Surah Al-Fatihah
بِسْمِ اللّٰهِ الرَّحْمٰنِ الرَّحِيْمِ١
Bismillāhir-raḥmānir-raḥīm(i).
[1]
अल्लाह के नाम से, जो अत्यंत दयावान्, असीम दया वाला है।
اَلْحَمْدُ لِلّٰهِ رَبِّ الْعٰلَمِيْنَۙ٢
Al-ḥamdu lillāhi rabbil-‘ālamīn(a).
[2]
हर प्रकार की प्रशंसा उस अल्लाह1 के लिए है, जो सारे संसारों का पालनहार2 है।
1. 'अल्लाह' का अर्थ 'ह़क़ीक़ी पूज्य' है। जो संसार के रचयिता, विधाता के लिए विशिष्ट है। 2. 'पालनहार' होने का अर्थ यह है कि जिस ने इस संसार की रचना करके इसके प्रतिपालन की ऐसी विचित्र व्यवस्था की है कि सभी को अपनी आवश्यक्ता तथा स्थिति के अनुसार सब कुछ मिल रहा है। यह संसार का पूरा कार्य, सूर्य, वायु, जल, धरती सब जीवन की रक्षा एवं जीवन की प्रत्येक योग्यता की रखवाली में लगे हुए हैं। इससे सत्य पूज्य का परिचय एवं ज्ञान होता है।
الرَّحْمٰنِ الرَّحِيْمِۙ٣
Ar-raḥmānir-raḥīm(i).
[3]
जो अत्यंत दयावान्, असीम दया वाला3 है।
3. अर्थात वह संसार की व्यवस्था एवं रक्षा अपनी अपार दया से कर रहा है। अतः प्रशंसा एवं पूजा के योग्य भी मात्र वही है।
مٰلِكِ يَوْمِ الدِّيْنِۗ٤
Māliki yaumid-dīn(i).
[4]
जो बदले4 के दिन का मालिक है।
4. बदले के दिन से अभिप्राय प्रलय का दिन है। आयत का भावार्थ यह है कि सत्य धर्म बदले के नियम पर आधारित है। अर्थात जो जैसा करेगा वैसा भरेगा। जैसे कोई जौ बोकर गेहूँ की, तथा आग में कूदकर शीतल होने की आशा नहीं कर सकता, ऐसे ही भले-बुरे कर्मों का भी अपना स्वभाविक गुण और प्रभाव होता है। फिर संसार में भी कुकर्मों का दुष्परिणाम कभी-कभी देखा जाता है। परंतु यह भी देखा जाता है कि दुराचारी और अत्याचारी सुखी जीवन निर्वाह कर लेता है, और उसकी पकड़ इस संसार में नहीं होती। इसलिए न्याय के लिए एक दिन अवश्य होना चाहिए। उसी का नाम 'क़ियामत' (प्रलय का दिन) है। "बदले के दिन का मालिक" होने का अर्थ यह है कि संसार में भी उसने इनसानों को अधिकार और राज्य दिए हैं। परंतु प्रलय के दिन सब अधिकार उसी का रहेगा। और वही न्यायपूर्वक सबको उनके कर्मों का प्रतिफल देगा।
اِيَّاكَ نَعْبُدُ وَاِيَّاكَ نَسْتَعِيْنُۗ٥
Iyyāka na‘budu wa iyyāka nasta‘īn(u),
[5]
(ऐ अल्लाह!) हम तेरी ही इबादत करते हैं और तुझी से सहायता माँगते5 हैं।
5. इन आयतों में प्रार्थना के रूप में मात्र अल्लाह ही की पूजा और उसी को सहायतार्थ गुहारने की शिक्षा दी गई है। इस्लाम की परिभाषा में इसी का नाम 'तौह़ीद' (एकेश्वरवाद) है, जो सत्य धर्म का आधार है। और अल्लाह के सिवा या उसके साथ किसी देवी-देवता आदि को पुकारना, उसकी पूजा करना, किसी प्रत्यक्ष साधन के बिना किसी को सहायता के लिये गुहारना, किसी व्यक्ति और वस्तु में अल्लाह का कोई विशेष गुण मानना आदि एकेश्वरवाद (तौह़ीद) के विरुद्ध हैं जो अक्षम्य पाप हैं। जिसके साथ कोई पुण्य का कार्य मान्य नहीं।
اِهْدِنَا الصِّرَاطَ الْمُسْتَقِيْمَۙ٦
Ihdinaṣ-ṣirāṭal-mustaqīm(a).
[6]
हमें सीधे मार्ग पर चला।
صِرَاطَ الَّذِيْنَ اَنْعَمْتَ عَلَيْهِمْ ەۙ غَيْرِ الْمَغْضُوْبِ عَلَيْهِمْ وَلَا الضَّاۤلِّيْنَ ࣖ٧
Ṣirāṭal-lażīna an‘amta ‘alaihim, gairil-magḍūbi ‘alaihim wa laḍ-ḍāllīn(a).
[7]
उन लोगों का मार्ग, जिनपर तूने अनुग्रह किया।6 उनका नहीं, जिनपर तेरा प्रकोप7 हुआ और न ही उनका, जो गुमराह हैं।
6. इस आयत में सीधे मार्ग का चिह्न यह बताया गया है कि यह उनका मार्ग है, जिनपर अल्लाह का पुरस्कार हुआ। उनका नहीं, जो प्रकोपित हुए और न उनका, जो सत्य मार्ग से बहक गए। 7. 'प्रकोपित' से अभिप्राय वे हैं, जो सत्य धर्म को, जानते हुए, मात्र अभिमान अथवा अपने पुर्वजों की परंपरागत प्रथा के मोह में अथवा अपनी बड़ाई के जाने के भय से, नहीं मानते। 'गुमराह' से अभिप्रेत वे हैं, जो सत्य धर्म के होते हुए, उससे दूर हो गए और देवी-देवताओं आदि में अल्लाह के विशेष गुण मानकर उनको रोग निवारण, दुःख दूर करने और सुख-संतान आदि देने के लिए गुहारने लगे।