Surah Al-Kafirun
بِسْمِ اللّٰهِ الرَّحْمٰنِ الرَّحِيْمِ
قُلْ يٰٓاَيُّهَا الْكٰفِرُوْنَۙ١
Qul yā ayyuhal-kāfirūn(a).
[1]
(ऐ नबी!) आप कह दीजिए : ऐ काफ़िरो!
لَآ اَعْبُدُ مَا تَعْبُدُوْنَۙ٢
Lā a‘budu mā ta‘budūn(a).
[2]
मैं उसकी इबादत नहीं करता, जिसकी तुम इबादत करते हो।
وَلَآ اَنْتُمْ عٰبِدُوْنَ مَآ اَعْبُدُۚ٣
Wa lā antum ‘ābidūna mā a‘bud(u).
[3]
और न तुम उसकी इबादत करने वाले हो, जिसकी मैं इबादत करता हूँ।
وَلَآ اَنَا۠ عَابِدٌ مَّا عَبَدْتُّمْۙ٤
Wa lā ana ‘ābidum mā ‘abattum.
[4]
और न मैं उसकी इबादत करने वाला हूँ, जिसकी इबादत तुमने की है।
وَلَآ اَنْتُمْ عٰبِدُوْنَ مَآ اَعْبُدُۗ٥
Wa lā antum ‘ābidūna mā a‘bud(u).
[5]
और न तुम उसकी इबादत करने वाले हो, जिसकी मैं इबादत करता हूँ।
لَكُمْ دِيْنُكُمْ وَلِيَ دِيْنِ ࣖ٦
Lakum dīnukum wa liya dīn(i).
[6]
तुम्हारे लिए तुम्हारा धर्म तथा मेरे लिए मेरा धर्म है।1
1. (1-6) पूरी सूरत का भावार्थ यह है कि इस्लाम में वही ईमान (विश्वास) मान्य है, जो पूर्ण तौह़ीद (एकेश्वर्वाद) के साथ हो, अर्थात अल्लाह के अस्तित्व तथा गुणों और उसके अधिकारों में किसी को साझी न बनाया जाए। क़ुरआन की शिक्षानुसार जो अल्लाह को नहीं मानता, और जो मानता है परंतु उसके साथ देवी-देवताओं को भी मानात है, तो दोनों में कोई अंतर नहीं। उसके विशेष गुणों को किसी अन्य में मानना उसको न मानने ही के बराबर है और दोनों ही काफ़िर हैं। (देखिए : उम्मुल किताब, मौलाना आज़ाद)