اللّٰهَ فِيْٓ اَيَّامٍ مَّعْدُوْدٰتٍ ۗ فَمَنْ تَعَجَّلَ فِيْ يَوْمَيْنِ فَلَآ اِثْمَ عَلَيْهِ ۚوَمَنْ تَاَخَّرَ فَلَآ اِثْمَ عَلَيْهِۙ لِمَنِ اتَّقٰىۗ وَاتَّقُوا اللّٰهَ وَاعْلَمُوْٓا اَنَّكُمْ اِلَيْهِ تُحْشَرُوْنَ٢٠٣
Ważkurullāha fī ayyāmim ma‘dūdāt(in), faman ta‘ajjala fī yaumaini falā iṡma ‘alaih(i), wa man ta'akhkhara falā iṡma ‘alaihi limanittaqā, wattaqullāha wa‘lamū annakum ilaihi tuḥsyarūn(a).
[203]
तथा अल्लाह को चंद गिने हुए दिनों122 में याद करो। फिर जो दो दिनों में (मिना से) जल्द चला123 जाए, तो उसपर कोई दोष नहीं और जो देर124 से निकले, तो उसपर भी कोई दोष नहीं, उस व्यक्ति के लिए जो (अल्लाह से) डरे तथा अल्लाह से डरो और जान लो कि निःसंदेह तुम उसी की ओर एकत्र किए जाओगो।
122. चंद गिने हुए दिनों से अभिप्राय ज़ुलह़िज्जा मास की 11, 12, और 13 तारीख़ें हैं। जिनको "अय्यामे तश्रीक़" कहा जाता है। 123. अर्थात 12 ज़ुलह़िज्जा को ही सूर्यास्त के पहले कंकरी मारने के पश्चात् चल दे। 124. देर से निकले, अर्थात मिना में रात बिताए और 13 ज़ुलह़िज्जा को कंकरी मारे, फिर मिना से निकले।
وَمِنَ النَّاسِ مَنْ يُّعْجِبُكَ قَوْلُهٗ فِى الْحَيٰوةِ الدُّنْيَا وَيُشْهِدُ اللّٰهَ عَلٰى مَا فِيْ قَلْبِهٖ ۙ وَهُوَ اَلَدُّ الْخِصَامِ٢٠٤
Wa minan-nāsi may yu‘jibuka qauluhū fil-ḥayātid-dun-yā wa yusyhidullāha ‘alā mā fī qalbih(ī), wa huwa aladdul-khiṣām(i).
[204]
लोगों124 में कोई व्यक्ति ऐसा भी है जिसकी बात सांसारिक जीवन के बारे में (ऐ नबी!) आपको अच्छी लगती है और वह अल्लाह को उसपर गवाह बनाता है जो उसके दिल में हैं, हालाँकि वह बड़ा झगड़ालू है।
124. अर्थात मुनाफ़िक़ों (पाखंडियों) में।
وَاِذَا تَوَلّٰى سَعٰى فِى الْاَرْضِ لِيُفْسِدَ فِيْهَا وَيُهْلِكَ الْحَرْثَ وَالنَّسْلَ ۗ وَ اللّٰهُ لَا يُحِبُّ الْفَسَادَ٢٠٥
Wa iżā tawallā sa‘ā fil-arḍi liyufsida fīhā wa yuhlikal-ḥarṡa wan-nasl(a), wallāhu lā yuḥibbul-fasād(a).
[205]
तथा जब वह वापस जाता है, तो धरती में दौड़-धूप करता है ताकि उसमें उपद्रव फैलाए तथा खेती और नस्ल (पशुओं) का विनाश करे और अल्लाह उपद्रव को पसंद नहीं करता।
وَاِذَا قِيْلَ لَهُ اتَّقِ اللّٰهَ اَخَذَتْهُ الْعِزَّةُ بِالْاِثْمِ فَحَسْبُهٗ جَهَنَّمُ ۗ وَلَبِئْسَ الْمِهَادُ٢٠٦
Wa iżā qīla lahuttaqillāha akhażathul-‘izzatu bil-iṡmi faḥasbuhū jahannam(u), wa labi'sal-mihād(u).
[206]
तथा जब उससे कहा जाता है कि अल्लाह से डर, तो उसका गौरव उसे पाप में पकड़े रखता है। अतः उसके (दंड के) लिए जहन्नम ही काफ़ी है और निश्चय वह बहुत बुरा ठिकाना है।
وَمِنَ النَّاسِ مَنْ يَّشْرِيْ نَفْسَهُ ابْتِغَاۤءَ مَرْضَاتِ اللّٰهِ ۗوَاللّٰهُ رَءُوْفٌۢ بِالْعِبَادِ٢٠٧
Wa minan-nāsi may yasyrī nafsahubtigā'a marḍātillāh(i), wallāhu ra'ūfum bil-‘ibād(i).
[207]
तथा लोगों में ऐसा व्यक्ति भी है, जो अल्लाह की प्रसन्नता की खोज में अपना प्राण बेच125 देता है और अल्लाह उन बंदों पर अनंत करुणामय है।
125. अर्थात उसकी राह में और उसकी आज्ञा के अनुपालन द्वारा।
يٰٓاَيُّهَا الَّذِيْنَ اٰمَنُوا ادْخُلُوْا فِى السِّلْمِ كَاۤفَّةً ۖوَّلَا تَتَّبِعُوْا خُطُوٰتِ الشَّيْطٰنِۗ اِنَّهٗ لَكُمْ عَدُوٌّ مُّبِيْنٌ٢٠٨
Yā ayyuhal-lażīna āmanudkhulū fis-silmi kāffah(tan), wa lā tattabi‘ū khuṭuwātisy-syaiṭān(i), innahū lakum ‘aduwwum mubīn(un).
[208]
ऐ ईमान वालो! इस्लाम में पूर्ण रूप से प्रेश126 कर जाओ और शैतान के पदचिह्नों पर न चलो। निश्चय वह तुम्हारा खुला दुश्मन है।
126. अर्थात इस्लाम के पूरे संविधान का अनुपालन करो।
فَاِنْ زَلَلْتُمْ مِّنْۢ بَعْدِ مَا جَاۤءَتْكُمُ الْبَيِّنٰتُ فَاعْلَمُوْٓا اَنَّ اللّٰهَ عَزِيْزٌ حَكِيْمٌ٢٠٩
Fa'in zalaltum mim ba‘di mā jā'atkumul-bayyinātu fa‘lamū annallāha ‘azīzun ḥakīm(un).
[209]
फिर यदि इसके बाद फिसल जाओ कि तुम्हारे पास स्पष्ट दलीलें127 आ चुकीं, तो जान लो कि निःसंदेह अल्लाह अत्यंत प्रभुत्वशाली, पूर्ण ह़िकमत वाला128 है।
127. खुले तर्कों से अभिप्राय क़ुरआन और सुन्नत है। 128. अर्थात तथ्य को जानता और प्रत्येक वस्तु को उसके उचित स्थान पर रखता है।
هَلْ يَنْظُرُوْنَ اِلَّآ اَنْ يَّأْتِيَهُمُ اللّٰهُ فِيْ ظُلَلٍ مِّنَ الْغَمَامِ وَالْمَلٰۤىِٕكَةُ وَقُضِيَ الْاَمْرُ ۗ وَاِلَى اللّٰهِ تُرْجَعُ الْاُمُوْرُ ࣖ٢١٠
Hal yanẓurūna illā ay ya'tiyahumullāhu fī ẓulalim minal-gamāmi wal-malā'ikatu wa quḍiyal-amr(u), wa ilallāhi turja‘ul-umūr(u).
[210]
वे (इन स्पष्ट प्रमाणों के बाद) इसके सिवा किस चीज़ की प्रतीक्षा कर रहे हैं कि उनके पास अल्लाह बादलों के सायों में आ जाए तथा फ़रिश्ते भी और मामले का निर्णय कर दिया जाए और सब काम अल्लाह ही की ओर लौटाए[129[ जाते हैं।
129. अर्थात सब निर्णय प्रलोक में वही करेगा।
سَلْ بَنِيْٓ اِسْرَاۤءِيْلَ كَمْ اٰتَيْنٰهُمْ مِّنْ اٰيَةٍ ۢ بَيِّنَةٍ ۗ وَمَنْ يُّبَدِّلْ نِعْمَةَ اللّٰهِ مِنْۢ بَعْدِ مَا جَاۤءَتْهُ فَاِنَّ اللّٰهَ شَدِيْدُ الْعِقَابِ٢١١
Sal banī isrā'īla kam ātaināhum min āyatim bayyinah(tin), wa may yubaddil ni‘matallāhi mim ba‘di mā jā'athu fa innallāha syadīdul-‘iqāb(i).
[211]
बनी इसराईल से पूछो कि हमने उन्हें कितनी खुली निशानियाँ दीं। और जो अल्लाह की नेमत को बदल दे, इसके बाद कि वह उसके पास आ चुकी हो, तो निश्चय अल्लाह बहुत सख़्त अज़ाब वाला है।
زُيِّنَ لِلَّذِيْنَ كَفَرُوا الْحَيٰوةُ الدُّنْيَا وَيَسْخَرُوْنَ مِنَ الَّذِيْنَ اٰمَنُوْا ۘ وَالَّذِيْنَ اتَّقَوْا فَوْقَهُمْ يَوْمَ الْقِيٰمَةِ ۗ وَاللّٰهُ يَرْزُقُ مَنْ يَّشَاۤءُ بِغَيْرِ حِسَابٍ٢١٢
Zuyyina lil-lażīna kafarul-ḥayātud-dun-yā wa yaskharūna minal-lażīna āmanū, wal-lażīnattaqau fauqahum yaumal-qiyāmah(ti), wallāhu yarzuqu may yasyā'u bigairi ḥisāb(in).
[212]
उन लोगों के लिए जिन्होंने कुफ़्र किया, सांसारिक जीवन आकर्षक बना दिया गया है तथा वे ईमान लाने वालों का मज़ाक़130 उड़ाते हैं। हालाँकि जो लोग (अल्लाह का) डर रखने वाले हैं, वे क़ियामत के दिन उनसे ऊपर131 होंगे तथा अल्लाह जिसे चाहता है, असंख्य जीविका प्रदान करता है।
130. अर्थात उनकी निर्धनता तथा दरिद्रता के कारण। 131. आयत का भावार्थ यह है कि काफ़िर सांसारिक धनधान्य ही को महत्व देते हैं। जबकि परलोक की सफलता जो सत्धर्म और सत्कर्म पर आधारित है, वही सबसे बड़ी सफलता है।
كَانَ النَّاسُ اُمَّةً وَّاحِدَةً ۗ فَبَعَثَ اللّٰهُ النَّبِيّٖنَ مُبَشِّرِيْنَ وَمُنْذِرِيْنَ ۖ وَاَنْزَلَ مَعَهُمُ الْكِتٰبَ بِالْحَقِّ لِيَحْكُمَ بَيْنَ النَّاسِ فِيْمَا اخْتَلَفُوْا فِيْهِ ۗ وَمَا اخْتَلَفَ فِيْهِ اِلَّا الَّذِيْنَ اُوْتُوْهُ مِنْۢ بَعْدِ مَا جَاۤءَتْهُمُ الْبَيِّنٰتُ بَغْيًا ۢ بَيْنَهُمْ ۚ فَهَدَى اللّٰهُ الَّذِيْنَ اٰمَنُوْا لِمَا اخْتَلَفُوْا فِيْهِ مِنَ الْحَقِّ بِاِذْنِهٖ ۗ وَاللّٰهُ يَهْدِيْ مَنْ يَّشَاۤءُ اِلٰى صِرَاطٍ مُّسْتَقِيْمٍ٢١٣
Kānan-nāsu ummataw wāḥidah(tan), fa ba‘aṡallāhun-nabiyyīna mubasysyirīna wa munżirīn(a), wa anzala ma‘ahumul-kitāba bil-ḥaqqi liyaḥkuma bainan-nāsi fīmakhtalafū fīh(i), wa makhtalafa fīhi illal-lażīna ūtūhu mim ba‘di mā jā'athumul-bayyinātu bagyam bainahum, fahadallāhul-lażīna āmanū limakhtalafū fīhi minal-ḥaqqi bi'iżnih(ī), wallāhu yahdī may yasyā'u ilā ṣirāṭim mustaqīm(in).
[213]
(आरंभ में) सब लोग एक ही समुदाय थे। (फिर विभेद हुआ) तो अल्लाह ने नबी भेजे, शुभ समाचार सुनाने वाले132 और डराने वाले, और उनपर सत्य के साथ पुस्तक उतारी, ताकि वह लोगों के बीच उन बातों का फैसला करे, जिनमें उन्होंने मतभेद किया था। और उसमें मतभेद उन्हीं लोगों ने किया, जिन्हें वह दी गई थी, इसके बाद कि उनके पास स्पष्ट निशानियाँ आ चुकीं, आपस के हठ के कारण। फिर जो लोग ईमान लाए, अल्लाह ने उन्हें अपनी आज्ञा से सत्य में से उस बात का मार्गदर्शन किया, जिसमें उन्होंने मतभेद किया था और अल्लाह जिसे चाहता है, सीधा मार्ग दर्शाता है।
132. आयत 213 का सारांश यह है कि सभी मानव आरंभिक युग में स्वाभाविक जीवन व्यतीत कर रहे थे। फिर आपस में विभेद हुआ तो अत्याचार और उपद्रव होने लगा। तब अल्लाह की ओर से नबी आने लगे ताकि सबको एक सत्धर्म पर कर दें। और आकाशीय पुस्तकें भी इसीलिए अवतरित हुईं कि विभेद में निर्णय करके सब को एक मूल सत्धर्म पर लगाएँ। परंतु लोगों की दुराग्रह और आपसी द्वेष विभेद का कारण बने रहे। अन्यथा सत्धर्म (इस्लाम) जो एकता का आधार है, वह अब भी सुरक्षित है। और जो व्यक्ति चाहेगा तो अल्लाह उसके लिए यह सत्य दर्शा देगा। परंतु यह स्वयं उसकी इच्छा पर आधारित है।
اَمْ حَسِبْتُمْ اَنْ تَدْخُلُوا الْجَنَّةَ وَلَمَّا يَأْتِكُمْ مَّثَلُ الَّذِيْنَ خَلَوْا مِنْ قَبْلِكُمْ ۗ مَسَّتْهُمُ الْبَأْسَاۤءُ وَالضَّرَّاۤءُ وَزُلْزِلُوْا حَتّٰى يَقُوْلَ الرَّسُوْلُ وَالَّذِيْنَ اٰمَنُوْا مَعَهٗ مَتٰى نَصْرُ اللّٰهِ ۗ اَلَآ اِنَّ نَصْرَ اللّٰهِ قَرِيْبٌ٢١٤
Am ḥasibtum an tadkhulul-jannata wa lammā ya'tikum maṡalul-lażīna khalau min qablikum, massathumul-ba'sā'u waḍ-ḍarrā'u wa zulzilū ḥattā yaqūlar-rasūlu wal-lażīna āmanū ma‘ahū matā naṣrullāh(i), alā inna naṣrallāhi qarīb(un).
[214]
या तुमने समझ रखा है कि तुम जन्नत में प्रवेश कर जाओगे, हालाँकि अभी तक तुमपर उन लोगों जैसी दशा नहीं आई, जो तुमसे पूर्व थे। उन्हें तंगी और तकलीफ़ पहुँची तथा वे सख़्त हिला दिए गए, यहाँ तक कि वह रसूल और जो लोग उसके साथ ईमान लाए थे, कह उठे : अल्लाह की सहायता कब आएगी? सुन लो, निःसंदेह अल्लाह की सहायता क़रीब133 है।
133. आयत का भावार्थ यह है कि ईमान के लिए इतना ही बस नहीं कि ईमान को स्वीकार कर लिया तथा स्वर्गीय हो गये। इसके लिए यह भी आवश्यक है कि उन सभी परीक्षाओं में स्थिर रहो, जो तुमसे पूर्व सत्य के अनुयायियों के सामने आईं, और तुम पर भी आएँगी।
يَسْـَٔلُوْنَكَ مَاذَا يُنْفِقُوْنَ ۗ قُلْ مَآ اَنْفَقْتُمْ مِّنْ خَيْرٍ فَلِلْوَالِدَيْنِ وَالْاَقْرَبِيْنَ وَالْيَتٰمٰى وَالْمَسٰكِيْنِ وَابْنِ السَّبِيْلِ ۗ وَمَا تَفْعَلُوْا مِنْ خَيْرٍ فَاِنَّ اللّٰهَ بِهٖ عَلِيْمٌ٢١٥
Yas'alūnaka māżā yunfiqūn(a), qul mā anfaqtum min khairin falil-wālidaini wal-aqrabīna wal-yatāmā wal-masākīni wabnis-sabīl(i), wa mā taf‘alū min khairin fa innallāha bihī ‘alīm(un).
[215]
(ऐ नबी!) वे आपसे पूछते हैं क्या चीज़ ख़र्च करें? (उनसे) कह दीजिए : तुम भलाई में से जो भी खर्च करो, तो वह माता-पिता, अधिक क़रीबी रिश्तेदारों, अनाथों, मिसकीनों (निर्धनों) तथा यात्रियों के लिए है। तथा तुम नेकी में से जो कुछ भी करोगे, तो निःसंदेह अल्लाह उसे भलि-भाँति जानने वाला है।
كُتِبَ عَلَيْكُمُ الْقِتَالُ وَهُوَ كُرْهٌ لَّكُمْ ۚ وَعَسٰٓى اَنْ تَكْرَهُوْا شَيْـًٔا وَّهُوَ خَيْرٌ لَّكُمْ ۚ وَعَسٰٓى اَنْ تُحِبُّوْا شَيْـًٔا وَّهُوَ شَرٌّ لَّكُمْ ۗ وَاللّٰهُ يَعْلَمُ وَاَنْتُمْ لَا تَعْلَمُوْنَ ࣖ٢١٦
Kutiba ‘alaikumul-qitālu wa huwa kurhul lakum, wa ‘asā an takrahū syai'aw wa huwa khairul lakum, wa ‘asā an tuḥibbū syai'aw wa huwa syarrul lakum, wallāhu ya‘lamu wa antum lā ta‘lamūn(a).
[216]
(ऐ ईमान वालो!) तुमपर युद्ध करना अनिवार्य कर दिया गया है, हालाँकि वह तुम्हें बिल्कुल नापसंद है। और हो सकता है कि तुम एक चीज़ को नापसंद करो और वह तुम्हारे लिए बेहतर हो और हो सकता कि तुम एक चीज़ को पसंद करो और वह तुम्हारे लिए बुरी हो। और अल्लाह जानता है और तुम नहीं जानते।134
134. आयत का भावार्थ यह है कि युद्ध ऐसी चीज़ नहीं, जो तुम्हें प्रिय हो। परंतु जब ऐसी स्थिति आ जाए कि शत्रु इस लिए आक्रमण और अत्याचार करने लगे कि लोगों ने अपने पूर्वजों की आस्था, परंपरा त्याग कर सत्य को अपना लिया है, जैसा कि इस्लाम के आरंभिक युग में हुआ, तो सत्धर्म की रक्षा के लिए युद्ध करना अनिवार्य हो जाता हो।
يَسْـَٔلُوْنَكَ عَنِ الشَّهْرِ الْحَرَامِ قِتَالٍ فِيْهِۗ قُلْ قِتَالٌ فِيْهِ كَبِيْرٌ ۗ وَصَدٌّ عَنْ سَبِيْلِ اللّٰهِ وَكُفْرٌۢ بِهٖ وَالْمَسْجِدِ الْحَرَامِ وَاِخْرَاجُ اَهْلِهٖ مِنْهُ اَكْبَرُ عِنْدَ اللّٰهِ ۚ وَالْفِتْنَةُ اَكْبَرُ مِنَ الْقَتْلِ ۗ وَلَا يَزَالُوْنَ يُقَاتِلُوْنَكُمْ حَتّٰى يَرُدُّوْكُمْ عَنْ دِيْنِكُمْ اِنِ اسْتَطَاعُوْا ۗ وَمَنْ يَّرْتَدِدْ مِنْكُمْ عَنْ دِيْنِهٖ فَيَمُتْ وَهُوَ كَافِرٌ فَاُولٰۤىِٕكَ حَبِطَتْ اَعْمَالُهُمْ فِى الدُّنْيَا وَالْاٰخِرَةِ ۚ وَاُولٰۤىِٕكَ اَصْحٰبُ النَّارِۚ هُمْ فِيْهَا خٰلِدُوْنَ٢١٧
Yas'alūnaka ‘anisy-syahril-ḥarāmi qitālin fīh(i), qul qitālun fīhi kabīr(un), wa ṣaddun ‘an sabīlillāhi wa kufrum bihī wal-masjidil-ḥarām(i), wa ikhrāju ahlihī minhu akbaru ‘indallāh(i), wal-fitnatu akbaru minal-qatl(i), wa lā yazālūna yuqātilūnakum ḥattā yaruddūkum ‘an dīnikum inistaṭā‘ū, wa may yartadid minkum ‘an dīnihī fa yamut wa huwa kāfirun fa ulā'ika ḥabiṭat a‘māluhum fid-dun-yā wal-ākhirah(ti), wa ulā'ika aṣḥābun-nār(i), hum fīhā khālidūn(a).
[217]
(ऐ नबी!) वे135 आपसे सम्मानित मास में युद्ध करने के बारे में पूछते हैं। आप उनसे कह दें कि उसमें युद्ध करना बहुत गंभीर (पाप) है, परंतु अल्लाह के मार्ग से रोकना और उसका इनकार करना और मस्जिदे-ह़राम से रोकना और उसके वासियों को उससे निकालना, अल्लाह के निकट उससे भी बड़ा (पाप) है, तथा फ़ितना (शिर्क), हत्या से अधिक बड़ा है। और वे तुमसे हमेशा युद्ध करते रहेंगे, यहाँ तक कि तुम्हें तुम्हारे धर्म से फेर दें, यदि कर सकें, और तुममें से जो व्यक्ति अपने धर्म (इस्लाम) से फिर जाए, फिर इस हाल में मरे कि वह काफ़िर हो, तो ये ऐसे लोग हैं जिनके कार्य दुनिया तथा आख़िरत में बर्बाद हो गए तथा यही लोग आग वाले हैं, वे उसमें हमेशा रहने वाले हैं।
135. अर्थात मिश्रणवादी।
اِنَّ الَّذِيْنَ اٰمَنُوْا وَالَّذِيْنَ هَاجَرُوْا وَجَاهَدُوْا فِيْ سَبِيْلِ اللّٰهِ ۙ اُولٰۤىِٕكَ يَرْجُوْنَ رَحْمَتَ اللّٰهِ ۗوَاللّٰهُ غَفُوْرٌ رَّحِيْمٌ٢١٨
Innal-lażīna āmanū wal-lażīna hājarū wa jāhadū fī sabīlillāh(i), ulā'ika yarjūna raḥmatallāh(i), wallāhu gafūrur raḥīm(un).
[218]
निःसंदेह जो लोग ईमान लाए और जिन्होंने हिजरत136 की तथा अल्लाह की राह में जिहाद किया, वही अल्लाह की दया की आशा रखते हैं तथा अल्लाह अत्यंत क्षमाशील, असीम दयालु है।
136. हिजरत का अर्थ है : अल्लाह के लिए स्वदेश त्याग देना।
۞ يَسْـَٔلُوْنَكَ عَنِ الْخَمْرِ وَالْمَيْسِرِۗ قُلْ فِيْهِمَآ اِثْمٌ كَبِيْرٌ وَّمَنَافِعُ لِلنَّاسِۖ وَاِثْمُهُمَآ اَكْبَرُ مِنْ نَّفْعِهِمَاۗ وَيَسْـَٔلُوْنَكَ مَاذَا يُنْفِقُوْنَ ەۗ قُلِ الْعَفْوَۗ كَذٰلِكَ يُبَيِّنُ اللّٰهُ لَكُمُ الْاٰيٰتِ لَعَلَّكُمْ تَتَفَكَّرُوْنَۙ٢١٩
Yas'alūnaka ‘anil-khamri wal-maisir(i), qul fīhimā iṡmun kabīrw wa manāfi‘u lin nās(i), wa iṡmuhumā akbaru min naf‘ihimā, wa yas'alūnaka māżā yunfiqūn(a), qulil-‘afw(a), każālika yubayyinullāhu lakumul-āyāti la‘allakum tatafakkarūn(a).
[219]
(ऐ नबी!) वे आपसे शराब और जुए के बारे में पूछते हैं। आप बता दें कि इन दोनों में बड़ा पाप है तथा लोगों के लिए कुछ लाभ हैं, और इन दोनों का पाप इनके लाभ से बड़ा137 है। तथा वे आपसे पूछते हैं कि क्या चीज़ ख़र्च करें। (उनसे) कह दीजिए जो आवश्यकता से अधिक हो। इसी प्रकार अल्लाह तुम्हारे लिए आयतों को स्पष्ट करता है, ताकि तुम सोच-विचार करो।
137. अर्थात अपने लोक परलोक के लाभ के विषय में विचार करो, और जिसमें अधिक हानि हो उसे त्याग दो, यद्यपि उसमें थोड़ा लाभ ही क्यों न हो। यह मदिरा और जुआ से संबंधित प्रथम आदेश है। आगामी सूरतुन्-निसा आयत : 43 तथा सूरतुल-माइदा आयत : 90 में इनके विषय में अंतिम आदेश आ रहा है।
فِى الدُّنْيَا وَالْاٰخِرَةِ ۗ وَيَسْـَٔلُوْنَكَ عَنِ الْيَتٰمٰىۗ قُلْ اِصْلَاحٌ لَّهُمْ خَيْرٌ ۗ وَاِنْ تُخَالِطُوْهُمْ فَاِخْوَانُكُمْ ۗ وَاللّٰهُ يَعْلَمُ الْمُفْسِدَ مِنَ الْمُصْلِحِ ۗ وَلَوْ شَاۤءَ اللّٰهُ لَاَعْنَتَكُمْ اِنَّ اللّٰهَ عَزِيْزٌ حَكِيْمٌ٢٢٠
Fid-dun-yā wal-ākhirah(ti), wa yas'alūnaka ‘anil-yatāmā, qul iṣlāḥul lahum khair(un), wa in tukhāliṭūhum fa'ikhwānukum, wallāhu ya‘lamul-mufsida minal-muṣliḥ(i), wa lau syā'allāhu la'a‘natakum innallāha ‘azizun ḥakīm(un).
[220]
दुनिया और आख़िरत के बारे में। और वे आपसे अनाथों के विषय में पूछते हैं। (उनसे) कह दीजिए उनके लिए सुधार करते रहना बेहतर है। यदि तुम उन्हें अपने साथ मिलाकर रखो, तो वे तुम्हारे भाई हैं और अल्लाह बिगाड़ने वाले को सुधारने वाले से जानता है। और यदि अल्लाह चाहता, तो तुम्हें अवश्य कष्ट138 में डाल देता। निःसंदेह अल्लाह सब पर प्रभुत्वशाली, पूर्ण हिकमत वाला है।
138. उनका खाना-पीना अलग करने का आदेश दे कर।
وَلَا تَنْكِحُوا الْمُشْرِكٰتِ حَتّٰى يُؤْمِنَّ ۗ وَلَاَمَةٌ مُّؤْمِنَةٌ خَيْرٌ مِّنْ مُّشْرِكَةٍ وَّلَوْ اَعْجَبَتْكُمْ ۚ وَلَا تُنْكِحُوا الْمُشْرِكِيْنَ حَتّٰى يُؤْمِنُوْا ۗ وَلَعَبْدٌ مُّؤْمِنٌ خَيْرٌ مِّنْ مُّشْرِكٍ وَّلَوْ اَعْجَبَكُمْ ۗ اُولٰۤىِٕكَ يَدْعُوْنَ اِلَى النَّارِ ۖ وَاللّٰهُ يَدْعُوْٓا اِلَى الْجَنَّةِ وَالْمَغْفِرَةِ بِاِذْنِهٖۚ وَيُبَيِّنُ اٰيٰتِهٖ لِلنَّاسِ لَعَلَّهُمْ يَتَذَكَّرُوْنَ ࣖ٢٢١
Wa lā tankiḥul-musyrikāti ḥattā yu'minn(a), wa la'amatum mu'minatun khairum mim musyrikatiw wa lau a‘jabatkum, wa lā tunkiḥul-musyrikīna ḥattā yu'minū, wa la‘abdum mu'minun khairum mim musyrikiw wa lau a‘jabakum, ulā'ika yad‘ūna ilan-nār(i), wallāhu yad‘ū ilal-jannati wal-magfirati bi'iżnih(ī), wa yubayyinu āyātihī lin-nāsi la‘allahum yatażakkarūn(a).
[221]
तथा मुश्रिक139 स्त्रियों से विवाह न करो, यहाँ तक कि वे ईमान ले आएँ और निश्चय एक ईमान वाली दासी किसी भी मुश्रिक स्त्री से उत्तम है, यद्यपि वह तुम्हें अच्छी लगे। और अपनी स्त्रियों का निकाह़ मुश्रिकों से न करो, यहाँ तक कि वे ईमान ले आएँ और निश्चय एक ईमान वाला दास किसी भी मुश्रिक (पुरुष) से उत्तम है, यद्यपि वह तुम्हें अच्छा लगे। ये लोग आग की ओर बुलाते हैं तथा अल्लाह अपनी आज्ञा से जन्नत और क्षमा की ओर बुलाता है और लोगों के लिए अपनी आयतें खोलकर बयान करता है, ताकि वे शिक्षा ग्रहण करें।
139. इस्लाम के विरोधियों से युद्ध ने यह प्रश्न उभार दिया कि उनसे विवाह उचित है या नहीं? उसपर कहा जा रहा है कि उनसे विवाह संबंध अवैध है, और इसका कारण भी बता दिया गया है कि वे तुम्हें सत्य से फेरना चाहते हैं। उनके साथ तुम्हारा वैवाहिक सम्बंध कभी सफलता का कारण नहीं हो सकता।
وَيَسْـَٔلُوْنَكَ عَنِ الْمَحِيْضِ ۗ قُلْ هُوَ اَذًىۙ فَاعْتَزِلُوا النِّسَاۤءَ فِى الْمَحِيْضِۙ وَلَا تَقْرَبُوْهُنَّ حَتّٰى يَطْهُرْنَ ۚ فَاِذَا تَطَهَّرْنَ فَأْتُوْهُنَّ مِنْ حَيْثُ اَمَرَكُمُ اللّٰهُ ۗ اِنَّ اللّٰهَ يُحِبُّ التَّوَّابِيْنَ وَيُحِبُّ الْمُتَطَهِّرِيْنَ٢٢٢
Wa yas'alūnaka ‘anil-maḥīḍ(i), qul huwa ażā(n), fa‘tazilun-nisā'a fil-maḥīḍ(i), wa lā taqrabūhunna ḥattā yaṭhurn(a), fa'iżā taṭahharna fa'tūhunna min ḥaiṡu amarakumullāh(u), innallāha yuḥibbut-tawwābīna wa yuḥibbul-mutaṭahhirīn(a).
[222]
तथा वे आपसे मासिक धर्म के विषय में पूछते हैं। आप कह दें : वह एक तरह की गंदगी है। अतः मासिक धर्म की स्थिति में औरतों से अलग रहो और उनके पास न जाओ, यहाँ तक कि वे पाक हो जाएँ। फिर जब वे (स्नान करके) पाक-साफ़ हो जाएँ, तो उनके पास आओ, जहाँ से अल्लाह ने तुम्हें अनुमति दी है। निःसंदेह अल्लाह उनसे प्रेम करता है जो बहुत तौबा करने वाले हैं और उनसे प्रेम करता है जो बहुत पाक रहने वाले हैं।
نِسَاۤؤُكُمْ حَرْثٌ لَّكُمْ ۖ فَأْتُوْا حَرْثَكُمْ اَنّٰى شِئْتُمْ ۖ وَقَدِّمُوْا لِاَنْفُسِكُمْ ۗ وَاتَّقُوا اللّٰهَ وَاعْلَمُوْٓا اَنَّكُمْ مُّلٰقُوْهُ ۗ وَبَشِّرِ الْمُؤْمِنِيْنَ٢٢٣
Nisā'ukum ḥarṡul lakum, fa'tū ḥarṡakum annā syi'tum, wa qaddimū li anfusikum, wattaqullāha wa‘lamū annakum mulāqūh(u), wa basysyiril-mu'minīn(a).
[223]
तुम्हारी पत्नियाँ तुम्हारे लिए खेती140 हैं। सो अपनी खेती में जिस तरह चाहो आओ और अपने लिए (अच्छे कार्य) आगे भेजो। तथा अल्लाह से डरो और जान लो कि निश्चय तुम उससे मिलने वाले हो और ईमान वालों को शुभ सूचना सुना दो।
140. अर्थात संतान उत्पन्न करने का स्थान। और इसमें यह संकेत भी है कि भग के सिवा अन्य स्थान में संभोग ह़राम (अनुचित) है।
وَلَا تَجْعَلُوا اللّٰهَ عُرْضَةً لِّاَيْمَانِكُمْ اَنْ تَبَرُّوْا وَتَتَّقُوْا وَتُصْلِحُوْا بَيْنَ النَّاسِۗ وَاللّٰهُ سَمِيْعٌ عَلِيْمٌ٢٢٤
Wa lā taj‘alullāha ‘urḍatal li'aimānikum an tabarrū wa tattaqū wa tuṣliḥū bainan-nās(i), wallāhu samī‘un ‘alīm(un).
[224]
तथा अल्लाह की क़सम को भलाई करने, परहेज़गारी की राह पर चलने और लोगों के बीच मेल-मिलाप कराने के विरुद्ध तर्क141 न बनाओ। और अल्लाह सब कुछ सुनने वाला, सब कुछ जानने वाला है।
141. अर्थात सदाचार और पुण्य न करने की शपथ लेना अनुचित है।
لَا يُؤَاخِذُكُمُ اللّٰهُ بِاللَّغْوِ فِيْٓ اَيْمَانِكُمْ وَلٰكِنْ يُّؤَاخِذُكُمْ بِمَا كَسَبَتْ قُلُوْبُكُمْ ۗ وَاللّٰهُ غَفُوْرٌ حَلِيْمٌ٢٢٥
Lā yu'ākhiżukumullāhu bil-lagwi fī aimānikum wa lākiy yu'ākhiżukum bimā kasabat qulūbukum, wallāhu gafūrun ḥalīm(un).
[225]
अल्लाह तुम्हें तुम्हारी क़समों में निरर्थक पर नहीं पकड़ता, बल्कि तुम्हें उसपर पकड़ता है, जिसका तुम्हारे दिलों ने इरादा किया है। और अल्लाह बहुत क्षमा करने वाला, अत्यंत सहनशील है।
لِلَّذِيْنَ يُؤْلُوْنَ مِنْ نِّسَاۤىِٕهِمْ تَرَبُّصُ اَرْبَعَةِ اَشْهُرٍۚ فَاِنْ فَاۤءُوْ فَاِنَّ اللّٰهَ غَفُوْرٌ رَّحِيْمٌ٢٢٦
Lil-lażīna yu'lūna min nisā'ihim tarabbuṣu arba‘ati asyhur(in), fa'in fā'ū fa'innalāha gafūrur raḥīm(un).
[226]
उन लोगों के लिए जो अपनी पत्नियों से (संभोग न करने की) क़सम खा लेते हैं, चार महीने प्रतीक्षा करना है। फिर142 यदि वे (इस बीच) अपनी क़सम से फिर जाएँ, तो निःसंदेह अल्लाह अति क्षमाशील, अत्यंत दयावान् है।
142. यदि पत्नी से संबंध न रखने की शपथ ली जाए, जिसे अरबी में "ईला" के नाम से जाना जाता है, तो उसका यह नियम है कि चार महीने प्रतीक्षा की जाएगी। यदि इस बीच पति ने फिर संबंध स्थापित कर लिया तो उसे शपथ का कफ़्फ़ारह (प्रायश्चित) देना होगा। अन्यथा चार महीने पूरे हो जाने पर न्यायालय उसे शपथ से फिरने या तलाक़ देने पर बाध्य करेगा।
وَاِنْ عَزَمُوا الطَّلَاقَ فَاِنَّ اللّٰهَ سَمِيْعٌ عَلِيْمٌ٢٢٧
Wa in ‘azamuṭ-ṭalāqa fa innallāha samī‘un ‘alīm(un).
[227]
और यदि वे तलाक़ का पक्का इरादा कर लें, तो निःसंदेह अल्लाह सब कुछ सुनने वाला, सब कुछ जानने वाला है।
وَالْمُطَلَّقٰتُ يَتَرَبَّصْنَ بِاَنْفُسِهِنَّ ثَلٰثَةَ قُرُوْۤءٍۗ وَلَا يَحِلُّ لَهُنَّ اَنْ يَّكْتُمْنَ مَا خَلَقَ اللّٰهُ فِيْٓ اَرْحَامِهِنَّ اِنْ كُنَّ يُؤْمِنَّ بِاللّٰهِ وَالْيَوْمِ الْاٰخِرِۗ وَبُعُوْلَتُهُنَّ اَحَقُّ بِرَدِّهِنَّ فِيْ ذٰلِكَ اِنْ اَرَادُوْٓا اِصْلَاحًا ۗوَلَهُنَّ مِثْلُ الَّذِيْ عَلَيْهِنَّ بِالْمَعْرُوْفِۖ وَلِلرِّجَالِ عَلَيْهِنَّ دَرَجَةٌ ۗ وَاللّٰهُ عَزِيْزٌ حَكِيْمٌ ࣖ٢٢٨
Wal-muṭallaqātu yatarabbaṣna bi anfusihinna ṡalāṡata qurū'(in), wa lā yaḥillu lahunna ay yaktumna mā khalaqallāhu fī arḥāmihinna in kunna yu'minna billāhi wal-yaumil-ākhir(i), wa bu‘ūlatuhunna aḥaqqu biraddiūhinna fī żālika in arādū iṣlāḥā(n), wa lahunna miṡlul-lażī ‘alaihinna bil-ma‘rūf(i), wa lir-rijāli ‘alaihinna darajah(tun), wallāhu ‘azīzun ḥakīm(un).
[228]
तथा जिन स्त्रियों को तलाक़ दे दी गई है, वे तीन बार मासिक धर्म आने तक अपने आपको (विवाह से) प्रतीक्षा में रखें। और उनके लिए ह़लाल (वैध) नहीं कि वह चीज़ छिपाएँ जो अल्लाह ने उनके गर्भाशयों में पैदा143 की है, यदि वे अल्लाह तथा अंतिम दिन पर ईमान रखती हैं। तथा उनके पति इस अवधि में उन्हें वापस लौटाने के अधिक हक़दार144 हैं, यदि वे मामला ठीक रखने145 का इरादा रखते हों। तथा परंपरा के अनुसार उन (स्त्रियों)146 के लिए उसी तरह अधिकार (हक़) है, जैसे उनके ऊपर (पुरुषों का) अधिकार है। तथा पुरुषों को उन (स्त्रियों) पर एक दर्जा प्राप्त है और अल्लाह सब पर प्रभुत्वशाली, पूर्ण हिकमत वाला है।
143. अर्थात मासिक धर्म अथवा गर्भ को। 144. यह बताया गया है कि पति तलाक़ के पश्चात् पत्नी को लौटाना चाहे तो उसे इसका अधिकार है। क्योंकि विवाह का मूल लक्ष्य मिलाप है, अलगाव नहीं। 145. हानि पहुँचाने अथवा दुःख देने के लिए नहीं। 146. यहाँ यह ज्ञातव्य है कि जब इस्लाम आया तो संसार यह जानता ही न था कि स्त्रियों के भी कुछ अधिकार हो सकते हैं। स्त्रियों को संतान उत्पन्न करने का एक साधन समझा जाता था, और उनकी मुक्ति इसी में थी कि वह पुरुषों की सेवा करें। प्राचीन धर्मानुसार स्त्री को पुरुष की संपत्ति समझा जाता था। पुरुष तथा स्त्री समान नहीं थे। स्त्री में मानव आत्मा के स्थान पर एक दूसरी आत्मा होती थी। रूमी विधान में भी स्त्री का स्थान पुरुष से बहुत नीचे था। जब कभी मानव शब्द बोला जाता, तो उससे संबोधित पुरुष होता था। स्त्री, पुरुष के साथ खड़ी नहीं हो सकती थी। कुछ अमानवीय विचारों में जन्म से पाप का सारा बोझ स्त्री पर डाल दिया जाता। आदम के पाप का कारण ह़व्वा हुई। इस लिए पाप का पहला बीज स्त्री के हाथों पड़ा। और वही शैतान का साधन बनी। अब सदा स्त्री में पाप की प्रेरणा उभरती रहेगी। धार्मिक विषय में भी स्त्री पुरुष के समान न हो सकी। परंतु इस्लाम ने केवल स्त्रियों के अधिकार का विचार ही नहीं दिया, बल्कि खुला एलान कर दिया कि जैसे पुरुषों के अधिकार हैं, वैस स्त्रियों के भी पुरुषों पर अधिकार हैं। क़ुरआन ने इन चार शब्दों में स्त्री को वह सब कुछ दे दिया है जो उसका अधिकार था। और जो उसे कभी नहीं मिला था। इन शब्दों द्वारा उसके सम्मान और समता की घोषणा कर दी। दामपत्य जीवन तथा सामाजिकता की कोई ऐसी बात नहीं जो इन चार शब्दों में न आ गई हो। यद्यपि आगे यह भी कहा गया है कि पुरुषों के लिए स्त्रियों पर एक विशेष प्रधानता है। ऐसा क्यों है? इसका कारण हमें आगामी सूरतुन-निसा में मिल जाता है कि यह इस लिए है कि पुरुष अपना धन स्त्रियों पर खर्च करते हैं। अर्थात पारिवारिक जीवन की व्यवस्था के लिए एक व्यवस्थापक अवश्य होना चाहिए। और इसका भार पुरुषों पर रखा गया है। यही उनकी प्रधानता तथा विशेषता है, जो केवल एक भार है। इससे पुरुष की जन्म से कोई प्रधानता सिद्ध नहीं होती। यह केवल एक पारिवारिक व्यवस्था के कारण हुआ है।
اَلطَّلَاقُ مَرَّتٰنِ ۖ فَاِمْسَاكٌۢ بِمَعْرُوْفٍ اَوْ تَسْرِيْحٌۢ بِاِحْسَانٍ ۗ وَلَا يَحِلُّ لَكُمْ اَنْ تَأْخُذُوْا مِمَّآ اٰتَيْتُمُوْهُنَّ شَيْـًٔا اِلَّآ اَنْ يَّخَافَآ اَلَّا يُقِيْمَا حُدُوْدَ اللّٰهِ ۗ فَاِنْ خِفْتُمْ اَلَّا يُقِيْمَا حُدُوْدَ اللّٰهِ ۙ فَلَا جُنَاحَ عَلَيْهِمَا فِيْمَا افْتَدَتْ بِهٖ ۗ تِلْكَ حُدُوْدُ اللّٰهِ فَلَا تَعْتَدُوْهَا ۚوَمَنْ يَّتَعَدَّ حُدُوْدَ اللّٰهِ فَاُولٰۤىِٕكَ هُمُ الظّٰلِمُوْنَ٢٢٩
Aṭ-ṭalāqu marratān(i), fa imsākum bima‘rūfin au tasrīḥum bi'iḥsān(in), wa lā yaḥillu lakum an ta'khużū mimmā ātaitumūhunna syai'an illā ay yakhāfā allā yuqīmā ḥudūdullāh(i), fa in khiftum allā yuqīmā ḥudūdullāh(i) falā junāḥa ‘alaihimā fīmaftadat bih(ī), tilka ḥudūdullāhi falā ta‘tadūhā, wa may yata‘adda ḥudūdullāhi fa'ulā'ika humuẓ-ẓālimūn(a).
[229]
यह तलाक़ दो बार है। फिर या तो अच्छे तरीक़े से रख लेना है, या नेकी के साथ छोड़ देना है। और तुम्हारे लिए ह़लाल (वैध) नहीं कि उसमें से जो तुमने उन्हें दिया है, कुछ भी लो, सिवाय इसके कि उन दोनों को इस बात का डर हो कि वे अल्लाह की सीमाओं को क़ायम न रख सकेंगे। फिर यदि तुम्हें भय147 हो कि वे दोनों (पति-पत्नी) अल्लाह की सीमाओं को क़ायम न रख सकेंगे, तो उन दोनों पर उसमें कोई दोष (पाप) नहीं जो पत्नी अपनी जान छुड़ाने148 के बदले में दे दे। ये अल्लाह की सीमाएँ हैं, अतः इनसे आगे मत बढ़ो और जो अल्लाह की सीमाओं से आगे बढ़ेगा, तो यही लोग अत्याचारी हैं।
147. अर्थात पति के अभिभावकों को। 148. पत्नी के अपने पति को कुछ देकर विवाह बंधन से मुक्त करा लेने को इस्लाम की परिभाषा में "खुल्अ" कहा जाता है। इस्लाम ने जैसे पुरुषों को तलाक़ का अधिकार दिया है, उसी प्रकार स्त्रियों को भी "खुल्अ" ले लेने का अधिकार दिया है। अर्थात वह अपने पति से तलाक़ माँग सकती हैं।
فَاِنْ طَلَّقَهَا فَلَا تَحِلُّ لَهٗ مِنْۢ بَعْدُ حَتّٰى تَنْكِحَ زَوْجًا غَيْرَهٗ ۗ فَاِنْ طَلَّقَهَا فَلَا جُنَاحَ عَلَيْهِمَآ اَنْ يَّتَرَاجَعَآ اِنْ ظَنَّآ اَنْ يُّقِيْمَا حُدُوْدَ اللّٰهِ ۗ وَتِلْكَ حُدُوْدُ اللّٰهِ يُبَيِّنُهَا لِقَوْمٍ يَّعْلَمُوْنَ٢٣٠
Fa'in ṭallaqahā falā taḥillu lahū mim ba‘du ḥattā tankiḥa zaujan gairah(ū), fa'in ṭallaqahā falā junāḥa ‘alaihimā ay yatarāja‘ā in ẓannā ay yuqīmā ḥudūdullāh(i), tilka ḥudūdullāhi yubayyinuhā liqaumiy ya‘lamūn(a).
[230]
फिर यदि वह उसे (तीसरी) तलाक़ दे दे, तो उसके बाद वह उसके लिए ह़लाल (वैध) नहीं होगी, यहाँ तक कि उसके अलावा किसी अन्य पति से विवाह करे। फिर यदि वह उसे तलाक़ दे दे, तो (पहले) दोनों पर कोई पाप नहीं कि दोनों आपस में रुजू' (दोबारा मिलाप) कर लें, यदि वे दोनों समझें कि अल्लाह की सीमाओं को क़ायम रखेंगे।149 और ये अल्लाह की सीमाएँ हैं, वह उन्हें उन लोगों के लिए खोलकर बयान करता है, जो ज्ञान रखते हैं।
149. आयत का भावार्थ यह है कि प्रथम पति ने तीन तलाक़ दे दी हो, तो निर्धारित अवधि में भी उसे पत्नी को लौटाने का अवसर नहीं दिया जाएगा। तथा पत्नी को यह अधिकार होगा कि निर्धारित अवधि पूरी करके किसी दूसरे पति से धर्मविधान के अनुसार सह़ीह़ विवाह कर ले, फिर यदि दूसरा पति उसे संभोग के पश्चात् तलाक़ दे, या उसका देहांत हो जाए, तो प्रथम पति से निर्धारित अवधि पूरी करने के पश्चात नये महर के साथ नया विवाह कर सकती है। लेकिन यह उस समय है जब दोनों यह समझते हों कि वे अल्लाह के आदेशों का पालन कर सकेंगे।
وَاِذَا طَلَّقْتُمُ النِّسَاۤءَ فَبَلَغْنَ اَجَلَهُنَّ فَاَمْسِكُوْهُنَّ بِمَعْرُوْفٍ اَوْ سَرِّحُوْهُنَّ بِمَعْرُوْفٍۗ وَلَا تُمْسِكُوْهُنَّ ضِرَارًا لِّتَعْتَدُوْا ۚ وَمَنْ يَّفْعَلْ ذٰلِكَ فَقَدْ ظَلَمَ نَفْسَهٗ ۗ وَلَا تَتَّخِذُوْٓا اٰيٰتِ اللّٰهِ هُزُوًا وَّاذْكُرُوْا نِعْمَتَ اللّٰهِ عَلَيْكُمْ وَمَآ اَنْزَلَ عَلَيْكُمْ مِّنَ الْكِتٰبِ وَالْحِكْمَةِ يَعِظُكُمْ بِهٖ ۗوَاتَّقُوا اللّٰهَ وَاعْلَمُوْٓا اَنَّ اللّٰهَ بِكُلِّ شَيْءٍ عَلِيْمٌ ࣖ٢٣١
Wa iżā ṭallaqtumun-nisā'a fabalagna ajalahunna fa'amsikūhunna bima‘rūfin au sarriḥūhunna bima‘rūf(in), wa lā tumsikūhunna ḍirāral lita‘tadū, wa may yaf‘al żālika faqad ẓalama nafasah(ū), wa lā tattakhiżū āyātillāhi huzuwaw ważkurū ni‘matallāhi ‘alaikum wa mā anzala ‘alaikum minal-kitābi wal-ḥikmati ya‘iẓukum bih(ī), wattaqullāha wa‘lamū annallāha bikulli syai'in ‘alīm(un).
[231]
और जब तुम स्त्रियों को तलाक़ दे दो, फिर वे अपनी इद्दत (निश्चित अवधि) को पहुँच जाएँ, तो उन्हें भले तरीक़े से रख लो अथवा उन्हें भले तरीक़े से छोड़ दो। तथा उन्हें हानि पहुँचाने के लिए न रोके रखो, ताकि उनपर अत्याचार करो। और जो कोई ऐसा करे, तो निःसंदेह उसने स्वयं अपने आपपर अत्याचार किया। तथा अल्लाह की आयतों को मज़ाक़ न बनाओ। और अपने ऊपर अल्लाह की नेमत को याद करो तथा उसको भी (याद करो) जो उसने पुस्तक (क़ुरआन) एवं ह़िकमत (सुन्नत) में से तुमपर उतारा है, वह तुम्हें उसके साथ उपदेश देता है। तथा अल्लाह से डरो और जान लो कि अल्लाह हर चीज़ को ख़ूब जानने वाला है।149
149. आयत का अर्थ यह है कि पत्नी को पत्नी के रूप में रखो, और उनके अधिकार दो। अन्यथा तलाक़ देकर उनकी राह खोल दो। जाहिलिय्यत के युग के समान अंधेरे में न रखो। इस विषय में भी नैतिकता एवं संयम के आदर्श बनो, और क़ुरआन तथा सुन्नत के आदेशों का अनुपालन करो।
وَاِذَا طَلَّقْتُمُ النِّسَاۤءَ فَبَلَغْنَ اَجَلَهُنَّ فَلَا تَعْضُلُوْهُنَّ اَنْ يَّنْكِحْنَ اَزْوَاجَهُنَّ اِذَا تَرَاضَوْا بَيْنَهُمْ بِالْمَعْرُوْفِ ۗ ذٰلِكَ يُوْعَظُ بِهٖ مَنْ كَانَ مِنْكُمْ يُؤْمِنُ بِاللّٰهِ وَالْيَوْمِ الْاٰخِرِ ۗ ذٰلِكُمْ اَزْكٰى لَكُمْ وَاَطْهَرُ ۗ وَاللّٰهُ يَعْلَمُ وَاَنْتُمْ لَا تَعْلَمُوْنَ٢٣٢
Wa iżā ṭallaqtumun-nisā'a fabalagna ajalahunna falā ta‘ḍulūhunna ay yankiḥna azwājahunna iżā tarāḍau bainahum bil-ma‘rūf(i), żālika yū‘aẓu bihī man kāna minkum yu'minu billāhi wal-yaumil-ākhir(i), żālikum azkā lakum wa aṭhar(u), wallāhu ya‘lamu wa antum lā ta‘lamūn(a).
[232]
और जब तुम स्त्रियों को तलाक़ दो, फिर वे अपनी निश्चित अवधि (इद्दत) को पहुँच जाएँ, तो उन्हें अपने पतियों से विवाह करने से न रोको, जबकि वे भले तरीक़े से आपस में विवाह करने पर सहमत हो जाएँ। यह बात है जिसका उपदेश तुममें से उसे दिया जा रहा है, जो अल्लाह तथा अंतिम दिन (प्रलय) पर ईमान रखता है। यह तुम्हारे लिए अधिक स्वच्छ तथा अधिक पवित्र है और अल्लाह जानता है और तुम नहीं जानते।
۞ وَالْوٰلِدٰتُ يُرْضِعْنَ اَوْلَادَهُنَّ حَوْلَيْنِ كَامِلَيْنِ لِمَنْ اَرَادَ اَنْ يُّتِمَّ الرَّضَاعَةَ ۗ وَعَلَى الْمَوْلُوْدِ لَهٗ رِزْقُهُنَّ وَكِسْوَتُهُنَّ بِالْمَعْرُوْفِۗ لَا تُكَلَّفُ نَفْسٌ اِلَّا وُسْعَهَا ۚ لَا تُضَاۤرَّ وَالِدَةٌ ۢبِوَلَدِهَا وَلَا مَوْلُوْدٌ لَّهٗ بِوَلَدِهٖ وَعَلَى الْوَارِثِ مِثْلُ ذٰلِكَ ۚ فَاِنْ اَرَادَا فِصَالًا عَنْ تَرَاضٍ مِّنْهُمَا وَتَشَاوُرٍ فَلَا جُنَاحَ عَلَيْهِمَا ۗوَاِنْ اَرَدْتُّمْ اَنْ تَسْتَرْضِعُوْٓا اَوْلَادَكُمْ فَلَا جُنَاحَ عَلَيْكُمْ اِذَا سَلَّمْتُمْ مَّآ اٰتَيْتُمْ بِالْمَعْرُوْفِۗ وَاتَّقُوا اللّٰهَ وَاعْلَمُوْٓا اَنَّ اللّٰهَ بِمَا تَعْمَلُوْنَ بَصِيْرٌ٢٣٣
Wal-wālidātu yurḍi‘na aulādahunna ḥaulaini kāmilaini liman arāda ay yutimmar-raḍā‘ah(ta), wa ‘alal-maulūdi lahū rizquhunna wa kiswatuhunna bil-ma‘rūf(i), lā tukallafu nafsun illā wus‘ahā, lā tuḍārra wālidatum biwaladihā wa lā maulūdul lahū biwaladihī wa ‘alal-wāriṡi miṡlu żālik(a), fa'in arādā fiṣālan ‘an tarāḍim minhumā wa tasyāwurin falā junāḥa ‘alaihimā, wa in arattum an tastarḍi‘ū aulādakum falā junāḥa ‘alaikum iżā sallamtum mā ātaitum bil-ma‘rūf(i), wattaqullāha wa‘lamū annallāha bimā ta‘malūna baṣīr(un).
[233]
और माताएँ अपने बच्चों को पूरे दो वर्ष दूध पिलाएँ, उसके लिए जो चाहे कि दूध पीने की अवधि पूरी करे। और बच्चे के पिता के ज़िम्मे परंपरा के अनुसार उन (औरतों) का खाना और उनका कपड़ा है। किसी पर उसकी शक्ति से अधिक बोझ नहीं डाला जाएगा; न माँ को उसके बच्चे के कारण हानि पहुँचाई जाए और न पिता को उसके बच्चे की वजह से। और इसी प्रकार की ज़िम्मेदारी (उसके) वारिस पर भी है। फिर यदि दोनों आपस की सहमति तथा परस्पर परामर्श से (दो वर्ष से पहले) दूध छुड़ाना चाहें, तो दोनों पर कोई पाप नहीं। और यदि तुम्हारा इरादा (किसी अन्य स्त्री से) दूध पिलवाने का हो, तो तुमपर कोई पाप नहीं, जब रीति के अनुसार वह भुगतान कर दो, जो तुमने देना तय किया था। तथा अल्लाह से डरो और जान लो कि तुम जो कुछ करते हो, निःसंदेह अल्लाह उसे देख रहा है।150
150. तलाक़ की स्थिति में यदि माँ की गोद में बच्चा हो, तो यह आदेश दिया गया है कि माँ ही बच्चे को दूध पिलाए और दूध पिलाने तक उसका ख़र्च पिता पर है। और दूध पिलाने की अवधि दो वर्ष है। साथ ही दो मूल नियम भी बताए गए हैं कि न तो माँ को बच्चे के कारण हानि पहुँचाई जाए और न पिता को। और किसी पर उसकी शक्ति से अधिक ख़र्च का भार न डाला जाए।
وَالَّذِيْنَ يُتَوَفَّوْنَ مِنْكُمْ وَيَذَرُوْنَ اَزْوَاجًا يَّتَرَبَّصْنَ بِاَنْفُسِهِنَّ اَرْبَعَةَ اَشْهُرٍ وَّعَشْرًا ۚ فَاِذَا بَلَغْنَ اَجَلَهُنَّ فَلَا جُنَاحَ عَلَيْكُمْ فِيْمَا فَعَلْنَ فِيْٓ اَنْفُسِهِنَّ بِالْمَعْرُوْفِۗ وَاللّٰهُ بِمَا تَعْمَلُوْنَ خَبِيْرٌ٢٣٤
Wal-lażīna yutawaffauna minkum wa yażarūna azwājay yatarabbaṣna bi'anfusihinna arba‘ata asyhuriw wa ‘asyrā(n), fa'iżā balagna ajalahunna falā junāḥa ‘alaikum fīmā fa‘alna fī anfusihinna bil-ma‘rūf(i),wallāhu bimā ta‘malūna khabīr(un).
[234]
और जो लोग तुममें से मर जाएँ और पत्नियाँ छोड़ जाएँ, वे (पत्नियाँ) अपने आपको चार महीने और दस दिन प्रतीक्षा में रखें।151 फिर जब वे अपनी इद्दत (निर्धारित अवधि) को पहुँच जाएँ, तो तुमपर उसमें कोई पाप152 नहीं जो वे नियमानुसार अपने बारे में करें, तथा अल्लाह उससे जो कुछ तुम करते हो पूरी तरह अवगत है।
151. उसकी निश्चित अवधि चार महीने दस दिन है। वह तुरंत दूसरा विवाह नहीं कर सकती, और न इससे अधिक पति का सोग मनाए। जैसा कि जाहिलिय्यत में होता था कि पत्नी को एक वर्ष तक पति का सोग मनाना पड़ता था। 152. यदि स्त्री निश्चित अवधि के पश्चात दूसरा निकाह़ करना चाहे तो उसे रोका न जाए।
وَلَا جُنَاحَ عَلَيْكُمْ فِيْمَا عَرَّضْتُمْ بِهٖ مِنْ خِطْبَةِ النِّسَاۤءِ اَوْ اَكْنَنْتُمْ فِيْٓ اَنْفُسِكُمْ ۗ عَلِمَ اللّٰهُ اَنَّكُمْ سَتَذْكُرُوْنَهُنَّ وَلٰكِنْ لَّا تُوَاعِدُوْهُنَّ سِرًّا اِلَّآ اَنْ تَقُوْلُوْا قَوْلًا مَّعْرُوْفًا ەۗ وَلَا تَعْزِمُوْا عُقْدَةَ النِّكَاحِ حَتّٰى يَبْلُغَ الْكِتٰبُ اَجَلَهٗ ۗوَاعْلَمُوْٓا اَنَّ اللّٰهَ يَعْلَمُ مَا فِيْٓ اَنْفُسِكُمْ فَاحْذَرُوْهُ ۚوَاعْلَمُوْٓا اَنَّ اللّٰهَ غَفُوْرٌ حَلِيْمٌ ࣖ٢٣٥
Wa lā junāḥa ‘alaikum fīmā ‘arraḍtum bihī min khiṭbatin-nisā'i au aknantum fī anfusikum, ‘alimallāhu annakum satażkurūnahunna wa lākil lā tuwā‘idūhunna sirran illā an taqūlū qaulam ma‘rūfā(n), wa lā ta‘zimū ‘uqdatan-nikāḥi ḥattā yablugal-kitābu ajalah(ū), wa‘lamū annallāha ya‘lamu mā fī anfusikum faḥżarūh(u), wa‘lamū annallāha gafūrun ḥalīm(un).
[235]
और तुमपर इस बात में कोई गुनाह नहीं कि उन (इद्दत गुज़ारने वाली) स्त्रियों को विवाह के संदेश का संकेत दो, या (उसे) अपने मन में छिपाए रखो। अल्लाह जानता है कि तुम उन्हें अवश्य याद करोगे, परंतु उनसे गुप्त रूप से विवाह का वादा न करो, सिवाय इसके कि रीति के अनुसार153 कोई बात कहो। तथा विवाह का अनुबंध पक्का न करो, यहाँ तक कि लिखा हुआ हुक्म अपनी अवधि को पहुँच जाए।154 तथा जान लो कि निःसंदेह अल्लाह तुम्हारे मन की बातों को जानता है। अतः उससे डरो और जान लो कि अल्लाह बहुत क्षमा करने वाला, अत्यंत सहनशील है।
153. विवाह के विषय में जो बात की जाए वह खुली तथा रीति के अनुसार हो, गुप्त नहीं। 154. जब तक अवधि पूरी न हो विवाह की बात तथा वचन नहीं होना चाहिए।
لَا جُنَاحَ عَلَيْكُمْ اِنْ طَلَّقْتُمُ النِّسَاۤءَ مَا لَمْ تَمَسُّوْهُنَّ اَوْ تَفْرِضُوْا لَهُنَّ فَرِيْضَةً ۖ وَّمَتِّعُوْهُنَّ عَلَى الْمُوْسِعِ قَدَرُهٗ وَعَلَى الْمُقْتِرِ قَدَرُهٗ ۚ مَتَاعًا ۢبِالْمَعْرُوْفِۚ حَقًّا عَلَى الْمُحْسِنِيْنَ٢٣٦
Lā junāḥa ‘alaikum in ṭallaqtumun-nisā'a mā lam tamassūhunna au tafriḍū lahunna farīḍah(tan), wa matti‘ūhunna ‘alal-mūsi‘i qadaruhū wa ‘alal-muqtiri qadaruhū matā‘am bil-ma‘rūf(i), ḥaqqan ‘alal-muḥsinīn(a).
[236]
तुमपर कोई पाप नहीं, यदि तुम स्त्रियों को तलाक़ दे दो जबकि तुमने (अभी) उन्हें न हाथ लगाया हो और न उनके लिए कुछ महर निर्धारित किया हो। (लेकिन) उन्हें रीति के अनुसार कुछ सामान दे दो; विस्तार वाले पर अपनी क्षमता के अनुसार तथा तंगदस्त पर अपनी क्षमता के अनुसार देय है। सत्कर्म करने वालों पर यह हक़ है।
وَاِنْ طَلَّقْتُمُوْهُنَّ مِنْ قَبْلِ اَنْ تَمَسُّوْهُنَّ وَقَدْ فَرَضْتُمْ لَهُنَّ فَرِيْضَةً فَنِصْفُ مَا فَرَضْتُمْ اِلَّآ اَنْ يَّعْفُوْنَ اَوْ يَعْفُوَا الَّذِيْ بِيَدِهٖ عُقْدَةُ النِّكَاحِ ۗ وَاَنْ تَعْفُوْٓا اَقْرَبُ لِلتَّقْوٰىۗ وَلَا تَنْسَوُا الْفَضْلَ بَيْنَكُمْ ۗ اِنَّ اللّٰهَ بِمَا تَعْمَلُوْنَ بَصِيْرٌ٢٣٧
Wa in ṭallaqtumūhunna min qabli an tamassūhunna wa qad faraḍtum lahunna farīḍatan faniṣfu mā faraḍtum illā ay ya‘fūna au ya‘fuwal-lażī biyadihī ‘uqdatun-nikāḥ(i), wa an ta‘fū aqrabu lit-taqwā, wa lā tansawul-faḍla bainakum, innallāha bimā ta‘malūna baṣīr(un).
[237]
और यदि तुम उन्हें इससे पहले तलाक़ दे दो कि उन्हें हाथ लगाओ, जबकि तुम उनके लिए कोई महर निर्धारित कर चुके हो, तो तुमने जो महर निर्धारित किया है उसका आधा देना अनिवार्य है, सिवाय इसके कि वे (पत्नियाँ) माफ़ कर दें, अथवा वह पुरुष माफ़ कर दे जिसके हाथ में विवाह का बंधन155 है। और यह (बात) कि तुम माफ़ कर दो तक़वा (परहेज़गारी) के अधिक क़रीब है। और आपस में उपकार करना न भूलो। निःसंदेह अल्लाह उसे ख़ूब देखने वाला है, जो तुम कर रहे हो।
155. अर्थात पति अपनी ओर से अधिक अर्थात पूरा महर दे, तो यह प्रधानता की बात होगी। इन दो आयतों में यह नियम बताया गया है कि यदि विवाह के पश्चात् पति और पत्नी में कोई संबंध स्थापित न हुआ हो, तो इस स्थिति में यदि महर निर्धारित न किया गया हो तो पति अपनी शक्ति अनुसार जो भी दे सकता हो, उसे अवश्य दे। और यदि महर निर्धारित हो, तो इस स्थिति में आधा महर पत्नी को देना अनिवार्य है। और यदि पुरुष इससे अधिक दे सके, तो संयम तथा प्रधानता की बात होगी।
حَافِظُوْا عَلَى الصَّلَوٰتِ وَالصَّلٰوةِ الْوُسْطٰى وَقُوْمُوْا لِلّٰهِ قٰنِتِيْنَ٢٣٨
Ḥāfiẓū ‘alaṣ-ṣalawāti waṣ-ṣalātil-wusṭā, wa qūmū lillāhi qānitīn(a).
[238]
सब नमाज़ों का और (विशेषकर) बीच की नमाज़ (अस्र) का ध्यान रखो156 तथा अल्लाह के लिए आज्ञाकारी होकर (विनयपूर्वक) खड़े रहो।
156. अस्र की नमाज़ पर ध्यान रखने के लिए इस कारण बल दिया गया है कि यह व्यवसाय में लीन रहने का समय होता है।
فَاِنْ خِفْتُمْ فَرِجَالًا اَوْ رُكْبَانًا ۚ فَاِذَآ اَمِنْتُمْ فَاذْكُرُوا اللّٰهَ كَمَا عَلَّمَكُمْ مَّا لَمْ تَكُوْنُوْا تَعْلَمُوْنَ٢٣٩
Fa'in khiftum farijālan au rukbānā(n), fa'iżā amintum fażkurullāha kamā ‘allamakum mā lam takūnū ta‘lamūn(a).
[239]
फिर यदि तुम्हें भय157 हो, तो पैदल (नमाज़) पढ़ लो या सवार। फिर जब भय दूर हो जाए, तो अल्लाह को याद करो जैसे उसने तुम्हें सिखाया है, जो तुम नहीं जानते थे।
157. अर्थात शत्रु आदि का।
وَالَّذِيْنَ يُتَوَفَّوْنَ مِنْكُمْ وَيَذَرُوْنَ اَزْوَاجًاۖ وَّصِيَّةً لِّاَزْوَاجِهِمْ مَّتَاعًا اِلَى الْحَوْلِ غَيْرَ اِخْرَاجٍ ۚ فَاِنْ خَرَجْنَ فَلَا جُنَاحَ عَلَيْكُمْ فِيْ مَا فَعَلْنَ فِيْٓ اَنْفُسِهِنَّ مِنْ مَّعْرُوْفٍۗ وَاللّٰهُ عَزِيْزٌ حَكِيْمٌ٢٤٠
Wal-lażīna yutawaffauna minkum wa yażarūna azwājā(n), waṣiyyatal li'azwājihim matā‘an ilal-ḥauli gaira ikhrāj(in), fa'in kharajna falā junāḥa ‘alaikum fī mā fa‘alna fī anfusihinna mim ma‘rūf(in), wallāhu ‘azīzun ḥakīm(un).
[240]
और जो लोग तुममें से मृत्यु पा जाते हैं तथा पत्नियाँ छोड़ जाते हैं, वे अपनी पत्नियों के लिए एक वर्ष तक घर से निकाले बिना खर्च देने की वसीयत करें। परंतु यदि वे (स्वयं) निकल जाएँ158, तो तुमपर उसमें कोई पाप नहीं जो वे रीति के अनुसार अपने बारे में करें, और अल्लाह सब पर प्रभुत्वशाली, पूर्ण हिकमत वाला है।
158. अर्थात एक वर्ष पूरा होने से पहले। क्योंकि उनकी निश्चित अवधि चार महीने और दस दिन ही निर्धारित है।
وَلِلْمُطَلَّقٰتِ مَتَاعٌ ۢبِالْمَعْرُوْفِۗ حَقًّا عَلَى الْمُتَّقِيْنَ٢٤١
Wa lil-muṭallaqāti matā‘um bil-ma‘rūf(i), ḥaqqan ‘alal-muttaqīn(a).
[241]
तथा जिन स्त्रियों को तलाक़ दी गई है, उन्हें रीति के अनुसार कुछ न कुछ सामग्री देना आवश्यक है, डर रखने वालों पर यह हक़ (अनिवार्य) है।
كَذٰلِكَ يُبَيِّنُ اللّٰهُ لَكُمْ اٰيٰتِهٖ لَعَلَّكُمْ تَعْقِلُوْنَ ࣖ٢٤٢
Każālika yubayyinullāhu lakum āyātihī la‘allakum ta‘qilūn(a).
[242]
इसी तरह अल्लाह तुम्हारे लिए अपनी आयतें खोलकर बयान करता है, ताकि तुम समझो।
۞ اَلَمْ تَرَ اِلَى الَّذِيْنَ خَرَجُوْا مِنْ دِيَارِهِمْ وَهُمْ اُلُوْفٌ حَذَرَ الْمَوْتِۖ فَقَالَ لَهُمُ اللّٰهُ مُوْتُوْا ۗ ثُمَّ اَحْيَاهُمْ ۗ اِنَّ اللّٰهَ لَذُوْ فَضْلٍ عَلَى النَّاسِ وَلٰكِنَّ اَكْثَرَ النَّاسِ لَا يَشْكُرُوْنَ٢٤٣
Alam tara ilal-lażīna kharajū min diyārihim wa hum ulūfun ḥażaral-maut(i), faqāla lahumullāhu mūtū, ṡumma aḥyāhum, inallāha lażū faḍlin ‘alan-nāsi wa lākinna akṡaran-nāsi lā yasykurūn(a).
[243]
(ऐ नबी!) क्या आपने उन लोगों को नहीं देखा जो मौत के भय से अपने घरों से निकले159, जबकि वे कई हज़ार थे, तो अल्लाह ने उनसे कहा कि मर जाओ, फिर उन्हें जीवित कर दिया। निःसंदेह अल्लाह लोगों पर बड़े अनुग्रह वाला है, लेकिन अधिकांश लोग शुक्रिया अदा नहीं करते।160
159. इसमें बनी इसराईल के एक गिरोह की ओर संकेत किया गया है। 160. आयत का भावार्थ यह है कि जो लोग मौत से डरते हों, वे जीवन में सफल नहीं हो सकते, तथा जीवन और मौत अल्लाह के हाथ में है।
وَقَاتِلُوْا فِيْ سَبِيْلِ اللّٰهِ وَاعْلَمُوْٓا اَنَّ اللّٰهَ سَمِيْعٌ عَلِيْمٌ٢٤٤
Wa qātilū fī sabīlillāhi wa‘lamū annallāha samī‘un ‘alīm(un).
[244]
और तुम अल्लाह के मार्ग में युद्ध करो और जान लो कि अल्लाह सब कुछ सुनने वाला, सब कुछ जानने वाला है।
مَنْ ذَا الَّذِيْ يُقْرِضُ اللّٰهَ قَرْضًا حَسَنًا فَيُضٰعِفَهٗ لَهٗٓ اَضْعَافًا كَثِيْرَةً ۗوَاللّٰهُ يَقْبِضُ وَيَبْصُۣطُۖ وَاِلَيْهِ تُرْجَعُوْنَ٢٤٥
Man żal-lażī yuqriḍullāha qarḍan ḥasanan fayuḍā‘ifahū lahū aḍ‘āfan kaṡīrah(tan), wallāhu yaqbiḍu wa yabsuṭ(u), wa ilaihi turja‘ūn(a).
[245]
कौन है वह जो अल्लाह को अच्छा क़र्ज़161 दे, तो वह उसे उसके लिए बहुत अधिक गुना बढ़ा दे, तथा अल्लाह ही तंगी करता और विस्तार करता है और तुम उसी की ओर लौटाए जाओगे।
161. अर्थात जिहाद के लिए धन ख़र्च करना अल्लाह को उधार देना है।
اَلَمْ تَرَ اِلَى الْمَلَاِ مِنْۢ بَنِيْٓ اِسْرَاۤءِيْلَ مِنْۢ بَعْدِ مُوْسٰىۘ اِذْ قَالُوْا لِنَبِيٍّ لَّهُمُ ابْعَثْ لَنَا مَلِكًا نُّقَاتِلْ فِيْ سَبِيْلِ اللّٰهِ ۗ قَالَ هَلْ عَسَيْتُمْ اِنْ كُتِبَ عَلَيْكُمُ الْقِتَالُ اَلَّا تُقَاتِلُوْا ۗ قَالُوْا وَمَا لَنَآ اَلَّا نُقَاتِلَ فِيْ سَبِيْلِ اللّٰهِ وَقَدْاُخْرِجْنَا مِنْ دِيَارِنَا وَاَبْنَاۤىِٕنَا ۗ فَلَمَّا كُتِبَ عَلَيْهِمُ الْقِتَالُ تَوَلَّوْا اِلَّا قَلِيْلًا مِّنْهُمْ ۗوَاللّٰهُ عَلِيْمٌ ۢبِالظّٰلِمِيْنَ٢٤٦
Alam tara ilal-mala'i mim banī isrā'īla mim ba‘di mūsā, iż qālū linabiyyil lahumub‘aṡ lanā malikan nuqātil fī sabīlillāh(i), qāla hal ‘asaitum in kutiba ‘alaikumul-qitālu allā tuqātilū, qālū wa mā lanā allā nuqātila fī sabīlillāhi wa qad ukhrijnā min diyārinā wa abnā'inā, falammā kutiba ‘alaihimul-qitālu tawallau illā qalīlam minhum, wallāhu ‘alīmum biẓ-ẓālimīn(a).
[246]
(ऐ नबी!) क्या आपने मूसा के बाद बनी इसराईल के प्रमुखों को नहीं देखा, जब उन्होंने अपने एक नबी से कहा : हमारे लिए एक बादशाह निर्धारित कर दो कि हम अल्लाह के मार्ग में युद्ध करें। उस (नबी) ने कहा : ऐसा न हो कि यदि तुमपर युद्ध करना अनिवार्य कर दिया जाए, तो तुम युद्ध न करो? उन्होंने कहा : और हमें क्या है कि हम अल्लाह के मार्ग में युद्ध न करें, हालाँकि हमें हमारे घरों और हमारे बेटों से निकाल दिया गया है? फिर जब उनपर युद्ध करना अनिवार्य कर दिया गया, तो उनमें से बहुत थोड़े लोगों के सिवा सब फिर गए। और अल्लाह उन अत्याचारियों को भली-भाँति जानने वाला है।
وَقَالَ لَهُمْ نَبِيُّهُمْ اِنَّ اللّٰهَ قَدْ بَعَثَ لَكُمْ طَالُوْتَ مَلِكًا ۗ قَالُوْٓا اَنّٰى يَكُوْنُ لَهُ الْمُلْكُ عَلَيْنَا وَنَحْنُ اَحَقُّ بِالْمُلْكِ مِنْهُ وَلَمْ يُؤْتَ سَعَةً مِّنَ الْمَالِۗ قَالَ اِنَّ اللّٰهَ اصْطَفٰىهُ عَلَيْكُمْ وَزَادَهٗ بَسْطَةً فِى الْعِلْمِ وَالْجِسْمِ ۗ وَاللّٰهُ يُؤْتِيْ مُلْكَهٗ مَنْ يَّشَاۤءُ ۗ وَاللّٰهُ وَاسِعٌ عَلِيْمٌ٢٤٧
Wa qāla lahum nabiyyuhum innallāha qad ba‘aṡa lakum ṭālūta malikā(n), qālū annā yakūnu lahul-mulku ‘alainā wa naḥnu aḥaqqu bil-mulki minhu wa lam yu'ta sa‘atam minal-māl(i), qāla innallāhaṣṭafāhu ‘alaikum wa zādahū basṭatan fil-‘ilmi wal-jism(i), wallāhu yu'tī mulkahū may yasyā'(u), wallāhu wāsi‘un ‘alīm(un).
[247]
तथा उनके नबी ने उनसे कहा : निःसंदेह अल्लाह ने तुम्हारे लिए 'तालूत' को बादशाह निर्धारित किया है। उन्होंने कहा : उसका राज्य हमपर कैसे हो सकता है, जबकि हम राज्य के उससे अधिक हक़दार हैं और उसे धन का विस्तार भी प्राप्त नहीं? उस (नबी) ने कहा : निःसंदेह अल्लाह ने उसे तुमपर चुन लिया है और उसे अधिक ज्ञान तथा शारीरिक बल प्रदान किया है। और अल्लाह अपना राज्य जिसे चाहता है, प्रदान करता है तथा अल्लाह बहुत विस्तार वाला, सब कुछ जानने वाला है।162
162. अर्थात उसी के अधिकार में सब कुछ है। और कौन राज्य की क्षमता रखता है? उसे भी वही जानता है।
وَقَالَ لَهُمْ نَبِيُّهُمْ اِنَّ اٰيَةَ مُلْكِهٖٓ اَنْ يَّأْتِيَكُمُ التَّابُوْتُ فِيْهِ سَكِيْنَةٌ مِّنْ رَّبِّكُمْ وَبَقِيَّةٌ مِّمَّا تَرَكَ اٰلُ مُوْسٰى وَاٰلُ هٰرُوْنَ تَحْمِلُهُ الْمَلٰۤىِٕكَةُ ۗ اِنَّ فِيْ ذٰلِكَ لَاٰيَةً لَّكُمْ اِنْ كُنْتُمْ مُّؤْمِنِيْنَ ࣖ٢٤٨
Wa qāla lahum nabiyyuhum inna āyata mulkihī ay ya'tiyakumut-tābūtu fīhi sakīnatum mir rabbikum wa baqiyyatum mimmā taraka ālu mūsā wa ālu hārūna taḥmiluhul-malā'ikah(tu), inna fī żālika la āyatal lakum in kuntum mu'minīn(a).
[248]
तथा उनके नबी ने उनसे कहा : निःसंदेह उसके राजा होने की निशानी यह है कि तुम्हारे पास वह ताबूत (संदूक़) आ जाएगा, जिसमें तुम्हारे पालनहार की ओर से एक संतोष (सांत्वना) है तथा मूसा और हारून के घराने के छोड़े हुए अवशेष हैं, उसे फ़रिश्ते उठाए हुए होंगे। निःसंदेह इसमें तुम्हारे लिए निश्चय एक निशानी163 है, यदि तुम ईमान वाले हो।
163. अर्थात अल्लाह की ओर से तालूत को निर्वाचित किए जाने की।
فَلَمَّا فَصَلَ طَالُوْتُ بِالْجُنُوْدِ قَالَ اِنَّ اللّٰهَ مُبْتَلِيْكُمْ بِنَهَرٍۚ فَمَنْ شَرِبَ مِنْهُ فَلَيْسَ مِنِّيْۚ وَمَنْ لَّمْ يَطْعَمْهُ فَاِنَّهٗ مِنِّيْٓ اِلَّا مَنِ اغْتَرَفَ غُرْفَةً ۢبِيَدِهٖ ۚ فَشَرِبُوْا مِنْهُ اِلَّا قَلِيْلًا مِّنْهُمْ ۗ فَلَمَّا جَاوَزَهٗ هُوَ وَالَّذِيْنَ اٰمَنُوْا مَعَهٗۙ قَالُوْا لَا طَاقَةَ لَنَا الْيَوْمَ بِجَالُوْتَ وَجُنُوْدِهٖ ۗ قَالَ الَّذِيْنَ يَظُنُّوْنَ اَنَّهُمْ مُّلٰقُوا اللّٰهِ ۙ كَمْ مِّنْ فِئَةٍ قَلِيْلَةٍ غَلَبَتْ فِئَةً كَثِيْرَةً ۢبِاِذْنِ اللّٰهِ ۗ وَاللّٰهُ مَعَ الصّٰبِرِيْنَ٢٤٩
Falammā faṣala ṭālūtu bil-junūd(i), qāla innallāha mubtalīkum binahar(in), faman syariba minhu falaisa minnī, wa mal lam yaṭ‘amhu fa innahū minnī illā manigtarafa gurfatam biyadih(ī), fa syaribū minhu illā qalīlam minhum, falammā jāwazahū huwa wal-lażīna āmanū ma‘ah(ū), qālū lā ṭāqata lanal-yauma bijālūta wa junūdih(ī), qālal-lażīna yaẓunnūna annahum mulāqullāh(i), kam min fi'atin qalīlatin galabat fi'atan kaṡīratam bi'iżnillāh(i), wallāhu ma‘aṣ-ṣābirīn(a).
[249]
फिर जब तालूत सेनाएँ लेकर चला, तो उसने कहा : निःसंदेह अल्लाह एक नहर द्वारा तुम्हारी परीक्षा लेने वाला है। अतः जिसने उसमें से पिया, तो वह मुझमें से नहीं है और जिसने उसे नहीं चखा, तो निःसंदेह वह मुझमें से है। परंतु जो अपने हाथ से एक चुल्लू भर पानी ले ले (तो कोई बात नहीं)। तो उनमें से थोड़े लोगों के सिवा सबने उसमें से पी लिया। फिर जब वह (तालूत) और उसके साथ ईमान वाले नहर पार कर गए, तो उन्होंने कहा : आज हमारे पास जालूत और उसकी सेनाओं से लड़ने की कोई शक्ति नहीं है। (परंतु) जो लोग समझते थे कि निश्चय वे अल्लाह से मिलने वाले हैं, उन्होंने कहा : कितने ही थोड़े समूह, अल्लाह की अनुमति से, बड़े समूहों पर विजय प्राप्त कर चुके हैं और अल्लाह सब्र करने वालों के साथ है।
وَلَمَّا بَرَزُوْا لِجَالُوْتَ وَجُنُوْدِهٖ قَالُوْا رَبَّنَآ اَفْرِغْ عَلَيْنَا صَبْرًا وَّثَبِّتْ اَقْدَامَنَا وَانْصُرْنَا عَلَى الْقَوْمِ الْكٰفِرِيْنَ ۗ٢٥٠
Wa lammā barazū lijālūta wa junūdihī qālū rabbanā afrig ‘alainā ṣabraw wa ṡabbit aqdāmanā wanṣurnā ‘alal-qaumil-kāfirīn(a).
[250]
और जब वे जालूत और उसकी सेनाओं के सामने हुए, तो दुआ की : ऐ हमारे पालनहार! हमपर धैर्य उँडेल दे तथा हमारे पैरों को जमा दे और इन काफ़िरों के विरुद्ध हमारी सहायता कर।
فَهَزَمُوْهُمْ بِاِذْنِ اللّٰهِ ۗوَقَتَلَ دَاوٗدُ جَالُوْتَ وَاٰتٰىهُ اللّٰهُ الْمُلْكَ وَالْحِكْمَةَ وَعَلَّمَهٗ مِمَّا يَشَاۤءُ ۗ وَلَوْلَا دَفْعُ اللّٰهِ النَّاسَ بَعْضَهُمْ بِبَعْضٍ لَّفَسَدَتِ الْاَرْضُ وَلٰكِنَّ اللّٰهَ ذُوْ فَضْلٍ عَلَى الْعٰلَمِيْنَ٢٥١
Fahazamūhum bi'iżnillāh(i), wa qatala dāwūdu jālūta wa ātāhullāhul-mulka wal-ḥikmata wa ‘allamahū mimmā yasyā'(u), wa lau lā daf‘ullāhin-nāsa ba‘ḍahum biba‘ḍil lafasadatil-arḍu wa lākinnallāha żū faḍlin ‘alal-‘ālamīn(a).
[251]
तो उन्होंने अल्लाह की अनुज्ञा से उन्हें पराजित कर दिया और दाऊद ने जालूत को क़त्ल कर दिया तथा अल्लाह ने उस (दाऊद)164 को राज्य और ह़िकमत प्रदान की तथा उसे जो कुछ चाहता था, सिखा दिया। और यदि अल्लाह का कुछ लोगों को कुछ लोगों द्वारा हटाना न होता, तो निश्चय धरती की व्यवस्था बिगड़ जाती। परंतु अल्लाह संसार वालों पर बड़े अनुग्रह वाला है।
164. दाऊद अलैहिस्सलाम तालूत की सेना में एक सैनिक थे, जिनको अल्लाह ने राज्य देने के साथ नबी भी बनाया। उन्हीं के पुत्र सुलैमान अलैहिस्सलाम थे। दाऊद अलैहिस्सलाम को अल्लाह ने धर्म पुस्तक ज़बूर प्रदान की। सूरत साद में उनकी कहानी आ रही है।
تِلْكَ اٰيٰتُ اللّٰهِ نَتْلُوْهَا عَلَيْكَ بِالْحَقِّ ۗ وَاِنَّكَ لَمِنَ الْمُرْسَلِيْنَ ۔٢٥٢
Tilka āyātullāhi natlūhā ‘alaika bil-ḥaqq(i), wa innaka laminal-mursalīn(a).
[252]
(ऐ नबी!) ये अल्लाह की आयतें हैं, हम उन्हें सत्य के साथ आपपर पढ़ते हैं, और निःसंदेह आप निश्चय रसूलों में से हैं।
۞ تِلْكَ الرُّسُلُ فَضَّلْنَا بَعْضَهُمْ عَلٰى بَعْضٍۘ مِنْهُمْ مَّنْ كَلَّمَ اللّٰهُ وَرَفَعَ بَعْضَهُمْ دَرَجٰتٍۗ وَاٰتَيْنَا عِيْسَى ابْنَ مَرْيَمَ الْبَيِّنٰتِ وَاَيَّدْنٰهُ بِرُوْحِ الْقُدُسِۗ وَلَوْ شَاۤءَ اللّٰهُ مَا اقْتَتَلَ الَّذِيْنَ مِنْۢ بَعْدِهِمْ مِّنْۢ بَعْدِ مَا جَاۤءَتْهُمُ الْبَيِّنٰتُ وَلٰكِنِ اخْتَلَفُوْا فَمِنْهُمْ مَّنْ اٰمَنَ وَمِنْهُمْ مَّنْ كَفَرَ ۗوَلَوْ شَاۤءَ اللّٰهُ مَا اقْتَتَلُوْاۗ وَلٰكِنَّ اللّٰهَ يَفْعَلُ مَا يُرِيْدُ ࣖ٢٥٣
Tilkar-rusulu faḍḍalnā ba‘ḍahum ‘alā ba‘ḍ(in), minhum man kallamallāhu wa rafa‘a ba‘ḍahum darajāt(in), wa ātainā ‘īsabna maryamal-bayyināti wa ayyadnāhu birūḥil-qudus(i), wa lau syā'allāhu maqtatalal-lażīna mim ba‘dihim mim ba‘di mā jā'athumul-bayyinātu wa lākinikhtalafū fa minhum man āmana wa minhum man kafar(a), wa lau syā'allāhu maqtatalū, wa lākinnallāha yaf‘alu mā yurīd(u).
[253]
ये रसूल हैं, हमने इनमें से कुछ को कुछ पर श्रेष्ठता प्रदान की। इनमें से कुछ वे हैं जिनसे अल्लाह ने बात की, और उनमें से कुछ के उसने दर्जे ऊँचे किए। तथा हमने मरयम के पुत्र ईसा को खुली निशानियाँ दीं और उसे रूह़ुल-क़ुदुस165 द्वारा शक्ति प्रदान की। और यदि अल्लाह चाहता, तो उनके बाद आने वाले लोग उनके पास खुली निशानियाँ आ जाने के पश्चात आपस में न लड़ते। परंतु उन्होंने मतभेद किया, तो उनमें से कोई तो वह था जो ईमान लाया और उनमें से कोई वह था जिसने कुफ़्र किया। और यदि अल्लाह चाहता, तो वे आपस में न लड़ते, लेकिन अल्लाह जो चाहता है, करता है।
165. "रूह़ुल क़ुदुस" का शाब्दिक अर्थ पवित्रात्मा है। और इससे अभिप्रेत एक फ़रिश्ता है, जिसका नाम "जिबरील" अलैहिस्सलाम है।
يٰٓاَيُّهَا الَّذِيْنَ اٰمَنُوْٓا اَنْفِقُوْا مِمَّا رَزَقْنٰكُمْ مِّنْ قَبْلِ اَنْ يَّأْتِيَ يَوْمٌ لَّا بَيْعٌ فِيْهِ وَلَا خُلَّةٌ وَّلَا شَفَاعَةٌ ۗوَالْكٰفِرُوْنَ هُمُ الظّٰلِمُوْنَ٢٥٤
Yā ayyuhal-lażīna āmanū anfiqū mimmā razaqnākum min qabli ay ya'tiya yaumul lā bai‘un fīhi wa lā khullatuw wa lā syafā‘ah(tun), wal-kāfirūna humuẓ-ẓālimūn(a).
[254]
ऐ ईमान वालो! उसमें से ख़र्च करो, जो हमने तुम्हें दिया है, इससे पहले कि वह दिन आ जाए, जिसमें न कोई क्रय-विक्रय होगा और न कोई दोस्ती और न कोई अनुशंसा (सिफ़ारिश)। तथा काफ़िर लोग166 ही अत्याचारी167 हैं।
166. अर्थात जो इस तथ्य को नहीं मानते वही स्वयं को हानि पहुँचा रहे हैं। 167. आयत का भावार्थ यह है कि परलोक की मुक्ति ईमान और सत्कर्म पर निर्भर है, न वहाँ मुक्ति का सौदा होगा न मैत्री और सिफ़ारिश काम आएगी।
اَللّٰهُ لَآ اِلٰهَ اِلَّا هُوَۚ اَلْحَيُّ الْقَيُّوْمُ ەۚ لَا تَأْخُذُهٗ سِنَةٌ وَّلَا نَوْمٌۗ لَهٗ مَا فِى السَّمٰوٰتِ وَمَا فِى الْاَرْضِۗ مَنْ ذَا الَّذِيْ يَشْفَعُ عِنْدَهٗٓ اِلَّا بِاِذْنِهٖۗ يَعْلَمُ مَا بَيْنَ اَيْدِيْهِمْ وَمَا خَلْفَهُمْۚ وَلَا يُحِيْطُوْنَ بِشَيْءٍ مِّنْ عِلْمِهٖٓ اِلَّا بِمَا شَاۤءَۚ وَسِعَ كُرْسِيُّهُ السَّمٰوٰتِ وَالْاَرْضَۚ وَلَا يَـُٔوْدُهٗ حِفْظُهُمَاۚ وَهُوَ الْعَلِيُّ الْعَظِيْمُ٢٥٥
Allāhu lā ilāha illā huw(a), al-ḥayyul-qayyūm(u), lā ta'khużuhū sinatuw wa lā naum(un), lahū mā fis-samāwāti wa mā fil-arḍ(i), man żal-lażī yasyfa‘u ‘indahū illā bi'iżnih(ī), ya‘lamu mā baina aidīhim wa mā khalfahum, wa lā yuḥīṭūna bisyai'im min ‘ilmihī illā bimā syā'(a), wasi‘a kursiyyuhus-samāwāti wal-arḍ(a), wa lā ya'ūduhū ḥifẓuhumā, wa huwal-‘aliyyul-‘aẓīm(u).
[255]
अल्लाह (वह है कि) उसके सिवा कोई पूज्य नहीं। (वह) जीवित है, हर चीज़ को सँभालने (क़ायम रखने)168 वाला है। न उसे कुछ ऊँघ पकड़ती है और न नींद। उसी का है जो कुछ आकाशों में और जो कुछ धरती में है। कौन है, जो उसके पास उसकी अनुमति के बिना अनुशंसा (सिफ़ारिश) करे? वह जानता है जो कुछ उनके सामने और जो कुछ उनके पीछे है। और वे उसके ज्ञान में से किसी चीज़ को (अपने ज्ञान से) नहीं घेर सकते, परंतु जितना वह चाहे। उसकी कुर्सी आकाशों और धरती को व्याप्त है और उन दोनों की रक्षा उसे नहीं थकाती। और वही सबसे ऊँचा, सबसे महान है।169
168. अर्थात जो स्वयं स्थित तथा सब उसकी सहायता से स्थित हैं। 169. यह क़ुरआन की सबसे महान आयत है। और इसका नाम "आयतुल कुर्सी" है। ह़दीस में इसकी बड़ी प्रधानता बताई गई है। (तफ़सीर इब्ने कसीर)
لَآ اِكْرَاهَ فِى الدِّيْنِۗ قَدْ تَّبَيَّنَ الرُّشْدُ مِنَ الْغَيِّ ۚ فَمَنْ يَّكْفُرْ بِالطَّاغُوْتِ وَيُؤْمِنْۢ بِاللّٰهِ فَقَدِ اسْتَمْسَكَ بِالْعُرْوَةِ الْوُثْقٰى لَا انْفِصَامَ لَهَا ۗوَاللّٰهُ سَمِيْعٌ عَلِيْمٌ٢٥٦
Lā ikrāha fid-dīn(i), qat tabayyanar-rusydu minal-gayy(i), famay yakfur biṭ-ṭāgūti wa yu'mim billāhi fa qadistamsaka bil-‘urwatil-wuṡqā, lanfiṣāma lahā, wallāhu samī‘un ‘alīm(un).
[256]
धर्म के मामले में कोई ज़ोर-ज़बरदस्ती नहीं। निःसंदेह सन्मार्ग, पथभ्रष्टता से स्पष्ट हो चुका है। अतः जो कोई ताग़ूत (अल्लाह के सिवा अन्य पूज्यों) का इनकार करे और अल्लाह पर ईमान लाए, तो निश्चय उसने मज़बूत कड़े को थाम लिया, जिसे किसी भी तरह टूटना नहीं। तथा अल्लाह सब कुछ सुनने वाला, सब कुछ जानने वाला है।170
170. आयत का भावार्थ यह है कि धर्म तथा आस्था के विषय में बल प्रयोग की अनुमति नहीं, धर्म दिल की आस्था और विश्वास की चीज़ है। जो शिक्षा-दीक्षा से पैदा हो सकता है, न कि बल प्रयोग और दबाव से। इसमें यह संकेत भी है कि इस्लाम में जिहाद अत्याचार को रोकने तथा सत्धर्म की रक्षा के लिए है, न कि धर्म के प्रसार के लिये। धर्म के प्रसार का साधन एक ही है, और वह प्रचार है, सत्य प्रकाश है। यदि अंधकार हो, तो केवल प्रकाश की आवश्यकता है। फिर प्रकाश जिस ओर फिरेगा तो अंधकार स्वयं दूर हो जाएगा।
اَللّٰهُ وَلِيُّ الَّذِيْنَ اٰمَنُوْا يُخْرِجُهُمْ مِّنَ الظُّلُمٰتِ اِلَى النُّوْرِۗ وَالَّذِيْنَ كَفَرُوْٓا اَوْلِيَاۤؤُهُمُ الطَّاغُوْتُ يُخْرِجُوْنَهُمْ مِّنَ النُّوْرِ اِلَى الظُّلُمٰتِۗ اُولٰۤىِٕكَ اَصْحٰبُ النَّارِۚ هُمْ فِيْهَا خٰلِدُوْنَ ࣖ٢٥٧
Allāhu waliyyul-lażīna āmanū yukhrijuhum minaẓ-ẓulumāti ilan-nūr(i), wal-lażīna kafarū auliyā'uhumuṭ-ṭāgūtu yukhrijuhum minan-nūri ilaẓ-ẓulumāt(i), ulā'ika aṣḥābun-nār(i), hum fīhā khālidūn(a).
[257]
अल्लाह ईमान वालों का दोस्त (संरक्षक) है, वह उन्हें अँधेरों से निकालकर प्रकाश की ओर लाता है। और काफ़िरों के दोस्त 'ताग़ूत' (असत्य पूज्य) हैं, वे उन्हें प्रकाश से निकालकर अँधेरों की ओर ले जाते हैं। ये लोग आग (जहन्नम) वाले हैं, वे उसमें हमेशा रहने वाले हैं।
اَلَمْ تَرَ اِلَى الَّذِيْ حَاۤجَّ اِبْرٰهٖمَ فِيْ رَبِّهٖٓ اَنْ اٰتٰىهُ اللّٰهُ الْمُلْكَ ۘ اِذْ قَالَ اِبْرٰهٖمُ رَبِّيَ الَّذِيْ يُحْيٖ وَيُمِيْتُۙ قَالَ اَنَا۠ اُحْيٖ وَاُمِيْتُ ۗ قَالَ اِبْرٰهٖمُ فَاِنَّ اللّٰهَ يَأْتِيْ بِالشَّمْسِ مِنَ الْمَشْرِقِ فَأْتِ بِهَا مِنَ الْمَغْرِبِ فَبُهِتَ الَّذِيْ كَفَرَ ۗوَاللّٰهُ لَا يَهْدِى الْقَوْمَ الظّٰلِمِيْنَۚ٢٥٨
Alam tara ilal-lażī ḥājja ibrāhīma fī rabbihī an ātāhullāhul-mulk(a), iż qāla ibrāhīmu rabbiyal-lażī yuḥyī wa yumīt(u), qāla ana uḥyī wa umīt(u), qāla ibrāhīmu fa innallāha ya'tī bisy-syamsi minal-masyriqi fa'ti bihā minal-magribi fabuhital-lażī kafar(a), wallāhu lā yahdil-qaumaẓ-ẓālimīn(a).
[258]
(ऐ नबी!) क्या तुमने उस व्यक्ति को नहीं देखा, जिसने इबराहीम से उसके पालनहार के विषय में झगड़ा किया, इस कारण कि अल्लाह ने उसे राज्य दिया था? जब इबराहीम ने कहा : मेरा पालनहार वह है, जो जीवित करता और मृत्यु देता है। उसने कहा : मैं भी जीवित करता और मृत्यु देता हूँ।171 इबराहीम ने कहा : निःसंदेह अल्लाह तो सूर्य को पूरब से लाता है, तो तू उसे पश्चिम से ले आ। (यह सुनकर) वह काफ़िर चकित रह गया और अल्लाह अत्याचारियों को मार्गदर्शन नहीं देता।
171. अर्थात जिसे चाहूँ मार दूँ और जिसे चाहूँ क्षमा कर दूँ। इस आयत में अल्लाह के विश्व व्यवस्थापक होने का प्रमाणीकरण है। और इसके पश्चात की आयत में उसके मुर्दे को जीवित करने की शक्ति का प्रमाणीकरण है।
اَوْ كَالَّذِيْ مَرَّ عَلٰى قَرْيَةٍ وَّهِيَ خَاوِيَةٌ عَلٰى عُرُوْشِهَاۚ قَالَ اَنّٰى يُحْيٖ هٰذِهِ اللّٰهُ بَعْدَ مَوْتِهَا ۚ فَاَمَاتَهُ اللّٰهُ مِائَةَ عَامٍ ثُمَّ بَعَثَهٗ ۗ قَالَ كَمْ لَبِثْتَ ۗ قَالَ لَبِثْتُ يَوْمًا اَوْ بَعْضَ يَوْمٍۗ قَالَ بَلْ لَّبِثْتَ مِائَةَ عَامٍ فَانْظُرْ اِلٰى طَعَامِكَ وَشَرَابِكَ لَمْ يَتَسَنَّهْ ۚ وَانْظُرْ اِلٰى حِمَارِكَۗ وَلِنَجْعَلَكَ اٰيَةً لِّلنَّاسِ وَانْظُرْ اِلَى الْعِظَامِ كَيْفَ نُنْشِزُهَا ثُمَّ نَكْسُوْهَا لَحْمًا ۗ فَلَمَّا تَبَيَّنَ لَهٗ ۙ قَالَ اَعْلَمُ اَنَّ اللّٰهَ عَلٰى كُلِّ شَيْءٍ قَدِيْرٌ٢٥٩
Au kal-lażī marra ‘alā qaryatiw wa hiya khāwiyatun ‘alā ‘urūsyihā, qāla annā yuḥyī hāżihillāhu ba‘da mautihā, fa'amātahullāhu mi'ata ‘āmin ṡumma ba‘aṡah(ū), qāla kam labiṡt(a), qāla labiṡtu yauman au ba‘ḍa yaum(in), qāla bal labiṡta mi'ata ‘āmin fanẓur ilā ṭa‘āmika wa syarābika lam yatasannah, wanẓur ilā ḥimārik(a), wa linaj‘alaka āyatal lin-nāsi wanẓur ilal-‘iẓāmi kaifa nunsyizuhā ṡumma naksūhā laḥmā(n), falammā tabayyana lah(ū), qāla a‘lamu annallāha ‘alā kulli syai'in qadīr(un).
[259]
अथवा उस व्यक्ति की तरह, जो एक बस्ती के पास से गुज़रा और वह अपनी छतों पर गिरी हुई थी? उसने कहा : अल्लाह इसे इसके मरने के बाद कैसे जीवित करेगा? तो अल्लाह ने उसे सौ वर्ष तक मृत्यु दे दी। फिर उसे जीवित किया। फरमाया : तू कितनी देर (मृत्यु अवस्था में) रहा? उसने कहा : मैं एक दिन अथवा दिन का कुछ हिस्सा रहा हूँ। (अल्लाह ने) कहा : बल्कि, तू सौ वर्ष रहा है। सो अपने खाने और अपने पीने की चीज़ें देख कि प्रभावित (ख़राब) नहीं हुईं तथा अपने गधे को देख, और ताकि हम तुझे लोगों के लिए एक निशानी बना दें, तथा (गधे की) हड्डियों को देख हम उन्हें कैसे उठाकर जोड़ते हैं, फिर उनपर मांस चढ़ाते हैं? फिर जब उसके लिए ख़ूब स्पष्ट हो गया, तो उसने172 कहा : मैं जानता हूँ कि निःसंदेह अल्लाह हर चीज़ पर सर्वशक्तिमान है।
172. इस व्यक्ति के विषय में भाष्यकारों ने विभेद किया है। परंतु संभवतः वह व्यक्ति "उज़ैर" थे। और नगरी "बैतुल मक़्दिस" थी। जिसे बुख़्त नस्सर राजा ने आक्रमण करके उजाड़ दिया था। (तफ़सीर इब्ने कसीर)
وَاِذْ قَالَ اِبْرٰهٖمُ رَبِّ اَرِنِيْ كَيْفَ تُحْيِ الْمَوْتٰىۗ قَالَ اَوَلَمْ تُؤْمِنْ ۗقَالَ بَلٰى وَلٰكِنْ لِّيَطْمَىِٕنَّ قَلْبِيْ ۗقَالَ فَخُذْ اَرْبَعَةً مِّنَ الطَّيْرِ فَصُرْهُنَّ اِلَيْكَ ثُمَّ اجْعَلْ عَلٰى كُلِّ جَبَلٍ مِّنْهُنَّ جُزْءًا ثُمَّ ادْعُهُنَّ يَأْتِيْنَكَ سَعْيًا ۗوَاعْلَمْ اَنَّ اللّٰهَ عَزِيْزٌ حَكِيْمٌ ࣖ٢٦٠
Wa iż qāla ibrāhīmu rabbi arinī kaifa tuḥyil-mautā, qāla awalam tu'min, qāla balā wa lākil liyaṭma'inna qalbī, qāla fakhuż arba‘atam minaṭ-ṭairi faṣurhunna ilaika ṡummaj‘al ‘alā kulli jabalim minhunna juz'an ṡummad‘uhunna ya'tīnaka sa‘yā(n), wa‘lam annallāha ‘azīzun ḥakīm(un).
[260]
तथा (याद करें) जब इबराहीम ने कहा : ऐ मेरे पालनहार! मुझे दिखा कि तू मरे हुए लोगों को कैसे ज़िंदा करेगा? (अल्लाह ने) कहा : क्या तुमने विश्वास नहीं किया? उसने कहा : क्यों नहीं? लेकिन इसलिए कि मेरे दिल को (पूर्ण) संतोष हो जाए। (अल्लाह ने) कहा : फिर चार पक्षी लो और उन्हें अपने से परचा लो। फिर हर पर्वत पर उनका एक हिस्सा रख दो। फिर उन्हें बुलाओ। वे तुम्हारे पास दौड़े चले आएँगे। और यह (अच्छी तरह) जान लो कि निःसंदेह अल्लाह सब पर प्रभुत्वशाली, पूर्ण हिकमत वाला है।
مَثَلُ الَّذِيْنَ يُنْفِقُوْنَ اَمْوَالَهُمْ فِيْ سَبِيْلِ اللّٰهِ كَمَثَلِ حَبَّةٍ اَنْۢبَتَتْ سَبْعَ سَنَابِلَ فِيْ كُلِّ سُنْۢبُلَةٍ مِّائَةُ حَبَّةٍ ۗ وَاللّٰهُ يُضٰعِفُ لِمَنْ يَّشَاۤءُ ۗوَاللّٰهُ وَاسِعٌ عَلِيْمٌ٢٦١
Maṡalul-lażīna yunfiqūna amwālahum fī sabīlillāhi kamaṡali ḥabbatin ambatat sab‘a sanābila fī kulli sumbulatim mi'atu ḥabbah(tin), wallāhu yuḍā‘ifu limay yasyā'(u), wallāhu wāsi‘un ‘alīm(un).
[261]
उन लोगों का उदाहरण जो अपने माल अल्लाह के मार्ग में ख़र्च करते हैं, एक दाने के उदाहरण की तरह है जिसने सात बालियाँ उगाईं, प्रत्येक बाली में सौ दाने हैं। और अल्लाह जिसके लिए चाहता है, बढ़ा देता है तथा अल्लाह विस्तार वाला173, सब कुछ जानने वाला है।
173. अर्थात उसका प्रदान विशाल है, और वह उसके योग्य को जानता है।
اَلَّذِيْنَ يُنْفِقُوْنَ اَمْوَالَهُمْ فِيْ سَبِيْلِ اللّٰهِ ثُمَّ لَا يُتْبِعُوْنَ مَآ اَنْفَقُوْا مَنًّا وَّلَآ اَذًىۙ لَّهُمْ اَجْرُهُمْ عِنْدَ رَبِّهِمْۚ وَلَا خَوْفٌ عَلَيْهِمْ وَلَا هُمْ يَحْزَنُوْنَ٢٦٢
Allażīna yunfiqūna amwālahum fī sabīlillāhi ṡumma lā yutbi‘ūna mā anfaqū mannaw wa lā ażā(n), lahum ajruhum ‘inda rabbihim, wa lā khaufun ‘alaihim wa lā hum yaḥzanūn(a).
[262]
जो लोग अपना धन अल्लाह के मार्ग में ख़र्च करते हैं, फिर उन्होंने जो खर्च किया उसके बाद न किसी प्रकार का उपकार जताते हैं और न कोई कष्ट पहुँचाते हैं, उनके लिए उनका प्रतिफल उनके पालनहार के पास है और उनपर न कोई डर है और न वे शोकाकुल174 होंगे।
174. अर्थात संसार में दान न करने पर कोई संताप होगा।
۞ قَوْلٌ مَّعْرُوْفٌ وَّمَغْفِرَةٌ خَيْرٌ مِّنْ صَدَقَةٍ يَّتْبَعُهَآ اَذًى ۗ وَاللّٰهُ غَنِيٌّ حَلِيْمٌ٢٦٣
Qaulum ma‘rūfuw wa magfiratun khairum min ṣadaqatiy yatba‘uhā ażā(n), wallāhu ganiyyun ḥalīm(un).
[263]
भली बात कहना तथा क्षमा कर देना, उस दान से बेहतर है, जिसके पीछे किसी प्रकार का कष्ट पहुँचाना हो। और अल्लाह बहुत बेनियाज़, अत्यंत सहनशील है।
يٰٓاَيُّهَا الَّذِيْنَ اٰمَنُوْا لَا تُبْطِلُوْا صَدَقٰتِكُمْ بِالْمَنِّ وَالْاَذٰىۙ كَالَّذِيْ يُنْفِقُ مَالَهٗ رِئَاۤءَ النَّاسِ وَلَا يُؤْمِنُ بِاللّٰهِ وَالْيَوْمِ الْاٰخِرِۗ فَمَثَلُهٗ كَمَثَلِ صَفْوَانٍ عَلَيْهِ تُرَابٌ فَاَصَابَهٗ وَابِلٌ فَتَرَكَهٗ صَلْدًا ۗ لَا يَقْدِرُوْنَ عَلٰى شَيْءٍ مِّمَّا كَسَبُوْا ۗ وَاللّٰهُ لَا يَهْدِى الْقَوْمَ الْكٰفِرِيْنَ٢٦٤
Yā ayyuhal-lażīna āmanū lā tubṭilū ṣadaqātikum bil-manni wal-ażā, kal-lażī yunfiqu mālahū ri'ā'an-nāsi wa lā yu'minu billāhi wal-yaumil-ākhir(i), fa maṡaluhū kamaṡali ṣafwānin ‘alaihi turābun fa'aṣābahū wābilun fatarakahū ṣaldā(n), lā yaqdirūna ‘alā syai'im mimmā kasabū, wallāhu lā yahdil-qaumal-kāfirīn(a).
[264]
ऐ ईमान वालो! अपने दान को उपकार जताकर और कष्ट पहुँचाकर नष्ट न करो, उस व्यक्ति की तरह, जो अपना धन लोगों को दिखाने के लिए खर्च करता है और अल्लाह तथा अंतिम दिन पर ईमान नहीं रखता। तो उसका उदाहरण एक चिकने पत्थर के उदाहरण जैसा है, जिसपर थोड़ी-सी मिट्टी हो, फिर उसपर एक ज़ोर की वर्षा हो, तो उसे एक साफ़ चट्टान की दशा में छोड़ जाए। वे उसमें से किसी चीज़ पर सक्षम नहीं हो सकेंगे जो उन्होंने कमाया, और अल्लाह काफ़िर लोगों का मार्गदर्शन नहीं करता।
وَمَثَلُ الَّذِيْنَ يُنْفِقُوْنَ اَمْوَالَهُمُ ابْتِغَاۤءَ مَرْضَاتِ اللّٰهِ وَتَثْبِيْتًا مِّنْ اَنْفُسِهِمْ كَمَثَلِ جَنَّةٍۢ بِرَبْوَةٍ اَصَابَهَا وَابِلٌ فَاٰتَتْ اُكُلَهَا ضِعْفَيْنِۚ فَاِنْ لَّمْ يُصِبْهَا وَابِلٌ فَطَلٌّ ۗوَاللّٰهُ بِمَا تَعْمَلُوْنَ بَصِيْرٌ٢٦٥
Wa maṡalul-lażīna yunfiqūna amwālahumubtigā'a marḍātillāhi wa taṡbītam min anfusihim kamaṡali jannatim birabwatin aṣābahā wābilun fa'ātat ukulahā ḍi‘fain(i), fa'illam yuṣibhā wābilun faṭall(un), wallāhu bimā ta‘malūna baṣīr(un).
[265]
तथा उन लोगों का उदाहरण, जो अपना धन अल्लाह की प्रसन्नता चाहते हुए और अपने दिलों को स्थिर रखते हुए ख़र्च करते हैं, उस बाग़ के उदाहरण जैसा है, जो किसी ऊँचे स्थान पर हो, जिसपर एक भारी बारिश बरसे, तो वह अपना फल दोगुना कर दे। फिर यदि उसपर भारी बारिश न बरसे, तो एक हल्की बारिश ही काफ़ी175 हो। तथा अल्लाह जो कुछ तुम कर रहे हो, उसे ख़ूब देखने वाला है।
175. यहाँ से अल्लाह की प्रसन्नता के लिए जिहाद तथा दीन-दुखियों की सहायता के लिए धन दान करने की विभिन्न रूप से प्रेरणा दी जा रही है। भावार्थ यह है कि यदि निःस्वार्थता से थोड़ा दान भी किया जाए, तो शुभ होता है, जैसे वर्षा की फुहारें भी एक बाग़ को हरा भरा कर देती हैं।
اَيَوَدُّ اَحَدُكُمْ اَنْ تَكُوْنَ لَهٗ جَنَّةٌ مِّنْ نَّخِيْلٍ وَّاَعْنَابٍ تَجْرِيْ مِنْ تَحْتِهَا الْاَنْهٰرُۙ لَهٗ فِيْهَا مِنْ كُلِّ الثَّمَرٰتِۙ وَاَصَابَهُ الْكِبَرُ وَلَهٗ ذُرِّيَّةٌ ضُعَفَاۤءُۚ فَاَصَابَهَآ اِعْصَارٌ فِيْهِ نَارٌ فَاحْتَرَقَتْ ۗ كَذٰلِكَ يُبَيِّنُ اللّٰهُ لَكُمُ الْاٰيٰتِ لَعَلَّكُمْ تَتَفَكَّرُوْنَ ࣖ٢٦٦
Ayawaddu aḥadukum an takūna lahū jannatum min nakhīliw wa a‘nābin tajrī min taḥtihal-anhār(u), lahū fīhā min kulliṡ-ṡamarāt(i), wa aṣābahul-kibaru wa lahū żurriyyatun ḍu‘afā'(u), fa'aṣābahā i‘ṣārun fīhi nārun faḥtaraqat, każālika yubayyinullāhu lakumul-āyāti la‘allakum tatafakkarūn(a).
[266]
क्या तुममें से कोई चाहेगा कि उसके पास खजूरों तथा अँगूरों का एक बाग़ हो, जिसके नीचे से नहरें बहती हों, उसमें उसके लिए प्रत्येक प्रकार के कुछ न कुछ फल हों और उसे बुढ़ापा आ जाए और उसके कमज़ोर बच्चे हों, फिर उस (बाग़) पर एक बगूला आ पहुँचे जिसमें एक आग हो, तो वह जल के राख हो जाए।176 इसी तरह अल्लाह तुम्हारे लिए निशानियाँ उजागर करता है, ताकि तुम सोच-विचार करो।
176. अर्थात यही दशा प्रलय के दिन काफ़िर की होगी। उसके पास फल पाने के लिए कोई कर्म नहीं होगा। और न कर्म करने का अवसर होगा। तथा जैसे उसके निर्बल बच्चे उसके काम नहीं आ सके, उसी प्रकार उसका दिखावे का दान भी काम नहीं आएगा, वह अपनी आवश्यकता के समय अपने कर्मों के फल से वंचित कर दिया जाएगा। जैसे इस व्यक्ति ने अपने बुढ़ापे तथा बच्चों की निर्बलता के समय अपना बाग़ खो दिया।
يٰٓاَيُّهَا الَّذِيْنَ اٰمَنُوْٓا اَنْفِقُوْا مِنْ طَيِّبٰتِ مَا كَسَبْتُمْ وَمِمَّآ اَخْرَجْنَا لَكُمْ مِّنَ الْاَرْضِ ۗ وَلَا تَيَمَّمُوا الْخَبِيْثَ مِنْهُ تُنْفِقُوْنَ وَلَسْتُمْ بِاٰخِذِيْهِ اِلَّآ اَنْ تُغْمِضُوْا فِيْهِ ۗ وَاعْلَمُوْٓا اَنَّ اللّٰهَ غَنِيٌّ حَمِيْدٌ٢٦٧
Yā ayyuhal-lażīna āmanū anfiqū min ṭayyibāti mā kasabtum wa mimmā akhrajnā lakum minal-arḍ(i), wa lā tayammamul-khabīṡa minhu tunfiqūna wa lastum bi'ākhiżīhi illā an tugmiḍū fīh(i), wa‘lamū annallāha ganiyyun ḥamīd(un).
[267]
ऐ ईमान वालो! उन पाक और अच्छी चीज़ों में से ख़र्च करो जो तुमने कमाई हैं तथा उनमें से भी, जो हमने तुम्हारे लिए धरती से निकाली हैं तथा उसमें से रद्दी चीज़ का इरादा न करो, जिसे तुम खर्च करते हो, हालाँकि तुम उसे बिल्कुल लेने वाले नहीं, सिवाय इसके कि तुम उसके बारे में अनदेखी कर जाओ। तथा जान लो कि अल्लाह बड़ा बेनियाज़, बहुत ख़ूबियों वाला है।
اَلشَّيْطٰنُ يَعِدُكُمُ الْفَقْرَ وَيَأْمُرُكُمْ بِالْفَحْشَاۤءِ ۚ وَاللّٰهُ يَعِدُكُمْ مَّغْفِرَةً مِّنْهُ وَفَضْلًا ۗ وَاللّٰهُ وَاسِعٌ عَلِيْمٌ ۖ٢٦٨
Asy-syaiṭānu ya‘idukumul-faqra wa ya'murukum bil-faḥsyā'(i), wallāhu ya‘idukum magfiratam minhu wa faḍlā(n), wallāhu wāsi'un ‘alīm(un).
[268]
शैतान तुम्हें निर्धनता से डराता है तथा निर्लज्जता का आदेश देता है, जबकि अल्लाह तुम्हें अपनी ओर से क्षमा और अनुग्रह का वादा देता है। तथा अल्लाह विस्तार वाला, सब कुछ जानने वाला है।
يُّؤْتِى الْحِكْمَةَ مَنْ يَّشَاۤءُ ۚ وَمَنْ يُّؤْتَ الْحِكْمَةَ فَقَدْ اُوْتِيَ خَيْرًا كَثِيْرًا ۗ وَمَا يَذَّكَّرُ اِلَّآ اُولُوا الْاَلْبَابِ٢٦٩
Yu'til-ḥikmata may yasyā'(u), wa may yu'tal-ḥikmata faqad ūtiya khairan kaṡīrā(n), wa mā yażżakkaru ilā ulul-albāb(i).
[269]
वह जिसे चाहता है, हिकमत प्रदान करता है और जिसे हिकमत प्रदान कर दी जाए, तो निःसंदेह उसे बड़ी भलाई दे दी गई। और उपदेश वही ग्रहण करते हैं, जो बुद्धि वाले हैं।
وَمَآ اَنْفَقْتُمْ مِّنْ نَّفَقَةٍ اَوْ نَذَرْتُمْ مِّنْ نَّذْرٍ فَاِنَّ اللّٰهَ يَعْلَمُهٗ ۗ وَمَا لِلظّٰلِمِيْنَ مِنْ اَنْصَارٍ٢٧٠
Wa mā anfaqtum min nafaqatin au nażartum min nażrin fa innallāha ya‘lamuh(ū), wa mā liẓ-ẓālimīna min anṣār(in).
[270]
तथा तुम जो भी दान करो अथवा मन्नत177 मानो, तो निःसंदेह अल्लाह उसे जानता है और अत्याचारियों के लिए कोई सहायक नहीं।
177. अर्थात स्वयं पर इबादत का वह कार्य अनिवार्य कर लेना जो अनिवार्य नहीं है।
اِنْ تُبْدُوا الصَّدَقٰتِ فَنِعِمَّا هِيَۚ وَاِنْ تُخْفُوْهَا وَتُؤْتُوْهَا الْفُقَرَاۤءَ فَهُوَ خَيْرٌ لَّكُمْ ۗ وَيُكَفِّرُ عَنْكُمْ مِّنْ سَيِّاٰتِكُمْ ۗ وَاللّٰهُ بِمَا تَعْمَلُوْنَ خَبِيْرٌ٢٧١
In tubduṣ-ṣadaqāti fani‘immā hiy(a), wa in tukhfūhā wa tu'tūhal-fuqarā'a fahuwa khairul lakum, wa yukaffiru ‘ankum min sayyi'ātikum, wallāhu bimā ta‘malūna khabīr(un).
[271]
यदि तुम खुले तौर पर दान करो, तो यह अच्छी बात है और यदि उन्हें छिपाओ और उन्हें ग़रीबों को दे दो, तो यह तुम्हारे लिए ज़्यादा अच्छा178 है। और यह तुमसे तुम्हारे कुछ पापों को दूर कर देगा तथा अल्लाह उससे जो तुम कर रहे हो, पूरी तरह अवगत है।
178. आयत का भावार्थ यह है कि दिखावे के दान से रोकने का यह अर्थ नहीं है कि छुपा कर ही दान दिया जाए, बल्कि उसका अर्थ केवल यह है कि निःस्वार्थ दान जैसे भी दिया जाए, उसका प्रतिफल मिलेगा।
۞ لَيْسَ عَلَيْكَ هُدٰىهُمْ وَلٰكِنَّ اللّٰهَ يَهْدِيْ مَنْ يَّشَاۤءُ ۗوَمَا تُنْفِقُوْا مِنْ خَيْرٍ فَلِاَنْفُسِكُمْ ۗوَمَا تُنْفِقُوْنَ اِلَّا ابْتِغَاۤءَ وَجْهِ اللّٰهِ ۗوَمَا تُنْفِقُوْا مِنْ خَيْرٍ يُّوَفَّ اِلَيْكُمْ وَاَنْتُمْ لَا تُظْلَمُوْنَ٢٧٢
Laisa ‘alaika hudāhum wa lākinnallāha yahdī may yasyā'(u), wa mā tunfiqū min khairin fa li'anfusikum, wa mā tunfiqūna illabtigā'a wajhillāh(i), wa mā tunfiqū min khairiy yuwaffa ilaikum wa antum lā tuẓlamūn(a).
[272]
(ऐ नबी!) उन्हें हिदायत देना, आपका दायित्व नहीं; परंतु अल्लाह जिसे चाहता है, हिदायत देता है तथा तुम जो भी धन ख़र्च करोगे, तो तुम्हारे अपने ही (भले के) लिए है और तुम अल्लाह की प्रसन्नता प्राप्त करने के लिए ही ख़र्च करते हो। तथा तुम जो भी धन ख़र्च करोगे, तुम्हें उसका भरपूर बदला दिया जाएगा और तुमपर अत्याचार179 नहीं किया जाएगा।
179. अर्थात उसके प्रतिफल में कोई कमी न की जाएगी।
لِلْفُقَرَاۤءِ الَّذِيْنَ اُحْصِرُوْا فِيْ سَبِيْلِ اللّٰهِ لَا يَسْتَطِيْعُوْنَ ضَرْبًا فِى الْاَرْضِۖ يَحْسَبُهُمُ الْجَاهِلُ اَغْنِيَاۤءَ مِنَ التَّعَفُّفِۚ تَعْرِفُهُمْ بِسِيْمٰهُمْۚ لَا يَسْـَٔلُوْنَ النَّاسَ اِلْحَافًا ۗوَمَا تُنْفِقُوْا مِنْ خَيْرٍ فَاِنَّ اللّٰهَ بِهٖ عَلِيْمٌ ࣖ٢٧٣
Lil-fuqarā'il-lażīna uḥṣirū fī sabīlillāhi lā yastaṭī‘ūna ḍarban fil-arḍi yaḥsabuhumul-jāhilu agniyā'a minat-ta‘affuf(i), ta‘rifuhum bisīmāhum, lā yas'alūnan-nāsa ilḥāfā(n), wa mā tunfiqū min khairin fa innallāha bihī ‘alīm(un).
[273]
(यह दान) उन निर्धनों के लिए है, जो अल्लाह के मार्ग में रोके गए हैं, धरती में यात्रा नहीं कर सकते180, अनजान उन्हें किसी के सामने हाथ फैलाने से बचने के कारण धनवान् समझता है, तुम उन्हें उनके लक्षणों से पहचान लोगे, वे लोगों के पीछे पड़कर नहीं माँगते। तथा तुम जो भी धन ख़र्च करोगे, तो निश्चय अल्लाह उसे भली-भाँति जानने वाला है।
180. इससे सांकेतिक वे मुहाजिर हैं जो मक्का से मदीना हिज्रत कर गए। जिसके कारण उनका सारा सामान मक्का में छूट गया और अब उनके पास कुछ भी नहीं बचा। परंतु वे लोगों के सामने हाथ फैलाकर भीख नहीं माँगते।
اَلَّذِيْنَ يُنْفِقُوْنَ اَمْوَالَهُمْ بِالَّيْلِ وَالنَّهَارِ سِرًّا وَّعَلَانِيَةً فَلَهُمْ اَجْرُهُمْ عِنْدَ رَبِّهِمْۚ وَلَا خَوْفٌ عَلَيْهِمْ وَلَا هُمْ يَحْزَنُوْنَ٢٧٤
Allażīna yunfiqūna amwālahum bil-laili wan-nahāri sirraw wa ‘alāniyatan falahum ajruhum ‘inda rabbihim, wa lā khaufun ‘alaihim wa lā hum yaḥzanūn(a).
[274]
जो लोग अपने धन रात और दिन, छिपे और खुले खर्च करते हैं, तो उनके लिए उनका प्रतिफल उनके पालनहार के पास है और उन्हें न कोई डर है और न वे शोकाकुल होंगे।
اَلَّذِيْنَ يَأْكُلُوْنَ الرِّبٰوا لَا يَقُوْمُوْنَ اِلَّا كَمَا يَقُوْمُ الَّذِيْ يَتَخَبَّطُهُ الشَّيْطٰنُ مِنَ الْمَسِّۗ ذٰلِكَ بِاَنَّهُمْ قَالُوْٓا اِنَّمَا الْبَيْعُ مِثْلُ الرِّبٰواۘ وَاَحَلَّ اللّٰهُ الْبَيْعَ وَحَرَّمَ الرِّبٰواۗ فَمَنْ جَاۤءَهٗ مَوْعِظَةٌ مِّنْ رَّبِّهٖ فَانْتَهٰى فَلَهٗ مَا سَلَفَۗ وَاَمْرُهٗٓ اِلَى اللّٰهِ ۗ وَمَنْ عَادَ فَاُولٰۤىِٕكَ اَصْحٰبُ النَّارِ ۚ هُمْ فِيْهَا خٰلِدُوْنَ٢٧٥
Allażīna ya'kulūnar-ribā lā yaqūmūna illā kamā yaqūmul-lażī yatakhabbaṭuhusy-syaiṭānu minal-mass(i), żālika bi'annahum qālū innamal-bai‘u miṡlur-ribā, wa aḥallallāhul-bai‘a wa ḥarramar-ribā, faman jā'ahū mau‘iẓatum mir rabbihī fantahā falahū mā salaf(a), wa amruhū ilallāh(i), wa man ‘āda fa ulā'ika aṣḥābun-nār(i), hum fīhā khālidūn(a).
[275]
जो लोग ब्याज खाते हैं, वे (क़ियामत के दिन अपनी क़ब्रोंं से) ऐसे उठेंगे, जैसे वह व्यक्ति उठता है, जिसे शैतान ने छूकर पागल बना दिया हो। यह इसलिए कि उन्होंने कहा व्यापार तो ब्याज ही जैसा है। हालाँकि अल्लाह ने व्यापार को ह़लाल (वैध) किया तथा ब्याज को हराम181 (अवैध) ठहराया। फिर जिसके पास उसके पालनहार की ओर से कोई उपदेश आए, सो वह (ब्याज खाने से) रुक जाए, तो जो पहले हो चुका, वह उसी का है और उसका मामला अल्लाह के हवाले है। और जो दोबारा ऐसा करे, तो वही आग वाले हैं, वे उसमें हमेशा रहने वाले हैं।
181. इस्लाम मानव में परस्पर प्रेम तथा सहानुभूति उत्पन्न करना चाहता है, इसी कारण उसने दान करने का निर्देश दिया है कि एक मानव दूसरे की आवश्यकता पूर्ति करे। तथा उसकी आवश्यकता को अपनी आवश्यकता समझे। परंतु ब्याज खाने की मानसिकता सर्वथा इसके विपरीत है। ब्याज भक्षी किसी की आवश्यकता को देखता है, तो उसके भीतर उसकी सहायता की भावना उत्पन्न नहीं होती। वह उसकी विवशता से अपना स्वार्थ पूरा करता तथा उसकी आवश्यकता को अपने धनी होने का साधन बनाता है। और क्रमशः एक निर्दयी हिंसक पशु बनकर रह जाता है, इसके सिवा ब्याज की रीति धन को सीमित करती है, जबकि इस्लाम धन को फैलाना चाहता है, इसके लिए ब्याज को मिटाना, तथा दान की भावना का उत्थान चाहता है। यदि दान की भावना का पूर्णतः उत्थान हो जाए तो कोई व्यक्ति दीन तथा निर्धन रह ही नहीं सकता।
يَمْحَقُ اللّٰهُ الرِّبٰوا وَيُرْبِى الصَّدَقٰتِ ۗ وَاللّٰهُ لَا يُحِبُّ كُلَّ كَفَّارٍ اَثِيْمٍ٢٧٦
Yamḥaqullāhur-ribā wa yurbiṣ-ṣadaqāt(i), wallāhu lā yuḥibbu kulla kaffārin aṡīm(in).
[276]
अल्लाह ब्याज को मिटाता है और दान को बढ़ाता है और अल्लाह किसी ऐसे व्यक्ति को पसंद नहीं करता जो बहुत अकृतज्ञ, घोर पापी हो।
اِنَّ الَّذِيْنَ اٰمَنُوْا وَعَمِلُوا الصّٰلِحٰتِ وَاَقَامُوا الصَّلٰوةَ وَاٰتَوُا الزَّكٰوةَ لَهُمْ اَجْرُهُمْ عِنْدَ رَبِّهِمْۚ وَلَا خَوْفٌ عَلَيْهِمْ وَلَا هُمْ يَحْزَنُوْنَ٢٧٧
Innal-lażīna āmanū wa ‘amiluṣ-ṣāliḥāti wa aqāmuṣ-ṣalāta wa ātuz-zakāta lahum ajruhum ‘inda rabbihim, wa lā khaufun ‘alaihim wa lā hum yaḥzanūn(a).
[277]
निःसंदेह जो लोग ईमान लाए और उन्होंने अच्छे कार्य किए और नमाज़ क़ायम की और ज़कात दी, उनके लिए उनका प्रतिफल उनके पालनहार के पास है और उनपर न कोई भय है और न वे शोकाकुल होंगे।
يٰٓاَيُّهَا الَّذِيْنَ اٰمَنُوا اتَّقُوا اللّٰهَ وَذَرُوْا مَا بَقِيَ مِنَ الرِّبٰوٓا اِنْ كُنْتُمْ مُّؤْمِنِيْنَ٢٧٨
Yā ayyuhal-lażīna āmanuttaqullāha wa żarū mā baqiya minar-ribā in kuntum mu'minīn(a).
[278]
ऐ ईमान वालो! अल्लाह से डरो और ब्याज में से जो शेष रह गया है, उसे छोड़ दो, यदि तुम ईमान रखने वाले हो।
فَاِنْ لَّمْ تَفْعَلُوْا فَأْذَنُوْا بِحَرْبٍ مِّنَ اللّٰهِ وَرَسُوْلِهٖۚ وَاِنْ تُبْتُمْ فَلَكُمْ رُءُوْسُ اَمْوَالِكُمْۚ لَا تَظْلِمُوْنَ وَلَا تُظْلَمُوْنَ٢٧٩
Fa'illam taf‘alū fa'żanū biḥarbim minallāhi wa rasūlih(ī), wa in tubtum falakum ru'ūsu amwālikum, lā taẓlimūna wa lā tuẓlamūn(a).
[279]
फिर यदि तुमने ऐसा न किया, तो अल्लाह और उसके रसूल की ओर से युद्ध की घोषणा से सावधान हो जाओ। और यदि तुम तौबा कर लो, तो तुम्हारे लिए तुम्हारे मूलधन हैं, न तुम अत्याचार करोगे182 और न तुमपर अत्याचार किया जाएगा।
182. अर्थात मूल धन से अधिक नहीं लोगे।
وَاِنْ كَانَ ذُوْ عُسْرَةٍ فَنَظِرَةٌ اِلٰى مَيْسَرَةٍ ۗ وَاَنْ تَصَدَّقُوْا خَيْرٌ لَّكُمْ اِنْ كُنْتُمْ تَعْلَمُوْنَ٢٨٠
Wa in kāna żū ‘usratin fanaẓiratun ilā maisarah(tin), wa an taṣaddaqū khairul lakum in kuntum ta‘lamūn(a).
[280]
और यदि कोई तंगी वाला हो, तो (उसे) आसानी तक मोहलत देनी चाहिए और दान कर दो, तो यह तुम्हारे लिए बेहतर है, यदि तुम जानते हो।
وَاتَّقُوْا يَوْمًا تُرْجَعُوْنَ فِيْهِ اِلَى اللّٰهِ ۗثُمَّ تُوَفّٰى كُلُّ نَفْسٍ مَّا كَسَبَتْ وَهُمْ لَا يُظْلَمُوْنَ ࣖ٢٨١
Wattaqū yauman turja‘ūna fīhi ilallāh(i), ṡumma tuwaffā kullu nafsim mā kasabat wa hum lā yuẓlamūn(a).
[281]
तथा उस दिन से डरो, जिसमें तुम अल्लाह की ओर लौटाए जाओगे, फिर प्रत्येक प्राणी को उसके किए हुए का पूरा बदला दिया जाएगा तथा उनपर अत्याचार नहीं किया जाएगा।
يٰٓاَيُّهَا الَّذِيْنَ اٰمَنُوْٓا اِذَا تَدَايَنْتُمْ بِدَيْنٍ اِلٰٓى اَجَلٍ مُّسَمًّى فَاكْتُبُوْهُۗ وَلْيَكْتُبْ بَّيْنَكُمْ كَاتِبٌۢ بِالْعَدْلِۖ وَلَا يَأْبَ كَاتِبٌ اَنْ يَّكْتُبَ كَمَا عَلَّمَهُ اللّٰهُ فَلْيَكْتُبْۚ وَلْيُمْلِلِ الَّذِيْ عَلَيْهِ الْحَقُّ وَلْيَتَّقِ اللّٰهَ رَبَّهٗ وَلَا يَبْخَسْ مِنْهُ شَيْـًٔاۗ فَاِنْ كَانَ الَّذِيْ عَلَيْهِ الْحَقُّ سَفِيْهًا اَوْ ضَعِيْفًا اَوْ لَا يَسْتَطِيْعُ اَنْ يُّمِلَّ هُوَ فَلْيُمْلِلْ وَلِيُّهٗ بِالْعَدْلِۗ وَاسْتَشْهِدُوْا شَهِيْدَيْنِ مِنْ رِّجَالِكُمْۚ فَاِنْ لَّمْ يَكُوْنَا رَجُلَيْنِ فَرَجُلٌ وَّامْرَاَتٰنِ مِمَّنْ تَرْضَوْنَ مِنَ الشُّهَدَۤاءِ اَنْ تَضِلَّ اِحْدٰىهُمَا فَتُذَكِّرَ اِحْدٰىهُمَا الْاُخْرٰىۗ وَلَا يَأْبَ الشُّهَدَۤاءُ اِذَا مَا دُعُوْا ۗ وَلَا تَسْـَٔمُوْٓا اَنْ تَكْتُبُوْهُ صَغِيْرًا اَوْ كَبِيْرًا اِلٰٓى اَجَلِهٖۗ ذٰلِكُمْ اَقْسَطُ عِنْدَ اللّٰهِ وَاَقْوَمُ لِلشَّهَادَةِ وَاَدْنٰىٓ اَلَّا تَرْتَابُوْٓا اِلَّآ اَنْ تَكُوْنَ تِجَارَةً حَاضِرَةً تُدِيْرُوْنَهَا بَيْنَكُمْ فَلَيْسَ عَلَيْكُمْ جُنَاحٌ اَلَّا تَكْتُبُوْهَاۗ وَاَشْهِدُوْٓا(...)٢٨٢
Yā ayyuhal-lażīna āmanū iżā tadāyantum bidainin ilā ajalim musamman faktubūh(u), walyaktub bainakum kātibum bil-‘adl(i), wa lā ya'ba kātibun ay yaktuba kamā ‘allamahullāhu falyaktub, walyumlilil-lażī ‘alaihil-ḥaqqu walyattaqillāha rabbahū wa lā yabkhas minhu syai'ā(n), fa'in kānal-lażī ‘alaihil-ḥaqqu safīhan au ḍa‘īfan au lā yastaṭī‘u ay yumilla huwa falyumlil waliyyuhū bil-‘adl(i), wastasyhidū syahīdaini mir rijāliūkum, fa'illam yakūnā rajulaini farajuluw wamra'atāni mimman tarḍauna minasy-syuhadā'i an taḍilla iḥdāhumā fatużakkira iḥdāhumal-ukhrā, wa lā ya'basy-syuhadā'u iżā mā du‘ū, wa lā tas'amū an taktubūhu ṣagīran au kabīran ilā ajalih(ī), żālikum aqsaṭu ‘indallāhi wa aqwamu lisy-syahādati wa adnā allā tartābū illā an takūna tijāratan ḥāḍiratan tudīrūnahā bainakum falaisa ‘alaikum junāḥun allā taktubūhā, wa asyhidū iżā tabāya‘tum, wa lā yuḍārra kātibuw wa lā syahīd(un), wa in taf‘alū fa'innahū fusūqum bikum, wattaqullāh(a), wa yu‘allimukumullāh(u), wallāhu bikulli syai'in ‘alīm(un).
[282]
ऐ ईमान वालो! जब तुम आपस में एक निश्चित अवधि के लिए उधार का लेन-देन करो, तो उसे लिख लिया करो। और एक लिखने वाला तुम्हारे बीच न्याय के साथ लिखे। और कोई लिखने वाला उस तरह लिखने से इनकार न करे, जैसे अल्लाह ने उसे सिखाया है। सो उसे चाहिए कि लिखे और वह व्यक्ति लिखवाए जिसपर हक़ (क़र्ज़) हो, तथा वह अपने पालनहार अल्लाह से डरे और उस (कर्ज़) में से कुछ भी कम न करे। फिर यदि वह व्यक्ति जिसके ज़िम्मे हक़ (क़र्ज़) है, नासमझ या कमज़ोर है, या वह स्वयं लिखवाने में सक्षम न हो, तो उसका वली (अभिभावक) न्याय के साथ लिखवा दे। तथा अपने पुरुषों में से दो गवाहों को गवाह बना लो। फिर यदि दो पुरुष न हों, तो एक पुरुष तथा दो स्त्रियाँ उन लोगों में से जिन्हें तुम गवाहों में से पसंद करते हो। (इसलिए) कि दोनों में से एक भूल जाए, तो उनमें से एक दूसरी को याद दिला दे। तथा गवाह जब भी बुलाए जाएँ, इनकार न करें। तथा मामला छोटा हो या बड़ा, उसे उसकी अवधि तक लिखने से न उकताओ। यह काम अल्लाह के निकट अधिक न्यायसंगत, तथा गवाही को अधिक ठीक रखने वाला है और अधिक निकट है कि तुम संदेह में न पड़ो, परंतु यह कि नक़द सौदा हो, जिसका तुम आपस में लेन-देन करते हो, तो उसे न लिखने में तुमपर कोई दोष नहीं। तथा जब आपस में क्रय-विक्रय करो, तो गवाह बना लिया करो। और न किसी लिखने वाले को हानि पहुँचाई जाए और न किसी गवाह को। और यदि ऐसा करोगो, तो निःसंदेह यह तुम में (पाई जाने वाली बहुत) बड़ी अवज्ञा है। तथा अल्लाह से डरो और अल्लाह तुम्हें सिखाता है और अल्लाह हर चीज़ को ख़ूब जानने वाला है।
۞ وَاِنْ كُنْتُمْ عَلٰى سَفَرٍ وَّلَمْ تَجِدُوْا كَاتِبًا فَرِهٰنٌ مَّقْبُوْضَةٌ ۗفَاِنْ اَمِنَ بَعْضُكُمْ بَعْضًا فَلْيُؤَدِّ الَّذِى اؤْتُمِنَ اَمَانَتَهٗ وَلْيَتَّقِ اللّٰهَ رَبَّهٗ ۗ وَلَا تَكْتُمُوا الشَّهَادَةَۗ وَمَنْ يَّكْتُمْهَا فَاِنَّهٗٓ اٰثِمٌ قَلْبُهٗ ۗ وَاللّٰهُ بِمَا تَعْمَلُوْنَ عَلِيْمٌ ࣖ٢٨٣
Wa in kuntum ‘alā safariw wa lam tajidū kātiban fa riḥānum maqbūḍah(tun), fa'in amina ba‘ḍukum ba‘ḍan falyu'addil-lażi'tumina amānatahū walyattaqillāha rabbah(ū), wa lā taktumusy syahādah(ta), wa may yaktumhā fa'innahū āṡimun qalbuh(ū), wallāhu bimā ta‘malūna ‘alīm(un).
[283]
और यदि तुम किसी सफ़र पर हो और कोई लिखने वाला न पाओ, तो ऐसी गिरवी आवश्यक है जो क़ब्ज़े में ले ली गई हो। फिर यदि तुममें से कोई किसी पर भरोसा करे, तो जिसपर भरोसा किया गया है वह अपनी अमानत अदा करे और अपने पालनहार अल्लाह से डरे। तथा गवाही न छिपाओ और जो उसे छिपाए, तो निःसंदेह उसका दिल पापी है। तथा अल्लाह जो कुछ तुम कर रहे हो, उसे ख़ूब जानने वाला है।
لِلّٰهِ مَا فِى السَّمٰوٰتِ وَمَا فِى الْاَرْضِ ۗ وَاِنْ تُبْدُوْا مَا فِيْٓ اَنْفُسِكُمْ اَوْ تُخْفُوْهُ يُحَاسِبْكُمْ بِهِ اللّٰهُ ۗ فَيَغْفِرُ لِمَنْ يَّشَاۤءُ وَيُعَذِّبُ مَنْ يَّشَاۤءُ ۗ وَاللّٰهُ عَلٰى كُلِّ شَيْءٍ قَدِيْرٌ٢٨٤
Lillāhi mā fis-samāwāti wa mā fil-arḍ(i), wa in tubdū mā fī anfusikum au tukhfūhu yuḥāsibkum bihillāh(u), fayagfiru limay yasyā'u wa yu‘ażżibu may yasyā'(u), wallāhu ‘alā kulli syai'in qadīr(un).
[284]
अल्लाह ही का है जो कुछ आकाशों में और जो धरती में है, और यदि तुम उसे प्रकट करो जो तुम्हारे दिलों में है, या उसे छिपाओ, अल्लाह तुमसे उसका ह़िसाब लेगा। फिर जिसे चाहेगा, माफ़ कर देगा और जिसे चाहेगा, यातना देगा और अल्लाह हर चीज़ पर सर्वशक्तिमान है।
اٰمَنَ الرَّسُوْلُ بِمَآ اُنْزِلَ اِلَيْهِ مِنْ رَّبِّهٖ وَالْمُؤْمِنُوْنَۗ كُلٌّ اٰمَنَ بِاللّٰهِ وَمَلٰۤىِٕكَتِهٖ وَكُتُبِهٖ وَرُسُلِهٖۗ لَا نُفَرِّقُ بَيْنَ اَحَدٍ مِّنْ رُّسُلِهٖ ۗ وَقَالُوْا سَمِعْنَا وَاَطَعْنَا غُفْرَانَكَ رَبَّنَا وَاِلَيْكَ الْمَصِيْرُ٢٨٥
Āmanar-rasūlu bimā unzila ilaihi mir rabbihī wal-mu'minūn(a), kullun āmana billāhi wa malā'ikatihī wa kutubihī wa rusulih(ī), lā nufarriqu baina aḥadim mir rusulih(ī), wa qālū sami‘nā wa aṭa‘nā, gufrānaka rabbanā wa ilaikal-maṣīr(u).
[285]
रसूल उस चीज़ पर ईमान लाए, जो उनकी तरफ़ उनके पालनहार की ओर से उतारी गई तथा सब ईमान वाले भी। हर एक अल्लाह और उसके फ़रिश्तों और उसकी पुस्तकों और उसके रसूलों पर ईमान लाया। (वे कहते हैं) हम उसके रसूलों में से किसी एक के बीच अंतर नहीं करते। और उन्होंने कहा हमने सुना और हमने आज्ञापालन किया। हम तेरी क्षमा चाहते हैं ऐ हमारे पालनहार! और तेरी ही ओर लौटकर जाना है।183
1. इस आयत में सत्धर्म इस्लाम की आस्था तथा कर्म का सारांश बताया गया है।
لَا يُكَلِّفُ اللّٰهُ نَفْسًا اِلَّا وُسْعَهَا ۗ لَهَا مَا كَسَبَتْ وَعَلَيْهَا مَا اكْتَسَبَتْ ۗ رَبَّنَا لَا تُؤَاخِذْنَآ اِنْ نَّسِيْنَآ اَوْ اَخْطَأْنَا ۚ رَبَّنَا وَلَا تَحْمِلْ عَلَيْنَآ اِصْرًا كَمَا حَمَلْتَهٗ عَلَى الَّذِيْنَ مِنْ قَبْلِنَا ۚ رَبَّنَا وَلَا تُحَمِّلْنَا مَا لَا طَاقَةَ لَنَا بِهٖۚ وَاعْفُ عَنَّاۗ وَاغْفِرْ لَنَاۗ وَارْحَمْنَا ۗ اَنْتَ مَوْلٰىنَا فَانْصُرْنَا عَلَى الْقَوْمِ الْكٰفِرِيْنَ ࣖ٢٨٦
Lā yukallifullāhu nafsan illā wus‘ahā, lahā mā kasabat wa ‘alaihā maktasabat, rabbanā lā tu'ākhiżnā in nasīnā au akhṭa'nā, rabbanā wa lā taḥmil ‘alainā iṣran kamā ḥamaltahū ‘alal-lażīna min qablinā, rabbanā wa lā tuḥammilnā mā lā ṭāqata lanā bih(ī), wa‘fu ‘annā, wagfir lanā, warḥamnā, anta maulānā fanṣurnā ‘alal qaumil-kāfirīn(a).
[286]
अल्लाह किसी प्राणी पर भार नहीं डालता परंतु उसकी क्षमता के अनुसार। उसी के लिए है जो उसने (नेकी) कमाई और उसी पर है जो उसने (पाप) कमाया। ऐ हमारे पालनहार! हमारी पकड़ न कर यदि हम भूल जाएँ या हमसे चूक हो जाए। ऐ हमारे पालनहार! और हमपर कोई भारी बोझ न डाल, जैसे तूने उसे उन लोगों पर डाला जो हमसे पहले थे। ऐ हमारे पालनहार! और हमसे वह चीज़ न उठवा जिस (के उठाने) की हम में शक्ति न हो। तथा हमें माफ़ कर और हमें क्षमा कर दे और हमपर दया कर। तू ही हमारा स्वामी (संरक्षक) है, इसलिए काफ़िरों के मुक़ाबले में हमारी मदद कर।