Surah Al-`Asr
بِسْمِ اللّٰهِ الرَّحْمٰنِ الرَّحِيْمِ
وَالْعَصْرِۙ١
Wal-‘aṣr(i).
[1]
अस्र के समय की क़सम!
اِنَّ الْاِنْسَانَ لَفِيْ خُسْرٍۙ٢
Innal-insāna lafī khusr(in).
[2]
निःसंदेह इनसान घाटे में है।1
1. (1-2) 'अस्र' का अर्थ निचोड़ना है। युग तथा संध्या के समय के भाग के लिए भी इसका प्रयोग होता है। और यहाँ इसका अर्थ युग और दिन का अंतिम समय दोनों लिया जा सकता है। इस युग की गवाही इस बात पर पेश की गई है कि इनसान जब तक ईमान (सत्य विश्वास) के गुणों को नहीं अपनाता, विनाश से सुरक्षित नहीं रह सकता। इसलिए कि इनसान के पास सबसे मूल्यवान पूँजी समय है, जो तेज़ी से गुज़रता है। इसलिए यदि वह परलोक का सामान न करे, तो अवश्य क्षति में पड़ जाएगा।
اِلَّا الَّذِيْنَ اٰمَنُوْا وَعَمِلُوا الصّٰلِحٰتِ وَتَوَاصَوْا بِالْحَقِّ ەۙ وَتَوَاصَوْا بِالصَّبْرِ ࣖ٣
Illal-lażīna āmanū wa ‘amiluṣ-ṣāliḥāti wa tawāṣau bil-ḥaqq(i), wa tawāṣau biṣ-ṣabr(i).
[3]
सिवाय उन लोगों के जो ईमान लाए तथा उन्होंने सत्कर्म किए और एक-दूसरे को सत्य की ताकीद की और एक-दूसरे को धैर्य की ताकीद की।2
2. इसका अर्थ यह है कि परलोक की क्षति से बचने के लिए मात्र ईमान ही पर बस नहीं, इसके लिए सदाचार भी आवश्यक है और उसमें से विशेष रूप से सत्य और सहनशीलता और दूसरों को इनकी शिक्षा देते रहना भी आवश्यक है। (तर्जुमानुल क़ुरआन, मौलाना आज़ाद)